Showing posts with label पटना. Show all posts
Showing posts with label पटना. Show all posts

10 November, 2017

एक ख़ूबसूरत लड़की की ख़ातिर सिफ़ारिशी चिट्ठी

तुम्हें सौंदर्य इतना आक्रांत क्यूँ करता है? उसकी सुंदरता निष्पाप है। उसने कभी उसका कोई घातक इस्तेमाल नहीं किया। कभी किसी की जान लेना तो दूर की बात है, किसी का दिल भी नहीं तोड़ा। उसने हमेशा अपने सौंदर्य को एक बेपरवाही की म्यान में ढक कर रखा। तुम्हें ख़ुद से बचा कर रखा। तुम उसकी ख़ूबसूरती से इतना डरते क्यूँ हो कि जैसे वो कोई बनैला जानवर हो...भूखा...तुम्हारे समय और तुम्हारे प्रेम का भूखा?

उसकी ख़ूबसूरती को लेकर पैसिव नहीं हो सकते तुम? थोड़े सहनशील। ऐसा तो नहीं है कि दुखता है उसका ख़ूबसूरत होना। उसकी काली, चमकती आँखें तुम्हें देखती हैं तो तकलीफ़ होती है तुम्हें? सच बताओ? तुम्हारा डर एक भविष्य का डर है। प्रेम का डर है। आदत हो जाने का डर है। ऐसे कई लोगों के भीषण डर के कारण वो उम्र भर अपराधबोध से ग्रस्त रही। एक ऐसे अपराध की सज़ा पाती रही जो उसने किया ही नहीं था। ख़ुद को हर सम्भव साधारण दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की। शृंगार से दूर रही, सुंदर रंगों से दूर रही...यहाँ तक कि आँखों में काजल भी नहीं लगाया कभी। अब उम्र के साथ उसके रूप की धार शायद थोड़ी कम गयी है, इसलिए उसने फिर से तुम्हें तलाशा।

तुम रखो ना अपने बदन पर अपना जिरहबख़्तर। तुम रखो अपनी आत्मा को उससे बहुत बहुत ही दूर। मत जुड़ने दो उससे अपना मन। लेकिन इतना तो कर सकते हो कि जैसे गंगा किनारे बैठ कर बात कर सकते हैं दो बहुत पुराने मित्र। एक दूसरे को नहीं देखते हुए, बल्कि सामने की धार को देखते हुए। ना जाओ तुम उसके साथ Bern, लेकिन बनारस तो चल सकते हो?

उसे तुम्हारी वाक़ई ज़रूरत है। ज़िंदगी के इस मोड़ पर। देखो, तुम नहीं रहोगे तो भी ज़िंदगी चलती रहेगी। उसे यूँ भी अपनी तन्हाई में रहने की आदत है। लेकिन वो सोचती है कभी कभी, तुम्हारा होना कैसा होगा। तुम्हारे होने से सफ़र के रंग सहेजना चाहेगी वो कि तुम्हारे लिए भेज सके काग़ज़ में गहरा लाल गुलाल...टेसू के फूलों से बना हुआ। तुम किसी सफ़र में जाओ तो सड़कों पर देख लो मील के पत्थर और उसे भेज दो whatsapp पर किसी एकदम ही अनजान गाँव का कोई gps लोकेशन। ज़िंदगी बाँटी जा सकती है कितने तरह से। थोड़ी सी जगह बनाओ ना उसके लिए अपनी इस ज़िंदगी में। बस थोड़ी सी ही। अनाधिकार तो कुछ भी माँगेगी नहीं वो। लेकिन कई बरस की दोस्ती पर इतना सा तो माँग ही सकती है तुमसे।

किसी नीले चाँद रात एक बाईक ट्रिप हो। सुनसान सड़कों पर रेसिंग हो। क़िस्से हों। कविताएँ। एक आध डूएट गीत। ग़ालिब और फ़ैज़ हों। मंटो और रेणु हों।

हम प्रेम की ज़रूरत को अति में देखते हैं। प्रेम की जीवन में अपनी जगह है। लेकिन उसके बाद जो बहुत सा विस्तार है। बहुत सा ख़ालीपन। उसमें दोस्त होते हैं। हाँ, डरते हुए दोस्त भी...कि तुमसे प्यार हो जाएगा, तुम्हारी लत लग जाएगी। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है। वो जानती है कि वो कभी भी love-proof नहीं होगी। उससे प्यार हो जाने का डर हमेशा रहेगा। लेकिन इस डर से कितने लोगों को खोती रहेगी वो ज़िंदगी में। और कब तक।

सुनो ना ज़िद ही मानो उसकी। समझो थोड़ा ना उस ज़िद्दी लड़की को जिसे तुम पंद्रह की उमर से जानते हो। She needs you. Really. कुछ वक़्त अपना लिख दो ना उसके नाम। थोड़ा दुःख तुम भी उठा लो। क्या ही होगा। कितना ही दुखेगा। पिलीज। देखो, हम सिफ़ारिश कर रहे हैं उसकी। अच्छी लड़की है। ख़तरनाक है थोड़ी। सूयसाइडल है। डिप्रेस्ड हो जाती है कई बार। लेकिन अधिकतर नोर्मल रहेगी तुम्हारे सामने। दोस्ती रखोगे ना उससे? प्रॉमिस?

09 November, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

01 September, 2016

थेथरोलोजी वाया भितरिया बदमास



नोट: ये अलाय बलाय वाली पोस्ट है। आप कुछ मीनिंगफुल पढ़ना चाहते हैं तो कृपया इस पोस्ट पर अपना समय बर्बाद ना करें। धन्यवाद।
***

दोस्त। आज ऊँगली जल गयी बीड़ी जलाते हुए तो तुम याद आए। नहीं। तुम नहीं। हम याद आए। तुम्हें याद है हम कैसे हुआ करते थे?
***
ये वो दिन हैं जब मैं भूल गयी हूँ कि मेरे हिस्से में कितनी मुहब्बत लिखी गयी है। कितनी यारियाँ। कितने दिलकश लोग। कितने दिल तोड़ने वाले लोग। इन्हीं दिनों में मैं वो कहकहा भी भूल गयी हूँ जो हमारी बातों के दर्मयान चला आता था हमारे बीच। बदलते मौसम में आसमान के बादलों जैसा। तुम आज याद कर रहे हो ना मुझे? कर रहे हो ना?
***
हम। मैं और तुम मिल कर जो बनते थे...वो बिहार वाला हम नहीं...बहुवचन हम...लेकिन हमारा हम तो एकवचन हो जाता था ना? नहीं। मैं और तुम। एक जैसे। जाने क्या। क्यूँ। कैसे। कब तक?

