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08 May, 2015

आमंत्रण: 9 मई को मेरी किताब तीन रोज़ इश्क़ का लोकार्पण IWPC, दिल्ली में.

किताब एक सपना है. एक भोला. मीठा सपना. बचपन के दिनों में खुली आँखों से देखा गया. ठीक उसी दिन दिन जिस पहली बार किसी किताब के जादू से रूबरू होते हैं उसी दिन सपने का बीज कहीं रोपा जाता है. किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखते हुए सोचना कि कभी, किसी दिन किसी किताब पर मेरा नाम यहाँ ऊपर टॉप राईट कार्नर पर नहीं, किताब के नाम के ठीक नीचे लिखा जाएगा.
बचपन के विकराल दिखने वाले दुखों में, एक सुख का लम्हा होता है जब किसी किताब में अपने किसी लम्हे का अक्स मिल जाता है. कि जैसे लेखक ने हमारे मन की बात कह दी है. हम वैसे लम्हों को टटोलते चलते हैं....वैसे लेखक, वैसी किताब और वैसे लोग बहुत पसंद आते है. फिर एक किसी दिन कक्षा सात में पढ़ते हुए हमारे हिंदी के सर बड़ी गंभीरता में हमें समझाते हैं कि डायरी लिखनी चाहिए. रोज डायरी लिखने से एक तो भाषा का अभ्यास बढ़ेगा और हम इससे जीवन को एक बेहतर और सुलझे हुए ढंग से जीने का तरीका भी सीखेंगे. बाकी क्लास का तो मालूम नहीं पर उसी दिन हम बहुत ख़ुशी ख़ुशी घर आये और डायरी लेखन का पहला पन्ना खोल के बैठ गए. अब पहली मुसीबत ये कि अगर सीधा सीधा कष्टों को लिख दिया जाए और घर में किसी ने, यानि मम्मी या भाई ने पढ़ ली तो या तो परेशान हो जायेंगे, या कुटाई हो जायेगी या के फिर भाई बहुत चिढ़ायेगा. तो उपाय ये कि अपने मन की बात लिखी जाए लेकिन कूट भाषा में. जैसे कि आज आसमान बहुत उदास था. आज सूरज को गुस्सा आया था. वगैरह वगैरह. लिखते हुए 'मैं' नहीं होता था, बस सारा कुछ और होता था. लिखने का पहला शुक्रिया इसलिए स्वर्गीय अमरनाथ सर को.

लिखने का सिलसिला स्कूल और कॉलेज के दिनों में जारी रहा. बहुत से अवार्ड्स वगैरह भी जीते. स्लोगन राइटिंग, डिबेट, एक्स्टेम्पोर...और इस सब के अलावा बतकही तो खैर चलती ही थी. उन दिनों कविता लिखते थे. जिंदगी का सबसे बड़ा शौक़ था कादम्बिनी के नए लेखक में छप जाना. इस हेतु लेकिन न तो कोई कविता भेजी कभी, न कभी तबियत से सोचा कि कैसी कविता हो जो यहाँ छप जाए. पढ़ने-सुनने वाले लोग बहुत ही दुर्लभ थे. दोस्तों को कुर्सी से बाँध कर कविता सुनाने लायक दिन भी आये. उन दिनों हम बहुत ही रद्दी लिखा करते थे. माँ अलग गुस्सा होती थी कि ये सब कॉपी के पीछे क्या सब कचरा लिखे रहता है तुम्हारा. उन दिनों भले घरों की लड़कियों की कॉपी के आखिरी पन्ने पर इश्क मुहब्बत शायरी जैसी ठंढी आहें भरना अच्छी बात तो थी नहीं. देवघर ने हमारी मासूमियत को बरकरार रखा तो पटना ने हमें आज़ाद ख्याल होना सिखाया. मेरी जिंदगी में जिन लोगों का सबसे ज्यादा असर पड़ता है, उसमें सबसे ऊपर हैं पटना वीमेंस कोलेज के कम्यूनिकेटिव इंग्लिश विद मीडिया स्टडीज(CEMS) के हमारे प्रोफेसर फ्रैंक कृष्णर. सर ने हमारी पूरी क्लास को सिखाया कि सोचते हुए बंधन नहीं बांधे जाने चाहिए...कि दुनिया में कुछ भी गलत सही नहीं होता...हमें चीज़ों के प्रति अपनी राय सारे पक्षों को सुन कर बनानी चाहिए. दूसरी चीज़ जो मैंने सर से सीखी...वो था गलतियां करने का साहस. टूटे फूटे होने का साहस. कि जिंदगी बचा कर, सहेज कर, सम्हाल कर रख ली जाने वाली चीज़ नहीं है...खुद को पूरी तरह जीने का मौका देना चाहिए. 

IIMC दिल्ली में चयन होना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मील का पत्थर था. इंस्टिट्यूट में पढ़ा लिखा उतना नहीं जितना आत्मविश्वास में बढ़ावा मिला कि देश के सबसे अच्छे मास कम्युनिकेशन के इंस्टिट्यूट में पढ़ रहे हैं. हममें कुछ बात तो होगी. ब्लॉग के बारे में पटना में पढ़ा था, लेकिन यहाँ और डिटेल में जाना. कि ब्लॉग वेब-लॉग का abbreviation है. दुनिया भर में लोग अपनी डायरी खुले इन्टरनेट पर लिख रहे थे. बस. वहीं कम्प्यूटर लैब में हमने अपना पहला ब्लॉग खोला. 'अहसास' नाम से. ये २००५ की बात है. ब्लॉग पर पहला कमेन्ट मनीष का आया था. मुझे हमेशा याद रहता. फिर ब्लॉग्गिंग के सफ़र में अनगिनत चेहरे साथ जुड़ते गए. उन दिनों मैं अधिकतर डायरीनुमा कुछ पोस्ट्स और कवितायें लिखती थी. हिंदी ब्लॉग्गिंग तब एक छोटी सी दुनिया थी जहाँ सब एक दूसरे को जानते थे. उन दिनों स्टार होना यानी अनूप शुक्ल की चिट्ठा चर्चा में छप जाना. अनूप जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से इंस्पायर होकर हमने कुछ पोस्ट्स लिखी थीं, जैसे किस्सा अमीबा का, वगैरह. ब्लॉग एग्रेगेटर चिट्ठाजगत में नए लिखे सारे पोस्ट्स की जानकारी मिल जाती थी. इस आभासी दुनिया में कुछ सच के दोस्त मिले. उनके मिलने से न सिर्फ लिखने का दायरा बढ़ा बल्कि बाकी चीज़ों की समझ भी बेहतर हुयी. फिल्में और संगीत इनमें से प्रमुख है. अपूर्व शुक्ल की टिप्पणियां हमेशा ब्लॉगपोस्ट से बेहतर हो जाती थीं. नयी खिड़कियाँ खुलती थीं. नयी बातें शुरू होती थीं. अपूर्व के कारण मैंने दुबारा वोंग कार वाई को देखा. और बस डूब गयी. बात फिल्मों की हो या संगीत की. यूँ ही प्रमोद सिंह का ब्लॉग रहा है. वहां के पॉडकास्ट न सिर्फ दूर बैंगलोर में घर की याद की टीस को कम करते थे बल्कि उसमें इस्तेमाल किये संगीत को तलाशना एक कहानी हुआ करती थी. इसके अलावा इक दौर गूगल बज़ का था. इक क्लोज सर्किल में वहां सिर्फ पढ़ने, लिखने, फिल्मों और संगीत की बात होती थी. मैंने इन्टरनेट पर बहुत कुछ सीखा.

तुम्हें एक किताब छपवानी चाहिए ये बात लोगों ने स्नेहवश कही होगी कभी. मगर ये किताब छपवाने का कीड़ा तो शायद हर किताब प्रेमी को होता है. मेरी बकेट लिस्ट में एक आइटम ये भी था कि ३० की उम्र के पहले किताब छपवानी है. तो जैसे ही हम २९ के हुए, हमने सोचा अब छपवा लेते हैं. बैंगलोर में कोई भी हिंदी पब्लिशर नहीं मिला और ऑनलाइन खोजने पर किसी का ढंग का ईमेल पता नहीं मिला. उन दिनों सेल्फ-पब्लिशिंग नयी नयी शुरू हुयी थी और बहुत दूर तक इसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी. मेरा लेकिन इरादा क्लियर था. मुझे इसलिए छपना था कि पटना में मेरी किताब बिक सके...वहां तक पहुंचे जहाँ इन्टरनेट नहीं है. मुझे ऑनलाइन नहीं स्टोर में बिकने वाली किताब लिखनी थी. अभी भी लगता है कि जिस दिन किसी हिंदी किताब की पाइरेटेड कोपी देखती हूँ मार्किट में, उस दिन लगता है कि किताब वाकई बिक रही है. अब सवाल था कि किसी पब्लिशर तक जायें कैसे. IIMC जैसे किसी संस्थान से जुड़े होने का फायदा ये होता है कि हमें कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता. उसी साल 'कैम्पस वाले राइटर्स' पर केन्द्रित हमारी alumni meet हुयी थी. गूगल पर अपने क्लोज्ड ग्रुप में मेसेज डाला कि एक किताब छपवानी है. मार्गदर्शन चाहिए. अगली मेल में पेंग्विन, यात्रा बुक्स और राजकमल के संपादकों के नाम और ईमेल पता थे. ये २१ अक्टूबर २०१३ की बात थी.  

मैंने पेंग्विन की रेणु आगाल को अपनी पांच छोटी कहानियां भेजीं. उन्होंने पढ़ीं और कहा कि कोई लम्बी कहानी है तो वो भी भेजो. हमने ब्लू डनहिल्स नाम से श्रृंखला लिखी थी. आधी कहानी इधर थी. बाकी को पूरी करके भेज दी. इस लम्बी कहानी का भार इतना था कि रेणु का हाथ टूट गया और पलस्तर लग गया. एक महीने के लिए. जनवरी २०१४ में कन्फर्मेशन आया कि मेरी किताब छपेगी और १० मार्च, जो कि कुणाल का बर्थडे है. उस दिन कॉन्ट्रैक्ट आया किताब का. तो हमारी लिस्ट पूरी हो गयी थी. ३० की उम्र में किताब छपवाने का. ऑफिस से रिजाइन मारे कि किताब लिखना है. अगस्त में मैनुस्क्रिप्ट देनी थी ५०,००० शब्दों की. तो बस. स्टारबक्स की ब्लैक कॉफ़ी और अपना मैक. काम चालू. 

तीन रोज़ इश्क - गुम होती कहानियां. मेरा पहला कहानी संग्रह है. इसमें कुल ४६ छोटी कहानियां हैं. आखिरी लम्बी कहानी, तीन रोज़ इश्क के सिवा सारी ब्लोग्स पर थीं. मगर अब आपको वही कहानियां पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ेगी. मुझे पहले इस बात का बहुत अपराधबोध था और इसलिए किताब के बारे में ब्लॉग पर कुछ खास लिखा नहीं था. लेकिन जिस दिन पहली बार पेंग्विन के ऑफिस में किताब हाथ में ली और अपना पहला ऑटोग्राफ दिया...समझ में आया कि ब्लॉग दूसरी चीज़ है...किताब में छपने की बात और होती है. वही कहानियां जिन्दा महसूस होती हैं. सांस लेती हुयी. इस डर से परे कि अब इनको कुछ हो जाएगा. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कि अब मुझे मरने से डर नहीं लगता. कि अब मैं गुम नहीं होउंगी. अब मेरा वजूद है. कागज़ के पन्नों में सकेरा हुआ. 

इस शनिवार, 9 मई को मेरी किताब का लोकार्पण है. 4-7 बजे शाम को, दिल्ली के इन्डियन वुमेन्स प्रेस कोर(IWPC), 5 विंडसर प्लेस, अशोका रोड में. मेरे साथ होंगे निधीश त्यागी, अनु सिंह चौधरी और मनीषा पांडे. इन तीनों लोगों को ब्लॉग के मार्फ़त जाना है. फिर मुलाकातें अपना रंग लेती गयी हैं. अनु दी अपने बिहार से हैं और IIMC की सीनियर भी. जब बहुत उलझ जाती हूँ तो उनको फोनियाती हूँ...किसी परशानी के हल के लिए नहीं, उस परेशानी से लड़ने के ज़ज्बे और धैर्य के लिए. 'नीला स्कार्फ' और 'मम्मा की डायरी', दोनों किताबों को खूब खूब प्यार मिला है लोगों का.

निधीश जब आस्तीन के अजगर के उपनाम से लिखते थे तब ही उनसे पहली बार चैट हुयी थी. पिछले साल ३१ दिसंबर की इक भागती शाम पहली बार मिली...उनकी 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो' हाल फिलहाल में पढ़ी सारी किताबों में सबसे पसंदीदा किताब है. निड से बात करना लम्हों में जिंदगी की खूबसूरती को कैप्चर करना है. 

