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20 September, 2011

कुछ अच्छे लोग जो मेरी जिंदगी में हैं...

बुखार देहरी पर खड़ा उचक रहा है. आजकल बड़ा तमीजदार हो गया है, पूछ कर आएगा. ऑफिस का काम कैसा है, अभी बीमार पड़ने से कुछ ज्यादा नुकसान तो नहीं होगा, काम कुछ दिन टाला जा सकता है या नहीं. उम्र के साथ शरीर समझने लगता है आपको...कई बार आपके हिसाब से भी चलने लगता है. किसी रात खुद को बिलख कर कह दो, अब आंसू निकलेंगे तो आँखें जलन देंगी तो आँखें समझती हैं, आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुप हो जाती हैं. 

एक दिन फुर्सत जैसे इसलिए मिली थी की थकान तारी है. थकान किस चीज़ की है आप पूछेंगे तो नब्ज़ पर हाथ रख कर मर्ज़ बतला नहीं सकती. अलबत्ता इतना जरूर पता है कि जब किताबों की दुकान में जा के भी चैन न पड़े तो इसका मतलब है कि समस्या बेहद गंभीर होती जा रही है. 

सोचती हूँ इधर लिखना कम हो गया है. बीते सालों की डायरी उठती हूँ तो बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है. तितली के पंखों की तरह रंगीन. इत्तिफ़ाक़न ऐसा हुआ है कि कुछ पुराने दोस्त मिल गए हैं. यही नहीं उनके अल्फाज़ भी हैं जो किसी भटकी राह में हाथ पकड़ के चलते हैं...कि खोये ही सही, साथ तो हैं. विवेक ने नया ब्लॉग शुरू किया, हालाँकि उसने कुछ नया काफी दिन से नहीं लिखा. पर मुझे उम्मीद है कि वो जल्दी ही कुछ लिखेगा.

इधर कुछ दिनों से पंकज से बहुत सी बात हो रही है. पंकज को पहली बार पढ़ा था तो अजीब कौतुहल जागा था...समंदर की ओर बैठा ये लड़का दुनिया से मुंह क्यूँ फेरे हुए है? आखिर चेहरे पर कौन सा भाव है, आँखें क्या कह रही होंगी. उस वक़्त की एक टिपण्णी ने इस सुसुप्तावस्था के ज्वालामुखी को जगा दिया और वापस ब्लॉग्गिंग शुरू हुयी. मुझे हमेशा लगता था कि एकदम सीरियस, गंभीर टाइप का लड़का है...पता नहीं क्यूँ. वैसे लोगों को मैं इस तरह खाकों में नहीं बांटती पर ये केस थोड़ा अलग था. इधर पंकज का एक नया रूप सामने आया है, PJs झेलने वाला, इसकी क्षमता अद्भुत है. कई बार हम 'missing yahoo' से 'ROFL, ROFLMAO' और आखिर में पेट में दर्द होने के कारण सीरियस बात करते हैं. जहर मारने और जहर बर्दाश्त करने की अपराजित क्षमता है लड़के में. कितनी दिनों से अवसाद से पंकज ने मेरी जान बचाई है...यहाँ बस शुक्रिया नहीं कहूँगी उसका...कहते हैं शुक्रिया कहने से किसी के अहसानों का बोझ उतर जाता है. काश पंकज...तुम थोड़ा और लिखते. 

आज ऐसे ही मूड हो रहा है तो सोच रही हूँ दर्पण को भी लपेटे में ले ही लिया जाए. दर्पण मुझे हर बार चकित कर देता है, खास तौर से अपनी ग़ज़लों से. मुझे सबसे पसंद आता है उसकी गज़लें पढ़कर अपने अन्दर का विरोधाभास...ग़ज़ल एकदम ताजगी से भरी हुयी होती हैं पर लगता है जैसे कुछ शाश्वत कहा हो उसने. अनहद नाद सा अन्तरिक्ष में घूमता कुछ. कभी कभार बात हुयी है तो इतना सीधा, सादा और भला लड़का लगा मुझे कि यकीन नहीं आता कि लिखता है तो आत्मा के तार झकझोर देता है. पहली बार बात हुयी तो बोला...पूजा प्लीज आपको बुरा नहीं लगेगा...मुझे कुछ बर्तन धोने हैं, मैं बर्तन धोते धोते आपसे बात कर लूं? दर्पण तुम्हारी सादगी पर निसार जाएँ. 

ज्यादा बातें हो गयीं...बस आँखें जल रही हैं तो लिखा हुआ अब पढूंगी नहीं...इसे पढ़ के किसी को झगड़ा करना है तो बुखार उतरने के बाद करना प्लीज...

