ऐसी कैसे हूँ कि एकदम डर नहीं लगता...किसी भी चीज़ से...जिंदगी से नहीं...मौत से नहीं...बिखर जाने टूट जाने से नहीं...ऐसे कैसे कण कण से उजास फूट रहा है मेरे. आज क्या मिल गया है मुझे?
शिव तांडव स्त्रोत्र सुना...डमरू बजता है तो लगता है पूरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं...एकदम टूट जाने वाले...जैसे कि फिर महीन बालू की तरह रह जाउंगी मैं...और फिर इसी से सब कुछ रच डालूंगी. कुछ रचने में खुद को बहुत तोड़ना भी जरूरी हो जाता है. मुझे क्यूँ टूटने से डर नहीं लगता...कि हर बार टूटने के बाद हम खुद को जोड़ कैसे लेते हैं.
स्त्रोत्र सुनते हुए लग रहा है कि हम इश्वर से अलग नहीं हैं, वाकई हम उसका ही एक हिस्सा हैं, हमें काट कर निकाला गया है इश्वर से ही...कि हमारी आत्मा उस परमपिता का ही अंश है. कि शिव की तीसरी आँख है मुझमें वहीं कहीं भवों के बीच...इस तीसरी आँख की ज्वाला से खुद को जलाने के बाद फिर से बना भी लूंगी ये भी यकीन है मुझे. सर से पैर तक थरथरा रही हूँ...रेजोनेंस जिसमें कि आप किसी आवाज़ से ट्यून हो जाते हो...वैसे ही. समझ नहीं आ रहा कि श्लोक बाहर बज रहा है या मेरे मन के अन्दर से...जैसे कोई सदियों पुरानी आवाज़ है जो मेरे पूरे होने से फूट रही है.
ऐसा होता है क्या कि शब्दों में चित्र छुपे हों? लंका की दीवारें दिखने लगती हैं...वहाँ तपस्या करता रावण...भक्त की तपस्या पर बार बार रीझते भोले शिव शंकर...और इस तांडव नृत्य का सब दृश्य खुल जाता है...सती का पार्थिव शरीर और पीड़ा के वे क्षण...मुझे भी महसूस होते हैं...और फिर क्रोध...सब कुछ जला देने वाला क्रोध. प्रलय लाने वाला क्रोध.
बचपन में एक बांगला तांडव नृत्य सिखाया गया था मुझे...छोटी सी थी और शिव बने हुए जटाजूट बांधे बहुत अच्छी लगती थी...वो नृत्य मुझे बेहद पसंद था...और बाकी लोगों को भी पसंद आता था शायद, कई बार उस स्कूल में रहते हुए वो नृत्य किया. आज फिर से उसके स्टेप्स याद करने की कोशिश कर रही थी पर याद नहीं आ रहा था...याद आती है तो पैरों की थाप से जो ध्वनि निकलती है जैसे तबले पर कोई 'सम' बजाये...गीत उठाने के लिए. बहुत बहुत देर तक पैर थिरकते रहे...एक एक शब्द, एक एक श्लोक जैसे आत्मा के तार छेड़ रहा हो. गोल गोल घूमते हुए सब कुछ धीमा लगता है और फिर दुनिया ऊपर नीचे...वैसा ही जैसे मेरे मन की हालत हो रखी है. भरतनाट्यम के बहुत पहले सीखे हुए कुछ स्टेप्स भी याद आये...बहुत कुछ गड्डमड्ड था...बस एक थिरकन थी जो मुझे बहाए जा रही थी.
देवघर से हूँ तो शंकर भगवान् हमारी हर चीज़ का हिस्सा हैं...इधर कुछ सालों से उनसे नाराज़ थी...आज लगता है वो गुस्सा, वो शिकायतें सारी बह गयीं...भोले बाबा फिर से मेरे उतने ही अपने हो गए जैसे उस समय हुए थे जब चार पांच की कच्ची उम्र में पहली बार देवघर के मंदिर के गर्भगृह में कदम रखा था. मन एकदम सहज है...जैसे शिवलिंग को छू लिया हो!
सुख जीवन में बहुत कम आता है...आज के दिन मन शांत होने और इस सुख की अवस्था के लिए सभी देवी देवताओं की जय!
