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24 May, 2020

खो गयी चीज़ें और उनके नाम

दिल के भीतर चाहे जैसे भी रंग भरे हों, दिल की आउट्लायन दुःख के सीले स्याह से ही बनायी गयी है। जाने कैसी उदासी है जो रिस रिस के आँख भर आती है। कुछ दिन पहले पापा से बात कर रही थी, उन चीज़ों के बारे में जिनका नाम सिर्फ़ उन्हें पता है जिनके बचपन में वो शामिल रही हों। कई सारे खिलौने। 

अभी जब सब कुछ ही प्लास्टिक का होता है और छूने में एक ही जैसा लगता है। तब के इस खिलौने में कितनी चीज़ों का इस्तेमाल था। सन की रस्सी। पतली चमकदार जूट जिसे हिंदी में सन कहते हैं… गाँव के रास्ते कई जगह देखती थी सन को धूप में सुखाया जा रहा होता था और फिर उसकी बट के रस्सी बनायी जाती थी। इसके लिए एक लोहे का खूँटा गाड़ा गया होता था जिसमें से लपेट कर सन को ख़ूब उमेठ उमेठ कर रस्सी बनायी जाती थी। कुएँ का पानी खींचने के लिए सन की ही रस्सी होती थी। कभी मजबूरी में नारियल वाली रस्सी का भी इस्तेमाल देखा है, पर उस रस्सी से हाथ छिल जाते थे। सन की रस्सी चिकनी होती थी, हाथ से सर्र करके फिसलती थी तो भी हाथ छिलते नहीं थे। 

एक खिलौने में मिट्टी का सिकोरा और पहिए होते थे। काग़ज़ होता था। बाँस होता था। सबका अलग अलग हिस्सा, अलग अलग तासीर…सब कुछ जल्दी टूट जाने वाला। रस्सी से खींची जाने वाली आवाज़ करने वाली एक गाड़ी होती थी। मिट्टी का एक छोटा सिकोरा, उसके ऊपर पतला काग़ज़ जूट की पतली रस्सी से बँधा होता था। इसके ऊपर दो छोटी छोटी तीलियाँ होती थीं। एक छोटा सा ढोल जैसा बन जाता था। इसके मिट्टी के दो छोटे छोटे गोल पहिए होते थे और बाँस की दो खपचियाँ लगी होती थीं, जैसे कि कोई छोटी सी छकड़ागाड़ी हो। इसके आगे धागा बँधा होता था। मेले में अक्सर मिलता था। कभी कभी टोकरी में लेकर खिलौने वाले इसे बेचने घर घर भी आते थे। इसकी रस्सी पकड़ कर चलने से दोनों तीलियाँ ढोल पर बजने लगती थीं। एक टक-टक-टक जैसी आवाज़। छोटे बच्चों को ये ख़ूब पसंद होता था। मिट्टी का होता था, बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलता, कभी काग़ज़ फट जाता तो भी खिलौना बेकार हो जाता था। मेरे बचपन की याद में इस खिलौने की टिक-टिक-टिक-टिक भी है।

इसी तरह हाथ में पकड़ कर गोल गोल घुमाने वाला एक खिलौना होता था। उसमें गहरे गुलाबी रंग की प्लास्टिक की पन्नी लगी होती थी। जिसे हम रानीकलर कहते थे। इसे हाथ में लेकर बजाते थे। वही दो तीलियाँ होती थीं, एक लोहे का महीन तार होता था और कड़-कड़-कड़ जैसी आवाज़ होती थी।

गाँव में एक बड़ी सी अलमारी थी। गोदरेज की। उसमें जाने क्या क्या रखा रहता था। कभी कभी तो दही और दूध की हांडियाँ भी। बिल्ली से बचने की इकलौती महफ़ूज़ जगह होती होगी, शायद। मेरा कच्चा मकान था वहाँ, दो तल्लों का। पहले फ़्लोर पर जाने को मिट्टी की सीढ़ियाँ थीं। हम उन सीढ़ियों पर कितनी बार फिसल कर गिरे, लेकिन कभी भी चोट नहीं आयी। मिट्टी का आँगन गोबर से लीपा जाता, उसपर भी फिसल कर कई बार, कई लोग गिरे थे। हमारे चारों तरफ़ मिट्टी ही मिट्टी होती। पेड़ों पर, घरों की बाउंड्री वाल एक आसपास, खेत, गोहाल, घर…हम जहाँ भी गिरते, वहाँ मिट्टी ही होती अक्सर। मिट्टी में कभी ज़्यादा चोट नहीं आती। छिले घुटने और एड़ियों पर मिट्टी रगड़ ली जाती या हद से हद गेंदे के पत्तों को मसल कर उनका रस लगा लिया जाता। गिरने पड़ने की शिकायत घर पर नहीं की जाती, दर्द से ज़्यादा डाँट का डर होता। 

धान रखने के लिए मिट्टी की बनी ऊँची सी कोठी होती थी जिसके तीन पाए होते थे, जिसमें कई बार एक टूटा होता था। वहाँ धान निकालने के लिए जो छेद होता था उसमें कपड़े ठूँसे रहते थे। ताखे पर रखा छोटा सा आइना होता था जिसमें देख कर अक्सर बच्चे माँग निकालना सीखते थे या नयी बहुएँ बिंदी ठीक माथे के बीच लगाना। मैंने कभी चाची या दादी को आइना देखते नहीं देखा। वे बिना आइना देखे ठीक सीधी बीच माँग निकाल लेतीं, सिंदूर टीक लेतीं, बिंदी लगा लेतीं। उन्हें अपना चेहरा देखने की कोई ऐसी हुलस नहीं होतीं। आँगन के एक कोने में तुलसी चौरा था, भंसा के पास। मैं छोटी थी तो मुझे लगता था इसके ताखे के अंदर किसी भगवान की मूर्ति होगी। मेरी हाइट से दिखता नहीं था कि अंदर क्या है। 

शाम होते चूल्हा लगा दिया जाता। पूरे गाँव में कहीं से गुज़रने पर धुएँ की गंध आने लगती। कहीं लकड़ी तो कहीं कोयले पर खाना बनता। बोरे में कोयला रखा रहता और उसे तोड़ने के लिए एक हथौड़ा भी। खाने की दो तरह की अनाउन्स्मेंट होती। पहला हरकारा जाता कि पीढ़ा लग गया है। इसमें लकड़ी का पीढ़ा और पानी का गिलास भर के रख दिया जाता था। इस हरकारे को सुन कर खाने वाले लोग कुआँ पर हाथ मुँह धोने चले जाते थे। फिर दूसरा हरकारा जाता था कि खाना लग गया है, मतलब कि थाली लग गयी है और उसमें एक रोटी रख दी गयी है। तब लोग पीढ़ा पर आ के बैठते थे और खाना खाते थे। चाची वहीं चुक्कु मुक्कु बैठी मिट्टी वाले चूल्हे में गर्म गर्म रोटी बनाती जाती और देती जाती। एक आध लेफ़्टिनेंट बच्चा रहता नमक या मिर्ची का डिमांड पूरा करने के लिए। चाची के माथे तक खिंचा साड़ी का घूँघट रहता, कोयले की लाल दहक में तपा हुआ चेहरा। रोटी की गंध हवा में तैरती रहती।

गाँव में अब पक्का मकान बन गया है। खाना भी गैस पर बनता है। चाची अब नीचे बैठ कर नहीं बना सकती तो एक चौकी पर गैस रखा है और वो कुर्सी या स्टूल पर बैठ कर खाना बनाती हैं। तुलसी चौरा पर हनुमान जी की ध्वजा तो अब भी लगती है लेकिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के कारण अब रामनवमी का त्योहार हमारे यहाँ नहीं मनाया जाता। मैं गाँव का मेला देखना चाहती हूँ। इन अकेले दिनों में। किसी बचपन में लौट कर।

29 August, 2017

कोई कविता आख़िरी नहीं होती, ना कोई प्रेम

कविता हलक में अटकी है
होठों पर तुम्हारा नाम

और साँस में मृत्यु

***
क़लम को सिर्फ़ कहानियाँ आती हैं।
ज़ुबान को झूठ।

तुम्हें तो तरतीब से मेरा नाम लेना भी नहीं आता।

***
कविता लिखने को ठहराव चाहिए।
जो मुझमें नहीं है। 

***
मैंने अफ़सोस को अपना प्रेमी चुना है
तुम्हारा डिमोशन हो गया है

'पूर्व प्रेमी'

***
शहर, मौसम, सफ़र
मेरे पास बहुत कम मौलिक शब्द हैं

इसलिए मैं हमेशा एक नए प्रेम की तलाश में रहती हूँ

***
तुम्हें छोड़ देना
ख़यालों में ज़्यादा तकलीफ़देह था
असल ज़िंदगी में तो तुम मेरे थे ही नहीं कभी 

***
मैंने तुमसे ही अलविदा कहना सीखा
ताकि तुम्हें अलविदा कह सकूँ 

***
तुम वो वाली ब्लैक शर्ट पहन कर
अपनी अन्य प्रेमिकाओं से मत मिलो
प्रेम का दोहराव शोभा नहीं देता

***
तुम्हारे हाथों में सिगरेट
क़लम या ख़ंजर से भी ख़तरनाक है

तुम्हारे होठों पर झूलती सिगरेट
क़त्ल का फ़रमान देती है

तुम यूँ बेपरवाही से सिगरेट ना पिया करो, प्लीज़!

