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21 October, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी - किंतसुगी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  

01 May, 2016

Chasm

मुझे तुम्हारी कुछ याद नहीं है। रंग। गंध। स्पर्श। कुछ नहीं।
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।

मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।

बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।

तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।

ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।

हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।

टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।

I'm incapable of love. Or of being loved. 

I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you. 

I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain. 

Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you. 

I hope to see you soon. 

Happy Birthday my love. My ma. My only one. 
I shall always love you. always. 

25 November, 2015

द राइटर्स डायरी: आस्था की लौ...आत्मा को रौशन करती हुयी

इस साल मैं पहली बार अमेरिका गयी हूँ. पहला शहर जो मैंने देखा वो डैलस था. हयात वाले होटल के पाँच माइल के रेडियस में कार की सर्विस देते हैं...कहीं भी आने जाने के लिए. रिचर्डसन के जिस एरिया में मैं ठहरी थी वहाँ से दो तीन चर्च दिखते थे. मैं अपने पहले दिन इत्तिफाकन उनमें से दो के पास गुजरी, सोचा कि यहाँ के चर्च भी देख लेते हैं. इसके पहले यूरोप गयी हूँ या फिर थाईलैंड...दोनों जगह क्रमशः चर्च और मंदिर हमेशा खुले हुए ही देखे हैं. यूरोप का कोई छोटे से गाँव में छोटा सा चैपल भी होता है तो भी उसके दरवाज़े खुले होते हैं. अपने देश का तो कहना ही क्या...यहाँ भी लगभग सारे मंदिर सारे वक़्त खुले ही रहते हैं. तो मैं चर्च के मेन दरवाज़े पर पहुंची. वो बंद था. फिर मुझे लगा कि शायद कहीं कोई छोटा दरवाज़ा होगा तो वो भी बंद मिला. मैंने सोचा कि ये एक चर्च बंद है...चलो कोई बात नहीं, किसी दूसरे में चले जायेंगे. अगली बार शटल से जाते हुए जो ड्राईवर थी, कैरोलिन, उससे पूछे कि यहाँ कोई चर्च है जो खुला होगा...कल मैं इस बगल वाले में गयी तो बंद था. वो पहले तो इस बात पर बहुत चकित हुयी कि मैं हिन्दू हूँ तो मुझे चर्च क्यूँ जाना है. तो उसे पूरे रास्ते मैं ये समझाती आई कि हमारे यहाँ किसी भी धर्म के पूजा स्थल पर जा सकते हैं. हम घूमते हुए चर्च भी चले जाते हैं, मज़ार भी और बौद्ध या जैन मंदिर भी. (एक मन तो किया कि उसको DDLJ दिखा दें. काजोल को देख कर अपनेआप समझ में आ जाएगा उसको.

बात परवरिश और स्कूल/कॉलेज की भी है. मेरी पढ़ाई देवघर में कान्वेंट स्कूल में हुयी. जैसी कि मेरे जान पहचान के अधिकतर लोगों की हुयी है. घर परिवार में भी, लगभग सारे बच्चे ऐसे ही इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े हैं. सेंट फ्रांसिस, डॉन बोस्को, लोयोला हाई स्कूल...मेरे स्कूल में अधिकतर टीचर्स केरल से आये थे. कुछ सिस्टर्स वगैरह थीं और कुछ लोकल टीचर्स भी. हम स्कूल असेम्बली में 'त्वमेव माता' भी गाते थे और 'देयर शैल बी शावर्स ऑफ़ ब्लेसिंग्स' भी गाते थे. 'इण्डिया इज माय कंट्री...आल इंडियंस आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स' वाला प्लेज भी लेते थे. इसके बाद अक्सर 'आवर फादर इन हेवेन होली बी योर नेम' पढ़ते थे...और फिर क्लास्सेस शुरू होती थीं. हमारी प्रिंसिपल पहले सिस्टर जोस्लेट और फिर सिस्टर कैरोलीन रही थीं. हमने उन्हें हमेशा सादगी से रहते और पढ़ाई के प्रति बहुत सिंसियर देखा था. हममें से अधिकतर की आइडियल हमारी प्रिंसिपल होती थीं. पटना में मेरी 12th के लिए मैं सेंट जोसफ कान्वेंट गयी. वहाँ स्कूल में एक छोटा सा चैपल था. मैं अक्सर सुबह स्कूल में क्लास आने के पहले वहां चली जाती थी. मन बहुत परेशान रहा या ऐसा कुछ. वहाँ जाते हुए एक चीज़ पर अक्सर मेरा ध्यान जाता था. हम जो हिन्दू स्टूडेंट होते थे, हमेशा अपने जूते बाहर खोल कर जाते थे...कि हमें मंदिर जैसी आदत थी...लेकिन जो क्रिश्चियन स्टूडेंट्स होती थीं, वे जूते पहन पर ही अन्दर चली जाती थीं क्यूंकि उन्हें ऐसा करने नहीं कहा गया था. हमारा क्लास शुरू होने के पहले वहां रोज़ 'आवर फादर इन हेवेन' कहना होता था. हमारी मोरल साइंस टीचर हमें मज़ाक में पूछती थी कि हम छुट्टियों में 'आवर फादर इन हेवेन' नहीं कहते, भगवान को भी छुट्टी दे देते हैं. इसपर हम सब लड़कियां खूब हँसती थीं. पटना विमेंस कॉलेज भी कैथोलिक सिस्टर्स का इंस्टिट्यूट है. पर यहाँ चूँकि हम बड़े हो गए थे तो कोई मोर्निंग असेम्बली वगैरह नहीं होती थी. यहाँ भी कोलेज के अन्दर एक छोटा सा चैपल था. वहां एक्जाम वगैरह के पहले मैं या मेरी कुछ दोस्त जाया करती थीं. कई बार हम किसी स्टेज परफॉरमेंस के पहले भी जाया करते थे. 

डैलस में मेरी कार ड्राईवर कैरोलीन ने बताया कि यहाँ चर्च हफ्ते में सिर्फ संडे को खुलते हैं. मुझे अपनी स्कूल की सिस्टर याद आ गयी, 'बहुत मजे हैं तुम्हारे भगवान के, हफ्ते में सिर्फ एक दिन काम करता है...हमारे यहाँ तो सारे भगवानों को पूरे हफ्ते काम करना होता है...त्योहारों में तो ओवरटाइम भी'. उसे मैं बहुत फनी लगी थी. जिसे आज सेकुलर कहते हैं...वो हमारे लिए हमेशा इतना साधारण रहा है कि कभी सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी. हमें बचपन से हर भगवान के सामने सर झुकाने की शिक्षा दी गयी थी. चूँकि हम बहुत घूमे हैं, तो देश में कई सारे मंदिर, बौद्ध स्तूप, मजार और मस्जिद भी गए हैं. पापा, मम्मी और भाई के साथ. बड़े होने के बाद पहली बार कश्मीर गए जब इन चीज़ों की थोड़ी बहुत समझ आने लगी थी...तो इस बात पर बहुत तकलीफ हुयी कि हज़रत बल में मस्जिद में अन्दर औरतों का जाना प्रतिबंधित है. मैं सोच रही थी कि उन्हें कितना खराब लगता होगा कि अन्दर जाने नहीं देते हैं. क्यूंकि दिल्ली में जामा मस्जिद में जाने दिया था. आगरा में भी. मुझे बचपन के और भी कई मस्जिद ऐसे ही याद थे जहाँ अन्दर जाने दिया जाता था.

