बड़ी ठहरी हुयी सी दोपहर थी...और ऐसी
दोपहर मेरी जिंदगी में सदियों बाद आई थी...ये किन्ही दो लम्हों के बीच का पल नहीं
थी...यहाँ कहीं से भाग के शरणार्थियों की तरह नहीं आए थे, यहाँ से किसी
रेस की आखिरी लकीर तक जल्दी पहुँचने के लिए दौड़ना नहीं था। ये एक दोपहर आइसोलेशन
में थी...इसमें आगे की जिंदगी का कुछ नहीं था...इसमें पीछे की जिंदगी का छूटा हुआ
कुछ नहीं था। बस एक दोपहर थी...ठहरी हुयी...बहुत दिन बाद बेचैनियों को आराम आया
था।
जाड़ों का इतना खूबसूरत दिन बहुत दिन
बाद किस्मत को अलोट हुआ था...धूप की ओर पीठ करके बैठी थी और चेहरे पर थोड़ी धूप आ
रही थी...सर पर शॉल था जिससे रोशनी थोड़ी तिरछी होकर आँखों पर पड़ रही थी...घर के
आँगन में दादी सूप में लेकर चूड़ा फटक रही थी...सूप फटकने में एक लय है जो सालों
साल नहीं बदली है...ये लय मुझे हमेशा से बहुत मोहित करती है। दादी के चेहरे पर
बहुत सी झुर्रियां हैं, पर इन सारी झुर्रियों में उसका चेहरा फूल की तरह खिला और
खूबसूरत दिखता है। कहते हैं कि बुढ़ापे में आपका चेहरा आपकी जिंदगी का आईना होता
है...उसके चेहरे से पता चलता है कि उसने एक निश्छल और सुखी जीवन जिया है। आँखों के
पास की झुर्रियां उसकी हंसी को और कोमल कर देती हैं...दादी चूड़ा फटकते हुये मुझे
एक पुराने गीत का मतलब भी समझाते जा रही है...एक गाँव में ननद भौजाई एक दूसरे को
उलाहना देती हैं कि ‘बैना’ पूरे गाँव को बांटा री ननदिया खाली मेरे घर नहीं
भेजा...लेकिन भाभी जानती है कि ननद के मन में कोई खोट नहीं है इसलिए हंस हंस के
ताने मार रही है। दोनों के प्रेम में पगा ये गीत दादी गाती भी जाती है बहुत फीके
सुरों में और आगे समझाती भी जाती है।
यूं मेरे दिन अक्सर ये सोचते कटते है
कि परदेसी तुम जो अभी मेरे पास होते तो क्या होता...मगर आज मैं पहली बार वाकई
निश्चिंत हूँ कि अच्छा है जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी...इस वक़्त...मम्मी ने उन के
गोले बनाने के लिए लच्छी दी है...जैसे ये लच्छी है वैसे ही पृथ्वी की धुरी और बनता
हुआ गोला हुआ धरती...पहले तीन उँगलियों में फंसा कर गोले के बीच का हिस्सा बनाती
हूँ...फिर उसे घुमा घुमा कर बाकी लच्छी लपेटती हूँ। गोला हर बार घूमने में बड़ा
होता जाता है। ऐसे ही मेरे ख्याल तुम्हारे आसपास घूमते रहते हैं और हर बार जब मैं
तुम्हें सोचती हूँ...आँख से आँसू का एक कतरा उतरता है और दिल पर एक परत तुम्हारे
याद की चढ़ती है। गोला बड़े अहतियात से बनाना होता है...न ज्यादा सख्त न ज्यादा
नर्म...गोया तुम्हें सोचना ही हो। जो पूरी डूब गयी तो बहुत मुमकिन है कि सांस लेना
भूल जाऊँ...तुमसे प्यार करते रहने के लिए जिंदा रहना भी तो जरूरी है। याद बहुत करीने
से कर रही हूँ...बहुत सलीके से।