***
'तुम्हें समंदर पसंद हैं या पहाड़?'
मुझे तुम पसंद हो, जहाँ भी ले चलो। 

***
'तुम्हारी क़लम मिलेगी एक मिनट के लिए?'
'मिलेगी, अपना दिल गिरवी रखते जाओ।'

कि इस बाज़ार में ख़रा सौदा कहीं नहीं।

***
आसमान से मेरा नाम मिटा कर
तसल्ली नहीं मिलेगी तुम्हें 

कि दुःख की फाँस हृदय में चुभी है

***
कोई कविता आख़िरी नहीं होती, ना कोई प्रेम
हम आख़िरी साँस तक प्रेम कर सकते हैं 

या हो सकते हैं कविता भी

23 December, 2015

अस्थिकलश में मिले पुर्जे जोड़ कर बनी चिट्ठी


नींद जानती है तुम्हारे घर का पता कि जैसे जाग जानती है कि नहीं जाना है उस ओर. उस शहर. उस गली. उस आँख के अंधियारे में. तुम्हारी आँखों में खिलते हैं सूरजमुखी और मुड़ते हैं कागज़ की धूप देख कर. मैं घेरती हूँ बादल. बनाती हूँ बरसातों का मौसम. रचती हूँ धुंध. तुम हुए जाते हो वैन गौग. चटख रंगों का पहनते हो साफा. बांधते हो कलाई पर मंतर. 

बहुत दिन तक जब नहीं आता तुम्हारे ख़त का जवाब तो तुम जाते हो चबूतरे पर और उतारते हो डाल पर बैठा सर्दियों में जम चुका कबूतर. उसके पैर में नहीं बंधा होता है एक कोरा ख़त भी. तुम फ़ेंक मारते हो उसे पत्थर की दीवार पर इक चीख के साथ...चकनाचूर होता है बर्फ की सिल्ली बना कबूतर...तुम्हारे जूते तले आती है उसकी जमी हुयी आँख.

तुम हुए जाते हो कोई पागल मंगोल लुटेरा...छीनते चलते हो अस्मत...माल...असबाब...लगा देते हो गाँव में आग...डाल देते हो पानी कुओं में मुर्दा जानवर कि जिनकी सडांध से फैलती है बीमारियाँ... मौत के करीब भिनासायी हुयी देह में नहीं बाकी रहता कोई कोमल स्पर्श...कोई चाँद का चुम्बन...कोई सूरज की पीली रेख...

तुम्हारे चेहरे पर उतरता है विद्रूप सर्दियों का ठंढा चांदी रंग. माथे के ऊपर उभरती है एक नीली नस कि जहाँ होना था एक गुलाबी बोसा. मैं एड़ियों पर उचक कर भी नहीं चूम सकती तुम्हारा चौड़ा ललाट. मेरी उँगलियों से दूर होती है तुम्हारे माथे की उजली लट. मुझे याद आती है वो कंचे जैसे शाम. कि जब बिजली के बल्ब का खूब महीन चूरा किया था हमने और उसे आटे की लेई में मिला कर पतंग के मांझे को किया था धारदार. तुम्हारे बाल मांझे के उसी तागे जैसे हो गए हैं. धारदार. उँगलियाँ फेर भी दूँगी तो कटनी है मेरी उँगलियाँ ही. तुम्हारी दासियाँ  इसी से तो पहचान में आती हैं. उनकी उँगलियों पर होते हैं तीखे निशान. गहरे लाल. कत्थई. कभी कभी काले भी. 

मगर तुमने तो प्रेम किया था. तुमने कहा था तुम्हारे ह्रदय पर मेरा एकछत्र साम्राज्य रहेगा. अनंत काल तक. फिर तुम ये अश्वमेध का अश्व लेकर विश्वविजय पर क्यूँ निकल पड़े? तुमने तो कहा था मेरा शरीर ही तुम्हारा ब्रम्हाण्ड है. एक साधारण से मनुष्य थे तुम. एक अदना सिपहसालार. एक जवाब आने की देर में तुम्हारे अन्दर का कौन सा विध्वंसक विसूवियस जाग उठा? आदमी प्राण की बाजी लगा दे तो सब कुछ जीत लेता है...इश्वर को भी. मुझे तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं. मगर तुम्हें मालूम भी है कि तुम्हारी अंतिम विजय कौन सी होनी है? ऐसा न हो कि सिकंदर की तरह तुम भी किसी अजनबी शहर में आखिरी तड़पती सांस लो. तुम्हारी जिद एक आम औरत को उसके बच्चे से दूर करने के विवश हठ में खींचे जाए और तुम उस दलदल में आगे बढ़ते जाओ. मलकुल मौत जब आती है तो सब्जी काटने का हंसुआ एक भीरु स्त्री का हथियार हो जाता है.

तुम्हारे साथ तुम्हारे सैनिकों की क्रूरता की दास्तानें तुम सबके लिए जहन्नुम तक का शोर्ट कट रास्ता बना रही हैं. तुम इसी रास्ते घसीटे जाओगे. चीखते चिल्लाते लहूलुहान. ये कलयुग है. यहाँ सब कर्मों का फल इसी जन्म में चुकाना पड़ता है. तुम्हारी आखिरी पनाह मेरे शब्दों में थी. यहाँ से निष्काषित होने पर तुम्हारे लिए कहीं कोई दरवाजे नहीं खुलेंगे. अभी भी वक़्त है. शरणागत की हत्या अभी भी अधर्म है. लौट आओ. प्रायश्चित करो. अपना इश्वर चुनो और आपनी आस्था की लौ फिर से प्रज्वलित करो. मैं तुम्हारे लिए एक नयी दुनिया रच दूँगी. एक नया प्रेम और एक नया प्रतिद्वंदी भी. लौट आओ. ये वीभत्स रस लिखते हुए मेरी उँगलियाँ जवाब दे रही हैं. गौर से देखो. ये एक योद्धा की नहीं, कवि की उँगलियाँ हैं. इनमें इतना रक्तपात लिखने की शक्ति नहीं है. मैं अब फूलों पर लिखना चाहती हूँ कुछ कोमल गीत. मैं अब तुम्हारी अभिशप्त आत्मा के लिए करना चाहती हूँ मंत्रपाठ. तुलसी माला लिए गिनती हूँ कई सौ बार तुम्हारे लिए क्षमायाचना के मन्त्र. 

तुम्हारा विध्वंस अकारण है. तुम्हारा क्रोध सिर्फ एक दरवाज़ा खोलता है कि जिससे तुम्हारे अन्दर का पशु बाहर आ सके. गौर से देखो उसे. खड़ग उठाओ और इस रक्तपिपासु बलिवेदी को शांत करो.

ॐ शान्ति शांति शांति. 

10 June, 2013

Happy Birthday Gorgeous :)

तीस की उम्र में बहुत सी चीज़ों में समझदारी आ जाती है. ये दुनिया वैसी नहीं है जैसी सोचा करती थी...चीज़ें उतनी सिंपल नहीं हैं और रिश्तों में बहुत सी पेचीदगी है...इश्क अभी भी समझ से बाहर है. हम जैसा अपना आने वाला कल सोचते हैं...कल वाकई वैसा नहीं होता कुछ अलग ही होता है. बहुत कुछ ऐसा खोया जिसके बिना जिंदगी अधूरी है तो बहुत कुछ पाया भी जिसके पाने की कल्पना नहीं की थी. 

बहुत सालों के बाद बर्थडे में पटना में हूँ, पापा और जिमी के साथ...उतने ही साल बाद कुणाल के बगैर हूँ... इस बार पहली बार मायके में हूँ तो महसूस किया कि कितना बड़ा परिवार है उधर और कितने सारे लोग कितना सारा प्यार करते हैं मुझे. कभी कभी चीज़ों को महसूस करने के लिए उनसे दूर जाना पड़ता है. रात को देर तक फोन बजता रहा...सुबह भी अनगिन फोन आये. 

थर्टी इज द बेस्ट टाइम इन लाइफ. 

जिंदगी में बहुत सारी चीज़ों के प्रति निश्चिन्तता आ जाती है. इसी बात से कई बार डर भी लगता है हालाँकि, लेकिन फिर लगता है कि नहीं...प्यास अभी बाकी है...बंजारामिजाजी ने रिजाइन नहीं किया है पोस्ट पर से. 

पापा से घूमने के बारे में बात कर रही थी, इस साल पापा को घूमने जाना है...तो मैं घुमक्कड़ी के अपने किस्से सुना रही थी...कि अब कुणाल और जिमी को तो काम है पापा...ऑफिस है, एक काम करते हैं हम और आप निकल जाते हैं घूमने. मेरे ख्याल से मेरा घुमक्कड़ी का 'जीन' पापा की तरफ से आया है. पता नहीं क्या प्रोग्राम बनेगा पर पापा के साथ योरोप का टूर...अल्टीमेट होगा. 

