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14 October, 2018

कविता पढ़ते हुए
उसके काग़ज़ी होंठ
नहीं मैच करते उसकी आवाज़ से।
थिर हो पढ़ता है कविता 
आवाज़ रह जाती है
सुनने वाले की चुप्पी में आजीवन। 
जी उठते हैं उसके होंठ
चूमने की हड़बड़ाहट में
छिनी जा रही होती है उम्र।
नहीं पड़ते हैं निशान
कि लौटानी भी तो होती है
उधार पर लायी प्रेमिका।
उसके प्रेम में उलझी स्त्रियों की
नश्वर देह में भी जीता है
उसका कालजयी कवि मन।
वो कविता पढ़ते हुए
कुछ और होता है
चूमते हुए कुछ और।
***
***
जाते हुए वह नहीं रुकता
शब्दों से, कविता से, या किताबों से ही
वो रुकता है सिर्फ़ देह पर।
इसलिए पिछली बार उसके जाते हुए
मैंने उसे लंघी मार दी
वो देहरी पर ऐसा गिरा कि कपार फूट गया
और कई कविताएँ बह गयीं टप टप उसके माथे से बाहर।
उस बार वह कई दिन रुका रहा था
शाम की सब्ज़ी, सुबह की चाय, और
दुनिया के सबसे अच्छे कवि कौन हैं
पर बक-झक करते हुए।

24 January, 2016

कविताओं का जीवन में लौट आना

मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में. 

मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायें पढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है. 

सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था. 

कमलेश की किताब 'बसाव' को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.

ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं. 

मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां. 

मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में. 

उजाड़ 
माँ ने कहा था:
अमुक 'राम' ने डीह का मंदिर बनवाया था -
शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी 
पुजारी नियुक्त किया था. 

अब सब परदेस चले गए.
जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे 
शिवालय खण्डहर हो गया.

माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में 
जल चढ़ाती रहती थी 
फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,
मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे 
राह में लगने लगे. 

माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है 
मंदिर बनवाना,
क्या मेरे बेटों के कर्मों में है 
मंदिर बनवाना!

पौत्र अभी गर्भ में नहीं आये
कौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.

माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,
माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैं
अनुत्तरित,
प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.

डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा है
मंदिर में जल चढ़ाने को 
कोई नहीं बचा. 

- कमलेश

02 February, 2015

जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती...



सुनो कवि,

अकेले में तुम्हें समझाते समझाते थक गयी हूँ इसलिए ये खुला ख़त लिख रही हूँ तुम्हें. तुम ऐसे थेत्थर हो कि तुमपर न लाड़ का असर होता है न गाली का. कितना उपाय किये. हर तरह से समझाए. पूरा पूरा शाम तुम्हारे ही लिखे से गुजरते रहे...तुम्हें ही दिखाने के लिए कि देखो...तुम ही देखो. एक ज़माने में तुम ही ऐसा लिखा करते थे. ये तुम्हारे ही शब्द हैं. लिखने वाले लोग कभी किसी का लिखा पढ़ कर 'बहुत अच्छा' जैसा बेसिरपैर का जुमला नहीं फेंकते. अच्छा को डिफाइन करना हमारा फ़र्ज़ है कि हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा. 

तो सुनो. मैं तुमसे लिखने क्यूँ कहती हूँ. किसी छोटे शहर से आकर बड़े शहर में बसे हम विस्थापितों का समय है ये. हमारे समय की कहानियां या तो चकाचौंध में दबा दी जा रही हैं या मन के राग, द्वेष और कुंठा से निकली गालियों में छुपा दी जा रही हैं. हमारे समयकाल का दस्तावेज लिखने के लिए दो चीज़ें बेहद आवश्यक हैं...एक तो वो नज़र कि बारीकी से चीज़ों को देख सके...बिना उद्वेलित हुए उनकी जांच पड़ताल कर सके. गहराई में चीज़ों को समझे न कि सिर्फ ऊपर ऊपर की कहानी बयान करे. दूसरी जो चीज़ जरूरी है वो है इस मुश्किल समय को लिखने का हुनर. तलवार की धार पर चलना ऐसे कि चीज़ों की तस्वीर भी रहे मगर ऐसे ऐंगिल से चीज़ें दिखें भी और रोचक भी हों. कि समझो डौक्यूमेंटरी बनानी है. सीधे सीधे रिपोर्ट नहीं लिखना है दोस्त, फीचर लिखना है. तुम तो जानते हो रिपोर्ट अख़बार में छपती है और अगले दिन फ़ेंक दी जाती है. फीचर की उम्र लम्बी होती है. अभी तुमपर ज्यादा दबाव डालूंगी तो तुम मेरी चिट्ठी भी नहीं पढ़ोगे इसलिए धीमे धीमे कहेंगे कि फिर लिखना शुरू करो. रेगुलर लिखना शुरू करो. इस बात को समझो कि निरंतर बेहतरीन लिखना जरूरी नहीं है. ख़राब लिखने से उपजने वाले गिल्ट से खुद को मुक्त करो. तुम पाओगे कि जब तुममें अपराधबोध नहीं होता या यूं कहूं कि अपराधबोध का डर नहीं होता तो तुम खुद से बेहतरीन लिखते हो. 