हम। जिन दिनों हम हुआ करते थे। मैं और तुम।
तुम्हारे घर के आगे रेलगाड़ी गुज़रती थी और मैं यहाँ मन में ठीक ठीक डिब्बे गिन लेती थी। याद है? पटना के प्लैट्फ़ॉर्म पर हम कभी नहीं मिले लेकिन अलग अलग गुज़रे हैं वहाँ से अपने होने के हिस्से पीछे छोड़ते हुए कि दूसरा जब वहाँ आए तो उसे तलाशने में मुश्किल ना हो।

हम एक ऐसे शहर में रहते थे जहाँ घड़ी ठीक रात के आठ बजे ठहर जाती थी। तब तक जब तक कि जी भर बतिया कर हमारा मन ना भर जाए। गंगा में आयी बाढ़ जैसी बातें हुआ करती थीं। पूरे पूरे गाँव बहते थे हमारे अंदर। पूरे पूरे गाँव रहते थे हमारे अंदर। नहीं? इन गाँवों के लोग कितना दोस्ताना रखते थे एक दूसरे से। दिन में दस बार तो आना जाना लगा हुआ रहता था। कभी धनिया पत्ता माँगने तो कभी खेत से मूली उखाड़ने। झालमूढ़ि में जब तक कच्चा मिर्चा और मूली ना मिले, मज़ा नहीं आता। झाँस वाला सरसों का तेल। थोड़ा सा चना। सीसी करते हुए खाते जाना। तित्ता तित्ता।

लॉजिक कहता है तुम वर्चुअल हो। आभासी। आभासी मतलब तो वो होता है ना जिसके होने का पहले से पता चल जाए ना? उस हिसाब से इस शब्द का दोनों ट्रान्सलेशन काम करता है। याद क्यूँ आती है किसी की? इस बेतरह। क्या इसलिए कि कई दिनों से बात बंद है? तुमसे बात करना ख़ुद से बात करने को एक दरवाज़ा खोले रखना होता था। तुमसे बात करते हुए मैं गुम नहीं होती थी। तुम ज़िद्दी जो थे। अन्धार घर में भुतलाया हुआ माचिस खोजना तुमरे बस का बात था बस। हम जब कहीं बौरा कर भाग जाने का बात उत करने लगते थे तुम हमको लौटा लाते थे। मेरे मर जाने के मूड को टालना भी तुमको आता था। बस तुमको। सिर्फ़ एक तुमको।

सुगवा रे, मोर पाहुना रे, ललका गोटी हमार, तुम रे हमरे पोखर के चंदा...तुम हमरे चोट्टाकुमार। जानते हो ना सबसे सुंदर क्या है इस कबीता में? इस कबीता में तुम हमरे हो...हमार। उतना सा हमरे जितना हमारे चाहने भर को काफ़ी हो। कैसे हो तुम इन दिनों? हमारे वो गाँव कैसे उजड़ गए हैं ना। बह गए सारे लोग। सारे लोग रे। आज तुम्हारा नाम लेने का मन किया है। देर तक तुमसे बात करने का मन किया है। इन सारे बहे हुए लोगों और गाँवों को गंगा से छांक कर किसी पहाड़ पर बसा देने का मन किया है। लेकिन गाँव के लोग पहाड़ों पर रहना नहीं जानते ना। तुम मेरे बिना रहना जानते हो? हमको लगता था तुम कहीं चले गए हो रूस के। घर का सब दरवाज़ा खुला छोड़ के। लेकिन तुम तो वहीं कोने में थे घुसियाए हुए। बीड़ी का धुइयाँ लगा तो खाँसते हुए बाहर आए। आज झगड़ लें तुमसे मन भर के? ऐसे ही। कोई कारण से नहीं। ख़ाली इसलिए कि तुमको गरिया के कलेजा जरा ठंढा पढ़ जाएगा। बस इसलिए। बोलो ना रे। कब तक ऐसे बैठोगे चुपचाप। चलो यही बोल दो कि हम कितना ख़राब लिखे हैं। नहीं? कहो ना। कहो कि बोलती हो तो लगता है कि ज़िंदा हो।

मालूम है। इन दिनों मैंने कुछ लिखा नहीं है। वो जो लिखने में सुख मिलता था, वो ख़त्म हो गया है। कि मैंने बात करनी ही बंद कर दी है। काहे कि हमेशा ये सोचने लगी हूँ कि ये भी कोई लिखने की बात है। वो जो पहले की तरह होता था कि साला जो मेरा मन करेगा लिखेंगे, जिसको पढ़ना है पढ़े वरना गो टू द (ब्लडी) भाड़। इन दिनों लगता है कि बकवास लिखनी नहीं चाहिए, बकवास करनी भी नहीं चाहिए। लेकिन वो मैं नहीं हूँ ना। मैं तो इतना ही बोलती हूँ। तो ख़ैर। जिसको कहते हैं ना, टेक चार्ज। सो। फिर से। लिखना इसलिए नहीं है कि उसका कोई मक़सद है। लिखना इसलिए है कि लिखने में मज़ा आता था। कि जैसे बाइक चलाने में। तुम्हें फ़ोन करके घंटों गपियाने में। तेज़ बाइक चलाते हुए हैंडिल छोड़ कर दोनों हाथ शाहरुख़ खान पोज में फैला लेने में। नहीं। तो हम फिर से लिख रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए। जो मन सो।

हम न आजकल बतियाना बंद कर दिए हैं। लिखना भी। जाने क्या क्या सोचते रहते हैं दिन भर। पढ़ते हैं तो माथा में कुछ घुसता ही नहीं है। चलो आज तुमको एक कहानी सुनाते हैं। तुम तो नहींये जानते होगे। ई सब पढ़ सुन कर तुमरे ज्ञान में इज़ाफ़ा होगा। ट्रान्सलेशन तो हम बहुत्ते रद्दी करते हैं, लेकिन तुम फ़ीलिंग समझना, ओके? तुम तो जानते हो कि हारूकी मुराकामी मेरे सबसे फ़ेवरिट राईटर हैं इन दिनों। तो मुराकामी का जो नॉवल पढ़ रहे हैं इन दिनों उसके प्रस्तावना में लिखते हैं वो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई काम उलटे क्रम से किए हैं। उन्होंने पहले शादी की, फिर नौकरी, और आख़िर में पढ़ाई ख़त्म की। अपने जीवन के 20s में उन्होंने Kokubunji में एक छोटा सा कैफ़े खोला जहाँ जैज़ सुना जा सकता था। वो लिखते हैं कि 29 साल की उम्र में एक बार वे एक खेल देखने गए थे। वो साल १९७८ का अप्रील महीना था और जिंग़ु स्टेडीयम में बेसबाल का गेम था। सीज़न का पहला गेम Yakult Swallows against the Hiroshima Carp। वे उन दिनों याकुल्ट स्वालोज के फ़ैन थे और कभी कभी उनका गेम देखने चले जाते थे। वैसे स्वॉलोज़ माने अबाबील होता है। अबाबील बूझे तुम? गूगल कर लेना। तो ख़ैर। मुराकामी गेम देखने के लिए घास पर बैठे हुए थे। आसमान चमकीला नीला था, बीयर उतनी ठंढी थी जितनी कि हो सकती थी, फ़ील्ड के हरे के सामने बॉल आश्चर्यजनक तरीक़े से सफ़ेद थी...मुराकामी ने बहुत दिन बाद इतना हरा देखा था। स्वालोज का पहला बैटर डेव हिल्टन था। पहली इनिंग के ख़त्म होते हिल्टन ने बॉल को हिट किया तो वो क्रैक पूरे स्टेडियम में सुनायी पड़ा। मुराकामी के आसपास तालियों की छिटपुट गड़गड़ाहट गूँजी। ठीक उसी लम्हे, बिना किसी ख़ास वजह के और बिना किसी आधार के मुराकामी के अंदर ख़याल जागा: 'मेरे ख़याल से मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'।

अंग्रेज़ी में ये शब्द, 'epiphany' है। मुझे अभी इसका ठीक ठीक हिंदी शब्द याद नहीं आ रहा।

मुराकामी को थी ठीक वो अहसास याद है। जैसे आसमान से उड़ती हुयी कोई चीज़ आयी और उन्होंने अपनी हथेलियों में उसे थाम लिया। उन्हें मालूम नहीं था कि ये चीज़ उनके हाथों में क्यूँ आयी। उन्हें ये बात तब भी नहीं समझ आयी थी, अब भी नहीं आती। जो भी वजह रही हो, ये घटना घट चुकी थी। और ठीक उस लम्हे से उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी थी।