इस बर्थडे पर बहुत दिन से बहुत सारा कुछ लिखने का मन था...लेकिन दिल भरा भरा सा है...कुछ खास लिखने का मन नहीं है. कल शाम को गंगा आरती देखने गयी थी...गंगा किनारे नाव पर बैठ कर बहुत दूर का चक्कर लगाया...लकड़ी की उस नाव पर बैठे अनगिन तसवीरें उतारीं. गंगा का पानी हमेशा की तरह था...निर्विकार... मन में कहीं हिमालय पर भाग जाने की ख्वाहिश को बोता हुआ. आरती करते हुए पंडितों के चेहरे पर अजीब तेज था...जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हों...तप्त...आभा में दमकते हुए. धूप, अगरबत्ती, शंख...बहुत सारा मंत्रोच्चार. 
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नाव का किराया ३० रुपये था. नाव में अधिकतर लड़के थे...हर उम्र के लड़के...मैं उनके बारे में कितना कुछ सोचती रही. जाने किसी गरीब लड़के का भी कैसे तो ख्याल आया या कि छुट्टियों में घर आये किसी लड़के का जिसने आने के पहले सोचा न हो कि ऐसी कोई चीज़ देखने को मिल जायेगी. हर रोज़ ३० रुपये जुगाड़ने की मशक्कत करनी पड़े. मुझे मालूम नहीं मुझे ऐसा ख्याल क्यूँ आया मगर उन अनजाने चेहरों में कोई अजीब किस्म का अपनापन था. जैसे मेरे घर, मोहल्ले, गाँव के लड़के हों. कि जैसे गंगा आरती देखने वाले लड़के कोई अपराध नहीं कर सकते. कि उनके मन में कोई गंगा ऐसी ही बहती होगी...गंगाजल कभी भी ख़राब नहीं होता, सालों साल बाद भी. एक कहानी भी उभरी मन में...कि गंगा किनारे किसी से मिलने आना कैसा होता होगा. कुछ नहीं बस बरसात के मौसम में मिलने आना कि जब गंगा पटना के घाट तक आ जाती हो. किसी नाव पर पाँव लटकाये बैठे रहे...क्या क्या किस्से सुनाते रहे. कि लगा कि कितनी सारी कहानियां सुनाना चाहती है गंगा. हिलोरे मारती लहरें...कि डूब कर किया जाता है प्यार. कि शाम को आरती के बाद बहा देना चाहिए कोई नाम पत्ते के दोने पर रख कर दिए की लौ में...कि गंगा किनारे आ कर मन का कितना सारा रीता कोना भरने लगता है. कि किसी के जाने के बाद भी उन जगहों पर रह जाता है सोच का कतरा...कि किसी समय गंगा में मेरे नाम की मन्नतें किसी ने बहायीं होंगी. 
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बहुत कुछ उलझा हुआ है जिंदगी में मगर कहीं एक यकीन है कि सुलझा लूंगी. घर पर इतने सारे लोग हैं...इतने अच्छे दोस्त...और मेरा कुणाल :) इतने में बहुत कुछ किया जा सकता है...बनाया जा सकता है...रचा जा सकता है. 

अच्छा अच्छा सा लग रहा है. और ये वाला कोट...बहुत दिनों से रखा था देख कर...आज टांग देती हूँ...कि हमेशा याद रहे...




You can be gorgeous at thirty, charming at forty, and irresistible for the rest of your life.
-Coco Chanel

And on that note...happy birthday Gorgeous 

09 April, 2013

द हारमोनियम इन माय मेमोरी

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं. वक़्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं. 

ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है. छः साल के शाश्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है. आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज़ को मिस कर रही हूँ. हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था. शहर की फितरत, वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं. दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था. बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे, उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता. उस वक़्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा. उस वक़्त हम भाई बहन एक रियाज़ करने के लिए जान देते थे. 

हम उसे बहुत प्यार से छूते थे. नयी लकड़ी की पोलिश...चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा...उसके सफ़ेद कीय्ज ऐसे दीखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों. मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या. उस वक़्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज़ हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था. हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे. कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे. 

गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थी. राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे 'बादल रे, उमड़ घुमड़, बरसन लागे, बिजली चमक जिया डरावे'. मजेदार बात ये थी कि जून जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज़ में यही राग गाती थी. अब बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है. जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था. वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे. सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे. मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं. राग देश में भी सर उसको कोई और छोटा ख्याल सिखाये कि उसका नाम बादल है न...बादल रे गायेगा तो अच्छा थोड़े लगेगा उसको. 

जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में, एक्जाम देने जाते थे तो एक्जामिनर उससे प्यार कर बैठते थे. एक तो एकदम छोटा प्यारा और बहुत मासूम लगता था उसपर आवाज़ इतनी मीठी थी कि एक्जामिनर खुश होकर दो चार और राग सुनने के मूड में आ जाता, जिमी का और गाने का मूड नहीं होता लेकिन...एक तो हम लोग एक ही राग पूरा अच्छे से रियाज़ करके जाते थे, आलाप, ख्याल और तान के साथ. एक्जामिनर खुशामद करता, कोई भजन ही सुना दो...सर बोलते...अरे जिमी वो वाला सुना दो न जो अभी पिछले सन्डे सिखाये थे. जिमी गाता...एक्जामिनर सर या मैडम उसको खूब आशीर्वाद देते. हम दिल ही दिल में सोचते अच्छा है मेरा आवाज़ उतना अच्छा नहीं है, हमको अभी एक ठो और गाना गाने कोई बोले तो यहीं जान चला जाए. एक्जाम का खौफ होता था. एक बड़ा सा हॉल होता था उसमें पूरे शहर के दिग्गज बैठे होते थे...सबको सुनते थे तो कमाल लगता था, उसपर एक्जामिनर कभी कभी अच्छा अच्छा को सुन कर खुश नहीं होता था. हम तो डरे सहमे आधा चीज़ वहीँ भूलने लगते थे. एक उसी एक्जाम और एक उसी ऑडियंस का हमको लाइफ में डर लगा है. वरना हम बड़े तीस मारखां थे...कहीं, किसी से नहीं डरते. 

हारमोनियम हम पटना लेकर आये...वहां कभी कभी रियाज़ करते थे, डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे. दरअसल रियाज़ करने का असल मज़ा भोर में है, जब सब कुछ एकदम शांत हो, हलकी ठंढी हवा बह रही हो. पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे. याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था. कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी...शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, गीत के बोल भूलने लगती हूँ, जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है. कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आये...अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती. 

शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है. अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ. बहुत सालों से टाल रही हूँ, पर इस बार सर से भी मिलूंगी. अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है...उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूँगी. 
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इस सब के दरमयान चुप चुप रोउंगी कि मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहीं कभी भी. उसकी याद खुशबू की तरह है...कुछ कहती नहीं...दिल में कहीं बसती है. कल सुबह दराजों को हवा लगा कर कपड़े वापस रख रही थी, मम्मी के बुने सारे स्वेटर थे...वो थी यहीं कहीं. किसी दूसरे कमरे में फंदे गिनती...पीठ से लगा कर बित्ता हिसाब करती. मैं थक गयी हूँ उस खालीपन को दुनिया भर के काम से भरती हुयी. थक कर सो जाना चाहती हूँ हर रोज़ मगर याद भी कोई धुन की तरह ही है...कहीं नहीं जाती. मैं जाने कब उसके बिना जीना सीखूंगी. 
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बहुत दिन से रियाज़ करने का मन कर रहा है. सुर सारे भटक गए हैं. स थोड़ा ऊपर जो जाता है...कोमल ग ठीक से नहीं लगता है...नी जाने कैसा तो सुनने में आता है. पहले जब रियाज़ करती थी तो एक एक सुर पहले साधती थी. अब फिर से थोड़ा जिंदगी को साध रही हूँ. बहुत कुछ सुर से भटक गया...बहुत कुछ स्केल से अलग है. केओस को थोड़ा कम कर रही हूँ. जैसे कुछ सबसे खूबसूरत राग जिनमें सारे स्वर नहीं लगते, कुछ स्वर निषेध होते हैं. कभी कभी होता है...सन्डे को सुबह का वक़्त होता है...यूट्यूब पर कोई पसंद का गीत लगा देती हूँ और दूसरे कमरे में रोकिंग चेयर पर बैठ कर सिलास मारीनर जैसा कोई पुराना क्लासिक पढ़ती हूँ. जिंदगी अच्छी लगती है. सुकून लगता है. लगता है कि बहुत अच्छे से रियाज़ कर के उठे हों. मन शांत होता है. 

याद में स्वर आते हैं...कुछ शुद्ध, कुछ कोमल...गु ज री या  गा आ ग र  भ र ने ए  च ली  रे
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शीर्षक एक कोरियन फिल्म के नाम से. 