राइटर्स ब्लॉक से हर लेखक का सामना होता है. तुम भी गुज़र रहे हो इसको मैं समझ सकती हूँ. मगर इस ठहरे हुए समय के दरमयान भी लिखने की जरूरत है. मान लो ओरिजिनल नहीं लिख पा रहे तो लिखने की आदत बरक़रार रखने के लिए समीक्षाएं लिखो. तुम आजकल क्या पढ़ रहे हो...कौन सी फिल्में देख रहे हो...कैसा संगीत सुन रहे हो. घर से दफ्तर आते जाते कितनी चीज़ों को सहेज देना चाहते होगे. लिखने को उस तरह से ट्रीट कर लो. ये क्या जिद है कि ख़राब लिखने में डर लगता है. ख़राब कुछ नहीं होता. जो तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा शायद उसमें कोई और अपना अक्स देख पाए. देखो तुमसे और मुझसे बेहतर कौन जानेगा कि घटिया से घटिया चीज़ कुछ न कुछ अच्छा दे जाती है. वाहियात पौर्न फिल्म का कोई एक सीन होता है जिसमें ऐक्ट्रेस अपने अभिनय से अलग हट कर महज एक स्त्री रह जाती है...मर्द की वर्नारेबिलिटी का एक क्षण कैमरा पकड़ लेता है. पल्प फिक्शन का कोई किरदार ऐसी गूढ़ बात कह जाता है कि जिंदगी के सारे फलसफे झूठे लगते हैं.

देखो न, सही और गलत, सच और झूठ, अच्छा और बुरा के खांचे में चीज़ों को फिट करने वाले हम और तुम कौन लोग होते हैं. बताओ भला, हम किस खांचे में आते हैं? मैं और तुम किस खांचे में आते हैं? मैं क्या लगती हूँ तुम्हारी? पाठक, क्रिटिक, प्रेमिका, बहन, माँ, दोस्त...कोई पुरानी रिश्तेदार? किस किस सरहद में बाँधोगे?  ये भी तो नहीं कह सकते कि गलत है...इतना बात करना गलत है. तुम जाने कितनी सदियों से मेरी इस प्यास के लिए सोख्ता बने हुए हो. दुनिया में अगर कोई एक शख्स मुझे पूरी तरह जानता है तो वो तुम हो...शायद कई बार मुझसे भी बेहतर. मुझे कभी कभी लगता है हम पैरलल मिरर्स हैं...एक दूसरे के सामने रखे हुए आईने. एक दूसरे के एक्स्टेंशन. हममें जो उभरता है कहीं बहुत दूर दूर तक एक दूसरे में प्रतिबिंबित होता है. अनंत तक. हमारी कहानियों जैसा. क्लास में एक्जाम देते वक़्त होता था न...पेन में इंक ख़त्म हो गयी तो साथी से माँग लिया. वैसे ही कितनी बार मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता तो तुमसे माँग लेती हूँ...बिम्ब...डायलॉग्स...किरदार...तुम्हारी हंसी...तुम्हारी गालियाँ. कितना कुछ तो. तुम मांगने में इतना हिचकते क्यूँ हो. इतनी कृपण नहीं हूँ मैं. 

तुम्हारे शब्दों में मैंने कई बार खुद को पाया है...कई बार मरते मरते जीने का सबब तलाशा है...कई बार मुस्कुराहटें. मैं एकलौती नहीं हूँ. तुम जो लिखते हो उसमें कितनी औरतें अपने मन का वो विषाद...वो सुख...वो मरहम पाती हैं जो सिर्फ इस अहसास से आता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं. कहीं एक कवि है जो हमारे मन की ठीक ठीक बात जानता है. ये औरत तुम्हारी माँ हो सकती है, तुम्हारी बहन हो सकती है...तुम्हारी बीवी हो सकती है. इस तरह उनके मन की थाह पा लेना आसान नहीं है दोस्त. ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुम पर सरस्वती की कृपा है. इसे वरदान कह लो या अभिशाप मगर ये तुम्हारे साथ जिंदगी भर रहेगा. मुझे समझ नहीं आता कि तुम लिख क्यूँ नहीं रहे हो...क्या तुम्हें औरतों की कमी हो गयी है? क्या माँ से बतियाना बंद कर दिए हो...क्या बहन अपने घर बार में बहुत व्यस्त हो गयी है...क्या प्रेमिका की शादी हो गयी है(फाइनली?)...या फिर तुम्हारी दोस्तों ने भी थक कर तुमसे अपने किस्से कहने बंद कर दिए हैं? अब तुम लिखने के बजाये घुन्ना जैसा ये सब लेकर अन्दर अन्दर घुलोगे तो कौन सुनाएगा तुमको अपनी कहानी! 

