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27 September, 2019

उनके पास दुनिया की सबसे उदास धुनें थीं।

बहुत दूर के कुछ द्वीप थे, कथित सभ्यता से दूर। किसी लुप्त होती भाषा को बोलने वाला आख़िरी व्यक्ति कितना अबोला अपने अंदर लिए जी सकता है? मैं बूढ़ी औरत की झुर्रियों को देखती सोच रही थी, अपने परपोते या परपोती को कोई लोरी सुनाते हुए उसने चाहा होगा कि कभी उसे उस लोरी का मतलब किसी ऐसी भाषा में सिखा समझा सके जो उसने अपने बचपन में अपनी परदादी से सुनी थी। दुनिया से दूर बसे उस गाँव की उस बोली को बचाए रखने के लिए कोई लिपि नहीं इजाद कर पायी वह। अगर उसे घर-परिवार के काम से फ़ुर्सत मिली होती तो क्या वह ऐसी लिपि इजाद कर लेती? औरतें बहुत बोलती हैं लेकिन क्या वे उतना ही लिखती भी हैं? मैं उस नन्ही बच्ची के बारे में सोच रही थी जो उस झुर्रियों वाली बूढ़ी औरत की गोद में थी। उसकी याद में एक ऐसी लोरी होगी जो वो अपने जीवन में फिर कभी नहीं सुन पाएगी। कुछ चीज़ों को किसी परिष्कृत रूप में नहीं बचाया जा सकता है, उन्हें ठीक ठीक वैसा ही रखना होता है वरना वे पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। उस अनजान भाषा में गुनगुनाती स्त्री की आवाज़ तो मेरी दादी जैसी ही थी, झुर्रियाँ भी, लेकिन उनका दुःख, उनकी चुप्पी मेरी समझ से बहुत दूर की चीज़ थी।

बहुत पुराने वाद्ययंत्र इक अजायबघर में रखे थे। इक बड़ा ख़ूबसूरत, रईस सा दिखने वाला व्यक्ति आया। उसने क़ीमती कपड़े पहने हुए थे। उसने एक वाद्ययंत्र उठाया और बजाने लगा। लोग देर तक जहाँ थे, मंत्रमुग्ध उसे सुनते रहे। थोड़ी देर बाद उसने बजाना बंद किया। लोग तंद्रा से जागे और दूसरे सेक्शंज़ की ओर चले गए। हॉल एकदम ख़ाली हो गया। उस व्यक्ति ने उस सुनसान में अपने बैग उसी वाद्य की एक प्रतिलिपि निकाली और वहाँ पर रख दी। फिर वो असली वाद्य को बैग में रख कर बाहर निकल गया। यह सब वहाँ के एक गार्ड ने देखा। शाम को गार्ड ने उस व्यक्ति की रिपोर्ट दर्ज की… उसके ऊपर के अधिकारी ने पूछा, तुमने उस वक़्त क्यूँ नहीं बताया, तुम्हें निलम्बित किया जा सकता है। गार्ड ने कहा वह मेरे पुरखों के संगीत को सहेजा हुआ वाद्य था… उसे उस कौशल से बजाने वाले लोग लुप्त हो गए हैं। इस अजायबघर से ज़्यादा ज़रूरत उस व्यक्ति को उस वाद्य की थी। आपको शायद याद नहीं, अभी से कुछ दिन ही पहले एक मज़दूर से दिखने वाले व्यक्ति ने बहुत मिन्नत की थी कि वाद्य उसे दे दिया जाए, वो अपनी पोती की शादी में उसे बजा कर अपने पितरों को बुलाना चाहता है लेकिन आपने कुछ दिन के लिए ले जाने की अनुमति भी नहीं दी थी। ये वही व्यक्ति था लेकिन उसके क़ीमती कपड़ों की चौंध के आगे किसी ने कुछ नहीं कहा। मैंने ही नहीं, कई और लोगों ने उसे वह यंत्र बदलते हुए देखा था। वाद्ययंत्र अजायबघरों की नहीं, गाँवों की, अगली पीढ़ी की थाती होते हैं। चीज़ों को सिर्फ़ लूट कर मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करने वाले लोग इस बात को कहाँ समझ पाएँगे। आप चाहें तो मुझे इस बात के लिए निलम्बित कर सकते हैं लेकिन मुझे कोई शर्म नहीं है और मैं माफ़ी भी नहीं माँगूँगा।
धुनों के कारीगर दुनिया में सुख और दुःख का संतुलन बनाए रखते थे। कभी कभी चुप्पी पसार जाती और कई दिनों तक ना सुख ना दुःख होता दुनिया में… फिर ये लोग कुछ उदास धुनों को दुनिया में वापस भेज देते थे। वे इन धुनों को सिर्फ़ अपने फ़ोन में रेकर्ड करके अपने हेड्फ़ोन पर सुनते रहते तो किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन वे आम नौकरीपेशा लोग थे जो वक़्त की विलासिता अपने लिए जुटाने में सक्षम नहीं थे। वे जहाँ नौकरी कर रहे होते, वहीं इन उदास धुनों को प्ले कर देते। कभी अपने मोबाइल पर स्पीकर में, कभी अपने संस्थान के स्पीकर सिस्टम पर ही। इन धुनों को सुन कर हर किसी को महसूस होता था कि दुःख असीम है। ऐसे भी होते जो दुःख की ही कविताओं की किताब पर प्रेम का सादा कवर चढ़ाए कैफ़े में अकेले बैठ, चुपचाप पढ़ लिख रहे होते। ऐसी किसी धुन को सुन कर वे भी यक़ीन करने लगते कि इकतरफ़े प्रेम से बेहतर दोतरफ़ा नफ़रत होती है। पलड़ा दुःख की ओर झुकने लगता। कुछ लोग इतने सारे दुःख देख कर ख़ुश होते। संतुलन बना रहता। 

