09 September, 2024

रैंडम रोज़नामचा - सितंबर

लिखना एक सनक है। एक क़िस्म का पागलपन। इस दुनिया में कितना कुछ है जिसके प्रति हम उदासीन होकर जी सकते हैं। और जीते भी हैं, हमारे पास इतना इमोशनल बैंडविड्थ कहाँ होता है कि हर दुख को अपने कलेजे पर झेल सकें। एक आम सा दिन जीते हुए हमें भूलना पड़ता है कि इसी समय में दुनिया में जंग चल रही है। जीने के लिए बेसिक चीज़ें - शांति, रोटी - कपड़ा - मकान और उम्मीद तलाश रहे हैं।   

लिखने के साथ सबसे बड़ी मुसीबत ये होती है कि आप कभी नहीं भूल पाते कि लिख कर आप हर क़िस्म के दुख को काग़ज़ पर रख सकते हैं। लिख कर दिल हल्का हो जाता है। कि काग़ज़ और कलम एक ऐसा सच्चा दोस्त है जो उम्र भर आपके साथ बना रहता है। थोड़ा ज़्यादा सेंसिटिव होना फिर भी ठीक है। दिक़्क़त तब होती है जब हम comfortably numb यानी कि जीने लायक़ उदासीन होना सीख नहीं पाते हैं। न हम कभी भूल पाते हैं कि लिख कर कितना अच्छा लगता है।

दिक़्क़त ये भी तो कि लिखने चलें तो क्या क्या न लिखते जायें…कैसा कैसा दुख हमारे कलेजे में चुभा रहता है।

कि इस जीवन में सबसे ज़्यादा आफ़त तो प्रेम से ही है। प्रेम के होने से भी बहुत आफ़त और न होने से भी।

जैसे खाने को लेकर हर व्यक्ति की भूख अलग क़िस्म की होती है। कुछ लोग एक ही बार में बहुत सारा खाना ठूँस कर खा सकते हैं। जब बहुत ज़ोर की भूख लगे तो जितना खाना सामने आये, सब खा लें और पचा जायें। कुछ लोगों को कम भूख लगती है। पर हर थोड़ी देर में कुछ न कुछ कुतरने की आदत होती है। हम खाने पीने को लेकर ज़्यादा नुक़्ताचीनी नहीं करते जब तक व्यक्ति बहुत दुबला-पतला या बहुत मोटा न हो…एक एवरेज से थोड़ा सा ऊपर नीचे का स्पेस आपको मिलता है। लेकिन क्या मज़ाल है कि आप किसी भी केटेगरी में थोड़ा एक्सट्रीम हो जायें और आपको कोई बख्श दे। आप रूप भोजन, पर रूप शृंगार कहते हैं। तो जो मन करे खाओ-पियो, बस स्वस्थ रहो, etc etc।

प्रेम को लेकर भी ऐसी ही ज़रूरत होती है। बहुत खोजा लेकिन मिल नहीं रहा, जाने किस कविता का हिस्सा था, The heart is a hunger, forgotten. प्रेम की ज़रूरत सबको अपने हिसाब से कम-ज़्यादा होती है। हमारे तरफ़ बिहार में एक शब्द है, अधक्की…इसको इस अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है कि जब कोई बहुत भूखा होता है तो ज़रूरत से ज़्यादा खाना अपनी थाली में परस लेता है…कई बार यह खाना बर्बाद भी होता है। प्रेम को लेकर भी ऐसा होता है कई बार। इस पर एक और कविता की लाइन याद आती है, when you are not fed love on a silver spoon, you learn to lick it off knives…कितना सुंदर रूपक है। ख़तरे के इर्द-गिर्द रचा हुआ।

मैंने अपने भविष्य के बारे में जब कभी सोचा होगा, ये कभी नहीं लगा था कि किसी शहर में इतनी तन्हाई में जीना होगा। कुछ शहर की फ़ितरत ऐसी है। कुछ शहर के लोग ऐसे हैं। कुछ हम भी ज़्यादा ही पर्टिकुलर हो गये हैं शायद। बहुत अच्छे दोस्त मिल जायें तो भी दिक़्क़त ही होती है। फीकी बातों में मन नहीं लगता। हम स्मॉल-टॉक नहीं कर पाते। जब तक किसी से बात करते हुए एकदम से मन में सूरजमुखी या डैफ़ोडिल वाला पीला-नीला रंग न खिले, हमको मज़ा ही नहीं आता। या तो इतनी रोशनी हो या इतना स्याह कि मन भर-भर आये। आँख भर-भर आये। हम किसी संगीत की धुन में खोये एक दूसरे के सामने हों लेकिन दूर देख रहे हों कि आँख का पानी छलक जाये तो डुबा देगा पूरी दुनिया।