09 June, 2011

मेरे बर्थडे पर आप क्या गिफ्ट कर रहे हैं?

कल मेरा जन्मदिन है...देखती हूँ की हर साल इस मौके पर थोड़ी सेंटी हो जाती हूँ. बहुत कुछ सोचती हूँ...जाने क्या क्या सपने, कुछ तो गुज़रे हुए कल के हिस्से...खोयी सी रहती हूँ...इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. 

भाई का गिफ्ट कल आ गया है :) :) आज कुणाल भी मेरा गिफ्ट खरीद के ला रहा है...शाम में मैं जाउंगी अपनी पसंद का कुछ लेने...पता नहीं क्या...अभी तक कुछ सोचा नहीं है. मुझे सबसे अच्छी लगती है घड़ी...पर मेरे पास ४ ठो घड़ी पहले से है तो कुणाल बोल रहा है कि एक और नहीं मिलेगी...और कुछ लेना है तो बताओ...नहीं तो  वो अपनी पसंद का ला देगा. 

इस बार बहुत दिनों में पहली बार मेरे दो बहुत अच्छे दोस्त शहर में ही हैं...पूजा और इन्द्रनील...तो इस बार बर्थडे पर थोडा ज्यादा अच्छा लगेगा :) :) पूजा अभी मंडे को मिलने भी आई थी...कितना अच्छा लगा कि क्या कहें...और हमने ढेर सारी खुराफातें भी की. 

चूँकि ब्लॉग पर भी इतने अच्छे लोगों से मिली हूँ...और अच्छी दोस्ती हो गयी है...तो सोचा कि इतना सोच के कहाँ जायेंगे...बोल ही देते हैं :) इस बार हमको एक तोहफा चाहिए...आप सब से...जो पता नहीं कैसे अब तक हमको पढ़ते रहे हैं...हालाँकि आजकल हमको अपना लिखा एकदम पसंद नहीं आ रहा अक्सर...फिर भी. 

इस बार मेरे बर्थडे पर आप अपनी पसंद कि कोई एक किताब...जो आपको लगता है मुझे पढ़नी चाहिए... कमेन्ट बॉक्स में लिखिए...और अगर आपका दिल करे तो थोड़ा सा उस किताब के बारे में भी...कुछ ऐसे कि 'पूजा हमको लगता है तुमको हरिशंकर परसाई की किताब सदाचार का तवी पढना चाहिए क्यूंकि हमको लगता है तुम्हारा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर लापता हो गया है'. इसके अलावा आप मुझे कोई भी मुफ्त की सलाह दे सकते हैं...लिखने के बारे में...दिमाग ठीक करने के बारे में या कि कुछ जो आपको लगे कि मुझे लिखना चाहिए या कोई ब्लॉग जो मुझे एकदम पढना चाहिए(आपके खुद के ब्लॉग के सिवा ;) ). हाँ इसके अलावा...एक और चीज़ आप मुझे बता सकते हैं...कोई खास फिल्म जो आपको पर्सनली पसंद हो :) 

बस...बर्थडे की फोटो कल पोस्ट करुँगी :) ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता...जब फ्री की सलाह को गिफ्ट माना जाए...तो टनाटन आने दीजिये :) 

28 March, 2011

पहला एक्सीडेंट

पहले तो सफाई की हमारे एक्सीडेंट में कोई रूमानी बात नहीं है, हाय हमारी ऐसी किस्मत कहाँ...ठुके भी तो...खैर. उस दिन हम जाने किसका चेहरा देख कर उठे थे...सुबह कुछ काम से जाना था, हड़बड़ी में निकले थे. एक प्रिंट आउट निकलवाना था...वाल्लेट खोलते हैं तो देखते हैं की पैसे नदारद...हम अधिकतर लड़कों वाला वालेट ही लेकर चलते हैं की जींस की बैक पॉकेट में डाला और निश्चिन्त, पर्स ले जाने में मेरा ज्यादा भरोसा नहीं है. लेकिन इत्तिफाकन एक रात पहले हमने अपने पर्स में पैसे और कार्ड्स डाल दिए थे और सुबह हड़बड़ी में चेक करना भूल गए. अब मेरे वालेट में एक भी रूपया नहीं...रुपये की तो खैर मैं जायदा चिंता नहीं करती पर लाइसेंस नहीं था और मैं बिना DL के बैक नहीं चलती. तो घर गयी, पर्स उठाया...मुहूर्त का तो कबाड़ा हो ही गया था. 

