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10 November, 2017

एक ख़ूबसूरत लड़की की ख़ातिर सिफ़ारिशी चिट्ठी

तुम्हें सौंदर्य इतना आक्रांत क्यूँ करता है? उसकी सुंदरता निष्पाप है। उसने कभी उसका कोई घातक इस्तेमाल नहीं किया। कभी किसी की जान लेना तो दूर की बात है, किसी का दिल भी नहीं तोड़ा। उसने हमेशा अपने सौंदर्य को एक बेपरवाही की म्यान में ढक कर रखा। तुम्हें ख़ुद से बचा कर रखा। तुम उसकी ख़ूबसूरती से इतना डरते क्यूँ हो कि जैसे वो कोई बनैला जानवर हो...भूखा...तुम्हारे समय और तुम्हारे प्रेम का भूखा?

उसकी ख़ूबसूरती को लेकर पैसिव नहीं हो सकते तुम? थोड़े सहनशील। ऐसा तो नहीं है कि दुखता है उसका ख़ूबसूरत होना। उसकी काली, चमकती आँखें तुम्हें देखती हैं तो तकलीफ़ होती है तुम्हें? सच बताओ? तुम्हारा डर एक भविष्य का डर है। प्रेम का डर है। आदत हो जाने का डर है। ऐसे कई लोगों के भीषण डर के कारण वो उम्र भर अपराधबोध से ग्रस्त रही। एक ऐसे अपराध की सज़ा पाती रही जो उसने किया ही नहीं था। ख़ुद को हर सम्भव साधारण दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की। शृंगार से दूर रही, सुंदर रंगों से दूर रही...यहाँ तक कि आँखों में काजल भी नहीं लगाया कभी। अब उम्र के साथ उसके रूप की धार शायद थोड़ी कम गयी है, इसलिए उसने फिर से तुम्हें तलाशा।

तुम रखो ना अपने बदन पर अपना जिरहबख़्तर। तुम रखो अपनी आत्मा को उससे बहुत बहुत ही दूर। मत जुड़ने दो उससे अपना मन। लेकिन इतना तो कर सकते हो कि जैसे गंगा किनारे बैठ कर बात कर सकते हैं दो बहुत पुराने मित्र। एक दूसरे को नहीं देखते हुए, बल्कि सामने की धार को देखते हुए। ना जाओ तुम उसके साथ Bern, लेकिन बनारस तो चल सकते हो?

उसे तुम्हारी वाक़ई ज़रूरत है। ज़िंदगी के इस मोड़ पर। देखो, तुम नहीं रहोगे तो भी ज़िंदगी चलती रहेगी। उसे यूँ भी अपनी तन्हाई में रहने की आदत है। लेकिन वो सोचती है कभी कभी, तुम्हारा होना कैसा होगा। तुम्हारे होने से सफ़र के रंग सहेजना चाहेगी वो कि तुम्हारे लिए भेज सके काग़ज़ में गहरा लाल गुलाल...टेसू के फूलों से बना हुआ। तुम किसी सफ़र में जाओ तो सड़कों पर देख लो मील के पत्थर और उसे भेज दो whatsapp पर किसी एकदम ही अनजान गाँव का कोई gps लोकेशन। ज़िंदगी बाँटी जा सकती है कितने तरह से। थोड़ी सी जगह बनाओ ना उसके लिए अपनी इस ज़िंदगी में। बस थोड़ी सी ही। अनाधिकार तो कुछ भी माँगेगी नहीं वो। लेकिन कई बरस की दोस्ती पर इतना सा तो माँग ही सकती है तुमसे।

किसी नीले चाँद रात एक बाईक ट्रिप हो। सुनसान सड़कों पर रेसिंग हो। क़िस्से हों। कविताएँ। एक आध डूएट गीत। ग़ालिब और फ़ैज़ हों। मंटो और रेणु हों।

हम प्रेम की ज़रूरत को अति में देखते हैं। प्रेम की जीवन में अपनी जगह है। लेकिन उसके बाद जो बहुत सा विस्तार है। बहुत सा ख़ालीपन। उसमें दोस्त होते हैं। हाँ, डरते हुए दोस्त भी...कि तुमसे प्यार हो जाएगा, तुम्हारी लत लग जाएगी। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है। वो जानती है कि वो कभी भी love-proof नहीं होगी। उससे प्यार हो जाने का डर हमेशा रहेगा। लेकिन इस डर से कितने लोगों को खोती रहेगी वो ज़िंदगी में। और कब तक।

सुनो ना ज़िद ही मानो उसकी। समझो थोड़ा ना उस ज़िद्दी लड़की को जिसे तुम पंद्रह की उमर से जानते हो। She needs you. Really. कुछ वक़्त अपना लिख दो ना उसके नाम। थोड़ा दुःख तुम भी उठा लो। क्या ही होगा। कितना ही दुखेगा। पिलीज। देखो, हम सिफ़ारिश कर रहे हैं उसकी। अच्छी लड़की है। ख़तरनाक है थोड़ी। सूयसाइडल है। डिप्रेस्ड हो जाती है कई बार। लेकिन अधिकतर नोर्मल रहेगी तुम्हारे सामने। दोस्ती रखोगे ना उससे? प्रॉमिस?

22 November, 2016

मेरी रॉयल एनफ़ील्ड - आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे

मुझे बाइक्स का शौक़ तो बचपन से ही रहा लेकिन रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ कब से आया ये ठीक ठीक याद नहीं है। जैसा कि किसी के भी साथ हो सकता है, राजदूत चलाने के बाद पहली बार जब हीरो होंडा स्पलेंडर चलायी थी तो लगा था इससे अच्छी कोई बाइक हो ही नहीं सकती है। ऐकसिलेरेटर लेते साथ जो बाइक उड़ती थी कि बस! १२वीं तक मुझे हीरो होंडा सीबीजी बहुत अच्छी लगती थी। जान पहचान में उस समय हम सारे बच्चे अपने अपने पापा की गाड़ियों पर हाथ साफ़ कर रहे थे। कुछ के पास स्कूटर हुआ करता था तो कुछ के पास हीरो होंडा स्पलेंडर। जान पहचान में किसी के पास बुलेट हो, ऐसा था ही नहीं। उन दिनों पटना या देवघर में बुलेट बहुत कम चलती भी थी। आर्मी वालों के पास भले कभी कभार दिख जाती थी। हमें समझ नहीं आता कि किस पर मर मिटें। वर्दी पर। वर्दी वाले पर। या कि उसकी बुलेट पर। ख़ैर!
२००४ में कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में इंटर्नशिप करने दिल्ली आयी। मेरे बॉस, अनुपम के पास उन दिनों अवेंजर हुआ करती थी। जाड़े का मौसम था। वो काली लेदर जैकेट पहने गली के मोड़ से जब एंट्री मारा करता था तो मैं अक्सर बालकनी में कॉफ़ी पी रही होती थी। क्रूज बाइक जैसा कुछ होता है, पहली बार पता चला था। मैं घर से ऑफ़िस बस से आती जाती थी। टीम में साथ में मार्केटिंग में एक लड़का था, नितिन, उसके पास बुलेट थी। मेरी जान पहचान में पहली बार कोई था जिसके पास अपनी बुलेट थी। नितिन ने एक दिन कहा कि वो घर छोड़ देगा मुझे। हमारे घर सरोजिनी नगर में सिर्फ़ एक ब्लॉक छोड़ के हुआ करते थे। पहली बार बुलेट पे बैठी तो शायद वहीं प्यार हो गया था। बुलेट से। इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ था कि हाइट इतनी कम है मेरी कि चलाने का सोच भी नहीं सकती।