घर में मम्मी कभी पूजा करने बोली नहीं...तो कभी पूजा करने मना भी नहीं की. व्रत वगैरह भी कभी कभार रख लेते थे. माँ और पापा दोनों रोज पूजा करते थे. घर के लोगों की यादों में सबसे क्लियर उनके पूजा करने का ढंग आता है. मम्मी का, दादी का, दिदिमा का, नानाजी का, पापा का...सबके अपने अपने चुने हुए मन्त्र और अपने अपने मंत्रोचार थे. देवघर चूँकि शंकर भगवान की नगरी है तो हम सब भोले बाबा के भक्त. अब उनका इम्प्रेशन ऐसा कि भूल वगैरह आराम से माफ़ कर देते हैं. तो पूजा पाठ में कोई गलती हो जाए तो ज्यादा परेशान नहीं होते थे. दिल्ली आने तक ऐसा ही बना रहा. जन्मदिन या पर्व त्यौहार में मंदिर जाना और कभी मूड हुआ तो पूजा कर लेना. भगवान में आस्था बहुत थी. मम्मी के जाने के बाद भगवान में विश्वास एकदम अचानक टूट गया. पूजा करनी बंद कर दी. घर की कुछ रस्में तो करनी पड़ती हैं...तो जहाँ जहाँ पूजा आवश्यक थी, वहां की, पर अपने मन से कभी मंदिर जाना या घर में भी पूजा करनी एकदम बंद है. शायद कभी वे दिन लौटें...मगर फ़िलहाल मन में श्रद्धा नहीं उभरती.
हमने हाल में नयी गाड़ी खरीदी है. स्कोडा ओक्टाविया. कल गाड़ी का रजिस्ट्रेशन था. उसके बाद मैं अपने एक दोस्त से मिलने गयी. अचानक ही मूड हो गया. बहुत दिन बाद गाड़ी हाथ में थी. बारिश का मौसम था. चल दिए. उसको कॉल किया कि मैं आ रही हूँ तेरे घर. वो ओडिसी और कुचिपुड़ी डांस करती है. इतना खूबसूरत कि बस. बड़ी बड़ी आँखें. उसे साधारण रूप से काम करते हुए देखती हूँ तो भी उसमें एक लय दिखती है. उसके चलने में, बोलने में, हंसने में. आंध्र की है...और बिहारी से शादी की है. iit का लड़का. उसका एक छोटा बेटा है. चार साल का लगभग. कल दरवाज़ा खोली तो देखे कि एकदम साड़ी में है, हम खुश होके बोलते हैं कि 'मेरे लिए' तो पट से जवाब आता है, 'औकात में रह'. कल कोई तो तुलसी पूजा थी, उसके लिए तैयार हुयी थी. हुयी तो पूजा के लिए ही तैयार न :) 

उनका अपना घर है. हाल में शिफ्ट हुए हैं. वहां पूजा के लिए अलग से कमरे का एक हिस्सा है. इसी में वो डांस प्रैक्टिस भी करती है. पूजा के हिस्से को अलग करने के लिए एक लकड़ी का नक्काशीदार जाली वाला पार्टीशन है. कल वहीं बैठी. वो मुझे बता रही थी कि आज दीवाली की तरह तुलसी के आसपास दिया जलाते हैं. उसका पूजाघर छोटा सा तीन स्टोरी रैक का बना हुआ था. एक ड्रावर जिसमें बहुत तरह के डिब्बे रखे थे. राम लक्ष्मण सीता की एक बड़ी तस्वीर. उसके ऊपर सुनहले रंग की छतरी. कांसे के राम, लक्ष्मण, सीता...हनुमान जी और गणेश जी. कई सारे अलग अलग साइज के दिए थे. कुछ कांसे के, कुछ चाँदी के. पंचमुखी दिया. सब अलग अलग साइज़ के दिए जोड़ों में थे. उसने दीयों को ऊंचाई के हिसाब से लाइन में रखा तो जैसे सीढ़ियाँ बन गयीं थीं. उसने मुझे बताया कि कैसे कांसे के वो राम लक्ष्मण सीता को लाने की कहानी है.

एक भजन है, नॉर्मली भजन में लिखने वाले का और जगह का नाम आता है. उसे एक भजन बहुत पसंद था और वो जानना चाहती थी कि वो कहाँ लिखा गया है. जब उसे उस ग्राम का नाम पता चला तो उसका मन था वहां जाने का. यहीं बैंगलोर के पास का एक गांव था. इत्तिफाक से वहीं पर उसका एक डांस प्रोग्राम आ गया. जब वह उस ग्राम में गयी और उस मंदिर में गयी जहाँ वो भजन लिखा गया था तो ऐसा हुआ कि पूजा के बाद पंडित और दर्शनार्थी सब चले गए और वो मंदिर में अकेली, सिर्फ भगवान के सामने थी. उस समय उसने वहाँ वो संगीत चलाया और उसपर उस छोटे से गाँव के उस छोटे से मंदिर में सिर्फ भगवान के लिए उसी भजन पर एक छोटा सा नृत्य किया. ये एक आत्मा को छूने वाली घटना थी. इसी के बाद उस शहर में एक दुकान में उसे ये भगवान की प्रतिमाएं मिली थीं. 

इधर बहुत दिन से मेरी पूजा बंद है. बाकी लोगों को भी मैं पूजा करते देखती हूँ तो वे एकाग्रचित्त नहीं होते. उनका मन कहीं और लगा होता है. पूजा एक रूटीन सी हो जाती है. मगर उसे देखना ऐसा नहीं था. उसे देखने पर मन में कोई पवित्र सी भावना जगती थी. जैसे कि वो सब कुछ प्रेम में, भक्ति में डूब कर कर रही है. उसके लिए सामने रखी मूर्तियों में प्राण थे और वो अपने इष्ट की ख़ुशी के लिए सब कर रही थी. पूजा. धूप. चन्दन. अगरबत्ती. पूजा करते हुये उसकी चूड़ियों की खनक भी सुन्दर लगती थी.

उसने कहा कि वो मुझे वो भजन सुनाएगी. एक ही पंक्ति सुन कर जैसे रोम रोम में अलग सा अहसास हुआ था. जैसे भगवान वाकई सुन रहे हो. बिना किसी वाद्ययंत्र के सिर्फ कोरी आवाज़. कुछ करने के लिए वो उठी. और जब वापस बैठ कर उसने भजन फिर गाना शुरू किया तो मुझे लगा कि ये मुझे रिकॉर्ड कर लेना चाहिए. शायद वो फिर से मेरे लिए गा दे...लेकिन अभी की उसकी आवाज़ सिर्फ राम तक पहुँचने के लिए है. मैंने चुपचाप मोबाइल से इसकी रिकॉर्डिंग कर ली. ये एक मुश्किल निर्णय था. मैं वहां डूबना चाहती थी उस आवाज़ में. मगर मैं उसे सहेजना भी चाहती थी. दिए की लौ में उसका चेहरा कितना सुन्दर दिख रहा था. मुझे बहुत साल पहले की गाँव की याद आई. तुलसी चौरा पर दिया दिखाती चाची, मम्मी, दीदी...सब एक ही जैसी लगती थी. दिव्य. 

ये एक अनुभव था. इसे मैं यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि बहुत साल बाद मैंने इस आवाज़ से अपने अन्दर रौशनी महसूस की है...उस भजन से जैसे भगवान खुश होकर जरा सा मेरे मन में भी बस गए हैं. ये इतनी खूबसूरत चीज़ है कि बिना बांटे रहा नहीं गया. शायद कभी मेरे मन में भी शंकर भगवान के प्रति आस्था वापस आएगी...तो मैं अपनी आवाज़ में कुछ वो भजन गा सकूंगी जो मैंने सीखे थे. धर्म ठीक ठीक मालूम नहीं क्या होता है, मेरे लिए जिस चौखट पर सर झुक जाए वहीं भगवान हैं...आस्था मन के अँधेरे को रौशन करती दिये की लौ है...जरा सी उम्मीद है...जरा सा सुकून.

मगर फिलहाल आप उसे सुनिए...

27 October, 2013

रात का इन्सट्रुमेंटल वेपन दैट किल्स इन साइलेंस

पिछली पोस्ट से आज तक में दस ड्राफ्ट पड़े हुए हैं. ऐसा तो नहीं होता था. अधूरेपन के कितने सारे फेजेस में रखे हुए हैं. सलामत. स्नोवाइट की तरह. गहरी नींद में. सेब का एक टुकड़ा खा लेने के कारण शापित.
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कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.

मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.

मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.

मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.

एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.

नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.

लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
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परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow. 

09 April, 2013

द हारमोनियम इन माय मेमोरी

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं. वक़्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं. 

ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है. छः साल के शाश्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है. आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज़ को मिस कर रही हूँ. हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था. शहर की फितरत, वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं. दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था. बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे, उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता. उस वक़्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा. उस वक़्त हम भाई बहन एक रियाज़ करने के लिए जान देते थे. 

हम उसे बहुत प्यार से छूते थे. नयी लकड़ी की पोलिश...चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा...उसके सफ़ेद कीय्ज ऐसे दीखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों. मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या. उस वक़्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज़ हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था. हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे. कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे. 

गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थी. राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे 'बादल रे, उमड़ घुमड़, बरसन लागे, बिजली चमक जिया डरावे'. मजेदार बात ये थी कि जून जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज़ में यही राग गाती थी. अब बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है. जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था. वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे. सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे. मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं. राग देश में भी सर उसको कोई और छोटा ख्याल सिखाये कि उसका नाम बादल है न...बादल रे गायेगा तो अच्छा थोड़े लगेगा उसको. 

जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में, एक्जाम देने जाते थे तो एक्जामिनर उससे प्यार कर बैठते थे. एक तो एकदम छोटा प्यारा और बहुत मासूम लगता था उसपर आवाज़ इतनी मीठी थी कि एक्जामिनर खुश होकर दो चार और राग सुनने के मूड में आ जाता, जिमी का और गाने का मूड नहीं होता लेकिन...एक तो हम लोग एक ही राग पूरा अच्छे से रियाज़ करके जाते थे, आलाप, ख्याल और तान के साथ. एक्जामिनर खुशामद करता, कोई भजन ही सुना दो...सर बोलते...अरे जिमी वो वाला सुना दो न जो अभी पिछले सन्डे सिखाये थे. जिमी गाता...एक्जामिनर सर या मैडम उसको खूब आशीर्वाद देते. हम दिल ही दिल में सोचते अच्छा है मेरा आवाज़ उतना अच्छा नहीं है, हमको अभी एक ठो और गाना गाने कोई बोले तो यहीं जान चला जाए. एक्जाम का खौफ होता था. एक बड़ा सा हॉल होता था उसमें पूरे शहर के दिग्गज बैठे होते थे...सबको सुनते थे तो कमाल लगता था, उसपर एक्जामिनर कभी कभी अच्छा अच्छा को सुन कर खुश नहीं होता था. हम तो डरे सहमे आधा चीज़ वहीँ भूलने लगते थे. एक उसी एक्जाम और एक उसी ऑडियंस का हमको लाइफ में डर लगा है. वरना हम बड़े तीस मारखां थे...कहीं, किसी से नहीं डरते. 

हारमोनियम हम पटना लेकर आये...वहां कभी कभी रियाज़ करते थे, डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे. दरअसल रियाज़ करने का असल मज़ा भोर में है, जब सब कुछ एकदम शांत हो, हलकी ठंढी हवा बह रही हो. पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे. याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था. कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी...शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, गीत के बोल भूलने लगती हूँ, जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है. कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आये...अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती. 

शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है. अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ. बहुत सालों से टाल रही हूँ, पर इस बार सर से भी मिलूंगी. अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है...उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूँगी. 
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इस सब के दरमयान चुप चुप रोउंगी कि मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहीं कभी भी. उसकी याद खुशबू की तरह है...कुछ कहती नहीं...दिल में कहीं बसती है. कल सुबह दराजों को हवा लगा कर कपड़े वापस रख रही थी, मम्मी के बुने सारे स्वेटर थे...वो थी यहीं कहीं. किसी दूसरे कमरे में फंदे गिनती...पीठ से लगा कर बित्ता हिसाब करती. मैं थक गयी हूँ उस खालीपन को दुनिया भर के काम से भरती हुयी. थक कर सो जाना चाहती हूँ हर रोज़ मगर याद भी कोई धुन की तरह ही है...कहीं नहीं जाती. मैं जाने कब उसके बिना जीना सीखूंगी. 
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बहुत दिन से रियाज़ करने का मन कर रहा है. सुर सारे भटक गए हैं. स थोड़ा ऊपर जो जाता है...कोमल ग ठीक से नहीं लगता है...नी जाने कैसा तो सुनने में आता है. पहले जब रियाज़ करती थी तो एक एक सुर पहले साधती थी. अब फिर से थोड़ा जिंदगी को साध रही हूँ. बहुत कुछ सुर से भटक गया...बहुत कुछ स्केल से अलग है. केओस को थोड़ा कम कर रही हूँ. जैसे कुछ सबसे खूबसूरत राग जिनमें सारे स्वर नहीं लगते, कुछ स्वर निषेध होते हैं. कभी कभी होता है...सन्डे को सुबह का वक़्त होता है...यूट्यूब पर कोई पसंद का गीत लगा देती हूँ और दूसरे कमरे में रोकिंग चेयर पर बैठ कर सिलास मारीनर जैसा कोई पुराना क्लासिक पढ़ती हूँ. जिंदगी अच्छी लगती है. सुकून लगता है. लगता है कि बहुत अच्छे से रियाज़ कर के उठे हों. मन शांत होता है. 

याद में स्वर आते हैं...कुछ शुद्ध, कुछ कोमल...गु ज री या  गा आ ग र  भ र ने ए  च ली  रे
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शीर्षक एक कोरियन फिल्म के नाम से. 

14 March, 2013

घड़ी तुम्हारे लौट आने का वक़्त नहीं बताती है

डेज ऑफ़ बीईंग वाइल्ड...एक उदास खालीपन से पूरी भरी हुयी फिल्म है. इसके किरदार कितने रंगों का इंतज़ार जीते हैं...टेलीफोन की घंटी की गूँज को अपने अन्दर बसाए...उदासी का एक वृत्त होता है जिसके रंग बरसात के बाद भी फीके दीखते हैं. कैसा अकेलापन होता है कि अपने सबसे गहरे दर्द को एक नितांत अजनबी के साथ बांटने के लिए मजबूर हो जाता है कोई...

इसका टाइटल प्लेट बहुत बहुत दिनों तक मेरा डेस्कटॉप इमेज रहा है. इस शुरुआत में एक अंत की गाथा है...एक कहानी जो आपको सबसे अलग कर देती है...मृत्यु को ज़ूम इन करके देखती डिरेक्टर की आँखें वो एक चीज़ ढूंढ लाती हैं जिसे मैं कहीं सहेजना चाहती हूँ...वो आखिरी लम्हे में याद आता नाम किसका है.

फिल्म जहाँ ख़त्म होती है...वहीँ शुरू हो जाती है...यू आर आलवेज इन माय हार्ट...
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मौत के पहले के आखिरी लम्हे में वो एक अजनबी से गुज़ारिश करता है कि उस लड़की को हरगिज़ न बताये कि वो वाकई उसे इस आखिरी लम्हे में याद कर रहा है. कि यही उसके लिए बेहतर होगा...कि वो कभी नहीं जाने.

कसम से आज तुम्हारी बहुत याद आई...तुम्हारे साथ और भी कितने लोगों की याद आई जिनकी जिंदगी में कहीं कोई एक हर्फ़ भी नहीं हूँ...मेरे साथ ऐसा क्यूँ होता है...मैं क्यूँ नहीं भूल पाती लोगों को...कभी भी नहीं क्यों? एक छोटी जिंदगी, उफ़ एक छोटी जिंदगी. दिल कैसा उजाड़ मकान है...इसमें कितने पुराने लोग रहते हैं. वो होते हैं न, घर पर अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जाने वाले लोग. वे इतने गरीब होते हैं कि उनके पास जाने का कोई ठिकाना नहीं होता है. मकान मालिक इतना गरीब कि उसका किराये के अलावा और कोई आमदनी नहीं. हालात से मजबूर आदमी. 