खेल ख़त्म होने के बाद मुराकामी ने शिनजकु की ट्रेन ली और वहाँ से एक जिस्ता काग़ज़ और एक फ़ाउंटेन पेन ख़रीदा। उस दिन उन्होंने पहली बार काग़ज़ पर कलम से अपना नॉवल लिखना शुरू किया। उस दिन के बाद से हर रोज़ अपना काम ख़त्म कर के सुबह के पहले वाले पहर में वे काग़ज़ पर लिखते रहते क्यूँकि सिर्फ़ इसी वक़्त उन्हें फ़ुर्सत मिलती। इस तरह उन्होंने अपना पहला छोटा नॉवल, Hear the Wind Sing लिखा।

कितना सुंदर है ऐसा कुछ पढ़ना ना? मुझे अब तो वे दिन भी ठीक से याद नहीं। मगर ऐसा ही होता था ना लिखना। अचानक से मूड हुआ और आधा घंटा बैठे कम्प्यूटर पर और लिख लिए। ना किसी चीज़ की चिंता, ना किसी के पढ़ने का टेंशन। हम किस तरह से थे ना एक दूसरे के लिए। पाठक भी, लेखक भी, द्रष्टा भी, क्रिटिक भी। लिखना कितने मज़े की चीज़ हुआ करती थी उन दिनों। कितने ऐश की। फिर हम कैसे बदल गए? कहाँ चला गया वो साधारण सा सुख? सिम्पल। साधारण। सादगी से लिखना। ख़ुश होना। मुराकामी उसी में लिखते हैं कि वो ऐसे इंसान हैं जिनको रात ३ बजे भूख लगती तो फ्रिज खंगालते हैं...ज़ाहिर तौर से उनका लिखना भी वैसा ही कुछ होगा। तो बेसिकली, हम जैसे इंसान होते हैं वैसा ही लिखते हैं।

बदल जाना वक़्त का दस्तूर होता है। बदलाव अच्छा भी होता है। हम ऐसे ही सीखते हैं। बेहतर होते हैं। मगर कुछ चीज़ें सिर्फ़ अपने सुख के लिए भी रखनी चाहिए ना? ये ब्लॉग वैसा ही तो था। हम सोच रहे हैं कि फिर से लिखें। कुछ भी वाली चीज़ें। मुराकामी। मेरी नयी मोटरसाइकिल, रॉयल एंफ़ील्ड, शाम का मौसम, बीड़ी, मेरी फ़ीरोज़ी स्याही। जानते हो। हमारे अंदर एक भीतरिया बदमास रहता है। थेथरोलौजी एक्सपर्ट। किसी भी चीज़ पर घंटों बोल सकने वाला। जिसको मतलब की बात नहीं बुझाती। होशियार होना अच्छा है लेकिन ख़ुद के प्रति ईमानदार होना जीने के लिए ज़रूरी है। हर कुछ दिन में इस बदमास को ज़रा दाना पानी देना चाहिए ना?

और तुम। सुनो। बहुत साल हो गए। कोई आसपास है तुम्हारे? लतख़ोर, उसको कहो मेरी तरफ़ से तुम्हें एक bpl दे...यू नो, bum पे लात :)

कहा नहीं है इन दिनों ना तुमसे।
लव यू। बहुत सा। डू यू मिस मी? क्यूँकि, मैं मिस करती हूँ। तुम्हें, हमें। सुनो। लिखा करो। 

10 June, 2013

Happy Birthday Gorgeous :)

तीस की उम्र में बहुत सी चीज़ों में समझदारी आ जाती है. ये दुनिया वैसी नहीं है जैसी सोचा करती थी...चीज़ें उतनी सिंपल नहीं हैं और रिश्तों में बहुत सी पेचीदगी है...इश्क अभी भी समझ से बाहर है. हम जैसा अपना आने वाला कल सोचते हैं...कल वाकई वैसा नहीं होता कुछ अलग ही होता है. बहुत कुछ ऐसा खोया जिसके बिना जिंदगी अधूरी है तो बहुत कुछ पाया भी जिसके पाने की कल्पना नहीं की थी. 

बहुत सालों के बाद बर्थडे में पटना में हूँ, पापा और जिमी के साथ...उतने ही साल बाद कुणाल के बगैर हूँ... इस बार पहली बार मायके में हूँ तो महसूस किया कि कितना बड़ा परिवार है उधर और कितने सारे लोग कितना सारा प्यार करते हैं मुझे. कभी कभी चीज़ों को महसूस करने के लिए उनसे दूर जाना पड़ता है. रात को देर तक फोन बजता रहा...सुबह भी अनगिन फोन आये. 

थर्टी इज द बेस्ट टाइम इन लाइफ. 

जिंदगी में बहुत सारी चीज़ों के प्रति निश्चिन्तता आ जाती है. इसी बात से कई बार डर भी लगता है हालाँकि, लेकिन फिर लगता है कि नहीं...प्यास अभी बाकी है...बंजारामिजाजी ने रिजाइन नहीं किया है पोस्ट पर से. 

पापा से घूमने के बारे में बात कर रही थी, इस साल पापा को घूमने जाना है...तो मैं घुमक्कड़ी के अपने किस्से सुना रही थी...कि अब कुणाल और जिमी को तो काम है पापा...ऑफिस है, एक काम करते हैं हम और आप निकल जाते हैं घूमने. मेरे ख्याल से मेरा घुमक्कड़ी का 'जीन' पापा की तरफ से आया है. पता नहीं क्या प्रोग्राम बनेगा पर पापा के साथ योरोप का टूर...अल्टीमेट होगा. 

इस बर्थडे पर बहुत दिन से बहुत सारा कुछ लिखने का मन था...लेकिन दिल भरा भरा सा है...कुछ खास लिखने का मन नहीं है. कल शाम को गंगा आरती देखने गयी थी...गंगा किनारे नाव पर बैठ कर बहुत दूर का चक्कर लगाया...लकड़ी की उस नाव पर बैठे अनगिन तसवीरें उतारीं. गंगा का पानी हमेशा की तरह था...निर्विकार... मन में कहीं हिमालय पर भाग जाने की ख्वाहिश को बोता हुआ. आरती करते हुए पंडितों के चेहरे पर अजीब तेज था...जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हों...तप्त...आभा में दमकते हुए. धूप, अगरबत्ती, शंख...बहुत सारा मंत्रोच्चार. 
---
नाव का किराया ३० रुपये था. नाव में अधिकतर लड़के थे...हर उम्र के लड़के...मैं उनके बारे में कितना कुछ सोचती रही. जाने किसी गरीब लड़के का भी कैसे तो ख्याल आया या कि छुट्टियों में घर आये किसी लड़के का जिसने आने के पहले सोचा न हो कि ऐसी कोई चीज़ देखने को मिल जायेगी. हर रोज़ ३० रुपये जुगाड़ने की मशक्कत करनी पड़े. मुझे मालूम नहीं मुझे ऐसा ख्याल क्यूँ आया मगर उन अनजाने चेहरों में कोई अजीब किस्म का अपनापन था. जैसे मेरे घर, मोहल्ले, गाँव के लड़के हों. कि जैसे गंगा आरती देखने वाले लड़के कोई अपराध नहीं कर सकते. कि उनके मन में कोई गंगा ऐसी ही बहती होगी...गंगाजल कभी भी ख़राब नहीं होता, सालों साल बाद भी. एक कहानी भी उभरी मन में...कि गंगा किनारे किसी से मिलने आना कैसा होता होगा. कुछ नहीं बस बरसात के मौसम में मिलने आना कि जब गंगा पटना के घाट तक आ जाती हो. किसी नाव पर पाँव लटकाये बैठे रहे...क्या क्या किस्से सुनाते रहे. कि लगा कि कितनी सारी कहानियां सुनाना चाहती है गंगा. हिलोरे मारती लहरें...कि डूब कर किया जाता है प्यार. कि शाम को आरती के बाद बहा देना चाहिए कोई नाम पत्ते के दोने पर रख कर दिए की लौ में...कि गंगा किनारे आ कर मन का कितना सारा रीता कोना भरने लगता है. कि किसी के जाने के बाद भी उन जगहों पर रह जाता है सोच का कतरा...कि किसी समय गंगा में मेरे नाम की मन्नतें किसी ने बहायीं होंगी. 
---
बहुत कुछ उलझा हुआ है जिंदगी में मगर कहीं एक यकीन है कि सुलझा लूंगी. घर पर इतने सारे लोग हैं...इतने अच्छे दोस्त...और मेरा कुणाल :) इतने में बहुत कुछ किया जा सकता है...बनाया जा सकता है...रचा जा सकता है. 