IIMC के ग्रुप में भी कहीं कोई बुलेट वुलेट नहीं चलाता था। लेकिन उन दिनों ब्रैंड्ज़ के बारे में बहुत पढ़ चुके थे। कुछ चीज़ों की ब्रांडिंग ख़ास तौर से ध्यान रही। पर्फ़्यूम्ज़ की। दारू की। और मोटरसाइकल्ज़ की। हार्ले डेविडसन और एनफ़ील्ड ख़ास तौर से ध्यान में आयीं। इनके बारे में ख़ूब पढ़ा। इनके पुराने एड्ज़ देखे। पर अब बुलेट चलाने जैसा सपना देखना बंद कर दिया था। हमने जब नौकरी पकड़ी तो दोस्तों में सबसे पहले V ने एनफ़ील्ड ख़रीदी। उन दिनों थंडरबर्ड का ज़ोर शोर से प्रचार हो रहा था। उसकी लाल रंग की एनफ़ील्ड और उसके घुमक्कड़ी के किससे साथ में सुनने मिलते थे।
 इन दिनों ऑफ़िस के आगे का हाल 

शादी के बाद बैंगलोर आ गयी। कुणाल या उसके दोस्तों की सर्किल में कोई भी बाइकर टाइप नहीं था। कुछ साल बाद कुणाल की टीम में आया साक़िब खान। एनफ़ील्ड के बारे में क्रेज़ी। उन दिनों बैंगलोर में एनफ़ील्ड पर छः महीने की वेटिंग थी। साक़िब ने एनफ़ील्ड बुक क्या की, जैसे अपने ही घर आ रही हो बाइक। साक़िब को हम दोनों बहुत मानते भी थे। घर में किसी फ़ैमिली मेंबर की तरह रहा था हमारे साथ। साक़िब की थंडरबर्ड की डिलिवरी लेने वो, कुंदन और मैं गए थे। कुणाल ने अपनी कम्पनी शुरू की तो टीम में साथ में रमन आया। पिछले साल रमन ने भी डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी। टीम में योगी के पास भी पहले से एनफ़ील्ड थी। ऑफ़िस में सब लोग बाइक बाइक की गप्पें मारते थे अब। कुणाल भी कभी कभार चला लेता था। इन्हीं दिनों उसके दोस्त से बात हुयी जो बाइक्स मॉडिफ़ाई करता है और कुणाल ने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू ख़रीद दी।

मेरी हाइट पाँच फ़ीट २ इंच है और एनफ़ील्ड की सीट हाइट ८०० सेंटिमेटर है। बाइक ख़रीदने के पहले कुणाल से उससे डिटेल में बात की कि कितना ख़र्चा आता है, क्या प्रॉसेस है वग़ैरह। तो बात ये हुयी थी कि एनफ़ील्ड के क्लासिक मॉडल में सीट के नीचे स्प्रिंग लगी होती हैं। स्प्रिंग निकाल के फ़ोम सीट लगा दी जाएगी तो हाइट कम हो जाएगी। ख़र्चा क़रीबन ३ हज़ार के आसपास आएगा। हम आराम से बाइक ख़रीद के ले आए। बाइक पर बैठने के बाद मुश्किल से मेरे पैर का अँगूठा ज़मीन को छू भर पाता था, बस। वो भी तब जब कि स्पोर्ट्स शूज पहने हों जिसमें हील ज़्यादा है। बिना जूतों के तो पैर हवा में ही रह रहे थे। निशान्त ने कहा, अब तो सच में गाना गा सकती हो, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे'।

एनफ़ील्ड आयी लेकिन जब तक कोई पीछे ना बैठा हो, हम चला नहीं सकते थे, और ज़ाहिर तौर से, कोई मेरे पीछे बैठने को तैयार ना हो। कुणाल बैठे तो उसको इतना डर लगे कि अपने हिसाब से बाइक बैलेंस करना चाहे। इस चक्कर में बाइक को आए दस दिन हो गए। १८ तारीख़ को राखी थी। हमारे यहाँ राखी के बाद भादो का महीना शुरू हो जाता है जिसमें कुछ भी शुभ काम नहीं करते हैं। हमने बाइक की पूजा अभी तक नहीं करायी थी कि आकाश को छुट्टी नहीं मिल रही थी बाइक घर पहुँचाने की। ये वो महीना था जिसमें पूरे वक़्त सारी छुट्टियाँ कैंसिल थीं। सब लोग वीकेंड्ज़ पर भी पूरा काम कर रहे थे। राखी के एक दिन पहले पापा से बात हो रही थी, पापा ख़ूब डाँटे। 'एनफ़ील्ड जैसा भारी गाड़ी ले लिए हैं, रोड पर चलाते है और ज़रा सा पूजा कराने का आप लोग को फ़ुर्सत नहीं, कल किसी भी हाल में पूजा कर लीजिए नै तो भादो घुस जाएगा, बस' (पापा ग़ुस्सा होते हैं तो 'आप' बोलके बात करते हैं)। अब राखी के दिन आकाश को आते आते दोपहर बारह बज गया और मंदिर बंद। ख़ैर, दोनों भाई राखी बाँध के ऑफ़िस निकला, आकाश बोल के गया कि शाम को आ के पूजा करवा देगा। शाम का ५ बजा, ६ बजा, ७ बजा। मेरा हालत ख़राब। फ़ोन किए तो बोला अटक गया है, आ नहीं सकेगा। अब कमबख़्त एनफ़ील्ड ऐसी चीज़ है कि बहुत लोग चलाने में डरते हैं। मैंने अपने आसपास थोड़ी कोशिश की, कि चलाना तो छोड़ो, कोई पीछे बैठने को भी तैयार हो जाए तो मंदिर तो बस घर से ५०० मीटर है, आराम से ले जाएँगे। कोई भी नहीं मिला। साढ़े सात बजे हम ख़ुद से एनफ़ील्ड स्टार्ट किए और मुहल्ले में चक्कर लगा के आए। ठीक ठाक चल गयी थी लेकिन डर बहुत लग रहा था। कहीं भी रोकने पर मैं गाड़ी को एकदम बैलेंस नहीं कर सकती थी।

तब तक बाइक का रेजिस्ट्रेशन नम्बर आ गया था। मैं थिपसंद्रा निकली कि स्टिकर बनवा लेंगे। साथ में मंदिर में पूछती आयी कि मंदिर कब तक खुला है। पुजारी बोला, साढ़े नौ तक। हम राहत का साँस लिए कि ट्रैफ़िक थोड़ा कम हो जाएगा। नम्बर प्लेट पर नम्बर चिपकाए। स्कूटी से निकले कि रास्ता देख लें, इस नज़रिए से कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ स्पीड ब्रेकर है। इस हिसाब से कौन से रास्ते से जाना सबसे सही होगा। एनफ़ील्ड निकालते हुए क़सम से बहुत डर लग रहा था। एक तो कहीं भी बंद हो जाती थी गाड़ी। क्लच छोड़ने में देर हो जाए और बस। फिर घबराहट के मारे जल्दी स्टार्ट भी ना हो। ख़ैर। किसी तरह भगवान भगवान करते मंदिर पहुँचे तो देखते हैं कि मंदिर का गेट बंद है और बस एक पुजारी गेट से लटका हुआ बाहर झाँक रहा है। हम गए पूछने की भाई मंदिर तो साढ़े नौ बजे बंद होना था, ये क्या है। पुजारी बोला मंदिर बंद हो गया है। हमारा डर के मारे हालत ख़राब। उसको हिंदी में समझा रहे हैं। देखो, भैय्या, कल से हमारा दिन अशुभ शुरू हो जाएगा। आज पूजा होना ज़रूरी है। आप कुछ भी कर दो। एक फूल रख दो, एक अगरबत्ती दिखा दो। कुछ भी। बस। वो ना ना किए जा रहा था लेकिन फिर शायद मेरा दुःख देख कर उसका कलेजा पसीजा, तो पूछा, कौन सा गाड़ी है। मैं उसके सामने से हटी, ताकि वो देख सके, मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू। उसके चेहरे पर एक्सप्रेसन कमाल से देखने लायक था। 'ये तुम चला के लाया?!?!?!' हम बोले, हाँ। अब तो पुजारी ऐसा टेन्शन में आया कि बोला, इसका तो पूरा ठीक से पूजा करना होगा। फिर वो मंदिर में अंदर गया, पूरा पूजा का सामग्री वग़ैरह लेकर आया और ख़ूब अच्छा से पूजा किया। आख़िर में बोला संकल्प करने को जूते उतारो। हम जूता, मोज़ा उतार के संकल्प किए। फिर वो बाइक के दोनों पहियों के नीचे निम्बू रखा और बोला, अब बाइक स्टार्ट करो और थोड़ा सा आगे करो। हम भारी टेन्शन में। पुजारी जी, बिना जूता के स्टार्ट नहीं कर सकते। पैर नहीं पहुँचता। वो अपनी ही धुन में कुछ सुना नहीं। स्टार्ट करो स्टार्ट करो बोलता गया। हम सोचे, हनुमान मंदिर के सामने हैं। पूजा कराने आए हैं। आज यहाँ बाइक हमसे स्टार्ट नहीं हुआ और गिर गया तो आगे तो क्या ही चलाएँगे। उस वक़्त वहाँ आसपास जितने लोग थे, फूल वाली औरतें, पान की दुकान पर खड़े लड़के, जूस की दुकान और सड़क पर चलते लोग। सबका ध्यान बस हमारी ही तरफ़ था। कि लड़की अब गिरी ना तब गिरी। हम लेकिन हम थे। बाइक स्टार्ट किए। एक नम्बर गियर में डाले, आगे बढ़ाए और निम्बू का कचूमर निकाल दिए। वालेट में झाँके तो बस ५०० के नोट थे जो भाई से भोर में ही रक्षाबंधन पर मिले थे। तो बस, ५०० रुपए का दक्षिणा पा के पुजारी एकदम ख़ुश। ठीक से जाना अम्माँ(यहाँ साउथ इंडिया में सारी औरतों को लोग अम्माँ ही बोलते हैं, उम्र कोई भी हो)। घर किधर है तुम्हारा।


