04 March, 2023

थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब - मेले के आख़िरी दिन से पहले का दिन

पाँच बजे के उठे हुए हैं। सोए होंगे कोई एक डेढ़ बजे। जब एक डेढ़ घंटा और नींद नहीं आयी, तो लगा कि अब लिखने बैठ जाते हैं। 

कल पुस्तक मेले का आख़िरी दिन है। मेले में हम चार साल बाद आए हैं। आख़िर बार 2019 में आए थे। इस बीच बहुत सी घटनाएँ हुयीं। मेरी ही नहीं, सबकी दुनिया थोड़ी  थोड़ी बदली। कुछ लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए। ऐसे किसी बड़े हादसे के बाद, सब लोग, थोड़ा सा भीतर से बदल जाते हैं। मेरे लिए ये बदलाव ऐसा रहा कि मैं थोड़ा सा, YOLO में यक़ीन करने लगी। वैसे तो अफ़सोस करने में मेरा विश्वास हमेशा से थोड़ा कम रहा है। हम नहीं जानते कि कल क्या होगा, कल ये लोग होंगे या नहीं। ये मौसम होगा या नहीं। ये शहर रहने लायक़ होगा या नहीं। 



लेकिन आज। 


दस दिन का दशहरा होता है। हमारे यहाँ कहते हैं कि सप्तमी-अष्टमी से दुर्गा जी का चेहरा ज़रा उदास हो जाता है। दस दिन का मेला होता है। शनिवार को शुरू होकर, अगले रविवार तक। बुधवार को मेरा जी उदास होना शुरू हो जाता है। अभी ठीक याद नहीं आ रहा कि किस कविता का हिस्सा है, ‘मेरे दिल में एक आँसू भरा फुग्गा है जो दीवारों से टकराता रहता है।’

मेरा मन भीतर भीतर सीलने लगता है। जाने इस दुनिया में इतनी नाइंसाफ़ी कैसे है। कि मेरे जैसा बहुत ही ज़्यादा extrovert इंसान, किसी शहर में इतना अकेला कैसे हो सकता है। इतने लोग हैं उस शहर में, कोई तो हो, जिससे मेरा मिलने-जुलने-बतियाने को मन करे! लेकिन ये बहुत छोटी सी दिक्कत है। किसी के भी पास, सब कुछ तो नहीं हो सकता ना। तो, बस, इतनी सी दिक्कत है। 

हम दिल्ली में होते हैं। मेरा मन वसंत हुआ जाता है। मेरे हाथों में किसी का हाथ हो ना हो, कोई किताब ज़रूर होती है। शाम में किसी से मिलें ना मिलें, किसी से, किसी से भी, मिल लेने की उम्मीद ज़रूर होती है। मेरे पास वक्त कम पड़ जाता है, लोग कम नहीं पड़ते।

हम जो एक ज़रा सा काग़ज़ और थोड़ा सा क़िस्सा कहते हैं, मेले में आ कर इतनी किताबें देखते हैं। ये क्या ही अचरज की बात है, कि मेरी किताब, कुछ लोगों तक ही सही, पहुँच रही है। कितनी किताबें, इस मेले में, कितने स्टॉल्ज़ पर, एकदम अनछुई रह जाएँगी। ये कितनी उदास बात है। कितने लोग आएँगे चुप-चुप, किसी से नहीं कहेंगे अपने दिल की बात, और वैसे ही चले जाएँगे। भीतर भीतर शब्दों का ग्लेशियर जमाए। 

दिल्ली आते ही हम पागल हो जाते हैं। ऐसा असर किसी और शहर में नहीं होता। जैसे ही आसमान से थोड़ा सा दिखने लगता है, महबूब शहर। हमारे दिल की धड़कन बढ़ जाती है। मुझे यहाँ की इमारतों, सड़कों, शोर, मौसम, सबसे इतना इतना प्यार है। मुहब्बत की सूनामी आ जाती है मेरे भीतर। मुझे समझ नहीं आता खुद को कैसे सम्भालें। हिसाब-किताब से जीना तो मुझे वैसे ही नहीं आता। लेकिन तन्हाई और भीड़ का ये कांट्रैस्ट जो हर साल होता है, मुझे भीतर भीतर अजीब क़िस्म से तोड़ता-मरोड़ता-जोड़ता है। मेरे भीतर कोई बंजारन रहती है। कोई भटकता यायावर होता है। उसे लगने लगता है, अब, निकल पड़ते हैं, सामान बाँध कर। देखेंगे थोड़ी दुनिया। नापेंगे थोड़ी ज़मीन। चक्खेंगे कुछ नदियों का पानी। 