मनीषा से मिली नहीं हूँ. गाहे बगाहे पढ़ती रही हूँ उसे. किताब के सिलसिले में ही पहली बार फोन पर बात हुयी. उसकी आवाज़ में कमाल का अपनापन और मिठास है. दो अनुवाद, 'डॉल्स हाउस' और 'स्त्री के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है' खाते में दर्ज है. इन्हें पढूंगी जरूर. तीन रोज़ इश्क के जरिये इक और खूबसूरत शख्स को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा. 

ब्लॉग से किताब के इस सफ़र में आप लगातार मेरे साथ रहे हैं. उम्मीद है ये प्यार किताब को भी मिलेगा. अगर इस शनिवार 9th May आप फ्री हैं तो इवेंट पर आइये. मुझे बहुत अच्छा लगेगा. एंट्री फ्री है. आप अपने साथ अपने दोस्तों को भी ला सकते हैं. इवेंट के प्रचार के लिए, फेसबुक इवेंट पेज है. इसे अपना ही कार्यक्रम समझिये. फ्रेंड लिस्ट में लोगों को इनवाईट भेजिए...कुछ को साथ लिए आइये. तीन रोज़ इश्क़ आप इवेंट पर खरीद सकते हैं. साथ में मेरा ऑटोग्राफ भी मिल जायेगा :) फिरोजी सियाही से चमकते कुछ ऑटोग्राफ देने का मेरा भी मन है.

फेसबुक इवेंट पेज पर जाने के लिए क्लिक करें.

किताब अब तक बुकस्टोर्स में आ गयी है. इसके अलावा, तीन रोज़ इश्क़ खरीदने के लिए इन लिंक्स को क्लिक कर सकते हैं.

बाकी सब तो जो है...पहली किताब का डर...इवेंट की घबराहट...लास्ट मोमेंट में मैचिंग साड़ी खरीद कर उसके झुमके वगैरह का आफत...फिरोजी स्याही की इंक बोतल लिए फिरना वगैरह...लेकिन बहुत सा उत्साह भी है. जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पढ़ा है या किताब पढ़ी है उनको पहली बार देखने का उत्साह. तो बस ख़त को तार समझना और फ़ौरन चले आना...न ना...फ़ौरन नहीं. 9 तारीख को. हम इंतज़ार करेंगे.

08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

06 March, 2012

Wordpress audio player on blog/ ब्लॉग पर वर्डप्रेस ऑडियो प्लेयर

आज की इस पोस्ट में हम सीखेंगे कि वर्डप्रेस ऑडियो प्लेयर को ब्लॉग में कैसे इन्टीग्रेट करते हैं. पोस्ट थोड़ी टेक्नीकल है तो हम पहले आगाह किये देते हैं कि आप इसे पढ़ कर वक़्त बर्बाद न करें :)

हमें पिछले कुछ दिनों से पोडकास्टिंग का कीड़ा काट रहा है...तो गाहे बगाहे हम कुछ न कुछ पोडकास्ट करते रहते हैं. पोडकास्ट होस्ट करने के लिए डिवशेयर का इस्तेमाल करते हैं पर डिवशेयर का प्लेयर मुझे खास पसंद नहीं आता...थोड़ा क्लटर ज्यादा है उसमें...वैसे तो जितने ऑनलाइन प्लेयर दिखे हैं मुझे...सबसे नीट यही है फिर भी उतना अच्छा नहीं लगा. वर्डप्रेस का ऑडियोप्लेयर का लेआउट  एकदम क्लीन है...इसे आप अपने ख़ास गाने भी ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं.

कल सुबह मूड हुआ कि इसे ब्लॉग पर चिपकाया जाए...सोचा नहीं था कि इतना मुश्किल होगा. सुबह कुणाल ऑफिस गया तब बैठे लैपटॉप लेकर कि एक आधे घंटे में निपटा के खाना वाना खा लेंगे. मगर आधा एक घंटा बढ़ते बढ़ते शाम के पांच बज गए...न खाया था कुछ पिया था...जिद्दी हूँ एक नंबर की...जब तक करुँगी नहीं कुछ और काम में मन ही न लगे. कुछ दोस्तों से पूछा भी पर जावास्क्रिप्ट नहीं आता था उन्हें.

मैं किसी टोपिक के पीछे पड़ती हूँ तो फिर कुछ बाकी नहीं छोड़ती...कल जावा स्क्रिप्ट पढ़ भी ली...पूरा का पूरा कोड पढ़ के देखा...सिंटेक्स एरर इतने सालों बाद स्क्रीन पर दिखा पर डिबग नहीं हो पाया मुझसे. फिर मुझे लग रहा था कि कितना सिंपल तो है...पूरा कोड दिख रहा है तो हो क्यूँ नहीं रहा. शाम होते चक्कर आने लगे...मूवी देखने का मूड था 'द आर्टिस्ट' शाम के छः बजे का शो था...वो भी मिस कर दिया. जब कुछ नहीं काम हो रहा था तो सोचा कि नहा लेते हैं...शैम्पू करने के बाद अक्सर मेरा मूड बदल जाता है. तो शैम्पू किया...फिर एक बहुत अजीज दोस्त से बात की...उससे बात करके मूड अच्छा हुआ...फिर बाइक उठा के घूमने निकल गयी. रात को छोटे भाई को मेल लिखी कि दिक्कत हो रही है...थोड़ा देख दो.

और सुबह देखती हूँ जिमी का मेल आया हुआ है...प्यारा सा मेल और उसके टेस्ट ब्लॉग का लिंक जहाँ साउंड फ़ाइल प्ले हो रही थी...मारे ख़ुशी के आँखों में आंसू आ गए...गर्व से सर तन गया कि वाह...मेरा छोटा सा भाई इतना होशियार हो गया :) बहुत अच्छा लगा बहुत बहुत.

ये तो हुआ फिल्म का सेंटी हिस्सा...अब मुद्दे पर आते हैं :)

2. create a new page
1. आपको एक फ़ाइल होस्टिंग साईट की जरूरत पड़ेगी...चूँकि आप ब्लोगर इस्तेमाल करते हैं तो सबसे आसान होगा गूगल साइट्स पर अपनी वेबसाईट बनाना. इसलिए लिए यहाँ जाएँ-  https://sites.google.com/
2. जब आपकी वेबसाईट बन जाए तो इसमें एक नया पेज बनाएं...जैसे कि मैंने बनाया है ऑडियो...पेज के राईट साइड के ऊपर कोर्नर में ये जो पेज में प्लस का बटन दिख रहा है उसको दबाने से नया पेज बन जाता है. मैंने इसे नाम दिया है audio.
आपको जरूरत पड़ेगी तीन फाइलों की. एक जावास्क्रिप्ट (.js)की फ़ाइल है, एक फ्लैश प्लेयर(.swf) है और एक mp3 जो कि आपका म्यूजिक है जिसे प्ले करने के लिए हम इतना ड्रामा कर रहे हैं. आपका पेज कुछ ऐसा दिखेगा... https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio इसकी हमें आगे जरूरत पड़ेगी. 

3. जावास्क्रिप्ट की फ़ाइल और फ्लैश प्लेयर मैंने अपनी साईट पर अपलोड कर दिया है...आप वहां से डाउनलोड कर लीजिये. यहाँ https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio

दूसरा तरीका है इन्हें वर्डप्रेस के साईट से डाउनलोड करना http://wpaudioplayer.com/download/ यहाँ से Standalone पर क्लिक कीजिये...जिप फ़ाइल को अनलोक कीजिए. फोल्डर में पहली और आखिरी फाइल की जरूरत है आपको. 'audio-player' and 'player'.
3. download/upload files

4. अपने वेबपेज पर ऐड फाइल्स पर क्लिक कीजिये और audio-player.swf और player.js अपलोड कर दीजिये. ये कुछ ऐसा दिखेगा. अब अपनी mp3 फ़ाइल भी यहाँ अपलोड कर लीजिये.

५. अब हमें जरूरत है ब्लॉग के html में एक छोटा सा कोड डालने की...इसलिए लिए ब्लॉग डैशबोर्ड में जायें और टेम्पलेट सेलेक्ट करें. पहले अपने ब्लॉग टेम्पलेट का बैकप ले लीजिये...इसके लिए टॉप राईट कोर्नर में जो backup/restore button है उसे क्लिक करें. फिर एडिट html पर क्लिक करें.

6.  cntrl+f से head ढूँढिये...उसके ठीक पहले ये एक लाइन का कोड चिपकाना है.

<script language='JavaScript' src='https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio/audio-player.js'/>

इस कोड में जो हिस्सा ब्लू में है...उसकी जगह आप अपनी साईट का url डालिए. (go to no. 2). Replace only the part highlighted in blue...ऑडियो के बाद का हिस्सा /audio-player.js'/> को वैसा ही रहने दीजिये. 

अब टेम्पलेट सेव कर लीजिये. 

7. html का दूसरा कोड...इसमें आपको तीन लिंक बदलने हैं...

<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<object data="https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio/player.swf" height="24" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="290">
<param name="movie" value="https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio/player.swf">
<param name="FlashVars" value="playerID=audioplayer1&soundFile=https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio/Enya-OnlyTime.mp3">
<param name="quality" value="high">
<param name="menu" value="false">
<param name="wmode" value="transparent">
</object> 

सिर्फ वो हिस्सा रिप्लेस कीजिये जो नीले रंग में बोल्ड है...बाकी एक्सटेंशन वैसे ही रहने दीजिये. /player.swf

mp3 की लिंक की जगह आपके गाने का जो नाम  है वो लिखिए...कृपया ध्यान से नोट कीजिये ये वही होना चाहिए जो आपकी फ़ाइल का नाम है. जैसे मेरे गाने का नाम था 'Enya-OnlyTime'
लिंक: https://sites.google.com/site/pujaupadhyaykislay/audio/Enya-OnlyTime.mp3 

मान लीजिये आपके गाने का नाम है 'piya basanti' तो जब आप फाइल अपलोड कर रहे हैं उसके पहले ही फाइल के नाम से स्पेस डिलीट कर दीजिये...'piyabasanti' वैसे तो दिक्कत नहीं आ रही है...पर कभी कभी स्पेस के कारण फ़ाइल नहीं दिखा रहा है. 
link: https://sites.google.com/site/yoursitename/audio/piyabasanti.mp3

8. अब नयी पोस्ट लिखिए...जो भी आप लिखते हो, अच्छा बुरा, प्यारा जो भी...लिख लीजिये...अब कंपोज के बगल में जो लिंक है...html उसको क्लिक कीजिये...कीड़े मकोड़े जैसी बहुत सी लाइंस आ जायेंगी :) इसमें सबसे नीचे स्क्रोल कीजिये और वहां ये ऊपर वाला कोड चिपका दीजिये. इससे प्लेयर पोस्ट के नीचे आएगा. अगर प्लेयर कहीं और प्लेस करना है तो कर्सर को वहां पर रखिये जहाँ प्लेयर चाहिए और html पर क्लिक कीजिये...और उधर ही कोड चिपका दीजिये. 

9. अब कहिये...पूजा तुम सबसे अच्छी हो. :) :) मुस्कुराइए. 