हम कभी कभी ऐसे कारनामे कर गुज़रते हैं जिससे हम में इस चीज़ का हौसला आता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं। एक कोई लगभग पाँच फ़ुट की लड़की २०० किलो, ५०० सीसी के इस बाइक को इस मुहब्बत से चलाती है कि सारी चीज़ें ही आसान लगती हैं। घर आते हुए मैं गुनगुना रही थी, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए, बोलो?'

26 September, 2013

फ्रेंडशिप ऑन द रोड टु फॉरएवर

आज एक नया गीत सुना. अपनी दोस्ती जैसा. दिल किया तुम्हें फोन करके सुनाऊं. तुम हँसते हुए छेड़ो कि मेरी आवाज़ कितनी बुरी है. होस्टल के पुराने दिन याद आ रहे हैं. उन दिनों गाना कितना अच्छा लगता था. इतनी चूजी भी तो नहीं थी, अक्सर कोई ना कोई चीज़ अच्छी लगती रहती थी. कितने तो नए नए गाने सुने थे. ख़ास तौर से अंग्रेजी के. कितने तो अच्छे बोल हुआ करते थे. एक ही तरह छोटे छोटे शहर से हम आये थे. अंग्रेजी गानों में अपनी डिक्शनरी बन ही रही थी अभी. होस्टल के कोरिडोर में सीटी मारते हुए या गाना गाते हुए ही अक्सर पाए जाते थे. रात के सन्नाटे में आवाज़ कैसी गूंजती थी. तभी

मुझे याद है पहला अंग्रेजी गाना जो मैंने सुना था 'समर ऑफ़ सिक्सटी नाइन'...आज भी लॉन्ग ड्राइव्स पर एक बार जरूर बजाने का मन करता है. ख़ास तौर से सिगरेट पीते हुए. वैसे जो बात तुम्हारी तेज़ रफ़्तार बाईक में पीछे बैठ कर सिगरेट पीने का था वो जिंदगी की किसी बारिश में लौट कर नहीं आया. याद है तुम कितनी तेज़ बाईक चलाते थे? हम खामखा कैलकुलेट करते थे कि बारिश की रफ़्तार ज्यादा तेज़ या बाईक की...मैथ तो हम दोनों का उतना ही ख़राब था. पता तो बस बाईक की रफ़्तार होती थी. तुम्हारी वो नयी ब्लैक एनफील्ड. याद है मैं उसे हमेशा बुलेट कहती थी. ऑफिस से बंक मार कर इण्डिया गेट भागना. क्या खूब दिन हुआ करते थे.

सबका नंबर लगा हुआ था जिस दिन तुम्हारी बाईक आई थी. उस वक़्त मैं तुम्हारी ख़ास दोस्त भी नहीं थी लेकिन जैसा कि दस्तूर था, कोलेज की पहली बाईक थी तो हर लड़की का नंबर आना ही था. उसके बाद तुमने जाने कितना पेट्रोल फूँका होगा. कभी फ़ोटोस्टेट कराना होता था, कभी इंटरव्यू मिस हो रहा होता था किसी का. तुम एकदम से हॉट प्रॉपर्टी हो गए थे. सबका बराबर हक बनता था तुमपर और तुम इतने स्वीट कि किसी को कभी मना नहीं किया. उन दिनों तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हुआ करती थी और कुछ यूँ कि होस्टल की हर लड़की तुमपर मरती थी.

आज ऐवें ही तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. उन दिनों रे बैन का चश्मा. पता नहीं असली था कि दस रुपये में ख़रीदा था जनपथ से मगर कसम से क्या खूब जंचता था तुमपर. हीरो थे तुम हमारे. एक तुम्हारी बाईक आने से कितना कुछ आसान हो गया था हमारे लिए. फिर तुम्हारे लिए कितना कुछ स्पेशल होते गया था. किसी के घर से आया पिरकिया होस्टल में बंटे न बंटे, तुम्हारा कोटा हमेशा रिजर्व रहता था. बात यहाँ तक कि मेरी बेस्ट फ्रेंड की मम्मी उसके लिए आलू के पराठे और कटहल का अचार लेकर आई. अब अचार की गंध छुपती है भला. शाम तुम्हारी उँगलियों में बाकी थी हलकी महक. वो तो अच्छा हुआ उसका पहले से बॉयफ्रेंड था वरना हम दोनों लड़ मरने वाले थे तुम्हारे प्यार में.

तुमपर थोड़ा एक्स्ट्रा हक़ बनता था मेरा, आखिर एक शहर से जो थे. देखे हुए से लगते थे तुम. जाने हुए से. काम हो न हो, बारिश होती थी तो अक्सर तुम होस्टल के सामने मिल जाते थे. राइड पर ले चलने के लिए. फिर कितनी तेज़ी से पीछे छूटती थी थी गहरी गुलाबी बोगनविलिया कि बारिश गुलाबी लगती थी. कुछ तो स्पेशल था उन राइड्स में. प्यार से थोड़ा कम लेकिन दोस्ती से थोड़ा ज्यादा. मुझे याद है जब पहली बार तुम्हारी एनफील्ड चलाई थी, दिल वैसा तेज़ तो पहले प्रपोजल पर भी नहीं धड़का था. पर तुम्हें भरोसा था मुझपर. हमने वापस आकर रबड़ी जलेबी से सेलिब्रेट किया था. कायदे से हमें वोडका के शॉट्स मारने थे मगर हमें कोई और ही नशा हुआ करता था उन दिनों. शायद वो उम्र ही वैसी थी.

