मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में.
मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायें पढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है.
सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था.
कमलेश की किताब 'बसाव' को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.
ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं.
मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां.
मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में.
उजाड़
माँ ने कहा था:
अमुक 'राम' ने डीह का मंदिर बनवाया था -
शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी
पुजारी नियुक्त किया था.
अब सब परदेस चले गए.
जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे
शिवालय खण्डहर हो गया.
माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में
जल चढ़ाती रहती थी
फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,
मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे
राह में लगने लगे.
माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है
मंदिर बनवाना,
क्या मेरे बेटों के कर्मों में है
मंदिर बनवाना!
कौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.
माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,
माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैं
अनुत्तरित,
प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.
डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा है
मंदिर में जल चढ़ाने को
कोई नहीं बचा.
- कमलेश
सुन्दर
ReplyDeleteकविता लिख तो जाती है, जब भाव प्रबल हो बहते है। कुछ समय बाद वह जीवन्त हो जाती है, बतियाने लगती है, बार बार।
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