देखो. अकेले कमरे में बैठ कर रोना धोना बहुत हुआ. बहुत दारू पिए. बहुत सुट्टा मारे. बहुत ताड़ लिए पड़ोस का लड़की. अब जिंदगी का कोई ठिकाना लगाओ कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है तुम्हारे काँधे पर. अगर तुम इस जिम्मेदारी से भागे तो कल खुद से आँख मिला नहीं पाओगे. उस दिन भी हम तुमसे सवाल करेंगे कि हम जब कह रहे थे तो सुने क्यों नहीं. हालाँकि हम जानते हैं कि जिद और अक्खड़पने में तुम हम से कहीं आगे हो लेकिन फिर भी...सोच के देखो क्या हम गलत कह रहे हैं? खुद को बर्बाद करके किसी को क्या मिला है. जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती. जान देने के लिए भी कलम में तेज़ धार चाहिए. कि कट एकदम नीट लगे. मरने में भी खूबसूरती होनी चाहिए.

और सुनो. हम तुमसे बहुत बहुत प्यार करते हैं. जितना किसी और से किये हैं उससे कहीं ज्यादा. मगर इस सब में तुम्हारे लिखने से बहुत ज्यादा प्यार रहा है. तुम जब लिखते हो न तो उस आईने में हम संवरने लगते हैं. ले दे के हर व्यक्ति स्वार्थी होता है. शायद तुम्हारे लिखे में अपने होने को तलाशने के लिए ही तुमसे कह रहे हैं. मगर जरा हमारे कहने का मान रखो. इतना हक बनता है मेरा तुम पर. कोई पसंद नहीं आया तुम्हारे बाद. तुम जैसा. तुमसे बेहतर. कोई नहीं. तुम हो. तुम रहोगे. घड़ी घड़ी हमको परखना बंद करो. एक दिन उकता के चले जायेंगे तो बिसूरोगे कि इतनी शिद्दत से किसी का अक्षर अक्षर इंतज़ार कोई नहीं करता. 

हम आज के बाद तुमको लिखने के लिए कभी कुछ नहीं कहेंगे. 

तुम्हारी, 
(नाम भी लिखें अब? कि शब्दों से समझ जाओगे कि और कौन हो सकती है. )

16 August, 2014

समंदर के सीने में एक रेगिस्तान रहता था

तुम्हें लगता है न कि समंदर का जी नहीं होता...कि उसके दिल नहीं होता...धड़कन नहीं होती...सांसें नहीं होतीं...कि समंदर सदियों से यूँ ही बेजान लहर लहर किनारे पर सर पटक रहा है...

कभी कभी समंदर की हूक किसी गीत में घुल जाती है...उसके सीने में उगते विशाल रेगिस्तान का गीत हो जाता है कोई संगीत का टुकडा...उसे सुनते हुए बदन का रेशा रेशा धूल की तरह उड़ता जाता है...बिखरता जाता है...नमक पानी की तलाश में बाँहें खोलता है कि कभी कभी रेत को भी अपने मिट्टी होने का गुमान हो जाता है...तब उसे लगता है कि खारे पानी से कोई गूंथ दे जिस्म के सारे पोरों को और गीली मिट्टी से कोई मूरत बनाये...ऐसी मूरत जिसकी आँखें हमेशा अब-डब रहे.

समंदर चीखता है उसका नाम तो दूर चाँद पर सोयी हुयी लड़की को आते हैं बुरे सपने...ज्वार भाटा उसकी नींदों में रिसने लगता है...डूबती हुई लड़की उबरने की कोशिश करती है तो उसके हाथों में आ जाती है किसी दूर की गैलेक्सी के कॉमेट की भागती रौशनी...वो उभरने की कोशिश करती है मगर ख्वाबों की ज़मीं दलदली है, उसे तेजी से गहरे खींचती है.

उसके पांवों में उलझ जाती हैं सदियों पुरानी लहरें...हर लहर में लिखा होता है उसके रकीबों का नाम...समंदर की अनगिन प्रेमिकाओं ने बोतल में भर के फेंके थे ख़त ऊंचे पानियों में...रेतीले किनारे पर बिखरे हुए टूटे हुए कांच के टुकड़े भी. लड़की के पैरों से रिसता है खून...गहरे लाल रंग से शाम का सूरज खींचता है उर्जा...ओढ़ लेता है उसके बदन का एक हिस्सा...