आखिरी कुछ प्रोजेक्ट्स करते हुए एक दिन हम ऐसे ही साथ निकले हुए थे. रिकोर्ड करते, इंटरव्यू लेते बहुत देर रात हो गयी थी. उसपर बेमौसम की बारिश. उस दिन तुमने कहा था, चल तुझे हाइवे पर ले चलता हूँ. तुझे लगता है न तू पागल है. आज मेरा भी थोड़ा पागलपन देख ले. मुझे मालूम क्या होना था कि तुझे व्हीली आती है. सुनसान सड़क पर कोहरे भरी साँसों में तूने कहा था. जरा टाईट पकड़ मुझे, जिंदगी की तरह फिसल जाऊँगा हाथों से वरना. तेरी गर्लफ्रेंड होती मैं तो शायद तुझे सेफ राइडिंग के बारे में फंडे देती लेकिन ऐसा कुछ था नहीं...था तो बस थ्रिल. जिंदगी की सबसे बेहतरीन राइड का थ्रिल. मुझे याद नहीं होगा मगर शायद मैं पागलों की तरह चीख रही थी 'आई लव यू ......' तुम्हारा नाम उस हाई वोल्यूम पर बहुत अच्छा लग रहा था सुनने में. याद है हम कैसे गा रहे थे...ए साला...अभी अभी...हुआ यकीं...कि आग है...मुझमें कहीं...रूबरू.....रौशनी. है.

गुडगाँव में ढाबे पर मक्खन मार के पराठे खाए और कड़क कॉफ़ी पी. कई बार लगा तो है कि दिल्ली के कोहरे में नशा होता है मगर महसूस उस रात पहली बार किया था. जाने किस मूड में हम, तूने कहा था, चल आगरा चलते हैं, मैंने हँसते हुए कुछ तो फेंका था तेरी ओर...क्यूँ? भर्ती होना है? और ठहाका मार कर हंसी थी. फिर तुमने फुसलाया था...एक्सप्रेसवे बना है. चल ना, जहाँ थक जायेंगे वहां से लौट आयेंगे. मुझे उस वक़्त तैराकी का चैप्टर याद आ रहा था. समंदर में तैरने चलो तो उतनी दूर जाओ जितने में आधे थके हो क्यूंकि वापस भी लौटना है. जहाँ थक गए वहां से लौट आने की इनर्जी कहाँ से लायेंगे ये सोचने का मूड नहीं था उस रात मेरा. और आगरे में रुकेंगे कहाँ, पागलखाने में?...ना, मेरी एक दीदी रहती है, उनके यहाँ चले जायेंगे. पर वैसी नौबत थोड़े आएगी...हम वापस लौट आयेंगे. एक मन कह रहा था प्रोजेक्ट का क्या होगा. फिर लगा कि लौट आयेंगे वापस, कुछ घंटों की बात है, और फिर बीमार तो कोई भी कभी भी पड़ सकता है. मैंने होस्टल से नाईट आउट शायद ही कभी ली थी. जाने कैसे तो अच्छी लड़की की छवि बनी हुयी थी मेरी. बहरहाल.

आगरा पहुँचते धूप की पहली उजली किरण बारिश में बलखाती यमुना को गुदगुदी लगा कर उठा रही थी. हम किसी ठेले पर चाय सुड़क रहे थे. फोन बजा. इत्ती भोर में किसका फोन आया होगा सोचते हुए फोन देखा तो दसियों मेसेज पड़े थे. रात को सर की बेटी की डिलीवरी हुयी थी, प्रोजेक्ट प्रेसेंटेशन दो दिन आगे बढ़ गया था. हम वाकई ख़ुशी के मारे पागल हो गए थे. कित्ती टाईटली हग किया हमने. तुम्हारे गीले बालों में कित्ती सारी धुंध अटकी हुयी थी. इत्मीनान से एक कप और चाय निपटाई और पुल पर बैठ गए. आज गज़ब अफ़सोस होता है कि उस दिन कैमरा नहीं था अपने पास. ताजमहल पर वो गाइड याद है तुम्हें, हमें कपल समझ कर कितना भाषण दे रहा था. थोड़ा अजीब लगा था इंस्टैंट फोटो वाले से फोटो खिंचवाना.

तुम्हारी दीदी कितनी क्यूट थी. उनका वो ब्लू स्कार्फ मेरे ही पास रह गया था. कसम से क्या कमाल की मैगी बनाती है तुम्हारी दीदी. मैं लड़का होती तो सिर्फ उस मैगी के लिए उनसे शादी कर लेती. हाय, प्यार हो गया था मुझे उनसे. कैसे तो मिल जाते हैं लोगों से न हम. हर मैगी के पैकट पर लिखा है खाने वाले का नाम. दीदी के छोटे से वन रूम फ़्लैट में थोड़ी देर के लिए ऐसा लग रहा था जैसे कितने पुराने और पक्के दोस्त थे हम तीनों. दीदी कितनी खुश थी कि तुमसे मिलना हो गया. दीदी को कवितायेँ सुनायीं, कुछ उनका लिखा पढ़ा. उनकी डायरी पढ़ लेने की धमकी दी.

वापसी के रास्ते कैसे कैसे तो गाने चिल्लाते आये थे हम. याद है दोस्त? जिंदगी एक सफ़र है सुहाना से लेकर ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे. कॉलेज में किसी को भी बोलते कि हम आगरा हो कर आये हैं तो सब वाकई यही कहते कि हाँ...आगरा होकर आये हो. तो खबर हम दोनों आराम से पचा गए. हम दोनों अच्छे खासे सच बोलने वाले इंसान थे इसलिए किसी ने ज्यादा पूछताछ भी नहीं की.

सोचती हूँ अगर तेरी पोस्टिंग किसी दूसरे शहर में नहीं होती तो क्या वैसी कुछ और लॉन्ग राइड्स पर जाती क्या तुम्हारे साथ. तुम भी जाने किसी कोहरे वाले दिन में तेज़ चलाते होगे बाईक तो मेरा आई लव यू याद आता होगा. बात सिंपल थी लेकिन वो लव यू शायद कहीं अटका रह गया मेरी यादों में. आज तुम्हारी बहुत याद आई. आगरा और ताजमहल से भी ज्यादा. जान से प्यारे दोस्त...बहुत साल हो गए मिले हुए...चल न, एक राइड पर चलते हैं. तेज़ चमकती रोशनियाँ हो. बहुत सारा कोहरा हो. कानों में सीटियाँ बजाती हवा हो. फिर से तुम्हारा नाम लेकर दिल्ली से लेकर आगरा के पागलखाने को सुनाने का मन कर रहा है. आई लव यू.

हाँ, इत्ती कहानी सुना दी...गाना ये वाला था...


I think that possibly, maybe I'm falling for you
Yes there's a chance that I've fallen quite hard over you.
I've seen the paths that your eyes wander down
I want to come too

