यूँ मेरी माँ को गए बहुत साल बीत गए पर मुझे अब भी उसकी बेतरह याद आती है...मेरे हर शब्द में जो तलाश है वो उसी की है. मैं अतीत के लम्हों को करीने से अपनी एल्बम में सजा रही थी जब तितली बहुत हलके से मेरे कंधे पर बैठ गयी...मैंने स्लीवलेस टॉप पहना था तो कंधे पर हलकी सी गुदगुदी हुयी...
बाँयां कन्धा...हालाँकि माँ को गुज़रे बहुत साल बीते और मेरे बचपन का मुझे कुछ भी याद नहीं है...इतने सालों में किसी ने याद नहीं दिलाया...मेरे पास तसवीरें भी नहीं हैं कि जिन्हें देख कर मैं यकीन कर सकूँ दुबारा कि माँ मुझसे बहुत प्यार करती थी...पर बाकी औरतों को देखती हूँ, अपने बच्चे को बायें कंधे पर रखे हुए हलके हाथों से थपकी देते हुए तो मुझे लगता है कि जब मैं भी कुछ ही महीनों की रही होउंगी तो ऐसे ही माँ मुझे भी थपकियाँ देकर सुलाती होगी. उस वक़्त तक मैंने कोई बदमाशियां करनी नहीं सीखी होंगी कि मेरे अपने मुझसे हमेशा के लिए खफा हो जाएँ. नन्ही सी मैं, किसी गुलाबी रंग के स्वेटर में, नानी के हाथ के बुने हर फंदे की गर्माहट में लिपटी हुयी...अपनी पहली ठंढ में इस महीने कोई छः महीनो की रही होउंगी...उस वक़्त क्या किया होगा, बहुत तो कभी माँ की ऊँगली काट ली होगी, छोटे छोटे दांत आये होगे...और दांत सल्सलाता होगा तो.
ऐसी बहुत सी शामें होंगी जब मम्मी ने मुझे अपने बांयें कंधे पर थपकियाँ देकर सुलाया होगा...राजकुमार की कहानियां सुनाई होंगी...पर मुझे उनमें से एक भी याद क्यों नहीं आती है आज...आज मन जब ऐसा भरा भरा सा है कोई लोरी क्यूँ नहीं याद के देश से उड़ती आती है मेरे ज़ख्मों पर फाहा रखने. क्यूँ ऐसा महसूस होता है कि कभी मुझसे किसी ने प्यार किया ही नहीं...ये कैसी भटकन है कि तड़पती रहती हूँ...सर पर हाथ रखने कोई नहीं आता...ये दुनिया इतनी फरेबी भी तो नहीं.
जैसे परत परत उधेड़ दे कोई मुझे और मैं पाऊं कि सारे परदे उतरने के बाद मुझमें कुछ है ही नहीं...अन्दर से एकदम खाली...खोलने वाला भी परेशान हो जाए कि किस तलाश में मुझे खोलने की कोशिश की...माँ की हर याद एक ऐसा ही संदूक में संदूक है, सारे खुलते जाते हैं...बहुत मेहनत से...पुराने संदूक...किसी का ताला अटका हुआ है तो किसी के कब्जे नहीं खुलते...दिनों दिन लगा के खोलती जाती हूँ और जिंदगी की शाम आई होती है तो पाती हूँ कि उसमें मेरे लिए कुछ नहीं है...कुछ भी नहीं...कोई दुआ नहीं, कोई याद नहीं, कोई लोरी नहीं, कोई बुना हुआ स्वेटर नहीं.
मुझे देखोगे तो ऊपर से बहुत हंसती सी दिखती हूँ...मेरी आँखें छू कर मत देखना...फिर मुझपर तुम कभी ऐतबार न कर सकोगे...आज भी कहोगे कि मैंने तुम्हें कौन सा अपना माना वरना बताती नहीं...सोये ही तो हो, उठा देती...मुझे इस भरी दुनिया में किसी पर हक महसूस नहीं होता है...और मैं बहुत हँस के कहती हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करता...पर वाकई उस समय मैं अन्दर से बिखर रही होती हूँ ऐसे कि कोई बाँध भी ना सके. मेरी बातों पर यकीन मत करो...मुझे झूठ बोलना बहुत अच्छे से आता है...
हँसना झूठ होता है पर रोना झूठ नहीं होता...जाने तुम्हें किसी ने बताया या नहीं...पर तुम जानते हो न मुझे...कितनी स्ट्रोंग हूँ मैं...कभी रोई तुम्हारे सामने? नहीं न...मम्मी...माँ...मी...तुम बहुत याद आती हो. कभी मिलने आ जाया करो...मेरी एकदम याद नहीं आती तुम्हें...तुम सच्ची सच्ची बताओ...तुम मुझसे प्यार करती थी कि नहीं?
