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15 November, 2024

जन्मपार का इंतज़ार

वक़्त को बरतने की तरतीब पिछले कुछ सालों में कितनी तेज़ी से बदली है। हमारे पास एक ज़माने में कितना सब्र होता था। कितनी फ़ुरसत होती थी। हम लंबी चिट्ठियाँ लिखते थे और उससे भी लंबा इंतज़ार करते थे। हमें वक़्त के इनफिनिट होने का भरोसा होता था। मुहब्बत करने वाले लोग अगले जन्म तक का इंतज़ार करने का माद्दा रखते थे। 

पता नहीं किस साल की बात है, पर हम लिखना सीख गए थे और दो चार दस वाक्य लिख सकते थे। इन वाक्यों में बेसिरपैर की बातें ही होती होंगी, पर इतना बात बनाना आ गया था हमको। नानाजी पटना में रहते थे और हमें पोस्टकार्ड लिखते थे। ये ३० पैसे के जवाबी पोस्टकार्ड थे, जिन पर नानाजी का पता लिखा हुआ होता था। पता, जो आज भी ज़बानी याद है। इस ब्लैंक पोस्टकार्ड पर जल्दी से चिट्ठी लिख कर डाकिये को उसी समय दे सकते थे। बचपन की एक चीज़ अब भी याद है कि कई सारे जवाबी पोस्टकार्ड पड़े रह जाते थे और हम नानाजी को जवाब नहीं दे पाते थे। उस समय लिखने का धीरज विकसित नहीं हुआ था। चंद शब्दों की क़ीमत कितनी ज़्यादा होती है, हो सकती है…ये नहीं समझते थे। मम्मी हमेशा जवाब देती थी। अक्सर उसके जवाब में आख़िरी एक लाइन हम अपनी लिख देते थे। हम शायद std. 5 में थे जब मेरे नानाजी गुज़र गए। इस बात को कई साल हो गये हैं, लेकिन वे सादे-जवाबी पोस्टकार्ड जिन पर मुझे नानाजी के लिए चिट्ठी लिखनी थी, वे मेरे भीतर आज भी टीसते हैं। हम जैसे होते हैं, हमें दुनिया वैसी ही लगती है। मुझे कभी भरोसा नहीं हुआ कि कोई मेरी चिट्ठियों का जवाब भी लिखेगा। चिट्ठी, पोस्टकार्ड, पिक्चर पोस्टकार्ड…और बाद में ईमेल।

कुछ साल पहले संजय की किताब आयी, “मिट्टी की परात”, इसी नाम की कहानी में एक बहुत पुराना कमरा होता है, जिसमें एक बहुत पुरानी मिट्टी की परात होती है…यह मिट्टी की परात एक बच्चे से टूट जाती है। वह बच्चा इस गुनाह को अपने भीतर कितने साल जीता है, पढ़ते हुए महसूस होता है। बचपन के हमारे छोटे गुनाह होते हैं लेकिन हम सालों तक ख़ुद को सज़ा देते रहते हैं। अपने हिसाब से प्रायश्चित्त करते हैं…बस, ख़ुद को कभी माफ़ नहीं करते।

इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि मेरे साथ कफ़स में और भी कुछ बाशिंदे हैं। कि बचपन की याद एक सॉलिटरी कन्फाइनमेंट नहीं है। कि हम इकलौते गुनाहगार नहीं। कितनी अजीब चीज़ है न कि हम कमरे में बंद हो कर ख़ुद को ही यातना देते रहते हैं। ना किसी से पूछते हैं, ना कहीं गुनाह क़बूलते हैं, ना कहीं माफ़ी माँगते हैं। अपनी ही कचहरी बिठाये, ख़ुद ही सज़ायाफ़ता मुजरिम, जज भी हम ख़ुद ही…

लैंडलाइन आया तो मुहल्ले में एक ही था। ज़रूरी खबर वहाँ से आ जाती थी। लिखते हुए भी वो घबराहट याद है कि जब वहाँ से एक अंकल लगभग दौड़ते हुए घर आये थे कि जल्दी चाहिए, पटना से फ़ोन आया है…अभी तुरंत चलिए। फिर हम लोग दौड़ते हुए उन के घर पहुँचे थे…फ़ोन बाजना शुरू हो चुका था। फिर वहाँ से बदहवासी में दौड़ते हुए घर आये हैं। खबर इतनी ही दी गई थी कि नानाजी की तबियत बहुत ख़राब है। ट्रेन पर बैठते हुए पहली बार घबराहट हुई। उसके पहले हमारे लिए ट्रेन में बैठना हमेशा ख़ुशी का सबब होता था। देवघर से पटना के रास्ते में पड़ने वाले सारे ट्रेन स्टेशन मुझे उसी क़तार में नियत अंतराल के साथ याद थे। कहाँ से कितना देर का सफ़र और बचा हुआ है। पर ये सब स्टेशन, हाल्ट…उस रोज़ बहुत धीमी रफ़्तार से गुज़रते दिख रहे थे। ननिहाल पहुँचे तो जिस चीज़ पर सबसे पहले ध्यान गया वो ये कि सीढ़ियाँ धुली हुई थीं। इसके पहले मैंने सीढ़ियाँ धुलते कभी नहीं देखी थीं। बिना गिरे उन सीढ़ियों पर दौड़ते ऊपर पहुँचे तो मालूम हुआ कि हम देर से पहुँचे हैं। कि सब लोग मसान को निकल गये हैं। धुली सीढ़ियों का हौल हमारे सीने पर ऐसा बैठा है कि आज भी धुली हुई सीढ़ियाँ देख कर धड़कन तेज हो जाती है। मेरे लिये यह मृत्यु का चेहरा था। 

इसके बाद हमने वे सफ़ेद पोस्टकार्ड देखे जिनपर तेरहवीं का न्योता आता था। और अक्सर ये पोस्टकार्ड मिलते ही फाड़ दिये या फिर जला दिये जाते थे। उन दिनों तार से मृत्यु की खबर आती थी, ऐसा भी सुनते थे। कि डाकिया तार लेकर आया है तो औरतें अक्सर तार पढ़ने के पहले से रोना शुरू कर देती थीं…यक़ीन इतना पक्का होता था कि कोई बुरी खबर ही होगी। पापा कहते थे, no news means good news. कि आदमी परदेस में रह रहा है, सब कुछ ठीक चल रहा होगा, इसलिए चिट्ठी पतरी नहीं लिख रहा। कुछ दिक़्क़त होगी तब न लिखेगा।

बचपन में चिट्ठी लिखने की दूरी और करीबी बस नानाजी से थी। फिर मेरी स्कूल की बेस्ट फ्रेंड के पापा का ट्रांसफ़र दूसरे शहर हो गया। उसे कई साल चिट्ठियाँ लिखीं। दसवीं में आने तक। मेरे पास उसके नानीघर का पता भी था, कि गर्मी छुट्टियों में हम उसके नानीघर चिट्ठी भेजते थे। हम 10th के बाद पटना आ गये और मेरी इस दोस्त का पता खो गया। पता खोना मतलब उन दिनों दोस्त खोना होता था। 1999 तक शहर बदलना मतलब हमेशा के लिए बिछड़ना होता था। लड़कियों के लिए किसी भी और शहर जाने का कोई तरीक़ा था ही नहीं। हम सफ़र सिर्फ़ घूमने के लिए मम्मी-पापा के साथ जाते थे। वक़्त अपना पर्सनल होता है, शहर अपना पर्सनल हो सकता है…ऐसा कुछ उस समय ख़्याल में कहाँ आता था।

किसी से चाहा और बात हो गई, ऐसा सिर्फ़ तब होता था जब कोई हमारा पड़ोसी रहे, क्लास मेट हो या कि फिर फ़ैमिली फ्रेंड। ट्यूशन में पढ़ने वाले लोगों से दोस्ती करने का समय नहीं था। किसी को चाहना और उससे बात करने की इच्छा होना…यह हमारी फ़ितरत ही नहीं बन पाया। हमारे भीतर साल दर साल इंतज़ार जमा होता रहता था। हमने तारीख़ें गिनीं, महीने गिने, सालों साल गिने हैं…कि हम आज भी किसी का उम्र भर इंतज़ार कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि शायद हम कभी भी नहीं मिलें।

कला में ठहरना दो तीन जगहों पर देख कर मैंने ख़ुद के भीतर दर्ज किया है, अंडरलाइन करते हुए। बहुत साल पहले किताब पढ़ी थी, गॉन विथ द विंड…उसकी नायिका स्कार्लेट, बहुत दुख होने पर कहती है, मैं इसके बारे में कल सोचूँगी…after all, tomorrow is another day. वोंग कार वाई की फ़िल्म 2046 में एंड्रॉयड्स हैं जिनमें भावनायें देर से ज़ाहिर होती हैं। delayed emotional response कि दुख आज हुआ लेकिन आँसू कई दिन बाद निकलेंगे।

सोचती हूँ तो लगता है, Everything, ultimately is unfinished. हम इसलिए पुनर्जन्म में यक़ीन करते हैं। कि हमें इस बात की चिंता न हो कि कुछ अधूरा रह गया। जन्मपार के दुख। लिखते हुए मालूम नहीं था, क्या लिख रहे हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है, ये जो हूक जैसा चुभता रहता है, सीने के बीच, बेवजह…साल दर साल…यह इंतज़ार का दुख है। कई जन्म पीछे से साथ चलता हुआ।   

जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी के अलावा, हम इंतज़ार के भी बने हैं।

07 November, 2024

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट, कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


हमारे देश में अधिकतर लोगों का वक़्त उनका ख़ुद का नहीं होता। गरीब हो कि अमीर, एक आधापापी अब तामीर में शामिल हो गई है। हम जहाँ हैं, वहाँ की जगह कहीं और होना चाहते हैं। समय की इस घनघोर क़िल्लत वाले समय में कुछ लोगों ने अपने लिए थोड़ा सा वक़्त निकाल रखा है। यह अपने लिए वाला वक़्त किसी उस चीज़ के नाम होता है जिससे दिल को थोड़ा करार आये…वो ज़रा सा ज़्यादा तेज़ भले धड़के, लेकिन आख़िर को सुकून रहे। यह किसी क़िस्म का जिम-रूटीन हो सकता है, कोई खेल हो सकता है, या कला हो सकती है।

इस कैटेगरी की सब-कैटेगरी में वो लोग जिन्होंने इस ख़ास समय में अपने लिए कला के किसी फॉर्म को रखा है। नृत्य, गायन, लेखन, पेंटिंग…इनके जीवन में कला का स्थान अलग-अलग है। कभी यह हमारी ज़रूरत होती है, कभी जीने की सुंदर वजह, कभी मन के लिये कोई चाराग़र। मेरे लिये अच्छी कला का एक पैमाना यह भी है कि जिसे देख कर, सुन कर, या पढ़ कर हमारे भीतर कुछ अच्छा क्रिएट करने की प्यास जागे। उस कथन से हम ख़ुद को जोड़ सकें। हमारे समकालीन आर्टिस्ट्स क्या बना रहे हैं, उनकी प्रोसेस कैसी है…उनके डर क्या हैं, उनकी पसंद की जगहें कौन सी हैं, वे कैसा संगीत सुनते हैं…किसी हमउम्र लेखक या पेंटर से मिलना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हमारे समय में जी रहे हैं…हमारे परिवेश में भी। हमारे कुछ साझे सरोकार होते हैं। अगर लेखन में आते कुछ ख़ास पैटर्न की बात करें तो विस्थापन, आइडेंटिटी क्राइसिस, उलझते रिश्ते…बदलता हुआ भूगोल, भाषा का अजनबीपन…बहुत कुछ बाँटने को होता है।

कहते हैं कि how your spend your days is how you spend your life. मतलब कि हमारे जीवन की इकाई एक दिन होता है…और रोज़मर्रा की घटनायें ही हमारे जीवन का अधिकतर हिस्सा होती हैं। मैं बैंगलोर में पिछले 16 साल से हूँ…और कोशिश करने के बावजूद यहाँ की भाषा - कन्नड़ा नहीं सीख पायी हूँ। हाँ, ये होता था कि इंदिरानगर के जिस घर में दस साल रही, वहाँ काम करने वाली बाई और मेरी कुक की बातें पूरी तरह समझ जाती थी। मुझे कुछ क्रियायें और कुछ संज्ञाएँ पता थी बस। जैसे ऊटा माने खाना, केलसा माने काम से जुड़ी कोई बात, बरतिरा माने आने-जाने संबंधित कुछ, कष्ट तो ख़ैर हिन्दी का ही शब्द था, निदान से…मतलब आराम से…थिर होकर करना। उनकी बातचीत अक्सर घर के माहौल को लेकर होती थी…उसके बाद अलग अलग घरों में कामवालियों की भाषा नहीं समझ पायी कभी भी। मैं शायद भाषा से ज़्यादा उन दोनों औरतों को समझती थी। उन्होंने एक बीस साल की लड़की को घर बसाने में पूरी मदद की…उसकी ख़ुशी-ग़म में शामिल रही। उनको मेरा ख़्याल था…मुझे उनका। वे मेरा घर थीं, उतना ही जितना ही घर के बाक़ी और लोग। ख़ैर… घर के अलावा बाहर जब भी निकली तो आसपास क्या बात हो रही है, कभी समझ नहीं आया…सब्ज़ी वाले की दुकान पर, किसी कैफ़े में, किसी ट्रेन या बस पर भी नहीं…कुछ साल बाद स्टारबक्स आया और मेरे आसपास सब लोग अंग्रेज़ी में सिर्फ़ स्टार्ट-अप की बातें करने लगे। ये वो दिन भी थे जब आसपास की बातों को सुनना भूल गई थी मैं और मैंने अच्छे नॉइज़ कैंसलेशन हेडफ़ोन ले लिये थे। मैं लूप में कुछ इंस्ट्रुमेंटल ही सुनती थी अक्सर। 2015 में जब तीन रोज़ इश्क़ आयी तो मैं पहली बार दिल्ली गई, एक तरह से 2008 के बाद पहली बार। वहाँ मेट्रो में चलते हुए, कहीं चाय-सिगरेट पीते, खाना खाते हुए मैं अपने आसपास होती हुई बातों का हिस्सा थी। ये दिल्ली का मेरा बेहद पसंदीदा हिस्सा था। मुझे हमेशा से दिल्ली में पैदल चलना, शूट करना और कुछ से कुछ रिकॉर्ड करना भला लगता रहा है।