ऐसी मजबूरी में कैसा प्यार पनाह पाता है...तकलीफ में खिलने वाला ये कैसा पौधा है कि जब इस पर फूल आता है तो उस खुशबू में पूरी दुनिया गुलाबी हो जाती है. एक किरदार है, काफी आम सा...लेकिन जब एक खास एंगल से रौशनी उसपर गिरती है तो बेहद खूबसूरत लगता है. फिल्म देखते हुए गौर करती हूँ तो पाती हूँ कि आखिरी सीन में छत इतनी नीची है कि वो हल्का सा झुक कर खड़ा होता है सारे वक़्त. बहुत कोशिश करके भी उस चेहरे में मैं वो शख्स नहीं ढूंढ पाती जिससे मुझे जल्दी ही प्यार होने वाला है. एक एक करके वो जाने क्या क्या चीज़ें अपनी जेब में रख रहा है. उन चीज़ों में मेरा कुछ भी है...क्या किसी भी चीज़ को कभी मेरे हाथों ने छुआ होगा? एक बार उसने कहा था मेरे हाथ का लिखा एक नोट उसके वालेट में हमेशा रहता है. फिल्म ऐसे कुछ झूठों की नींव पर चलती है. 

फिल्म कहाँ ख़त्म होती है, जिंदगी कहाँ शुरू...तुम क्या लिखते हो और मैं क्या पढ़ती हूँ इन बातों में क्या रखा है. बात इतनी सी है बस कि आज भी रात के आठ बजे अचानक घड़ी पर नज़र चली गयी...एक ये वक़्त है, एक तीन बजने में दस मिनट का वक़्त है. कभी कभार मैं इन वक्तों में घड़ी देख लेती हूँ तो बहुत रोती हूँ. मालूम है, मुझे कभी भी टाइम पर कुछ भी करने की आदत नहीं है...मैं मीटिंग में लेट जाती हूँ, ऑफिस में लेट जाती हूँ, ट्रेन, एयरपोर्ट, सब जगह लेट जाती हूँ. फिल्म में एक मिनट है...लड़की कहती है...मालूम है...मुझे लगता था एक मिनट बहुत जल्दी बीत जाता है...एक मिनट बहुत छोटा वक़्त होता है. हम सब अपनी अपनी जिंदगी में ऐसी कितनी सारी छोटी छोटी चीज़ें सहेज कर रखते हैं. 

घर आई हूँ...२०४६ लगा दी है...इसलिए नहीं कि फिल्म देखनी है...पर इस फिल्म का कोई एक लम्हा है जिसमें बहुत सारी ख़ुशी है. मैं उस ख़ुशी से अपनी फिल्म की रील को ओवरराईट करना चाहती हूँ. फिल्म में वो सायोनारा कहता है...मैं पहली बार नोटिस करती हूँ कि उस पूरी फिल्म में सिर्फ एक शब्द मुझे समझ आया है. मैं भाषाएँ सीखना चाहती हूँ. मैं बहुत बहुत सारा रोना चाहती हूँ पर अचानक से आंसू आने बंद हो गए हैं. मैं सिगरेट का एक लम्बा कश लगाना चाहती हूँ. मैं बहुत सारी वोदका पी जाना चाहती हूँ आज. गहरी लाल चेरी वोदका. बेहद मीठी. बेहद नशीली. 
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मुझे मालूम है कि क्या हुआ है...बेहद खुश होने वाला कोई दिन है...और उसे याद कर रही हूँ...जो फोन पर मेरी आँखों के आंसू देख लेती थी. मैं जाने किस किस चीज़ से उसके नहीं होने को भरना चाहती हूँ. पहले कोपी में डूडल बनाती थी तो उनमें आसमान, बादल, चिड़िया, बारिश होती थीं. मैं आजकल सिर्फ दीवारें बनाती हूँ. जाने कैसी कैसी लकीरें...कैसे रस्ते जो कहीं नहीं खुलते. मैं बहुत उलझ गयी हूँ. पिछली बार जब बहुत पी थी तो होश नहीं था...मैं बहुत रोई थी इतना याद है. मैं बहुत उदास थी कि मैं देखती हूँ कि लोग चढ़ने के बाद बहुत खुश होते हैं, दोस्तों को फोन करते हैं...मैं सिर्फ रोती हूँ. तो क्या बाकी जिंदगी सिर्फ किरदार निभाती हूँ? खुश रहना आदत सी है...नॉर्मली किसी चीज़ को लेकर पोजिटिव रहती हूँ. फिर. फिर क्या?

कहाँ से बहती है दर्द की नदी...कैसी उम्रकैद है...तुम कहाँ हो...मर जाउंगी तो दिखोगी कहीं? पता है माँ, घर गए थे तो याद करने की कोशिश किये...सच्ची में...हमको वाकई याद नहीं हम आखिरी बार खुश कब हुए थे. 
बहुत साल हो गए. 
आई स्टिल मिस यु वेरी मच माँ. 

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

15 November, 2012

स्मोकिंग अंडरवाटर

एक डूबे हुए जहाज के तल में बैठी हूँ...एक कमरे भर ओक्सिजन है. शीशे के बाहर काली गहराई है. लम्हे भर पहले एक मिसाइल टकराई थी और पूरा जहाज डूबता चला गया है. पानी में कूदने का भी कोई फायदा नहीं होने वाला था...मुझे तैरना नहीं आता. मेरे पास एक पैकेट सिगरेट हैं...मैं लंग कैंसर होने के डर से मुक्त हूँ. देखा जाए तो डर बीमारी का नहीं मौत का था...लेकिन जब मौत सामने खड़ी है तो उससे डर नहीं लग रहा.

एक के बाद दूसरी सिगरेट जलती हूँ...कमरे की ऑक्सीजन को बिना शिकायत हम दोनों आधा आधा बाँट लेते हैं...मेरी पसंदीदा मार्लबोरो माइल्ड्स...सफ़ेद रंग के पैकेट पर लिखी चेतावनी को देखती हूँ...जिंदगी के आखिरी लम्हों में कविता सी लगती है...स्मोकिंग किल्स.

धुएं के छल्ले बनाना बहुत पहले सीख लिया था...छल्ला ऊपर की ओर जाता हुआ फैलता जाता है...मौत बाँहें पसार रही है. शीशे के बाहर कुछ नहीं दिखता...पूरे जहाज़ पर चीज़ें टूट-फूट रही होंगी...खारा पानी शक्ति-प्रदर्शन में लगा होगा. मैं कोई गीत गाने लगती हूँ...विरक्त सा कोई गीत है जो मुझसे कहता है कि दुनिया फानी है...न सही.

दोपहर एक दोस्त को फोन किया था डाइविंग जाने के पहले...कुछ जरूरत थी उसे...समझाया था ढंग से...फिर बिना मौसम की बात की थी...चिंता मत कर...पुल से कूदने के पहले तुझे फोन कर लूंगी. बचपन की दोस्त की याद ऐसे आती है  कि दरवाजा खोल कर समंदर में घुल जाने का दिल करने लगता है. मोबाईल में एक एसएमएस पड़ा है...तुम्हें समझ नहीं आता...नहीं कर सकता बात मैं तुमसे...व्यस्त हूँ. सोचती हूँ...मैं वाकई कितनी बेवक़ूफ़ हूँ कि मुझे समझ नहीं आता. देवघर का घर...झूला...मम्मी का बनाया हुआ केक याद आता है.

मुझे विदा कहना नहीं आता...जिंदगी एक्सीडेंट ही है...मौत का इतना तमाशा क्यूँ हो?

मैं उससे पहली बार मिली तो जाना था हम किसी के लिए बने होते हैं...जिन परीकथाओं के बारे में सोचा नहीं था उन पर यकीन करने का दिल किया था. मैं उसके बारे में नहीं लिखती...कभी नहीं...उसका नाम इतना पर्सनल लगता है कि धड़कनों को भी उसका नाम तमीज से लेने की हिदायत दे रखी है. उससे मिलने के बाद जाना था किसी के लिए जीना किसे कहते हैं...मेरे लिए हमेशा वो ही है...एक बस वो.