इतने सारे लोग, अपने भीतर कितनी कहानियाँ लिए हुए। क्या कभी हम इनसे सीख पाएँगे, चुप रहना? टोमास ट्रांसतोमर की कविताओं को पढ़ने के पहले, हम उनके देश गए थे। स्वीडन के जिस शहर के जिस छोटे से द्वीप पर उनका घर था, वहाँ जा कर महसूस किया कि ये कमाल का देश है। यहाँ रहते हुए, इसे जीते हुए ट्रांस्टोमर ऐसा ही लिखेंगे। उस समय ट्रांसतोमर की कविता का अनुवाद पढ़ा था, एक पीली तितली थी जिसने अपनी उड़ान को गिरते हुए पीले पत्तों में बुन दिया था। मैं इस रूपक को वहाँ के पतझर में देखती रही। हर बार जब कोई पीला पत्ता काँधे पर गिरा, मैंने उस तितली को कहा, खुशआमदीद। 

संजय से मिली कल। संजय व्यास। कितने साल बाद। कितना अच्छा लगा, कि हम किसी से मिलते हैं कोई सात आठ साल पहले और दुबारा मिलने में इतने साल लग गए, लेकिन कोई अजनबीपन नहीं होता। कि हम कुछ लोगों को उनके शब्दों और कहानियों से ज़्यादा जानते हैं। उनका लिखा कितना सांद्र होता है। कितना ख़ुशबूदार। किताब पढ़ो तो उँगली के पोर पर क़िस्से की ख़ुशबू रह जाए। इतनी छोटी और इतनी ख़तरनाक कहानियाँ मैंने और कहीं नहीं पढ़ीं। उनका अगर उपनाम होता, तो खुख़री होता। छोटा, मारक, अस्त्र।

दिल्ली आ कर मेरे reasoning वाले फ़िल्टर हट जाते हैं। मैं किसी और दुनिया में जीती हूँ। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में। यक़ीन नहीं होता कोई शहर इतना उदार, इतना दिलकश और मेरे प्रति इतनी मुहब्बत से भरा हो सकता है। कि मेरी ये हँसी, कहीं और नहीं दिखती। मैं इतनी खुश, कहीं और नहीं होती। कि मेरे पाँव जमीं पर नहीं पड़ते, उड़ती उड़ती रहती हूँ। कि आईना देखने की ज़रूरत ही नहीं। हम सुंदर इसलिए दिखना चाहते हैं कि हमें देख कर कोई खुश हो, हम खुश हों। यहाँ अलग ही खुमार है। नीट पानी पी कर बौराते हम, चाहते हैं कि इस बेइंतिहा ख़ूबसूरत दिल्ली से ऐसी मुहब्बत बनी रहे। 

वैसे तो अब ब्लॉग पढ़ने कोई नहीं आता। लेकिन 2005 से जो ब्लॉगिंग की थी, वैसे लोग अब कहाँ ही मिलेंगे। आप सबका शुक्रिया। दिल्ली की दीवानी लड़की आप सबसे बहुत बहुत मुहब्बत करती है। अगर आप पुस्तक मेला आ रहे हैं, तो खूब सारी किताबें ख़रीदें। लोगों से बातें करें। और हिंद युग्म के स्टॉल पर मेरी किताब, इश्क़ तिलिस्म है, उसे पढ़ें और मुझे बताएँ, कि कई सालों से उलझती इस कहानी को आप तक मैं ठीक-ठाक पहुँचा पायी हूँ या नहीं। 

Love, Lots of love. 

[पढ़ नहीं रहे इसे। नींद आ रही है। जा रहे, एक घंटा सो जाएँगे। कुछ गलती-वलती हुयी, तो बाद में पढ़ के एडिट कर लेंगे]

3 comments:

  1. बहुत दिन बाद आपका ब्लॉग पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा।

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  2. बहुत ही बढ़िया

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  3. इस बार मेले में मिल कर लगा कि अब भी लोग ब्लॉग पढ़ते हैं, गाहे बगाहे। और फिर आर्कायव कि सबसे अच्छी जगह यही मिली है अब तक। तो सोचा है, कोशिश करेंगे नियमित लिखने की।

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