04 March, 2013

रात से भोर का कोलाज

देर रात काम करना...नींद को देना भुलावे...सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट...खिड़की के पल्ले से आती हवा का विंडचाइम को रह रह कर चुहल से जगाना...ख़ामोशी सा कोई निर्वात रचना...

लिखना जाने क्या क्या...कैसे शब्द ढूंढना...कहाँ से लाना साम्य...कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ...कैसे दृश्यों में खोना...लिखना स्क्रिप्ट...लिखना लिरिक्स...खो जाना किसी और समय में...परीकथाएँ बुनना...चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम...हाँ...मर मिटना नीत्ज़े पर...नेरुदा पर...स्पैनिश...जर्मन...क्या क्या पढना...किन किन भाषाओँ में इंस्ट्रुमेंटल सुनना...खोजना शब्द...सलीके के...

करना ऑफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी, जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ़ आता था...जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना...तुम्हारी आवाज़ से किसकी तो याद आती है...जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते जिन्हें कविता कवितायेँ अच्छी नहीं लगती...

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उलाहने देना भोर की किरणों को...नींद भरी आँखों से सर दर्द को देखना...याद करना शामों को...इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें...सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर. सूखे पत्तों की कसमसाती महक...उँगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को...जैसे खतों के कागज़ में लगाना आग. 

बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना...ये कैसी गंध है...मिली-जुली...किधर का दरवाज़ा खोलती है...कोई आदिम कराह है...मेरा नाम पुकारती है...समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है...एक मैं हूँ...धूल में लिखती हुयी कविता...मिटाती अपनी हस्ती को. देखती हूँ अपना नाम उँगलियों के पोरों में. पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल...पाती हूँ उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात. 

भूल जाना लिखना...भूल जाना खुद को...बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए...भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल...आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की...समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह...मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग...निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व...सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा...मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है...अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती...सबसे पास का तारा...प्रोक्सिमा सेंचुरी.

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तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह. 

कैमरा को देख कर कहना...स्माइल प्लीज :)

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

03 March, 2012

फिगरिंग मायसेल्फ आउट

लिखो. काटो. लिखो. काटो.
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...

कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे. 


कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.


गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.


मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार. 


मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.


दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...


बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!

28 January, 2012

दिल्ली- याद का अनुपम चैप्टर

picture courtesy: Ashish Shah
एक एकदम भिटकिन्नी सी शैतान थी वो...बहुत ही चंचल...पूरा घर उसे आँखों पर बिठाये रखता था मगर उस भिटकिनिया की जान बसती थी दादा में...देवघर के तरफ थोड़ा बंगाली कल्चर होने के कारण कुछ बच्चे अक्सर अपने बड़े भाई को दादा बोलते थे...खास तौर से जो सबसे बड़े भैय्या हुए उनपर ये स्टेटस खूब सूट करता था. तो उस भिटकिनिया का भी एक बड़ा भाई था...जिसपर वो जान छिड़कती थी. भाई भी कैसा...हमेशा उसे अपने साथ रखने वाला...और एक बार तो माँ से जिद्दी भी लड़ा बैठा था कि अपने साथ उसे स्कूल ले जाएगा...पर भिटकिनिया तो अभी बस दो साल की थी...अभी कैसे स्कूल जाती...और जाती भी तो करती क्या. दादा बहुत बोलता था कि मेरे पास बैठी रहेगी...थोड़ा सा पढ़ ही लेगी आगे का तो क्या हो जाएगा...पर घर वाले बड़े बेवक़ूफ़ थे...उन्हें समझ नहीं आता था कि भिटकिनिया को अभी से आगे के क्लास की पढाई पढ़ा देने में क्या फायदा है. इस बात से बेखबर वो उसे अपनी सारी किताबें दिए रहता था...अब भिटकिनिया उसमें लिखे कुछ या पेंटिंग करे इससे बेखबर. 

हाँ, एक जगह वो हमेशा भिटकिनिया को साथ लिए चलता था...उसे साथ वाले दोस्त के साथ गुल्ली खेलने की जगह...गुल्ली खेली है कभी? उसे अच्छी भाषा में कंचे कहते हैं...कांच की गोलियां...अलग अलग रंगों में...उन्हें धूप में उठाओ तो उनसे रौशनी आती दिखती है और बेहद खूबसूरत और जीवंत लगती है...भिटकिनिया को कांच के गुल्ली भरे मर्तबान से अपने पसंद की गुल्ली मिल जाती थी...उस समय गुल्ली पांच पैसे की पंद्रह आती थी...और गुल्ला पांच पैसे का पांच. गुल्ला होता भी तो था तीन कंचों के बराबर...उसी से गुल्ली पिलाई जाती थी. गुल्ला को अच्छी भाषा में डेढ़कंचा बोलते थे...पर ऐसी अच्छी भाषा बोलने वाले गुल्ली खेलते भी थे ये किसी को मालूम नहीं था. 

गुल्लियाँ हमेशा खो जाती थीं...और गुल्ला तो खैर...कितने भी बार खरीद लो उतने ही बार खो जाएगा...फिर हमारी भिटकिनिया और उसका फेवरिट दादा नुक्कड़ की दूकान पर...वैसे भिटकिनिया के पास बहुत सारी गुल्लियाँ थी...दादा ने जितनी गुल्लियाँ जीती थीं जब उसी की तो हो जातीं थी...मगर भिटकिनिया अपने खजाने से थोड़े न किसी को एक गुल्ली देती..उसके पास सब रंग की गुल्लियाँ थीं...हरी, लाल, काली, पीली, भूरी...पर उसका पसंदीदा था एक शहद के रंग का गुल्ला...हल्का भूरा...उसमें से सूरज की रौशनी सबसे सुन्दर दिखती थी उस छुटंकी को.
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रेडियो पूजा जारी था...दिल्ली की ट्रैफिक में...
पता है अनुपम...तुम्हारे बाद किसी के साथ काम करने में मन नहीं लगा...एकदम भी...और वो राजीव...ओफ्फो...फूटी आँख नहीं सुहाता था हमको...एक तो वो था होपलेस...वैसे भी किसी को बहुत मुश्किल होती तुम्हारे बाद मेरा बॉस बनने में...पर कोई अच्छा होता तो चल भी जाता...वो...सड़ियल... एकदम अच्छा नहीं लगता था उसके साथ काम करने में. इन फैक्ट तुम्हारे बाद कोई अच्छा मिला ही नहीं जिसके साथ ऑफिस में मज़ा आये...यू नो...अच्छा लगे...इतने साल हो गए...आठ साल...
यहाँ अनुपम मुझे टोकता है...कि आठ साल नवम्बर में होंगे...और मैं अपना रेडियो चालू रखती हूँ...२०१२ हो गए न...आठ साल अच्छा लगता है बोलने में...सात साल कहने में मज़ा नहीं आता...खैर जाने दो...तुम बात सुनो न मेरी...किसी के साथ ऑफिस में अच्छा ही नहीं लगता...तुम कितने कितने अवसम थे...कितने क्रिएटिव...और कितने अच्छे से बात करते थे हमसे...पता नहीं दुनिया के अच्छे लोग कहाँ चले गए...वैसे पता है इधर बहुत दिन बाद किसी के साथ काम करने में बहुत मज़ा आया...पता है अनुपम...उसकी आँखें भी भूरी हैं...ही हैज गॉट वैरी ब्यूटीफुल आईज...ब्राउन...तुम्हारी तरह...अनुपम बस हँसता है और मुझसे पूछता है...तुम्हें बचपन में कंचे बड़े पसंद रहे होंगे...मैं कहती हूँ हाँ...तुम्हें कैसे पता...वो कहता है...बस पता है...जैसे कि उसको बहुत कुछ पता है मेरे बारे में. 
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इसके बहुत दिन बाद...लगभग एक हफ्ते बाद...मैं उसे अपनी डायरी पढ़ के सुना रही हूँ...दिल्ली से प्लेन उड़ा तो बहुत रोई मैं...फिर कुछ कुछ लिखा...उसमें ऐसी ही एक कहानी भी थी...मैं फोन पर उससे पूछती हूँ 

'अनुपम, तुमने बचपन में कंचे खेले हैं कभी?'
'नहीं'
(मैं एकदम होपलेस तरीके में सर हिलाती हूँ...अनुपम तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता टाइप)'
'तब जाने दो तुम नहीं समझोगे'

फिर मैं उसे पहले समझाने की कोशिश करती हूँ कि गुल्ली क्या होती है...कैसे गुल्ले से गोटियाँ पिलाई जाती हैं...पूरा गेम समझाती हूँ उसको...फिर बोलती हूँ...पता है अनुपम...ये जो कहानी है न...इसमें मैं मैं होती और तुम वो लड़का होते और मैं अपनी छोटी सी हथेली फैला कर तुमसे कुछ मांगती न...तो तुम अपनी पॉकेट में से ढूंढ कर वो गुल्ला निकलते और मेरी हाथेली में रख कर मेरी मुट्ठी बंद कर देते. 