पूरी पूरी जिंदगी मौत के तैय्यारी हो या जीने का जश्न...फैसला हमेशा हमारे हाथ में नहीं होता...कमरे में ऑक्सीजन कम हो गयी है...सांस लेने में तकलीफ होने लगी है अब...ये आखिरी कुछ लम्हे हैं...मुझे सब याद आता है...उसकी जूठी सिगरेट...उससे कोई एक फुट छोटा होना...उसका कहना कि हंसती हो तो दिखता कैसे है...तुम्हारी आँखें इतनी छोटी हैं. आज बड़ी शिद्दत से वो दिन याद आ रहा है जब उससे पहली बार मिली थी. हर छोटी छोटी चीज़...खुशबुएँ...दिल्ली का कोहरा...मैगी...कॉफ़ी...फर का वो भूरा कोट...मेरा शॉल जो उसने भुला दिया.

सब कुछ रिवाईंड में चलता है...जिंदगी...इश्क...बचपना...और फिर सब कुछ भूल जाना...

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

23 February, 2012

दर्द के सिरहाने कोई थपकी नहीं होती

The only day I become inconsolable is when I miss you ma. 
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अब किसी से नहीं कहती...अच्छा नहीं लगता...किसी से बात भी नहीं करती...अब इतने साल हो गए माँ...अब सच में कोई भी नहीं है जिसको फोन करूँ और बस रो दूं...इतना कह पाऊं कि तुम्हारी याद आ रही थी. खूब सारा रो के चुप जो जाऊं...उधर से कोई आवाज़ नहीं आये...कोई कुछ न कहे. समझाने की कोशिश न करे...कुछ न कहे...कुछ नहीं. 

माँ को भूलने में कितना वक़्त लगता है...हर गुज़रते साल के साथ समय की रेतघड़ी को पलट देती हूँ इस उम्मीद में कि कभी तो दर्द ख़त्म होगा...कभी ख़त्म होगा...कभी ख़त्म होगा. सब कहते हैं वक़्त दो...वक़्त दो. जैसे कि मेरे पास और कोई उपाय भी है. 

पता है मम्मी मेरे जैसी लड़की की मम्मी को इतनी जल्दी नहीं जाना चाहिए था...मैं हमेशा ऐसी ही तो रही हूँ न...हर कुछ दिन में उदास हो जाती थी...किसी के कहे से तकलीफ हो जाती थी...किसी के बिना कुछ कहे तकलीफ हो जाती थी...इस बड़ी दुनिया में कहीं भी तो फिट नहीं होती हूँ माँ...बहुत अकेली रहती आई हूँ हमेशा...दोस्त पता नहीं क्यूँ नहीं बनते. अपने आप को सम्हालते सम्हालते कभी कभी एकदम अच्छा नहीं लगता है. वैसे दुनिया की extrovert बनी फिरती हूँ पर वाकई जब किसी की जरूरत होती है उस समय किसी को इतना अपना समझ ही नहीं पाती हूँ. 

कभी समझ ही नहीं आता कि किसी की जिंदगी में मेरी जगह भी होनी चाहिए...मैं भी जरूरी हूँ...बहुत रोना आता है...और ऐसा नहीं है कि हमेशा दुखी रहती हूँ...पर जब बहुत बहुत खुश होती हूँ उसी दिन से मन का एक कोना छीजना शुरू कर देता है...मैं इग्नोर करने की कोशिश करती हूँ...अब रोती नहीं हूँ...अच्छे गाने सुनती हूँ...कुछ लोगों से बातें करती हूँ...खुद को व्यस्त रखती हूँ. पर मम्मी...हर ख़ुशी थोड़ी सी आधी रह जाती है...आधी नहीं बहुत कम रह जाती है...चाहे चोकलेट खाना हो. पता है मम्मी तुमको कभी डार्क चोकलेट नहीं खिलाये...तुम होती न तो तुमको पूरा स्लैब देते...और किसी को हम इतना प्यार नहीं करते...कुणाल को भी नहीं. तुम रही नहीं तो तुमको कैसे बताते...हम तुमसे पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करते हैं...आज भी मम्मी. 

पता है, घर में तुम्हारी एक भी फोटो नहीं है...कभी कभी भूलने लगती हूँ कि तुम्हारी आवाज़ कैसी थी...माथे पर तुम्हारा हाथ रखना कैसा था...तुम्हारे हाथ से कौर खा के कोलेज भागना कैसा था...इधर एक दिन खाना बनाये तो सब्जी एकदम वैसा बना था जैसा तुम बनाती थी...समझ नहीं आया कि हंसें कि रोयें...अनुपम को मेसेज किये...अभी भी उसको फोन करते हैं तो सोचते हैं कि उसको इतना क्यूँ परेशान करते हैं...फिर लगता है कि बस वही तो है जो कमसे कम जानता है तुमको. बाकी मेरी जिंदगी में जितने भी लोग हैं तुमको नहीं जानते मम्मी...कोई भी नहीं. 

तुम सबसे अच्छी मम्मी थी...पर हमको भी तो थोड़ा वक़्त देती...हम समझदार हो गए हैं अब...हम तुमको सबसे अच्छी बेटी बन के दिखाते. सबसे अच्छी...तब हम बहुत कुछ करते मम्मी...वो हर प्राइज जीत के लाते जो तुम कहती...याद है कैसे हम प्राईज खोलते भी नहीं थे...तुम्हारे पास दौड़ के ले के आते थे. 

तुम थी न मम्मी तो हम सबसे अच्छे थे...तुम नहीं हो न...तो हम कहीं नहीं हैं. कहीं भी नहीं. कुछ भी नहीं. तुम बहुत बहुत बहुत याद आती हो मम्मी...हम कितना भी कोशिश कर लें...हमसे कुछ नहीं होता है. 

काश तुम होती मम्मी...काश. 
तुम्हारी बहुत याद आती है माँ...मी...मम्मी. 

14 January, 2012

हैप्पी बर्थडे बिलाई

आज सुबह छह बजे नींद खुल गयी...अक्सर सुबह ही उठ रही हूँ वैसे...इस समय लिखना, पढना अच्छा लगता है. सुबह के इस पहर थोड़ा शहर का शोर रहता है पर आज जाने क्यूँ सारी आवाजें वही हैं जो देवघर में होती थीं...बहुत सा पंछियों की चहचहाहट...कव्वे, कबूतर शायद गौरईया भी...पड़ोसियों के घर से आते आवाजों के टूटे टुकड़े...अचरज इस बात पर हो रहा है कि कव्वा भी आज कर्कश बोली नहीं बोल रहा...या कि शायद मेरा ही मन बहुत अच्छा है.

बहुत साल पहले का एक छूटा हुआ दिन याद आ रहा है...मकर संक्रांति और मेरे भाई का जन्मदिन एक ही दिन होता है १४ जनवरी को. आजकल तो मकर संक्रांति भी कई बार सुनते हैं कि १५ को होने वाला है पर जितने साल हम देवघर में रहे...या कि कहें हम अपने घर में रहे, हमारे लिए मकर संक्रांति १४ को ही हर साल होता था. इस ख़ास दिन के कुछ एलिमेंट थे जो कभी किसी साल नहीं बदलते.

मेरे घर...गाँव के तरफ खुशबू वाले धान की खेती होती है...मेरे घर भी थोड़े से खेत में ये धान की रोपनी हर साल जरूर होती थी...घर भर के खाने के लिए. अभी बैठी हूँ तो नाम नहीं याद आ रहा...महीन महीन चूड़ा एकदम गम गम करता है. १४ के एक दो दिन पहले गाँव से कोई न कोई आ के चूड़ा दे ही जाता था हमेशा...चूड़ा के साथ दादी हमेशा कतरी भेजती थी जो मुझे बहुत बहुत पसंद था. कतरी एक चीनी की बनी हुयी बताशे जैसी चीज़ होती है...एकदम सफ़ेद और मुंह में जाते घुल जाने वाली. कभी कभार तिल के लड्डू भी आते थे.