10. Publish :)



31 December, 2011

उधारीखाता- 2011


साल का आखिरी दिन है...हमेशा की तरह लेखाजोखा करने बैठी हूँ...भोर के पाँच बज रहे हैं...घर में सारे लोग सोये हुये हैं...सन्नाटे में बस घड़ी की टिक टिक है और कहीं दूर ट्रेन जा रही है तो उसके गुजरने की मद्धिम आवाज़ है। उधारीखाता...जिंदगी...आखिर वही तो है जो हमें हमारे अपने देते हैं। सबसे ज्यादा खुशी के पल तनहाई के नहीं...साथ के होते हैं।

इस साल का हासिल रहा...घूमना...शहर...देश...धरती...लोग। साल की शुरुआत थायलैंड की राजधानी बैंगकॉक घूमने से हुयी...बड़े मामाजी के हाथ की बोहनी इतनी अच्छी रही साल की कि इस साल स्विट्जरलैंड भी घूम आए हम। बैंगकॉक के मंदिर बेहद पसंद आए मुझे...पर वहाँ की सबसे मजेदार बात थी शाकाहारी भोजन न मिलना...वहाँ लोगों को समझ ही नहीं आता कि शाकाहारी खाना क्या होता है। स्विट्जरलैंड जाने का सोचा भी नहीं था मैंने कभी...कुणाल का एक प्रोजेक्ट था...उस सिलसिले में जाना पड़ा। मैंने वाकई उससे खूबसूरत जगह नहीं देखी है...वापस आ कर सोचा था कि पॉडकास्ट कर दूँ क्यूंकी उतनी ऊर्जा लिखने में नहीं आ पाती...पॉडकास्ट का भविष्य क्या हुआ यहाँ लिखूँगी तो बहुत गरियाना होगा...इसलिए बात रहने देते हैं. स्विट्ज़रलैंड में अकेले घूमने का भी बहुत लुत्फ उठाया...उसकी राजधानी बर्न से प्यार भी कर बैठी। बर्न के साथ मेरा किसी पिछले जन्म का बंधन है...ऐसे इसरार से न किसी शहर ने मुझे पास बुलाया, न बाँहों में भर कर खुशी जताई। बर्न से वापस ज्यूरीक आते हुये लग रहा था किसी अपने से बिछड़ रही हूँ। दिन भर अकेले घूमते हुये आईपॉड पर कुछ मेरी बेहद पसंद के गाने होते थे और कुछ अज़ीज़ों की याद जो मेरा हाथ थामे चलती थी। बहुत मज़ा आया मुझे...वहीं से तीन पोस्टकार्ड गिराए अनुपम को...बहुत बहुत सालों बाद हाथ से लिख कर कुछ।

इस साल सपने की तरह एक खोये हुये दोस्त को पाया...स्मृति...1999 में उसका पता खो गया था...फिर उसकी कोई खोज खबर नहीं रही। मिली भी तो बातें नहीं हों पायीं तसल्ली से...इस साल उसके पास फुर्सत भी थी, भूल जाने के उलाहने भी और सीमाएं तोड़ कर हिलोरे मारता प्यार भी। फोन पर कितने घंटे हमने बातें की हैं याद नहीं...पर उसके होने से जिंदगी का जो मिसिंग हिस्सा था...अब भरा भरा सा लगता है। मन के आँगन में राजनीगंधा की तरह खिलती है वो और उसकी भीनी खुशबू से दिन भर चेहरे पर एक मुस्कान रहती है। पता तो था ही कि वो लिखती होगी...तो उसको बहुत हल्ला करवा के ब्लॉग भी बनवाया और आज भी उसके शब्दों से चमत्कृत होती हूँ कि ये मेरी ही दोस्त ने लिखा है। उसकी तारीफ होती है तो लगता है मेरी हो रही है। 

स्मृति की तरह ही विवेक भी जाने कहाँ से वापस टकरा गया...उससे भी फिर बहुत बहुत सी बातें होने लगी हैं...बाइक, हिमालय, रिश्ते, पागलपन, IIMC, जाने क्या क्या...और उसे भी परेशान करवा करवा के लिखवाना शुरू किया...बचपन की एक और दोस्त का ब्लॉग शुरू करवाया...साधना...पर चूंकि वो लंदन में बैठी है तो उसे हमेशा फोन पर परेशान नहीं कर सकती लिखने के लिए...ब्लॉगर पर कोई सुन रहा हो तो हमको एक आध ठो मेडल दे दो भाई!

और अब यहाँ से सिर्फ पहेलियाँ...क्यूंकी नाम लूँगी तो जिसका छूटा उससे गालियां खानी पड़ेंगी J एक दोस्त जिससे लड़ना, झगड़ना, गालियां देना, मुंह फुलाना, धमकी देना, बात नहीं करना सब किया...पर आज भी कुछ होता है तो पहली याद उसी की आती है और भले फोन करके पहले चार गालियां दू कि कमबख्त तुम बहुत बुरे हो...अनसुधरेबल हो...तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता...थेत्थर हो...पर जैसे हो, मेरे बड़े अपने हो। कोई पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा जो तुमसे टूट टूट कर भी रिश्ता नहीं टूटता। बहुत मानती हूँ उसे...मन से। कुछ लोगों को सुपरइंटेलेकचुअल (SI) के टैग से बाहर निकाल कर दोस्तों के खाने में रख दिया...और आज तक समझ नहीं आता कि मुझे हुआ क्या था जो इनसे पहले बात करने में इतना सोचती थी। जाना ये भी कुछ लोगों का नाम PJ क्योंकर होना चाहिए...नागराज का टाइटिल देने की भी इच्छा हुयी। कुछ खास लोगों को चिट्ठियाँ लिखीं...जो जवाब आए वो कमबख्त कासिद ने दिये नहीं मुझे। चिट्ठियाँ गिराने का अद्भुत रिदम फिर से लौट कर आया जिंदगी में और लाल डब्बे से भी दोस्ती की।

एक आवाज़ के जादू में खो गयी और आज तक खुद को तलाश रही हूँ कि नामुराद पगडंडी कहाँ गयी कि जिससे वापस आ सकूँ...एक शेर भी याद आ रहा है जिस रास्ते से हम आए थे, पीते ही वो रास्ता भूल गए’...साल शायद अपने डर पर काबू पाने का साल ही था...जिस जिस चीज़ से डरे वो किया...जैसे हमेशा लगता था कि बात करने से जादू टूट जाएगा पर पाया कि बातें करने से कुछ तिलिस्म और गहरा जाते हैं कि उनमें एक और आयाम भी जुड़ जाता है...आवाज़ का। कुछ लोग कितने अच्छे से होते हैं न...सीधे, सरल...उनसे बातें करो तो जिंदगी की उलझनें दिखती ही नहीं। भरोसा और पक्का हुआ कि सोचना कम चाहिए, जिससे बातें करने का मन है उससे बातें करनी चाहिए, वैसे भी ज्यादा सोचना मुझे सूट नहीं करता। आवाज़ का जादू दो और लोगों का जाना...कर्ट कोबेन और उस्ताद फतह अली खान...सुना इनको पहले भी था...पर आवाज़ ने ऐसे रूह को नहीं छुआ था। 

इस बार लोगों का दायरा सिमटा मगर अब जो लोग हैं जिंदगी में वो सब बेहद अपने...बेहद करीबी...जिनसे वाकई कुछ भी बात की जा सकती है और ये बेहद सुकून देता है। वर्चुअल लाइफ के लोग इतने करीबी भी हो सकते हैं पहली बार जाना है...और ऐसा कैसा इत्तिफ़ाक़ है कि सब अच्छे लोग हैं...अब इतने बड़े स्टेटमेंट के बाद नाम तो लेना होगा J अपूर्व(एक पोस्ट से क़तल मचाना कोई अपूर्व से सीखे...और चैट पर मूड बदलना भी। थैंक्स कहूँ क्या अपूर्व? तुम सुन रहे हो!), दर्पण(इसकी गज़लों के हम बहुत बड़े पंखे हैं और इसकी बातों के तो हम AC ;) ज्यादा हो गया क्या ;) ? ), सागर(तुम जितने दुष्ट हो, उतने ही अच्छे भी हो...कभी कभी कभी भी मत बदलना), स्मृति(इसमें तो मेरी जान बसती है)पंकज(क्या कहें मौसी, लड़का हीरा है हीरा ;) थोड़ा कम आलसी होता और लिखता तो बात ही क्या थी, पर लड़के ने बहुत बार मेरे उदास मूड को awesome किया है), नीरा(आपकी नेहभीगी चिट्ठियाँ जिस दिन आती हैं बैंग्लोर में धूप निकलती है, जल्दी से इंडिया आने का प्लान कीजिये), डिम्पल (इसके वाल पर बवाल करने का अपना मज़ा है...बहरहाल कोई इतना भला कैसे हो सकता है), पीडी (इसको सिलाव खाजा कहाँ नहीं मिलता है तक पता है और उसपर झगड़ा भी करता है), अभिषेक (द अलकेमिस्ट ऑफ मैथ ऐंड लव, क्या खिलाते थे तुमको IIT में रे!), के छूटा रे बाबू! कोइय्यो याद नहीं आ रहा अभी तो...

नए लोगों को जाना...अनुसिंह चौधरी...अगर आप नहीं जानते हैं तो जान आइये...मेरी एकदम लेटेस्ट फेवरिट...इनको पढ़ने में जितना मज़ा है, जानने में उसका डबल मज़ा है। और मुझे लगता था कि एक मैं ही हूँ अच्छी चिट्ठियाँ लिखने वाली पर इनकी चिट्ठियाँ ऐसी आती हैं कि लगता है सब ठो शब्द कोई बोरिया में भर के फूट लें J अपने बिहार की मिट्टी की खुशबू ब्लॉग में ऐसे भरी जाती है। कोई सुपरवुमन ऑफ द इयर अवार्ड दे रहा हो तो हम इनको रेकमेंड करते हैं।
नए लोगों में देवांशु ने भी झंडे गाड़े हैं...इसका सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है...आते साथ चिट्ठाचर्चा ...अखबार सब जगह छप गए...गौर तलब हो कि इनको ब्लॉगिंग के सागर में धकेलने का श्रेय पंकज बाबू को जाता है...अब इनको इधर ही टिकाये रखने की ज़िम्मेदारी हम सब की बनती है वरना ये भी हेली कॉमेट की तरह बहुत साल में एक बार दिखेंगे।

अनुपम...चरण कहाँ हैं आपके...क्या कहा दिल्ली में? हम आ रहे हैं जल्दी ही...तुमसे इतना कुछ सीखा है कि लिख कर तुम्हें लौटा नहीं सकती...तुम्हें चिट्ठियाँ लिखते हुये मैं खुद को तलाशा है। बातें वही रहती हैं, पर तुम कहते हो तो खास हो जाती हैं...मेरी सारी दुआएं तुम्हारी।

कोई रह गया हो तो बताना...तुमपर एस्पेशल पोस्ट लिख देंगे...गंगा कसम J बाप रे! कितने सारे लोग हो गए...और इसमें तो आधे ऐसे हैं कि मेरी कभी तारीफ भी नहीं करते ;) और हम कितना अच्छा अच्छा बात लिख रहे हैं।

ऊपर वाले से झगड़ा लगभग सुलट गया है...इस खुशगवार जिंदगी के लिए...ऐसे बेमिसाल दोस्तों के लिए...ऐसे परिवार के लिए जो मुझे इतना प्यार करता है...बहुत बहुत शुक्रिया।

मेरी जिंदगी चंद शब्दों और चंद दोस्तों के अलावा कुछ नहीं है...आप सबका का मेरी जिंदगी में होना मेरे लिए बहुत मायने रखता है...नए साल पर आपके मन में सतरंगी खुशियाँ बरसें...सपनों का इंद्रधनुष खिले...इश्क़ की खुशबू से जिंदगी खूबसूरत रहे!

एक और साल के अंत में कह सकती हूँ...जिंदगी मुझे तुझसे इश्क़ है! 
इससे खूबसूरत भी और क्या होगा।

आमीन!

30 September, 2011

फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

'तुम खो गए हो,' नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये. 

'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत. 

स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.

सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.

ये पेन किसी को चाहिए?
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं. 


हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?


20 September, 2011

कुछ अच्छे लोग जो मेरी जिंदगी में हैं...

बुखार देहरी पर खड़ा उचक रहा है. आजकल बड़ा तमीजदार हो गया है, पूछ कर आएगा. ऑफिस का काम कैसा है, अभी बीमार पड़ने से कुछ ज्यादा नुकसान तो नहीं होगा, काम कुछ दिन टाला जा सकता है या नहीं. उम्र के साथ शरीर समझने लगता है आपको...कई बार आपके हिसाब से भी चलने लगता है. किसी रात खुद को बिलख कर कह दो, अब आंसू निकलेंगे तो आँखें जलन देंगी तो आँखें समझती हैं, आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुप हो जाती हैं. 

एक दिन फुर्सत जैसे इसलिए मिली थी की थकान तारी है. थकान किस चीज़ की है आप पूछेंगे तो नब्ज़ पर हाथ रख कर मर्ज़ बतला नहीं सकती. अलबत्ता इतना जरूर पता है कि जब किताबों की दुकान में जा के भी चैन न पड़े तो इसका मतलब है कि समस्या बेहद गंभीर होती जा रही है. 

सोचती हूँ इधर लिखना कम हो गया है. बीते सालों की डायरी उठती हूँ तो बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है. तितली के पंखों की तरह रंगीन. इत्तिफ़ाक़न ऐसा हुआ है कि कुछ पुराने दोस्त मिल गए हैं. यही नहीं उनके अल्फाज़ भी हैं जो किसी भटकी राह में हाथ पकड़ के चलते हैं...कि खोये ही सही, साथ तो हैं. विवेक ने नया ब्लॉग शुरू किया, हालाँकि उसने कुछ नया काफी दिन से नहीं लिखा. पर मुझे उम्मीद है कि वो जल्दी ही कुछ लिखेगा.