मैं वो ब्राउन कलर का गुल्ला अपनी पूरी जिंदगी उस छोटे से बक्से में महफूज़ रखती जिसमें बचपन के खजाने होते हैं...और शादी के बाद अपने साथ अपने घर ले आती...जिस दिन मायके की बहुत याद सताती उस गुल्ले को निकाल कर धूप में देख लेती और खूब खूब सारा खुश हो जाती. 
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दिल्ली से आये कुछ दिन गुज़रे हैं...मैं सोच रही हूँ कि एकदम ही बेवक़ूफ़ हूँ...पता है फिर से मेरे पास ऐसी कोई फोटो नहीं है जिसमें मैं तुम्हारे साथ में हूँ. अकेली अकेली वाली फोटो देखती हूँ और हंसती हूँ कि मैं कितनी खुश थी जो ढंग की एक फोटो नहीं खींच पायी....अगली बार तुमसे मिलूंगी तो तुम्हारी खूब अच्छी वाली फोटो लूंगी...मेरी दिल्ली के सबसे अच्छे चैप्टर...अनुपम...तुम्हारा खूब खूब सारा...शुक्रिया नहीं कहूँगी :) :)

14 January, 2012

हैप्पी बर्थडे बिलाई

आज सुबह छह बजे नींद खुल गयी...अक्सर सुबह ही उठ रही हूँ वैसे...इस समय लिखना, पढना अच्छा लगता है. सुबह के इस पहर थोड़ा शहर का शोर रहता है पर आज जाने क्यूँ सारी आवाजें वही हैं जो देवघर में होती थीं...बहुत सा पंछियों की चहचहाहट...कव्वे, कबूतर शायद गौरईया भी...पड़ोसियों के घर से आते आवाजों के टूटे टुकड़े...अचरज इस बात पर हो रहा है कि कव्वा भी आज कर्कश बोली नहीं बोल रहा...या कि शायद मेरा ही मन बहुत अच्छा है.

बहुत साल पहले का एक छूटा हुआ दिन याद आ रहा है...मकर संक्रांति और मेरे भाई का जन्मदिन एक ही दिन होता है १४ जनवरी को. आजकल तो मकर संक्रांति भी कई बार सुनते हैं कि १५ को होने वाला है पर जितने साल हम देवघर में रहे...या कि कहें हम अपने घर में रहे, हमारे लिए मकर संक्रांति १४ को ही हर साल होता था. इस ख़ास दिन के कुछ एलिमेंट थे जो कभी किसी साल नहीं बदलते.

मेरे घर...गाँव के तरफ खुशबू वाले धान की खेती होती है...मेरे घर भी थोड़े से खेत में ये धान की रोपनी हर साल जरूर होती थी...घर भर के खाने के लिए. अभी बैठी हूँ तो नाम नहीं याद आ रहा...महीन महीन चूड़ा एकदम गम गम करता है. १४ के एक दो दिन पहले गाँव से कोई न कोई आ के चूड़ा दे ही जाता था हमेशा...चूड़ा के साथ दादी हमेशा कतरी भेजती थी जो मुझे बहुत बहुत पसंद था. कतरी एक चीनी की बनी हुयी बताशे जैसी चीज़ होती है...एकदम सफ़ेद और मुंह में जाते घुल जाने वाली. कभी कभार तिल के लड्डू भी आते थे.

अधिकतर नानाजी या कभी कभार छोटे मामाजी पटना से आते थे...खूब सारा लडुआ लेकर...मम्मी ने कभी लडुआ बनाना नहीं सीखा. लडुआ दो तरह का होता था...मूढ़ी का और भूजा हुआ चूड़ा का...पहले हम मूढ़ी वाले को ही ख़तम करते थे क्यूंकि चूड़ा वाला थोड़ा टाईट होता था उसको खाने में मेहनत बेसी लगता था. नानाजी हमेशा जिमी के लिए स्वेटर भी ले के आते थे और नया कपड़ा भी. जिमी के लिए एक स्वेटर मम्मी हमेशा बनाती ही थी उसके बर्थडे पर...वो भी एक आयोजन होता था जिसमें सब जुट कर पूरा करते थे. कई बार तो दोपहर तक स्वेटर की सिलाई हो रही होती थी. हमको हमेशा अफ़सोस होता था कि मेरा बर्थडे जून में काहे पड़ता है, हर साल हमको दो ठो स्वेटर का नुकसान हो जाता था.

तिलकुट के लिए देवघर का एक खास दुकान है जहाँ का तिलकुट में चिन्नी कम होता है...तो एक तो वो हल्का होता है उसपर ज्यादा खा सकते हैं...जल्दी मन नहीं भरता. उ तिलकुट वाला के यहाँ पहले से बुकिंग करना होता है तिलसकरात के टाइम पर काहे कि उसके यहाँ इतना भीड़ रहता है कि आपको एक्को ठो तिलकुट खाने नहीं मिलेगा. वहां से तिलकुट विद्या अंकल बुक करते थे...कोई जा के ले आता था.

सकरात में दही कुसुमाहा से आता था...कुसुमाहा देवघर से १६ किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पापा के बेस्ट फ्रेंड पत्रलेख अंकल उस समय मुखिया थे...उनके घर में बहुत सारी अच्छी गाय है...तो वहां का दही एकदम बढ़िया जमा हुआ...खूब गाढ़ा दूध का होता था...ई दही एक कुढ़िया में एक दिन पहले कोई पहुंचा जाता था...और दही के साथ अक्सर रबड़ी या खोवा भी आता था. इसके साथ कभी कभी भूरा आता था जो हमको बहुत पसंद था...भूरा गुड का चूरा जैसा होता है पर खाने में बहुत सोन्हा लगता है. १४ को हमारे घर में कोबी भात का प्रोग्राम रहता था...उसके लिए खेत से कोबी लाने पापा के साथ विद्या अंकल खुद कुसुमाहा जाते थे...१४ की भोर को.

ये तो था १४ को जब चीज़ों का इन्तेजाम...सुबह उठते...मंदिर जाते...नया नया कपड़ा पहन के जिम्मी सबको प्रणाम करता. तिल तिल बौ देबो? ये सवाल तीन पार पूछा जाता जिसका कि अर्थ होता कि जब तब शरीर में तिल भर भी सामर्थ्य रहेगा इस तिल का कर्जा चुकायेंगे...या ऐसा ही कुछ. फिर दही चूड़ा खाते घर में सब कोई और शाम का पार्टी का तैय्यारी शुरू हो जाता.

तिलसकरात एक बहुत बड़ा उत्सव होता जिम्मी के बर्थडे के कारण...होली या दीवाली जैसा जिसमें पापा के सब दोस्त, मोहल्ले वाले, पापा के कलीग, घर के लोग...सब आते. शाम को बड़ा का केक बनाती मम्मी...कुछ साथ आठ केक एक साथ मिला के, काट के, आइसिंग कर के. घर की सजावट का जिम्मा छोटे मामाजी का रहता. सब बच्चा लोग को पकड़ के बैलून फुलवाना...फिर पंखा से उसको बांधना...पीछे हाथ से लिख के बनाये गए हैप्पी बर्थडे के पोस्टर को टांगना. ऐसे शाम पांच बजे टाइप सब कोई तैयार हो जाते थे.

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आज सुबह से उन्ही दिनों में खोयी हूँ...यहाँ बंगलौर में कुल जमा दो लोग हैं...घर से चूड़ा आया हुआ है...अभी जाउंगी दही खरीदने...दही चूड़ा खा के निपटाउंगी. जिमी के लिए कल शर्ट खरीद के लाये हैं...उसको कुरियर करेंगे...सोच रहे हैं और क्या खरीदें उसके लिए.

सारे चेहरे याद आ रहे हैं...सब पुराने दोस्त...लक्की भैया, रोजी दीदी, नीलू, छोटू-नीशू, लाली, रोली, मिक्की, राहुल, बाबु मामाजी, छोटू मामाजी, सीमा मौसी, इन्द्रनील, नीति, आकाश, नीतू दीदी, शन्नो, मिन्नी, मनीष, आभा, सोनी...कितने लोग थे न उस समय...कितनी मुस्कुराहटें. अपने लिए दो फोटो लगा रहे हैं...हालाँकि ये वाला पटना का है...पर मेरे पास यही है.


यहाँ से तुमको ढेर सारा आशीर्वाद जिमी...खूब खूब खुश रहो...आज तुमको और पापा को बहुत बहुत मिस कर रहे हैं हम. 

10 January, 2012

तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

जान,
अच्छा हुआ जो कल तुम्हारे पास वक़्त कम था...वरना दर्द के उस समंदर से हमें कौन उबार पाता...मैं अपने साथ तुम्हारी सांसें भी दाँव पर लगा के हार जाती...फिर हम कैसे जीते...कैसे?