No one understands me quite like you do
Through all of the shadowy corners of me

I think that possibly, maybe I'm falling for you

12 August, 2013

तेज़ चलाओ...और तेज़...और तेज़

जानेमन, हम सोच रहे हैं कि आपका नाम 'जीशान' रख दें.
बाईक पर वो दोनों बहुत तेज़ उड़े जा रहे थे. सामने खुली सड़क थी और पीछा करते घने काले बादल. देखना ये थी कि बैंगलोर पहले कौन पहुँचता है...वो दोनों या बारिश. रेस लगी हुयी थी और सारे जिद्दी किस्म के लोग थे. इस बेखयाली में लड़की का नीला स्कार्फ जैसे बादल को चिढ़ा रहा था कि आँचल छू के दिखाओ तो जानें और लड़का सूरज की भागती किरणों के पहिये पर था. बाईक हवा से बातें कर रही थी...हवा बाईक के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक दे रही थी. इस सारे माहौल में लड़के को अचानक से नाम बदलने की बात समझ में नहीं आनी थी, नहीं आई.
'हमारे नाम में क्या बुराई है?' पीछे मुड़ते हुए बोला...हवा उसके आधे अक्षर उड़ा कर ले गयी और एक नया गाना गाने लगी.
'इस नाम से तुम्हें सारे लोग बुलाते हैं, बहुत कोमन हो गया है तुम्हारा नाम'
'नाम का काम ही यही होता है, कितने प्यार से घर वालों ने नाम रखा है ------- ------ ----' हवा उसके नाम के सारे अक्षर उड़ा गयी और लड़की के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लड़की चुप.
'तुम्हें ये नया नाम रखने की क्या सूझी, नया नाम तो शादी के बाद बदलते हैं...या फिर उस ऐड की तरह...आई विल टेक अप हर सरनेम'.
'शादी के बाद तुम नाम बदल लोगे!?'
'नाम बदल लूँगा तो तुम मुझसे शादी कर लोगी?'
'तुम प्रपोज कर रहे हो?'
'तुम हाँ बोल रही हो?'
'पता है आइंस्टीन ने कहा था कि ऐनी मैन हू कैन ड्राइव सेफली व्हाइल किसिंग अ प्रेटी गर्ल इस सिम्पली नौट गिविंग द किस द अटेंशन इट डिजर्व्स'
' भाड़ में गया तुम्हारा आइन्स्टीन...मैं यहाँ ऐसा सवाल कर रहा हूँ और तुम्हें कोटेशन की पड़ी है'
'बिना भीगे बैंगलोर पहुँच गए तो कर लूंगी'
'आई विल मेक श्योर आई गिव द किस द अटेंशन इट डिज़र्वस्'
अब बस बैंगलोर जल्दी पहुंचना था...दोनों की जुबान पर बीटल्स का गीत था...Close your eyes and I'll kiss you...tomorrow I'll miss you....फुल वॉल्यूम में और बिना किसी सही ट्यून के एक साथ दोनों गा रहे थे.
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ब्लैक आउट.
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याद के आखिरी चैप्टर में जुबान पर खून का तीखा स्वाद था...जंग लगे लोहे जैसा. उसे याद नहीं कि बाईक कहाँ स्किड हुई थी...ट्रक ने कौन सा टर्न लिया था. उसने रियर व्यू मिरर में उसकी आँखें देखी थीं. हेलमेट की स्लिट से. उन आँखों में बहुत सारा प्यार और उतनी ही शरारत थी. ये हरगिज़ वो आँखें नहीं थीं जिनमें मौत नज़र आये. तो क्या खुदा से कोई गलती हो गयी थी?
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उसे किस्तों में मिटाना बहुत मुश्किल था. यकीन नहीं था वो इस तरह हिस्सा बनता गया था. बीटल्स के गीत हो या कि गुरुदत्त की फिल्में...कितने सारे सीडी कवर पर उसका लिखा कुछ न कुछ मिल जाता था. घर के कोने कोने में उसकी लिखी पुर्जियां थी और याद के कोने कोने में उसकी चिप्पियाँ. घर की दीवारों पर उसके इनिशियल्स थे. पसंद की फिल्मों के प्रिंट्स काले फ्रेम में थे...लड़की को हर कील की पोजीशन और फिर ड्रिल करता हुआ वो याद आता था. उसका टूल किट डोनेट करते हुयी कैसी फूट फूट के रोई थी वो.

बाईक सर्विसिंग के वापस आ गयी थी. लड़की को लड़कपन के बाईक सीखने वाले दिन याद आ गए. बाकी लोगों के उलट, उसने बाईक पहले सीख ली थी. वो अपने घर वालों का एकलौता बेटा था...सब काफी प्रोटेक्टिव थे उसको लेकर. पापा ने कार ले दी थी लेकिन बाईक कोई उसे न सीखने देता, न चलाने देता कभी. इसी सिलसिले में वो पहली बार छुप छुप के मिलने लगे थे. कोलेज में गर्मी की छुट्टियाँ थीं. लड़की उसे बाईक का क्लच, गियर, ब्रेक सब बता रही थी. धीरे धीरे बोलते हुए भी घबराहट में वो एक्सीलेरेटर देते चला गया था. तेज़ गाड़ी से जब दोनों फेंकाए थे तो बारिश के कारण ही बचे थे. मिट्टी और कीचड़ था इतना कि जरा भी चोट नहीं आई. उस दोपहर दोनों ने बारिश का इंतज़ार किया. मूसलाधार बारिश में कपड़े साफ़ हुए तो घर जाने लायक हालत हुयी. बाईक और बारिश से रिश्ता उम्र के साथ गहराता गया.

लॉन्ग ड्राइव्स, शोर्ट ड्राइव्स...रेसिंग. कितने सारे रास्तों से गुजरी उनकी दोस्ती. लड़का जब पहली बार दिल्ली गया तो दो पोस्टर लेकर आया. हार्ले डेविडसन के. वो फ्रेम्स दोनों ने खुद मिल कर की थीं. लकड़ी की पतली बीट्स को पेंट करने से लेकर छोटी कीलें लगाने तक. उनके कमरे बिलकुल आइडेंटिकल थे, सिवाए एक ड्रेसिंग टेबल और एक छोटे डम्ब बेल्स के.
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उसके होते हुए लड़की को कभी नहीं लगा कि वो ऐब्नोर्मल है. लड़की को कभी किसी और दोस्त की या किसी और वैलिडेशन की जरूरत महसूस नहीं हुयी. उसने कभी नहीं देखा कि उसकी बाँहें टैन हो गयी हैं या कि चेहरे पर मुहांसे निकल रहे हैं. जिंदगी में इतना सारा खालीपन अचानक से आ गया था और भरने का कोई तरीका उसे मालूम नहीं था. घर पर सबको लग रहा था कि अब वो इस बाईक के जंजाल से निकल कर सलवार कुरता पहन कर तमीज से दुपट्टा लेने वाली लड़की बनेगी. शायद तरस खा कर कोई लड़का शादी कर भी ले उससे. घर में मामियों, चाचियों, भाभियों का जमघट लग गया था. उसके स्लीवलेस टॉप और शॉर्ट्स को देख कर नाक भौं सिकोड़ती औरतें उसे कभी तोरई की सब्जी बनाने के तरीके बतातीं कभी पति को मुट्ठी में काबू करने के नुस्खे सिखातीं.
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डेढ़ महीने बाद पैर का प्लास्टर खुला. घर पराया हो रहा था. इतने सारे लोग सुबह शाम. उनकी सिम्पथी. डॉक्टर ने महीने भर का वक़्त बताया था ठीक से चलने में. घर के ईजल की जगह व्हाईट बोर्ड ने ले ली थी. हार मानना और रो कर बैठना किसी बाईकर की जिंदगी में नहीं आता. गिरने के बाद हँसते हुए उठना, बाईक की स्थिति जांचना और फिर राह पर निकल पड़ना एक आदत सी बन जाती है.

बाईक एक ऐसा बेस्ट फ्रेंड होती है जिससे प्यार ताउम्र चलता है. लड़की ने एक ऐडवेंचर क्लब का पूरा खाका तैयार कर लिया था. जिंदगी के पागलपन को एक रास्ता चाहिए था. घर पर सबको यकीन था वो कभी बाईक चला नहीं पाएगी. डॉक्टर्स ने उसकी स्थिति देख कर कहा था कि वो डिप्रेशन की शिकार है और खुद को ज्यादा फ़ोर्स न करे. उन्ही परिस्थितियों से दोबारा गुजरने पर उसमें सुसाइडल टेंडेंसी डेवेलप कर सकती है. इस वक़्त उसे थोड़े आराम की जरूरत है.

सबके डरने से उसकी भी धड़कन तेज़ हो गयी थी. जब राइडिंग गियर पहन कर वो बाईक के पास जा रही थी तो दर्जनों आँखें उसका पीछा कर रहीं थीं. उसे आज तक कभी खुद को प्रूव करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसका जो दिल करता था करती आई थी. उसे कभी ये भी नहीं लगा कि वो कुछ बहुत ख़ास कर रही है. मगर आज जैसे अग्निपरीक्षा थी.

उसने हेलमेट पहना, गॉगल्स लगाये और बाईक स्टार्ट की. प्यार. दर्द. जीशान. खोना. खालीपन. सब पीछे छूटता गया. वन्स अ बाईकर. बाईकर फॉर लाइफ. जिंदगी अच्छी सी लग रही थी. जीने लायक. खुशनुमा. तेज़ रफ़्तार. इश्क जैसा कुछ. जिंदगी जैसा कुछ.

गीत फिर भी वही था...बीटल्स...टुमोरो आई विल मिस यू...

05 May, 2012

जवान जानेमन, हसीन दिलरुबा...

