20 February, 2015

उन्निस फरवरी सन् दो हजार पंद्रह। दिल्ली।

जिंदगी की अपनी हैरतें हैं. आड़ी तिरछी गलियों से गुज़रती हुयी लड़की अक्सर सोचती कि इन मकानों में कैसे लोग रहते होंगे. इन जाली लगी खिड़कियों के पीछे वो कौन सा खजाना छुपा रहता होगा कि दिन भर खोजी आँखें रखने वाली बूढ़ी औरतें इन खिड़कियों से सटे हुए बरामदों में ताक झाँक करती रहती हैं. वहां की बालकनियों में दम घुटता था. लड़की अब इन सब से दूर खुली हवा वाले अपने शहर तक लौट जाना चाहती थी. 

उसे कहीं जाना न था. न किसी शहर. न किसी की बांहों में. फिर भी जब वो पास होता तो एक शहर उगने लगता उसकी आँखों में. इस शहर का तिलिस्म सब लड़की के दिल में था. लड़की की कल्पनाओं में बड़े चमकीले रंग थे. बड़े सुहाने लोग. यहाँ इंतज़ार सी रातें नहीं थीं. सब चाहना पर मिल जाने वाला हुआ करता था. इस शहर में कभी बिछड़ना नहीं होता था. मगर ये शहर दुनिया को रास नहीं आता था. जब भी वे इस शहर की निशानियाँ पाते, वहां दंगा करवा देने की साजिशें बुनते. सटे हुए मकानों में चुपके चुपके बनाये हुए घरेलू बम फेंका करते. सिर्फ जरा से केरोसीन और कुछ और तत्वों को मिला कर एक शीशे की बोतल में डाल देना होता था बस. ये वो बोतलें हुआ करती थीं जिनमें आला दर्जे की शराब रखी होती थी. लड़की की ख्वाहिशों में इन खाली बोतलों में लिखने को चिट्ठियां थीं. दंगे में लगी आग में सारी चिट्ठियों के पते जल गए थे. आग बुझाने के लिए नदी से पानी लाना पड़ता था मगर नदी का सारा पानी लड़की की आँखों ने सोख लिया था. यूँ आग तो रेत से भी मिट जाती मगर उसमें बहुत वक़्त लग जाता. लड़की ने किताब बंद की और शहर को हमेशा के लिए भुला दिया. 

मगर जिंदगी. घेर कर मारने की साजिशें रचती है. इक रोज़ इक सादा सी दिखने वाली किताब में उस शहर का दरवाजा खुल गया. लड़की बेख्याली में चल रही थी उसने ठीक ठीक देखा नहीं कि वो किस शहर में दाखिल हो रही है. यूँ भी ख़त्म तो कुछ भी कभी भी नहीं होता. अब शहर में कुछ नहीं बचा था. लेकिन फिर भी धुआं बदस्तूर उठ रहा था. फूलों की क्यारियों में किसी के जले हुए दिल की गंध उग रही थी. चाह से आ जाने वाले लोगों के पैर काट दिए गए थे और वे घिसट रहे थे. राहों में चीखें थीं मगर हवा में बिखरती हुयी नहीं हेडफोन से सीधे कान और दिल में उतरती हुयी. लड़की के इर्द गिर्द शोर एकदम नहीं था इसलिए उसे साफ़ सुनाई पड़ता था जब वो देर रात के नशे में उसका नाम पुकारता. लड़की उसके लिखे हर शब्द, हर वाक्य, हर किरदार को तोड़ कर अपना नाम ढूंढती और जब उसे नहीं मिलता कोई भी दिलासा तो वो कान से हेड फोन निकाल देती और बहुत तेज़ तेज़ स्केटिंग करती. रोलर ब्लेड्स वाले स्केट्स काले रंग के हुआ करते और खुदा के सिवा किसी को दिखाई नहीं पड़ता कि वो क्या कर रही है. खुदा के क्लोज्ड सर्किट कैमरा में हाई ऐंगिल शॉट में दिखता कि वो फिर से उसका नाम लिख रही है...नृत्य की हर थाप में...तेज़ और तेज़ गुज़रते हुए शहर के मलबे को विभक्त करती लड़की खुद नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए. 