लड़की मगर ले नहीं सकती है समंदर का नाम कि पानी के अन्दर गहरे उसके पास बची है सिर्फ एक ही साँस...पूरी जिंदगी गुज़रती है आँखों के सामने से. दूर चाँद पर घुलती जाती है वो नमक पानी में रेशा रेशा...धरती पर समंदर का पानी जहरीला होता जाता है....जैसे जैसे उसकी सांस खींचता है समंदर वैसे वैसे उसको आने लगती है हिचकियाँ...वैसे वैसे थकने लगता है समंदर...लहरें धीमी होती जाती है...कई बार तो किनारे तक जाती ही नहीं, समंदर के सीने में ही ज़ज्ब होने लगती हैं. लड़की का श्राप लगा है समंदर को. ठहर जाने का.

एक रोज़ लड़की की आखिरी सांस अंतरिक्ष में बिखर गयी...उस रोज़ समंदर ऐसा बिखरा कि बिलकुल ही ठहर गया. सारी की सारी लहरें चुप हो गयीं. धरती पर के सारे शहर उल्काओं की पीठ चढ़ कर दूर मंगल गृह पर पलायन कर गए. समंदर की ठहरी हुयी उदासी पूरी धरती को जमाती जा रही थी. समंदर बिलकुल बंद पड़ गया था. सूरज की रौशनी वापस कर देता. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि लहरों को गुदगुदी करे कि समंदर को फिर से कुछ महसूस होना शुरू करे. समंदर धीरे धीरे बहुत खूंखार होता जा रहा था. वो जितना ही रोता, उसके पानी में नमक उतना ही बढ़ता...इस सान्द्र नमक से सारी मछलियों को भी तकलीफ होने लगी...उन्होंने भी आसमान में उड़ना सीख लिया...एक रोज़ उधर से गुजरती एक उल्का से उन्होंने भी लिफ्ट मांगी और दूर ठंढे गृह युरेनस पे जाने की राह निर्धारित कर ली. समंदर ने उनको रोका नहीं.

समंदर के ह्रदय में एक विशाल तूफ़ान उगने लगा...अब कोई था भी नहीं जिससे बात की जा सके...अपनी चुप्पी, अपने ठहराव से समंदर में ठंढापन आने लगा था. सूरज की किरनें आतीं तो थीं मगर समंदर उन्हें बेरंग लौटा देता था. कहीं कोई रौशनी नहीं. कोई आहट नहीं. लड़की की यादों में घुलता. मिटता. समंदर अब सिर्फ एक गहरा ताबूत हो गया था. जिसमें से किसी जीवन की आशंका बेमानी थी. एक रोज़ सूरज की किरणों ने भी अपना रास्ता बदल लिया. गहरे सियाह समंदर ने विदा कहने को अपने अन्दर का सारा प्रेम समेटा...पृथ्वी से उसकी बूँद बूँद उड़ी और सारे ग्रहों पर जरा जरा मीठे पानी की बारिश हुयी...अनगिन ग्रहों पर जीवन का अंकुर फूटा...

जहाँ खुदा का दरबार लगा था वहाँ अपराधी समंदर सर झुकाए खड़ा था...उसे प्रेम करने के जुर्म में सारे ग्रहों से निष्काषित कर दिया...मगर उसकी निर्दोष आँखें देख कर लड़की का दिल पिघल गया था. उसने दुपट्टे की एक नन्ही गाँठ खोली और समंदर की रूह को आँख की एक गीली कोर में सलामत रख लिया.

10 October, 2012

चाबी वाली लड़की

खुदा ने इन्द्रधनुष में डुबायी अपनी उँगलियाँ और उसके गालों पर एक छोटा सा गड्ढा बना दिया... और वो मुस्कुराने के पहले रोने के लिए अभिशप्त हो गयी. 
किसी गाँव में चूल्हे से उठती होगी लकड़ियों की गंध. कहीं कोई लड़की पहली बार बैठी होगी बैलगाड़ी पर. किसी दादी ने बच्चे की करधनी में लगाए होंगे चांदी के चार घुँघरू...किसी लड़की ने पहली बार कलाई में पहनी होंगी हरे कांच की चूड़ियाँ. कवि ने पेन्सिल को दबाया होगा दांतों में. टीचर ने चाक फ़ेंक कर मारा होगा क्लास की सबसे बातूनी लड़की को. 