ई बैटमैन की हेयरस्टाइल है...कैसी है?
कल बहुत दिन बाद मैंने शोर्ट बाल कटाये...१०थ तक मेरे बाल हमेशा छोटे रहे थे पर उसके बाद लंबे बालों का शौक़ था तो कभी छोटे करवाए नहीं...पर होता है न, मन एकरसता से ऊब जाता है, उसमें मैं तो और किसी चीज़ पर टिकती ही नहीं...बहुत दिनों से सोच रही थी पर लंबे बाल इतने सुन्दर थे कि कटाने में मोह हो जाए, हर बार पार्लर सोच के जाऊं कि इस बार शोर्ट करवा लूंगी और ट्रिम करवा के लौट आऊँ. कल जेन को मेसेज किया कि कोई अच्छा पार्लर बताओ, उसने जो पता बताया वो गूगल मैप पर कहीं मिल ही नहीं रहा था...तो हम थक हार के अपने पुराने वाले पार्लर जाने ही वाले थे कि उसका मेसेज आया कि जाने के पहले फोन कर लेना हम एड्रेस समझा देंगे, एकदम सिंपल रास्ता है.

मैं 'कंट्रोल फ्रीक' की श्रेणी में आती हूँ...जब तक चीज़ें मेरे हाथ में हैं मैं खुश रहती हूँ...पर थोड़ा सा भी कुछ मेरे कंट्रोल से बाहर हुआ नहीं कि धुक धुकी शुरू...कार ड्राईव करने में यही होता है...किचन में कोई और खाना बनाये तो यही होता है...बेसिकली मुझे हर चीज़ में टांग अड़ानी होती है. डेंटिस्ट, ब्युटिशियन, कार वाश...ऐसी जगहों पर मेरी हालत खराब रहती है. सबसे डरावनी चीज़ होती है किसी ऊँची कुर्सी पर बिठा दिया जाना ये कहते हुए कि अब सब भूल जाओ बेटा और भगवान का नाम जपो.

तो हम बाल कटाने के लिए ऐसे ही तैयार होते हैं जैसे बकरा कटने के लिए...इन फैक्ट कल जेन फोन करके बोली भी कि 'रेडी फॉर द बुचर'...खैर. ले बिलैय्या लेल्ले पार के हिसाब से हम एक गहरी सांस लिए और बैठ गए कुर्सी पर. फैशन की ज्यादा समझ तो है नहीं हमें तो बस इतना कहा कि बाल छोटे कर दो...कंधे से ऊपर...उसने पूछा आगे की लट कितनी बड़ी चाहिए तो बता दिया कि कान के पीछे खोंसी जा सके इतनी बड़ी. बस. फिर चश्मा उतार कर वैसे भी हम अंधे ही हो जाते हैं...आईने में बस एक उजला चेहरा दिखता है और काले बाल. डीटेल तो कुछ दिखती नहीं है. फिजिक्स का कोई तो कोश्चन भी याद आया जिसमें आईने की ओर दौड़ते आदमी का स्पीड निकालना था उसके अक्स के करास्पोंडिंग या ऐसा ही कुछ पर ध्यान ये था कि आईने के इस तरफ जितनी दूरी होती है...आईने के उस तरफ भी इतनी ही दूरी होती है. तो मुझसे मेरा अक्स बहुत दूर था. यही फिलोस्फी रिश्तों पर भी अप्लाय होती है...बीच में एक आइना होता है...हम अपने ओर से जितनी दूरी बनाते हैं, सामने वाला भी उतनी ही दूर चला जाता है हमसे...हम पास आते हैं तो वो जिसे कि हम प्यार करते हैं...हमारा अक्स, वो भी एकदम पास आ जाता है.

कुर्सी पर बैठे बुझा तो रहा ही था कि बाबु घने लंबे बाल गए...छे छे इंच काट रही थी कैंची से...किचिर किच किच...हम बेचारे अंधे इंसान...सोच ये रहे थे कि कुणाल को बताये भी नहीं हैं...छोटे बाल देख कर कहीं दुखी न हो जाए...ब्युटिशियन हमारे बाल की खूब तारीफ़ भी किये जा रही थी कि कितने सुन्दर बाल हैं...हम फूल के कुप्पा भी हुए जा रहे थे. हालाँकि बैंगलोर के पानी में बालों की बुरी हालत हो गयी है फिर भी फैक्ट तो है...बाल हमारे हैं खूब सुन्दर...इसके साथ वो हमको बिहार की सुधरी स्थिति पर भी ज्ञान दे रही थी...पार्लर में लोग हिंदी में बात कर रहे थे...ब्युटिशियन हिंदी में बात कर रही थी...आइना में कुछ दिख नहीं रहा था...कुल मिला कर खुश रहने वाली जगह थी. हमको आजकल अक्सर लगने लगा है कि बिना चश्मे के चीज़ें ज्यादा सुन्दर दिखती हैं.

 हम तो कहते हैं, हमरी वाली बेटर है बैटमैन से :)
खैर...खुदा खुदा करके हेयरकट समाप्त हुआ और हमने चश्मा चिपकाया...आईने में छवि निहारी...वाकई उम्र  कम लग रही थी...एकदम जैसे कान्वेंट में लगते थे(दिल के बहलाने को...) वैसे ही छुटंकी लग रहे हैं ऐसा खुद को समझाया...फिर बाइक उठायी और निकल लिए जेन से मिलने...अरे इन्स्टैंट फीडबैक चाहिए था न कि कैसे लग रहे हैं...पति को तो जानते हैं...जब तक बोलेंगे नहीं, नोटिस भी नहीं करेगा कि बाल कटाये हैं. फ़िल्टर कॉफी टिकाई गयी...तारीफ भी की...कि बहुत कूल हेयरकट है और मैं बहुत यंग दिख रही हूँ. बस हम क्या हवा में उड़ने लगे तभी से.

उसे एक बच्चों की पार्टी के लिए गिफ्ट खरीदना था...तो हम एक टॉय शॉप गए, चार तल्लों की बड़ी सी दुकान जिसमें सिर्फ खिलोने. दो घंटे हम उधर ही अटक गए...एक ठो बैटमैन का बड़ा मस्त सा गुल्लक ख़रीदे...उसमें हम अब अपना पेन सब रखेंगे. घूम फिर के घर आये वापस. कुणाल, साकिब और अभिषेक दस बजे के आसपास घर लौट रहे थे फिर प्लान हुआ कि बाहर खाते हैं तो हम लोग 'खाजा चौक' पहुंचे. जैसा कि एक्सपेक्टेड था पतिदेव को खाने और मेनू से ऊपर बीवी की हेयरस्टाइल में कोई इंटरेस्ट नहीं दिखा...तो बताना पड़ा कि बाल कटाये हैं. कुछ स्पेशियल कोम्प्लिमेंट भी नहीं मिला...हम बहुत्ते दुखी हो जाते लेकिन तक तक एकदम लाजवाब पनीर टिक्का और भरवां तंदूरी मशरूम आ चुके थे...तो उदास होना मुल्तवी कर दिया.

आज छः बजे भोर के उठे हुए हैं...ऐवें मन किया तो पोस्ट चिपकाये देते हैं...वैसे भी वीकेंड में कौन ब्लॉग पढता है.

24 November, 2011

लव- वाया रॉयल एनफील्ड

परसों साकिब की बाईक फाइनली आ गयी...रोयल एनफील्ड थंडरबर्ड. बैंगलोर में एनफील्ड की लगभग चार महीने की वेटिंग चल रही है. तो बुक कराये काफी टाइम हुआ था और हमारे इंतज़ार को भी. शाम जैसे ही फोन आया की 'भाभी, बाईक आ गयी'...भाभी दीन दुनिया, मोह-माया सब त्याग कर फिरंट. कार उठाये और यहीं से हल्ला कि अकेले मत चले जाना, हम आ रहे हैं. फिर डेयरी मिल्क ख़रीदे, बड़ा वाला...कि मिठाई कौन खरीदने जाए...और शुभ काम के पहले कुछ मीठा हो जाए. कुणाल आलरेडी हल्ला कर रहा था कि हमको टाइम नहीं है, उसपर हम हल्ला कर रहे थे कि तुमको बुला कौन रहा है. उसको वैसे भी बाईक का एकदम भी शौक़ नहीं है.