इसी दुनिया में कहीं मैं तुमसे मिलती। तुमसे मिलने के बाद मुझे हर धुन ही उदास लगती। मैं इंतज़ार करती तुमसे दुबारा मिलने का कि हम साथ में कोई ख़ुश गीत गुनगुना सकें कि इकलौती मेरी दुनिया का संतुलन ठीक हो जाए। तुम समंदर किनारे होते। समंदर से तूफ़ान उठ के चले आते और मेरे शहर को बर्बाद कर देते। मैं उस उजाड़ में बैठी सोचती, कोई तूफ़ान ऐसे ही मेरे दिल के अंदर के शोर करते किसी बेसुरे वाद्ययंत्र को तोड़ सकता तो कितना अच्छा होता।

14 October, 2018

कविता पढ़ते हुए
उसके काग़ज़ी होंठ
नहीं मैच करते उसकी आवाज़ से।
थिर हो पढ़ता है कविता 
आवाज़ रह जाती है
सुनने वाले की चुप्पी में आजीवन। 
जी उठते हैं उसके होंठ
चूमने की हड़बड़ाहट में
छिनी जा रही होती है उम्र।
नहीं पड़ते हैं निशान
कि लौटानी भी तो होती है
उधार पर लायी प्रेमिका।
उसके प्रेम में उलझी स्त्रियों की
नश्वर देह में भी जीता है
उसका कालजयी कवि मन।
वो कविता पढ़ते हुए
कुछ और होता है
चूमते हुए कुछ और।
***
***
जाते हुए वह नहीं रुकता
शब्दों से, कविता से, या किताबों से ही
वो रुकता है सिर्फ़ देह पर।
इसलिए पिछली बार उसके जाते हुए
मैंने उसे लंघी मार दी
वो देहरी पर ऐसा गिरा कि कपार फूट गया
और कई कविताएँ बह गयीं टप टप उसके माथे से बाहर।
उस बार वह कई दिन रुका रहा था
शाम की सब्ज़ी, सुबह की चाय, और
दुनिया के सबसे अच्छे कवि कौन हैं
पर बक-झक करते हुए।

16 April, 2012

पागल होने का कोई सही मौसम नहीं होता


कुछ भी सच नहीं है 
जब तक कि तुमने नहीं देखी हैं मेरी आँखें 

तुम प्यार से भरे हो
इसलिए मृत्युगीत में सुनते हो उम्मीद 

मुझे नफरत हो गयी है
सिर्फ त्योहारों पर घर आने वाली खुशियों से 

घर की देहरी पर पहरा देता है नज़र्बट्टू 
इसलिए उदासियाँ नहीं जा पाती हैं मेरे दिल से दूर 

बाँध की दीवारों पर लगे हुए हैं टाइम बम
तुमसे बात करती हूँ तो यादों के सब गाँव डूब जाते हैं 

वसंत के विथड्रावल  सिम्पटम्स जीने नहीं देते हैं 
गुलमोहर और अमलतास को कागज़ में रोल कर सुलगा दो 

पागल होने का कोई सही मौसम नहीं होता 
इस जून मॉनसून ब्रेक  होने के पहले चली आऊं तुम्हारे शहर?

