20 February, 2015

उन्निस फरवरी सन् दो हजार पंद्रह। दिल्ली।

जिंदगी की अपनी हैरतें हैं. आड़ी तिरछी गलियों से गुज़रती हुयी लड़की अक्सर सोचती कि इन मकानों में कैसे लोग रहते होंगे. इन जाली लगी खिड़कियों के पीछे वो कौन सा खजाना छुपा रहता होगा कि दिन भर खोजी आँखें रखने वाली बूढ़ी औरतें इन खिड़कियों से सटे हुए बरामदों में ताक झाँक करती रहती हैं. वहां की बालकनियों में दम घुटता था. लड़की अब इन सब से दूर खुली हवा वाले अपने शहर तक लौट जाना चाहती थी. 

उसे कहीं जाना न था. न किसी शहर. न किसी की बांहों में. फिर भी जब वो पास होता तो एक शहर उगने लगता उसकी आँखों में. इस शहर का तिलिस्म सब लड़की के दिल में था. लड़की की कल्पनाओं में बड़े चमकीले रंग थे. बड़े सुहाने लोग. यहाँ इंतज़ार सी रातें नहीं थीं. सब चाहना पर मिल जाने वाला हुआ करता था. इस शहर में कभी बिछड़ना नहीं होता था. मगर ये शहर दुनिया को रास नहीं आता था. जब भी वे इस शहर की निशानियाँ पाते, वहां दंगा करवा देने की साजिशें बुनते. सटे हुए मकानों में चुपके चुपके बनाये हुए घरेलू बम फेंका करते. सिर्फ जरा से केरोसीन और कुछ और तत्वों को मिला कर एक शीशे की बोतल में डाल देना होता था बस. ये वो बोतलें हुआ करती थीं जिनमें आला दर्जे की शराब रखी होती थी. लड़की की ख्वाहिशों में इन खाली बोतलों में लिखने को चिट्ठियां थीं. दंगे में लगी आग में सारी चिट्ठियों के पते जल गए थे. आग बुझाने के लिए नदी से पानी लाना पड़ता था मगर नदी का सारा पानी लड़की की आँखों ने सोख लिया था. यूँ आग तो रेत से भी मिट जाती मगर उसमें बहुत वक़्त लग जाता. लड़की ने किताब बंद की और शहर को हमेशा के लिए भुला दिया. 

मगर जिंदगी. घेर कर मारने की साजिशें रचती है. इक रोज़ इक सादा सी दिखने वाली किताब में उस शहर का दरवाजा खुल गया. लड़की बेख्याली में चल रही थी उसने ठीक ठीक देखा नहीं कि वो किस शहर में दाखिल हो रही है. यूँ भी ख़त्म तो कुछ भी कभी भी नहीं होता. अब शहर में कुछ नहीं बचा था. लेकिन फिर भी धुआं बदस्तूर उठ रहा था. फूलों की क्यारियों में किसी के जले हुए दिल की गंध उग रही थी. चाह से आ जाने वाले लोगों के पैर काट दिए गए थे और वे घिसट रहे थे. राहों में चीखें थीं मगर हवा में बिखरती हुयी नहीं हेडफोन से सीधे कान और दिल में उतरती हुयी. लड़की के इर्द गिर्द शोर एकदम नहीं था इसलिए उसे साफ़ सुनाई पड़ता था जब वो देर रात के नशे में उसका नाम पुकारता. लड़की उसके लिखे हर शब्द, हर वाक्य, हर किरदार को तोड़ कर अपना नाम ढूंढती और जब उसे नहीं मिलता कोई भी दिलासा तो वो कान से हेड फोन निकाल देती और बहुत तेज़ तेज़ स्केटिंग करती. रोलर ब्लेड्स वाले स्केट्स काले रंग के हुआ करते और खुदा के सिवा किसी को दिखाई नहीं पड़ता कि वो क्या कर रही है. खुदा के क्लोज्ड सर्किट कैमरा में हाई ऐंगिल शॉट में दिखता कि वो फिर से उसका नाम लिख रही है...नृत्य की हर थाप में...तेज़ और तेज़ गुज़रते हुए शहर के मलबे को विभक्त करती लड़की खुद नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए. 

उसके सिरहाने सूखे गुलाबों की किरमिच किरमिच गंध थी जो पीले रंग के इत्र में डूबे हुए थे. लड़की का दिल मगर खाली था कि उसे सारे दोस्त उसे ठुकरा के चले गए थे इश्क वाले किसी शहर. वो रोना चाहती थी बहुत तेज़ तेज़ मगर उसे अकेले रोने से डर लगता था. 