कैद-ऐ-हयात-ओ-बंद-ऐ-गम अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों?
कोई है जो बता दे कितनी जिंदगी और जीनी है...
बाँयां कन्धा...हालाँकि माँ को गुज़रे बहुत साल बीते और मेरे बचपन का मुझे कुछ भी याद नहीं है...इतने सालों में किसी ने याद नहीं दिलाया...मेरे पास तसवीरें भी नहीं हैं कि जिन्हें देख कर मैं यकीन कर सकूँ दुबारा कि माँ मुझसे बहुत प्यार करती थी...पर बाकी औरतों को देखती हूँ, अपने बच्चे को बायें कंधे पर रखे हुए हलके हाथों से थपकी देते हुए तो मुझे लगता है कि जब मैं भी कुछ ही महीनों की रही होउंगी तो ऐसे ही माँ मुझे भी थपकियाँ देकर सुलाती होगी. उस वक़्त तक मैंने कोई बदमाशियां करनी नहीं सीखी होंगी कि मेरे अपने मुझसे हमेशा के लिए खफा हो जाएँ. नन्ही सी मैं, किसी गुलाबी रंग के स्वेटर में, नानी के हाथ के बुने हर फंदे की गर्माहट में लिपटी हुयी...अपनी पहली ठंढ में इस महीने कोई छः महीनो की रही होउंगी...उस वक़्त क्या किया होगा, बहुत तो कभी माँ की ऊँगली काट ली होगी, छोटे छोटे दांत आये होगे...और दांत सल्सलाता होगा तो.
ऐसी बहुत सी शामें होंगी जब मम्मी ने मुझे अपने बांयें कंधे पर थपकियाँ देकर सुलाया होगा...राजकुमार की कहानियां सुनाई होंगी...पर मुझे उनमें से एक भी याद क्यों नहीं आती है आज...आज मन जब ऐसा भरा भरा सा है कोई लोरी क्यूँ नहीं याद के देश से उड़ती आती है मेरे ज़ख्मों पर फाहा रखने. क्यूँ ऐसा महसूस होता है कि कभी मुझसे किसी ने प्यार किया ही नहीं...ये कैसी भटकन है कि तड़पती रहती हूँ...सर पर हाथ रखने कोई नहीं आता...ये दुनिया इतनी फरेबी भी तो नहीं.
जैसे परत परत उधेड़ दे कोई मुझे और मैं पाऊं कि सारे परदे उतरने के बाद मुझमें कुछ है ही नहीं...अन्दर से एकदम खाली...खोलने वाला भी परेशान हो जाए कि किस तलाश में मुझे खोलने की कोशिश की...माँ की हर याद एक ऐसा ही संदूक में संदूक है, सारे खुलते जाते हैं...बहुत मेहनत से...पुराने संदूक...किसी का ताला अटका हुआ है तो किसी के कब्जे नहीं खुलते...दिनों दिन लगा के खोलती जाती हूँ और जिंदगी की शाम आई होती है तो पाती हूँ कि उसमें मेरे लिए कुछ नहीं है...कुछ भी नहीं...कोई दुआ नहीं, कोई याद नहीं, कोई लोरी नहीं, कोई बुना हुआ स्वेटर नहीं.
मुझे देखोगे तो ऊपर से बहुत हंसती सी दिखती हूँ...मेरी आँखें छू कर मत देखना...फिर मुझपर तुम कभी ऐतबार न कर सकोगे...आज भी कहोगे कि मैंने तुम्हें कौन सा अपना माना वरना बताती नहीं...सोये ही तो हो, उठा देती...मुझे इस भरी दुनिया में किसी पर हक महसूस नहीं होता है...और मैं बहुत हँस के कहती हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करता...पर वाकई उस समय मैं अन्दर से बिखर रही होती हूँ ऐसे कि कोई बाँध भी ना सके. मेरी बातों पर यकीन मत करो...मुझे झूठ बोलना बहुत अच्छे से आता है...
हँसना झूठ होता है पर रोना झूठ नहीं होता...जाने तुम्हें किसी ने बताया या नहीं...पर तुम जानते हो न मुझे...कितनी स्ट्रोंग हूँ मैं...कभी रोई तुम्हारे सामने? नहीं न...मम्मी...माँ...मी...तुम बहुत याद आती हो. कभी मिलने आ जाया करो...मेरी एकदम याद नहीं आती तुम्हें...तुम सच्ची सच्ची बताओ...तुम मुझसे प्यार करती थी कि नहीं?
कैद-ऐ-हयात-ओ-बंद-ऐ-गम अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों?
कोई है जो बता दे कितनी जिंदगी और जीनी है...