शिव तांडव स्त्रोत्र सुना...डमरू बजता है तो लगता है पूरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं...एकदम टूट जाने वाले...जैसे कि फिर महीन बालू की तरह रह जाउंगी मैं...और फिर इसी से सब कुछ रच डालूंगी. कुछ रचने में खुद को बहुत तोड़ना भी जरूरी हो जाता है. मुझे क्यूँ टूटने से डर नहीं लगता...कि हर बार टूटने के बाद हम खुद को जोड़ कैसे लेते हैं.
स्त्रोत्र सुनते हुए लग रहा है कि हम इश्वर से अलग नहीं हैं, वाकई हम उसका ही एक हिस्सा हैं, हमें काट कर निकाला गया है इश्वर से ही...कि हमारी आत्मा उस परमपिता का ही अंश है. कि शिव की तीसरी आँख है मुझमें वहीं कहीं भवों के बीच...इस तीसरी आँख की ज्वाला से खुद को जलाने के बाद फिर से बना भी लूंगी ये भी यकीन है मुझे. सर से पैर तक थरथरा रही हूँ...रेजोनेंस जिसमें कि आप किसी आवाज़ से ट्यून हो जाते हो...वैसे ही. समझ नहीं आ रहा कि श्लोक बाहर बज रहा है या मेरे मन के अन्दर से...जैसे कोई सदियों पुरानी आवाज़ है जो मेरे पूरे होने से फूट रही है.
ऐसा होता है क्या कि शब्दों में चित्र छुपे हों? लंका की दीवारें दिखने लगती हैं...वहाँ तपस्या करता रावण...भक्त की तपस्या पर बार बार रीझते भोले शिव शंकर...और इस तांडव नृत्य का सब दृश्य खुल जाता है...सती का पार्थिव शरीर और पीड़ा के वे क्षण...मुझे भी महसूस होते हैं...और फिर क्रोध...सब कुछ जला देने वाला क्रोध. प्रलय लाने वाला क्रोध.
बचपन में एक बांगला तांडव नृत्य सिखाया गया था मुझे...छोटी सी थी और शिव बने हुए जटाजूट बांधे बहुत अच्छी लगती थी...वो नृत्य मुझे बेहद पसंद था...और बाकी लोगों को भी पसंद आता था शायद, कई बार उस स्कूल में रहते हुए वो नृत्य किया. आज फिर से उसके स्टेप्स याद करने की कोशिश कर रही थी पर याद नहीं आ रहा था...याद आती है तो पैरों की थाप से जो ध्वनि निकलती है जैसे तबले पर कोई 'सम' बजाये...गीत उठाने के लिए. बहुत बहुत देर तक पैर थिरकते रहे...एक एक शब्द, एक एक श्लोक जैसे आत्मा के तार छेड़ रहा हो. गोल गोल घूमते हुए सब कुछ धीमा लगता है और फिर दुनिया ऊपर नीचे...वैसा ही जैसे मेरे मन की हालत हो रखी है. भरतनाट्यम के बहुत पहले सीखे हुए कुछ स्टेप्स भी याद आये...बहुत कुछ गड्डमड्ड था...बस एक थिरकन थी जो मुझे बहाए जा रही थी.
देवघर से हूँ तो शंकर भगवान् हमारी हर चीज़ का हिस्सा हैं...इधर कुछ सालों से उनसे नाराज़ थी...आज लगता है वो गुस्सा, वो शिकायतें सारी बह गयीं...भोले बाबा फिर से मेरे उतने ही अपने हो गए जैसे उस समय हुए थे जब चार पांच की कच्ची उम्र में पहली बार देवघर के मंदिर के गर्भगृह में कदम रखा था. मन एकदम सहज है...जैसे शिवलिंग को छू लिया हो!
सुख जीवन में बहुत कम आता है...आज के दिन मन शांत होने और इस सुख की अवस्था के लिए सभी देवी देवताओं की जय!
भोले से बस मस्ती माँगी...
ReplyDeleteजय हो !!
ReplyDeletepeace lies within.. as Richard Jenkins said to Julia Roberts in 'Eat Love Pray'.. you found it recently :)
waah
ReplyDeleteवाह क्या बात है.............
ReplyDeleteॐ नमः शिवाय!
ReplyDeleteसच ही ...शब्दों में चित्र छिपे हैं और ध्वनि में यह सम्पूर्ण सृष्टि.....इन्हें अनावृत करना पड़ता है....कभी-कभी एक दिव्य झोंका सा आता है और कपाट खुल जाते हैं .....तब तीसरे नेत्र से जो दिखाई पड़ता है वही तो ईश्वर की झलक है......उससे भी आगे की स्थिति है उसमें लीन होने की ...union of the part with the super ....
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