अच्छा अच्छा सा लग रहा है. और ये वाला कोट...बहुत दिनों से रखा था देख कर...आज टांग देती हूँ...कि हमेशा याद रहे...




You can be gorgeous at thirty, charming at forty, and irresistible for the rest of your life.
-Coco Chanel

And on that note...happy birthday Gorgeous 

13 February, 2013

ज़हरीली खराशें

याद करने की कोशिश करती हूँ...कैसी थी उसकी आवाज़...पटना के कबाड़ी की...पेपर, रद्दी, गत्ता...पेप्पर...रद्दी...जैसी कुछ...कहीं दूर याद की गलियों में साइकिल की घंटी की टिंग टिंग बजती. घर के सामने खड़े जामुन पेड़ के कच्चे जामुनों जैसी कसैली...कनेल के पीले फूलों की गंध जैसी परिचित...बरसात के बाद घुटने भर पानी में हिले-मिले शहर जैसी...खराशें...कैसी खराशें थीं उसकी आवाज़ में...

याद का टीन का डब्बा हिलाती हूँ, अन्दर कुछ खोटे सिक्के ढनमनाते हैं. कैसी थी उसकी आवाज़...बोल न रे टुनकी...कहाँ चढ़ के बैठी है पानी की टंकी पर. चप्पल घसीटता हुआ चलता है लड़का, उसके आने के पहले वही आवाज़ आती है हमेशा...हलके पाँव रखना कब सीखेगा. आवाज़...उसकी आवाज़...४४० हज़ार वोल्ट के खतरे का बोर्ड जैसा वो...आवाज़ उसकी जैसे पागल मौसमों में हू हू...करती हवा जैसे कहती जाती...हूँ...हूँ...मैं हूँ कहीं, तुम्हारे पास...पॉकेट में मिलते हैं अब भी जामुन के बीज...कनेल के सूखे फल रोप दिए हैं कच्ची बारिशों में. कुछ सालों में शायद खिल जायेंगे इनमें पीले फूल...फिर वो एक दिन एक कच्ची डाली हटा कर झांकेगा, गुलेल से कंचे का निशाना लगाए तोड़ेगा मेरे कमरे की खिड़कियों के शीशे...धमकियों से बेअसर खी खी करके हंसेगा.

पतंग उड़ाने की बातें करती मैं सोचूंगी उसके बारे में...मांजे के जैसा काटेगा उड़ते ख्वाबों के कबूतर के पंख. पीपल के पेड़ की फुनगी पर रहने वाले भूत को मिलेगी पतंग पर लिखी कविता की कोई पंक्ति...भूत वही कविता सुना कर चाँद को पटायेगा...पोखर में तैरती मिलेगी उसकी नीली चप्पल मगर मैं जानूंगी कि कमबख्त डूब कर मरेगा नहीं...सालों साल मेरी जान खायेगा. बहुत सालों बाद जाउंगी पटना तो देखूंगी नयी सड़कें और पुरानी दुकानें...पान की पिरकी से रंगे नए संगमरमर के बुत...उसे खोजूंगी तो फिर देखूंगी कबाड़ियों की दुकानें, एक खैनी की दूकान में तम्बाकू काटता कोई अजनबी चेहरा. शहर की आवाजों में बहुत शोर मिल गया है फिर भी उसकी आवाज़ की भरपाई नहीं कर पाता. नामुराद...कैसी थी उसकी आवाज़.

वो क्या गया गालियाँ देने की आदत ही चली गयी...कहाँ है कोई उसके जैसा कि प्यार की नाप ही गालियों से करे...कि जैसे माँ की डांट सुने बिना खाना ही नहीं पचे...कि जैसे हर कुछ दिन पर जान बूझ कर न कर के ले जाऊं होमवर्क कि कभी कभी पनिशमेंट का अपना मज़ा है...फिर सर जब गुस्सा होते हैं मुझपर तो कितना कन्फ्यूज्ड सा एक्सप्रेशन होता है उनका...कि जानती हूँ कितना मुश्किल है मुझ पर गुस्सा होना. पटना...ऐसा बेमुरव्वत...ऐसा जालिम...ऐसा दगाबाज़ शहर...सालों बाद भी ना बदलने की जिद थामे हुए...रुला रुला मारने वाला शहर...थेथरई में पी एच डी किये बैठा...हरपट्टी.

कितना सोचा उसको...कितना चाहा...न्यूक्लियर वार के बाद भी जिन्दा बचने वाला...तिलचट्टा. कहाँ बंकर में घुसी हुयी है उस आवाज़ की कोई रिकोर्डिंग...जाले लग गए हैं टेप में...ना भी हों तो चलाऊं कहाँ? किधर मिलता है टेपरिकोर्डर...यूँ भी बहुत शोर था उस शाम खेल के मैदान में...वो एक ओर से चिल्लाता आया था मेरा नाम...मैंने कानों पर हथेलियाँ रख लीं थीं कि परदे फट जायेंगे कान के...कित्ती ख़राब है तेरी आवाज़...एकदम कबाड़ीवाला लगता है. उस दिन कहीं अन्दर बंद हो गयी दोनों कानों के बीच मेरे नाम में उसकी आवाज़. दिमाग ख़राब कर रखा है लड़के ने.

खटर-खटर चलती है ट्रेन...पटना से नई दिल्ली...पुरवा...यही ट्रेन थी न...उस दिन भी...बैठा होगा आज भी कहीं, डिब्बे का दरवाजा खोले...उड़ती ट्रेन में पैर लटकाए...उसकी आवाज़ खोजते वहां भी जाना पड़ा जहाँ कभी जाने को सोचा नहीं था...पनवाड़ी कैसे अजीब तरीके से घूर रहा था...गोल्ड फ्लेक है? कितने की आती है एक सिगरेट? खरीद सकती थी एक डिब्बा लेकिन एक डिब्बे में उसकी आवाज़ थोड़े न मिलती...वो तो पूरी पॉकेट खोज कर, पर्स के हर कोने से ढूंढ कर निकाला...डेढ़ रुपया...या कि अढाई रुपया था?

क्या थी उसकी आवाज़? सिगरेट की तलब...बस? जिंदगी का सबब...बस? या कि एक टूटने को दिया गया वादा...या कि विदा...अपने हिस्से की मौत चुनने की आज़ादी न सही...अपने पसंद का जहर चुनने की आज़ादी तो जिंदगी ने दी है...वहीं मिलेगी उसकी आवाज़...ड्रग अडिक्ट से कहना...जहर है उसकी आवाज़...फिर सुनना...तलाशना...उसकी आवाज़ की खराशें...याद की खरोंचों में कहीं...निशानों में...आखिरी हिचकी में. 