ऐसे जादू वाले लोगों ने इस तरह नाशा है ना मेरा जीवन कि उफ़्फ़! और ये सब लोग मेरे शहर से हज़ारों मील दूर रहते हैं। और अपनी अपनी ज़िंदगी की क़वायद में इस बेतरह व्यस्त कि शिकायत भी नहीं करते। आपके साथ हुआ है कभी, किसी से बात कर रहे हैं और फ्रीक्वेंसी एकदम मैच नहीं कर रही और आप आसमान ताकते हुए सोचते हैं कि उफ़, कहाँ फँस गये। किस नज़ाकत से यह बात बिना कहे यहाँ से उठ जाएँ। जो इतने कम लोग हैं जीवन में, उनसे दूर चले जायें। बहुत दूर। कि एकदम अकेले बैठ कर बोस के हेडफ़ोन पर कोई रैंडम इंस्ट्रुमेंटल पीस सुन लेना इससे बेहतर है।

मैं मुहब्बत की बात भी नहीं कर रही। उसका तो हिसाब-किताब ऐसा गड़बड़ है कि जैसे कई जन्म का इश्क़, अधूरा-पूरा जो भी है, अभी ही कर के ख़त्म करना है कि इसके बाद इस दुनिया में आना नहीं है अब।

ब्लॉग लिखते हुए सबसे बड़ी दिक़्क़त ये रही कि हमें लगा इतनी बड़ी दुनिया है, इसमें कौन मेरा ब्लॉग पड़ेगा और कौन ही मिलेगा हमसे। कई साल इस गुमान में आराम से जो मन सो लिखे और किसी से भी मिले नहीं। ऑनलाइन बात होती भी थी तो लगता था ये सब वर्चुअल दुनिया के लोग हैं। थोड़े न सड़क पर चलते हुए मिल जाएँगे। बैंगलोर कोई आता नहीं और जो आता भी तो इतना व्यस्त रहता है, फिर यहाँ का एयरपोर्ट शहर से कोई डेढ़-दो घंटे की दूरी पे था। ऑफिस में ये बोल कर छुट्टी तो माँग नहीं सकते थे कि दोस्त आ रहा है, आधे घंटे के लिए मिलने जाना है। डेढ़ घंटे जाना, डेढ़ घंटे आना…तो हाफ डे चाहिए।

ब्लॉग के जितने लोगों से मिले, कभी नहीं लगा कि पहली बार मिल रहे हैं। हमने अपने भय, अपने दुख, अपने शिकवे ब्लॉग पर इस तरह लिखे थे कि वर्चुअल लोग हमें उन लोगों से बेहतर जानते थे जिनसे हमारा अक्सर का मिलना-जुलना रहा। सारी बातों के अलावा हम सिर्फ़ एक बात यहाँ दर्ज कर रहे हैं कि उन्होंने हमसे कहा, ‘इसका ब्लॉग पढ़ते हुए कई बार लगता था, इसे ऐसे आ के hug कर लें’। इतना सुन कर लगा कि ज़िंदगी में डायरी जो सेफ़ स्पेस हमें देती है, वैसा ही एक स्पेस ब्लॉग भी देता है। हम कितने साल के इंतज़ार के बाद मिले थे, शायद उम्मीद ख़त्म होने के ठीक पहले। हमारी बातें ख़त्म नहीं होतीं। रात आधी हो गई थी। हम दो-तीन बार डिनर करते हैं करते हैं कह कर कुर्सी से उठे भूखे इंसान को पानी का ग्लास थमा कर बिठा चुके थे। कितने दोस्तों को फ़ोन किया, कितने और को याद किया।

हमको मालूम रहता है कि जो लिखते नहीं, सो भूल जाते हैं। 
   

इस बार फिर भी, लिखेंगे नहीं। लेकिन एक ये तस्वीर ज़रूर यहाँ सिर्फ़ इसलिए रखेंगे कि कभी कभी जब दुनिया, भगवान, और शहर से शिकायत का कोटा भर कर ओवरफ़्लो कर जाये, हम लौट कर यहाँ आ सकें।

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