लावेल रोड के आसपास पार्किंग की जगह ही नहीं एकदम...मैंने कार पार्किंग में ही बाईक खड़ी कर दी की दस मिनट का काम है, दस मिनट के घंटा हो गया. बाहर आई तो देखती हूँ नो-पार्किंग वाले ले जा रहे हैं उठा के. देर काफी हो गयी थी तो पहले ऑटो किया और ऑफिस भागी. तब तक लगभग लंच का टाइम हो गया था. आधे रस्ते में याद आया की टिफिन भी तो बाईक में ही है उसपर से कल रात काजू पनीर की सबकी बनायीं थी तीन बजे...और चखी भी नहीं थी. अब तो लगे की पहले बाईक से उतर कर रोना शुरू कर दूं. ऑफिस पहुंची तो पता चला मीटिंग कैंसिल थी. मैंने सोचा बाईक ले आती हूँ...भूख लग रही थी, सुबह से एक बजने  को आये थे और खाना कुछ भी नहीं खाया था. 

बाईक लाने के लिए जिस ऑटो से गयी उसने वन वे में एंट्री कर दी...वहां से उतर कर कुछ पौन किल्मीटर चल कर वहां पहुंची जहाँ बेचारी मेरी बाईक खड़ी थी. तीन सौ रूपये दे कर गाडी छुड़ाई और वापस ऑफिस...आजकल  मेट्रो का काम चल रहा है तो खुदी हुयी सड़क पर बोर्ड लगा लिए गए हैं. मैंने उधर ही यु टर्न के लिए बाइक मोड़ी...सड़क लगभग खाली थी कुछ गाड़ियाँ आ रही थी...चूँकि तुरत यु टर्न लिया था तो मैं सबसे दायीं लें में थी...अचानक से मुझे पता भी नहीं चला और काफी तेज़ी से एक कार ने अचानक मुझे ठोक दिया, मेरी बाइक काफी धीमी थी इसलिए मैं ब्रेक मार कर रकने या कंट्रोल करने की कोशिश की पर व कार इतनी तेज़ी से आ रही थी की मैं एक पलटन खाते हुए दूर फेंका गयी. किस्मत अच्छी थी की पीछे वाली गाड़ियाँ मुझपर नहीं चढ़ीं. कुछ लोग आये, उन्होंने मुझे उठाया, बाइक को सड़क किनारे लगाये. अचानक चोट या दर्द तो ज्यादा नहीं हो रहा था बस थोड़ा shaken महसूस कर रही थी. किसी भी तरह का एक्सीडेंट थोड़ा वल्नरेबल फील करा देता है. लग रहा था की कुछ भी हो सकता था, मर सकती थी. अचानक, बिना किसी से विदा लिए हुए.

वहां खड़े एक अंकल ने गाडी का नंबर भी नोट कर लिया था...मैंने भी सोचा की एक कम्प्लेन तो डाल ही दूँगी. पानी पिया और थोड़ी देर गहरी सांसें ले कर खुद को संयत किया. वहीं लोगों ने बताया की कार वाले के पीछे एक व्यक्ति बाइक से गया है. मैंने उम्मीद तो क्या ही की थी...पर दस मिनट ने अन्दर वो कर वाले को लेकर आ गया और बला की आप लोग आपस में बात कर लीजिये. मैं तब तब एकदम परेशान हो चुकी थी, रोना सा आ रहा  था. पर मैंने सोचा की घबराने की कोई बात नहीं है...मैं ठीक हूँ और कुछ ही समय में घर पहुँच जाउंगी. गाडी वाला सॉरी बोला..पूछा की मुझे चोट तो नहीं लगी...मैं काफी परेशान थी तो मैं कुछ नहीं कहा उससे...बस इतना की ये कोई तरीका है कार चलने का, न मैं किसी गलत लेन में थी, न मैं ओवेर्टेक कर रही थी, न मैं वन वे में थी...पूरी सड़क खाली थी. खैर...