इधर कुछ दिनों से पंकज से बहुत सी बात हो रही है. पंकज को पहली बार पढ़ा था तो अजीब कौतुहल जागा था...समंदर की ओर बैठा ये लड़का दुनिया से मुंह क्यूँ फेरे हुए है? आखिर चेहरे पर कौन सा भाव है, आँखें क्या कह रही होंगी. उस वक़्त की एक टिपण्णी ने इस सुसुप्तावस्था के ज्वालामुखी को जगा दिया और वापस ब्लॉग्गिंग शुरू हुयी. मुझे हमेशा लगता था कि एकदम सीरियस, गंभीर टाइप का लड़का है...पता नहीं क्यूँ. वैसे लोगों को मैं इस तरह खाकों में नहीं बांटती पर ये केस थोड़ा अलग था. इधर पंकज का एक नया रूप सामने आया है, PJs झेलने वाला, इसकी क्षमता अद्भुत है. कई बार हम 'missing yahoo' से 'ROFL, ROFLMAO' और आखिर में पेट में दर्द होने के कारण सीरियस बात करते हैं. जहर मारने और जहर बर्दाश्त करने की अपराजित क्षमता है लड़के में. कितनी दिनों से अवसाद से पंकज ने मेरी जान बचाई है...यहाँ बस शुक्रिया नहीं कहूँगी उसका...कहते हैं शुक्रिया कहने से किसी के अहसानों का बोझ उतर जाता है. काश पंकज...तुम थोड़ा और लिखते. 

आज ऐसे ही मूड हो रहा है तो सोच रही हूँ दर्पण को भी लपेटे में ले ही लिया जाए. दर्पण मुझे हर बार चकित कर देता है, खास तौर से अपनी ग़ज़लों से. मुझे सबसे पसंद आता है उसकी गज़लें पढ़कर अपने अन्दर का विरोधाभास...ग़ज़ल एकदम ताजगी से भरी हुयी होती हैं पर लगता है जैसे कुछ शाश्वत कहा हो उसने. अनहद नाद सा अन्तरिक्ष में घूमता कुछ. कभी कभार बात हुयी है तो इतना सीधा, सादा और भला लड़का लगा मुझे कि यकीन नहीं आता कि लिखता है तो आत्मा के तार झकझोर देता है. पहली बार बात हुयी तो बोला...पूजा प्लीज आपको बुरा नहीं लगेगा...मुझे कुछ बर्तन धोने हैं, मैं बर्तन धोते धोते आपसे बात कर लूं? दर्पण तुम्हारी सादगी पर निसार जाएँ. 

ज्यादा बातें हो गयीं...बस आँखें जल रही हैं तो लिखा हुआ अब पढूंगी नहीं...इसे पढ़ के किसी को झगड़ा करना है तो बुखार उतरने के बाद करना प्लीज...

18 September, 2011

किस्सा नए लैपटॉप का- 2

इस भाग में आप पायेंगे की हमने कैसे वायो और डेल में पसंदीदा लैपटॉप चुना. इसके पहले का भाग यहाँ है. इसमें आप ये भी पायेंगे की एक लड़की का और एक लड़के का किसी भी तरह के सामान खरीदने के पीछे एकदम अलग मनोविज्ञान होता है. 

वायो VPCCB14FG/B के इस मॉडल में १५.५ इंच फुल हाई डेफिनिशन स्क्रीन थी और मैक के स्क्रीन की तुलना में सबसे अच्छी स्क्रीन लगी थी मुझे. लैपटॉप की प्रोसेसिंग स्पीड के अलावा जिस छोटे से फीचर के कारण मेरा चुनाव टिका हुआ था वो था बैकलिट कीबोर्ड. अक्सर मैं और कुणाल अलग अलग टाइम पर काम करना पसंद करते हैं तो कई बार होता है कि उसे सोना होता है और मुझे काम भी करना होता है. रात को कभी कभार लिविंग रूम में मुझे ३ बजे डर सा लगता है...अब लाईट जला के काम करती हूँ उसे सोने में दिक्कत होती है और बिना लाईट के लिखने में मुझे परेशानी. बैक लिट कीबोर्ड किसी लो-एंड मॉडल में नहीं था...तो ये मॉडल ५४ हज़ार का पड़ रहा था मुझे. बहुत दिन सोचा कि १० हज़ार के लगभग ओवर बजट हो रहा है मगर कोई और मॉडल पसंद ही नहीं आ रहा था और फिर लगा कि लंबे अरसे तक की चीज़ है...और कुणाल ने कहा...अच्छा लग रहा है ना, ले लो...इतना मत सोचो :)

मेरे लिए लैपटॉप का भी सुन्दर होना अनिवार्य था...मैं बोरिंग सा डब्बा लेकर नहीं घूम सकती...लैपटॉप सिर्फ क्रियात्मक(functional) होने से नहीं चलेगा. उसे मेरे स्टाइल के मानकों पर भी खरा उतरना होगा. मैं डेल के शोरूम गयी, डेल के मॉडल ने मुझे प्रभावित नहीं किया. मेरे लिए लैपटॉप भी पहली नज़र का प्यार जैसा होना जरूरी था...यहाँ के लैपटॉप मुझे अरेंज मैरिज जैसे लगे. उसपर डेल की जो सबसे बड़ी खासियत है, वो आपकी पसंद के फीचर्स के हिसाब से लैपटॉप कस्टमाईज कर के देंगे, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा. लगा की गोलगप्पा या चाट बनवा के खा रही हूँ...थोडा मिर्ची ज्यादा देना...ना न नमक तेज लग रहा है. मेरी ये बात सुन के टेकिस(Techies/Geeks) अपना सर फोड़ सकते हैं इसलिए उनको यहीं चेता रही हूँ की कृपया आगे न पढ़ें. मेरे लैपटॉप खरीदने के कारण यहाँ से होरोर मोड में आगे बढ़ेंगे. डेल के लैपटॉप थोड़े ज्यादा भारी(read bulky) लगे, किसी लड़के के लिए ठीक हैं पर मेरे लिए...उनमें नज़ाकत नहीं थी(आप कहेंगे होनी भी नहीं चाहिए, खैर). कुणाल के लिए, या मेरे भाई के लिए परफेक्ट हैं (पापा के पास भी डेल ही है) पर मेरे लिए...एकदम न...ऐसा लैपटॉप लेकर मैं नहीं घूम सकती. 

तो फिर सोनी का VPCCB14FG/B चुना...बुक करवा दिया था और जब खरीदने पहुंची तो उन्होंने बताया की ये मॉडल स्टॉक में ही नहीं है सिर्फ नारंगी और हरे रंग में है. मुझे एकदम रोना आ गया...मैं वहीं बैठ के आंसू बहाने वाली थी की क्रोमा के फाइनांस वालों ने तुरंत्बुद्धि का परिचय देते हुए मुझे बगल में ही सोनी शोरूम चलने को कहा. वहां भी बहुत देर तलाशने के बाद मॉडल नहीं मिला...तब तक मेरी नज़र इस लैपटॉप पर जा चुकी थी VPCCA15FG/R...गहरे लाल रंग का ये लैपटॉप उसी दिन आया था शोरूम में...और इससे प्यार हो चुका था. इसके सारे फीचर्स पहले वाले के ही थे बस स्क्रीन १४ इंच थी और फुल हाई डेफिनिशन नहीं थी. मुझे पहले भी १५.५ थोडा ज्यादा बड़ा लग रहा था  क्यूंकि मैं लैपटॉप लेकर अक्सर घूमती फिरती रहती हूँ. फुल HD नहीं होने का थोडा चिंता हुयी पर मैं वैसे भी लैपटॉप पर फिल्में नहीं देखती...तो लगा की छोटे साइज़ में और इस रंग के लिए ये कॉम्प्रोमाइज चलेगा. 

वैसे भी सोनी के लाल रंग के लैपटॉप पर मेरा सदियों पहले से दिल आया हुआ था. लैपटॉप बेहद अच्छा चल रहा है...बहुत ही फास्ट है, हल्का है २.४ किलो और रंग ऐसा की जिस मीटिंग में जाती हूँ नज़रें लैपटॉप पर :) ये रंग मार्केट में सबसे तेज़ी से बिकता भी है...जब भी ढूंढिए आउट ऑफ़ स्टोक मिलता है. 

पिछले कुछ दिनों में प्रवीण जी और अनुराग जी ने भी लैपटॉप ख़रीदे. प्रवीण जी का मैक एयर है और अनुराग जी ने डेल इन्स्पिरोन(लाल रंग में) ख़रीदा. प्रवीण जी अपने लैपटॉप को पहली नज़र का प्यार कहते हैं जबकि अनुराग जी उसे 'मेरा प्यार शालीमार'. इन दोनों की और मेरी खुद की पूरी प्रक्रिया पर नज़र डालती हूँ तो एक बात साफ़ दिखती है...हम चाहे जो सोच कर, दिमाग लगा कर, लोजिक बिठा कर खरीदने जाएँ...लैपटॉप जैसे मशीन भी हम प्यार होने पर ही खरीदते हैं. :) दिल हमेशा दिमाग से जीतता है. 

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
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फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

09 June, 2011

मेरे बर्थडे पर आप क्या गिफ्ट कर रहे हैं?

कल मेरा जन्मदिन है...देखती हूँ की हर साल इस मौके पर थोड़ी सेंटी हो जाती हूँ. बहुत कुछ सोचती हूँ...जाने क्या क्या सपने, कुछ तो गुज़रे हुए कल के हिस्से...खोयी सी रहती हूँ...इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. 

भाई का गिफ्ट कल आ गया है :) :) आज कुणाल भी मेरा गिफ्ट खरीद के ला रहा है...शाम में मैं जाउंगी अपनी पसंद का कुछ लेने...पता नहीं क्या...अभी तक कुछ सोचा नहीं है. मुझे सबसे अच्छी लगती है घड़ी...पर मेरे पास ४ ठो घड़ी पहले से है तो कुणाल बोल रहा है कि एक और नहीं मिलेगी...और कुछ लेना है तो बताओ...नहीं तो  वो अपनी पसंद का ला देगा. 

इस बार बहुत दिनों में पहली बार मेरे दो बहुत अच्छे दोस्त शहर में ही हैं...पूजा और इन्द्रनील...तो इस बार बर्थडे पर थोडा ज्यादा अच्छा लगेगा :) :) पूजा अभी मंडे को मिलने भी आई थी...कितना अच्छा लगा कि क्या कहें...और हमने ढेर सारी खुराफातें भी की. 

चूँकि ब्लॉग पर भी इतने अच्छे लोगों से मिली हूँ...और अच्छी दोस्ती हो गयी है...तो सोचा कि इतना सोच के कहाँ जायेंगे...बोल ही देते हैं :) इस बार हमको एक तोहफा चाहिए...आप सब से...जो पता नहीं कैसे अब तक हमको पढ़ते रहे हैं...हालाँकि आजकल हमको अपना लिखा एकदम पसंद नहीं आ रहा अक्सर...फिर भी. 