अधिकतर नानाजी या कभी कभार छोटे मामाजी पटना से आते थे...खूब सारा लडुआ लेकर...मम्मी ने कभी लडुआ बनाना नहीं सीखा. लडुआ दो तरह का होता था...मूढ़ी का और भूजा हुआ चूड़ा का...पहले हम मूढ़ी वाले को ही ख़तम करते थे क्यूंकि चूड़ा वाला थोड़ा टाईट होता था उसको खाने में मेहनत बेसी लगता था. नानाजी हमेशा जिमी के लिए स्वेटर भी ले के आते थे और नया कपड़ा भी. जिमी के लिए एक स्वेटर मम्मी हमेशा बनाती ही थी उसके बर्थडे पर...वो भी एक आयोजन होता था जिसमें सब जुट कर पूरा करते थे. कई बार तो दोपहर तक स्वेटर की सिलाई हो रही होती थी. हमको हमेशा अफ़सोस होता था कि मेरा बर्थडे जून में काहे पड़ता है, हर साल हमको दो ठो स्वेटर का नुकसान हो जाता था.

तिलकुट के लिए देवघर का एक खास दुकान है जहाँ का तिलकुट में चिन्नी कम होता है...तो एक तो वो हल्का होता है उसपर ज्यादा खा सकते हैं...जल्दी मन नहीं भरता. उ तिलकुट वाला के यहाँ पहले से बुकिंग करना होता है तिलसकरात के टाइम पर काहे कि उसके यहाँ इतना भीड़ रहता है कि आपको एक्को ठो तिलकुट खाने नहीं मिलेगा. वहां से तिलकुट विद्या अंकल बुक करते थे...कोई जा के ले आता था.

सकरात में दही कुसुमाहा से आता था...कुसुमाहा देवघर से १६ किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पापा के बेस्ट फ्रेंड पत्रलेख अंकल उस समय मुखिया थे...उनके घर में बहुत सारी अच्छी गाय है...तो वहां का दही एकदम बढ़िया जमा हुआ...खूब गाढ़ा दूध का होता था...ई दही एक कुढ़िया में एक दिन पहले कोई पहुंचा जाता था...और दही के साथ अक्सर रबड़ी या खोवा भी आता था. इसके साथ कभी कभी भूरा आता था जो हमको बहुत पसंद था...भूरा गुड का चूरा जैसा होता है पर खाने में बहुत सोन्हा लगता है. १४ को हमारे घर में कोबी भात का प्रोग्राम रहता था...उसके लिए खेत से कोबी लाने पापा के साथ विद्या अंकल खुद कुसुमाहा जाते थे...१४ की भोर को.

ये तो था १४ को जब चीज़ों का इन्तेजाम...सुबह उठते...मंदिर जाते...नया नया कपड़ा पहन के जिम्मी सबको प्रणाम करता. तिल तिल बौ देबो? ये सवाल तीन पार पूछा जाता जिसका कि अर्थ होता कि जब तब शरीर में तिल भर भी सामर्थ्य रहेगा इस तिल का कर्जा चुकायेंगे...या ऐसा ही कुछ. फिर दही चूड़ा खाते घर में सब कोई और शाम का पार्टी का तैय्यारी शुरू हो जाता.

तिलसकरात एक बहुत बड़ा उत्सव होता जिम्मी के बर्थडे के कारण...होली या दीवाली जैसा जिसमें पापा के सब दोस्त, मोहल्ले वाले, पापा के कलीग, घर के लोग...सब आते. शाम को बड़ा का केक बनाती मम्मी...कुछ साथ आठ केक एक साथ मिला के, काट के, आइसिंग कर के. घर की सजावट का जिम्मा छोटे मामाजी का रहता. सब बच्चा लोग को पकड़ के बैलून फुलवाना...फिर पंखा से उसको बांधना...पीछे हाथ से लिख के बनाये गए हैप्पी बर्थडे के पोस्टर को टांगना. ऐसे शाम पांच बजे टाइप सब कोई तैयार हो जाते थे.

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आज सुबह से उन्ही दिनों में खोयी हूँ...यहाँ बंगलौर में कुल जमा दो लोग हैं...घर से चूड़ा आया हुआ है...अभी जाउंगी दही खरीदने...दही चूड़ा खा के निपटाउंगी. जिमी के लिए कल शर्ट खरीद के लाये हैं...उसको कुरियर करेंगे...सोच रहे हैं और क्या खरीदें उसके लिए.

सारे चेहरे याद आ रहे हैं...सब पुराने दोस्त...लक्की भैया, रोजी दीदी, नीलू, छोटू-नीशू, लाली, रोली, मिक्की, राहुल, बाबु मामाजी, छोटू मामाजी, सीमा मौसी, इन्द्रनील, नीति, आकाश, नीतू दीदी, शन्नो, मिन्नी, मनीष, आभा, सोनी...कितने लोग थे न उस समय...कितनी मुस्कुराहटें. अपने लिए दो फोटो लगा रहे हैं...हालाँकि ये वाला पटना का है...पर मेरे पास यही है.


यहाँ से तुमको ढेर सारा आशीर्वाद जिमी...खूब खूब खुश रहो...आज तुमको और पापा को बहुत बहुत मिस कर रहे हैं हम. 

04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

30 December, 2011

बात बस इतनी है जानां...


बड़ी ठहरी हुयी सी दोपहर थी...और ऐसी दोपहर मेरी जिंदगी में सदियों बाद आई थी...ये किन्ही दो लम्हों के बीच का पल नहीं थी...यहाँ कहीं से भाग के शरणार्थियों की तरह नहीं आए थे, यहाँ से किसी रेस की आखिरी लकीर तक जल्दी पहुँचने के लिए दौड़ना नहीं था। ये एक दोपहर आइसोलेशन में थी...इसमें आगे की जिंदगी का कुछ नहीं था...इसमें पीछे की जिंदगी का छूटा हुआ कुछ नहीं था। बस एक दोपहर थी...ठहरी हुयी...बहुत दिन बाद बेचैनियों को आराम आया था।

जाड़ों का इतना खूबसूरत दिन बहुत दिन बाद किस्मत को अलोट हुआ था...धूप की ओर पीठ करके बैठी थी और चेहरे पर थोड़ी धूप आ रही थी...सर पर शॉल था जिससे रोशनी थोड़ी तिरछी होकर आँखों पर पड़ रही थी...घर के आँगन में दादी सूप में लेकर चूड़ा फटक रही थी...सूप फटकने में एक लय है जो सालों साल नहीं बदली है...ये लय मुझे हमेशा से बहुत मोहित करती है। दादी के चेहरे पर बहुत सी झुर्रियां हैं, पर इन सारी झुर्रियों में उसका चेहरा फूल की तरह खिला और खूबसूरत दिखता है। कहते हैं कि बुढ़ापे में आपका चेहरा आपकी जिंदगी का आईना होता है...उसके चेहरे से पता चलता है कि उसने एक निश्छल और सुखी जीवन जिया है। आँखों के पास की झुर्रियां उसकी हंसी को और कोमल कर देती हैं...दादी चूड़ा फटकते हुये मुझे एक पुराने गीत का मतलब भी समझाते जा रही है...एक गाँव में ननद भौजाई एक दूसरे को उलाहना देती हैं कि बैना पूरे गाँव को बांटा री ननदिया खाली मेरे घर नहीं भेजा...लेकिन भाभी जानती है कि ननद के मन में कोई खोट नहीं है इसलिए हंस हंस के ताने मार रही है। दोनों के प्रेम में पगा ये गीत दादी गाती भी जाती है बहुत फीके सुरों में और आगे समझाती भी जाती है।