असली मुसीबत फिर शुरू हुयी जब बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी...एक तो चोट लगी थी, उसपर किक मरते मारते हालत ख़राब...बहुत देर के बाद जाके बाइक स्टार्ट हुयी. वहां से चली और मुश्किल से १०० मीटर चली होगी की फिर बंद...अब चिन्नास्वामी स्तादियम से mg रोड तक बाइक पार्क करने की कोई जगह ही नहीं. वहां से लगबग आधा किलोमीटर बाइक खींच कर लायी. बीच सड़क में छोड़ भी नहीं सकती थी. फिर काफी देर बाइक स्टार्ट करने की कोशिश की...फिर सोचा की थोड़ा और पेट्रोल डाल कर देखते हैं...तब तक लगभग ढाई बज गए थे और भूख के मारे चक्कर आने लगे थे. वहां से कोई तीन सौ मीटर पर पेट्रोल पम्प था...एक अच्छे दरबान भईया ने बोतल ला के दी...फिर पैदल गयी और पेट्रोल लिया. उस वक़्त इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी की रोड पार करके उस तरफ से औत लेकर पेट्रोल पम्प जाऊं. सर्विस सेंटर को फोन किया तो उन्हने बताया की पूरा एक्सीलेरेटर दे कर किक मारने से स्टार्ट हो जाएगा. 

पेट्रोल डाला और स्टार्ट करने की कोशिश की तब भी नहीं हो रहा था...तब एक और भला लड़का आया और उसने बहुत कोशिश की...फिर बाइक स्टार्ट हो गयी. जब जाने की बारी आई तो ध्यान आया की हेलमेट तो डिक्की में है...और डिक्की खोलने के लिए चाभी निकालनी होगी...रोना आ गया एकदम से. पर अभी तुरत एक्सीडेंट हुआ था तो बिना हेलमेट के कहीं जाने में बहुत डर लगा. खैर...इस बार इतनी दिक्कत नहीं हुयी. 

वहां से ऑफिस आई खाना खाया...फिर भी थोड़े चक्कर आ रहे थे. तो सोचा घर चली जाऊं. तो घर चली आई की आज का दिन बहुत ख़राब है...जितनी जल्दी घर पहुँच जाऊं बेहतर रहेगा. मेरे साथ एक प्रॉब्लम और है की घर में मूड अच्छा हो तो मन लगता है वरना घर काटने को दौड़ता है. तो शाम को फिर घूमने निकल गयी. वापस आई कपडे बदले तब पहली बार देखा की कितनी चोट लगी है. एक सेकंड को तो फिर से चक्कर आ गए. जींस पहनती हूँ इसलिए छिला नहीं कुछ पर कुछ हथेली भर जितना बड़ा खून का थक्का जम गया था. देखने के बाद और दर्द होने लगा. रात होते होते और भी जगहों के दर्द उभरे. 

अगले दिन ये हालत की चलने में पूरे बदन में दर्द और जुबान पर 'सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी, एक जगह हो तो बताएं की इधर होता है'. दो दिन आराम किया पर आराम कहाँ...लगता है पहली बार प्यार में गिर पड़े हैं, दर्द जाता ही नहीं...इश्क कर बैठा है मुझसे. अब कुछ दिन तक न कार चलेगी मुझसे न बाइक. घर बैठे लिखने पढने का इरादा है. 

जो लोग ब्लॉग में नए हैं जैसे सागर, अपूर्व, दर्पण, डिम्पल, पंकज...इनसे अक्सर हम अक्सर ब्लॉग के एक सुनहरे दौर की बात किया करते हैं...जब दुनिया में कम लोग थे और हर छोटी चीज़ पर कई दिन बात किया करते थे. जैसे पीडी की टांग नहीं टूटने के बाद भी अब तक पुराने लोग पीडी के टांग टूटने का किस्सा जानते हैं. तो फुर्सत में मैंने कुछ लिंक ढूंढ निकले हैं...ताकि थोड़ा अंदाजा हो की उस समय क्या क्या बातें करते थे हम, रामप्यारी कौन है, क्या करती है वगैरह. मुझे चिट्ठाजगत का लिंक नहीं मिल रहा..वरना पोस्ट करती. 

खैर...हम ठीक हैं अभी...आराम कर रहे हैं...आप लोग दुआओं का टोकरा भेजिए, लगे हाथ कुछ फल, मिठाई भी आ सकती है टोकरे में. :) :) 

31 December, 2010

बहीखाता

पुराने साल की पुरानी आदत है...हिसाब किताब ले के बैठ जाने की. आज साल का आखिरी दिन...सोच रही हूँ क्या क्या गुज़रा इस बीते साल में. एक आम सी जिंदगी में खास क्या हो सकता है...उपलब्धियों के नाम पर बस एक दिन की लॉन्ग ड्राईव आती है जो मैंने खुद से की थी. नयी चीज़ सीखी, कार चलाना...नया सामान ख़रीदा...अपना हैंडीकैम...नए लोगों को पढ़ा, जाना...किशोर चौधरी. 