उसके सिरहाने सूखे गुलाबों की किरमिच किरमिच गंध थी जो पीले रंग के इत्र में डूबे हुए थे. लड़की का दिल मगर खाली था कि उसे सारे दोस्त उसे ठुकरा के चले गए थे इश्क वाले किसी शहर. वो रोना चाहती थी बहुत तेज़ तेज़ मगर उसे अकेले रोने से डर लगता था. 

वो उसे सिर्फ एक बार देखना चाहती थी. मगर खुदा के स्पाईकैम से दूर...वो ये भी चाहती थी कि उससे मिलना कुछ ऐसे हो कि वो खुदा को उलाहना दे सके कि ये मुलाकात तुमने नहीं मैंने खुद लिखी है. लड़की जब भी क्वाइन टॉस करती तो हमेशा हेड्स चुनती कि हेड्स पर लिखा होता 'सत्यमेव जयते'. उसे लगा जिंदगी मे न सही कमसे कम किस्मत में तो सच की जीत हो. तो उसने कहा हेड्स और सिक्के को उछाल दिया. सिक्का गिरा तो उसपर १ लिखा हुआ था और थम्स अप का निशान था. लड़की ने भी ऊपर वाले को ठेंगा दिखाया और उससे मिलने चली गयी. 

तकलीफों को गले लगाने वाले लोग होते हैं. बेचैनियों से इश्क करने वाले भी. घबराहट में डूबे. साँस साँस अटकते. किसी शहर के इश्क में पागल होते. उनकी आँखों में सियाह मौसम रहते हैं. बस उनकी हँसी बड़ी बेपरवाह होती है. वे दिन भर खुद को बाँट देते हैं पूरे शहर शहर...घर लौटते हुए रीत जाते हैं. फिर उनकी सुनसान रातों में ऐसा ही संगीत होता है कि खुद को जान देने से बचा लेना हर दिन का अचीवमेंट होता है. 

लड़की सुबह के नीम अँधेरे में बहुत फूट फूट कर रोना चाहती है कि उसे डर लगता है. सियाह अँधेरे से. खालीपन से. इश्क से. नीम बेहोशी से. उसके नाम से. उसकी आँखों से. उसके हाथों से. उसके काँधे में गुमसी हुयी खुशबू से. उसकी जेब में अटकी रह आई आपनी साँसों से. उसकी बांहों में रहते हुए कहे झूठमूठ के आई लव यू से. सियाह रंग से. उससे मिलने से. अलविदा कहने से. डरती है वो. बहुत. बहुत. बहुत. न तो खुदा न शैतान ही उसे अपनी बांहों में भर कर कहता है कि सब ठीक हो जाएगा. 

हम जी कहीं भी सकते हैं मगर हम कहाँ जिन्दा रहते हैं वो शहर हमें खुद चुनना पड़ता है और जब ये शहर मौजूद नहीं होता तो इस शहर को हमें खुद बनाना पड़ता है. कतरा कतरा जोड़ कर मकान. नदी. समंदर. लोग. दोस्तियाँ. मुहब्बत. मयखाने. जाम. बारिश. सब.

जब ये सब बन जाता है और वो शहर हमारे लिए परफेक्ट हो जाता है. तब हम किसी अजनबी शहर में जा कर आत्महत्या करना चाहते हैं. 

उसने मेरी आँखों में देख कर कहा मुझसे. ही नेवर लव्ड मी. मुझे उसके सच कहने की अदा पर उससे फिर से प्यार हो आया.
 
शहर खतरनाक था. उस तक लौट कर जाना भी. बुरी आदतों की तरह. सिगरेट का कश उसने अन्दर खींचा तो रूह का कतरा कतरा सुलग उठा. लड़की तड़प उठी. तकलीफों की आदत ख़त्म हो गयी थी पिछले कई सालों में. 