01 April, 2012

एक अप्रैल...मूर्ख दिवस बनाम प्रपोज डे और कुछ प्यार-मुहब्बत के फंडे

बहुत दिन हुआ चिरकुटपंथी किये हुए...उसपर आज तो दिन भी ऐसा है कि भले से भले इंसान के अन्दर चिरकुटई का कीड़ा कुलबुलाने लगे...हम तो बचपन से ये दिन ताड़ के बैठे रहते थे कि बेट्टा...ढेर होसियार बनते हो...अभी रंग सियार में बदलते हैं तुमको. तो आज के दिन को पूरी इज्ज़त देते हुए एक घनघोर झुट्ठी पोस्ट लिखी जाए कि पढ़ के कोई बोले कि कितना फ़ेंक रहे हो जी...लपेटते लपेटते हाथ दुखा गया...ओझरा जाओगे लटाइय्ये  में...और हम कहते हैं कि फेंका हुआ लपेटिये लिए तो फेंकना बेकार हुआ.

खैर आज के बात पर उतरते हैं...ई सब बात है उ दिन का जब हम बड़का लवगुरु माने जाते थे और ऊ सब लईका सब जो हमरा जेनुइन दोस्त था...मतबल जो हमसे प्यार उयार के लफड़ा में न पड़ने का हनुमान जी का कसम खाए रहता था ऊ सबको हम फिरि ऐडवाइस दिया करते थे कौनो मुहब्बत के केस में. ढेरी लड़का पार्टी हमसे हड़का रहता था...हम बेसी हीरो बनते भी तो थे हमेशा...टी-शर्ट का कॉलर पीछे फ़ेंक के चलते तो ऐसे थे जैसे 'तुम चलो तो ज़मीन चले आसमान चले' टाइप...हमसे बात उत करने में कोईयो दस बार सोचता था कि हमरा कोई ठिकाना नहीं था...किसी को भी झाड़ देंगे...और उसपर जबसे एक ठो को थप्पड़ मारे थे तब से तो बस हौव्वा ही बना हुआ था. लेकिन जो एक बार हमारे ग्रुप में शामिल हो गया उसका ऐश हुआ करता था. 

एक तो पढ़ने में अच्छे...तो मेरे साथ रहने वाले को ऐसे ही डांट धोप के पढ़वा देते थे कि प्यार मुहब्बत दोस्ती गयी भाड़ में पहले कोर्स कम्प्लीट कर लो...उसपर हम पढ़ाते भी अच्छा थे तो जल्दी समझ आ जाता था सबको...फिर एक बार पढाई कम्प्लीट तो जितना फिरंटई करना है कर सकते हैं. हमारे पास साइकिल भी सबसे अच्छा था...स्ट्रीटकैट...काले रंग का जब्बर साइकिल हुआ करता था...एकदम सीधा हैंडिल और गज़ब का ग्राफिक...बचपन में भी हमारा चोइस अच्छा हुआ करता था. घर पर मम्मी पापा कितना समझाए कि लड़की वाला साइकिल लो...आगे बास्केट लगा हुआ गुलाबी रंग का...हम छी बोलके ऐसा नाक भौं सिकोड़े कि क्या बतलाएं. तो हमारे साथ चलने में सबका इज्जत बढ़ता था.

उस समय पटना में लड़की से बात करना ही सबसे पहला और सबसे खतरनाक स्टेप था...अब सब लड़की मेरे तरह खत्तम तो थी नहीं कि माथा उठा के सामने देखती चले...सब बेचारी भली लड़की सब नीचे ताकते चलती थी...हालाँकि ई नहीं है कि इसका फायदा नहीं था...ऊ समय पटना में बड़ी सारा मेनहोल खुला रहता था...तो ऐसन लईकी सब मेनहोल में गिरने से बची रहती थी...हालाँकि हमारा एक्सपीरियंस में हम इतने साल में नहीं गिरे और हमारी एक ठो दोस्त हमारे नज़र के सामने गिर गयी थी मेनहोल में...उ एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर पढ़ते चल रही थी...उस दिन लगे हाथ दू ठो थ्योरी प्रूव हो गया कि मूड़ी झुका के चलने से कुछ फायदा नहीं होता...और एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर तो एकदम्मे नहीं देखना चाहिए. 

देखिये बतिये से भटक गए...तो लईकी सब मूड़ी झुका के चलती थी तो लईका देखती कैसे तो फिर लाख आप रितिक रोशन के जैसन दिखें जब तक कि नीचे रोड पे सूते हुए नहीं हैं कोई आपको देखेगा ही नहीं...भारी समस्या...और उसपर भली लईकी सब खाली घर से कोलेज और कोलेज से घर जाए...तो भईया उसको देखा कहाँ जाए...बहुत सोच के हमको फाइनली एक ठो आइडिया बुझाया...एक्के जगह है जहाँ लईकी धरा सकती है...गुपचुप के ठेला पर. देखो...बात ऐसा है कि सब लईकी गुपचुप को लेकर सेंटी होती है अरे वही पानीपूरी...गोलगप्पा...उसको गुपचुप कहते हैं न...चुपचाप खा लो टाइप...प्यार भी तो ऐसे ही होता है...गुपचुप...सोचो कहानी का कैप्शन कितना अच्छा लगेगा...मियां बीबी और गुपचुप...अच्छा जाने दो...ठेला पर आते हैं वापस...कोई भी लड़की के सामने कोई लईका उससे बेसी गुपचुप खा जाए तो उसको लगता है कि उसका इन्सल्ट हो गया. भारी कम्पीटीशन होता है गुपचुप के ठेला पर...तो बस अगर वहां लड़की इम्प्रेस हो गयी तो बस...मामला सेट. अगर तनी मनी बेईमानी से पचा पाने का हिम्मत है तो ठेला वाला को मिला लो...लड़की पटाने के मामले में दुनिया हेल्पफुल होती है...तो बस तुमरे गुपचुप में पानी कम...मसाला कम...मिर्ची कम...और यही सब लड़की के गुपचुप में बेसी...तो बस जीत भी गए और अगले तीन दिन तक दौड़ना भी नहीं पड़ा...

ई तो केस था एकदम अनजान लईकी को पटाने का...अगर लईकी थोड़ी जानपहचान वाली है तो मामला थोड़ा गड़बड़ा जाता है...खतरा बेसी है कि पप्पा तक बात जा के पिटाई बेसी हो सकता है...यहाँ एकदम फूँक फूँक के कदम रखना होता है...ट्रायल एंड एरर नहीं है जी हाईवे पर गाड़ी चलानी है...एक्के बार में बेड़ापार नहीं तो एकदम्मे बेड़ापार...तो खैर...यहाँ एक्के उपाय है...फर्स्ट अप्रील...लईका सब पूछा कि काहे...तो हम एकदम अपना स्पेशल बुद्धिमान वाला एक्सप्रेशन ला के उनको समझाए...हे पार्थ तुम भी सुनो...इस विधि से बिना किसी खतरे से लड़की को प्रपोज किया जा सकता है...एक अप्रैल बोले तो मूर्ख दिवस...अब देखो प्यार जैसा लफड़ा में पड़ के ई तो प्रूव करिए दिए हो कि मूर्ख तो तुम हईये हो...तो काहे नहीं इसका फायदा उठाया जाए...सो कैसे...तो सो ऐसे. एकदम झकास बढ़िया कपड़ा पहनो पहले...और फूल खरीदो...गेंदा नहीं...ओफ्फो ढकलेल...गुलाब का...लाल रंग का...अब लईकी के हियाँ जाओ कोई बहाना बना के...टेस्ट पेपर वगैरह टाइप...आंटी को नमस्ते करो...छोटे भाई को कोई बहाना बना के कल्टी करो. 