दिसंबर का ये महिना मेरे लिए अक्सर खोने पाने का रहता है...पिछले साल इसी समय सागर का पहला मेल आया था...इस साल एक बहुत पुराने दोस्त का कमेन्ट देखा कल अपने ब्लॉग पर...साथ ही तारीफ भी, कि अच्छा लिखने लगी हो. दोस्तों से दुःख भी पहुंचा...एक करीबी दोस्त ने शादी कि और बुलाना तो दूर, बताया भी नहीं. वाकई दूरियां आ जाती हैं रिश्तों में...उसी तरह शिंजिनी की शादी में दिल्ली गयी...देर रात उस बंगाल समाज में रुकी. भाई हिम्मत का काम था...वो तो बचपन से इन्द्रनील से दोस्ती होने के कारण थोड़ी बहुत बांगला समझ में आती थी तो कमसेकम पता चल रहा था कि क्या चल रहा है. इस साल मनीष से भी बहुत साल बाद मिली...नील और मनीष दोनों मेरे हाथ का खाना खा के आश्चर्य करते रहे कि हमको सच में खाना बनाना आ गया. दिल्ली में पूजा से मिली...उसने इतने प्यार से चाय बनायी कि मैं कभी नहीं पीती थी पर उसका दिल रखने के लिए चाय पी और अच्छी भी लगी. प्यार में बहुत स्वाद होता है. 

वोंग कार वाई की फिल्मों से परिचय हुआ...लगा कि इतने दिन कैसे नहीं देखी...पहली बार अज्ञेय को ध्यान से पढ़ा...कुश और अपूर्व से मिली, देखा कि अपूर्व कितना भला सा लड़का है, कुश के बारे में कुछ नहीं कहूँगी ;) पीडी के रस्ते के ज्ञान के बारे में जाना... नीरा से मिली, उनको अपनी बाइक पर घुमाया...अनगिन गप्पें मारी...बहुत सारी किताबें पढ़ी.

अपनी उम्र के साथ तालमेल बिठाने में साल अंत आते आते कामियाब हुयी...लगता था बुड्ढी हो गयी हूँ, बहुत मच्योर हो गयी हूँ...सब सोच के करती हूँ, आगे पीछे, दुनिया, समाज...सारा बोझा अपने सर ले के घूमती थी. एक दिन लगा बस...दिल की आवाज़ पर कार ले के निकली थी...अपने इस पागलपन में ये भी दिखा कि अब भी कुछ बचा हुआ है मुझमें...जो पहले वाली पूजा जैसा है. फिर से किसी ने कहा 'तू एकदम पागल है' और उसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लिया. उम्र जैसे अचानक कम हो गयी. 

फिर से पहली बार प्यार हुआ...गोवा गयी..आलसी वाली छुट्टी मनाई...कुणाल को रोज देखती हूँ तो लगता है प्यार बढ़ता जाता है exponentially यकीन आता है कि सोल्मेट्स होते हैं...शादी के तीन साल तो हो गए. बहुत बड़ा माइलस्टोन है. प्यार की बारीकियां, झगड़े, आफतें...और शादी की जिम्मेदारियों के बावजूद...प्यार सलामत है. touchwood. 

पापा और भाई से थोड़ी ज्यादा गप्पें मारी...मम्मी की थोड़ी ज्यादा याद आई...रोना थोड़ा ज्यादा आया. सुबह उठ कर आज भी पहला ख्याल मम्मी का ही आता है...अब कभी कभी इस ख्याल पर मुस्कुराने का मन करता है, साल में दो तीन बार ही सही. जब सपने में मम्मी से डांट खा के उठती हूँ तो अक्सर भूल जाती हूँ कि कहाँ हूँ, लगता है पटना में हूँ और उठ कर कॉलेज जाना है. तब अक्सर हँसी आती है सुबह.

बाइक अब भी ९० पर चलाती हूँ मूड होता है तो...देर रात मोहल्ले में बाल खुले छोड़ कर, गाना गाते या सीटी बजाते हुए भी बाइक चलाती हूँ...ऐसे में भूतों के डरने पर मज़ा भी आता है...कभी कभी अपने डरने पर भी मज़ा आता है. चाँद अब भी खूबसूरत दिखता है...दोस्तों की याद अब भी आती है. जिनसे सालों हो गए मिले हुए, उनकी भी. लगता है सब होते और मैं सबको कार में ठूंस कर कहीं दूर चली जाती, वहां सब मिल कर पिकनिक मनाते.