हिन्द-युग्म उत्सव में भोपाल गई थी। सुबह छह बजे की फ्लाइट थी, मैं एक दिन पहले पहुँच गई थी। सफ़र की रात मुझे यूँ भी कभी नींद नहीं आती। तो मेरा प्रोसेस ऐसा होता है कि रात के तीन बजे अपनी गाड़ी ड्राइव करके एयरपोर्ट गई। वहाँ पार्किंग में गाड़ी छोड़ी और प्लेन लिया। दिन भर भोपाल में दोस्तों से बात करते बीता। मैं वहाँ पर जहांनुमा पैलेस में रुकी थी, जो कि शानदार था। इवेंट की जगह पर शाम में गई, वहाँ इंतज़ाम देखा और उन लोगों के डीटेल लिए जिनसे अगले दिन इवेंट पर AI के बारे में बात करनी थी। भर रात की जगी हुई थी, तो थकान लग रही थी। रात लगभग 7-8 बजे जब रेस्टोरेंट गई डिनर करने के लिए तो हेडफ़ोन नहीं लिये। किंडल ले लिया, कि कुछ पढ़ लेंगे। कुछ सुनने का पेशेंस नहीं था। रेस्टोरेंट ओपन-एयर था। मैंने एक सूप और खाने का कुछ ऑर्डर कर दिया। मेरे आसपास तीन टेबल थे। दो मेरी टेबल के दायीं और बायीं और, और एक पीछे। इन तीनों जगह पर अलग अलग लोग थे और वे बातों में मशगूल थे। मुझे उनकी बातें सुनाई भी पड़ रही थीं और समझ भी आ रही थीं…यह एक भयंकर क्रॉसफेड था जिसकी आदत ख़त्म हो गई थी। मैं बैंगलोर में कहीं भी बैठ कर अकेले खाना खा सकती हूँ। सबसे ज़्यादा शोर-शराबे वाली जगह भी मेरे लिये सिर्फ़ व्हाइट नॉइज़ है जिसे मैं मेंटली ब्लॉक करके पढ़ना-लिखना-सोचना कुछ भी काम कर सकती थी। मैं चाह के भी किंडल पढ़ नहीं पायी…इसके बाद मुझे महसूस हुआ कि समझ में आने वाला कन्वर्सेशन अब मेरे लिये शोर में बदल गया है। एक शहर ने मुझे भीतर बाहर ख़ामोश कर दिया है।

बैंगलोर में मेरे पास एक bhk फ्लैट है - Utopia, जिसे मैं अपने स्टडी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। लिखना-पढ़ना-सोचना अच्छा लगता है इस स्पेस में। लेकिन शायद जो सबसे अच्छा लगता है वो है इस स्पेस में अकेले होना। ख़ुद के लिए कभी कभी खाना बनाना। अपनी पसंद के कपड़े पहनना…देर तक गर्म पानी में नहाना…स्टडी टेबल से बाहर की ओर बनते-बिगड़ते बादलों को देखना। यह तन्हाई और खामोशी मेरे वजूद का एक हिस्सा बन गई है। बहुत शोर में से मैं अक्सर यहाँ तक लौटना चाहती हूँ।

मुराकामी की किताबें मेरे घर में होती हैं। किंडल पर। और Utopia में भी। ६०० पन्ने की The wind up bird chronicles इसलिए ख़त्म कर पायी कि यह किताब हर जगह मेरे आसपास मौजूद थी। कुछ दिन पहले एक दोस्त से बात कर रही थी, कि The wind up bird chronicles कितना वीभत्स है कहीं कहीं। कि उसमें एक जगह एक व्यक्ति की खाल उतारने का दृश्य है, वह इतना सजीव है कि ज़ुबान पर खून का स्वाद आता है…उबकाई आती है…चीखें सुनाई पड़ती हैं। कि मैं उस रात खाना नहीं खा पायी। वो थोड़े अचरज से कहता है, But you like dark stuff, don’t you? दोस्त हमें ख़ुद को डिफाइन करने के लिए भी चाहिए होते हैं। मैंने एक मिनट सोचा तो ध्यान आया कि मैं सच में काफ़ी कुछ स्याह पढ़ती हूँ। कला में भी मुझे अंधेरे पसंद हैं।

दुनिया में कई कलाकार हैं। इत्तिफ़ाक़न मैं जिनके प्रेम में पड़ती हूँ, उनके जीवन में असह्य दुख की इतनी घनी छाया रहती है कि कैनवस पर पेंट किया सूरज भी उनके जीवन में एक फीकी उजास ही भर पाता है। शिकागो गई थी, तब वैन गो की बहुत सारी पेंटिंग्स देखी थीं। वह एक धूप भरा कमरा था। उसमें सूरजमुखी थे। मैं वहाँ लगभग फफक के रो देना चाहती थी कि वैन गो…तुमने कैसे बनाए इतने चटख रंगों में पेंटिंग्स जब कि तुम्हारे भीतर मृत्यु हौले कदमों से वाल्ट्ज़ कर रही थी। अकेले। कि पागलपन से जूझते हुए इतने नाज़ुक Almond Blossoms कैसे पेंट किए तुमने…कि स्टारी नाइट एक पागल धुन पर नाचती हुई रात है ना? मैं ऐसी रातें जाने कहाँ कहाँ तलाशती रहती हूँ। कि जब न्यू यॉर्क में MOMA में स्टारी नाइट देखी थी तो रात को टाइम्स स्क्वायर पर बैठी रही, रात के बारह बजे अकेले…चमकती रोशनी में ख़ुद को देखती…स्याही की बोतल भरती बूँद बूँद स्याह अकेलापन से…

यह दुनिया मुझे ज़रा कम ही समझ आती है। अधिकतर व्यक्ति जब कोई अच्छा काम कर रहे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उन्हें एक मंच मिले, उन पर स्पॉटलाइट हो…वे गर्व मिश्रित ख़ुशी से सबके सामने अपनी उपलब्धियों के लिए कोई अवार्ड लेने जायें। मंच पर उन लोगों के नाम गिनायें जिन्होंने इस रास्ते की मुश्किलें आसान कीं…जो उनके साथ उनके मुश्किल दौर में खड़े रहे। ऐसे में दुनिया का अच्छाई पर भरोसा बढ़ता है और उन्हें लगता है मेहनत करने वाले लोग देर-सवेर सफलता हासिल कर ही लेते हैं। इन दिनों जिसे hustle कहते हैं। कि ऑफिस के अलावा भी कुछ और साथ-साथ कर रहे हैं। कि उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखने की क़वायद जारी रखी है।

मुझे अपने हिसाब का जीवन मिले तो उसमें रातें हों…कहीं चाँद-तारे की टिमटिम रौशनी और उसमें हम अपनी कहानी सुना सकें। अंधेरा और रौशनी ऐसा हो कि समझ न आए कि जो सच की कहानी है और जो झूठ की कहानी है। कि किताब के किरदारों के बारे में लोग खोज-खोज के पूछते हैं कि कहाँ मिला था और मेरे सच के जीवन के नीरस होने को झूठ समझें। कि सच लिखने में क्या मज़ा है…सोचो, किसी का जीवन कहानी जितना इंट्रेस्टिंग होता तो वो आत्मकथा लिखता, उपन्यास थोड़े ही न।

मैं विरोधाभासों की बनी हूँ। एक तरफ़ मुझे धूप बहुत पसंद है और दूसरी तरफ़ मैं रात में एकदम ऐक्टिव हो जाती हूँ - निशाचर एकदम। घर में खूब सी धूप चाहिए। कमरे से आसमान न दिखने पर मैं अवसाद की ओर बढ़ने लगती हूँ। और वहीं देर रात शहर घूमना। अंधेरे में टिमटिमाती किसी की आँखें देखना। देर रात गाड़ी चलाना। यहाँ वहाँ भटकते किरदारों से मिलना…यह सब मुझे ज़िंदा रखता है।

एक सुंदर कलाकृति हमें कुछ सुंदर रचने को उकसाती है। हमारे भीतर के स्याह को होने का स्पेस देती है। हमें इन्स्पायर करती है। किसी के शब्द हमारे लिए एक जादू रचते हैं। कोई छूटा हुआ प्रेम हमारे कहानी की संभावनायें रचता है। हम जो जरा-जरा दुखते से जी रहे होते हैं…किसी पेंटिंग के सामने खड़े हो कर कहते हैं, प्यारे वैन गो…टाइट हग्स। तुम जहाँ भी रंगों में घूम रहे हो। प्यारे मोने, क्या स्वर्ग में तुम ठीक-ठीक पकड़ पाये आँखों से दूर छिटकती रौशनी को कभी?

मेरी दुनिया अचरज की दुनिया है। मैं इंतज़ार के महीन धागे से बँधी उसके इर्द गिर्द दुनिया में घूमती हूँ। जाने किस जन्म का बंधन है…उसकी एक धुंधली सी तस्वीर थी। खुली हुई हथेली में जाने एक कप चाय की दरकार थी या माँगी हुई सिगरेट की…बदन पर खिलता सफ़ेद रंग था या कोरा काग़ज़…

जाने उसके दिल पर लिखा था किस-किस का नाम…जाने कितनी मुहब्बत उसके हिस्से आनी थी…
मेरे हिस्से सिर्फ़ एक सवाल आया था…उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी? 

जलता हुआ दिल सिगरेट के धुएँ जैसा महकता है। भगवान ही जानता है कि कितनी पागल रातें आइस्ड वाटर पिया है। बर्फ़ीला पानी दिल को बुझाता नहीं। नशा होता है। नीट मुहब्बत का नशा। कि हम नालायक लोग हैं। बोतल से व्हिस्की पीने वाले। इश्क़ हुआ तो चाँद रात में संगमरमर के फ़र्श पर तड़पने वाले। आत्मा को कात लेते किसी धागे की तरह और रचते चारागार जुलाहों का गाँव कि जहाँ लोग टूटे हुए दिल की तुरपाई करने का हुनर जानते। कि हमारे लिये जो लोग ईश्वर ने बनाये हैं, वे रहते हैं कई कई किलोमीटर दूर…कि उनके शहर से हमारे शहर तक कुछ भी डायरेक्ट नहीं आता…न ट्रेन, न प्लेन, न सड़क…हर कुछ के रास्ते में दुनियादारी है…

हम थक के मुहब्बत के उसी ईश्वर से दरखास्त करते, कि दिल से घटा दे थोड़ी सी मुहब्बत…कि इतने इंतज़ार से मर सकते हैं हम। कि कच्ची कविताओं की उम्र चली गई। अब ठहरी हुई चुप्पियों में जी लें बची हुई उम्र।

लेकिन दिल ज़िद्दी है। आख़िर, किसी लेखक का दिल है, इस बेवक़ूफ़ को लगता है, हम सब कुछ लिख कर ख़त्म कर देंगे। लेकिन असल में, लिखने से ही सब कुछ शुरू होता है।


***
कलाई पर प्यास का इत्र रगड़ता है
बिलौरी आँखों वाला ब्रेसलेट
इसके मनके उसकी हथेलियों की तरह ठंढे हैं।

***
इक जादुई तकनीक से कॉपी हो गये
महबूब के हाथ
वे हुबहू रिप्लीकेट कर सकते थे उसका स्पर्श
उसकी हथेली की गर्माहट, कसावट और थरथराहट भी

प्रेमियों ने लेकिन फेंक दिया उन हाथों को ख़ुद से बहुत दूर
कि उस छुअन से आती थी बेवफ़ाई की गंध।

***

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट
कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


03 November, 2024

Be my love in the rain

सुबह-सुबह एक चिट्ठी लिखने को मन अकुलाया हुआ उठा है। लेकिन ये बेवक़ूफ़ाना सवाल किससे पूछें। कि हम अपना टूटा हुआ मन लेकर जायें कहाँ! 