कहीं कोई विवाहिता कड़ाही में छोड़ती है बैगन के बचके. कहीं एक बहन बचाती है अपने भाई को माँ की डांट से. कोई उड़ाता है धूप में सूखते गेहूं के ऊपर से गौरैय्या. कहीं माँ रोटी में गुड़ लपेट कर देती है तुतरू खाने को. कुएं में तैरना सीखता है एक चाँद. पीपल के पेड़ पर घर बनाता है एक कोमल दिल वाला भूत. शिवाले में प्रसाद में मिलते हैं पांच बताशे. हनुमान जी की ध्वजा बताती है बारिश का पता. चन्दन घिसने का पत्थर कुटाई वाली की छैनी से कुटाता है. रात को कोई बजाता है मंदिर की सबसे ऊंची वाली घंटी. 

दुनिया का बहुत सा कारोबार बेखटके चलता रहता है. एक लड़की बैठी होती है गंगा किनारे...नदी उफान पर है और इंच इंच करके खतरे के निशान को छूने की जिद में लड़की से कहीं और चले जाने की मिन्नत करती है. 

विजयादशमी के लिए रावण का पुतला तैयार करने वाले कारगर की बेटी बैठी है पटाखों के पिरामिड पर. माचिस के डब्बों से बनाती है मीनारें. 

कहीं एक परफेक्ट दुनिया मौजूद है...शायद आईने के उस पार.

पोसम्पा भाई पोसम्पा...लाल किले में कितने सिपाही? कतार लगा कर सारे बच्चे जल्दी जल्दी भागते हैं. आखिर गीत ख़त्म होने तक एक बच्चा दो जोड़ी हाथों में कैद हो जाता है और किले का एक पहरेदार बदल दिया जाता है. 

कोई बताता नहीं कि खट्टी इमली क्यों नहीं खानी चाहिए या फिर जो चटख गुलाबी रंग का लस्सा लपेटे आदमी आता है उसकी मिठाई खराब क्यूँ है. सवालों के चैप्टर के अंत में जवाब लिखने के लिए जगह नहीं है. एक लड़की टीचर से पूछती है कि दुनिया में सारे लोग क्या सिर्फ नीली और लाल इंक से लिखते हैं. लड़की को हरा रंग पसंद है. टिकोले की कच्ची फांक सा हरा।
धान की रोपनी में लगे किसान और जौन मजदूर एक लय में काम करते हैं. घर आया मजदूर मुझसे मुट्ठी भर गमकौउआ चूड़ा मांगता है. मैं फ्राक के खजाने से उसे एक मुट्ठी चूड़ा देती हूँ. उसकी फैली हथेली में मेरी छोटी सी मुट्ठी से गिरा चूड़ा बुहत कम लगता है लेकिन वो सौंफ की तरह उसे फांक कर एक लोटा पानी गटक जाता है. 
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एक दुनिया है जिसमें लड़की खो जाती है जंगल में तो उस जंगल में खिल आते हैं असंख्य अमलतास...जंगल से बाहर आती है तो शुरू होते हैं सूरजमुखी के खेत...सूरजमुखी के खेतों से जाती है एक अनंत सड़क जिसके दोनों ओर हैं सफ़ेद यूकेलिप्टस...उस रास्ते में आता है सतरंगी तितलियों का घोसला...वहां के झींगुरों ने बनाए हैं नए गीत...वहां बारिश से आती है दालचीनी की हलकी खुशबू...दुआओं के ख़त पर लगती है रिसीव्ड की मुहर...एक तीखे मोड़ पर है एक कलमकार की दूकान जो बेचता है गुलाबी रंग की स्याही...उसी दुनिया में होती है छह महीने की रात...मगर वहीं दीखता है औरोरा बोरेआलिस...उसी दुनिया में रुक गयी है मेरे हाथ की घड़ी. उस दुनिया में कोई नहीं लिखता है कहानियां कि कहानियों से चले आते हैं खतरनाक किस्म के लोग और पैन्डोरा के बक्से की तरह वापस जाने को तैयार नहीं होते.

दुनिया में ताली के लिए ताला होता है...लड़की की उँगलियों में उग आते हैं खांचे और उसकी आँखों में उग आता है ताला..लड़की अपनी हथेलियाँ रखती है आँखों पर और अपनी पलकों को लौक कर देती है. 

17 January, 2012

मैं तुमसे नफरत करती हूँ...ओ कवि!

