मैं किस किताब में जी रही हूँ? रात से रो रो कर आँखें सुजा ली हैं।
सुबह उठी तो मेसेज देखा society ग़्रुप पे, कि होली वीकेंड में मनाएँगे।
हम अपने साथ क्या ला सकते हैं किसी जगह से? मैं कहाँ ला पायी हूँ दिल्ली से पलाश का एक फूल, या कि उँगलियों में उसकी ख़ुशबू या कि उसका रंग ही। यहाँ होली सहूलियत का त्योहार है, वहाँ मन का। मुहब्बत का। शरारत का। उस शहर में कहा, तुम्हें थोड़ा रंग लगा दूँ, तो शहर कहता है, मैं तुम्हारे ही रंग में रंगा हूँ जानां, मुझ पर अब और क्या रंग लगाओगी।
इश्क़ रंग।
पिछली किताब के बाद मेरे पास कुछ भी न था। कुछ भी नहीं। जिंदगी के सारे हसीन क़िस्से, सारे हौलनाक हादसे, सब ख़त्म हो गए थे। पिछले चार सालों में मैंने लगभग कुछ नहीं लिखा है। कोविड के बाद जिंदगी में इतनी uncertainity हो गयी थी कि ना क़िस्से पे यक़ीन होता था, न किसी से मिलने पर। चार साल कितना लम्बा अरसा होता है, ये बता नहीं सकते। इसे सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं। कि आज सुबह से सिर्फ़ इसलिए रोना आ रहा है कि यक़ीन नहीं हो रहा कि इतने लम्बे इंतज़ार के बाद वाक़ई मिलते हैं लोगों से। कि गले लगते हैं। कि चूमते हैं माथा और कहते हैं उस शहर में धड़कते नन्हे दिल से, मैं हूँ, तुम्हारे लिए। मैं रहूँगी, तुम्हारे इश्क़ में हमेशा। मैं तुम्हें खोने नहीं दूँगी। मन के भीतर इतना कुछ चल रहा है कि ब्लॉग पर लिख रही हूँ। समंदर में कभी कभी सूनामी लहरें आती हैं।
दिल्ली।
हज़ार बार उजाड़ कर बसी है दिल्ली। हमारे दिल की तरह ही न।
हमारे भीतर बसने लगे हैं नए अरमानों के जलते हुए मकान। कि जो कबीर की उलटबाँसी में फूँका हुआ घर होता है। चल देते हैं इश्क़ राह।
उलझना मेरी फ़ितरत रही है। बौराए बौराए फिरते हैं। जाने क्या चाहिए होता है कि दिल्ली जा के भर आता है दिल इस तरह। कि जैसे मायके से लौटती हैं बेटियाँ बहुत सी चीजों के साथ। माँ के हाथ कि चुनी हुयी साड़ियाँ। दोस्तों के दिए हुए झुमके। सतरंगी चूड़ियाँ। बचपन की पसंद कि मिठाई। पैर रंगे, आलता लगाए। मायका, जहाँ बचपन से पले-बढ़े होते हैं। जहाँ का मंदिर, जहां के रास्ते, इमारतें। पौधे, फूल। सब आपके जाने-पहचाने होते हैं। जहाँ वे भी आपको जानते हैं जिन्हें आप नहीं जानते। आपका चेहरा देख कर वे जानते हैं कि आप किसकी बेटी हैं।
कि हमारे शब्दों से जानते हैं हमें वे लोग भी जिन्होंने मुझे कभी नहीं देखा। हमसे वे भी प्यार करते हैं जो जाने कहाँ कहाँ तलाशते रहे हमें मेले में और छोटा सा उलाहना दे रहे कि आप मिले नहीं। जिनसे हम मिलना चाहते थे ख़ूब ख़ूब मन से, वे मिलते रहे। सिगरेट फूंकते, चाय पीते, गपशप करते, बाँहों में भरते लोग। हम काग़ज़ पर लिखते रहे छोटे छोटे संदेश, इन शहरों में भटकने में सुख हो, दुआ, मुहब्बत, love। सब लिखा हमने।
नशा।
हम कहते हैं कि हमें नीट पानी दे दो, आइस डाल के, हम उसमें ही हाई हो जाएँगे। दिल्ली में हम ऐसे ही सुरूर में रहते हैं। ज़रूरत क्या है किसी नशे की। बैंगलोर में हम पीते नहीं। दुनिया के बाक़ी शहरों में भी नहीं, ऐक्चूअली। हमको पीने का शौक़ नहीं है। पर पीते हैं तो सिंगल मॉल्ट या फिर JD लेकिन हमारे आसपास सब कुछ तरतीब से चाहिए होती है। माहौल होना चाहिए। रोशनी, म्यूज़िक। काँच के गिलास। आइस। ये क्या है कि प्लास्टिक के ग्लास में विस्की डाले और एक सिप में पूरी दुनिया डोल गयी। कि कह सकें किसी को कि ऐसे नहीं पिएँगे, जुठा के दो। कि हाथ बढ़ा के माँग लें किसी के हाथ से ग्लास। नीम अंधेरे में सिगरेट फूंकते जाने किस मुहब्बत में गाएँ। मीठा, मुहब्बत में। मीठा।
तिलिस्म।
क्या होता है जब दो तिलिस्म मिलते हैं?