बारिश सोचती हूँ। हम सब बारिश के मौसम में अलग बर्ताव करते हैं। बारिश के प्यार करने वाले कई क़िस्म के लोग होते हैं। कुछ लोग बारिश आते ही घर के भीतर भाग जाते हैं कि भीग न जायें। कुछ लोग दुकानों के आगे छज्जों के नीचे खड़े हो जाते हैं। बाइक वाले लोग पुल-पुलिया के नीचे भी बारिश के थम जाने का इंतज़ार करते हैं। हम जिस जलवायु के होते हैं, वह हमारा कुदरती बर्ताव निर्धारित करती है। हमारे तरफ़ बारिश ऐसे अचानक कभी भी नहीं बरसती थी…उसके आने का नियत मौसम होता था। जेठ की कड़कड़ाती गर्मी के बाद आती थी बारिश। ज़मीन से एक ग़ज़ब की गंध फूटती थी। बारिश होते ही हम हमेशा दौड़ कर बाहर आ जाते। यहाँ वहाँ ज़मीन पर बने गड्ढों में कूदते। छत से गिर कर आ रही पानी की धार में झरने जैसा नहाने का मज़ा आता। मगर यह बचपन की बात थी।

पता नहीं हम कब बड़े हो गये और बारिश हमसे छूट गई। हम पटना में रहते थे। यहाँ कुछ चीज़ें एकदम बाइनरी थीं…लड़कों के लिए और लड़कियों के लिए दुनिया एकदम अलग थी। उस समय थोड़ी कम महसूस होती थी, अब थोड़ी ज़्यादा महसूस होती है। लड़कपन में बहुत कुछ बदला…जैसे बारिश हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। सपने में भी हम बारिश से बचते-बचाते चलते थे। हम सालों भर अपने कॉलेज बैग में छाता लेकर जाते थे कि बेमौसम बारिश में भीग न जायें। उस दिन में तीन तरह के अचरज थे। पहला कि हम छाता ले जाना भूल गए। दूसरा कि उस रोज़ बारिश हो गई - बे-मौसम। और तीसरा कि उस रोज़ हमको सरप्राइज देने मेरा बॉयफ्रेंड अचानक शहर आया हुआ था और हम उससे मिल रहे थे।

वो मेरा पहला बॉयफ्रेंड था। उन दिनों बॉयफ्रेंड ही कहने का चलन था। पटना के जिस मुहल्ले में हम रहते थे वहाँ बहुत से गुलमोहर के पेड़ थे। उस रोज़ मैंने आसमानी रंग का जॉर्जेट का सलवार सूट पहना था। हम उस रंग को पानी-रंग भी कहते थे। कॉलेज में लंच के बाद के एक्स्ट्रा सब्जेक्ट्स वाले क्लास होते थे और फिर प्रोजेक्ट्स करने होते थे। उस रोज़ मैंने लंच के बाद के क्लास नहीं किए। हमारे कॉलेज के सामने कचहरी थी और उधर बहुत दूर दूर तक सुंदर सड़क थी। कोलतार की काली सड़कें, उनमें गड्ढे नहीं थे। सड़क पर पेड़ थे। भीड़ एकदम नहीं थी। उन दिनों शहर में लोग कम थे और दोपहर को मुख्य सड़कों पर ही लोग दिखते थे, भीतर वाली सड़कें कमोबेश ख़ाली हुआ करती थीं। हम पैदल चलते चलते कई किलोमीटर भटक चुके थे। ऑटो में बैठ कर अपने मुहल्ले के आसपास वाली सड़क पर उतर गये।

उसने मेरा बैग मुझसे ज़बरदस्ती छीन के टांग लिया था। मुझे उसकी ये चीज़ बहुत अच्छी लगी थी। कि बैग भारी था। उसमें कॉलेज की सारी किताबें और नोटबुक थे। तुम थक गई होगी, इतना देर से बैग लेकर चल रही हो, हमको दे दो। इतना ही सरल था। बीस साल पुरानी बात है। लेकिन याद है। केयर और प्यार, बड़ी बड़ी चीज़ों में नहीं होता। और याद, ऐसी ही छोटी चीज़ें रहती हैं, ताउम्र।  वहाँ गुलमोहर के पेड़ थे और सुंदर घर बने हुए थे। हम यूँ ही टहल रहे थे और बतिया रहे थे। पिछले कई घंटों से। मेघ लगे, और एकदम, अचानक बारिश होने लगी। मूसलाधार। मैं बहुत घबरा गई। आसपास न कोई दुकान थी, न कोई छज्जा…वहाँ सिर्फ़ घर थे और सारे घरों के आगे बड़े बड़े दरवाज़े थे। ‘भीग जाएँगे तो मम्मी बहुत डाँटेगी’ का लगातार मंत्र जाप जैसा बड़बड़ाना शुरू किए हम…हमको भीगने का डर जो था सो था, मम्मी की डाँट का उससे बहुत बहुत ज़्यादा डर था। कि हम भीगते हुए घर नहीं पहुँच सकते थे। उसने एक दो बार मेरा नाम लिया लेकिन हम अपने मन के एकालाप में एकदम ही नहीं सुने। आख़िर को उसने मेरे दोनों कंधों को पकड़ कर मुझे झकझोर दिया… “पम्मी! पम्मी! ऊपर देखो!” मैंने ऊपर देखा…ऊपर उसका सुंदर चेहरा था…और आसमान से पानी बरस रहा था…पूरे चेहरे पर बारिश…जैसे पानी बेतरह चूम रहा हो चेहरा…मैंने आँखें बंद की…ऐसा होता है मुहब्बत में भीगना। उस लम्हे मुझे आगत का डर नहीं था। कोई हमेशा का सपना नहीं था। बारिश हमारे इर्द गिर्द भारी पर्दा बन रही थी। कुछ नहीं दिख रहा था। उसने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था। मुझे अब घर भी लौटना था। हमारी हथेली में बारिश थी। हमारी हथेली में फिर भी थोड़ी गर्माहट थी।

गोलंबर आये तो भाई छाता लिए इतंज़ार कर रहा था। कि कहाँ से इतना भीगते आयी हो। तेज़ बारिश और तेज हवा। छाता के बावजूद भीगना तो था ही। इसलिए घर जा कर डाँट नहीं पड़ी। भाई माँ को चुग़ली नहीं किया कि पहले से भीगे हुए आए थे। उस दिन के बाद बारिश होती तो भाग कर आँगन जाते थे, सब कपड़ा अलगनी से उतारते थे। और फिर अगर घर में कोई नहीं होता था तो थोड़ा सा भीग लेते थे। चुपचाप। प्यार को भी दिल में ऐसे ही चोरी-छुपे रहने की इजाज़त थी।

कॉलेज में हम इतने भले स्टूडेंट थे। जब कि उन दिनों बुरा बनना बहुत आसान था। कॉलेज गेट के बाहर चाट-गुपचुप-झालमुरी खाने वाली लड़कियों तक को बुरी लड़कियों का तमग़ा मिल जाता था। उसके लिए क्लास बंक कर के फ़िल्म जाने जैसा गंभीर अपराध करने की ज़रूरत नहीं थी। हमारी अटेंडेंस 100% हुआ करती थी। हम कभी एक क्लास भी नहीं छोड़े, ऐसे में एक दिन भी कॉलेज नहीं आये तो प्रोफेसर को इतनी चिंता हो गई कि घर फ़ोन करने वाली थीं। वो तो भला हो दोस्तों का, कि उन्हें बहला-फुसला दिया वरना हम अच्छे-ख़ासे बीमार होने वाले थे कुछ दिनों के लिए। 

मुहब्बत तो हमेशा से ही आउट-ऑफ़-सिलेबस थी। तो क्या हुआ अगर हम इस पेपर के सबसे अच्छे विद्यार्थी हो सकते थे।

वे लड़के जिनसे हमने १५-२० साल की कच्ची उम्र में मुहब्बत की थी, मुझे अब तक याद क्यों रह गये हैं। मैं यह सब भूल क्यों नहीं जाती? हमारी मुहब्बत में होना तो कुछ था ही नहीं। समोसे के पैसे बचा कर std कॉल करना। कभी-कभार डरते हुए चिट्ठियाँ लिखना। और बाद में ईमेल। याहू मेल ने वो सारी ईमेल डिलीट कर दीं, जिसमें से एक में उसने लिखा था कि तुम मेरी धूप हो…सनशाइन। बादलों वाले जिस शहर में मैं रहती हूँ…धूप के लिए मेरा पागलपन अब भी क़ायम है। मुझे लिखने को ऐसी खिड़की चाहिए जो पूरब की ओर खिलती हो।

मैं याद में इतना पीछे क्यों चलते जा रही हूँ! जब कि सपने में कुछ भी नहीं देखा है। कई रातों से लगातार सोई नहीं हूँ ढंग से। आँखें लाल दिख रही थी आईने में आज। जलन भी हो रही है और थकान भी।

दिल्ली पढ़ने गई तो अगस्त का महीना था। वो शहर में मेरी पहली रात थी। अकेले। मम्मी-पापा स्टेशन जा चुके थे। मैं हॉस्टल में थी। बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई। IIMC हॉस्टल से भागते हुए बाहर निकली थी मैं। पीले हैलोजेन लाइट से भीगा हुआ कैंपस था। यहाँ भय नहीं था। मैं भीग रही थी। मैं नाच रही थी। मैं आज़ाद थी। ये मेरा अपना शहर था। मेरी मुहब्बत का शहर। दिल्ली से उस एक रात से हुई मुहब्बत ने मुझे कई साल तक जीने का हौसला दिया है। 

बैंगलोर आयी तो जिस मुहल्ले में रहती थी यहाँ बहुत पुराने पेड़ थे। गुलमोहर। सेमल। सड़कों पर सुंदर घर थे। इस शहर की बारिश मेरी अपनी थी। मैं अक्सर चप्पल घर पर छोड़, बिना फ़ोन लिए, नंगे पाँव बारिश में भीगने चल देती थी। घर से थोड़ी दूर पर पंसारी की दुकान थी, जहाँ से सब्ज़ी-दूध-दही और बाक़ी राशन लिया करती थी। मैं वहाँ भीगते हुए पहुँचती। एक ऑरेंज आइस क्रीम ख़रीदती। हिसाब में लिखवा देती, कि पैसे बाद में दूँगी। बारिश में भीगती, ऑरेंज आइसक्रीम खाती सड़कों पर तब तक टहलती रहती जब तक भीग के पूरा सरगत नहीं हो जाती। घर लौटती और गर्म पानी से नहाती। कॉफ़ी या फिर नींबू की चाय बनाती। अक्सर मैगी भी। फिर चिट्ठियाँ लिखने बैठती, या फिर ब्लॉग पर कोई पोस्ट। ऐसा मैंने उन सारी दुपहरों में किया जब मेरी नौकरी नहीं होती थी। 

2018 में वो गुलमोहरों वाला मुहल्ला मुझसे छूट गया। हम जिस सोसाइटी में आये यहाँ पेड़ नहीं थे। दूर दूर तक खुली सड़कें। बारिश छूट गई। फिर मैंने बारिश को जी भर के तलाशा। घर से कुछ दूर एक झील थी। एक शाम वहाँ बाइक लेकर ठीक पहुँची ही थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। मैंने स्पोर्ट शूज़ पहने थे। वे उतार कर डिक्की में रख दिये। पैदल वहाँ झील के किनारे चल दी। कच्ची सड़क में बहुत सा पानी भर गया था। कुछ कंकड़ भी थे। पैरों को कभी-कभी चुभते। झील पर बेतरह बारिश हो रही थी। आसमान और झील सब पानी के पर्दे में एकसार हो रखा था। बारिश रुकने के बाद मैंने चाय की टपरी पर सिगरेट ख़रीदी। एक कप कॉफ़ी पी। बारिश में सिगरेट भीग भीग जा रही थी। तो बार बार जला कर पी। उस एक रोज़ की बारिश ने मुझे कई महीनों तक ज़िंदा रहने का हौसला दिया। 

रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता है, बारिश और तूफ़ान के बारे में...इसकी एक पंक्ति है, "Come over the hills and far with me, and be my love in the rain." बारिश को लेकर मेरे पागलपन को देखते हुए एक दोस्त ने एक बार शेयर की थी, कि तुमको तो बहुत पसंद होगी। मैंने कभी पढ़ी ही नहीं थी। लेकिन पढ़ी, और फिर कितनी अच्छी लगी...कैसी आकुल प्रतीक्षा है इसमें...ऐसा घनघोर रोमांटिसिज्म...बारिश इन दिनों अपने घर की बालकनी से देखती हूँ। इक्कीसवें माले का वह घर बादलों में बना हुआ है। मैं दो तरफ़ की बालकनी खोल देती हूँ और देखती हूँ कि घर के भीतर बादल का एक टुकड़ा चला आया है। मैं बालकनी में खड़ी, भीगते हुए बादलों को देखती हूँ...शहर सामने से ग़ायब हो जाता है...बादलों के पीछे इमारतें लुक-छिप करती रहती हैं। आख़िर को मैं एक कॉफ़ी बना कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठती हूँ और लिखने की बजाय सारे समय बादल ही देखती रहती हूँ। 

बच्चे इस महीने पाँच साल के हो जाएँगे। मैंने उनको को बारिश से बचा कर नहीं रखा। उन्हें बारिश से प्यार करना सिखाया। वे बारिश होते ही बाहर भागते हैं। उनके साथ मैं भी। सड़क किनारे पानी में कूदते हुए। लॉन में आसमान की ओर चेहरा उठाए, जीभ बाहर निकाले बारिश को चखते ये मेरे बच्चे ही हैं…पानी में भीगते, लोटते, कूदते…उनके साथ मुझे भी इजाज़त है कि मन भर भीग लूँ। कि मेरे बच्चे, मेरी तरह ही, कभी बारिश में भीग कर बीमार नहीं पड़ेंगे।

***

उसने कहा, उसे मेरे साथ बारिश देखनी है।
मेरे मन के भीतर तब से बारिश मुसलसल हो रही है। मैं नहीं जानती उसका शहर बारिश को कैसे बरतता है। वो ख़ुद बारिश में भीगता है, मुझे मालूम है। मेरी सूती साड़ियाँ बारिश में भीगने को अपना नंबर गिन रही हैं। मैं एक पागल गंध में डूबी हुई हूँ। 

***

A Line-storm Song

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The line-storm clouds fly tattered and swift,  
  The road is forlorn all day,  
Where a myriad snowy quartz stones lift,  
  And the hoof-prints vanish away.  
The roadside flowers, too wet for the bee,
  Expend their bloom in vain.  
Come over the hills and far with me,  
  And be my love in the rain.  