बहुत गहरा भंवर था समंदर में उस जगह...पाँव टिकाने को नाव का निचला तल भी नहीं था...डेक पर थोड़ी सी जगह मिली थी जहाँ उस भयंकर तूफ़ान में हिचकोले खाती हुयी कश्ती पर खड़ी मैं खुद को डूबते देख रही थी. कहीं कोई पतवार नहीं...निकलने का कोई रास्ता नहीं...ऐसे में तुम उगते सूरज की तरह थोड़ी देर आसमान में उभरे तो मेरी बुझती आँखों में थोड़ी सी धूप भर गयी...उतनी काफी है...वाकई.

अथाह...अनन्त...जलराशि...ये मेरे मन का समंदर है, इसके बस कुछेक किनारे हैं जहाँ लोगों को जाने की इज़ाज़त है मगर तुम ऐसे जिद्दी हो कि तुम्हें मना करती हूँ तब भी गहरे पानी में उतरते चले जाते हो...कितना भी समझाती हूँ कि उधर के पानी का पता नहीं चलता, पल छिछला, पल गहरा है...और तुम...तुम्हें तो तैरना भी नहीं आता...जाने क्या सोच के समंदर के पास आये थे...क्या ये कि प्यास लगी है...उफ़ मेरी जान, क्या तुम्हें पता नहीं है कि खारे पानी से प्यास नहीं बुझती?

मेरी जान, तुम बेक़रार न हो...मैंने कल खुदा की दूकान में अपनी आँखों की चमक के बदले तुम्हारे जिंदगी भर का सुकून खरीद लिया है...यूँ तो सुकून की कोई कीमत नहीं हो सकती...कहीं खरीदने को नहीं मिलता है...पर वैसे ही, आँखों की चमक भी भला किस बाज़ार में बिकी है आजतक...उसमें भी मेरी आँखें...उस जौहरी से पूछो जिसने मेरी आँखों के हीरे दीखे थे...कि कितने बेशकीमती थे...बिलकुल हीरे के चारों पैमाने पर सबसे बेहतरीन थे  'The four Cs ', कट, कलर, क्लैरिटी और कैरट...बिलकुल परफेक्ट डायमंड...५८ फेसेट्स वाले...जिसमें किसी भी एंगल से लाईट गिरे वापस रेफ्लेक्ट हो जाती थी...एकदम पारदर्शी...शुद्ध...उनमें आंसू भर की भी मिलावट नहीं थी...और कैरट...उस फ़रिश्ते से पूछे जिसने मेरी आँखों से ये हीरे निकाले...खुदा के बाज़ार में ऐसा कोई तराजू नहीं था कि जो तौल सके कि कितने कैरट के हैं हीरे. सुना है मेरी आँखों की चमक के अनगिन हिस्से कर दिए गए हैं...दुनिया के किसी हिस्से में ख़ुशी कम होती है तो एक हिस्सा वहां भेज दिया जाता है...आजकल खुदा को इफरात में फुर्सत है.

मेरी आँखें थोड़ी सूनी लगेंगी अब...पर तुम चिंता मत करना...मैं तुमसे मिलने कभी नहीं आ रही...और जहाँ ख़ुशी नहीं होती वहां गम हो ऐसा जरूरी तो नहीं. तुम जिस जमीन से गुज़रते हो वहां रोशन उजालों का एक कारवां चलता है...मैं उन्ही उजालों को अपनी आँखों में भर लूंगी...जिंदगी उतनी अँधेरी भी नहीं है...तुम्हारे होते हुए...और जो हुयी तो मुझे अंधेरों का काजल बना डब्बे में बंद करना आता है.

कल का तूफ़ान बड़ा बेरहम था मेरी जान, मेरी सारी सिगरेटें भीग गयीं थी...माचिस भी सील गयी...और दर्द के बरसते बादल पल ठहरने को नहीं आते थे...मेरी व्हिस्की में इतना पानी मिल गया था कि नशा ही नहीं हो रहा था वरना कुछ तो करार मिलता...तुम भी न...पूछते हो कि मैंने पी रखी है...उफ़ मेरे मासूम से दिलबर...तुम क्या जानो कि किस कदर पी रखी है मैंने...किस बेतरह इश्क करती हूँ तुमसे. खुदा तुम्हें सलामती बक्शे...तुम्हारे दिन सोने की तरह उजले हों...तुम्हारी रातों को महताब रोशन रहे, तारे अपनी नर्म छाँव में तुम्हारे ख्वाबों को दुलराएँ.

मैं...मेरी जान...इस बार मुझे इस इश्क में बर्बाद हो जाने दो...टूट जाने दो...बिखर जाने दो...मत समेटो मुझे अपनी बांहों में कि इस दर्द, इस तन्हाई को जीने दो मुझे...ये दर्द मुझे पल पल...पल के भी सारे पल तुम्हारी याद दिलाता है...मेरी जान, ये दर्द बहुत अजीज़ है मुझे.









जान, अच्छा हुआ जो तुम्हारे पास वक़्त कम था...उस लम्हा मौत मेरा हाथ थामे हुयी थी...तुम जो ठहर जाते मैं तुमसे दूर जैसे जा पाती...तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

दुआएं,
वही...तुम्हारी.

04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

16 December, 2011

दिल्ली की छत, ब्लू लेबल और दो लड़कियां

कोई बीस साल पुरानी दोस्ती थी उनकी और उसमें वो आज दस साल बाद मिल रही थीं...दो औरतें या कि लड़कियां, जैसा भी आपको कहने में सुविधा हो...

दिल्ली की एक बेहद सर्द सी रात थी...लड़की का घर एक चार मंज़िला इमारत के ऊपर कुछ असबेसटोस की शीट्स लगा कर बनाए एक कमरेनुमा मकान में था. इसे बरसाती या दुछत्ती कहते हैं. दिल्ली में वैसे भी घर ढूँढना बहुत मुश्किल है...या तो बेर सराय, जिया सराय जैसे मुहल्लों में दीमक के घरों जैसे कमरे जो कहीं अंतहीन अंधेरी गलियों में खुलते हैं या तो पॉश इलाकों में ऐसी बरसाती जिसमें रहने की जगह तो सही है पर उसमें जीना अपने आप में एक बहुत बड़ी जंग होती जाये हर रोज़.

गर्मियों में चारों तरफ से सूरज उस कमरे को किसी प्रेशर कुकर की मानिंद गरम कर देता था...दीवारें, छत सब कुछ धीपता रहता था और उसमें जिस दिन उसे घर पर रहना हो जीना मुहाल हो जाता. एक बड़ा सा देजेर्ट कूलर बमुश्किल कोई राहत दे पाता था...ऐसे कमरे में जीना उसे हर लम्हा उससे प्यार करने की याद दिलाता था...जानलेवा गरमियाँ और जानलेवा सर्दियाँ. सब होने पर भी वो कमरा उसे नहीं छोड़ता था तो शायद इसलिए कि कमरे के आगे का थोड़ा सा छत का हिस्सा उसके नाम लिखा था. उसकी अपनी बालकनी जिसमें से आसमान अधूरा या टुकड़ों में नहीं पूरा दिखता था औंधे कटोरे जैसा. चाँद सितारों और डूबते सूरज को देखने का मोह उसे कहीं और जाने नहीं देता...उनींदी शिफ्ट्स के बीच वो किसी शाम सूरज से मिलने का वक़्त निकाल लेती तो कभी चाँद से डेट पर जाने का वादा भी निभा ले जाती...इन दोनों से उसी बेतरह इश्क़ करने के बावजूद उसे बेवफ़ाई जैसा कुछ महसूस नहीं होता...कभी भी. इस बारे में सूरज या चाँद ने भी कभी उसे ताने नहीं मारे.

उसे क्या मालूम था कि इसी घर की किस्मत में वो क़यामत की मुलाक़ात भी लिखी है...उसकी एक बचपन की दोस्त थी, कुछ तीस साल की जिंदगी में दस साल का कुल जमा रिश्ता था और फिर २० साल लम्बा अंतराल...किस्मत ने उन्हें जोड़ा था और आज दोनों इस छत पर दिसंबर की किसी सर्द रात मिल रहीं थी...मकान मालिक अलग रहता था इसलिए लड़की को बहुत सी आज़ादियाँ मिली हुयी थीं उस घर में...इसमें कभी भी आना जाना सबसे जरूरी थी. गैर जरूरी चीज़ों में था व्हिस्की में कोहरा मिला कर पीना और कोहरे और सिगरेट के धुएं को आपस में गुन्थ्ते देखना...इसके अलावा कुछ ऐय्याशियाँ भी थीं जैसे कि लोहे की उस  भारी कड़ाही में अपनी अलग बोरसी जलाना...थोड़े कोयले और लकड़ियों से.