जाते हुए लड़की ने शहर के दरवाजे पर पासवर्ड लगा दिया और खुद को भरोसा दिलाया कि पासवर्ड भूल जायेगी. नाइंटीन फेब्रुअरी टू थाउजेंड फिफ्टीन. 

उसने खुद को कहीं भुला देना चाहा. कई सारे नक्शों को फाड़ देने के बाद उसे याद आया कि सब बेमानी है कि उसे उसका फोन नंबर याद था. 

उसका सुसाइड नोट उसके स्वभाव से एकदम इतर था. छोटा सा. सिर्फ एक लाइन का.  'तुम कोई अपराध बोध मत पालना. मैंने तुम्हें सिर्फ अपने लिए चाहा था'. 

12 February, 2015

किसकी हँसी का अबरख है...मेरी शामों को चमकाता हुआ


उसकी ख़ुशी लोगों की आँखों में चुभती थी जैसे जेठ की धूप. वे उमस और पसीने से भरे दिन थे कि जिसे मेहनतकश लोग अपने अपने वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ कर बड़ी मुश्किल काटा करते थे. वे बॉस के डांट खा कर खिसियाये हुए घर लौटने के दिन थे. उन दिनों उनकी महँगी कारों में धूप से बचने के लिए परदे नहीं लगे थे. उसपर वो लड़की की चौंधियाने वाली हंसी जैसे हाई बीम पर हाइवे में आती गाड़ी...आँखें बंद बंद हुयी जाती थीं कि नहीं देखा जाता था इस तरह किसी का सुख.

उसमें शर्म नाम की कोई चीज़ नहीं थी...उसे बचपन में नहीं सिखाया गया था कि लड़कियों को ठहाके नहीं मारने चाहिए. बचपन में उसे ये भी नहीं बताया गया था कि दिलों से खेलना एक बुरा खेल है. इस खेल के खतरनाक खतरे हैं. वो बेपरवाह थी. अल्हड़ और बेलौस. छत पर बैठ जाती हाथों में आइना लिए और गली से जाते सारे लड़कों की आँखों में चौंधती रहती धूप. ऐसे ही में एक दिन वो लड़का मोड़ पर तेज़ रफ़्तार बाईक उड़ाता आ रहा था कि टर्न पर जैसे ही बाईक घूमी कि धूप के टुकड़े से उसकी आंखें बंद हो गयीं...तीखे मुड़ कर बाइक गिरी और स्किड करती हुयी ठीक उसके घर के दरवाजे पर जा टकराई. शोर बहुत ज्यादा था मगर लड़की का ठहाका इस सब के बावजूद सबके कानों में चुभ रहा था. वे उसके हँसते चेहरे पर एसिड फ़ेंक देना चाहते थे कि लड़की के जिंदगी के इसी हिस्से पर उनकी पकड़ थी...उसका शरीर...उसकी रूह तक वे पहुँचने की सोच भी नहीं सकते थे. मोहल्ले के लड़के उसे घेर कर रगेद देने के दुस्वप्नों में जीते थे. मोहल्ले के अधेड़ उसे किसी अँधेरे कोने में फुसला कर घर ले आने के बहकावे में. बची मोहल्ले की औरतें. वे बस चाहती थीं कि जल्दी से किसी ऊपर से रईस दिखने वाले घर में इसका ब्याह हो जाए, मगर असल में उसका ससुराल इतना गरीब हो कि उससे बर्तन मंजवाये जायें, चादरें धुलवाई जायें और सुबह शाम कमसे कम सौ रोटियां गिन कर बनवाई जायें. फिर वे उसके मायके की हमदर्द बन कर उसे संदेसा भेजें..क्या हुआ पारो अब तुम्हारी हंसी नहीं गूंजती. सारी औरतें मन्नत मांगें कि ससुराल वाले उसे आग लगा कर मार डालें ताकि उसके पति की दूसरी शादी में भर भर प्लेट खाना खाते हुए वे उस मरी हुयी को कुलच्छनी और बाँझ कहते हुए अपने कलेजे की आग को ठंढा कर सकें. किसी की बेख़ौफ़ हंसी में बहुत धाह होती है. उससे पड़े हुए छाले ऐसे ही फ्री की शादी की पार्टी में खाए अनगिनत आइसक्रीम के कप्स से ठंढक पाते हैं.