The birds have less to say for themselves  
  In the wood-world’s torn despair
Than now these numberless years the elves,  
  Although they are no less there:  
All song of the woods is crushed like some  
  Wild, easily shattered rose.  
Come, be my love in the wet woods; come,
  Where the boughs rain when it blows.  

There is the gale to urge behind  
  And bruit our singing down,  
And the shallow waters aflutter with wind  
  From which to gather your gown.     
What matter if we go clear to the west,  
  And come not through dry-shod?  
For wilding brooch shall wet your breast  
  The rain-fresh goldenrod.  

Oh, never this whelming east wind swells    
  But it seems like the sea’s return  
To the ancient lands where it left the shells  
  Before the age of the fern;  
And it seems like the time when after doubt  
  Our love came back amain.       
Oh, come forth into the storm and rout  
  And be my love in the rain.

01 November, 2024

ब्लैक कॉफ़ी मॉर्निंग्स



वो मेरे मन की रेल का टर्मिनस है। ये रेल शुरू चाहे जिस स्टेशन से हो, गुज़रे चाहे जिन भी पठारों, पहाड़ों से…अंततः इसे उसी स्टेशन पर रुकना होता है।
वहाँ से ट्रेन आगे नहीं जाती। रुकती है। लौटती है।

एक लंबी यात्रा के बाद ट्रेन की साफ़-सफ़ाई होती है, कंबल-चादरें धुलती हैं। फिर ट्रेन वहाँ से वापस चलती है, पुराने शहरों को देखने, नये यात्रियों को नयी जगह पहुँचाने। पुराने यात्रियों को गर्मी-छुट्टी के नास्टैल्जिया तक बार-बार उतारने।

त्योहारों की सुबह कैसा कच्चा-कच्चा सा मन होता है।
मैंने सपने में दोस्त को देखा। कई समंदर पार से वह देश आया हुआ है। मैंने दौड़ते हुए उसके पास जाती हूँ और उसे हग करते ही पिघल जाती हूँ। मोम। थोड़ी गर्मी और नरमाहट लिये हुए। यह मेरी जानी हुई जगह है। मैं यहाँ सुरक्षित हूँ। सेफ़। मैं यहाँ खुश हूँ। मेरा मन मीठा है। यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। सपने की जगह पहचानी हुई नहीं है। लेकिन जाग में वो शहर मेरा अपना लगता है। मैं पूछती हूँ उससे, ‘तुम क्यों आए अभी?’, वो कहता है, ‘तुम्हारे लिए, पागल, और किसके लिये। मुझे लगा तुमको मेरी ज़रूरत है।’

मेरी ज़रूरत। आख़िर को तुम्हें क्या चाहिए। मैं देखती हूँ, भगवान परेशान बैठे हैं…ये लड़की मेरे हाथ से बाहर है…इसको सब कुछ दे दो फिर भी ऐसे टीसती, दुखती, मेरे मन पर बरसती रहती है। हम भगवान से बकझक कर रहे हैं…एक आपके मन पर एक बस मेरे कलपने से इतना असर काहे पड़ता है, भर दुनिया का चिंता है आपको…क्या फ़र्क़ पड़ता है हमसे…अब हम मन भर उदास भी ना रहें? भगवान कहते हैं, तुमको यक़ीन नहीं होता है बेवक़ूफ़ लड़की, लेकिन तुम हमारी बहुत प्यारी हो…तुम्हारे क़िस्मत से जितना ज़्यादा हो पाता है, तुम्हारे हिस्से में सुख रखते हैं…लेकिन तुमको जाने क्या चीज़ का दरकार है…ठीक ठीक बताओ तो लिख भी दें तुम्हारे लिए…हम हँसते हुए उठ जाते हैं…प्रभु, रहने दीजिए हमको क्या चाहिए…आपसे नहीं हो पाएगा…

पिछली बार बहुत दुखाया था तो भगवान से ही कहे थे, हमारे दिल में मुहब्बत थोड़ी कम कर दो…हम नहीं जानते इस आफ़त का क्या करें।

इस बार दीवाली अक्तूबर के आख़िरी दिन थी। घर में पिछले महीने ही श्राद्ध-कर्म पूरा हुआ था इसलिए मन पर त्योहार का उल्लास नहीं, जाने वाले की आख़िरी फीकी उदासी थी।

नवम्बर मेरे लिये साल का सबसे मुश्किल महीना होता है। इसी महीने माँ चली गई थी। अगले कुछ सालों में वह वक़्त जो मैंने इस दुनिया में उसके बिना बिताया, उस वक़्त से ज़्यादा हो जाएगा जो मैंने उसके साथ बिताया। 

PTSD - पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर को कहते हैं। मुझे बहुत साल बाद समझ आया कि मुझमें इस ट्रामा के कारण उपजे स्ट्रेस से कुछ ख़ास डिसऑर्डर हो गये हैं और मुझे ख़ुद की रक्षा के लिए एहतियात बरतनी होगी। जैसे कि मुझे बाउंड्री/boundaries/सीमा-रेखा खींचनी नहीं आती। इंतज़ार किस लम्हे जा कर घातक हो जाता है, मुझे नहीं समझ में आता। इंतज़ार में मेरी जान जा सकती है, यह अतिशयोक्ति नहीं है। मुझे इंतज़ार से बेतरह घबराहट होती है। “The fatal definition of a lover is precisely this, I am the one who waits. - Roland Barthes” प्रेमी की यह परिभाषा मुझ पर एकदम सटीक बैठती है। हम बार बार इस fatal पर अटकते हैं, सोचते हैं कि यह कुछ और भी हो सकता था…लेकिन यह फेटल ही है…अच्छा पढ़ना हमें ख़ुद को बेहतर समझने में मदद करता है। और अच्छे दोस्त हम तक ऐसी किताबें पहुँचा देते हैं। दोस्त चाराग़र होते हैं। वे हमें जिलाये रखते हैं।
इंतज़ार के साथ दिक़्क़त ये भी है कि मेरे भीतर कोई घड़ी नहीं चलती। मुझे समय सच में एकदम समझ नहीं आता - किसी फाइनाइट टर्म में तो बिलकुल ही नहीं। हम ख़ुद किसी को कहेंगे कि बारह बजे मिलते हैं और हम उससे मिलने किसी भी समय जा सकते हैं…सुबह के दस बजे से लेकर शाम के चार बजे तक - होगा ये कि हम इस बीच के समय में बार-बार फ़ोन पर बताते रहेंगे कि हमको देर क्यों हो रही है…कारण कुछ भी हो सकता है…कौन सी साड़ी पहनें समझ नहीं आ रहा, समझ आने पर मैचिंग झुमका नहीं मिल रहा…कुछ भी अलाय-बलाय। 

हमें ख़ुद के लिए समझना पड़ता है कि हम नॉर्मल हैं नहीं, ऊपर से भले दिखते हों…लेकिन हमारी भीतरी बनावट में कुछ टूटा हुआ है। कि हमारे भीतर एक कच्चा ज़ख़्म है जो किसी और व्यक्ति को नहीं दिखता। इस चोटिल जगह पर हमें बार-बार चोट न लगे, इसलिए हमें एक काला धागा बाँधना होता है। हम यह भी समझते हैं कि कभी-कभी सिर्फ़ काले धागे से काम नहीं चलेगा तो हम एक जिरहबख्तर भी बाँध लेते हैं।
इक severe क़िस्म का दुखता हुआ इंतज़ार। एक बीमारी जैसा। एक फिजिकल ऐल्मेंट। हम कितना भी चाहें ख़ुद के भीतर चलते इस टाईम बम को रोक नहीं सकते। यह टिकटिक करते रहता है, उल्टी गिनती में। बेहिसाब…जब हम इंतज़ार करते हैं तो हमसे कुछ भी और नहीं होता। साँस लेना न भूल जाएँ, इस बात का डर लगता है। खाना नहीं खा सकते, नहा नहीं सकते, बाल नहीं झाड़ सकते तरतीब से। ऐसे बौखलाए, बौराये चलते हैं कि कोई देखे तो सीधे पागलखाने में भर्ती कर दे।
ये भी नहीं कि जिसका इंतज़ार है, उसको फ़ोन कर कर के हलकान कर दें…लेकिन जो बहुत प्यारे दोस्त हो गये हैं वे अब मुझे इंतज़ार करने को नहीं कहते। उन्हें पता है मैं मर जाऊँगी ऐसे किसी दिन, इस एंजाइटी में। लेकिन ये बता पाना भी तो मुश्किल है। क्या कहें, हमको इंतज़ार की बीमारी है…हो सके तो हमको इंतज़ार मत कराना।

मुझे बचपन से मीठा बहुत पसंद रहा है। आदतन हाथ मीठे की ओर बढ़ जाता है। लेकिन ज़ुबान को अब मीठा अच्छा नहीं लगता। आदत ब्लैक कॉफ़ी भी बना लेते हैं पीने के लिए। उसकी मीठी कड़वाहट ज़ुबान को अच्छी लगती है। यह इन दिनों मेरा फ़ेवरिट स्वाद है…उम्र के इस दौर में मुहब्बत ऐसी ही है, थोड़ी मीठी कड़वाहट लिए…ब्लैक कॉफ़ी।

वे दिन अच्छे होते हैं जब बेवजह का कोई दुख नहीं होता, जब सुबह सुबह सिर में दर्द नहीं होता। जब हम उठ कर परिवार के बीच सुबह की चाय बना कर की पाते हैं। ये नहीं कि हेडफ़ोन लगा लिये। काली कॉफ़ी बना लिये। और लॉन में आ के बैठ गये कि दिमाग़ में चटाई बम लगा हुआ है। जब तक लड़ी का सारा पटाखा फूट न जाये, कहीं चैन नहीं आएगा।

डियर ईश्वर, अपनी इस पागल लड़की पर थोड़ा प्यार ज़्यादा बरसाना।
अगली कहानी लिखने के पहले से मन दुख रहा है।

27 August, 2024

Random रोज़नामचा - वाइट मस्क

मनुष्य की पाँच इंद्रियों में एक स्पर्श है जिसकी नक़ल नहीं बनायी जा सकती। तस्वीर और वीडियो किसी को न देखने की भरपाई कर देते हैं। कोविड में हम लोग जो दिन भर घर में रहते थे, तो वीडियो कॉल करना आसान हो गया। किसी दोस्त को कह सकते हैं, वीडियो कॉल कर लें? पहले वीडियो कॉल एक त्योहार की तरह होता था, एक डेट की तरह जिसके लिये ना केवल तैयारी की जाती थी, बल्कि इत्तर वग़ैरह भी लगाये बैठते थे, कि जैसे ख़ुशबू जाएगी दूर तक। वीडियो कॉल की टेक्नोलॉजी तो बहुत साल पहले से थी लेकिन कंप्यूटर पर वेब-कैम लगाना, ख़राब इंटरनेट में धुंधली तस्वीर देखने में मज़ा नहीं आता था। अब तेज़ इंटरनेट के कारण एकदम साफ़ दिखता है चेहरा, आँखें…किसी का ठहरना भी। बात करते हुए स्क्रीनशॉट ले सकते हैं। FOMO कम होता है। दोस्तों के बच्चों को पैदा होने के बाद से लेकर कर साथ में पलते-बढ़ते वीडियो तस्वीर शेयर करते लगता है हमने देखा है उन्हें। यार दोस्त कहीं गये तो वहाँ की वीडियो भेज दी, वहाँ से वीडियो कॉल कर दिया, तेरी याद आ रही है बे। 

किसी जंगल से गुजरते हैं तो वक़्त ठहरता है और हम लौटते हैं। ठीक ठीक याद में कितने साल पीछे, मालूम नहीं। दार्जिलिंग। बारिश, सिंगल माल्ट। कोई ख़ुशबू कभी मिल जाती है कहीं अचानक से, सिगरेट पीते हुए, कैंडल की लौ से उँगली जलाने के ठीक पहले तो कभी रेगिस्तान की शाम में…रेत में पाँव डाले बैठे दूर से धुएँ की गंध आती है। किसी नयी जगह कोई पुरानी सब्ज़ी खा रहे होते हैं और लगता है कि बचपन में पहुँच गये, या कि किसी दोस्त ने कौर तोड़ कर मुँह में खिला दिया और किसी पिछले जन्म तक का कुछ याद आ गया। 