ध्यान रहे कि ई फ़ॉर्मूला सिर्फ साल के एक दिन ही कारगर होता है...बाकी दिन के लतखोरी के जिम्मेदार हम नहीं हैं. लईकी के सामने पहले किताब खोलो...उसमें से फूल निकालो और एकदम एक घुटने पर (बचपन से निल डाउन होने का आदत तो हईये होगा) बैठ जाओ...एक गहरी सांस लो...माई बाबु को याद करो...बोलो गणेश भगवन की जय(ई सब मन में करना...बकना मत वहां कुछ)...और कलेजा कड़ा कर के बोल दो...आई लव यू...उसके बाद एकदम गौर से उसका एक्सप्रेशन पढो...अगर शर्मा रही है तब तो ठीक है...ध्यान रहे चेहरा लाल खाली शर्माने में नहीं...गुस्से में भी होता है...ई दोनों तरह के लाल का डिफ़रेंस जानना जरूरी है...लड़की मुस्कुराई तब तो ठीक है...एकदम मामला सेट हो गया...शाम एकदम गोपी के दुकान पर रसगुल्ला और सिंघाड़ा...और जे कहीं मम्मी को चिल्लाने के मूड में आये लड़की तो बस एकदम जमीन पे गिर के हाथ गोड़ फ़ेंक के हँसना शुरू करो और जोर जोर से चिल्लाओ 'अप्रैल फूल...अप्रैल फूल' बेसी मूड आये तो ई वाला गाना गा दो...देखो नीचे लिंक चिपकाये हैं...अप्रैल फूल बनाया...तो उनको गुस्सा आया...और इसके साथ उ लड़के का नाम लगा दो जो तुमको क्लास में फूटे आँख नहीं सोहाता है...कि उससे पांच रूपया का शर्त लगाये थे. बस...उसका भी पत्ता कट गया. 

चित भी तुमरा पट भी तुमरा...सीधा आया तो हमरा हुआ...ई बिधि से फर्स्ट अप्रैल को ढेरी लईका का नैय्या पार हुआ है...और एक साल इंतज़ार करना पड़ता है बाबु ई साल का...लेकिन का कर सकते हो...कोई महान हलवाई कह गया है...सबर का फल मीठा होता है. ई पुराना फ़ॉर्मूला आज हम सबके भलाई के लिए फिर से सर्कुलेशन में ला दिए हैं. ई फ़ॉर्मूला आजमा के एकदम हंड्रेड परसेंट नॉन-भायलेंट प्रपोज करो...थप्पड़ लगे न पिटाई और लड़की भी पट जाए. 

आज के लिए बहुत हुआ...ऊपर जितना कुछ लिखा है भारी झूठ है ई तो पढ़ने वाला बूझिये जाएगा लेकिन डिस्क्लेमर लगाये देते हैं ऊ का है ना ई महंगाई के दौर में कौनो चीज़ का भरोसा नहीं है. तो अपने रिक्स पर ई सब मेथड आजमाइए...और इसपर हमरा कोनो कोपीराईट नहीं है तो दुसरे को भी ई सलाह अपने नाम से दे दीजिये...भगवान् आपका भला करे...अब हम चलते हैं...क्या है कि रामनवमी भी है तो...जय राम जी की!


14 January, 2012

हैप्पी बर्थडे बिलाई

आज सुबह छह बजे नींद खुल गयी...अक्सर सुबह ही उठ रही हूँ वैसे...इस समय लिखना, पढना अच्छा लगता है. सुबह के इस पहर थोड़ा शहर का शोर रहता है पर आज जाने क्यूँ सारी आवाजें वही हैं जो देवघर में होती थीं...बहुत सा पंछियों की चहचहाहट...कव्वे, कबूतर शायद गौरईया भी...पड़ोसियों के घर से आते आवाजों के टूटे टुकड़े...अचरज इस बात पर हो रहा है कि कव्वा भी आज कर्कश बोली नहीं बोल रहा...या कि शायद मेरा ही मन बहुत अच्छा है.

बहुत साल पहले का एक छूटा हुआ दिन याद आ रहा है...मकर संक्रांति और मेरे भाई का जन्मदिन एक ही दिन होता है १४ जनवरी को. आजकल तो मकर संक्रांति भी कई बार सुनते हैं कि १५ को होने वाला है पर जितने साल हम देवघर में रहे...या कि कहें हम अपने घर में रहे, हमारे लिए मकर संक्रांति १४ को ही हर साल होता था. इस ख़ास दिन के कुछ एलिमेंट थे जो कभी किसी साल नहीं बदलते.

मेरे घर...गाँव के तरफ खुशबू वाले धान की खेती होती है...मेरे घर भी थोड़े से खेत में ये धान की रोपनी हर साल जरूर होती थी...घर भर के खाने के लिए. अभी बैठी हूँ तो नाम नहीं याद आ रहा...महीन महीन चूड़ा एकदम गम गम करता है. १४ के एक दो दिन पहले गाँव से कोई न कोई आ के चूड़ा दे ही जाता था हमेशा...चूड़ा के साथ दादी हमेशा कतरी भेजती थी जो मुझे बहुत बहुत पसंद था. कतरी एक चीनी की बनी हुयी बताशे जैसी चीज़ होती है...एकदम सफ़ेद और मुंह में जाते घुल जाने वाली. कभी कभार तिल के लड्डू भी आते थे.

अधिकतर नानाजी या कभी कभार छोटे मामाजी पटना से आते थे...खूब सारा लडुआ लेकर...मम्मी ने कभी लडुआ बनाना नहीं सीखा. लडुआ दो तरह का होता था...मूढ़ी का और भूजा हुआ चूड़ा का...पहले हम मूढ़ी वाले को ही ख़तम करते थे क्यूंकि चूड़ा वाला थोड़ा टाईट होता था उसको खाने में मेहनत बेसी लगता था. नानाजी हमेशा जिमी के लिए स्वेटर भी ले के आते थे और नया कपड़ा भी. जिमी के लिए एक स्वेटर मम्मी हमेशा बनाती ही थी उसके बर्थडे पर...वो भी एक आयोजन होता था जिसमें सब जुट कर पूरा करते थे. कई बार तो दोपहर तक स्वेटर की सिलाई हो रही होती थी. हमको हमेशा अफ़सोस होता था कि मेरा बर्थडे जून में काहे पड़ता है, हर साल हमको दो ठो स्वेटर का नुकसान हो जाता था.

तिलकुट के लिए देवघर का एक खास दुकान है जहाँ का तिलकुट में चिन्नी कम होता है...तो एक तो वो हल्का होता है उसपर ज्यादा खा सकते हैं...जल्दी मन नहीं भरता. उ तिलकुट वाला के यहाँ पहले से बुकिंग करना होता है तिलसकरात के टाइम पर काहे कि उसके यहाँ इतना भीड़ रहता है कि आपको एक्को ठो तिलकुट खाने नहीं मिलेगा. वहां से तिलकुट विद्या अंकल बुक करते थे...कोई जा के ले आता था.

सकरात में दही कुसुमाहा से आता था...कुसुमाहा देवघर से १६ किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पापा के बेस्ट फ्रेंड पत्रलेख अंकल उस समय मुखिया थे...उनके घर में बहुत सारी अच्छी गाय है...तो वहां का दही एकदम बढ़िया जमा हुआ...खूब गाढ़ा दूध का होता था...ई दही एक कुढ़िया में एक दिन पहले कोई पहुंचा जाता था...और दही के साथ अक्सर रबड़ी या खोवा भी आता था. इसके साथ कभी कभी भूरा आता था जो हमको बहुत पसंद था...भूरा गुड का चूरा जैसा होता है पर खाने में बहुत सोन्हा लगता है. १४ को हमारे घर में कोबी भात का प्रोग्राम रहता था...उसके लिए खेत से कोबी लाने पापा के साथ विद्या अंकल खुद कुसुमाहा जाते थे...१४ की भोर को.

