ना ना, तुम नहीं समझोगे मेरी जान...भरी दुपहरिया तपती देह बुखार में याद का कैसा पारा चढ़ता है...जैसे दिमाग की सारी नसें तड़तड़ा उठती हों और एक एक चित्र का सूक्ष्म विवेचन कर लेती हों. तुम्हें याद है कैसे नंगे पाँव धूप पर गंगा बालू में दौड़ती चली आती थी मैं, मुझे भी धूप से भ्रम होता था तुम्हारे आने का. तुम कहते थे कि तुम आये नहीं थे मगर दिल जो पागल हो रखा था, कभी तेज़ धड़कता भी था तो लगता था पुरवाई पर उड़कर तुम्हारी महक आ गयी है आँगन तक...और फिर चप्पल उतार कर चलना होता था न...अरे ऐसे कैसे, कोई सुन लेता तो...और नहीं तुम जानते नहीं मैंने पायल पहनना क्यूँ बंद कर दिया था...दो ही घुँघरू थे पर चुप्पी दोपहरी अपनी महीन नींद से जाग जाती थी और फिर कोयल पूरे मोहल्ले हल्ला करती फिरती थी कि मैं चुपके जाके तुम्हारी खिड़की से तुम्हें सोते हुए झाँक आई हूँ.
वो पड़ोसी की बिल्ली जैसे मेरे ही रास्ता काटने के इंतज़ार में बैठी रहती थी, मुटल्ली...एक मैं हर बार तुम्हारी याद में गुम किचन का दरवाजा खुला भूल आती थी और उसके वारे न्यारे...वो तो बचपन में कजरी बिल्ली का किस्सा सुन रखा था वरना सच्ची किसी दिन उसको बेलन ऐसा फ़ेंक मारती कि मरिये जाती...अरे इसमें हिंसा का कौन बात हुआ जी...तुम भी बौरा गए हो...कल को जो मच्छर भी मारूंगी तो कहोगे उसमें जान होती है...बड़े आये नरम दिल वाले...नरम दिल मेरा सर...हुंह. जो रोज शाम को एक बिल्ली के कारण डांट खाना पड़े न तब जानोगे...कोई तुमको लेकर कुछ कहे तो फिर भी सुन लूँ, उस बिल्ली के लिए भला क्यूँ सुनु मैं...मेरी क्या लगती है...मौसी...मेरी बला से!
तुम तो रहने ही दो...फर्क पड़ता है तुम्हें मेरा सर...हफ्ते भर से बीमार हुयी बैठी हूँ और एक बार चुपके से झाँकने भी नहीं आये...और नहीं किसी के हाथ चिट्टी ही भिजवा दी होती, न सही कमसे कम गोल-घर के आगे से खाजा ही खरीद के ला देते...चलो कमसे कम हनुमान मंदिर ही चले जाते, प्रसाद देने कौन मना करेगा तुमको...लेकिन हाय रे मेरे बुद्धू तुमको इतनी बुद्धि होती तो फिर सोचना ही क्या था. तुम तो मजे से रोज क्रिकेट खेलने जा रहे होगे आजकल कि भले बीमार हुए पड़ी है...फुर्सत मिल गयी...अरे मर जाउंगी न तो तुम्हारा सचिन नहीं आएगा तुम्हारे आंसू पोंछने...पगलाए हुए हो उसके लिए...और मान लो आ भी गया तो बोलोगे क्या...क्या लगते हैं जी तुमरे हम?
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बहुत साल हुए...लड़की का बचपना चला गया, बात बात में तुनकना भी चला गया...बुखार आये भी बहुत बरस बीते...लड़का भी परदेस से वापस नहीं लौटा...पर आज भी जब वो लड़का फोन पर उसे यकीन दिलाने की कोशिश करता है की उसने कभी उससे प्यार नहीं किया था...तो लड़की के अन्दर का समंदर सर पटक पटक के जान दे देता है.
आखिरी पैरा में समंदर को सर पटकते हुये देखते हुये जगजीत की गायी हुयी गज़ल की एक लाईन याद आयी:
ReplyDelete"मुझे है याद वो सब, उसने जो कभी कहा ही नहीं"
ऊफान भरी ठाटें मारती, हौले-हौले सहलाती, झुलाती लहरों की मौज.
ReplyDeleteगोलघर के आगे खाजा?? कब से मिलने लगा है रे??
ReplyDeleteम्यूजियम के आगे खाजा मिलता है.. वैसे बेचारी बच्ची को इतना कहाँ पता रहा होगा तब..