सिर्फ़ एक स्पर्श है, जो कहीं नहीं मिलता। दुबारा कभी।

किसी के हाथों को रेप्लीकेट नहीं कर सकते। हाथों की गर्माहट, दबाव, नरमाई…कुछ नहीं मिलता कभी, कहीं फिर। हम हम क्या इसलिए तुम्हें नींद में टटोलते चलते हैं? इसलिए देर रात भले एक पोस्टकार्ड, भले एक पन्ने की चिट्ठी, मगर लिखते हैं तुम्हारे नाम। कि उस काग़ज़ को छू कर तुम्हें यक़ीन आये कि इस हैंडराइटिंग का एक ही मतलब है, ये पागल लड़की इस काग़ज़ को हाथ में लिए सोच रही थी, सफ़र करती हूँ तो भी तुम्हारा शहर रास्ते में नहीं मिलता। किसी के लिये कोई साड़ी ख़रीदना, कभी कोई रूमाल काढ़ना, कभी कोई स्कार्फ भेज देना…इतना हक़ बनाये रखना और इतने दोस्त बनाए रखना। आज सुबह लल्लनटॉप के एक वीडियो का क्लिप देखा जिसमें सलाह दी जा रही है कि किताब ख़रीद के पढ़ें, माँग के नहीं। हम किताब माँग के भी खूब पढ़े हैं और ख़रीद के भी। अपनी किताब आपने को पढ़ने को दी है, तो आपका एक हिस्सा साथ जाता है। किसी की पढ़ी हुई किताब पढ़ना, मार्जिन पर के नोट्स देखना। यह जीवन का एक अनछुआ हिस्सा है। अगर वाक़ई आपने कभी माँग के किताब नहीं पढ़ी, या आप इतने लापरवाह हैं कि दोस्त आपको किताब उधार नहीं देते तो आप जीवन में कुछ बहुत क़ीमती मिस कर रहे हैं। 

कपड़ों की छुअन। मैं जो अनजान शहर में तुम्हारे शर्ट की स्लीव पकड़ कर चलती थी। या किसी कहानी में किसी किरदार के सीने पर सर रखे हुए जो कपास या लिनेन गालों से छुआया था। किसी ने कभी गाल थपथपाया। कभी बालों में उँगलियाँ फ़िरा दीं। किसी ने hug करते हुए भींच लिया और हम जैसे उस ककून में लपेट रहे ख़ुद को, सिल्क में लपेटी शॉल की तरह। मेले में फिरते रहे आवारा, दोनों हाथों में दो तरफ़ दो दोस्तों के बीच, स्कूल की silly वाली दोस्ती जैसी। हम जो फ़िल्मों में देख हैं, किसी के सीने पर हाथ रख कर दिल की धड़कन को महसूस करना…नब्ज़ में बहता खून भागते हुए रुक-रुक सुनना, उँगलियों से। किसी का माथा छू कर देखना, बुख़ार कम-ज़्यादा है या है ही नहीं। 

स्पर्श की डिक्शनरी नहीं होती। हम अपने हिस्से के स्पर्श उठाते चलते हैं। मैं अलग अलग शहरों में हथेली खोले घूमती हूँ, इमारत, फूल-पौधे, स्टील की रेलिंग, दीवारें…सब कुछ स्पर्श की भाषा में भी दर्ज होता है मन पर। 

मैं याद में भटकती हूँ…

याद तो कभी कभी आनी चाहिए ना? दिन भर याद साथ चलती हो तो आना-जाना थोड़े कहते हैं। कभी लगता है याद कभी जाये भी। हम अपने प्रेजेंट में प्रेजेंट रहें, एबसेंट नहीं। एबसेंट-माइंडेड नहीं।

आज सुबह नया परफ्यूम ख़रीदा, Mont Blanc का Signature. दुकान में कहा कुछ मस्क चाहिए, तो उसने कहा ये White Musk है. एक बार में अच्छा लगा, तो ले आये। कलाई पर लगाये। उँगलियों के पोर पर सुबह जो खाये, सो खाये नारंगी छीलने की महक रुकी हुई थी। लिखने के पहले हथेलियों से चेहरा ढक लेने की आदत पुरानी है। अंधेरे में वो दिखता है जो आँख खोलने पर ग़ायब हो जाता है। हम जाने किस खुमार में रहते हैं सुबह-सुबह। पुराना इश्क़ है, आदत की तरह। आज सुबह सोच रहे थे, कुछ पिछले जन्म का होगा बकाया, इतना कौन याद करता है किसी को। इक छोटी सी नोटबुक है, उसमें बहुत कम शब्द हैं, लेकिन उन बहुत कम और बहुत प्यारे दोस्तों के हाथ से लिखे हुए जो शायद कई जन्म से साथ-साथ चल रहे हैं। 

फ़िराक़ साहब कह गये हैं, न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद मगर हमें तो तिरा इंतज़ार करना था।’

मुहब्बत शायद कम-बेसी होती रहती है। लेकिन इंतज़ार लगातार बना रहता है। अक्सर भी, हमेशा भी।

15 August, 2024

अस्थिर पानी जैसा मन…आँख में चुभता, लेकिन बहता नहीं



मेरे पास उसे देने को कुछ भी नहीं था। 
मेरे पास देने को उसके काम भर का कुछ भी नहीं था।
एक समय में मेरे पास बहुत सी कहानियाँ होती थीं। एक समय में मेरे पास ये गुमान भी होता था कि मेरी कहानियाँ लोग पढ़ना चाहते हैं। कि इन कहानियों का कोई मोल है।
अब मेरे पास कहानियाँ और वो गुमान, दोनों नहीं है। अब मेरे शब्द कोरे शब्द रह गये हैं।

मेरे पास चिट्ठियाँ लिखने भर मन अब भी बचा हुआ है। मेरा मन करता है मैं खूब चिट्ठियाँ लिखूँ। सुबह, शाम, दिन रात…मेरे पास समय ही समय हो…आसमान को खुलती खिड़की, बाहर बारिश, भीतर थोड़ी गर्मी हो…पाँव में मोजे हों…एक कैंडल हो, ख़ुशबूदार…पेरिस कैफ़े…जिससे गहरी, तीखी कॉफ़ी की ख़ुशबू आये…हथेलियों में भर जाये। सिगरेट और कैंडल जलाने को माचिस हो…माचिस के जलने की आवाज़ हो…तीली पर लपकती हुई आये लपट…उँगली जलने के पहले फूंक मारते हुए खींचें तीली को तेज़ी से…और फेंकें बारिश से गीले फ़र्श पर।

लिखें बे-तारीख़ चिट्ठियाँ। लिखें उल्टे-सीधे नोट्स। जायें किसी कम
साँस वाले शहर और वहाँ जागे रहें पूरी रात और लिख पायें छोटी सी चिट्ठी। कि इस कच्चे पहाड़ों वाली जगह साँस नहीं आती ठीक से। फिर याद कैसे आती है ऐसे बेतरह। दूर दूर तक सुनसान पहाड़ हैं। दोपहर के समय इस ऊँची मोनेस्ट्री में एकदम ख़ाली है पूजा करने की यह जगह। बहुत साल पुरानी है। यहाँ की धुंधली धूप और अजनबी गंध में घिरे हुए मैं अपने वर्तमान में थी। सब कुछ देखती- सोचती। कि जीवन से कितनी दूर चलते जाते हैं पैदल…ध्यान करने को ऊँचे पहाड़ में दिखती है एक छोटी सी मोनेस्ट्री। कोई बौद्ध भिक्षु आता होगा कभी अकेले। जाने कितनी दूर से सफ़र करते हुए। सड़क के साथ बह रही होती है सिंधु नदी। मैं उसके झंडियों वाले पुल पर दौड़ती हुई आती हूँ, कैमरे की ओर…

इतनी शांत, सुनसान जगहों में याद उंगली थामे चलती है। मैं बुद्ध के आगे हाथ जोड़ती हूँ। वहाँ सिर्फ़ पानी चढ़ाया(अर्पित किया) गया है। कटोरियों में रखा एकदम शुद्ध पानी। थिर पानी, कि देख के लगे कि कटोरी ख़ाली है। कि देने वाले के मन में कोई अहंकार न आए।

मुझे ध्यान आता है। प्रेम ऐसा ही है मन में। तुमसे है। लेकिन ये प्रेम मन में बहती नदी का पानी है। साफ़। मीठा। और तुम्हारे हिस्से निकाल लेने में कोई अहंकार नहीं है। मैंने कोई बड़ी चीज़ नहीं लिखी है तुम्हारे नाम।

I belong to no where, and to no one.

हम सफ़र के लोग। होटलों में बिछी सफ़ेद चादर और सफ़ेद कोरा काग़ज़ देखते ही खुश हो जाने वाले लोग। हमने जो चाहा कि कभी हो कोई जगह जहाँ लौट सकें, हो कोई शख़्स जिसे हमारा भी ख़्याल रहे। हमारे ज़िम्मे था घर बनाना…बसाना…हम जो अपनी कोशिश में हारे, टूटे हुए लोग हैं…हमारा क्या हो!

प्यार हमारी ज़िंदगी का हिस्सा न हो पाये, इससे उदास एक ही बात होती है…कि मुहब्बत मिल जाये हमें…हमारे रोज़मर्रा में शामिल हो और एक दिन हौले हौले हवा हो जाये। वाक़ई, इससे बड़ी ट्रेजेडी दुनिया में कुछ नहीं होती।

हज़ार फ़ैसलों में उलझे हुए हम। छोटे छोटे काम। प्लंबर बुलाना। गाड़ी ठीक होने के बाद ड्राइवर को लोकेशन भेजना। फूल ख़रीदना। सजाना। कपड़े धोना, कपड़ों को छाँटना। बच्चों के हज़ार काम। वैक्सिनेशन। पार्किंग। एक बेहद तनहा शहर। बैंगलोर।

क्या मैं अकेली ऐसी औरत हूँ जिसे इतना अकेला लगता है?
हमारे पूरे generation को हमारी माँओं ने सिखाया कि ठीक से लिख-पढ़ लो, नहीं तो हमारी तरह चूल्हा-चौका करती रह जाओगी। हमें किसी ने नहीं बताया कि जब हमें ये कह रही थीं हमारी मम्मियाँ तो लड़कों को उनकी माँओं ने घर का थोड़ा-बहुत काम नहीं सिखाया कि तुम्हारी पत्नी जीवन में कुछ करना चाहेगी और इसलिए नहीं कर पाएगी कि ये घर जो कि तुम दोनों का होना चाहिए था, उस का कुछ भी काम नहीं आता तुम्हें।

Are the other women less bitter? Have they made peace with managing a house and bringing up children? How do they build a better life for their family and yet have the time and mental space to do what brings them joy.

Women. Who cares for them?
कौन रखता है उनका ख़्याल? ख़ुद का ख़्याल रखते रखते जब वे थक जाती हैं।
जो भेजता है ज़रा सा उनके लिए किसी शहर की धुंध…किसी शहर की बारिश…किसी शहर से मेपल का लाल पत्ता…किसी शहर का स्नो-ग्लोब…कहीं की गिरी बर्फ़…किसी शहर की धूप…

वे दोस्त…वे जान से प्यारे लोग जो उसे पागल हो जाने से बचाये रखते हैं। मिलते हैं ज़रा ज़रा। कभी सात साल में एक बार…किसी शोरगर शहर में, भटकते हैं इर्द-गिर्द…

कभी साल में दो चार बार…पीते हैं सिगरेट-व्हिस्की-कॉफ़ी-हुक्का…रचते हैं धुएँ से शहर…बनाते हैं हथेली पर मुस्कान उँगलियों से…लिखते हैं नोटबुक में छोटा सा नोट…बे-तारीख़। 

कि जिन्हें किताब लिखनी थी, फ़िल्में बनानी थीं।
हमने गिल्ट की फैक्ट्री खोल ली और दिन रात अपने किए-अनकिये-सोचे-अनहुए - गुनाहों की सज़ा ख़ुद को देते जाते हैं।

हम बेसलीका लोग हैं। हिसाब के कच्चे। हमसे हिसाब मत माँगो।

***
मुझे पहली बार अपने हिस्से के लोग ब्लॉग पर मिले। मेरे जैसे। पढ़ने, लिखने, ख़्वाब-ख़्याल की दुनिया में जीने वाले।

मॉनेट और पिकासो और पॉलक को देखने समझने मुहब्बत करने वाले लोग।

मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले, जिन्होंने लगातार मुझे पढ़ा। कहा, कि किताब लिखो, छपवाओ। हमने छपवा भी दी। पेंगुइन से। हमको डर नहीं था। हमको उम्मीद थी कि चार लोग मेरे पहचान के पढ़ लें, काफ़ी है। बाक़ी पेंगुइन का सरदर्द है। साथ के कुछ और लोगों की किताब आयी, एक आध।