वे दिन बहुत खूबसूरत थे
जो कि बेक़रार थे 
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत 
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को 
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का

खटकता था तुम्हारा नाम 
किसी और के होठों पर
जैसे कोई भद्दी गाली 
मन को बेध जाती थी 
सच में तुम्हारा प्यार बहुत बेरहम था
कि उसने मेरे कई टुकड़े किये

तुम्हारे नाम की कांटेदार बाड़
दिल को ठीक से धड़कने नहीं देती थी
सीने के ठीक बीचो बीच चुभती थी
हर धड़कन


कातिल अगर रहमदिल हो
तो तकलीफ बारहा बढ़ जाती है
या कि कातिल अगर नया हो तो भी

तुम मुझे रेत कर मारते थे
फिर तुम्हें दया आ जाती थी 
तुम मुझे मरता हुआ छोड़ जाते थे
सांस लेने के लिए
फिर तुम्हें मेरे दर्द पर दया आ जाती थी
और फिर से चाकू मेरी गर्दन पर चलने लगता था 
इस तरह कितने ही किस्तों में तुमने मेरी जान ली 

इश्क मेरे जिस्म पर त्वचा की तरह था
सुरक्षा परत...तुम्हारी बांहों में होने के छल जैसा
इश्क का जाना
जैसे जीते जी खाल उतार ले गयी हो
वो आवाज़...मेरी चीखें...खून...मैं 
सब अलग अलग...टुकड़ों में 
जैसे कि तुम तितलियाँ रखते थे किताबों में
जिन्दा तितलियाँ...
बचपन की क्रूरता की निशानी 
वैसे ही तुम रखोगे मुझे
अपनी हथेलियों में बंद करके
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
और तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो 
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो

और फिर मेरी आत्मा से प्यार करने के दंभ में
गर्वित और उदास जीवन जीना चाहते हो. 

मैं तुमसे नफरत करती हूँ ओ कवि!

13 January, 2012

उसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...

वो चाँद की एक ऐसी कला थी जिसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...अपनी बाकी कलाओं से भी...चांदनी से भी...लड़की नहीं थी वो...सवा सोलह की उम्र थी उसकी...सवा सोलह चाँद रातों जितनी.

उसे छुए बिना भी मालूम था  कि वो चन्दन के अबटन से नहाती होगी...चाँद पार की झीलों में...जबकि उसकी माँ उसकी आँखों में बिना काजल पारे उसे कहीं जाने नहीं देती होगी...माथे पर चाँद का ही नजरबट्टू लगाती थी...श्यामपक्ष के चाँद का. एक ही बार उसे करीब से देखा है...भोर के पहले पहर जंगल की किनारी पर चंपा के बाग़ में...मटमैले चंपा के फूल जमीन से उठा कर अपने आँचल में भरते हुए...चम्पई रंग की ही साड़ी में...चेहरे पर चाँद के परावर्तित प्रकाश से चमकती आँखें...सात पर्दों में छुपी...सिर्फ पलकों की पहरेदारी नहीं थी...उसकी आत्मा में झाँकने के लिए हर परदे के रक्षक से मिन्नतें करनी होंगी. 

कवि क्या किसी ने भी उसकी आवाज़ कभी नहीं सुनी थी...बातों का जवाब वो पलकें झपका के ही देती थी...हाँ भ्रम जरूर होता था...पूर्णिमा की उजास भरी रातों में जब चांदनी उतरती थी तो उसके एक पैर की पायल का घुँघरू मौन रहने की आज्ञा की अवहेलना कर देता था...कवि को लगता था की बेटी के लिए आत्मजा कितना सही शब्द है, वो चाँद की आत्मा से ही जन्मी थी. कई और भी बार कवि को उसकी आवाज़ के भ्रम ने मृग मरीचिका सा ही नींद की तलाश में रातों को घर से बाहर भेजा है. जेठ की दुपहर की ठहरी बेला में उस छोटे शहर के छोटे से कालीबाड़ी में मंदिर की सबसे छोटी घंटी...टुन...से बोलती है तो कवि के शब्द खो जाते हैं, उसे लगता है कि चाँद की बेटी ने कवि का नाम लिया है. 

मंदिर के गर्भगृह में जलते अखंड दिए की लौ के जैसा ठहराव था उसमें और वैसी ही शांत, निर्मल ज्योति...उस लौ को छू के पूजा के पूर्ण होने का भाव...शुद्ध हो जाने जैसा...ऐसी अग्नि जिसमें सब विषाद जल जाते हों. कवि ने एक बार उसे सूर्य को अर्घ्य देते हुए देखा था...उसकी पूर्णतयः अनावृत्त पीठ ने भी कवि में कोई कामुक उद्वेलन उत्पन्न नहीं किया...वो उसे निर्निमेष देखता रहा सिर्फ अपने होने को क्षण क्षण पीते हुए. 

पारिजात के फूलों सी मद्धम भीनी गंध थी उसकी...मगर उसमें से खुशबू ऐसी उगती थी कि जिस पगडण्डी से वो गुजरी होती थी उसके पांवों की धूल में पारिजात के नन्हे पौधे उग आते थे...श्वेत फूल फिर दस दिशाओं को चम्पई मलमल में पलाश के फूलों से रंग कर संदेशा भेज देते थे कि कुछ दिन चाँद की बेटी उनके प्रदेश में रहेगी.