यूं मेरे दिन अक्सर ये सोचते कटते है कि परदेसी तुम जो अभी मेरे पास होते तो क्या होता...मगर आज मैं पहली बार वाकई निश्चिंत हूँ कि अच्छा है जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी...इस वक़्त...मम्मी ने उन के गोले बनाने के लिए लच्छी दी है...जैसे ये लच्छी है वैसे ही पृथ्वी की धुरी और बनता हुआ गोला हुआ धरती...पहले तीन उँगलियों में फंसा कर गोले के बीच का हिस्सा बनाती हूँ...फिर उसे घुमा घुमा कर बाकी लच्छी लपेटती हूँ। गोला हर बार घूमने में बड़ा होता जाता है। ऐसे ही मेरे ख्याल तुम्हारे आसपास घूमते रहते हैं और हर बार जब मैं तुम्हें सोचती हूँ...आँख से आँसू का एक कतरा उतरता है और दिल पर एक परत तुम्हारे याद की चढ़ती है। गोला बड़े अहतियात से बनाना होता है...न ज्यादा सख्त न ज्यादा नर्म...गोया तुम्हें सोचना ही हो। जो पूरी डूब गयी तो बहुत मुमकिन है कि सांस लेना भूल जाऊँ...तुमसे प्यार करते रहने के लिए जिंदा रहना भी तो जरूरी है। याद बहुत करीने से कर रही हूँ...बहुत सलीके से।

हाँ, तो मैं कह रही थी कि अच्छा हुआ जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी। आज शाम कुछ बरतुहार आने वाले हैं भैया के लिए...घर की पहली शादी है इसलिए सब उल्लासित और उत्साहित हैं...दादी खुद से खेत का उगा खुशबू वाला चूड़ा फटक रही है, उसको मेरी बाकी चाचियों पर भरोसा नहीं है। दादी दोपहर होते ही शुरू हो गयी है...उसकी लयबद्ध उँगलियों की थाप मुझे लोरी सी लग रही है। तुलसी चौरा की पुताई भी कल ही हुयी है...गेरुआ रंग एकदम टहक रहा है अभी की धूप में। तुलसी जी भी मुसकुराती सी लग रही हैं। हनुमान जी ध्वजा के ऊपर ड्यूटी पर हैं...बरतुहार आते ही इत्तला देंगे जल्दी से।

दोपहर का सूरज पश्चिम की ओर ढलक गया है अब...शॉल भी एक कंधे पर हल्की सी पड़ी हुयी है...जैसे तुम सड़क पर साथ चलते चलते बेखयाली में मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रख देते थे...ऊन का गोला पूरा हो गया है। मम्मी ने दबा कर देखा है...हल्का नर्म, हल्का ठोस...वो खुश है कि मैंने अच्छे से गोला बनाया है, उसे अब स्वेटर बुनने में कोई दिक्कत नहीं होगी। फिरोजी रंग की ऊन है...मेरी पसंदीदा। उसे हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि मुझे कोई भी काम सलीके से करना नहीं आएगा तो मेरे ससुराल वाले हमेशा ताने मारेंगे कि मायके में कुछ सीख के नहीं आई है, वो अब भी मेरी छोटी छोटी चीजों से सलीके से करने पर खुश हो जाती है।

आँगन में बच्चे गुड़िया से खेल रहे हैं...दीदी ने खुद बनाई है...मेरी दोनों बेटियों को ये गुड़िया उनकी बार्बी से ज्यादा अच्छी लगी है...वो जिद में लगी हैं कि इनको शादी करके शहर में बसना जरूरी है इसलिए वो उन्हें अपने साथ ले जाएँगे और स्कूल में कुछ जरूरी चीज़ें भी सीखा देंगी। उन्हें देखते हुये मैं एक पल को भूल जाती हूँ कि तुम मेरी याद की देहरी पर खड़े अंदर आने की इजाजत मांग रहे हो। उनपर बहुत लाड़ आता है और मैं उन्हें भींच कर बाँहों में भर लेती हूँ...वो चीख कर भागती हैं और आँगन में तुलसी चौरा के इर्द गिर्द गोल चक्कर काटने लगती हैं।

हवा में तिल कूटने की गंध है और फीकी सी गुड़हल और कनेल की भी...हालांकि चीरामीरा के फूलों में खुशबू नहीं होती पर उनका होना हवा में गंध सा ही तिरता है...मैं जानती हूँ कि घर के तरफ की पगडंडी में गहरे गुलाबी चीरामीरा लगे हुये हैं और गुहाल में बहुत से कनेल इसलिए मुझे हवा में उनकी मिलीजुली गंध आती है। दोपहर के इस वक़्त कहीं कोई शोर नहीं होता...जैसे टीवी पर प्रोग्राम खत्म होने पर एक चुप्पी पसरती है...लोग अनमने से ऊंघ रहे हैं...गाय अपनी पूँछ से मक्खी उड़ा रही है...कुएँ में बाल्टी जाने का खड़खड़ शोर है...और सारी आवाज़ों में बहुत सी चूड़ियों के खनकने की आवाज़ है...जैसे ये पहर खास गाँव की औरतों का है...हँसती, बोलती, गातीं...आँचल को दाँत के कोने में दबाये हुये दुनिया में सब सुंदर और सरल करने की उम्मीद जगाती मेरे गाँव की खुशमिजाज़ औरतें। साँवली, हँसती आँखों वाली...जिनका सारा जीवन इस गाँव में ही कटेगा और जिनकी पूरी दुनिया बस ये कुछ लोग हैं। पर ये छोटी सी दुनिया इनके होने से कितनी कितनी ज्यादा खूबसूरत है।


मैं अपने घर, दफ्तर, बच्चों, लिखने में थोड़ी थोड़ी बंटी हुयी सोचती हूँ जिंदगी इतनी आसान होती तो कितना बेहतर था...
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पर तुम भी जानते हो कि ये सारी बातें झूठ हैं...दादी को गए कितने साल बीत गए, माँ भी अब बहुत दिन से मेरे साथ नहीं है...तुम भी शायद कभी नहीं मिलोगे मुझसे...बच्चे मेरे हैं नहीं...और गाँव की ऐसी कोई सच तस्वीर नहीं बन सकती...तो बात है क्या?
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बात बस इतनी है जानां...कि आज पूरी पूरी दोपहर जाड़ों में धूप तापते हुये सिर्फ तुम्हें याद किया...दोपहर बेहद बेहद खूबसूरत गुजरी...पर तुम ही बताओ जो एक लाइन में बस इतना कहती तो तुम सुनते भी?

25 December, 2011

तुम्हारी याद मेरे बाएँ कंधे पर बैठी एक सतरंगी पंखों वाली तितली है...

यूँ मेरी माँ को गए बहुत साल बीत गए पर मुझे अब भी उसकी बेतरह याद आती है...मेरे हर शब्द में जो तलाश है वो उसी की है. मैं अतीत के लम्हों को करीने से अपनी एल्बम में सजा रही थी जब तितली बहुत हलके से मेरे कंधे पर बैठ गयी...मैंने स्लीवलेस टॉप पहना था तो कंधे पर हलकी सी गुदगुदी हुयी...

बाँयां कन्धा...हालाँकि माँ को गुज़रे बहुत साल बीते और मेरे बचपन का मुझे कुछ भी याद नहीं है...इतने सालों में किसी ने याद नहीं दिलाया...मेरे पास तसवीरें भी नहीं हैं कि जिन्हें देख कर मैं यकीन कर सकूँ दुबारा कि माँ मुझसे बहुत प्यार करती थी...पर बाकी औरतों को देखती हूँ, अपने बच्चे को बायें कंधे पर रखे हुए हलके हाथों से थपकी देते हुए तो मुझे लगता है कि जब मैं भी कुछ ही महीनों की रही होउंगी तो ऐसे ही माँ मुझे भी थपकियाँ देकर सुलाती होगी. उस वक़्त तक मैंने कोई बदमाशियां करनी नहीं सीखी होंगी कि मेरे अपने मुझसे हमेशा के लिए खफा हो जाएँ. नन्ही सी मैं, किसी गुलाबी रंग के स्वेटर में, नानी के हाथ के बुने हर फंदे की गर्माहट में लिपटी हुयी...अपनी पहली ठंढ में इस महीने कोई छः महीनो की रही होउंगी...उस वक़्त क्या किया होगा, बहुत तो कभी माँ की ऊँगली काट ली होगी, छोटे छोटे दांत आये होगे...और दांत सल्सलाता होगा तो.