फिर जाने कैसे सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गये। उनके लिए लिखना ज़िंदगी का एक हिस्सा भर था।
मेरे लिये लिखने के सिवा कुछ था ही नहीं कभी।

मैं उन्हें मिस करती हूँ। बेतरह। उनका लिखा तलाशती हूँ। कि जैसे बचपन में खोयी कोई ख़ुशबू।
कभी-कभार कोई पोस्ट होती है ब्लॉग पर, कभी फ़ेसबुक प्रोफाइल पर। पेज पर। मुझे लगता है ज़िंदगी में वो जो ज़रा सा जादू मिसिंग था, वो मिल गया है फिर से।

दुनिया भर की किताबें पढ़ने वाले हम, ये चंद साल की ब्लॉगिंग में बर्बाद हो गये। कि अब किसी किताब को पढ़ कर उसके लेखक से मिलने का मन करता है। उसके साथ चाय-सिगरेट पीने का मन करता है। खाना खाने का मन करता है। मंटों के कब्र पहुँच कर वो मिट्टी माथे से लगा पायें, इतना भर काफ़ी होता एक समय मेरे लिये। लेकिन अब सोचते रहते हैं, निर्मल की चिट्ठी है एक दोस्त के पास…कोई एक दोस्त एक समय मानव कौल को बहुत पढ़ता था और जा कर उस से मिल के आया था। हम मुराकमी को पढ़ते हैं, खूब पढ़ते हैं और सोचते हैं उस जैज़ बार के बारे में जिसमें काम करते हुए वो रात के तीन बजे तक रोज़ लिखता था। लगातार। हम पढ़ते हैं Bukowski को, और सोचते हैं कि एक कविता में वो कहता है, कि अगर कविता हम तक पहुँच गई है…हम उसे पढ़ रहे हैं, इसका मतलब, he made it. Doctor Who के एक एपिसोड में वैन गो को टाइम मशीन में आगे लेकर आता है और एक म्यूजियम में उसकी पेंटिंग लगी है, उसके बारे में अच्छी बातें कह रहा है म्यूजियम का क्यूरेटर। कला से हम कभी कभी ये उम्मीद भी करते हैं कि कोई अच्छी तस्वीर हमारे मन में रहे, झूठी भी चलेगी।

हम अपने सपनों में मंटो से मिलते हैं। रेणु से। तीसरी क़सम वाला गाँव हमें दिखता है। हम भी अपने मन में खाते हैं क़समें…ये गुनाह न करेंगे कि पढ़ के किसी लेखक को तलाश लिया…देखा कि ज़िंदा है अभी…रहता है किसी ऐसे शहर में जो हमारी पहुँच से बहुत दूर नहीं है…हम पैदल चलते हैं प्राग में…निर्मल की ‘वे दिन’ वाला प्राग। हम सोचते हैं कि कैसी होगी नदी, जिसके बहने की आवाज़ होती है, ‘डार्क ऐंड डीप’।

बिगड़ गए हम। हमारे प्यारे लेखकों ने नास दिया हमको, माथा चढ़ा के…

दुनिया भर में 60 crore लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। साल 2023-24 के बजट में भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए 300 crore की राशि निर्धारित की है। आँकड़ों वाली इस दुनिया में किसी किताब के पहले एडिशन में 1100 कॉपीज़ छपती हैं। एक लेखक की रॉयल्टी पेंगुइन जैसे प्रकाशन के साथ 7.5% होती है। standard agreement के हिसाब से।

हम इस आँकड़े के लिए नहीं लिखते। हम पैसों के लिए भी नहीं लिखते। 

हम लिखते हैं कि किसी दिन इतरां जैसा कोई किरदार ख़्याल में उभरता है और हमसे कहता है कि लोगों को हमारी कहानी सुनाओ। हमको लगता है शायद दुनिया में लोगों को वैसी कहानियाँ अच्छी लगेंगी।

कभी कभी हम उदास होते हैं वाक़ई। कि किताबें ख़रीदी जाती हैं तो भरोसा होता है कि किताबें लिखी जानी चाहिए।
किसके लिए लिखे कहानी? कौन पढ़ेगा। क्यों पड़ेगा। short term memory, short attention span है दुनिया का। सबका ही। This is the way of life, now. 
फिर लगता है…
और क्या हज़ार पाँच सौ छोड़ो, क्या एक व्यक्ति को भी अपने दुख से उबार लेती है कहानी तो उसे लिखना नहीं चाहिए?

18 July, 2024

सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?


उसकी तस्वीर देखती हूँ। दिल में ‘धक’ से लगा है कुछ।

ब्लैक एंड वाइट तस्वीर है। मैं याद में उस तस्वीर के रंग तलाशती हूँ। उनकी आँखें कैसी लगती हैं धूप में? कैमरे के लेंस से उन्हें जी भर देखना चाहती हूँ। रुक के। फ्रेम सेट करने के लिए लेकिन ज़रूरी है कि धूप में हल्की सुनहली हुई उनकी आँखों के अलावा जो पूरा शख़्स है, वो फ्रेम में कितना फिट हो रहा है, ये भी देखूँ।

आँखों का कोई एक रंग नहीं होता। धूप में कुछ और होती हैं, चाँदनी में कुछ और। दिन में कुछ और, रात में कुछ और। प्रेयसी के सामने कुछ और, ज़माने के लिए कुछ और। ब्लैक ऐंड व्हाइट कैमरे में जो नहीं पकड़ आता, वो भी तो एक रंग होता है…सलेटी का कौन सा शेड है वो? डार्क ग्रे आइज़। मन फ़िल्म वाले कैमरे से उनकी तस्वीर खींचना चाहता है। निगेटिव में देखना चाहता है उन पुतलियों को…मीडियम के हिसाब से बदलते हैं रंग। उस नेगेटिव में स्याह सफ़ेद दिखता है और सफ़ेद स्याह। अच्छा लगता है कि मैंने फोटोग्राफी सीखने के दरम्यान डेवलपिंग स्टूडियो में बहुत सा वक़्त बिताया था। मैं याद में अपने प्रेजेंट की घालमेल करती हूँ। स्टूडियो में सिर्फ़ लाल रंग का बल्ब जलता है। लाल। मेरे दिल में धड़कता…मुहब्बत भरा…उस नाम में, उस रंग में रौशन। मैं निगेटिव लिए खड़ी हूँ, उसे डिवलप करते हुए मेरे पास ऑप्शन है कि मैं उन आँखों को थोड़ा गहरा या थोड़ा हल्का बना दूँ…मैं चुन सकती हूँ अपनी पसंद का ग्रे। मैं पॉज़िटिव को डेवलपर के घोल में डालती हूँ। सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?

कब खींची थी मैंने ये तस्वीर? याद नहीं आ रहा। लेकिन उन आँखों में चमकता हुआ एक सितारा है, इसे मैं पहचानती हूँ। मुहब्बत के नक्षत्र में जब इसका उदय हुआ था, तब इसका नामकरण मैंने ही किया था। यह सितारा मेरे नाम का है। मेरा अपना। जब कभी राह भटकती हूँ और ख़्यालों की दुनिया में ज़्यादा चलते हुए पाँव थक जाते हैं तो यह सितारा मुझसे कहता है, पूजा, यहाँ आओ। मेरे पास बैठो। यह तुम्हारे ठहरने की जगह है। यहाँ रहते हुए तुम्हें कहीं और भाग जाने का मन नहीं करेगा।

विलंबित लय में गाते हैं तो ताल साथ में सुनते हैं…लयकारी में आलाप लेते हुए ध्यान रखते हैं कि कहाँ पर ‘सम’ है। क्योंकि वहीं सब ख़त्म करना होता है। फिर से नया सुर उठाने के पहले।

सम सैंड ड्यून। पहली बार सुना था, तब से कई बार सोचा है कि क्यों उसका नाम सम है। मगर सिर्फ़ सोचा है, पूछा नहीं है। आजकल आसान है न सब कुछ जान लेना। गूगल कर लो, किसी दोस्त से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। ऐसे में किसी सवाल का जवाब नहीं चाहना। सिर्फ़ सवाल से मुहब्बत करना।

मुहब्बत। हमारे लिए सवाल नहीं है। स्टेटमेंट है। एक साधारण सा वाक्य। इसके साथ बाक़ी दुख नहीं आते सवालों की शक्ल में। ‘हमें आपसे मुहब्बत है’। There is a finality to love that I find hard to explain. Like the desire to keep typing every time I open my iPad and start writing something.

आज बहुत बहुत दिन बाद इत्मीनान की सुबह मिली थी। ऐसी सुबहें रूह की राहत होती हैं।

कभी कभी ऐसे में किसी को वीडियो कॉल करने का मन करता है। पर्दे हवा में नाच रहे हों। कभी जगजीत सिंह, तो कभी नुसरत बाबा की आवाज़ हो…कोई ग़ज़ल, कोई पुराना गीत…मद्धम बजता रहे, राहत की तरह। बहुत तेज़ हवा बह रही है, पर्दे हवा में नाच रहे हैं। हल्की धूप है। मैं सब्ज़ियाँ काटते काटते कभी उधर देख लेती हूँ। मन हल्का है।

खाना बनाते हुए उनकी याद क्यों आती है अभी फ़िलहाल? हमने जिनके साथ जीवन के बहुत कम लम्हे बिताये हों, उनके सिर्फ़ कुछ चंद फ़ोन-कॉल्स में उनके हिस्से का आसमान-ज़मीन सुना हुआ, देखा हुआ कैसे लगता है। हमारी मुहब्बत क़िस्सा-कहानी है। कविता है। डायरी है।

मैं मशरूम पास्ता बनाती हूँ अपने लिए। सोचती हूँ, किसी के ख़्याल और मुहब्बत में गुम। मुहब्बत में कितनी सारी जगह होती है। हमको बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता। शौक़िया ही बनाते हैं। लेकिन इस कम खाना-बनाने खिलाने में भी हमारे हाथ का आलू पराठा और चिनियाबदाम की चटनी वर्ल्ड फ़ेमस है। कभी कभी इस फ़िरोज़ी किचन में खड़े होकर सोचते हैं। और कुछ हो न हो, मेरे दोस्तों को एक बार यहाँ आना चाहिए। और हमको उनके लिए आलू पराठा और चटनी बनानी चाहिए। इसके बाद एक कप नींबू की चाय हो, आधी-पूरी, मूड के हिसाब से। या फिर कॉफ़ी। सिगरेट हो। बातें हों। चुप्पी हो।

और अगर हम दोनों के दिल में लगभग बराबर-बराबर मुहब्बत या दोस्ती या लगाव हो…तो बारिश होती रहे, आसमान में सलेटी बादल रहें और हम इस सुकून में रहें कि दुनिया सुंदर है। जीने लायक़ है।

कि जिस घर का नाम Utopia है, जिसका होना नामुमकिन है। वो है। सच में। मेरा अपना है।

16 May, 2024

क्या करें लिखने के कीड़े का? मार दें?

कितना मज़ा आता है ना सोचने में, कि भगवान जी ने हमको बनाया ही ऐसा है, डिफेक्टिव पीस। लेकिन भगवान जी से गलती तो होती नहीं है। तो हमको अगर जान-बूझ के ऐसा बनाया है कि कहीं भी फिट नहीं होते तो इसके पीछे कोई तो कारण होगा। शायद कुछ चीज़ें ऐसे ही रैंडम होती हैं। किसी ऐसे मशीन का पुर्ज़ा जो कब की टूट चुकी है। हम सोचते रहते हैं कि हमारा कोई काम नहीं है…कितनी अजीब चीज़ है न कि हम उपयोगी होना चाहते हैं। कि हमारा कोई काम हो…कि हमसे कुछ काम लिया जा सके। हम अक्सर सोचते हैं कि हम किसी काम के नहीं हैं, लिखने के सिवा। क्योंकि लिखना असल में कोई क़ायदे का काम है तो नहीं। उसमें भी हम किसी टारगेट ऑडियंस के लिये तो लिखे नहीं। लिखे कि मन में चलता रहता है और लिखे बिना चैन नहीं आता। हमसे आधा-अधूरा तो होता नहीं। लिखना पूरा पूरा छोड़े रहते हैं क्योंकि मालूम है कि लिखना एक बार शुरू कर दिये तो फिर चैन नहीं पड़ेगा, साँस नहीं आएगी…न घर बुझायेगा, ना परिवार, ना बाल-बच्चा का ज़रूरत समझ आएगा। मेरी एकदम, एकमात्र प्रायोरिटी एकदम से लिखना हो जाती है।

अभी कलकत्ता आये हुए हैं…भाई-भौजाई…पापा…मेरे बच्चे, उसके बच्चे…सब साथ में गर्मी छुट्टी के मज़े ले रहे हैं। हमको भर दिन गपियाने में मन लग रहा है। आम लीची टाप रहे हैं सो अलग। मौसम अच्छा है। रात थोड़ी गर्म होती है हालाँकि, लेकिन इतनी सी गर्मी में हमको शिकायत मोड ऑन करना अच्छा नहीं लगता।

सब अच्छा है लेकिन लिखने का एक कीड़ा है जो मन में रेंगता रहता है। इस कीड़े को मार भी नहीं सकते कि हमको प्यारा है बहुत। इसके घुर-फिर करने से परेशान हुए रहते हैं। मन एकांत माँगता है, जो कि समझाना इम्पॉसिबल है। कि घर में सब लोग है, फिर तुमको कुछ इमेजिनरी किरदार से मिलने क्यूँ जाना है…हमको भी मालूम नहीं, कि क्यों जाना है। कि ये जो शब्दों की सतरें गिर रही हैं मन के भीतर, उनको लिखना क्यों है? कि कलकत्ता आते हैं तो पुरानी इमारतें, कॉलेज स्ट्रीट या कि विक्टोरिया मेमोरियल जा के देखने का मन क्यों करता है…देखना, तस्वीर उतारना…क्या करेंगे ये सब का? काहे ताँत का साड़ी पहन के भर शहर कैमरा लटकाये पसीना बहाये टव्वाने का मन करता है। इतना जीवन जी लिये, अभी तक भी मन पर बस काहे नहीं होता है? ये मन इतना भागता काहे है?