कहानी लिखने की कोशिश की...और अपनी नज़र में आश्चर्यजनक रूप से सफल हुयी...किरदार लोगों को सच लगते हैं, कहानियां सच में घटी हुयी लगती हैं. यानि कल्पना बहुत हद तक detailed है. ये बात इसलिए भी अच्छी लगती है कि मुझे कभी लगता नहीं था कि मैं कभी कहानी रच पाउंगी. ब्लॉग को आजकल रफ कॉपी की तरह इस्तेमाल करती हूँ. फिल्में दिमाग में चलती जाती हैं, लिखते जाती हूँ...बिना सोचे कि अच्छी हैं, बुरी हैं या अधूरी हैं. फिल्में बनाना आसान होगा अब किसी दिन. पिछले साल व्यंग्य लिखने की कोशिश की थी...इस साल कहानी. अच्छा लगता है कि सब कुछ हो रहा है...बिना रुकावट के. ये भी लगता है कि मेरी कोई खास पकड़ नहीं है जैसे सागर, दर्पण या अपूर्व की है...एक बार में लग जाता है कि ये इनकी शैली है...समझ नहीं आता कि अपनी कोई शैली बनायीं भी है या ऐसे ही. लिखना अच्छा लगता है...लिखती हूँ...वैसे भी ब्लॉग ही तो लिख रही हूँ कौन सा छप रहा है नैशनल पेपर में कि सब पढ़ के कहिएं कैसा ख़राब है या अच्छा है :)

साल के अंत में...बहुत दिनों बाद...इश्वर का धन्यवाद करती हूँ...कुणाल के लिए, अपने परिवार के लिए और मेरे कुछ खास दोस्तों के लिए जो मेरी जिंदगी को पूरा करते हैं. मैं जहाँ हूँ...संतुष्ट हूँ...सुखी हूँ. 

सबको नए साल की हार्दिक शुभकामनायें. 

04 November, 2010

याद का एक टहकता ज़ख्म

सबसे पहले आती है एक खट खट वाले पुल की आवाज़...फिर पहाड़ों के बीच से निकलती जाती है रेल की पटरी और कुछ जाने पहचाने खँडहर दीखते हैं जो सालों साल में नहीं बदले...कुछ इक्का दुक्का पेड़ और सुरंग जैसा एक रास्ता जिससे निकलते ही जंक्शन दीखता है. 
नहीं बदला है माँ...कुछ भी नहीं बदला है.
ट्रेन रूकती है और अनजाने आँखें तुमको उस भीड़ में ढूंढ निकालना चाहती हैं...हर बार जब इस स्टेशन पर उतरती हूँ लगता है मेरी बिदाई बाकी है और अभी हो रही है क्योंकि इस स्टेशन पर तुम नहीं होती...ऐसा कभी तो नहीं होता था मम्मी की हम कहीं से भी आयें और तुम स्टेशन लेने न आओ. मुझे ये स्टेशन अच्छा नहीं लगता, न ये ट्रेन अच्छी लगती है...मुझे आज भी उम्मीद रहती है, एक बेसिरपैर की, नासमझ उम्मीद की स्टेशन पर तुम आओगी.
पता है माँ...आजकल हम तुम्हारे जैसे दिखने लगे हैं. कई बार महसूस होता है की तुम ऐसे हंसती थी, तुम ऐसे बोलती थी या फिर तुम ऐसे डांटती थी. ऐसे में समझ नहीं आता की खुश होऊं की उदास...कभी कभी लगता है की तुम सच में कहीं नहीं गयी हो, मेरे साथ हो...कभी कभी बेतरह टूट जाते हैं की तुम कहीं भी नहीं हो...की तुम अब कभी नहीं आओगी. काश की कोई पता होता जहाँ तुम तक चिट्ठियां पहुँच सकतीं. भगवान में भी विश्वास कोई स्थिर नहीं रहता, डोलता रहता है. और अगर किसी दुसरे की नज़र से देखें तो हमको खुद ऐसा लगता है की मेरा कोई anchor नहीं है. की समंदर तो है, बेहद गहरा और अनंत पर ठहरने के लिए न कोई बंदरगाह है, न कोई रुकने का सबब और न ही कोई रुकने का तरीका. 
आज तीन साल हो गए तुम्हें गए हुए...और पता है कि एक लम्हा भी नहीं गुज़रा, कि आज भी सुबह उठते सबसे पहले तुमको ही सोचती हूँ... fraction में बात करूँ तो भी एक जरा भी अंतर नहीं आया है. लोग कहते है की वक़्त सारे ज़ख्म भर देता है, मैं उस वक़्त का इंतज़ार कर रही हूँ...जैसे कोई जरूरी अंग कट गया हो शरीर से माँ...तुम क्या गयी हो जैसे मेरे सारे सपने ही मर गए हैं...जिजीविषा नहीं...कोई उत्साह नहीं. कितनी कोशिश करनी होती है एक नोर्मल जिंदगी जीने में...और कितनी भी कोशिश करूँ कम पड़ ही जाता है. तुम हमको एकदम अकेला छोड़कर चली गयी हो माँ...तुम हमसे एकदम प्यार नहीं करती थी क्या?
सालों बाद  देवघर में हूँ...बस लगता है जैसे देवघर में अब 'घर' नहीं रहा. घर तो खैर लगता है कहीं नहीं रहा...मुसाफिर से हैं, दुनिया सराय है...आये है कुछ दिन टिक कर जायेंगे. तुम मेरे सारे त्योहारों से रंग ले गयी हो माँ. कितनी मुश्किल होती है यूँ हंसने में...बोलने में...जिन्दा रहने में. कहाँ चली गयी हो मम्मी...तुम्हारे बिना कुछ भी, कभी भी अच्छा नहीं लगता...कोई ख़ुशी पूरी नहीं होती. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ मम्मी...तुम्हारी बहुत याद आती है...बहुत बहुत याद आती है. 
मैं कुछ भी करके अपने दर्द को कम नहीं कर पाती हूँ माँ...लिख कर नहीं, किसी से बात कर नहीं...रो कर नहीं. 
सारे शब्द कम पड़ते, उलझ जाते हैं, भीग जाते हैं. Miss you mummy. Miss you so so much.