ये तो था १४ को जब चीज़ों का इन्तेजाम...सुबह उठते...मंदिर जाते...नया नया कपड़ा पहन के जिम्मी सबको प्रणाम करता. तिल तिल बौ देबो? ये सवाल तीन पार पूछा जाता जिसका कि अर्थ होता कि जब तब शरीर में तिल भर भी सामर्थ्य रहेगा इस तिल का कर्जा चुकायेंगे...या ऐसा ही कुछ. फिर दही चूड़ा खाते घर में सब कोई और शाम का पार्टी का तैय्यारी शुरू हो जाता.

तिलसकरात एक बहुत बड़ा उत्सव होता जिम्मी के बर्थडे के कारण...होली या दीवाली जैसा जिसमें पापा के सब दोस्त, मोहल्ले वाले, पापा के कलीग, घर के लोग...सब आते. शाम को बड़ा का केक बनाती मम्मी...कुछ साथ आठ केक एक साथ मिला के, काट के, आइसिंग कर के. घर की सजावट का जिम्मा छोटे मामाजी का रहता. सब बच्चा लोग को पकड़ के बैलून फुलवाना...फिर पंखा से उसको बांधना...पीछे हाथ से लिख के बनाये गए हैप्पी बर्थडे के पोस्टर को टांगना. ऐसे शाम पांच बजे टाइप सब कोई तैयार हो जाते थे.

--------------
आज सुबह से उन्ही दिनों में खोयी हूँ...यहाँ बंगलौर में कुल जमा दो लोग हैं...घर से चूड़ा आया हुआ है...अभी जाउंगी दही खरीदने...दही चूड़ा खा के निपटाउंगी. जिमी के लिए कल शर्ट खरीद के लाये हैं...उसको कुरियर करेंगे...सोच रहे हैं और क्या खरीदें उसके लिए.

सारे चेहरे याद आ रहे हैं...सब पुराने दोस्त...लक्की भैया, रोजी दीदी, नीलू, छोटू-नीशू, लाली, रोली, मिक्की, राहुल, बाबु मामाजी, छोटू मामाजी, सीमा मौसी, इन्द्रनील, नीति, आकाश, नीतू दीदी, शन्नो, मिन्नी, मनीष, आभा, सोनी...कितने लोग थे न उस समय...कितनी मुस्कुराहटें. अपने लिए दो फोटो लगा रहे हैं...हालाँकि ये वाला पटना का है...पर मेरे पास यही है.


यहाँ से तुमको ढेर सारा आशीर्वाद जिमी...खूब खूब खुश रहो...आज तुमको और पापा को बहुत बहुत मिस कर रहे हैं हम. 

12 December, 2011

दुनिया का सबसे झूठा वाक्य

दुनिया का सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाला वाक्य ढूंढ रही थी...दुनिया यानि मेरी या मेरे जैसे और लोगों की दुनिया का सबसेट...आखिर दुनिया उतनी ही तो है न जितनी हम जानते हैं...बाकी दुनिया तो हम तक पहुँचती नहीं. कम्पीटीशन कड़ा है...बहुत से उम्मीदवारों को छांटने के बाद मुझे दो बहुत ही मजबूत उम्मीदवार दिखे...'मैं तुमसे प्यार नहीं करती' और 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. एकदम अलग अलग समय और माहौल में बोले गए ये दो वाक्य अक्सर सबसे ज्यादा जो कहते दिखते हैं ठीक उससे उलट मतलब होता है इनका.

पहला वाला 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ/आई डोंट लव यू' से तो बहुतों का पाला पड़ा होगा...गौर कीजिये कि ये वाक्य लड़कियों की ओर से कहा जा रहा है...ऐसा नहीं है कि लड़के ऐसा झूठ बोलते ही नहीं है पर अगर आप कोई रिसर्च करेंगे तो देखेंगे कि इस मामले में लड़कियां झूठ बोलने में लड़कों को काफी पीछे छोड़ती हैं. रिसर्च जाने दीजिये, अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और लड़की/महिला हैं तो आप जानती हैं उम्र के कितने पड़ाव पर कितनी सहेलियों के किस्से जब उन्हें किसी लड़के ने हिम्मत करके प्रपोज कर दिया था. याद कीजिए...हॉस्टल का कमरा हो कि शाम को मोहल्ले का पार्क जहाँ रोज की गपशप(गोसिप?) होती है.

लड़कियां वैसे भी लड़कों से ज्यादा बातें करती हैं...मुझे अपने हॉस्टल का कमरा याद आता है...जहाँ हर रात खाने के बाद तमीज का सेशन होता था जिसमें मेरे जैसे कुछ लोग होते थे जो अपनाप को बहुत समझदार समझते थे...ख़ास तौर से रिश्तों के मामले में. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे दूर की चीज़ें भी महसूस होती हैं. ये लवगुरु टाईप का तमगा अर्न(earn...you have to earn a Bournville types) करना होता है. जब बहुत दिन तक आपकी दी हुयी मुफ्त की सलाह से लोगों का फायदा हो तो सम्मिलित रूप से लोग आपको ये महान उपाधि देते हैं. ये तब भी होता है जब कोई मुश्किल दौर से गुज़र रही हो और आप उसके मन को हूबहू समझ सकें और उसके मन मुताबिक कोई रास्ता निकल सकें. बहुत मुश्किल काम होता है ये...अपने फ्रीटाइम के इस उपयोग के कारण हमेशा से रिश्तों की कई गुत्थियाँ हमने अनुभव से सुलझाई हैं.

खैर...दिल्ली में तो काफी नोर्मल सी चीज़ थी पर पटना में प्यार वगैरह बड़ी आफत हुआ करती थी...किसी को जाने, देखे, मिले, समझे बिना लड़के प्रोपोज कर मारते थे और लड़कियां बेचारी मुश्किल में पड़ जाती थीं. सबको घर से धमकी आलरेडी मिली रहती थी लड़कों से ज्यादा बात वात मत करो टाइप्स...वैसे में कोई लड़का सीधे आ के बोल रहा है कि 'आई लव यू' तो अगर उसको पसंद भी करते हैं तो क्या कर सकते हैं. बेचारी लड़की दिल पर पत्थर रख के कहती थी 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ'.

लड़की के ऐसा कहने के पीछे बहुत सारा लोजिक रहता था...लड़की सबसे पहले सोचती थी लड़के का टाइटिल क्या है...यानि कि हमारे कास्ट का है कि नहीं...पहला न तो वहीं से उपजता था...पटना में उस समय कास्ट का बहुत पंगा चलता था...तो अगर लड़का दूसरी जाति का है तो बिना सोचे समझे, प्यार को मौका दिए न कह दिया जाता था. अगर बमुश्किल लड़का आपकी जाति का निकला(जो कि कभी नहीं होता था...सब आपस में मैच ऑप्शन के टेबल की तरह इधर उधर हुए रहते थे) तो दूसरी परेशानी आती थी कि कोई जान लेगा तो क्या होगा. लड़के से मिलेंगे कैसे, कोचिंग बंद हो जायेगी...भाई रोज छोड़ने आएगा...मम्मी से डांट पड़ेगी...वगैरह. इन सबसे सबसे मुश्किल चीज़ होती थी कि मिलेंगे कहाँ...और दूसरा खतरा...किसी ने देख लिया तो. तो इन सब प्रक्टिकल कारणों से लड़कियां सीधे न कह लेती थीं. एक बार में झंझट ख़तम.