कवि ने एक बार कुछ पारिजात के फूल तोड़ लिए थे...एक फूल को सियाही में डुबा कर चाँद की बेटी का नाम लिखा था काष्ठ के उस टुकड़े पर जिसपर वो रचनात्मक कार्य करता था...उसका नाम अंतस पर तब से चिरकाल के लिए अंकित हो गया है 'आहना'. 

19 November, 2011

जिंदगी, आई लव यू!

बंगलौर में सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं...यहाँ के साढ़े तीन साल में ये पहले बार है जब मौसम वाकई ठंढा सा हो रहा है. अख़बारों में भी आया है कि इस बार बंगलोर हर बार से थोड़ा ज्यादा ठंढा है. प्यार के बारे में मेरे अनगिनत थ्योरम में एक ये भी है कि 'Winter is the season to fall in love'. ठंढ का मौसम प्यार करने के लिए ही होता है.

सोचिये अच्छा सा कोहरा पड़ रहा हो, आप एकदम अच्छे से जैकेट, टोपी, दस्ताने, जींस और अच्छे वाले जूते पहन कर सड़क पर चल रहे हों...कोई गाना बज रहा हो बैकग्राउंड में...मन में या फिर हेडफोन्स में...कोई भी...जैसे कि मान लीजिये आजकल हमको ताज़ा ताज़ा कर्ट कोबेन से प्यार हुआ है तो दिन भर निर्वाणा के गाने सुनती रहती हूँ. तो मान लीजिये कि दिल्ली(हाय दिलरुबा दिल्ली, ठंढी आह भर लूँ!) की सड़कें हैं और गीत के बोल कुछ ऐसे हैं 'Come as you are' तो आपका दिल नहीं करेगा कि आपके हाथों को दस्तानों में नहीं किसी नर्म नाज़ुक लड़की के हाथों में होना चाहिए...फिर गर्म कॉफ़ी के कप के इर्द गिर्द उँगलियाँ लपेट कर आप किन्ही खाली रास्तों पर टहलते रहते...बोलते तो मुंह से भाप निकलती और ठंढ की गहरी रातों की ख़ामोशी में उसकी हंसी कुछ ऐसे खनकती कि आपको मालूम भी नहीं चलता कि आपको उससे प्यार हो रहा है...और जब तक आपको ये डर लगता कि शायद आपको उससे प्यार हो जाएगा, आपको आलरेडी प्यार हो चुका होता. फिर कभी उसे ज्यादा ठंढ लगती तो कंधे पर हाथ रखते और उसे थोड़ा अपने करीब खींच लाते...And on one of these days while sauntering on lonesome roads you could whisper 'I love you' in her ear ever so lightly that the poor girl might be totally confused...कि आपने वाकई उसे 'आई लव यू' कहा है or the wind is playing tricks with her mind.

मेरे तरफ कहते थे कि जाड़ों का वक़्त अच्छा खाना खाने का होता है...तो जाड़ों में मस्त पकोड़े खाइए, सड़क किनारे ठेले से मैगी या चाउमीन या फिर वो बांस की टोकरियों में बने मोमो खाइए...गर्म भाप उठती हो तभी फटाफट खा लेना पड़ेगा क्यूंकि ठंढी हो जाने पर इनका मज़ा नहीं आता. आपको कभी न कभी तो आइसक्रीम से प्यार हुआ होगा...न हुआ हो तो अब कर लीजिये कौन सी देर हो गयी है. जाड़ों में आइसक्रीम पिघलती भी देर से है तो लुत्फ़ उठा कर खायी जा सकती है, प्यार अगर ज्यादा उमड़ रहा हो तो बाँट के भी खायी जा सकती है...पर प्लीज किसी लड़की से उसके हिस्से की आइसक्रीम मत मांगिएगा...हम लड़कियां शेयर करने में थोड़ी कंजूस होती हैं. हाँ जिंदगी में कुछ नए रंग ट्राय करने हैं तो बर्फ का गोला खाइए...काला खट्टा गोला. थोड़ा खट्टा, थोड़ा मीठा रस में डूबा हुआ...प्यार की तरह. प्यार उस सफ़ेद बर्फ के चूरे की तरह होता है, उसे थोड़ी थोड़ी देर में जिंदगी के रंग बिरंगे अनुभवों में डुबाना पड़ता है...तब ही साथ रहना जादू सा होता है.