29 July, 2010

मेरा बिछड़ा यार...




इत्तिफाक...एक अगस्त...फ्रेंडशिप डे...और हमारी IIMC का रियुनियन एक ही दिन...वक़्त बीता पता भी नहीं चला...पांच साल हो गए...२००५ में में पहला दिन था हमारा...आज...पांच साल बाद फिर से सारे लोग जुट रहे हैं...


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आखिरी दिन...कॉपी पर लिखी तारीख...आज से पांच साल बाद हम जहाँ भी होंगे वापस एक तारीख को यहीं मिलेंगे...उस वक़्त मुस्कुरा के सोचा था...यहीं दिल्ली में होंगे कहीं, मिलने में कौन सी मुश्किल होगी...आज बंगलोर में हूँ...जा नहीं सकती.


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मैं फेसबुक बेहद कम इस्तेमाल करती हूँ...आज तबीयत ख़राब थी तो घर पर होने के कारण देखा...कम्युनिटी पर सबकी तसवीरें...गला भर आया...और दिल में हूक उठने लगी...जा के एक बार बस सब से मिल लूं तो लगे कि जिन्दा हूँ.


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भर दोपहर स्ट्रिंग्स का गाना सुना...मेरा बिछड़ा यार...सुबह के खाने के बाद कुछ खाने को था नहीं घर पर...बाहर जाना ही था...कपडे बदले, जींस को मोड़ कर तलवे से एक बित्ता ऊपर किया, फ्लोटर डाले और रेनकोट पहन कर निकली ब्रेड लाने...गाना रिपीट पर था...कुछ सौ मीटर चली थी कि बारिश जोर से पड़ने लगी...


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रेनकोट का हुड थोड़ा सा पीछे सरकाती हूँ...तेज बारिश चेहरे पर गिरती है, आँखों में पानी पानी...बरसाती नदी...और बंगलोर पीछे छूट गया...जींस के फोल्ड खुल गए, ढीला सा कुरता और हाथों में सैंडिल...कुछ बेहद करीबी दोस्त...एक भीगी सड़क. गर्म भुट्टे की महक, और पुल के नीचे किलकारी मारता बरसाती पानी. ताज़ा छनी जिलेबियां अखबार के ठोंगे में...गंगा ढाबा की मिल्क कॉफ़ी और वहां से वापस आना होस्टल तक...


उसकी थरथराती उँगलियों को शाल में लपेटना...भीगे हुए जेअनयू के चप्पे चप्पे को नंगे पैरों गुदगुदाना...पार्थसारथी जाना...आँखों का हरे रंग में रंग जाना...दोस्ती...इश्क...आवारगी...जिंदगी.
IIMC my soul.
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काश मैं दिल्ली जा सकती...
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करे मेरा इन्तेजार...मेरा बिछड़ा यार...मेरा बिछड़ा यार...