वो दोस्त जो शहर में है लेकिन अभी भी शहर से बाहर है, उसको भर मन गरिया भी नहीं सकते कि अचानक से प्रोग्राम बना और उसको बताये नहीं। एक पुरानी पड़ोसी रहती थीं यहीं, अभी फिर से कनेक्ट किए तो पता चला कि दूसरे शहर शिफ्ट हो गई हैं। कितने साल से लगातार आ रहे कोलकाता लेकिन अभी भी शहर अजनबी लगता है। कभी कभी तो खूब भटकने का मन करता है। दूसरे ओर-छोर बसे दोस्तों को खोज-खाज के मिल आयें। कैमरा वाले दोस्तों को कहें कि बस एक इतवार चलें शूट करने। भाई को भी कहें कि कैमरे को बाहर करे…बच्चों को दिखायें कि देखो तुम्हारी मम्मी सिर्फ़ राइटर नहीं है, फोटोग्राफर भी है। सब कुछ कर लें…इसी एक चौबीस घंटे वाले दिन में? कैसे कर लें?

यहाँ जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ कुछ तो विवाद होने के कारण बिल्डर ने इमारतें बनानी बंद कर दीं। देखती हूँ अलग अलग स्टेज पर बनी हुई बिल्डिंग…कुछ में छड़ें निकली हुई हैं, कुछ में ढाँचा पूरा बन गया है खिड़कियाँ खुली हुई हैं…उनमें से कई टुकड़े आसमान दिखता है। मुझे अधूरापन ऐसे भी आकर्षित करता है। मैं हर बार इन इमारतों को देखते हुए उन परिवारों के बारे में सोचती हूँ जिन्होंने इन घरों के लिए पैसे दिए होंगे…कितने सपने देखे होंगे कि ये हमारा घर होगा, इसमें पूरब से नाप के इतने ग्राम धूप आएगी…इसकी बालकनी में कपड़े सूखने में इतना वक़्त लगेगा…कि इस दरवाज़े से हमारे देवता आयेंगे कि हम मनुहार करके अपने पुरखों को बुलाएँगे…कि यहाँ से पार्क पास है तो हमारे बच्चे रोज़ खेलने जा सकेंगे…कि हमारे पड़ोसी हमारे दोस्त पहले से हैं…एक अधूरी इमारत में कितने अधूरे सपने होते हैं। 

Among other things, इन दिनों जीवन का केंद्रीय भाव गिल्ट है…चाहे हमारी identity के जिस हिस्से से देखें। एक माँ की तरह, एक थोड़ी overweight औरत की तरह, एक लेखक कि जो अपने किरदारों को इग्नोर कर रही है…उसकी तरह। लिखना माने बच्चों को थोड़ी देर कहीं और छोड़ के आना…उस वक़्त ऐसे गुनहगार जैसे फीलिंग आती है…घर रहती हूँ और किरदार याद से बिसरता चला जाता है, मन में दुखता हुआ…बहुत खुश होकर कुछ खूब पसंद का खा लिया तो अलग गिल्ट कि वज़न बढ़ जाएगा…हाई बीपी की दवाइयाँ दिल को तेज़ धड़कने से रोक देती हैं। पता नहीं ये कितना साइकोलॉजिकल है…लेकिन मुझे ना तेज़ ग़ुस्सा आता है, ना मुहब्बत में यूँ साँस तेज़ होती है। ये भी समझ आया कि ग़ुस्सा एक शारीरिक फेनोमेना है, मन से कहीं ज़्यादा। ब्लड प्रेशर हाई होने से पूरा बदन थरथराने लगता है…खून का बहाव सर में ऐसा महसूस होता है जैसे फट जाएगा…अब मुझे ग़ुस्सा आता है तो शरीर कंफ्यूज हो जाता है कि क्या करें…मन में ग़ुस्सा आ तो रहा है लेकिन बदन में उसके कोई सिंपटम नहीं हैं…जैसे भितरिया बुख़ार कहते हैं हमारे तरफ़। कि बुख़ार जैसा लग रहा है पर बदन छुओ तो एकदम नॉर्मल है। उसी तरह अब ग़ुस्सा आता भी है तो ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी की फ़िल्म में ग़लत बैकग्राउंड स्कोर बज रहा है…यहाँ डांस बीट्स की जगह स्लो वायलिन प्ले होने लगी है। दिल आहिस्ता धड़क रहा है।

क्या मुहब्बत भी बस खून का तेज़ या धीमा बहाव है? कि उन्हें देख कर भी दिल की धड़कन तमीज़ नहीं भूली…तो मुहब्बत क्या सिर्फ़ हाई-ब्लड प्रेशर की बीमारी थी…जो अभी तक डायग्नोज़ नहीं हुई? और इस तरह जीने का अगर ऑप्शन हो तो हम क्या करेंगे? कभी कभी लगता है कि बिना दवाई खाये किए जायें…कि मर जाएँ किसी रोज़ ग़ुस्से या मुहब्बत में, सो मंज़ूर है मुझे…लेकिन ये कैसी ज़िंदगी है कि कुछ महसूस नहीं होता। ये कैसा दिल है कि धड़कन भी डिसिप्लिन मानने लगी है। इस बदन का करेंगे क्या हम अब? कि हाथों में कहानी लिखने को लेकर कोई उलझन होगी नहीं…कि हमने दिल को वाक़ई समझा और सुलझा लिया है…

तो अब क्या? कहानी ख़त्म? 

आज कलकत्ता में घर से भाग के आये। बच्चों को नैनी और घर वालों के भरोसे छोड़ के…कि लिखना ज़रूरी है। कि साँस अटक रही है। कि माथा भाँय भाँय कर रहा है। कि स्टारबक्स सिर्फ़ पंद्रह मिनट की ड्राइव है और शहर अलग है और गाड़ी अलग और रास्ता अलग है तो भी हम चला लेंगे। कि हम अब प्रो ड्राइवर बन गये हैं। भगवान-भगवान करते सही, आ जाएँगे दस मिनट की गाड़ी चला कर। कि हमारी गाड़ी पर भी अर्जुन की तरह ध्वजा पर हनुमान जी बैठे रहते हैं रक्षा करने के लिए। हनुमान जी, जब लड्डू चढ़ाने जाते हैं तो बोलते हैं, तुम बहुत काम करवाती हो रे बाबा! तुम्हारा रक्षा करते करते हाल ख़राब हो जाता है हमारा, तुम थोड़ा आदमी जैसा गाड़ी नहीं चला सकती? कौन तुमको ड्राइविंग लाइसेंस दिया? 

सोचे तो थे कि ठीक एक घंटा में चले आयेंगे। लेकिन तीन बजे घर से निकले थे और साढ़े पाँच होने को आया। अब इतना सा लिख के घर निकल जाएँगे वापस। लिख के अच्छा लग रहा है। हल्का सा। आप लोग इसे पढ़ के ज़्यादा माथा मत ख़राब कीजिएगा। जब ब्लॉग लिखना शुरू किए थे तो ऐसे ही लिखते थे, जो मन सो। वैसे आजकल कोई ब्लॉग पढ़ता तो नहीं है, लेकिन कुछ लोगों के कमेंट्स पढ़ के सच में बहुत अच्छा लगता है। जैसे कोई पुराना परिचित मिल गया हो पुराने शहर में। उसका ना नाम याद है, न ये कि हम जब बात करते थे तो क्या बात करते थे…लेकिन इस तरह बीच सड़क किसी को पहचान लेने और किसी से पहचान लिये जाने का अपना सुख है। हम उस ख़ुशी को थोड़ा सा शब्दों में रखने की कोशिश करते हैं।

कुछ देर यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड्स लिखे। कुछ दोस्तों को। कुछ किरदारों को। कुछ ज़िंदगी को।

***




बहुत दिन बाद एक शब्द याद आया…हसीन।

और एक लड़का, कि जो धूमकेतु की तरह ज़िंदगी के आसमान पर चमकता है…कई जन्मों के आसमान में एक साथ…अचानक…कि उस चमक से मेरी आँखें कई जन्म तक रोशन रहती हैं…कि रोशनी की इसी ऑर्बिट पर उसे भटकना है, थिरकना है…और राह भूल जाना है, अगले कई जन्मों के लिए।

17 November, 2023

Emotional anaesthesia

एक हफ़्ते पहले डेंटिस्ट के पास गयी थी। डेंटल सिरदर्द पूरी उमर चलता रहा है। बहुत कम वक्त हुआ है कि दांतों में कोई दिक्कत न रही हो और दोनों ओर से ठीक-ठीक चबा कर खाना खा सकें। कैविटी थी बहुत सारी, इधर उधर, ऊपर नीचे…ग़ालिब की तरह, एक जगह हो तो बताएँ कि इधर होता है।

