04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

5 comments:

  1. मन प्रवाह जब काव्यमयी हो,
    लिख डालें या हृदय टटोलें।

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  2. याद की इक कच्ची पगडण्डी
    waah... loved the expression!

    Although your prose is as amazing as poetry, yet reading your poetry is an experience of different genre...:)

    prose aur poetry ki puja yun hi chalti rahe...
    ya yun kah lein:-
    puja ki prose and poetry nonstop chalti rahe...:)

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  3. aapki poetry bhi utni hi lajawab hai

    ReplyDelete

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