तो लगभग पांच बजे हम इंदिरानगर से चले और कोरमंगला से साकिब और अभिषेक को उठाये फिर जयनगर, एनफील्ड के शोरूम. ओफ्फफ्फ्फ़ क्या जगह थी...कभी इस बाईक पर दिल आये, कभी उस पर. कभी डेजेर्ट स्टोर्म पर मन अटके कभी क्लास्सिक क्रोम जानलेवा लगे. पर सबमें प्यार हुआ तो थंडरबर्ड से...सिल्वर कलर में. दिल तो वहीं आ गया कि ये वाली बाईक तो उठा के ले जायेंगे. समस्या बस इतनी कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है. खैर...साकिब की बाईक आई, हमने डेरी मिल्क खा के शुभ आरम्भ किया...उफ्फ्फ क्या कहें...उस बाईक पर बैठ कर दुनिया कैसी तो अच्छी लगने लगती है. लगता है जैसे सारे दुःख-तकलीफ-कष्ट ख़तम हो गए हैं. मन के अशांत महासागर में शांति छा गयी है...कभी लगे कि जैसे पहली बार प्यार हुआ था, एकदम १५ की उम्र में, वैसा ही...दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है...सांसें तेज़ चल रही हैं और हम हाय! ओह हाय! किये बैठे हैं. घर वापस तो आ गए पर दिल वहीं अटका हुआ था, थंडरबर्ड में...सिल्वर रंग की.

अब मसला था कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है...और थंडरबर्ड कोई छोटंकी बाईक नहीं है कि हम अपने लिए खरीद लें...ऊँची है और चलाने के लिए कोई ६ फुट का लड़का चाहिए होगा. हमने अपनी पीठ ठोंकी कि अच्छे लड़के से शादी की, कुणाल ६'१ का है...और थंडरबर्ड चलाने के लिए एकदम सही उम्मीदवार है. दिन भर, सुबह शाम दिमाग में बाईक घूम रही थी...कि ऐसा क्या किया जाए...और फिर समझ नहीं आ रहा था कि लड़के को बाईक न पसंद हो ठीक है...पर ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को एनफील्ड से प्यार न हो. जिस बाईक को देख कर हम आहें भर रहे हैं...वो तो फिर भी लड़का है. कल भोरे से उसको सेंटी मार रहे थे कि क्या फायदा हुआ इतना लम्बा लड़का से बियाह किये हैं कभियो एक ठो चिन्नी का डब्बा भी दिया किचन में रैक से उतार के. हाईट का कोई फायदा नहीं मिला है हमको...अब तुमको कमसेकम बाईक तो चला दी देना चाहिए मेरे लिए. उसपर भी हम खरीद देंगे तुमको, पाई पाई जोड़ के, खूब मेहनत करके. बाईक भी सवा लाख की है, इसके लिए कितना तो मेहनत करना पड़ेगा हमें. कुणाल के पसंद की कोई चीज़ हो तो हम उससे खरीदवा लें. अपने पसंद की चीज़ तो खुद खरीदनी चाहिए ना. तो हम दिन भर साजिश बुन ही रहे थे कि कैसे कुणाल को बाईक पसंद करवाई जाए.


इन सब के बीच हमें ये नहीं पता था कि कुणाल ने एनफील्ड कभी चलाई ही नहीं है. कल रात साकिब और कुणाल ऑफिस से लौट रहे थे जब जनाब ने पहली बार चलाई. मुझे पहले ही बोल दिया था कि तैयार होके रहना घूम के आयेंगे...तो मैंने जैकेट वैकेट डाल के रेडी थी घर के नीचे. डरते डरते बैठी, कुणाल का ट्रैक रिकोर्ड ख़राब है. मुझे पहली ही डेट पर बाईक से गिरा दिया था. (लम्बी कहानी है, बाद में सुनाउंगी). तो हम बैठे...कोई रात के ११ बजे का वक़्त...बंगलौर का मौसम कुछ कुछ दिल्ली की ठंढ जैसा...इंदिरानगर गुडगाँव के सुशांत लोक जैसा...एक लम्हा था कि जैसे जादू सा हुआ और जिंदगी के सारे हिस्से एक जिगसा पजल में अपनी सही जगह आ के लग गए. हलकी हवा, कुणाल, थंडरबर्ड और मैं...और उसने इतनी अच्छी बाईक चलाई कि मुझे चार साल बाद फिर से कुणाल से प्यार हो गया. फिर से वैसा लग रहा था कि जैसे पहली बार मिली हूँ उससे और वो मुझे दिल्ली में घुमा रहा है. लगा कि जैसे उस उम्र का जो ख्वाब था...एक राजकुमार आएगा, बाईक पे बैठ कर और मेरा दिल चोरी कर के ले जाएगा...वैसा कुछ. कि कुणाल वाकई वही है जो मेरे लिए बना है. कितना खूबसूरत लगता है शादी के चार साल बाद हुआ ऐसा अहसास कि जिसने महसूस किया हो वही बता सकता है.

It was like everything just fell into place...and I know he is the one for me :) Being on bike with him was like a dream come true...exactly as I had imagined it to be, ever in my teenage dreams. My man, a bike I love...weather the way I like it and night, just beautiful night in slow motion...dreamy...ethereal.

और सबसे खूबसूरत बात...कुणाल को एनफील्ड अच्छी लगी, दरअसल बेहद अच्छी लगी...घर आ के बोला...अच्छी बाईक है, खरीद दो :) :)

पुनःश्च - It is impossible for a man to not fall in love with a Royal Enfield. There is something very subliminal...maybe instinct. I don't know how the bike-makers got it right but for me a man riding a Royal Enfield is the epitome of perfection, like the complete man from Raymond adverts. The classic, masculine image of a man before being toned down by the desire to fit into the metrosexual category. It signifies the change from being a boy to being a man. Be a man, ride an Enfield.

The views and opinions in this blog are strictly of the blog author who has a right to publish any gibberish she wants to...the busy souls are requested to find someplace else to crib!! ;) ;) I will not clarify any of the terms like metrosexual man, raymonds man, classic...whatever :D :D

अन अफेयर विथ बाइक्स/मुहब्बतें

मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक  यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.

Enticer 
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).

शान की सवारी- राजदूत
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.

ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.

उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.

मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.

तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में. 

28 March, 2011

पहला एक्सीडेंट

पहले तो सफाई की हमारे एक्सीडेंट में कोई रूमानी बात नहीं है, हाय हमारी ऐसी किस्मत कहाँ...ठुके भी तो...खैर. उस दिन हम जाने किसका चेहरा देख कर उठे थे...सुबह कुछ काम से जाना था, हड़बड़ी में निकले थे. एक प्रिंट आउट निकलवाना था...वाल्लेट खोलते हैं तो देखते हैं की पैसे नदारद...हम अधिकतर लड़कों वाला वालेट ही लेकर चलते हैं की जींस की बैक पॉकेट में डाला और निश्चिन्त, पर्स ले जाने में मेरा ज्यादा भरोसा नहीं है. लेकिन इत्तिफाकन एक रात पहले हमने अपने पर्स में पैसे और कार्ड्स डाल दिए थे और सुबह हड़बड़ी में चेक करना भूल गए. अब मेरे वालेट में एक भी रूपया नहीं...रुपये की तो खैर मैं जायदा चिंता नहीं करती पर लाइसेंस नहीं था और मैं बिना DL के बैक नहीं चलती. तो घर गयी, पर्स उठाया...मुहूर्त का तो कबाड़ा हो ही गया था. 