गड़बड़ ये थी कि उसके पूरे मोहल्ले में किसी ने पिछले कई सारे जन्मों तक कोई पुण्य नहीं किया था कि उनके ऐसे भाग खुलते. ऐसे लड़की तो जिस मिट्टी में पैदा होती है वहाँ अगले पच्चीस सालों तक कुछ ढंग का नहीं उगता. खलिहानों में पाला पड़ जाता है. उसके लड़कपन तक पहुँचते पहुँचते गाँव मोहल्ले के लड़के उसके इश्क में पागल हो कर एक दूसरे को मार काट डालते हैं मगर उसकी हँसी तक लहू का एक कतरा भी नहीं पहुँचता. दुखियारी माएँ उसे सरापते सरापते उम्र से पहले बुड्ढी खूसट हो जाती हैं.

वो कोरी सड़कों पर अपनी हंसी बिखेरती चलती. उसके अल्हड़पने पर सिर्फ सड़क और पेड़ों को प्यार आता. आता जाता हर कोई उसे कौतुहल से देखता था. उदास चेहरों वाली इस दुनिया में इस तरह बेवजह खिलखिलाने वाले लोगों को पागल कहा जाता था. सब उसके चेहरे पर से ये हँसी मटियामेट कर देना चाहते थे. मगर उसकी हँसी में धाह थी इसलिए सब डरते थे उससे. लड़की अपनी ही दुनिया में रहती. न किसी की सुनती...न कुछ देखती जिससे तकलीफ हो. शाम के रंग चुनती और टांक लेती दुपट्टे में उसके नाम का शीशा कोई...देखती चाँद को और भेजती फ्लाइंग किस...छत पर खड़े लड़के खुद को चाँद समझते. अमावस की रात को कोसते. उसकी हँसी की चांदनी में भीगते हुए भी वे उसकी हँसी छीन कर अपने होठों पर चिपका लेना चाहते थे...किसी तस्वीर में धर देना चाहते थे...किसी रेडियो के ऐड में बजा देना चाहते थे. उसकी हँसी कहीं और होनी चाहिए थी. उसके होटों पर नहीं. कोई इतना सारा बेवजह हंसता है भला.

तो क्या हुआ अगर उसे मुहब्बत हुयी थी. तो क्या हुआ अगर महबूब की आवाज़ सुन कर उसे गुदगुदी होती थी. बात बस इतनी ही तो नहीं थी. वो क्यूँ छलकी छलकी पड़ती थी. वो क्यूँ खुद को बिखेरती चलती थी. वो सिमट कर क्यूँ नहीं रहती थी? आखिर उसका दुपट्टा किसी बाजारू औरत की आबरू तो नहीं था कि कोई भी हाथ दे...फिर वो राह चलते दुपट्टा क्यूँ लहराती थी...बाकी लड़कियों की तरह कानी ऊँगली में एक कोना लपेट कर जमीन की ओर ताकती हुयी...करीने से दुपट्टे को सीने के इर्द गिर्द कस कर लपेटे हुए क्यूँ नहीं चलती थी. गले में इतनी बेपरवाही से डालते हैं दुपट्टा? उसपर उसकी हंसी का अबरख...किरमिच किरमिच आँखों में चुभता था. उसके उड़ते दुपट्टे से जरा जरा गिरती अबरख और सड़क दुल्हन की चूनर जैसी चमकती. आँखें तरेरती हर लड़के को उसे यूँ देखता जाता था जैसे आँखें कान हो गयी हों और उसकी हंसी को रिकोर्ड कर लेंगी. बार बार प्ले कर के घिस देने के लिए.