इस बार मैं रीत गयी हूँ पूरी की पूरी
इश्क फिर भी सामने बैठा है जिद्दी बच्चे की तरह हथेली खोले हुए 

खुदा के रजिस्टर में नाम रैंडम अलोट हुए थे 
किसी की गलती नहीं थी कि हमें प्यार हुआ एक दूसरे से ही 

मुझसे मत कहो कि मैं कितनी अच्छी हूँ
मुझे बाँहों में भर कर चूमते रहो मेरे मर जाने तक

31 March, 2012

नदी में लहरों के आँसू किसे दिखते हैं

कभी नदी से उसके ज़ख्म पूछना
दिखाएगी वो तुम्हें अपने पाँव
कि जिनमें पड़ी हुयी हैं दरारें
सदियों घिसती रही है वो एड़ियाँ
किनारे के चिकने पत्थरों पर

मगर हर बार ऐसा होता है
कि नदी अपनी लहरदार स्कर्ट थोड़ी उठा कर
दौड़ना चाहती है ऊपर पहाड़ों की ओर
तो चुभ जाते हैं पाँवों में
नए, नुकीले पत्थर
कि पहाड़ों का सीना कसकता रहता है
नदी वापस नहीं लौटती 

और दुनियादारी भी कहती है मेरे दोस्त
बेटियाँ विदाई के बाद कभी लौट कर
बाप के सीने से नहीं लगतीं

पहाड़ों का सीना कसकता है
लहरदार फ्राक पहनने वाली छोटी सी बरसाती नदी
बाँधने लगती है नौ गज़ की साड़ी पूरे साल

उतरती नदी कभी लौट कर नहीं आती
मैं कह नहीं पाती इतनी छोटी सी बात
'आई मिस यू पापा'
मगर देर रात
नींद से उठ कर लिखती हूँ
एक अनगढ़ कविता
जानती हूँ अपने मन में कहीं
पहाड़ों का सीना कसकता होगा 

परायीं ज़मीनों को सींचने के लिए
बहती जाती हैं दूर दूर
मगर बेटियाँ और नदियाँ
कभी दिल से जुदा नहीं होतीं... 

17 January, 2012

मैं तुमसे नफरत करती हूँ...ओ कवि!

वे दिन बहुत खूबसूरत थे
जो कि बेक़रार थे 
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत 
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को 
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का

खटकता था तुम्हारा नाम 
किसी और के होठों पर
जैसे कोई भद्दी गाली 
मन को बेध जाती थी 
सच में तुम्हारा प्यार बहुत बेरहम था
कि उसने मेरे कई टुकड़े किये

तुम्हारे नाम की कांटेदार बाड़
दिल को ठीक से धड़कने नहीं देती थी
सीने के ठीक बीचो बीच चुभती थी
हर धड़कन


कातिल अगर रहमदिल हो
तो तकलीफ बारहा बढ़ जाती है
या कि कातिल अगर नया हो तो भी

तुम मुझे रेत कर मारते थे
फिर तुम्हें दया आ जाती थी 
तुम मुझे मरता हुआ छोड़ जाते थे
सांस लेने के लिए
फिर तुम्हें मेरे दर्द पर दया आ जाती थी
और फिर से चाकू मेरी गर्दन पर चलने लगता था 
इस तरह कितने ही किस्तों में तुमने मेरी जान ली 

इश्क मेरे जिस्म पर त्वचा की तरह था
सुरक्षा परत...तुम्हारी बांहों में होने के छल जैसा
इश्क का जाना
जैसे जीते जी खाल उतार ले गयी हो
वो आवाज़...मेरी चीखें...खून...मैं 
सब अलग अलग...टुकड़ों में 
जैसे कि तुम तितलियाँ रखते थे किताबों में
जिन्दा तितलियाँ...
बचपन की क्रूरता की निशानी 
वैसे ही तुम रखोगे मुझे
अपनी हथेलियों में बंद करके
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
और तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो 
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो

और फिर मेरी आत्मा से प्यार करने के दंभ में
गर्वित और उदास जीवन जीना चाहते हो. 