ऐसी बहुत सी शामें होंगी जब मम्मी ने मुझे अपने बांयें कंधे पर थपकियाँ देकर सुलाया होगा...राजकुमार की कहानियां सुनाई होंगी...पर मुझे उनमें से एक भी याद क्यों नहीं आती है आज...आज मन जब ऐसा भरा भरा सा है कोई लोरी क्यूँ नहीं याद के देश से उड़ती आती है मेरे ज़ख्मों पर फाहा रखने. क्यूँ ऐसा महसूस होता है कि कभी मुझसे किसी ने प्यार किया ही नहीं...ये कैसी भटकन है कि तड़पती रहती हूँ...सर पर हाथ रखने कोई नहीं आता...ये दुनिया इतनी फरेबी भी तो नहीं.

जैसे परत परत उधेड़ दे कोई मुझे और मैं पाऊं कि सारे परदे उतरने के बाद मुझमें कुछ है ही नहीं...अन्दर से एकदम खाली...खोलने वाला भी परेशान हो जाए कि किस तलाश में मुझे खोलने की कोशिश की...माँ की हर याद एक ऐसा ही संदूक में संदूक है, सारे खुलते जाते हैं...बहुत मेहनत से...पुराने संदूक...किसी का ताला अटका हुआ है तो किसी के कब्जे नहीं खुलते...दिनों दिन लगा के खोलती जाती हूँ और जिंदगी की शाम आई होती है तो पाती हूँ कि उसमें मेरे लिए कुछ नहीं है...कुछ भी नहीं...कोई दुआ नहीं, कोई याद नहीं, कोई लोरी नहीं, कोई बुना हुआ स्वेटर नहीं.

मुझे देखोगे तो ऊपर से बहुत हंसती सी दिखती हूँ...मेरी आँखें छू कर मत देखना...फिर मुझपर तुम कभी ऐतबार न कर सकोगे...आज भी कहोगे कि मैंने तुम्हें कौन सा अपना माना वरना बताती नहीं...सोये ही तो हो, उठा देती...मुझे इस भरी दुनिया में किसी पर हक महसूस नहीं होता है...और मैं बहुत हँस के कहती हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करता...पर वाकई उस समय मैं अन्दर से बिखर रही होती हूँ ऐसे कि कोई बाँध भी ना सके. मेरी बातों पर यकीन मत करो...मुझे झूठ बोलना बहुत अच्छे से आता है...

हँसना झूठ होता है पर रोना झूठ नहीं होता...जाने तुम्हें किसी ने बताया या नहीं...पर तुम जानते हो न मुझे...कितनी स्ट्रोंग हूँ मैं...कभी रोई तुम्हारे सामने? नहीं न...मम्मी...माँ...मी...तुम बहुत याद आती हो. कभी मिलने आ जाया करो...मेरी एकदम याद नहीं आती तुम्हें...तुम सच्ची सच्ची बताओ...तुम मुझसे प्यार करती थी कि नहीं?

कैद-ऐ-हयात-ओ-बंद-ऐ-गम अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों?

कोई है जो बता दे कितनी जिंदगी और जीनी है...

24 November, 2011

अन अफेयर विथ बाइक्स/मुहब्बतें

मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक  यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.

Enticer 
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).

शान की सवारी- राजदूत
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.

ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.

उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.

मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.

तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में. 

19 August, 2011

शोर...

जिंदगी के सबसे खुशहाल दिनों में
कहीं, एक नदी सी खिलखिलाती है
सुनहरी धूपों में 

गिरती रहती है मन के किसी गहरे ताल में
झूमती है अपने साथ लेकर सब
नयी पायल की तरह 

कहीं तुम्हारी आँखों में संवरती हूँ तो  
मन का रीता कोना भरने लगता है 
धान के खेत की गंध से 

पल याद बहती है, माँ की लोरी जैसी
पोंछ दिया करती है गीली कोर
टूटता है एक बूँद आँसू

उलीचती हूँ अंजुली भर भर उदासियाँ 
मन का ताल मगर खाली नहीं होता 
मेरी हथेलियाँ छोटी हैं 

लिखने को कितनी तो कहानियां 
सुनाने को कितनी खामोशियाँ
पर, मेरी आवाज़ अच्छी नहीं है 

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
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फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

25 May, 2011

खुदा कभी मेरा घर देखे

आग का दरिया, तेरी अर्थी
कैसे कैसे मंज़र देखे

राह के गहरे अंधियारे में
चुप्पे, सहमे, रहबर देखे 

तेरी आँखें सूखी जबसे
जलते हुए बवंडर देखे 

तेरी चिट्ठी जो भी लाये 
घायल वही कबूतर देखे 

पूजाघर की सांकल खोली
दुश्मन सारे अन्दर देखे 

गाँव से जब रिश्ता टूटा तो
रामायण के अक्षर देखे 

बनी हुयी मूरत ना देखी
सब हाथों में पत्थर देखे 

बसा हुआ है मंदिर मंदिर
खुदा कभी मेरा घर देखे 

14 February, 2011

तुम कब जाओगे उदास मौसम?

जाने वो कौन सा प्यार होता है कि जिसके होने से रूह के कण कण में से उजास फूटने लगती है...जाने तुम्हारी याद के बादल किस समंदर से उठते हैं, सदियों बरसने पर भी बंद नहीं होते हैं...

जब तक उपरी बात होती है, सब बहुत सुन्दर है...आँखों को लुभावना दिखता है, पर जहाँ थोड़ा भी गहरे उतर कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि अँधेरे का कोई छोर ही नहीं है...कोई सीमा नहीं है...जैसे सामने बेहद ऊँची लहरें हैं जिनमें डूबने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. और लगता ये भी है कि दिए में रोज बाती करना, तेल करना और शाम होते देहरी पर रखना जिसका काम था वो तो बिना त्यागपत्र दिए रुखसत हो रखी है. मुझे अपने लिए एक रेकोमेंडेशन लेटर चाहिए...कह सकते हैं कि एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र जो कि एकदम मेरे मन को सही सही ग्रेड दे सके. मनुष्य के कई प्रकार होते हैं काले और सफ़ेद के बीच...इन्हें आजकल खास तरह के ग्रे शेड वाले कैरेक्टर कहते हैं. ऐसी कोई value जो तय कर सके कि इस सियाह अँधेरे में कहीं उजाले की कोई किरण है भी कहीं...या कभी हुयी थी...या कभी होने की कोई सम्भावना है?

तुम...मन के हर अवसाद से खींच कर लाने को तत्पर और सक्षम भी...तुम तो हो नहीं आज...सामने मार्कशीट रखी है...पढ़ने में  नहीं आ रही है...पर लोग कहते हैं कि लाल स्याही है...दूर से चमकता है लाल रंग, खून के जैसे, रुक जाने के जैसे...  फुल स्टॉप...जिंदगी यूँ ही ख़त्म क्यों नहीं हुए जाती है. मार्कशीट पर किसी ऐसे इन्सान के हस्ताक्षर चाहिए जो कह सके कि मुझे जानता है...पूरी तरह, उतनी पूरी तरह जितना कि एक इन्सान दूसरे इन्सान को जान सकता है...अफ़सोस...कार्ड पर आत्मा के दस्तखत नहीं हो सकते. समाज बस मान्यता देता है आत्मा के रिश्तों को...पर उन गवाहियों को नहीं मानता. शर्त है कि खुद को गिरवी रखना होता है अगर बात साबित हो गयी...कि मेरे अन्दर कहीं से भी कोई भी रोशनी ना थी, ना है...और ना कभी होगी.

दर्द का ये कौन सा मौसम है कि गुज़रता ही नहीं...सावन नहीं गिरता, बहार नहीं आती. आज जबकि इश्क का दिन है...मैं कैसी बेमौसम बातें कर रही हूँ.
लव यू माँ. मिस यू मोर.

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