बोक्का हो एकदम...गोलघर के पास ठेला लेके घूमता है खाजा बेचने वाला...तुम कभियो देखे भी हो जो...बड़का अपने को पटना का हीरो समझते हो...लड़की तुमसे बेसी होशियार है :P:D
ReplyDeleteसब कुछ तो अच्छा चल रहा था पूजा फिर काहे बिछाड़ दी दोनों को अंत में ....अरे आवाज का समंदर हिलोरे भी तो मार सकता था ना ....ये प्यार अलगाव से ही कहानियों में प्रगाढ़ क्यों होता है .....बस यही तलाश रहें है आजकल .......खैर तुम्हारी नायिका चाहो तो मिलाओ चाहो तो जुदा कर दो :-) लिक्खे बढ़िया हो
ReplyDeleteबस ?
ReplyDeleteमुटल्ली :-)
ReplyDeleteबदमाश बिल्ली को बेलन मारा जा सकता है, कोई हिंसा नहीं। हिंसा तो मुटल्ली बिल्ली करती है, रास्ता काट के, दिल धक्क से जो हो जाता है।
ReplyDeleteतुम भी सुरूर में लिखने लगी. बडबडाने लगी ? दारु पीने लगी ? हेडेक होने लगा ?
ReplyDeleteये सचमुच अनर्गल प्रलाप है. बौराया हुआ सा. इसका एक उम्र के बाद कोई जगह नहीं होता और हम ऐसे किसी पात्र को नाटक लिखने में किसी किरदार के हवाले कर देते हैं. बस ! जब ऐसा ना जी पाने का कोफ़्त रह जाता है तो दुसरे के कंधे पर रख कर बन्दूक चलाने लगते हैं.
लास्ट का पैरा नहीं भी लिखती तो मामला पट जाता. उतना ही बहुत है.
अच्छा है जुदा हो गए .....वरना उतना प्यार कहाँ बचा रह जाता है .
ReplyDeleteआखिरी ट्विस्ट अच्छा लगा !
आप बहुत अच्छा लिखती है .. आपकी ये रचना बहुत ही शानदार बन पड़ी है ....पर पता नहीं प्यार की कहानिया ऐसी ही क्यों होती है ..
ReplyDeleteआपको बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
:) :)
ReplyDeleteवैसे प्रशांत जो कहा वही हम भी कहने वाले थे की म्युजिअम के आगे खाजा मिलता है..और गोलघर के पास ठेला पे खाजा बेचने वाले को तो हम भी नहीं देखे हैं :( कस्सम से आप हमसे ज्यादा पटना घूमी हुई लगती हैं ;) ;)
ReplyDelete@अभि - ये लड़की कभी गई होगी वहाँ, और इसको ऊ गन्दा वाला फुटपाथ पर बना हुआ चिन्नी लपेटा हुआ खाजा "सिलाव का खाजा" बोल कर बेच दिया होगा.. तब से उसी को सिलाव का खाजा समझने लगी होगी.. :D
ReplyDelete@PD, Abhi...silav khaja special milta hai museum ke aage to isse kya baaki patna mien khaja nahin bikega...khaja milta tha udhar golghar ke paas...jaana na una hua khali jhutte halla...tum log kya jano :P
ReplyDelete70 की हो जाने पर भी उसे वह खत याद रहा है, छोटा है इसलिए... न सिर्फ इसलिए, बल्कि उसमें याद रखने लायक भी थी वो बात- पिछले दरवाजे की चाबी, उसी पुरानी जगह पर रखी मिलेगी.
ReplyDeleteWOW! कितनी खूबसूरत बात है...काश कि लिखी होती मैंने. शुक्रिया राजेश जी... :-)
Deleteआज इन्टरनेट और सेल फ़ोन ,विडिओ चाट के ज़माने में प्यार के असंख्य आयाम और रंग है .
ReplyDeleteकुछ वरिष्ट यानि पांचवे दशक के पवित्र प्रेमियों के अनुसार : जब प्रेमिका गाज़र के हलवे के साथ काढ़ा हुआ रुमाल जानबूझकर भूल से आपके पास छोड़ जाती तो यह प्यार हो जाने का संकेत और कन्फर्मेशन माना जाता था .
लेकिन एक बात जो तब भी और अब भी......................
मै तो राग लगाता हूँ ,प्यार जताना तुम जानो.
मै तो लगी लगाता हूँ ,आग लगाना तुम जानो.
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