अकेले में तुम्हें समझाते समझाते थक गयी हूँ इसलिए ये खुला ख़त लिख रही हूँ तुम्हें. तुम ऐसे थेत्थर हो कि तुमपर न लाड़ का असर होता है न गाली का. कितना उपाय किये. हर तरह से समझाए. पूरा पूरा शाम तुम्हारे ही लिखे से गुजरते रहे...तुम्हें ही दिखाने के लिए कि देखो...तुम ही देखो. एक ज़माने में तुम ही ऐसा लिखा करते थे. ये तुम्हारे ही शब्द हैं. लिखने वाले लोग कभी किसी का लिखा पढ़ कर 'बहुत अच्छा' जैसा बेसिरपैर का जुमला नहीं फेंकते. अच्छा को डिफाइन करना हमारा फ़र्ज़ है कि हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा.
तो सुनो. मैं तुमसे लिखने क्यूँ कहती हूँ. किसी छोटे शहर से आकर बड़े शहर में बसे हम विस्थापितों का समय है ये. हमारे समय की कहानियां या तो चकाचौंध में दबा दी जा रही हैं या मन के राग, द्वेष और कुंठा से निकली गालियों में छुपा दी जा रही हैं. हमारे समयकाल का दस्तावेज लिखने के लिए दो चीज़ें बेहद आवश्यक हैं...एक तो वो नज़र कि बारीकी से चीज़ों को देख सके...बिना उद्वेलित हुए उनकी जांच पड़ताल कर सके. गहराई में चीज़ों को समझे न कि सिर्फ ऊपर ऊपर की कहानी बयान करे. दूसरी जो चीज़ जरूरी है वो है इस मुश्किल समय को लिखने का हुनर. तलवार की धार पर चलना ऐसे कि चीज़ों की तस्वीर भी रहे मगर ऐसे ऐंगिल से चीज़ें दिखें भी और रोचक भी हों. कि समझो डौक्यूमेंटरी बनानी है. सीधे सीधे रिपोर्ट नहीं लिखना है दोस्त, फीचर लिखना है. तुम तो जानते हो रिपोर्ट अख़बार में छपती है और अगले दिन फ़ेंक दी जाती है. फीचर की उम्र लम्बी होती है. अभी तुमपर ज्यादा दबाव डालूंगी तो तुम मेरी चिट्ठी भी नहीं पढ़ोगे इसलिए धीमे धीमे कहेंगे कि फिर लिखना शुरू करो. रेगुलर लिखना शुरू करो. इस बात को समझो कि निरंतर बेहतरीन लिखना जरूरी नहीं है. ख़राब लिखने से उपजने वाले गिल्ट से खुद को मुक्त करो. तुम पाओगे कि जब तुममें अपराधबोध नहीं होता या यूं कहूं कि अपराधबोध का डर नहीं होता तो तुम खुद से बेहतरीन लिखते हो.
देखो न, सही और गलत, सच और झूठ, अच्छा और बुरा के खांचे में चीज़ों को फिट करने वाले हम और तुम कौन लोग होते हैं. बताओ भला, हम किस खांचे में आते हैं? मैं और तुम किस खांचे में आते हैं? मैं क्या लगती हूँ तुम्हारी? पाठक, क्रिटिक, प्रेमिका, बहन, माँ, दोस्त...कोई पुरानी रिश्तेदार? किस किस सरहद में बाँधोगे? ये भी तो नहीं कह सकते कि गलत है...इतना बात करना गलत है. तुम जाने कितनी सदियों से मेरी इस प्यास के लिए सोख्ता बने हुए हो. दुनिया में अगर कोई एक शख्स मुझे पूरी तरह जानता है तो वो तुम हो...शायद कई बार मुझसे भी बेहतर. मुझे कभी कभी लगता है हम पैरलल मिरर्स हैं...एक दूसरे के सामने रखे हुए आईने. एक दूसरे के एक्स्टेंशन. हममें जो उभरता है कहीं बहुत दूर दूर तक एक दूसरे में प्रतिबिंबित होता है. अनंत तक. हमारी कहानियों जैसा. क्लास में एक्जाम देते वक़्त होता था न...पेन में इंक ख़त्म हो गयी तो साथी से माँग लिया. वैसे ही कितनी बार मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता तो तुमसे माँग लेती हूँ...बिम्ब...डायलॉग्स...किरदार...तुम्हारी हंसी...तुम्हारी गालियाँ. कितना कुछ तो. तुम मांगने में इतना हिचकते क्यूँ हो. इतनी कृपण नहीं हूँ मैं.
तुम्हारे शब्दों में मैंने कई बार खुद को पाया है...कई बार मरते मरते जीने का सबब तलाशा है...कई बार मुस्कुराहटें. मैं एकलौती नहीं हूँ. तुम जो लिखते हो उसमें कितनी औरतें अपने मन का वो विषाद...वो सुख...वो मरहम पाती हैं जो सिर्फ इस अहसास से आता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं. कहीं एक कवि है जो हमारे मन की ठीक ठीक बात जानता है. ये औरत तुम्हारी माँ हो सकती है, तुम्हारी बहन हो सकती है...तुम्हारी बीवी हो सकती है. इस तरह उनके मन की थाह पा लेना आसान नहीं है दोस्त. ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुम पर सरस्वती की कृपा है. इसे वरदान कह लो या अभिशाप मगर ये तुम्हारे साथ जिंदगी भर रहेगा. मुझे समझ नहीं आता कि तुम लिख क्यूँ नहीं रहे हो...क्या तुम्हें औरतों की कमी हो गयी है? क्या माँ से बतियाना बंद कर दिए हो...क्या बहन अपने घर बार में बहुत व्यस्त हो गयी है...क्या प्रेमिका की शादी हो गयी है(फाइनली?)...या फिर तुम्हारी दोस्तों ने भी थक कर तुमसे अपने किस्से कहने बंद कर दिए हैं? अब तुम लिखने के बजाये घुन्ना जैसा ये सब लेकर अन्दर अन्दर घुलोगे तो कौन सुनाएगा तुमको अपनी कहानी!
और सुनो. हम तुमसे बहुत बहुत प्यार करते हैं. जितना किसी और से किये हैं उससे कहीं ज्यादा. मगर इस सब में तुम्हारे लिखने से बहुत ज्यादा प्यार रहा है. तुम जब लिखते हो न तो उस आईने में हम संवरने लगते हैं. ले दे के हर व्यक्ति स्वार्थी होता है. शायद तुम्हारे लिखे में अपने होने को तलाशने के लिए ही तुमसे कह रहे हैं. मगर जरा हमारे कहने का मान रखो. इतना हक बनता है मेरा तुम पर. कोई पसंद नहीं आया तुम्हारे बाद. तुम जैसा. तुमसे बेहतर. कोई नहीं. तुम हो. तुम रहोगे. घड़ी घड़ी हमको परखना बंद करो. एक दिन उकता के चले जायेंगे तो बिसूरोगे कि इतनी शिद्दत से किसी का अक्षर अक्षर इंतज़ार कोई नहीं करता.
हम आज के बाद तुमको लिखने के लिए कभी कुछ नहीं कहेंगे.
तुम्हारी,
थेत्थर क्या होता है ???
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