मैं तुमसे नफरत करती हूँ ओ कवि!

07 January, 2012

धानी, तुम्हारे वादों सा कच्चा

यादों का संदूक खोल
सबसे ऊपर मिलेगा
करीने से तह लगाया हुआ
गहरे लाल रंग का
लव यू

उसके ठीक नीचे
हलके गुलाबी रंग में बुना
मिस यू
और फिर थोड़े गहरे गुलाबी रंग में
मिस यू वेरी मच

बायीं तरफ रखे हैं
उसके ख़त जो उसने लिखे नहीं
पीले पड़ते हुए, सालों से
दायीं तरफ रखे हैं
मेरे ख़त जो मैंने गिराए नहीं
फूलों से महकते हुए, सालों से

सफ़ेद, कि जैसे बादल के फाहे
निर्मल सा स्नेह भी रखा है
हरा, सावनी नेहभीगा
लड़कपन के झूले सा बेतरतीब
वासंती, तुम्हारे इश्क के पागलपन सा
रेशमी, काँधे से पल पल सरकता

जामुनी, हमारी तकरारों सा
फिरोजी, तुम्हारी मनुहारों सा
धूसर, हमारे घर सा पक्का
धानी, तुम्हारे वादों सा कच्चा
अमिया सा खट्टा रंग कोई
छुए मन अनगढ़ राग कोई

इतने सारे सारे रंग
तुम्हारे इश्क से मेरे हो गए
इन सब पर लगा रखा है
सुरमई एक नज़रबट्टू सा
अबकी जो आओगे
मेरी आँखों से काजल मत चुराना
रोती आँखें बिना काजल के बड़ी सूनी लगती हैं 

14 December, 2011

जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...

ये वही दिन थे
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें


ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी

ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था 
दिल की दीवारों से 
रिस रिस के आते दर्द को 
रोकने को बाँध नहीं बना था 

वही दिन 
कि जब फोन काट दिया जाता था
आखिरी रिंग के पहले वाली रिंग पर
कि बर्दाश्त नहीं होता
कि उसने पहली रिंग में फोन नहीं उठाया 

कि दिन भर 
प्रत्यंचा सी खिंची
लड़की टूटने लगती थी
थरथराने लगती थी 
घबराने लगती थी 

ये वही दिन थे
जब कि बहुत बहुत बहुत 
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद 
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे

ये वही दिन थे
मैं चाहती थी
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता

29 November, 2011

जिंदगी, रिवाईंड.

आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ  महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.

ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.

मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.

जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.

ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.

यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.

एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?

मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.

आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड. 

06 April, 2011

म्युचुअल/Mutual

तुमने कहा
मुझे बस एक लम्हा चाहिए, पूरी शिद्दत से जिया एक लम्हा
मैंने कहा
मुझे तुम्हारी पूरी जिंदगी चाहिए, सारी जिंदगी 

तुमने कहा
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
मैंने कहा
तुम्हारे-मेरे रिश्ते का नाम ला कर दो 

तुमने कहा
तुम्हारे पंखों में उड़ान है, तुम पूरा आसमान नाप सकती हो, मैं तुम्हें कभी बाँध के नहीं रखूँगा
मैंने कहा
ये एक कमरा है, इसमें मैं हमारा घर बसाउंगी, इसी में रहो, समाज यही कहता है...मुझे बाहर नहीं जाना  

तुमने कहा
मेरे साथ उदास हो, मैं तुम्हें परेशान नहीं देख सकता, तुम चली जाओ, खुश रहना 
मैंने कहा 
वादा करो मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगे, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती 

तुमने कहा
मेहंदी लगवा लो, वैसे भी हमारे तरफ मेहंदी में लिखे नाम का ही मोल होता है
मैंने कहा
मुझे टैटू बनवाना है, वो भी तुम्हारे नाम का ही 

तुमने कहा
मुझे भूल जाना अब
मैंने नहीं कहा
कि मुझे भूलना नहीं आता 

तुम्हें लौटना नहीं आता
और मुझे इंतज़ार नहीं भूलता...

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