इस बार मेरे बर्थडे पर आप अपनी पसंद कि कोई एक किताब...जो आपको लगता है मुझे पढ़नी चाहिए... कमेन्ट बॉक्स में लिखिए...और अगर आपका दिल करे तो थोड़ा सा उस किताब के बारे में भी...कुछ ऐसे कि 'पूजा हमको लगता है तुमको हरिशंकर परसाई की किताब सदाचार का तवी पढना चाहिए क्यूंकि हमको लगता है तुम्हारा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर लापता हो गया है'. इसके अलावा आप मुझे कोई भी मुफ्त की सलाह दे सकते हैं...लिखने के बारे में...दिमाग ठीक करने के बारे में या कि कुछ जो आपको लगे कि मुझे लिखना चाहिए या कोई ब्लॉग जो मुझे एकदम पढना चाहिए(आपके खुद के ब्लॉग के सिवा ;) ). हाँ इसके अलावा...एक और चीज़ आप मुझे बता सकते हैं...कोई खास फिल्म जो आपको पर्सनली पसंद हो :) 

बस...बर्थडे की फोटो कल पोस्ट करुँगी :) ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता...जब फ्री की सलाह को गिफ्ट माना जाए...तो टनाटन आने दीजिये :) 

28 April, 2010

मोबाइल में हिंदी ब्लोग्स देखना

नोट: ये एक लम्बी पोस्ट है, जिनको सिर्फ फ़ोन में हिंदी देखने के जुगाड़ में इंटेरेस्ट है, स्क्रोल करके आखिर के पॉइंट्स पढ़ सकते हैं।
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इसके लिए इंग्लिश में एक टर्म है"शो ऑफ", तो मैं आज शो ऑफ कर रही हूँ :)

बहुत दिन हो गए थे नया फ़ोन ख़रीदे हुए, अपने फ़ोन से थोड़ी बोर हो गयी हूँ तो सोचा की नया फ़ोन लिया जाए। मेरे पास फ़िलहाल सोनी एरिक्सन का फ़ोन है। फ़ोन खरीदते वक़्त ब्लॉग्गिंग नहीं की थी, और कभी जरूरत नहीं लगी थी फ़ोन पर ब्लॉग देखने या पढने की। मेरे फ़ोन में हिंदी फोंट्स नहीं होने के कारण सिर्फ बक्से नज़र आते हैं किसी भी वेब साईट पर।

अब जो नया फ़ोन खरीदना है, उसमें तीन चीज़ें चाहिए थी...दिखने में अच्छा होना, हिंदी पढने की सुविधा होना और अच्छा कैमरा होना। मैंने सब देख सुन के विवाज़ को पसंद किया। यहाँ से परशानी शुरू हुयी की हिंदी कैसे पढ़ी जाए फ़ोन पर। क्योंकि पहले की तुलना में मेरे ब्लॉग पर मेरा आना जाना बढ़ गया था।

इसके लिए बहुत सी रिसर्च की. पहले सैमसंग कार्बी बहुत पसंद आया था पर यही हिंदी फोंट्स की समस्या के कारण उसके बारे में नहीं सोचा।
रिसर्च के सिलसिले में फ़ोन, ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ा। एक हद तक अंदाजा हो गया कि फ़ोन काम कैसे करता है। बहुत दिन कुणाल को भी परेशान करने में बिताये कि फ़ोन पर फोंट्स डाउनलोड करने का कुछ जुगाड़ बताओ। कोई सीधा और सिम्पल रास्ता नहीं मिला।

मोबाइल भी कंप्यूटर की तरह ओपेरातिंग सिस्टम से चलता है। अधिकतर स्मार्ट फ़ो में ऑपरेटिंग सिस्टम है सिम्बियन। लगभग पचास प्रतिशत स्मार्ट फ़ोन सिम्बियन ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलते हैं। मैंने सोनी एरिक्सन को मेल लिखा और अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि वो हिंदी फॉण्ट सपोर्ट नहीं देते हैं, और आगे भी उनका कोई इरादा नहीं है सपोर्ट देने का। तो मैंने सोचा कि सीधे operating सिस्टम वालों से बात की जाए।
सिम्बियन वालों का एक वेबसाइट हैं सिम्बियन आइडिया यहाँ पर वो operating सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए लोगों से अपने आइडियास देने को कहते हैं। एक बार जा के देखे, काफी अच्छी साईट है, और आप देख सकते हैं कि लोग वाकई मोबाइल को बेहतर बनाने के लिए कई दिशाओं में सोच रहे हैं।

मैंने भी अपनी प्रोफाइल बनायीं और अपनी बात रखी कि मोबाइल में हिंदी फोंट्स मिलने चाहिए ताकि लोग ब्लोग्स और अन्य वेब साइट्स पढ़ सकें। आप मेरी पोस्ट को यहाँ देख सकते हैं। और अगर आपको लगे कि हिंदी फोंट्स की जरूरत वाकई है तो आप मुझे सपोर्ट कर सकते हैं। मुझे ३० वोट चाहिए ताकि ये आईडिया अगली स्टेज तक जा सके। सिम्बियन पर ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें। कुल तीन स्टेज हैं, पहले आईडिया पर लोग अपनी सहमति/असहमति देते हैं, दूसरी स्टेज में उसपर एक एक्सपर्ट ग्रुप अपनी राय देता है और तीसरी स्टेज में आईडिया की जरूरत और उसको पूरा करने में आसानी/मुश्किल देखी जाती है और आईडिया पूरा होता है/रिजेक्ट होता है। तो अगर यहाँ हम हिंदी इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी राय दें, बताएं कि कैसे हमें हिंदी जरूरत है और बड़ी संख्या में इसकी मांग करें तो सिम्बियन अपने वर्शन के लिए ऐसा कोई सॉफ्टवेर में बदलाव करेगा जिससे किसी भी फ़ोन में हिंदी देखी जा सके।

मुझे कई बार लगता है कि हमें जो जरूरत होती है उसके लिए पूरी कोशिश किये बिना ही हम हार मान जाते हैं। अडजस्ट कर लेते हैं, समझौता कर लेते हैं परिस्थितियों से। पर अगर सच में किसी चीज़ के लिए लगातार कोशिश की जाए तो सफलता मिल के ही रहती है।

ये तो हुआ मोबाइल इस्तेमाल के लिए बदलाव की दिशा में एक लम्बा कदम जो धीरे धीरे शायद सफल होगा। हो सकता है ना भी हो।

फिलहाल के लिए जुगाड़। :)
ओपेरा एक वेब ब्रोव्सेर है, इसे आप इसकी वेबसाईट से डाउनलोड कर सकते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आप किसी भी कंप्यूटर पर हिंदी देख सकते हैं। अगर आपके कंप्यूटर में हिंदी फोंट्स नहीं है तब भी। इसी ब्रावज़र का मिनी वर्शन फ़ोन के लिए ओपेरा मिनी नाम से आता है। आप इसे या तो अपने फ़ोन से डाउनलोड कर सकते हैं, या कंप्यूटर पर डाउनलोड करके अपने फ़ोन पर सेव कर सकते हैं। छोटी सी २६२ किलोबाईट की फाइल है, इसे अपने मोबाइल पर सेव करें और फिर execute कर लें। इसके बारे में गूगल किया और इस पेज से सब कुछ समझ में आया, चूँकि वहां शुक्रिया बोलने का कोई तरीका नहीं है, अपने ब्लॉग पर कह रही हूँ। शुक्रिया अनिन्दा।
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मैं स्टेप बाई स्टेप लिखती हूँ
  1. यहाँ से अपने फ़ोन के लिए कंप्यूटर पर ओपेरा मिनी डाउनलोड करें। मेनू से अपना फ़ोन सेलेक्ट करें, जैसे नोकिया, सोनी एरिक्सन इत्यादि। ये एक executable फाइल है।
  2. ओपेरा मिनी फाइल को अपने फ़ोन पर सेव करें। फ़ोन में आप कहीं भी सेव कर सकते हैं। मैंने वेब पेज में सेव किया था।
  3. फ़ोन में उस फाइल पर क्लिक करें, इससे ओपेरा मिनी आपके फ़ोन में इन्स्टाल हो जायेगा। अधिकतर फ़ोन में ऑप्शन आता है कि आप इसे कहाँ सेव करना चाहते हैं। मैंने applications में सेव किया था। वहां आपको शोर्ट कट मिलेगा ओपेरा ब्रावज़र खोलने का। ये इंग्लिश का "O" लेटर होता है।
  4. वेब एड्रेस की जगह opera:config टाईप करें। ध्यान दें, इसके पहले http/www नहीं लगायें। एक पन्ना खुलेगा जिसमें Power-User settings लिखा होगा।
  5. स्क्रोल करके नीचे आयें, पन्ने के आखिर में use bitmap fonts for complex scripts लिखा मिलेगा, उसके आगे no लिखा होगा, उसे क्लिक करके yes कर दें।
  6. बस...अब कोई भी वेब पेज खोलें। हिंदी में पढ़ सकतें हैं।
मैं जानती हूँ मैंने कोई बड़ा तीर नहीं मारा है...पर ये एक ऐसी चीज़ थी जिसकी मुझे सख्त जरूरत थी। इसके लिए मैंने बहुत कुछ पढ़ा। technology के बारे में कुछ भी ना जानते हुए, ढेरों पन्ने पढ़े जिनका एक भी शब्द नहीं समझ आता था। पर धीरे धीरे आने लगा।

मैं इसे अपनी achivement मानती हूँ। काम जितना मुश्किल हो, उसे करने के बाद उतना ही अच्छा लगता है। उम्मीद है मेरी इत्ती मेहनत से किसी का फायदा होगा।

10 April, 2009

सेंटी ब्लॉग पोस्ट...जुगाडू ब्लॉग्गिंग

आज हम सुबह से सेंटी हुए जा रहे हैं...वैसे तो कवि को चौबीसों घंटे सेंटी होने का हक मिला रहता है पर बाकी लोगो की तबियत का ख्याल रखना पड़ता है...तो हम जियो और जीने दो के तहत अपना सारा सेंटी दिल में दफ़न कर लेते हैं। और जब सेंटी होने का दिन आता है तो सारे गड़े मुर्दे उखाड़ कर घोर सेंटी हो जाते हैं।

बात ये है कि किसी कमबख्त ऑफिस वालों ने रिसेशन के ज़माने में भी वैकेंसी निकाल दी, हम भी बैठे ठाले मगजमारी ही कर रहे थे, अब भाई ब्लॉग्गिंग के पैसे थोड़े मिलते हैं...और जिस फ़िल्म की महान स्क्रिप्ट पर हम काम कर रहे थे उसकी एक एक डिटेल किसी को सुनाये बिना चैन ही ना पड़ता था। इस चक्कर में मुझ बेचारी का मोबाइल बिल खाने पीने से ज्यादा महंगा पड़ रहा था। तो हमने सोचा चले जाते हैं इंटरव्यू देने...किसी का दिमाग खायेंगे, थोड़ा खाने के पैसे बचेंगे। मज़े से गए और चूँकि टेंशन कुछ थी नहीं...एकदम बिंदास इंटरव्यू दे दिए...उन बेचारों को शायद हमारी शकल पसंद आ गई...सो उन्होंने अकल टेस्टिंग के लिए एक कॉपी टेस्ट थमा दिया।

ये कॉपी टेस्ट एक ऐसी बला होती है जिसकी तुलना हमें अपने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए दिए गए रिटेन एक्साम के अलावा किसी से नहीं कर सकते हैं। कॉपी टेस्ट एक ऐसा टेस्ट होता है जो आपके दिमागी घुमक्कड़पने (पागलपंथी?)को टेस्ट करता है...और बखूबी करता है। मसलन...एक सवाल था...
"Concoct a short story (about 250 words) that starts with Neil Armstrong going on the moon mission, and ends with Mallika Sherawat kissing John F Kennedy। Other characters in the story are a goat, an umbrella, and an undertaker। "

इसका जवाब हम किसी दिन जरूर पोस्ट करेंगे ये वादा है हमारा...और जनाब ऐसे पाँच सवाल थे। सभी सवालों में ऐसी खुराफात मचाई थी हमने कि क्या बताएं, भाई बड़ा मज़ा आया था लिखने में। अब पढने वाले का क्या हाल हुआ था वो हमें नहीं मालूम...पर इसके बाद हमारा एक और राउंड हुआ इंटरव्यू का और फ़िर से तीन सवाल हल करने को दिए गए।

कॉपी टेस्ट घर लाकर करना होता है...यानि कि नींद ख़राब, खाना ख़राब...और सबसे बढ़कर ब्लॉग्गिंग की वाट लग गई, अपना तो ये हाल है कि ब्लॉगर पहले हैं इंसान बाद में तो समझ सकते हैं कि ब्लॉग्गिंग नहीं करने पर कितना गहरा अपराध बोध होता है...लगता है कोई पाप कर रहे हैं, हाय राम पोस्ट नहीं लिखी, कमेन्ट नहीं दिया, चिट्ठाचर्चा नहीं पढ़ी, ताऊ की पहेली का जवाब नहीं ढूँढा...ऐसे ही चलता रहा तो जो भगवान के दूतों ने ब्लॉग्गिंग पर डॉक्टरेट कि डिग्री दे ही वो भी कहीं निरस्त ना हो जाए। अब हम कोई दोक्टोरी पढ़े तो हैं नहीं कि भैया एक बार पढ़ लिए तो हो गए जिंदगी भर के लिए डॉक्टर...हमारा तो दिल ही बैठ जाता है मारे घबराहट के चक्कर आने लगते हैं।

तो मुए ऑफिस वालों ने हमें कह दिया कि मैडम आप आ जाईये हमें आप जैसे पागलों की ही जरूरत है...monday यानि कि १३ बड़ी शुभ तारीख है, तो आप हमारे ऑफिस को कृतार्थ कीजिये। हम तो सदमे में हैं तब से...कहाँ फ्रीलांसिंग का ऐशो आराम और कहाँ साढ़े नौ से छः बजे की खिट खिट उसमें हम ठहरे बहता पानी निर्मला...एक जगह टिक के बैठने में घोर कष्ट होता है हमें।

जले पर नमक छिड़कने को सुबह सुबह एयरटेल वालो का फ़ोन आ गया...हमारे इन्टरनेट कनेक्शन पर 15gb फ्री दे रहे थे डाऊनलोड...मानो उन्हें भी सपना आ गया हो कि हमें अब घर में नेट पर बैठने कि फुर्सत ही नहीं मिलेगी। बस ये आखिरी वार हमारी कमर तोड़ गया...हम तबसे बड़ी हसरतों से अपने लैपटॉप को देख रहे हैं।

मौका है, माहौल है, दस्तूर भी है....सेंटी हो लेते हैं। जाने कैसा होगा ऑफिस और कितनी फुर्सत मिल पाएगी....मेरे बिना अमीबा जैसे प्राणियों पर कौन पोस्ट लिखेगा...उनका उद्धार कैसे होगा। और सबसे बढ़कर मेरा मोक्ष अटक जायेगा...आप तो जानते हैं कि कलयुग में बिना ब्लॉग्गिंग के मोक्ष नहीं मिलता। शायद अगले जनम में फ़िर पोस्टिंग होगी...या हम भी भूत योनि में ही ब्लोग्गिन करने लगें, कौन जाने!