आइना उसे बार बार समझाता. इतना हँसना अच्छी बात नहीं है. मान लो हँसना ही है तो अकेले में हँस लो. ऐसे सबके सामने हँसोगी तो नज़र लग जायेगी सबकी. चुपचाप एक कोने में बैठो और जितना जी करे ठहाके लगाओ. यूँ हँसने का वक़्त तय करो. नियत समय पर हँसो. चूरन की तरह दो चम्मच सुबह, दो चम्मच शाम. जिंदगी में बस गिन के मिलती हैं मुस्कुराहटें. तुम जो इतनी हंसती हो, लोगों को लगता है तुम उनके हिस्से की हँसी चुरा कर हँस रही हो. तुम्हें वे जेल में डाल देंगे. ज़माने से डरो री लड़की. 

पहले सारी लड़कियां ऐसी ही हुआ करती थीं...बेपरवाह....खुल कर हंसने वालीं...फिर उनकी जिंदगी में इश्क दाखिल होता था...बड़े हौले से...नन्हे नन्हे कदम बढ़ाता...और बस, लड़कियां हँसना छोड़ कर इंतज़ार करना शुरू कर देतीं...उनकी हंसी खुद के लिए न होकर सिर्फ उस एक महबूब के लिए होने लगतीं...वे अपनी हँसी से ज्यादा उसकी आँखों का ख्वाब बनना चाहतीं. फिर आँखों का ख्वाब कब बरसातों में घुलने लगता कोई नहीं जानता. और दुनिया की नज़र तो होती ही इतनी बुरी है कि चुभनी ही थी एक न एक रोज़.

बस तब से चुप है लड़की...अब नियम से हंसती है. एक छटांक सुबह. एक छटांक शाम. शहर. मोहल्ले. के लोग चैन से सोते हैं. मगर बूढी औरतों के सीने में उसकी चुप्पी चुभती है और वे रात रात उसकी हँसी वापस लौट आने की दुआएँ मांगती हैं. 

आमीन.

02 February, 2015

जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती...



सुनो कवि,

अकेले में तुम्हें समझाते समझाते थक गयी हूँ इसलिए ये खुला ख़त लिख रही हूँ तुम्हें. तुम ऐसे थेत्थर हो कि तुमपर न लाड़ का असर होता है न गाली का. कितना उपाय किये. हर तरह से समझाए. पूरा पूरा शाम तुम्हारे ही लिखे से गुजरते रहे...तुम्हें ही दिखाने के लिए कि देखो...तुम ही देखो. एक ज़माने में तुम ही ऐसा लिखा करते थे. ये तुम्हारे ही शब्द हैं. लिखने वाले लोग कभी किसी का लिखा पढ़ कर 'बहुत अच्छा' जैसा बेसिरपैर का जुमला नहीं फेंकते. अच्छा को डिफाइन करना हमारा फ़र्ज़ है कि हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा. 

तो सुनो. मैं तुमसे लिखने क्यूँ कहती हूँ. किसी छोटे शहर से आकर बड़े शहर में बसे हम विस्थापितों का समय है ये. हमारे समय की कहानियां या तो चकाचौंध में दबा दी जा रही हैं या मन के राग, द्वेष और कुंठा से निकली गालियों में छुपा दी जा रही हैं. हमारे समयकाल का दस्तावेज लिखने के लिए दो चीज़ें बेहद आवश्यक हैं...एक तो वो नज़र कि बारीकी से चीज़ों को देख सके...बिना उद्वेलित हुए उनकी जांच पड़ताल कर सके. गहराई में चीज़ों को समझे न कि सिर्फ ऊपर ऊपर की कहानी बयान करे. दूसरी जो चीज़ जरूरी है वो है इस मुश्किल समय को लिखने का हुनर. तलवार की धार पर चलना ऐसे कि चीज़ों की तस्वीर भी रहे मगर ऐसे ऐंगिल से चीज़ें दिखें भी और रोचक भी हों. कि समझो डौक्यूमेंटरी बनानी है. सीधे सीधे रिपोर्ट नहीं लिखना है दोस्त, फीचर लिखना है. तुम तो जानते हो रिपोर्ट अख़बार में छपती है और अगले दिन फ़ेंक दी जाती है. फीचर की उम्र लम्बी होती है. अभी तुमपर ज्यादा दबाव डालूंगी तो तुम मेरी चिट्ठी भी नहीं पढ़ोगे इसलिए धीमे धीमे कहेंगे कि फिर लिखना शुरू करो. रेगुलर लिखना शुरू करो. इस बात को समझो कि निरंतर बेहतरीन लिखना जरूरी नहीं है. ख़राब लिखने से उपजने वाले गिल्ट से खुद को मुक्त करो. तुम पाओगे कि जब तुममें अपराधबोध नहीं होता या यूं कहूं कि अपराधबोध का डर नहीं होता तो तुम खुद से बेहतरीन लिखते हो. 