डेंटिस्ट ने पूछा, अनेस्थेसिया का इंजेक्शन देना है कि नहीं। तो हम बोले, कि ऑब्वीयस्ली देना है। कोई बिना अनेस्थेसिया के इंजेक्शन के क्यूँ ये काम कराएगा, क्या कुछ लोगों को दर्द अच्छा लगता है? इसपर डेंटिस्ट ने कहा, कभी कभी दर्द बहुत ज़्यादा नहीं होता है, बर्दाश्त करने लायक़ होता है।
अब ये बर्दाश्त तो हर व्यक्ति का अलग अलग होता है, सो होता ही है। मुझे ये भी महसूस हुआ कि उमर के अलग अलग पड़ाव पर हमारे दर्द सहने की क्षमता काफ़ी घटती-बढ़ती रहती है। 2018 में महीनों तक मुझे घुटनों में बहुत तेज़ दर्द रहा था। रात भर चीखते चीखते आख़िर को चुप हो गयी थी, तब लगा था, इससे ज़्यादा दर्द हो ही नहीं सकता। फिर 2019 में बच्चे हुए। सिज़ेरियन एक बड़ा ऑपरेशन होता है, उसमें भी मेरे जुड़वाँ बच्चे थे। जब तक ख़ुद के शरीर में ना हो, कुछ चीज़ें सेकंड हैंड एक्स्पिरीयन्स से नहीं समझ सकते। जब पेनकिलर का असर उतरा था, तो लगा था जान निकल जाएगी, ये भी लगा था, इतना दर्द होता है, फिर भी कोई औरत दूसरा बच्चा पैदा करने को सोचती भी कैसे है। यह सोचने के दो दिन बाद मेरी दूसरी बेटी NICU, यानी कि Neonatal ICU से निकल कर आयी थी और पहली बार दोनों बेटियों को एक साथ देखा, तो लगा, यह ख़ुशी एक अनेस्थेसिया है। इस ख़ुशी की याद से शायद हिम्मत आती होगी। डिलिवरी के ठीक एक हफ़्ता बाद हम पूरी तरह भूल गए थे कि कितना दर्द था। मेरी दर्द को याद रखने की क्षमता बहुत कम है। जल्दी भूल जाती हूँ।
बचपन में डेंटिस्ट के यहाँ जाते थे तब ये पेनकिलर इंजेक्शन नहीं बना था। अब तो पेनकिलर इंजेक्शन के अलावा नमबिंग जेल होता है, जिसके लगाने पर इंजेक्शन देने की जगह भी दर्द नहीं होता। दांत साफ़ करने की मशीन की झिर्र झिर्र मुझे दुनिया की सबसे ख़तरनाक आवाज़ लगती है, जिसे सुन के ही उस दर्द की याद आती है और सिहरन होती है।
यहाँ मैं डेंटिस्ट की कुर्सी पर बैठी हूँ, और मैं ही हूँ जो डेंटिस्ट से कह रही हूँ कि बिना अनेस्थेसिया कर के देखते हैं, कहाँ तक दर्द बर्दाश्त हो सकता है।
आँख के ऊपर तेज़ रोशनी होती है। तो आँखें ज़ोर से भींच के बंद करती हूँ। कुर्सी के हत्थों पर हाथ जितनी ज़ोर से हो सके, पकड़ती हूँ। साँस गहरी-गहरी लेती हूँ। डॉक्टर कहता है, रिलैक्स।
बिना ऐनेस्थेटिक। जिसको हम मन का happy place कहते हैं। ज़ोर से आँख भींचने पर दिखता है। साँस को एक लय में थिर रखती हूँ। Emotional anaesthesia.
मन सीधे एक नए शहर तक पहुँचता है, धूप जैसा। Can a hug feel like sunshine? Filling me with warmth, light and hope? अलविदा का लम्हा याद आता है। क्यूँ आता है? किसी को मिलने का पहला लम्हा क्यूँ नहीं आता? या कि आता है। धुँधला। किसी को दूर से देखना। घास के मैदान और मेले के शोरगुल और लोगों के बीच कहीं। सब कुछ ठहर जाना। जैसे कोई आपका हाथ पकड़ता है और वक़्त को कहता है, रुको। और वक़्त, रुक जाता है।
I float in that hug. Weightless. आख़िरी बार जब दो घंटे के MRI में मशीन के भीतर थी, तब भी यहीं थी। कि अपरिभाषित प्रेम से भी बढ़ कर होता है?
मुझे टेक्स्चर याद रह जाता है। रंग भी। कपास। लिनेन। नीला, काला, हल्का हरा। छूटी हुयी स्मृति है, कहती है किसी से, तुम्हारी ये शर्ट बहुत पसंद है मुझे। ये मुझे दे दो। उसे भूल जाने के कितने साल बाद यह लिख रही हूँ और उसके पहने सारे सॉलिड कलर्ज़ वाले शर्ट्स याद आ रहे, एक के बाद एक।
दो फ़िल्में याद आती हैं, वौंग कार वाई की। Days of being wild और As tears go by. इन दोनों में मृत्यु के ठीक पहले, एक लड़का है जो एक लड़की को याद कर रहा है। डेज़ ओफ़ बीइंग वाइल्ड वाला लड़का गलती से गोली लगने से मर रहा है और उस लड़की को याद कर रहा है, जिसके साथ उसने थिर होकर एक मिनट को जिया था और वादा किया था कि मैं इस एक मिनट को और तुम्हें, ताउम्र याद रखूँगा। As tears go by के लड़के को एक फ़ोन बूथ में हड़बड़ी में चूमना याद रहता है। स्लो मोशन में यह फ़ुटेज उसे लगती हुयी गोलियों के साथ आँख में उभरता है। हम पाते हैं कि we are unconsolable. मृत्यु इतनी अचानक, अनायास आती है, हमें खुद को सम्हालने का वक़्त नहीं मिलता। ये दोनों लड़के बहुत कम उमर के हैं। जिस उमर में मुहब्बत होती है, इस तरह का बिछोह नहीं।
मन में शांत में उगते ये लम्हे कैसे होते हैं। धूप और रौशनी से भरे हुए। मैं याद में और पीछे लौटती हूँ, सोचती हुयी कि ये लोग, ये शहर, ये सड़कें, ये इतना सा आसमान नहीं होता तो कहाँ जाती मैं, फ़िज़िकल दुःख से भागने के लिए। इन लम्हों में इतनी ख़ुशी है कि आँख से बहती है। आँसू। डेंटिस्ट की कुर्सी है। अभी अभी मशीन झिर्र झिर्र कर रही है, लेकिन मैं बहुत दूर हूँ, इस दर्द से। इतनी ख़ुशी की जगह जहाँ मैं बहुत कम जाती हूँ। मेरे पास ख़ुशी चिल्लर सिक्कों की तरह है जो मैंने पॉकेट में रखी है। इसे खर्च नहीं करती, इन सिक्कों को छूना, इनका आकार, तापमान जाँच लेना, यक़ीन कर लेना कि ये हैं मेरे पास। मुझे खुश कर देता है।
कि भले ही बहुत साल पहले, लेकिन इतना सा सुख था जीवन में…इतना सांद्र, इतना कम, इतना गहरा…अजर…अनंत…असीम।
इमोशनल अनेस्थेसिया के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये होती है, कि इसका असर हटता है तो मन में इतना दुःख जमता है कि लगता है इससे अच्छा कोई फ़िज़िकल पेन बर्दाश्त कर लेते तो बेहतर होता। मन इधर से उधर डोलता है। जैसे ज़मीन हिल रही हो। थोड़ी थोड़ी।
डेंटिस्ट के यहाँ से लौटते हुए देखती हूँ कि वहाँ पारदर्शी शीशा है। और वहाँ की कुर्सी, वहाँ के डॉक्टर, किसी ऑल्टर्नट दुनिया की तरह लगते हैं। कि मैं अभी जहाँ से लौटी हूँ कि जबड़ा पूरा दर्द कर रहा है। लेकिन दिल पर ख़ुशी का जिरहबख़्तर है और वो बेतरह खुश है। कि बदन को कुछ भी हो जाए, मुहब्बत में डूबे इस दिल को कोई छू भी नहीं सकता।

07 March, 2023

अपनी कहानी कोई नहीं

मैं किस किताब में  जी रही हूँ? रात से रो रो कर आँखें सुजा ली हैं। 

सुबह उठी तो मेसेज देखा society ग़्रुप पे, कि होली वीकेंड में मनाएँगे। 

हम अपने साथ क्या ला सकते हैं किसी जगह से? मैं कहाँ ला पायी हूँ दिल्ली से पलाश का एक फूल, या कि उँगलियों में उसकी ख़ुशबू या कि उसका रंग ही। यहाँ होली सहूलियत का त्योहार है, वहाँ मन का। मुहब्बत का। शरारत का। उस शहर में कहा, तुम्हें थोड़ा रंग लगा दूँ, तो शहर कहता है, मैं तुम्हारे ही रंग में रंगा हूँ जानां, मुझ पर अब और क्या रंग लगाओगी। 


इश्क़ रंग। 


पिछली किताब के बाद मेरे पास कुछ भी था। कुछ भी नहीं। जिंदगी के सारे हसीन क़िस्से, सारे हौलनाक हादसे, सब ख़त्म हो गए थे। पिछले चार सालों में मैंने लगभग कुछ नहीं लिखा है। कोविड के बाद जिंदगी में इतनी uncertainity हो गयी थी कि ना क़िस्से पे यक़ीन होता था, किसी से मिलने पर। चार साल कितना लम्बा अरसा होता है, ये बता नहीं सकते। इसे सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं। कि आज सुबह से सिर्फ़ इसलिए रोना रहा है कि यक़ीन नहीं हो रहा कि इतने लम्बे इंतज़ार के बाद वाक़ई मिलते हैं लोगों से। कि गले लगते हैं। कि चूमते हैं माथा और कहते हैं उस शहर में धड़कते नन्हे दिल से, मैं हूँ, तुम्हारे लिए। मैं रहूँगी, तुम्हारे इश्क़ में हमेशा। मैं तुम्हें खोने नहीं दूँगी। मन के भीतर इतना कुछ चल रहा है कि ब्लॉग पर लिख रही हूँ। समंदर में कभी कभी सूनामी लहरें आती हैं। 


दिल्ली। 


हज़ार बार उजाड़ कर बसी है दिल्ली। हमारे दिल की तरह ही न। 

हमारे भीतर बसने लगे हैं नए अरमानों के जलते हुए मकान। कि जो कबीर की उलटबाँसी में फूँका हुआ घर होता है। चल देते हैं इश्क़ राह। 


उलझना मेरी फ़ितरत रही है। बौराए बौराए फिरते हैं। जाने क्या चाहिए होता है कि दिल्ली जा के भर आता है दिल इस तरह। कि जैसे मायके से लौटती हैं बेटियाँ बहुत सी चीजों के साथ। माँ के हाथ कि चुनी हुयी साड़ियाँ। दोस्तों के दिए हुए झुमके। सतरंगी चूड़ियाँ। बचपन की पसंद कि मिठाई। पैर रंगे, आलता लगाए। मायका, जहाँ बचपन से पले-बढ़े होते हैं। जहाँ का मंदिर, जहां के रास्ते, इमारतें। पौधे, फूल। सब आपके जाने-पहचाने होते हैं। जहाँ वे भी आपको जानते हैं जिन्हें आप नहीं जानते। आपका चेहरा देख कर वे जानते हैं कि आप किसकी बेटी हैं। 


कि हमारे शब्दों से जानते हैं हमें वे लोग भी जिन्होंने मुझे कभी नहीं देखा। हमसे वे भी प्यार करते हैं जो जाने कहाँ कहाँ तलाशते रहे हमें मेले में और छोटा सा उलाहना दे रहे कि आप मिले नहीं। जिनसे हम मिलना चाहते थे ख़ूब ख़ूब मन से, वे मिलते रहे। सिगरेट फूंकते, चाय पीते, गपशप करते, बाँहों में भरते लोग। हम काग़ज़ पर लिखते रहे छोटे छोटे संदेश, इन शहरों में भटकने में सुख हो, दुआ, मुहब्बत, love सब लिखा हमने। 


नशा।

हम कहते हैं कि हमें नीट पानी दे दो, आइस डाल के, हम उसमें ही हाई हो जाएँगे। दिल्ली में हम ऐसे ही सुरूर में रहते हैं। ज़रूरत क्या है किसी नशे की। बैंगलोर में हम पीते नहीं। दुनिया के बाक़ी शहरों में भी नहीं, ऐक्चूअली। हमको पीने का शौक़ नहीं है। पर पीते हैं तो सिंगल मॉल्ट या फिर JD लेकिन हमारे आसपास सब कुछ तरतीब से चाहिए होती है। माहौल होना चाहिए। रोशनी, म्यूज़िक। काँच के गिलास। आइस। ये क्या है कि प्लास्टिक के ग्लास में विस्की डाले और एक सिप में पूरी दुनिया डोल गयी। कि कह सकें किसी को कि ऐसे नहीं पिएँगे, जुठा के दो। कि हाथ बढ़ा के माँग लें किसी के हाथ से ग्लास। नीम अंधेरे में सिगरेट फूंकते जाने किस मुहब्बत में गाएँ। मीठा, मुहब्बत में। मीठा। 


तिलिस्म।

क्या होता है जब दो तिलिस्म मिलते हैं

वे चुप हो जाते हैं।


इश्क़ तिलिस्म में लिखा है


‘“सब लोग तुम्हारे हाथ पहचानते हैं। 

वे शायद बिसार दें तुम्हारा माथा। तुम्हारी सोना आँखें। तुम्हारे काँधे का टैटू। मगर कोई नहीं भूल सकता तुम्हारे हाथ। 

कि हम तुम्हारी कहानी के किरदार हैं।

और तुम्हारे हाथ ईश्वर के हाथ हैं।


तुम्हारा हाथ थाम कर भटकती रही शहर दिल्ली। हथेलियों में उगता रहा नक़्शा, ख़्वाहिशों के शहर  का। बनते रहे मकान कि जिनमें होती धूप, जहां पीले पर्दे होते जहाँ बालकनी से दिखता शाम का सिंदूरी सूरज। नए-पुराने महबूब याद आते तो उन यादों को कटघरे में खड़ा नहीं होना होता। 


आसान नहीं है हमसे प्यार करना। मेरे साथ उम्र काटना। उमरक़ैद होगी, पता नहीं। 

हमको कुछ पता नहीं। कुछ दिन लगेंगे प्रॉसेस करने में कि हमको हुआ क्या है। 


कोई आरी से चीर गया है वजूद के दो हिस्से। 

एक वही लड़की है, दिल्ली की दीवानी। बीस पच्चीस की। जिसका दिल कभी टूटा नहीं है। जिसकी मम्मी उसको सुबह काजल लगा के भेजी है बाहर कि पूरी दुनिया के लोग बैठे हैं उसकी सुंदर बेटी को नज़र लगाने। जिसे मुहब्बत से डर नहीं लगता। जिसे ज़माने से डर नहीं लगता। सालों बाद लौटते हैं दिल्ली, इतने खुश, इतने खुश। दिन में दस बार बोलते हैं, दोस्तों को, हम बहुत खुश हैं। 


भूलने और याद करने के बीच का शहर। 


कि इस दूसरी औरत को डर लगता है कि पहली वाली लड़की उसपर हावी हो जाए। कि वो दीवानों की तरह कहीं मर जाए। किसी सफ़र पर निकल जाए। कि उसे इस ख़ुशी कि क्रेविंग न होने लगे बहुत ज़्यादा।


 जिसकी दो जुड़वां बेटियाँ हैं तीन साल कीं। जिसका घर बेतरह बिखरा हुआ रहता है। जिसे घर का कोई काम-काज करना-करवाना नहीं आता। जो इस शहर में खुद को मोटी, भद्दी और बदसूरत समझती है। जिसके क़िस्से सुनने इस शहर में कोई नहीं आता। 


जब दो हिस्से हो जाते हैं तो कोई टूट जाता है बुरी तरह से। कैसे जीते हैं कि अपने दोनों हिस्से के साथ न्याय कर सकें। लिख भी सकें और जी भी सकें। मर जाएँ। कि इतना vulnerable होना कितना डराता है। कि हमारे मन के भीतर क्या चल रहा है, उसको हम भी ठीक-ठीक न समझ सकते हैं, न लिख सकते हैं। तो क्या जवाब दें किसी को, कि सुबह सुबह रो क्यूँ रही हो?ख़ुशी में? दुःख में?


कि हमें मरने से नहीं, तुमसे दुबारा मिले बिना मर जाने से डर लगता है। 

***


सज्जाद अली का गाया हुआ रावी, इसे लूप में सुन रहे हैं। समझ कुछ नहीं आ रहा, न गाने के बोल। न अपना मन-मिज़ाज।  


https://youtu.be/rBk5EKHggKo



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