31 May, 2010

मैसेज इन अ बॉटल

बहुत सालों बाद अकेले सफ़र कर रही थी. बंगलोर से बॉम्बे, फ्लाईट तीन बजे की थी और फिर बॉम्बे जा के साढ़े सात की ट्रेन पकडनी थी नासिक के लिए. वक्त कम था फ्लाईट लैंड करने और ट्रेन के छूटने में. ऐसे में समय जितना बच सके. अधिकतर फ्लाईट थोड़ा बहुत लेट हो ही जाती है. तो मैंने सोचा कि सामान सारा हैण्ड बैगेज में ही ले लूं. ट्रोली थी तो कोई चिंता नहीं थी, घुड़काते हुए ले जा सकती थी. 

फ्लाईट बोर्ड करने के लिए सारे लोग लाइन में लग चुके थे, जब मैंने उसे पहली बार देखा. उसमें कुछ तो था जो पूरी भीड़ में वो अलग नज़र आ रहा था. ऐसा होता है कि कई लोगों के बीच आप एक चेहरे पर फोकस हो जाते हैं, और अचानक से लोगों के बीच बार बार उसपर नज़र पड़ जाती है. सांवले रंग का, लगभग ५'११ के लगभग लम्बा होगा...पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि मैं उसे पहले से जानती हूँ. कहीं देखा है पहले...एक कनेक्शन सा लगा. ये भी लगा कि वो आर्मी या एयर फ़ोर्स में रहा है. उसकी आँखों के पास चोट का निशान था, कालापन था आँखों के इर्द गिर्द. उसने शोर्ट्स डाल रखे थे और बैग्पैक लेकर कतार में खड़ा था.

मैं सोच ही रही थी कि कहाँ देखा है पर याद नहीं आया. बस में चढ़ते वक़्त उसने सनग्लास्सेस लगा लिए थे...बस आई, हम चढ़े...और फिर प्लेन पर चढ़ी. मेरी सीट आगे से दूसरे नंबर पर ही थी. मेरा बैग थोड़ा ज्यादा भारी हो गया था और कोशिश करने पर भी अपने सर के  ऊपर वाले कम्पार्टमेंट पर नहीं डाल पा रही थी मैं. मैंने गहरी सांस ली और सोचा कि एक बार चढ़ा ही दूँगी...उस वक़्त कई लोग और भी चढ़े थे फ्लाईट पर, मेरे रस्ते में खड़े होने से जाने में दिक्कत भी हो रही होगी सबको पर किसी ने एक मिनट रुक कर नहीं कहा कि मैं चढ़ा देता हूँ. और किसी से मदद माँगना शायद मेरी शान के खिलाफ होता...पता नहीं, पर किसी से मदद मांगने में मुझे बड़ी शर्म आती है. 

सोचा तो था कि फ्लाईट अटेंडेंट होते हैं, उनको कह दूँगी, पर कोई दिखा नहीं...तो सोचा खुद ही करती हूँ. जैसे ही बैग उठाया, पीछे से आवाज आई, कैन इ हेल्प यू , मैंने बिना मुड़े कहा...यॉ प्लीज और मुड़ के देखती हूँ तो देखती हूँ वही है जिसे देखा था अभी थोड़ी देर पहले. एक सुखद आश्चर्य हुआ और अच्छा लगा...मेरे थैंक यू बोलने पर उसने एकदम आराम से मुस्कुराते हुए कहा, चीयर्स :) बात छोटी सी थी, बहुत छोटी पर मुझे बहुत अच्छा लगा. 

भले लोगों से कम ही भेंट होती है, पर जब होती है बड़ा अच्छा लगता है. जैसे जाड़ों के मौसम में कॉफ़ी से गर्माहट आ जाती है, वैसे ही कुछ अच्छे लोगों से मिल कर जिंदगी खुशनुमा सी लगने लगती है. उस अजनबी और उसके जैसे और लोग जिन्होंने मेरी मदद की है, उनसे कुछ कहने के लिए मैंने एक टैग बनाने कि सोची है "message in a bottle" जानती हूँ ये लोग कभी आके मेरा ब्लॉग नहीं पढेंगे पर ये मेरा तरीका है शुक्रिया बोलने का. 

"दोस्त, मैं तुम्हें जानती नहीं, पर तुम्हारी एक छोटी सी मदद से काफी देर मुस्कुराती रही मैं...शुक्रिया". 
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इन्टरनेट पर एक साईट है जहाँ आप जाकर अजनबियों के लिए अपने मैसेज छोड़ सकते हैं, मुझे काफी अलग सी लगी ये साईट. मुझे लगा कि ऐसी किसी चीज़ की सच में जरूरत है. आप भी देख आइये, किसी को कुछ कहना है तो कह दीजिये. साईट का नाम है -ब्लॉक, आई सॉ यू देयर...एंड आई थॉट यानि मैंने तुम्हे देखा और सोचा. देख के आइये :)

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