 ओह प्यार! मैं कितना भी लिख लूँ, मेरे पास लिखने को चीज़ें कभी ख़त्म नहीं होतीं...मेरे अन्दर के कवि को हमेशा किसी न किसी से प्यार हुआ रहता है...आप प्यार में होते हो तो खुश होते हो. कभी कर्ट से प्यार हो गया तो दिन भर उसके गाने सुन रही हूँ...उसकी आँखों में देख रही हूँ और बेतरह उदास हो रही हूँ कि वो इस दुनिया में नहीं है वरना एक बेहद खूबसूरत चिट्ठी उसके नाम भी लिखती...डूब के...कभी किसी पेंटर के रंगों पर मर मिटे कि कैनवास में जिंदगी नज़र आने लगी. वैन गोग के बारे में कहते हैं कि वो ऐसे पेंट करते थे जैसी चीज़ें उन्हें दिखती थीं...अपने समय में वो भी गरीब रहे, उदास रहे और जीते जी सफलता नहीं देखी. मॉने की पेंटिंग के धुंधले रंग जाड़ों की सुबहें जैसी लगेंगी. दुनिया में कितना कुछ है प्यार हो जाने को.

मुझे जब भी कुछ नया मिलता है तो एक बार प्यार हो जाता है...कभी कवि से, कभी चित्रकार से, कभी गिटार से...किसी की आँखों से, कभी रूह में घुलती आवाज़ से...फिर ' La vie en rose' या कि दुनिया गुलाबी चश्मे से दिखती है...खूबसूरत, बेइन्तहा. दिल टूटता भी है...सब बिखरने सा बिखर जाता है पर फिर कलम टाँके लगा देती है और मैं फिर प्यार करने, टूटने और फिर प्यार में गिरने को तैयार हो जाती हूँ.

A poet is continually in love.

नवम्बर आखिरी चल रहा है...आज सोच रही हूँ लम्बी ड्राइव पर जाऊं, मैसूर रोड पर वाले कॉफ़ी डे में गरम कॉफ़ी...ब्राउनी विद चोकलेट सौस...रात को डिनर में कुछ अच्छा खाना बनाऊं...और फाइनली रॉकस्टार देख लूँ.

मेरी जिंदगी के खास लोगों के लिए ये फुटनोट...बस मुझे याद रहे इसलिए...प्यारे आकाश को उसके जन्मदिन पर मेरा ढेर सारा आशीर्वाद...और ढेर सी खुशियों की दुआएं...तुम मेरे सबसे सबसे फेवरिट हो.

And a shout out to Anupam Giri...You are superawesome...THANKS A TON Sir!!!

La vie, Je t'aime!

18 May, 2011

तोरा कौन देस रे कवि?

कई दिनों बाद कुछ लिखा था कवि ने, पर जाने क्यूँ उदास था...उसने आखिरी पन्ना पलटा और दवात खींच कर आसमान पर दे मारी...झनाके के साथ रौशनी टूटी और मेरे शहर में अचानक शाम घिर आई...सारी सियाही आसमान पर गिरी हुयी थी. 

आजकल लिखना भूल गयी हूँ, सो रुकी हुयी हूँ...कवि ने एक दिन बहुत जिरह की की क्यों नहीं लिख रही...उसकी जिद पर समझ आया पूरी तरह से की मेरे किरदार कहीं चले गए हैं. पुराने मकान की तरह खाली पड़ी है नयी कॉपी...बस तुम और मैं रह गए हैं. कैसे लिखूं कहानी मैं...कविता भी कहीं दीवारों में ज़ज्ब हो रही है. अबके बरसात सीलन बहुत हुयी न. सो.

बहुत साल पुरानी बात लगती है...मैं एक कवि को जाना करती थी...बहुत साल हो गए, जाने कौन गली, किस शहर है. पता नहीं उसने कभी मुझे ख़त लिखे भी या नहीं. वो मुझे नहीं जानता, या ये जानता है कि मैंने उसके कितने ख़त जाने किस किस पते पर गिरा दिए हैं. उसके पास तो मेरा पता नहीं है...उसे मेरा पता भी है क्या भला? चिठ्ठीरसां- क्या इसका मतलब रस में डूबी हुयी चिठियाँ होती हैं? पर शब्द कितना खूबसूरत है...अमरस जैसा मीठा. 

मैं किसी को जानती हूँ जो किसी को 'मीता' बुलाता है...उसका नाम मीता नहीं है हालाँकि...पहले कभी ये नाम खास नहीं लगा था...पर जब वो बुलाता है न तो नाम में बहुत कुछ और घुलने लगता है. नाम न रह कर अहसास हो जाता है...अमृत जैसा. जैसे कि वो नाम नहीं लेता, बतलाता है कि वो उसकी जिंदगी है. उसकी. मीता.

आजकल खुद को यूँ देखती हूँ जैसे बारिश में धुंध भरे डैशबोर्ड की दूसरी तरफ तेज रोशनियाँ...सब चले जाने के बाद क्या रह जाता है...परछाई...याद...दर्द...नहीं रे कवि...सब जाने के बाद रह जाती है खुशबू...पूजा के लिए लाये फूल अर्पित करने के बाद हथेली में बची खुशबू. मैं तुम्हें वैसे याद करुँगी. बस वैसे ही. 

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