यहाँ से चूँकि किस्से में दो लड़कियां आने वाली हैं तो उनके नाम का पहला अक्षर ले लेते हैं कि इस कहानी के सभी किरदार नकली हैं...किसी का पूरा नाम लिख दिया तो उस नाम की कितनी लड़कियां उस नाम से खुद को जोड़ के देख लेंगी और इसमें लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी. जिसका घर है वो बेहद खूबसूरत है उसकी आँखें गहरी काली हैं और घने बाल कमर तक झूल रहे हैं...खुले बालों में कुछ पानी की बूँदें भी ठहरी हुयी दिखती हैं. चलो मान लेते हैं कि इस लड़की का नाम पी है...पी से पिया होता है, पिहू होता है, पियाली भी होता है...आप चाहो तो मान लो उसका नाम पियाली है...दूसरी का नाम स रखते हैं...सा से सारिका, सरगम, सांझ भी होता है तो आप मान लो उसका नाम सरगम है...उसकी आँखों में बड़ी वार्मथ है...गर्माहट समझते हैं आप...कॉफ़ी के कप वाली नहीं...व्हिस्की वाली...उसकी आँखें गहरे भूरे रंग की हैं, जिसमें आग का लपकना दिख जाता है कभी कभी. 

दोनों ने एक दूसरे को बहुत दिनों बाद देखा है दिल भरा हुआ है. स को पी का घर बहुत पसंद आया है. घर के हर हिस्से से पी की खुशबू आती है, चाहे वो बिखरी हुयी किताबें हों...सिगरेट के करीने से लगे खाली डब्बे हों कि उसका व्हिस्की ग्लास का कलेक्शन. कितना हसीन है कि जाड़ों की सर्द रात में खुले आसमान के तले बैठी हुयी हैं. कोहरा गिर रहा है...बहुत देर तक ख़ामोशी भी रही...और फिर पी ने ही कहना शुरू किया. पता है स मुझे लगता है शराब का आविष्कार किसी ईर्ष्यालु मर्द ने हम औरतों को देख कर किया होगा...आगे की थ्योरी है कि मर्द समझ ही नहीं सकते कि औरतें बिना पिए ही अपने दिल के सारे राज़ एक दूसरे के सामने कैसे कह देती हैं...मर्दों ने कई बार चाहा कि वो भी अपनी भावनाओं का इज़हार कर सकें पर उन्हें कहना ही नहीं आ पाया...फिर एक दिन एक बेहद इंटेलेक्चुअल मर्द ने शराब का अविष्कार किया कि इसे पी कर वो अपनी हर बात कह सकें. थ्योरी सही थी लेकिन कुछ मर्दों ने कहा कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं होता...कि वो पी कर भी वैसी ही हालत में रहते हैं जैसा कि बिना पिए...तो मर्दों की उस सभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ कि ऐसे मर्दों को बाकी मर्दों की भलाई के लिए स्वांग रचाना होगा. तब से ये उनका अपना सीक्रेट है जो किसी औरत को नहीं बताया जाएगा. 

स कहीं जादू में खोयी हुयी थी...उसे अपना पहला प्यार याद आ रहा था...वो भी कुछ ऐसी ही बहकी बहकी बातें किया करता था जो उसे कभी समझ नहीं आती थी. 'पी, तुझे कैसे पता ये थ्योरी?'. अब पी का दूसरा सबसे फेवरिट सेंटेंस था 'मुझे दारु पीने वाले मर्द बड़े पसंद हैं'. उसके पीछे की थ्योरी भी...जो लोग दारू पीते हैं वो बड़े खतरनाक टाइप के कांफिडेंट लोग होते हैं...और उससे बड़ी बात कि बड़े सच्चे होते हैं. उन्हें इस चीज़ से डर नहीं लगता कि जब वो आउट होंगे कोई उनके मन के अन्दर झाँक के देख लेगा...वो जैसे होते हैं खुद को बेहद प्यार करते हैं...या कमसे कम पसंद तो करते ही हैं. तुझे कभी हुआ है ऐसे लड़के से प्यार जिसे अपनी ड्रिंक बेहद पसंद हो? यार पीकर वो ऐसी अच्छी अच्छी बातें करता है कि बिना पिए कभी भी न करे. कभी कभार तो मुझे लगता है उन्हें हमेशा थोड़े नशे में ही होना चाहिए...ज्यादा अच्छे लगते हैं. ऐसे मर्द कितने रूखे से जीव होते हैं...किसी चीज़ में ज्यादा सोचना नहीं...अपना खाना वक़्त पे मिल जाए...ऑफिस दिन भर ठीक ठाक बीत जाए बस...इसी में खुश. पर उन्हें उसकी पसंद की शराब मिल जाए फिर देखो कैसे मौसम में रंग घुलता है...कैसे इश्क परवान चढ़ता है और अगर दर्द देखना है तो तब देखो कि कैसे इश्क में फ़ना होते हैं लोग. बिना किसी से कहे किस तरह टूटे हुए होते हैं. ये एक ऐसा वक़्त होता है जब वो सच में वल्नरेबल होते हैं. मुझे उनपर जितना तरस आता है उतना ही प्यार भी आता है. 

पी को सदियों से ऐसा कोई नहीं मिला था जिससे वो सारी बातें कर सके...लड़कियां उसकी दोस्त बनती नहीं थीं और लड़को को उससे प्यार हो जाता था...जिंदगी बड़ी तनहा थी. आज जैसे उसने खुद को ही पा लिया था...स की भी बातें थी बहुत...पर आज पी का मौसम था...बोले जा रही थी. स तू मुझसे ज्यादा मत मिला कर, मुझसे बात भी मत कर...मैं वैसी लड़की हूँ जिसे माएँ अपनी बड़ी होती बेटियों को बचा के रखती हैं कि बिगड़ न जाएँ...मैं हर चीज़ को करप्ट कर देती हूँ...ओक्सिजन हूँ ना...पर ये लोग जानते नहीं कि मैं न हूँ तो ये सांस भी न ले पाएं. सुलगती हुयी पी ने कश छोड़ा था तो धुआं भी एक पल ठहर कर उसके चेहरे का भाव देखने लगा था. स तो खैर वैसे भी आज कहानी ही सुनने आई थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये लड़की इतनी अकेली कैसे हो सकती है...उसने हमेशा पी को पढ़ा था...उसके शब्दों में, उसकी बातों में, उसकी अनगिन तस्वीरों में...हर जगह. पार्टियों की जान हुआ करती थी पी...उसके हिस्से वाकई इतनी तन्हाई है ये स को एकदम समझ नहीं आ रही थी. दो एकदम विपरीत स्वाभाव वाली लड़कियां एकदम एक सी तनहा कैसे हो सकती हैं. 


स चकित थी पी का चेहरा देख कर, उसमें कहीं कोई शिकवा, कोई गिला नहीं था. वो एक ऐसी लड़की का चेहरा था जिसने बेहद शिद्दत से जिंदगी को प्यार किया हो...बिना किसी अफ़सोस के. इश्क के कितने अनगिन किस्से थे पी के पास...और स के पास भी. आज इस बेहतरीन शाम के लिए ब्लू लेबल खोली गयी थी...और दो पैग बचे हुए थे अब...रात भी बर्फ पिघलने के रफ़्तार से ही ढल रही थी...सुबह के पहले की सबसे अँधेरी घड़ी थी. आग में थोड़ा धुआं धुआं सा था...रात भर रिपीट मोड में गा के शायद नुसरत साहब भी थक गए थे...ऐसे दो कद्रदान फिर जाने कब मिले, इसलिए उन्होंने शिकायत भी नहीं की थी...मार्लबोरो का नया पैकेट खोला जा रहा था...माहौल था कि जैसे कोई रेडियो का सिफारिशी प्रोग्राम ख़त्म होने को आ रहा हो...और आज की आखिरी फरमाइश झुमरीतलैय्या के फलाना साहब से...स ने सवाल पूछा...पी तू शादी किससे करेगी? पी ने व्हिस्की का ग्लास उठाया...उसमें आखिरी घूँट बाकी थी और पिघले हुए बर्फ के टुकड़े, बॉट्म्स अप मारा...आखिरी पैग बनाते हुए बोली...कोई होगा जो मेरे इस नीट व्हिस्की के लिए बर्फ के टुकड़े ला दिया करे फ्रिज से? जब भी मैं पीने बैठूं...ऐसा लड़का जिस दिन मिल जाएगा उससे शादी कर  लूंगी
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स का तो पता नहीं...बेचारी भली लड़की है, कहाँ से ऐसा लड़का ढूंढेगी...पर मैं, मैं तो लेखक हूँ ना...अपनी पी को ऐसे कैसे रहने दूं, उसे लिए ऐसा लड़का भी रचना पड़ेगा एक दिन. तब तक के लिए...अगर आप ऐसे किसी लड़के को जानते हैं तो बताएं. मैं पी से बात करुँगी. बस आज के एपिसोड में इतना काफी है. अगली बार कभी स की कहानी भी सुनाती हूँ. वैसे मैं लड़का होती तो मुझे पी से प्यार हो जाता? आपको हुआ क्या? 

07 December, 2011

होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए...