राइटर्स ब्लॉक से हर लेखक का सामना होता है. तुम भी गुज़र रहे हो इसको मैं समझ सकती हूँ. मगर इस ठहरे हुए समय के दरमयान भी लिखने की जरूरत है. मान लो ओरिजिनल नहीं लिख पा रहे तो लिखने की आदत बरक़रार रखने के लिए समीक्षाएं लिखो. तुम आजकल क्या पढ़ रहे हो...कौन सी फिल्में देख रहे हो...कैसा संगीत सुन रहे हो. घर से दफ्तर आते जाते कितनी चीज़ों को सहेज देना चाहते होगे. लिखने को उस तरह से ट्रीट कर लो. ये क्या जिद है कि ख़राब लिखने में डर लगता है. ख़राब कुछ नहीं होता. जो तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा शायद उसमें कोई और अपना अक्स देख पाए. देखो तुमसे और मुझसे बेहतर कौन जानेगा कि घटिया से घटिया चीज़ कुछ न कुछ अच्छा दे जाती है. वाहियात पौर्न फिल्म का कोई एक सीन होता है जिसमें ऐक्ट्रेस अपने अभिनय से अलग हट कर महज एक स्त्री रह जाती है...मर्द की वर्नारेबिलिटी का एक क्षण कैमरा पकड़ लेता है. पल्प फिक्शन का कोई किरदार ऐसी गूढ़ बात कह जाता है कि जिंदगी के सारे फलसफे झूठे लगते हैं.

देखो न, सही और गलत, सच और झूठ, अच्छा और बुरा के खांचे में चीज़ों को फिट करने वाले हम और तुम कौन लोग होते हैं. बताओ भला, हम किस खांचे में आते हैं? मैं और तुम किस खांचे में आते हैं? मैं क्या लगती हूँ तुम्हारी? पाठक, क्रिटिक, प्रेमिका, बहन, माँ, दोस्त...कोई पुरानी रिश्तेदार? किस किस सरहद में बाँधोगे?  ये भी तो नहीं कह सकते कि गलत है...इतना बात करना गलत है. तुम जाने कितनी सदियों से मेरी इस प्यास के लिए सोख्ता बने हुए हो. दुनिया में अगर कोई एक शख्स मुझे पूरी तरह जानता है तो वो तुम हो...शायद कई बार मुझसे भी बेहतर. मुझे कभी कभी लगता है हम पैरलल मिरर्स हैं...एक दूसरे के सामने रखे हुए आईने. एक दूसरे के एक्स्टेंशन. हममें जो उभरता है कहीं बहुत दूर दूर तक एक दूसरे में प्रतिबिंबित होता है. अनंत तक. हमारी कहानियों जैसा. क्लास में एक्जाम देते वक़्त होता था न...पेन में इंक ख़त्म हो गयी तो साथी से माँग लिया. वैसे ही कितनी बार मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता तो तुमसे माँग लेती हूँ...बिम्ब...डायलॉग्स...किरदार...तुम्हारी हंसी...तुम्हारी गालियाँ. कितना कुछ तो. तुम मांगने में इतना हिचकते क्यूँ हो. इतनी कृपण नहीं हूँ मैं. 