वो उसे सिर्फ एक बार देखना चाहती थी. मगर खुदा के स्पाईकैम से दूर...वो ये भी चाहती थी कि उससे मिलना कुछ ऐसे हो कि वो खुदा को उलाहना दे सके कि ये मुलाकात तुमने नहीं मैंने खुद लिखी है. लड़की जब भी क्वाइन टॉस करती तो हमेशा हेड्स चुनती कि हेड्स पर लिखा होता 'सत्यमेव जयते'. उसे लगा जिंदगी मे न सही कमसे कम किस्मत में तो सच की जीत हो. तो उसने कहा हेड्स और सिक्के को उछाल दिया. सिक्का गिरा तो उसपर १ लिखा हुआ था और थम्स अप का निशान था. लड़की ने भी ऊपर वाले को ठेंगा दिखाया और उससे मिलने चली गयी. 

तकलीफों को गले लगाने वाले लोग होते हैं. बेचैनियों से इश्क करने वाले भी. घबराहट में डूबे. साँस साँस अटकते. किसी शहर के इश्क में पागल होते. उनकी आँखों में सियाह मौसम रहते हैं. बस उनकी हँसी बड़ी बेपरवाह होती है. वे दिन भर खुद को बाँट देते हैं पूरे शहर शहर...घर लौटते हुए रीत जाते हैं. फिर उनकी सुनसान रातों में ऐसा ही संगीत होता है कि खुद को जान देने से बचा लेना हर दिन का अचीवमेंट होता है. 

लड़की सुबह के नीम अँधेरे में बहुत फूट फूट कर रोना चाहती है कि उसे डर लगता है. सियाह अँधेरे से. खालीपन से. इश्क से. नीम बेहोशी से. उसके नाम से. उसकी आँखों से. उसके हाथों से. उसके काँधे में गुमसी हुयी खुशबू से. उसकी जेब में अटकी रह आई आपनी साँसों से. उसकी बांहों में रहते हुए कहे झूठमूठ के आई लव यू से. सियाह रंग से. उससे मिलने से. अलविदा कहने से. डरती है वो. बहुत. बहुत. बहुत. न तो खुदा न शैतान ही उसे अपनी बांहों में भर कर कहता है कि सब ठीक हो जाएगा. 

हम जी कहीं भी सकते हैं मगर हम कहाँ जिन्दा रहते हैं वो शहर हमें खुद चुनना पड़ता है और जब ये शहर मौजूद नहीं होता तो इस शहर को हमें खुद बनाना पड़ता है. कतरा कतरा जोड़ कर मकान. नदी. समंदर. लोग. दोस्तियाँ. मुहब्बत. मयखाने. जाम. बारिश. सब.

जब ये सब बन जाता है और वो शहर हमारे लिए परफेक्ट हो जाता है. तब हम किसी अजनबी शहर में जा कर आत्महत्या करना चाहते हैं. 

उसने मेरी आँखों में देख कर कहा मुझसे. ही नेवर लव्ड मी. मुझे उसके सच कहने की अदा पर उससे फिर से प्यार हो आया.
 
शहर खतरनाक था. उस तक लौट कर जाना भी. बुरी आदतों की तरह. सिगरेट का कश उसने अन्दर खींचा तो रूह का कतरा कतरा सुलग उठा. लड़की तड़प उठी. तकलीफों की आदत ख़त्म हो गयी थी पिछले कई सालों में. 

जाते हुए लड़की ने शहर के दरवाजे पर पासवर्ड लगा दिया और खुद को भरोसा दिलाया कि पासवर्ड भूल जायेगी. नाइंटीन फेब्रुअरी टू थाउजेंड फिफ्टीन. 

उसने खुद को कहीं भुला देना चाहा. कई सारे नक्शों को फाड़ देने के बाद उसे याद आया कि सब बेमानी है कि उसे उसका फोन नंबर याद था. 

उसका सुसाइड नोट उसके स्वभाव से एकदम इतर था. छोटा सा. सिर्फ एक लाइन का.  'तुम कोई अपराध बोध मत पालना. मैंने तुम्हें सिर्फ अपने लिए चाहा था'. 

3 comments:

  1. Puja, the great, I just read your Lekh '19 Feb.2015' Wonderful. your bhasha shaili is Utkrisht and anubhavi chhap dikhai padti hai. I Wish all the best when I hear a movie written by PUJA.

    Shubh kamnayen
    Avinaash

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  2. बहुत ही अच्‍छा आर्टिकल।

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  3. बहुत ही शानदार
    http://puraneebastee.blogspot.in/
    @PuraneeBastee

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