दुनिया का सबसे बड़ा झूठा वाक्य का दूसरा उम्मीदवार है 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. ये वाक्य भी अधिकतर लड़कियां ही कहती हैं. इस वाक्य को कहने का एक और सिर्फ एक आशय होता है...कि मैं एकदम ठीक नहीं हूँ...थोड़ा मेरे और करीब आकर देखो कि मेरा दिल क्यूँ टूटा है...मैं क्यूँ बिखर रही हूँ...मुझे सम्हाल लो...मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की परेशानी या दुःख न हो इसलिए कहती हूँ कि मैं ठीक हूँ. लड़की ऐसी अजीब शय होती है वो भी मुहब्बत में कि जान देने जा रही होगी और आप उससे पूछेंगे कि कैसी हो, मैं आ जाऊं तो कह देगी 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो' इस वाक्य का हमेशा उल्टा मतलब होता है...डेंजर सिग्नल है एकदम ये वाला. इसको कभी भी इग्नोर नहीं करना चाहिए.


कैसा अजीब होता है न प्यार कि खुद मरे जा रहे हैं उसकी चिंता नहीं है मगर महबूब अगर पूछे कि कैसी हो तो एक शब्द नहीं निकलेगा कि आ जाओ, मर रही हूँ. ये कैसी फितरत है...प्यार का ये कौन सा पहलू है मुझे आज तक समझ नहीं आता. कि जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है उस वक़्त आप चाहोगे कि वो खुद समझ जाए...बिना कहे हुए. इसलिए ये वाक्य बहुत खतरनाक है...इसका मतलब है कि आप जाओ, जहाँ भी है वो और उसे बाँहों में भर लो...लड़की बस इतना ही चाहती है.

कैसा होता है ये चाहना कि आप खुद कहो कि हाँ, अब चले जाओ, मैं ठीक हूँ जबकि दिल कहता है कि अभी कुछ देर और ठहर जाओ, दिल के टाँके कच्चे हैं...ज़ख्म थोड़ा भर जाने दो. उसपर जिंदगी ऐसी बेरहम है कि हालात ऐसे पैदा करती है कि वक़्त हमेशा कम पड़ता है...सोचो आप किसी आवाज़ को एक बार सुनने को तरस रहे हो...पर जानते हो कि वो ऑफिस में होगा...आप मेसेज करते हो...उधर से रिप्लाय आता है कि बीजी हूँ, बाद में फ़ोन करूँ...तुम ठीक हो न? लड़की क्या करेगी...करना चाहिए कि फ़ोन कर ले...एक मिनट की आवाज़ सुन कर रख दे...पर वो करेगी नहीं...वो जवाब देगी...कि वो ठीक है...उसकी चिंता एकदम मत करो. उसका दिल चाहेगा कि कहे कि ऑफिस छोड़ के अभी घर आ जाओ...मैं बहुत परेशान हूँ पर वो करेगी क्या...मेसेज करेगी, खाने में क्या बनवा लूं?

इन दोनों वाक्यों के पीछे की पूरी कहानी जानना बेहद जरूरी है...ये वाक्य कभी भी फेस वैल्यू पर नहीं लिए जा सकते. इनके पीछे बहुत कुछ होता है...अक्सर रोती आँखें और खाली, सूना सा दिल होता है...खैर.

तुमसे कुछ कहना था आज...मैं तुमसे प्यार नहीं करती...और मैं ठीक हूँ...मेरी बिलकुल चिंता मत करो! :)

PS: स्माइली से धोखा मत खाइए...वो बस ध्यान भटकाने के लिए है, मैं देख रही थी कि ऊपर के भाषण का कोई असर हुआ भी है कि एक स्माइली से आप भटक जायेंगे

24 November, 2011

अन अफेयर विथ बाइक्स/मुहब्बतें

मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक  यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.

Enticer 
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).

शान की सवारी- राजदूत
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.

ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.

उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.

मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.

तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में. 

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

07 September, 2011

तुम झूठ बोलते हो...सच्ची में

ना ना, तुम नहीं समझोगे मेरी जान...भरी दुपहरिया तपती देह बुखार में याद का कैसा पारा चढ़ता है...जैसे दिमाग की सारी नसें तड़तड़ा उठती हों और एक एक चित्र का सूक्ष्म विवेचन कर लेती हों. तुम्हें याद है कैसे नंगे पाँव धूप पर गंगा बालू में दौड़ती चली आती थी मैं, मुझे भी धूप से भ्रम होता था तुम्हारे आने का. तुम कहते थे कि तुम आये नहीं थे मगर दिल जो पागल हो रखा था, कभी तेज़ धड़कता भी था तो लगता था पुरवाई पर उड़कर तुम्हारी महक आ गयी है आँगन तक...और फिर चप्पल उतार कर चलना होता था न...अरे ऐसे कैसे, कोई सुन लेता तो...और नहीं तुम जानते नहीं मैंने पायल पहनना क्यूँ बंद कर दिया था...दो ही घुँघरू थे पर चुप्पी दोपहरी अपनी महीन नींद से जाग जाती थी और फिर कोयल पूरे मोहल्ले हल्ला करती फिरती थी कि मैं चुपके जाके तुम्हारी खिड़की से तुम्हें सोते हुए झाँक आई हूँ. 


वो पड़ोसी की बिल्ली जैसे मेरे ही रास्ता काटने के इंतज़ार में बैठी रहती थी, मुटल्ली...एक मैं हर बार तुम्हारी याद में गुम किचन का दरवाजा खुला भूल आती थी और उसके वारे न्यारे...वो तो बचपन में कजरी बिल्ली का किस्सा सुन रखा था वरना सच्ची किसी दिन उसको बेलन ऐसा फ़ेंक मारती कि मरिये जाती...अरे इसमें हिंसा का कौन बात हुआ जी...तुम भी बौरा गए हो...कल को जो मच्छर भी मारूंगी तो कहोगे उसमें जान होती है...बड़े आये नरम दिल वाले...नरम दिल मेरा सर...हुंह. जो रोज शाम को एक बिल्ली के कारण डांट खाना पड़े न तब जानोगे...कोई तुमको लेकर कुछ कहे तो फिर भी सुन लूँ, उस बिल्ली के लिए भला क्यूँ सुनु मैं...मेरी क्या लगती है...मौसी...मेरी बला से!

तुम तो रहने ही दो...फर्क पड़ता है तुम्हें मेरा सर...हफ्ते भर से बीमार हुयी बैठी हूँ और एक बार चुपके से झाँकने भी नहीं आये...और नहीं किसी के हाथ चिट्टी ही भिजवा दी होती, न सही कमसे कम गोल-घर के आगे से खाजा ही खरीद के ला देते...चलो कमसे कम हनुमान मंदिर ही चले जाते, प्रसाद देने कौन मना करेगा तुमको...लेकिन हाय रे मेरे बुद्धू तुमको इतनी बुद्धि होती तो फिर सोचना ही क्या था. तुम तो मजे से रोज क्रिकेट खेलने जा रहे होगे आजकल कि भले बीमार हुए पड़ी है...फुर्सत मिल गयी...अरे मर जाउंगी न तो तुम्हारा सचिन नहीं आएगा तुम्हारे आंसू पोंछने...पगलाए हुए हो उसके लिए...और मान लो आ भी गया तो बोलोगे क्या...क्या लगते हैं जी तुमरे हम? 
------
बहुत साल हुए...लड़की का बचपना चला गया, बात बात में तुनकना भी चला गया...बुखार आये भी बहुत बरस बीते...लड़का भी परदेस से वापस नहीं लौटा...पर आज भी जब वो लड़का फोन पर उसे यकीन दिलाने की कोशिश करता है की उसने कभी उससे प्यार नहीं किया था...तो लड़की के अन्दर का समंदर सर पटक पटक के जान दे देता है. 

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
---
फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...