तुम्हारे शब्दों में मैंने कई बार खुद को पाया है...कई बार मरते मरते जीने का सबब तलाशा है...कई बार मुस्कुराहटें. मैं एकलौती नहीं हूँ. तुम जो लिखते हो उसमें कितनी औरतें अपने मन का वो विषाद...वो सुख...वो मरहम पाती हैं जो सिर्फ इस अहसास से आता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं. कहीं एक कवि है जो हमारे मन की ठीक ठीक बात जानता है. ये औरत तुम्हारी माँ हो सकती है, तुम्हारी बहन हो सकती है...तुम्हारी बीवी हो सकती है. इस तरह उनके मन की थाह पा लेना आसान नहीं है दोस्त. ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुम पर सरस्वती की कृपा है. इसे वरदान कह लो या अभिशाप मगर ये तुम्हारे साथ जिंदगी भर रहेगा. मुझे समझ नहीं आता कि तुम लिख क्यूँ नहीं रहे हो...क्या तुम्हें औरतों की कमी हो गयी है? क्या माँ से बतियाना बंद कर दिए हो...क्या बहन अपने घर बार में बहुत व्यस्त हो गयी है...क्या प्रेमिका की शादी हो गयी है(फाइनली?)...या फिर तुम्हारी दोस्तों ने भी थक कर तुमसे अपने किस्से कहने बंद कर दिए हैं? अब तुम लिखने के बजाये घुन्ना जैसा ये सब लेकर अन्दर अन्दर घुलोगे तो कौन सुनाएगा तुमको अपनी कहानी! 

देखो. अकेले कमरे में बैठ कर रोना धोना बहुत हुआ. बहुत दारू पिए. बहुत सुट्टा मारे. बहुत ताड़ लिए पड़ोस का लड़की. अब जिंदगी का कोई ठिकाना लगाओ कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है तुम्हारे काँधे पर. अगर तुम इस जिम्मेदारी से भागे तो कल खुद से आँख मिला नहीं पाओगे. उस दिन भी हम तुमसे सवाल करेंगे कि हम जब कह रहे थे तो सुने क्यों नहीं. हालाँकि हम जानते हैं कि जिद और अक्खड़पने में तुम हम से कहीं आगे हो लेकिन फिर भी...सोच के देखो क्या हम गलत कह रहे हैं? खुद को बर्बाद करके किसी को क्या मिला है. जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती. जान देने के लिए भी कलम में तेज़ धार चाहिए. कि कट एकदम नीट लगे. मरने में भी खूबसूरती होनी चाहिए.

और सुनो. हम तुमसे बहुत बहुत प्यार करते हैं. जितना किसी और से किये हैं उससे कहीं ज्यादा. मगर इस सब में तुम्हारे लिखने से बहुत ज्यादा प्यार रहा है. तुम जब लिखते हो न तो उस आईने में हम संवरने लगते हैं. ले दे के हर व्यक्ति स्वार्थी होता है. शायद तुम्हारे लिखे में अपने होने को तलाशने के लिए ही तुमसे कह रहे हैं. मगर जरा हमारे कहने का मान रखो. इतना हक बनता है मेरा तुम पर. कोई पसंद नहीं आया तुम्हारे बाद. तुम जैसा. तुमसे बेहतर. कोई नहीं. तुम हो. तुम रहोगे. घड़ी घड़ी हमको परखना बंद करो. एक दिन उकता के चले जायेंगे तो बिसूरोगे कि इतनी शिद्दत से किसी का अक्षर अक्षर इंतज़ार कोई नहीं करता. 

हम आज के बाद तुमको लिखने के लिए कभी कुछ नहीं कहेंगे. 

तुम्हारी, 
(नाम भी लिखें अब? कि शब्दों से समझ जाओगे कि और कौन हो सकती है. )

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