लावेल रोड के आसपास पार्किंग की जगह ही नहीं एकदम...मैंने कार पार्किंग में ही बाईक खड़ी कर दी की दस मिनट का काम है, दस मिनट के घंटा हो गया. बाहर आई तो देखती हूँ नो-पार्किंग वाले ले जा रहे हैं उठा के. देर काफी हो गयी थी तो पहले ऑटो किया और ऑफिस भागी. तब तक लगभग लंच का टाइम हो गया था. आधे रस्ते में याद आया की टिफिन भी तो बाईक में ही है उसपर से कल रात काजू पनीर की सबकी बनायीं थी तीन बजे...और चखी भी नहीं थी. अब तो लगे की पहले बाईक से उतर कर रोना शुरू कर दूं. ऑफिस पहुंची तो पता चला मीटिंग कैंसिल थी. मैंने सोचा बाईक ले आती हूँ...भूख लग रही थी, सुबह से एक बजने  को आये थे और खाना कुछ भी नहीं खाया था. 

बाईक लाने के लिए जिस ऑटो से गयी उसने वन वे में एंट्री कर दी...वहां से उतर कर कुछ पौन किल्मीटर चल कर वहां पहुंची जहाँ बेचारी मेरी बाईक खड़ी थी. तीन सौ रूपये दे कर गाडी छुड़ाई और वापस ऑफिस...आजकल  मेट्रो का काम चल रहा है तो खुदी हुयी सड़क पर बोर्ड लगा लिए गए हैं. मैंने उधर ही यु टर्न के लिए बाइक मोड़ी...सड़क लगभग खाली थी कुछ गाड़ियाँ आ रही थी...चूँकि तुरत यु टर्न लिया था तो मैं सबसे दायीं लें में थी...अचानक से मुझे पता भी नहीं चला और काफी तेज़ी से एक कार ने अचानक मुझे ठोक दिया, मेरी बाइक काफी धीमी थी इसलिए मैं ब्रेक मार कर रकने या कंट्रोल करने की कोशिश की पर व कार इतनी तेज़ी से आ रही थी की मैं एक पलटन खाते हुए दूर फेंका गयी. किस्मत अच्छी थी की पीछे वाली गाड़ियाँ मुझपर नहीं चढ़ीं. कुछ लोग आये, उन्होंने मुझे उठाया, बाइक को सड़क किनारे लगाये. अचानक चोट या दर्द तो ज्यादा नहीं हो रहा था बस थोड़ा shaken महसूस कर रही थी. किसी भी तरह का एक्सीडेंट थोड़ा वल्नरेबल फील करा देता है. लग रहा था की कुछ भी हो सकता था, मर सकती थी. अचानक, बिना किसी से विदा लिए हुए.

वहां खड़े एक अंकल ने गाडी का नंबर भी नोट कर लिया था...मैंने भी सोचा की एक कम्प्लेन तो डाल ही दूँगी. पानी पिया और थोड़ी देर गहरी सांसें ले कर खुद को संयत किया. वहीं लोगों ने बताया की कार वाले के पीछे एक व्यक्ति बाइक से गया है. मैंने उम्मीद तो क्या ही की थी...पर दस मिनट ने अन्दर वो कर वाले को लेकर आ गया और बला की आप लोग आपस में बात कर लीजिये. मैं तब तब एकदम परेशान हो चुकी थी, रोना सा आ रहा  था. पर मैंने सोचा की घबराने की कोई बात नहीं है...मैं ठीक हूँ और कुछ ही समय में घर पहुँच जाउंगी. गाडी वाला सॉरी बोला..पूछा की मुझे चोट तो नहीं लगी...मैं काफी परेशान थी तो मैं कुछ नहीं कहा उससे...बस इतना की ये कोई तरीका है कार चलने का, न मैं किसी गलत लेन में थी, न मैं ओवेर्टेक कर रही थी, न मैं वन वे में थी...पूरी सड़क खाली थी. खैर...

असली मुसीबत फिर शुरू हुयी जब बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी...एक तो चोट लगी थी, उसपर किक मरते मारते हालत ख़राब...बहुत देर के बाद जाके बाइक स्टार्ट हुयी. वहां से चली और मुश्किल से १०० मीटर चली होगी की फिर बंद...अब चिन्नास्वामी स्तादियम से mg रोड तक बाइक पार्क करने की कोई जगह ही नहीं. वहां से लगबग आधा किलोमीटर बाइक खींच कर लायी. बीच सड़क में छोड़ भी नहीं सकती थी. फिर काफी देर बाइक स्टार्ट करने की कोशिश की...फिर सोचा की थोड़ा और पेट्रोल डाल कर देखते हैं...तब तक लगभग ढाई बज गए थे और भूख के मारे चक्कर आने लगे थे. वहां से कोई तीन सौ मीटर पर पेट्रोल पम्प था...एक अच्छे दरबान भईया ने बोतल ला के दी...फिर पैदल गयी और पेट्रोल लिया. उस वक़्त इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी की रोड पार करके उस तरफ से औत लेकर पेट्रोल पम्प जाऊं. सर्विस सेंटर को फोन किया तो उन्हने बताया की पूरा एक्सीलेरेटर दे कर किक मारने से स्टार्ट हो जाएगा. 

पेट्रोल डाला और स्टार्ट करने की कोशिश की तब भी नहीं हो रहा था...तब एक और भला लड़का आया और उसने बहुत कोशिश की...फिर बाइक स्टार्ट हो गयी. जब जाने की बारी आई तो ध्यान आया की हेलमेट तो डिक्की में है...और डिक्की खोलने के लिए चाभी निकालनी होगी...रोना आ गया एकदम से. पर अभी तुरत एक्सीडेंट हुआ था तो बिना हेलमेट के कहीं जाने में बहुत डर लगा. खैर...इस बार इतनी दिक्कत नहीं हुयी. 

वहां से ऑफिस आई खाना खाया...फिर भी थोड़े चक्कर आ रहे थे. तो सोचा घर चली जाऊं. तो घर चली आई की आज का दिन बहुत ख़राब है...जितनी जल्दी घर पहुँच जाऊं बेहतर रहेगा. मेरे साथ एक प्रॉब्लम और है की घर में मूड अच्छा हो तो मन लगता है वरना घर काटने को दौड़ता है. तो शाम को फिर घूमने निकल गयी. वापस आई कपडे बदले तब पहली बार देखा की कितनी चोट लगी है. एक सेकंड को तो फिर से चक्कर आ गए. जींस पहनती हूँ इसलिए छिला नहीं कुछ पर कुछ हथेली भर जितना बड़ा खून का थक्का जम गया था. देखने के बाद और दर्द होने लगा. रात होते होते और भी जगहों के दर्द उभरे. 

अगले दिन ये हालत की चलने में पूरे बदन में दर्द और जुबान पर 'सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी, एक जगह हो तो बताएं की इधर होता है'. दो दिन आराम किया पर आराम कहाँ...लगता है पहली बार प्यार में गिर पड़े हैं, दर्द जाता ही नहीं...इश्क कर बैठा है मुझसे. अब कुछ दिन तक न कार चलेगी मुझसे न बाइक. घर बैठे लिखने पढने का इरादा है. 

जो लोग ब्लॉग में नए हैं जैसे सागर, अपूर्व, दर्पण, डिम्पल, पंकज...इनसे अक्सर हम अक्सर ब्लॉग के एक सुनहरे दौर की बात किया करते हैं...जब दुनिया में कम लोग थे और हर छोटी चीज़ पर कई दिन बात किया करते थे. जैसे पीडी की टांग नहीं टूटने के बाद भी अब तक पुराने लोग पीडी के टांग टूटने का किस्सा जानते हैं. तो फुर्सत में मैंने कुछ लिंक ढूंढ निकले हैं...ताकि थोड़ा अंदाजा हो की उस समय क्या क्या बातें करते थे हम, रामप्यारी कौन है, क्या करती है वगैरह. मुझे चिट्ठाजगत का लिंक नहीं मिल रहा..वरना पोस्ट करती. 

खैर...हम ठीक हैं अभी...आराम कर रहे हैं...आप लोग दुआओं का टोकरा भेजिए, लगे हाथ कुछ फल, मिठाई भी आ सकती है टोकरे में. :) :) 

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