मगर हम हिम्मत नहीं हारे हैं...ब्लॉग्गिंग के गुरुओं से हम माइक्रो पोस्ट लिखना सीखेंगे...या कुछ और उपाय...आज से हम जुगाडू ब्लॉग्गिंग करेंगे। कोई ना कोई जुगाड़ तो होगा ही :)

13 March, 2009

और भी गम हैं ज़माने में ब्लॉग्गिंग के सिवा...

पिछली पोस्ट में हम दुखी थे, फ़िर शिव कुमार जी ने समझाया की देश बेगाना नहीं है बहुत से लोग हमारी पोस्ट का समर्थन कर रहे हैं...और उन्होंने पुलिस को एक एक गिलास ठंढई भेजने की भी जरूरत बताई...अब उसके बाद अनूप जी आए, और उन्होंने कहा की शिवजी ठंढई भेज रहे हैं उसे पियो और पोस्ट लिखो...वैसे तो शिव जी पुलिस वालों के लिए ठंढई भेज रहे थे पर हम अनूप जी की बात कैसे टाल सकते हैं...तो हम आज पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो आज पहले बता देते हैं की इस पोस्ट में लिखी चीज़ों के लिए हमें नहीं अनूप जी को दोषी ठहराया जाए। वैसे आप पूछ सकते हैं की आज पहली बार क्या हुआ है, पहली बार ठंढई पी है या पहली बार ठंढई पी कर पोस्ट लिख रहे हैं। तो ये बात हम साफ़ नहीं करेंगे....ये राज़ है :) (राज ठाकरे वाला नहीं)

मिजाज प्रसन्न है तो हमने सोचा क्यों न ये ही लिख दिया जाए की ब्लॉग पोस्ट लिखी कैसे जाती है...तो भैय्या मैं नोर्मल ब्लॉग पोस्ट की बात कर रही हूँ, मेरी इस वाली जैसे पोस्ट की नहीं की भांग चढ़े और कुर्सी टेबल सेट करके लैपटॉप पर सेट हो गए...कि जो लिखाये सो लिखाये डिस्क्लेमर तो पहले ही लगा दिए हैं। क्या चिंता क्या फिकर...

आजकल ब्लॉग पर भी बड़ा सोच समझ के लिखना पड़ता है...क्या पता पुलिस पकड़ के ले जाए, वैसे भी आजकल पुलिस को ऐसे निठल्ले कामों में ही मन लगता है...मैं तो सोच रही हूँ पुलिस वालो को ब्लॉग्गिंग का चस्का लगवा दिया जाए, एक ही बार में मुसीबत से छुटकारा मिल जायेगा। तो आजकल डर के मारे ब्लोग्स के ज्यादा आचार संहिता पढ़ती हूँ, सोचा तो था की लॉ कर लूँ पर शायद कोई फरमान आया है की २५ साल से कम वाले ही admission ले पायेंगे(इस ख़बर की मैंने पुष्टि नहीं की है) "शायद" लिखने से या फ़िर "मैं ऐसा सोचती हूँ" लिखने से आप कई मुसीबतों से बच जाते हैं इसलिए मैं इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हूँ। वैसे तो मेरी सारी मुसीबत इस मुए ब्लॉग की वजह से है और इस बीमारी का कोई इलाज मिल नहीं पाया है अब तक तो खुन्नस में सारी पोस्ट्स ब्लॉग पर ही लिखे जा रही हूँ।

अब इस सोच समझ के लिखने वाली पहली शर्त के कारण हम जैसे लोगों का जो हाल होता है वो क्या बताएं...कविता लिखने से बड़ी प्रॉब्लम कुछ है ही नहीं...अब मैं लिखूंगी कि आजकल धूप कम निकलती है मेरे आँगन में और सोलर पैनल वाले आ जाएँ झगड़ा करने कि मैडम आपलोगो को सोलर एनर्जी इस्तेमाल करने से रोक रही हो। अब लो, अर्थ का अनर्थ, बात का बतंगड़। या फ़िर मैं लिखूं कि आजकल रोज आसमान गहरा लाल हो जाता है और बीजेपी वाले चढ़ जाएँ त्रिशूल लेकर कि आप गहरा लाल कैसे लिख रही हैं आसमान तो केसरिया होता है, आप ऐसे कवितायेँ करके कम्युनिस्टोंको खुल्लेआम सपोर्ट नहीं कर सकती। कविता में से तो कुछ भी अर्थ निकले जा सकते हैं, अब आप चाहे कुछ भी समझाने कि कोशिश कर लो...मुसीबत आपके सर ही आएगी। और हम ठहरे छोटे से ब्लॉगर कम से कम जर्नलिस्ट भी होते तो कुछ तो धमकी दे सकते थे।

अब इतना सोच समझ के कविता किए तब तो हो गया लिखना...भाई कविता लिखने का तरीका है कि बस धुंआधार कीबोर्ड पर उँगलियाँ पटके जाओ, थोड़ी थोड़ी देर में इंटर मार दो...बस हो गई कविता। अब सोचे लगे तो थीसिस न कर लें जो कविता लिख के मगजमारी कर रहे हैं। हमारा तो कविता लिखने का स्टाइल चौकस है, हम तो बस चाँद, बादल, प्यार, बारिश या फ़िर दिल्ली पर लिखेंगे इससे ज्यादा हमसे मेहनत मत करवाओ जी...कभी कभी बड़े बुजुर्गों का आदेश हो तो कुछ और पर भी लिख लेते हैं, जैसे देखिये शिव जी के गुझिया सम्मलेन में हमने गुझिया पर कविता लिखी।

कवियों को कहीं भी ज्यादा भाव नहीं दिया जाता, उसपर कोई भी टांग खींच लेता है, लंगडी मार देता है...कवि का जीवन बड़ा दुखभरा होता है उसपर ऐसा कवि जो ब्लॉगर हो...उसे तो जीतेजी नरक झेलना पड़ता है जी, अपनी आपबीती है, कितना दुखड़ा रोयें, वैसे भी और भी गम है ज़माने में ब्लोग्गिन के सिवा।

समाज के बारे में पता नहीं लोग कैसे इतना लिख लेते हैं, हमारे तो कुछ खास पल्ले नहीं पड़ता...अब पिछली पोस्ट लिखी थी कि भैय्या हमें अपना देश बिराना लग रहा है...कोई योगेश गुलाटी जी आकर कह गए कि एक बार फ़िर विचार कीजिये, देश पराया हो गया है कि आपकी सोच विदेशी हो गई है? डायन, आधुनिक लड़कियां, छोटे कपड़े, जाने क्या क्या कह गए जिनका पोस्ट से कोई सम्बन्ध नहीं था...कहना ही था तो शिष्टाचार तो बरता ही जा सकता था चिल्लाने की क्या जरूरत थी...इन्टरनेट पर रोमन में कैपिटल लेटर्स में लिखना चिल्लाना माना जाता है. इतना लम्बा कमेन्ट वो भी मूल मुद्दे से इतर, भई इससे अच्छा आप पोस्ट ही लिख देते अपने ब्लॉग पर...मेरे कमेन्ट स्पेस को पब्लिक प्रोपर्टी समझ कर इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी. मेरे होली पर जो विचार थे मैंने लिखे आप असहमत थे आप लिखते, बाकी चीज़ें क्यों लपेट दी?

तो समाज के प्रति लिखने का ठेका कुछ लोगो ने ले रखा है, जिनका अपने ब्लॉग पर लिखने से मन नहीं भरता तो दूसरो के कमेन्ट स्पेस भरते चलते हैं...वैसे मेरा पाला इन लोगो से कम ही पड़ा है. कह तो देती की इनसे भगवान बचाए पर भगवान ने इनसे बचने का सॉफ्टवेर अभी तक इजाद नहीं किया है, शायद कुछ दिन बाद ऐसी अर्जियां वहां एक्सेप्ट होने लगें. तब तक इनको झेलना तो हमारी मजबूरी है.


हम वापस आ कर कविता पर ही टिक जाते हैं...इसपर हमें गरियाया जाए तो क्या कर सकते हैं.

ये वाली पोस्ट हमारी रिसर्च का hypothesis है आगे आगे देखें क्या नतीजा निकलता है।

06 March, 2009

ब्लॉगर कैसे बना?

आज मैं आपके साथ एक गूढ़ प्रश्न की खोज में चलती हूँ...ये वो प्रश्न है जो हम सबके मन में कभी न कभी कीड़ा करता रहता है...सवाल ये है कि "ब्लॉगर कैसे बना?"

बचपन में नानाजी खूब कहानी सुनाये थे हमको उसी में सुने थे कि ब्रह्मा जी कितना मेहनत से दुनिया बनाये, अकेले उनसे नहीं हो रहा था तो सरस्वाजी जी का हेल्प लेना पड़ा(और हम एक्साम या पोस्ट लिखें के लिए उनका हेल्प मांगते हैं तो क्या गलत करते हैं, हम ठहरे साधारण इंसान). ब्रह्मा जी ने जिस तरह से दुनिया बनाई उसमें बड़े लफड़े जान पड़े मुझे, हर बार कहानी सुनते थे तो एक version बदला हुआ हो जाता था, गोया विन्डोज़ का नया version रहा हो इसी तरह नानाजी भी बहुत सारी थ्योरी सुनाये थे हम लोग को.

स्कूल में आये तो पढ़ा कि प्रभु ने कहा "लेट देयर बी लाईट" और प्रकाश हो गया, इसी प्रकार विश्व की रचना हुयी, वो नाम लेते गए और चीज़ें पैदा होती गई...आज सोचती हूँ की प्रभु ने कहा "ब्लॉगर" और ब्लॉगर बन गया...ऐसा तो नहीं हुआ था?!...फिर लगा की ब्लॉगर जैसी महान और काम्प्लेक्स चीज़ इतनी आसानी से पैदा नहीं हो सकती...तो इसके लिए हमें रिसर्च करना पड़ा...वैसे तो माइथोलोजी में जाइए तो कोई मुश्किल ही नहीं है, क्योंकि वहां सबूत नहीं ढूंढें जाते, विश्वास से काम चल जाता है। तो मैं आराम से कह देती कि एक ब्लॉग्गिंग पुराण भी है जो लुप्त हो गया था...कुछ दिन पहले सुब्रमनियम जी ने एक खुदाई के बारे में बताया था, वहां के पाताल कुएं में गोता लगा कर मैंने ख़ुद से ये पुराण ढूंढ निकाला है(मानवमात्र की भलाई के लिए मैं क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ). मगर मैं जानती हूँ आप लोग इस बात को ऐसे ही नहीं मांगेंगे...आपको सुबूत चाहिए।

ब्लॉगर के बनने की बात को समझने के लिए हमें इवोलूशन(evolution) की प्रक्रिया का गहन अध्ययन करना पड़ा...हमारी खोज से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं. ब्लॉगर होना आपके डीएनए में छुपा होता है, इसके लिए जेनेटिक फैक्टर जिम्मेदार होते हैं, बहुत सारी कैटेगरी में से हम ये छाँट के लाये हैं इसको समझने के लिए थोडा मैथ समझाते हैं हम आपको...
  1. सारे कवि ब्लॉगर हो सकते हैं मगर सारे ब्लॉगर कवि नहीं होते(कुछ तो कवियों के घोर विरोधी भी होते हैं, उनके हिसाब से सारे कवियों को उठा कर हिंद महासागर में फेंक देना चाहिए)
  2. सारे इंसान ब्लॉगर हो सकते हैं मगर सारे ब्लॉगर इंसान नहीं होते(आप ताऊ की रामप्यारी को ले लीजिये या फिर सैम या बीनू फिरंगी)
  3. ऐसे ब्लॉगर जो इंसान होते हैं और कवि नहीं होते गधा लेखक होते हैं(रेफर करें समीरलाल जी की पोस्ट)
ऊपर की बातों में अगर घाल मेल लगे तो आप उसका सही equation और reaction ख़ुद निकालिए हमने काफ़ी पहले से कह रखा है की हम मैथ में कमजोर हैं...एक तो ब्लॉगजगत की भलाई के लिए इतना जोड़ घटाव करना पड़ रहा है।

खैर, मैथ से बायोलोजी पर आते हैं...चूँकि जीव विज्ञान में सब शामिल होते हैं इसलिए इसी सिर्फ़ इंसानों के लिए वाली पोस्ट नहीं मानी जाए...वैसे भी हमारे प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस ने बहुत पहले साबित कर दिया था की पेड़ पौधे संगीत के माहौल में तेजी से बढ़ते हैं, कल को कौन जाने ये साबित हो जाए कि पेड़ पौधे ब्लॉग्गिंग करने से जल्दी बढ़ते हैं तो कोई पेड़ भी अपना ब्लॉग बना लेगा। हम उस परिस्थिति से अभी से निपट लेते हैं...