यूँ कहने को तो वो सारा सामान मौजूद था कि जिससे तुम्हारी याद न आये...कहा यूँ भी जा सकता है कि तुम बिन जीने का सारा सामान मौजूद था...एक मेरे जैसे ही स्माल साइज़ में व्हिस्की (JD- यही कहते हो न तुम जैक डैनयल्स को ?), दो अदद बोतल बीयर, चार-पांच फ्लेवर्स में बकार्डी ब्रीजर...औरेंज, ब्लैकबेरी, लाइम और जमैकन पैशन...रंग बिरंगी बोतलों में बंद जिंदगी के रंगों से फ्लेवर्स या कि तुम्हारी याद के रंगों के...मार्लबोरो लाइट्स...पसंदीदा लाइटर...अपनी कार और खुली सडकें...हाँ रॉकस्टार के गाने भी, सीडी में पहला गाना ही था...मेरी बेबसी का बयान है, बस चल रहा न इस घड़ी...होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए. बड़ी मेहनत से एक साथ ये सारी चीज़ें जुगाड़ी थीं...तुम्हारे आने के पहले इतनी तनहा तो कभी नहीं थी मैं.

तो कायदे से होना ये चाहिए था कि तुम्हारी आवाजों के चंद कतरे कतार में लगा दूं और बाकी खालीपन को शराब और सिगरेट के नशे में डुबो दूं...प्यार होता है तो सबसे पहले खाना बंद हो जाता है मेरा...सुबह से एक कौर भी निगल नहीं पायी हूँ...पानी भी गले से नहीं उतरता...ड्राइव करते हुए आज पहली बार सिगरेट पी...ओह्ह्ह क्या कहूँ तुमसे प्यार करना क्या होता जा रहा है मेरे लिए...एक खोज, एक तलाश की तरह है कि जिसमें मैं अपने अंधेर कुएं में सीढ़ियाँ लगा कर उतरने लगी हूँ.

पर तुम्हारी ये आवाज़ के कतरे भी दुष्ट हैं, तुम्हारी तरह. सच्ची में, कमबख्त बड़े मनमौजी हैं...एक तो नशे के कारण थोडा बैलंस वैसे भी गड़बड़ाया है उसपर ये कतरे पूरे घर में उधम मचाते घूम रहे हैं...किसी दिन तुम्हारे प्यार में घर जला बैठूंगी मैं...अपनी हालत नहीं सम्हलती उसपर सिगरेट की मनमर्जी...उँगलियों से यूँ लिपटी है कमज़र्फ कि जैसे तुम्हारा हाथ थाम किसी न ख़त्म होने वाली सड़क पर चल रही हूँ.

पैग बना रही हूँ...बर्फ के टुकड़े खाली ग्लास में डालती हूँ तो बड़ी महीन सी आवाज़ आती है...जैसे शाम बात करते हुए तुमने अचानक से कहा था 'कितनी ख़ामोशी बिखर गयी है न!'...ये कैसी ख़ामोशी है कि चुभती नहीं...पिघलती है, कतरा कतरा...जैसे मैं पिघल रही हूँ...जैसे बर्फ पिघल रही है व्हिस्की में डूबते उतराते हुए. ग्लास पहले गालों से सटाती हूँ...पानी की ठंढी बूँदें चूम लेती हैं...कि जैसे पहाड़ों से उतर कर तुम आते हो और शरारत से अपनी ठंढी हथेलियों में मेरा चेहरा भर लेते हो...खून बहुत तेजी से दौड़ता है रगों में और कपोल दहक उठते हैं तुम्हारे होठों की छुअन से. उसपर तुम छेड़ देते हो कि तुम्हें शर्माना भी आता है!

तुमने किया क्या है मेरे साथ? मुझे लगता था कि जितनी पागल मैं आलरेडी हूँ, उससे आगे कुछ नहीं हो सकता  पर जैसे हर शाम कई नए आयाम खुल जाते हैं मेरे खुद के...जिंदगी उफ़ जिंदगी...इश्क का ऐसा रंग बचा भी है मुझे कब मालूम होना था. हर शाम ग्लास में एक आखिरी घूँट छोड़ देती हूँ...तुम कहोगे कि शराब की ऐसी बर्बादी नहीं करते...पर जानां, तुम नहीं समझोगे हर शाम उम्मीद करना क्या होता है...कि आखिरी घूँट तक शायद तुम आ जाओ इस इंतज़ार में रात कट जाती है.



इस सलीकेदार दुनिया में तुम्हें इसी पागल से प्यार होना था...अब? क्या करोगे? जाने दो इतनी बातें कि इनमें उलझ गए तो जिंदगी ख़त्म हो जायेगी और तुम्हें पता भी न चलेगा...जहाँ हो अपना ग्लास उठाओ...आज अलग अलग शहर में, एक आसमान के नीचे बैठ चलो इश्क के नाम अपने जाम टकराते हैं, चाँद गवाही देगा कि जिस लम्हे तुमने अपना जाम उठाया था, उसी लम्हे मैंने भी...चीयर्स!

24 November, 2011

अन अफेयर विथ बाइक्स/मुहब्बतें

मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक  यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.

Enticer 
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).

शान की सवारी- राजदूत
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.

ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.

उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.

मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.

तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में. 

17 November, 2011

कैन यू हीयर मी?


तुम्हारे लिए कितना आसान है यूँ खुली किताब की तरह मुझे पढ़ लेना, वो भी तब जब मुझे न झूठ बोलना आता है न तुमसे कुछ भी छिपा सकती हूँ कभी. तुमने जब जो पूछा हमेशा सच बोल गयी बिना सोचे कि सच के भी अपने सलीब होते हैं जिनपर दिन भर तिल तिल मरना होता है.

मैं तो इसी में खुश थी कि तुमसे प्यार करती हूँ, कब तुमसे कुछ माँगा जो तुम मुझसे पूछने लगे कि किस हक से मैं तुमसे सवाल कर रही हूँ. मेरा कौन सा हक है तुमपर. कभी भी कब रहा था. बस ये ही ना पूछा था कि ऐसे तुम सभी को पढ़ लेते हो या ख़ास मुझे पढ़ पाते हो. तुम एक सवाल का भी सीधा जवाब नहीं होगे, दिप्लोमटिक वहां भी हो जाते हो 'चाहूँ तो पढ़ सकता हूँ'. इससे बेहतर तो जवाब ही नहीं देते तुम.

ऐसे कैसे नरम, मासूम से ख्वाब थे कि सुनकर आँखें रोना बंद ही नहीं करतीं...दिल रो रहा है ऐसे कि लगता है मर जाउंगी. प्यार हमेशा ऐसा डर लेकर क्यूँ आता है कि लगता है गहरे पानी में डूब रही हूँ. सांस सीने में अटकी हुयी है. लोग माने न पाने प्यार का फिजिकल इफेक्ट होता है, आखिर पूरी दुनिया में किसी को भी प्यार होता है तो सबको ऐसा ही लगता है न कि जैसे सांस अटकी हुयी है सीने में. न खाना खा पा रही हूँ न किसी काम में मन लग रहा है. कॉपीचेक के लिए किताब कब से रखी हुयी है, इग्नोर मोड में डाल रखा है.


हाँ मेरा दिल करता है कि दोनों हाथों में एक बार तुम्हारा चेहरा लेकर देखूं कि तुम्हारी आँखों का रंग वाकई कैसा है. तुम्हें देखे इतने दिन हो गए कि तुम्हारा चेहरा याद में धुंधलाने लगा है...और तुम कहते हो कि तुमसे कभी न मिलूं...यूँ जैसे कि तुम बगल वाली बालकनी में रहते हो और हम रोज शाम अपने चाय और कॉफ़ी के कप उठा कर चियर्स करते हैं. बात तो यूँ करते हो जैसे दिल्ली बंगलोर में दूरी ही न हो, जैसे मैं जब चाहूँ ट्रांसपोर्ट होकर तुम्हारे ऑफिस के बाहर छोले कुलचे वाली साइकिल के पास तुम्हारा इंतज़ार कर सकती हूँ.

मुझे कभी भी प्यार हुआ तो मैंने छुपाया नहीं था...कोई कारण होगा न कि सिर्फ तुम एक्सेप्शन थे इस रूल के...कल जाने क्या मिल गया तुम्हें मेरे मुंह से कुबूल करवा के...हाँ मैं करती हूँ तुमसे प्यार...अब मैं क्या करूँ...अब मैं क्या करूँ. ये शाम जैसे हवा ज्यादा डेंस हो गयी है और सांस नहीं ली जा रही है, तुमसे बात करने का मन कर रहा है. पागल हो रही हूँ धीरे धीरे...उठा के फ़ेंक दो वो सारी चिट्ठियां कि जिनसे तुमने चीट questions बना लिए मुझे समझने के लिए.

तुम्हें लगा है कभी. डर. ऐसा. क्या करते हो ऐसे में? तुम्हारी आवाज़ के सिक्के ढलवा लूँ? जब दिल करे मुट्ठी में भर के खनखना लूँ. दिल करता है कहीं बहुत बहुत तेज़ बाईक चलाऊं और किसी दूर झील के किनारे जब कोई भी न देखे...जी भर के चिल्ला लूँ...आई लव यू...आई लव यू...कैन यू हियर मी?

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

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