वे चुप हो जाते हैं।
इश्क़ तिलिस्म में लिखा है,
‘“सब लोग तुम्हारे हाथ पहचानते हैं।
वे शायद बिसार दें तुम्हारा माथा। तुम्हारी सोना आँखें। तुम्हारे काँधे का टैटू। मगर कोई नहीं भूल सकता तुम्हारे हाथ।
कि हम तुम्हारी कहानी के किरदार हैं।
और तुम्हारे हाथ ईश्वर के हाथ हैं।”
तुम्हारा हाथ थाम कर भटकती रही शहर दिल्ली। हथेलियों में उगता रहा नक़्शा, ख़्वाहिशों के शहर का। बनते रहे मकान कि जिनमें होती धूप, जहां पीले पर्दे होते जहाँ बालकनी से दिखता शाम का सिंदूरी सूरज। नए-पुराने महबूब याद आते तो उन यादों को कटघरे में खड़ा नहीं होना होता।
आसान नहीं है हमसे प्यार करना। मेरे साथ उम्र काटना। उमरक़ैद होगी, पता नहीं।
हमको कुछ पता नहीं। कुछ दिन लगेंगे प्रॉसेस करने में कि हमको हुआ क्या है।
कोई आरी से चीर गया है वजूद के दो हिस्से।
एक वही लड़की है, दिल्ली की दीवानी। बीस पच्चीस की। जिसका दिल कभी टूटा नहीं है। जिसकी मम्मी उसको सुबह काजल लगा के भेजी है बाहर कि पूरी दुनिया के लोग बैठे हैं उसकी सुंदर बेटी को नज़र लगाने। जिसे मुहब्बत से डर नहीं लगता। जिसे ज़माने से डर नहीं लगता। सालों बाद लौटते हैं दिल्ली, इतने खुश, इतने खुश। दिन में दस बार बोलते हैं, दोस्तों को, हम बहुत खुश हैं।
भूलने और याद करने के बीच का शहर।
कि इस दूसरी औरत को डर लगता है कि पहली वाली लड़की उसपर हावी न हो जाए। कि वो दीवानों की तरह कहीं मर न जाए। किसी सफ़र पर न निकल जाए। कि उसे इस ख़ुशी कि क्रेविंग न होने लगे बहुत ज़्यादा।
जिसकी दो जुड़वां बेटियाँ हैं तीन साल कीं। जिसका घर बेतरह बिखरा हुआ रहता है। जिसे घर का कोई काम-काज करना-करवाना नहीं आता। जो इस शहर में खुद को मोटी, भद्दी और बदसूरत समझती है। जिसके क़िस्से सुनने इस शहर में कोई नहीं आता।
जब दो हिस्से हो जाते हैं तो कोई टूट जाता है बुरी तरह से। कैसे जीते हैं कि अपने दोनों हिस्से के साथ न्याय कर सकें। लिख भी सकें और जी भी सकें। मर न जाएँ। कि इतना vulnerable होना कितना डराता है। कि हमारे मन के भीतर क्या चल रहा है, उसको हम भी ठीक-ठीक न समझ सकते हैं, न लिख सकते हैं। तो क्या जवाब दें किसी को, कि सुबह सुबह रो क्यूँ रही हो?ख़ुशी में? दुःख में?
कि हमें मरने से नहीं, तुमसे दुबारा मिले बिना मर जाने से डर लगता है।
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सज्जाद अली का गाया हुआ रावी, इसे लूप में सुन रहे हैं। समझ कुछ नहीं आ रहा, न गाने के बोल। न अपना मन-मिज़ाज।
https://youtu.be/rBk5EKHggKo
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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