ब्लॉग्गिंग का जीन जो होता है डीएनए में छुपा होता है...एक ख़ास तरह कि कोडिंग होती है इसकी, इसको अभी तक दुनिया का सबसे बड़ा supercomputer भी अनलाईज नहीं कर पाया है...इसलिए हमने चाचा चौधरी की मदद ली, आप तो जानते ही हैं कि चाचा चौधरी का दिमाग सुपर कंप्यूटर से भी तेज चलता है। हम दोनों ने काफ़ी दिनों तक एक एक करके डीएनए की कतरनें निकाली...एक बात बताना तो भूल ही गई कि हमारे पास इतने ब्लोग्गेर्स के डीएनए आए कहाँ से? तो ये बता दूँ कि जिस तरह आप ब्लॉग पर डाली पोस्ट चोरी होने से नहीं रोक सकते वैसे ही डीएनए चोरी होने से रोकना लगभग नामुमकिन है, और उसपर भी तब जब हमारे गठबंधन को दुनियाभर के मच्छरों का विश्वास मत मिल रखा हो...ये मच्छर दुनिया के कोने कोने से हमें खून के नमूने ला कर देते थे, वक्त के साथ इनमे ऐसे गुण डेवेलोप हो गए थे की सूंघ कर ही पता लगा लेते थे की सामने वाला ब्लॉगर है या नहीं...इन्हें फ़िर किसी नाम पते की जरूरत नहीं पड़ती थी।

ये ब्लोगजीन जो होता है...वक्त और मौके की तलाश में रहता है, आप इसे एक छुपे हुए संक्रमण की तरह समझ सकते हैं(इच्छा तो बहुत है की इसे इसके वास्तविक रूप में समझाउं पर आपको समझाते हुए कहीं मेरे फंडे न बिगड़ जाएँ इसका बहुत जोर से चांस है)। इसके पनपने और अपना लक्षण दिखाने में कुछ परिस्थितियों का अभूतपूर्व योगदान होता है जैसे की अकेलापन, मित्रों का कविता के प्रति उदासीन हो जाना, ऑफिस में स्थिरता का प्राप्त होना, पत्नी या प्रेमिका द्वारा प्रताड़ित होना, सफल कलाकार होना इत्यादि(आप इस लिस्ट में और भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं)। वैसे तो और भी बहुत सी परिस्थितियां होती हैं पर हम उनपर धीरे धीरे बात करेंगे(ताकि कोई सुन न ले)। ऐसी परिस्थितियां मिलते ही ये जीन जोर से अटैक करता है(आप इस जीन की अल्लादीन के जिन्न के साथ तुलना न करें ये आपके ही हित में होगा) और व्यक्ति में ब्लॉगर के लक्षण उभरने लगते हैं।

ये लक्षण हैं हमेशा कंप्यूटर पर बैठने की इच्छा होना, दूसरों के ब्लॉग पढ़ना, ब्लॉग्गिंग के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करना...ये लगभग २४ घंटे का फेज होता है, अगर इस समय व्यक्ति को ब्लॉग्गिंग के खतरों के बारे में चेता दिया जाए तो वह बच सकता है...वरना कोई उम्मीद नहीं...संक्रमण होने के २४ घंटे के अन्दर व्यक्ति अपना ब्लॉग बना लेता है...और पहली पोस्ट कर देता है।

इस तरह एक आम इंसान ब्लॉगर बन जाता है...इस समस्या से बचना नामुमकिन है, अभी तक इसकी न कोई दवाई है न वैक्सीन और कई लोग तो ये मानने से भी इनकार कर देते हैं कि उन के साथ कोई समस्या है। बाकी लोगो का फर्ज बनता है कि ब्लोग्गरों के प्रति संवेदनशील हों...पर अपनी संवेदनशीलता ह्रदय में ही रखें...यह एक संक्रामक बीमारी है और बहुत तेज़ी से फैलती है.

अगर जल्द ही इसे रोकने का उपाय न किया गया तो ये महामारी की शक्ल अख्तियार कर सकता है। डॉक्टर अनुराग आप कहाँ है?

03 March, 2009

भगवान...ब्लॉग्गिंग और डॉक्टरेट

कल ब्लॉग जगत के परम ज्ञानी और सत्य के ज्ञाता महानुभावों ने हमारी थीसिस पर हमें डॉक्टरेट की उपाधि दी॥कायदे से तो हमारा मन फूल के कुप्पा हो जाना चाहिए था और अपने इस महान उपलब्धि रुपी टिप्पणियों को प्रिंट करा के फ्रेम में मढ़ कर दीवाल पर टांगना चाहिए था...पर हमने ऐसा नहीं किया, इसलिए नहीं कि हम भी ज्ञानी हैं और जानते हैं कि ये सब क्षणभंगुर है...परन्तु इसमें एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है।

तो (दुर)घटना की शुरुआत १० जून को ही हो गई थी...यानि की जिस दिन हम धरती पर अवतरित हुए थे...अजी क्या बताएं भगवान ने बिल्कुल ही हमसे तबाह होकर हमें नीचे भेज दिया था, वहां हम उनका माथा खाते थे बहुत न इसलिए। बिहार की राजधानी पटना में हमने अपने कोलाहल की शुरुआत की, जैसे ही हम थोड़े बड़े हुए पटर पटर बोलना शुरू कर दिए...माँ की सिखाई सारी कवितायेँ तुंरत कंठस्थ कर लेते थे और टेबल पर खड़े होकर कविता पाठ शुरू करने में हमें कुछ भी शर्म नहीं आती थी...साधारण बच्चे थोड़ा बहुत नखरे दिखाते हैं, मगर मैं श्रोता को देख कर ऐसा अभिभूत हो जाती थी कि उसे पूरे सम्मान से जो भी आता था अर्पित करने में विश्वास रखती थी। आप लोग चूँकि इतने दिन से हमको झेल रहे हैं इसलिए इतने प्रकरण में ही समझ गए होंगे कि हममें बचपन से ही कवित्व के गुण विद्यमान थे। लेकिन हमारे मम्मी पापा को थोड़ा एक्सपेरिएंस कम था...आख़िर पहली संतान थे हम...तो उन्होंने इस सारे प्रकरण का एकदम उल्टा मतलब निकाल लिया...मतलब ये निकाला कि लड़की होशियार है, intelligent है, पढने में तेज है।

अब ऐसी लड़की का हमारे बिहार में उस वक्त एक ही भविष्य होता था...लड़की डॉक्टर बनेगी। बस बचपन से ही ये बात दिमाग में थी कि बड़े होकर डॉक्टर बनना है...क्लास में हमेशा अच्छे मार्क्स आते थे, और हमारे पढने का तरीका तो आप जानते ही हैं ऐसे में किसी को शक भी कैसे हो सकता था कि हम डॉक्टर नहीं बनेंगे...बचपन तक तो ये ठीक लगा, जब भी कोई अंकल या अंटी गाल पकड़ के पूछते थे बेटा बड़े होकर आप क्या बनोगे तो हम फटाक से जवाब देते थे कि डॉक्टर...ये बचपन के दिन भी कितने सुहाने होते हैं , सिर्फ़ बोलना पड़ता है...पर हम किस कठिन मार्ग पर जा रहे थे ये हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था।

हमारे ऊपर पहली बिजली गिरी ११वीं में, पापा के साथ किताबें खरीदने गए थे...कम से कम ५ किलो वजन और कुछ एक बित्ता चौड़ाई की वो किताब हाथ में उठाते ही हम जैसे धड़ाम से जमीन पर गिरे और ये पहली किताब थी बायोलोजी की, इसके बाद फिजिक्स और केमिस्ट्री भी थे...कायदे से तो इनका सम्मिलित वजन हमारे डॉक्टर बनने के सपनों को कुचलने को काफ़ी होता मगर बचपन से दिमाग में घूमती सफ़ेद कोट और गले में स्टेथोस्कोप की हमारी तस्वीरों ने हमें पीछे हटने से रोक दिया। फ़िर भी उम्मीद की एक लौ को हमने जिलाए रखा और एक्स्ट्रा पेपर में हिन्दी ली(जिसमें हमें ९५ आए, और बाकियों के मार्क्स मत पूछिए..पर वो किस्सा फ़िर कभी)

अभी तक जो मन किताबों के वजन से घबरा रहा था...किताबें खोल कर देखें तो आत्मा ऊपर इश्वर के पास प्रस्थान कर गई कि मेरे पिछले जनम के पापों का पहले हिसाब दो...आख़िर ऐसा क्या किया है मैंने जो इतना पढ़ना पड़ेगा मुझे, उसपर ये नई बात पता चली थी कि डॉक्टर बनने के लिए कम से कम पाँच साल पढ़ना पड़ता है। हमने चित्रगुप्त को धमकाया कि हमारा अकाउंट दिखाओ वरना अभी कोर्स में जो हिन्दी वाली कवितायेँ पढ़ रही हूँ एक लाइन से सब सुनाना शुरू कर दूँगी। चित्रगुप्त काफ़ी दिनों से बेचारा मेरा सताया हुआ था, उसने फटाफट अपना कम्प्यूटर खोला और देखा...बोला चिंता मत करो, बस एक दो साल की बात है किताबों को पढने का नायाब नुस्खा तो मैंने तुम्हें सिखा कर ही भेजा है...बस वैसे ही पढ़ते रहो। और हमारी डॉक्टर की डिग्री? हमें भी तो बचपन से सुन सुन कर नाम के आगे डॉक्टर लिखने का शौक चर्रा गया था...वो मेरा डिपार्टमेंट नहीं है...तुम ऊपर के बाकी भगवानो से संपर्क करो.

ये सुनना था कि हम परम सत्य कि खोज में निकल लिए...बहुत सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद जा कर भगवान् से अपौइन्टमेन्ट मिला...भगवान् हमको देखते ही टेंशन में आ गए, फ़ौरन चित्रगुप्त को बुलाया...ये क्या कर रहे हो तुम आजकल, एक कैलकुलेशन ठीक से नहीं कर सकते इस आफत को कितने साल इतने लिए नीचे भेजा था हमने? चित्रगुप्त इस अचानक से हमले इतने लिए तैयार नहीं था...हड़बड़ा गया गिनती भूल गया। इससे पहले कि एक राउंड डांट का चलता हम बीच में कूद पड़े, हम बस ये जानने आये थे कि हमको बिना पढ़े डॉक्टर की उपाधि कैसे मिल सकती है.


भगवान ने शायद शार्टकट की बात पहली बार सुनी थी, तो मंद मंद मुस्कुरा कर बोले...कलयुग में मनुष्य के पाप धोने का एक नया तरीका उत्पन्न होगा...ब्लॉग्गिंग। तुम उस नदी में अपने पाप रगड़ रगड़ कर धोना...शीघ्र ही मेरे दूत हिसाब लगायेंगे कि तुम्हारे डॉक्टर बनने के लायक पॉइंट जुड़े या नहीं...और जिस दिन तुम ब्लॉग विसिटर, कमेन्ट नंबर और चिट्ठाजगत के कम्बाइन्ड स्कोर से बेसिक requirement पूरा कर लोगी और अपना थीसिस पोस्ट कर दोगी...मेरी कृपा से ये दूत तुम्हें डॉक्टर की उपाधि दे देंगे.

वो दिन था और आज का दिन है...जय हो भगवान् के दूतों तुम्हारी मैथ मेरी तरह ख़राब नहीं थी...तुमने बाकी सर्च इंजन के बजाये चिट्ठाजगत पर भरोसा किया...और पेज रैंक के चक्कर में नहीं पड़े...मैं ये पोस्ट उन दूतों और भगवान् को धन्यवाद के लिए लिख रही हूँ।

जय हो!

02 March, 2009

गायक, कवि और जलन्तु ब्लॉगर

कुछ लोगो को जिंदगी भर खुराफात का कीड़ा काटे रहता है। हम अपनेआप को इसी श्रेणी का प्राणी मानते हैं जिन्हें कुछ पल चैन से बैठा नहीं जाता है...

आज हम अपने पसंदीदा रिसर्च को पब्लिक की भलाई के लिए पब्लिक कर रहे हैं...ये रिसर्च २५ सालों की मेहनत का परिणाम हैइसे पूरी तरह सीरियसली लेने का मन है तो ही पढ़ें, नहीं तो और भी ब्लॉग हैं ज़माने में हमारे सिवा :)

हमारे रिसर्च का विषय है आदमी का दिमाग...हम यहाँ फेमिनिस्ट नहीं हो रहे इसी श्रेणी में औरत का दिमाग भी आना चाहिए कायदे से, पर वो थोड़ा काम्प्लेक्स हो जाता इसिलए सिम्प्लीफाय करने के लिए हमने उन्हें रिसर्च से बाहर रखा है। आप दिमाग के झांसे में मत पड़िये, रिसर्च सुब्जेक्ट सुनने में जितना गंभीर लगता है वास्तव में है नहीं...हमने कोई बायोलोजिकल टेस्ट नहीं किए हैं, किसी का भेजा निकाल के उसका वजन नहीं लिया है सबसे बड़ी बात की इस रिसर्च में जानवरों पर कोई अत्याचार नहीं किया गया है...जो भी किया गया है सिर्फ़ आदमी पर किया गया है तो एनीमल लवर्स अपना सपोर्ट दें।

हमारी रिसर्च में आदमी का सोशल व्यवहार पता चला है...तो आइये हम आपको कुछ खास श्रेणी के इंसानों के मिलवाते हैं...हमारे रिसर्च का बेस यानि कि आधार है की दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...और इस रिसर्च की प्रेरणा हमें हिन्दी फिल्में देख कर मिली...



  1. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं...(ये वाक्य पूरी रिसर्च में रहेगा अब से इंविसिबल रूप में दिखाई देगा...यानी कि दिखाई नहीं देगा आप समझ जाइए बस)... शुरुआत करते हैं संगीत से...इनमें से पहली कैटेगोरी होती है उन लोगो की जो आपको हर जगह मिल जायेंगे यानी कि मेजोरिटी में...जैसे कि गरीबी, भ्रस्टाचार, कामचोरी वगैरह, खैर टोपिक से न भटका जाए पहली कैटेगरी के लोग होते हैं अच्छे गायक...इनसे किसी भी फिल्म का गाना गवा लीजिये, हूबहू उतार देंगे, आलाप अलंकार दुगुन तिगुन सब बिना रोक टोक के कर लेंगे, गाना सुना और इनके दिमाग में रिकॉर्ड हो गया अब जब भी बजने को कहा जायेगा एकदम सुर ताल में बजेंगे. इनकी हर जगह हर महफ़िल में मांग रहती है...छोटे होते हैं तो माँ बाप इन्हें गवाते हैं हर अंटी अंकल के सामने और आजकल तो टीवी शो में भी दिखते हैं...बड़े होने पर ये गुण लड़कियों को इम्प्रेस करने के काम आता है. इन लोगो से आप कई बार और कई जगह मिल चुके होंगे.अब आते हैं हमारी दूसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण कैटेगोरी की तरफ...इन्हें underdog कहा जाता है, या आज के परिपेक्ष में लीजिये तो स्लमडॉग कह लीजिये...ये वो लोग होते हैं जिन्हें माँ सरस्वती का वरदान प्राप्त होता है, इनमें गानों को लेकर गजब का talent होता है और ये पूरी तरह ओरिजिनालिटी में विश्वास करते हैं...नहीं समझे? ये वो लोग हैं जिन्हें हर गाना अपनी धुन में गाना पसंद होता है, गीत के शब्द भी ये आशुकवि की तरह उसी वक़्त बना लेते हैं...आप कभी इन्हें एक गीत एक ही अंदाज में दो बार गाते हुए नहीं सुनेंगे, मूर्ख लोग इन्हें बाथरूम सिंगर की उपाधि दे देते हैं...माँ बाप की इच्छा पूरी करने के लिए ऐसे कितने ही talented लोग बंगलोर में थोक के भाव में सॉफ्टवेर इंजिनियर बने बैठे हैं...अगर इन्हें मौका मिलता तो ये अपना संगीत बना सकते थे, गीतों में जान फूंक सकते थे, और अभी जो घर वालो का जीना मुहाल किये होते हैं गीत गा गा के, दोस्त इनका गाना सिर्फ चार पैग के बाद सुन सकते हैं...ऐसे लोग आज ऐ आर रहमान बन सकते थे, भारत के लिए ऑस्कर ला सकते थे...मगर अफ़सोस। ये वो हीरा है जिन्हें जौहरी नहीं मिला है...आप इन लोगो से बच के भागने की बजाये इन्हें प्रोत्साहित करें यही मेरा उद्देश्य है। उम्मीद है आप लोग मुझे नाउम्मीद नहीं करेंगे।

  2. ये एक बहुत ही खास श्रेणी है...इस श्रेणी को कहते हैं कवि...इनकी पहुँच बहुत ऊँचे तक होती है, बड़े लोग तो यहाँ तक कह गए हैं की जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. ये बड़े खतरनाक लोग होते हैं कुछ भी कर सकते हैं, आम जनता इनके डर से थर थर कांपती है. इनके बारे में श्री हुल्लड़ जी ने ऐसा कहा है "एक शायर चाय में ही बीस कविता सुना गया, फोकटी की रम मिले तो रात भर जम जायेगा", हुल्लड़ जी के बारे में फिर कभी, आप कवि की सुनाने की इच्छा देखिये...गजब की हिम्मत है, इन्हें किसी से डर नहीं लगता न बिना श्रोताओं वाले कवि सम्मलेन से, न अंडे टमाटर पड़ने से(वैसे भी महंगाई में कौन खरीद के मारे भला). और मैं एक राज़ की बात बता देती हूँ...ये तो चाँद पर चंद्रयान भेजा गया है सिर्फ इसलिए की आगे से कवियों को चाँद पर भेजा जा सके ताकि बाकी हिन्दुस्तान चैन की नींद सो सके। चाँद की खूबसूरती में दाग या गोबर ना आये इसलिए ताऊ ने भी अपनी चम्पाकली को चाँद से बुलवा लिया है...अब दूसरी कैटेगोरी के लोगों की बात करते हैं...जो कविता झेलते हैं, ऐसे लोग आपको मेजोरिटी में मिल जायेंगे. ये वो लोग हैं जिन्होंने पिछले जनम में घोर पाप किये हों...इन्हें अक्सर कवि मित्रों का साथ भाग्य में बदा होता है, इनके पडोसी कवि होते हैं, दूध मांगने के बहाने कविता सुना जाते हैं...अगर कहीं पाप धोने का कोई यत्न न किया हो कभी तो उसे कवि बॉस मिलता है। अगर आप कवि हैं और इनके घर पहुँच जाएँ तो आपको एक गिलास पानी भी पीने को नहीं मिलेगा, ये जिंदगी से थके हारे दुखी प्राणी होते हैं. इन्हें हर कोई सताता है, इन्हें न बीवी के ख़राब और जले हुए खाने पर बोलने का हक है न गाड़ी लेट आने पर ड्राईवर को लताड़ने का...ये सबसे निक्रिष्ट प्राणी होते हैं इनसे कोई दोस्ती नहीं करना चाहता की कहीं इनके कवि मित्र गले न पड़ जाएँ, इनके घर पार्टी में जाने में लोग डरते हैं. और यकीं मानिए ऐसे लोग अपना दुःख किसी से बता भी नहीं सकते. मुझे इनसे पूरी सहानुभूति है.

  3. अब मैं आपको बताती हूँ एक उभरती हुयी कैटेगरी के बारे में...इन्हें कहते हैं ब्लॉगर...जी हाँ इनका नाम सम्मान से लिया जाए ये आम इंसान नहीं हैं बल्कि एवोलुशन की कड़ी में एक कदम आगे बढ़े हुए ये परामानव हैं, मैंने रिसर्च करके पाया है कि सभी superheroes ब्लॉग्गिंग करते हैं छद्म नाम से...हमारे हिंदुस्तान में हीरो तो ब्लोगिंग करते ही हैं अमिताभ बच्चन से लेकर आमिर खान तक...सभी ब्लॉग लिखते हैं. इससे आप समझ सकते हैं कि ये कितना महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं. ये असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति होते हैं...या साधारण रूप से असाधारण व्यक्ति होते हैं. इनका लेखन क्षेत्र कुछ भी हो सकता है, कविता से लेकर शायरी तक और गीत से लेकर कव्वाली तक, मजाक से लेकर गाली गलोज तक ये किसी सीमा में नहीं बांधे जा सकते. स्वतंत्रता की अभूतपूर्व मिसाल हैं. शीघ्र ही संविधान में इनके लिए खास अध्याय लिखा जाने वाला है. वर्चुअल दुनिया में पाए जाने वाले ये शख्स मोह माया से ऊपर उठ चुके होते हैं, ब्लॉग्गिंग ही उनका जीवन उद्देश्य होता है और इसी के माध्यम से वो परम ज्ञान और परम सत्य को पा के आखिर अंतर्ध्यान हो जाते हैं. ब्लॉगर की महिमा अपरम्पार है.
    इसके ठीक उलट आते हैं वो इंसान जिन्हें टाइप करना नहीं आता...जी हाँ यही वह एक बंधन है जो किसी इंसान को एक ब्लॉगर से अलग करता है. जिसे भी लिखना आता है वो ब्लॉगर बन सकता है...यानि कंप्यूटर पर लिखना. ये आम इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीते हैं इनके मुंह में जबान नहीं होती, इनकी उँगलियों में समाज को बदलने की ताकत नहीं होती, ये चुप चाप गुमनामी में अपनी जिंदगी गुजार कर चले जाते हैं...किसी को इनके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता. कोई नहीं जानता कि इन्होने दुनिया के किस किस कोने में भ्रमण किया है, न कोई इनके पालतू कुत्ते बिल्लियों के बारे में जानता है और तो और कोई ये भी नहीं जान पाता कि इनकी कोई प्रेमिका रही थी जिसकी याद में हर अब तक कविता लिखते हैं...किस काम की ऐसी जिंदगी? ये न टिप्पणियों के इंतजार में विरह का आनंद ले पाते हैं न visitors कि गिनती में कुछ हासिल करने का भाव जान पाते हैं और तो और ये इतने साधारण होते हैं कि इन्हें फोलोवेर मिलते ही नहीं. ये underprivileged लोग होते हैं जिनका पूरा जीवन ब्लॉग्गिंग के अभूतपूर्व सुख के बगैर अधूरा सा व्यतीत होता है और मरने के बाद ये अपने अधूरी इच्छाओं के कारण नर्क से ब्लॉग्गिंग करते हैं.
    चूँकि ये खास कैटेगरी है इसलिए इसमें तीसरे प्रकार के इंसान भी होते हैं...इन्हें कहते हैं जलंतु...यानि जलने वाले. ये वो लोग होते हैं जो अपना ब्लॉग खोल कर एक दो पोस्ट लिख कर गायब हो जाते हैं...कभी साल छह महीने में एक पोस्ट ठेलते हैं...ये सबके ब्लॉग पर जाते हैं पर कहीं टिप्पनी नहीं करते बाकी ब्लोग्गेर्स की लोकप्रियता देखकर जलते हैं...बेनामी टिप्पनी लिखकर लोगो को दुःख पहुँचने का काम करते हैं और हर विवाद में घी झोंकते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें ढूंढ़ना हम सबका कर्त्तव्य बनता है. ये भटके हुए लोग हैं, इन्हें ब्लोग्गिन का मुक्तिमार्ग दिखाना हमारा फर्ज बनता है. हमें इनका हौसला टिप्पनी दे दे कर बढ़ाना चाहिए...प्यार से निपटने पर ये सभी रास्ते पर आ जायेंगे. इसलिए आप सबसे अनुरोध है कि इनकी मदद करें आखिर इसलिए तो हम ब्लॉगर साधारण मनुष्य से ऊपर हैं.
आज के लिए इतना काफी है...हम अपनी रिसर्च के गिने चुने मोती लाते रहेंगे और आपको समाज को बेहतर समझने में मदद करते रहेंगे.

चेतावनी: उपरोक्त लिखी सारी बातें एक ऐसे व्यक्ति ने लिखी है जो split personality disorder(SPD) से ग्रस्त है इसलिए इस लिखे की जिम्मेदारी किसी की नहीं है...SPD के बारे में ज्यादा जानने के लिए हिंदी फिल्में देखें.

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