हाँ, तो मैं कह रही थी कि अच्छा हुआ जो तुम मेरे
पास नहीं हो अभी। आज शाम कुछ बरतुहार आने वाले हैं भैया के लिए...घर की पहली शादी
है इसलिए सब उल्लासित और उत्साहित हैं...दादी खुद से खेत का उगा खुशबू वाला चूड़ा
फटक रही है, उसको मेरी बाकी चाचियों पर भरोसा नहीं है। दादी दोपहर होते ही शुरू हो
गयी है...उसकी लयबद्ध उँगलियों की थाप मुझे लोरी सी लग रही है। तुलसी चौरा की
पुताई भी कल ही हुयी है...गेरुआ रंग एकदम टहक रहा है अभी की धूप में। तुलसी जी भी
मुसकुराती सी लग रही हैं। हनुमान जी ध्वजा के ऊपर ड्यूटी पर हैं...बरतुहार आते ही
इत्तला देंगे जल्दी से।
दोपहर का सूरज पश्चिम की ओर ढलक गया
है अब...शॉल भी एक कंधे पर हल्की सी पड़ी हुयी है...जैसे तुम सड़क पर साथ चलते चलते
बेखयाली में मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रख देते थे...ऊन का गोला पूरा हो गया है।
मम्मी ने दबा कर देखा है...हल्का नर्म, हल्का ठोस...वो खुश है कि मैंने अच्छे से गोला बनाया है, उसे अब स्वेटर
बुनने में कोई दिक्कत नहीं होगी। फिरोजी रंग की ऊन
है...मेरी पसंदीदा। उसे हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि मुझे कोई भी काम सलीके
से करना नहीं आएगा तो मेरे ससुराल वाले हमेशा ताने मारेंगे कि मायके में कुछ सीख
के नहीं आई है, वो अब भी मेरी छोटी छोटी चीजों से सलीके से करने पर खुश हो जाती है।
आँगन में बच्चे गुड़िया से खेल रहे
हैं...दीदी ने खुद बनाई है...मेरी दोनों बेटियों को ये गुड़िया उनकी बार्बी से
ज्यादा अच्छी लगी है...वो जिद में लगी हैं कि इनको शादी करके शहर में बसना जरूरी
है इसलिए वो उन्हें अपने साथ ले जाएँगे और स्कूल में कुछ जरूरी चीज़ें भी सीखा
देंगी। उन्हें देखते हुये मैं एक पल को भूल जाती हूँ कि तुम मेरी याद की देहरी पर
खड़े अंदर आने की इजाजत मांग रहे हो। उनपर बहुत लाड़ आता है और मैं उन्हें भींच कर
बाँहों में भर लेती हूँ...वो चीख कर भागती हैं और आँगन में तुलसी चौरा के इर्द
गिर्द गोल चक्कर काटने लगती हैं।
हवा में तिल कूटने की गंध है और फीकी
सी गुड़हल और कनेल की भी...हालांकि चीरामीरा के फूलों में खुशबू नहीं होती पर उनका
होना हवा में गंध सा ही तिरता है...मैं जानती हूँ कि घर के तरफ की पगडंडी में गहरे
गुलाबी चीरामीरा लगे हुये हैं और गुहाल में बहुत से कनेल इसलिए मुझे हवा में उनकी
मिलीजुली गंध आती है। दोपहर के इस वक़्त कहीं कोई शोर नहीं होता...जैसे टीवी पर
प्रोग्राम खत्म होने पर एक चुप्पी पसरती है...लोग अनमने से ऊंघ रहे हैं...गाय अपनी
पूँछ से मक्खी उड़ा रही है...कुएँ में बाल्टी जाने का खड़खड़ शोर है...और सारी आवाज़ों
में बहुत सी चूड़ियों के खनकने की आवाज़ है...जैसे ये पहर खास गाँव की औरतों का
है...हँसती, बोलती, गातीं...आँचल को दाँत के कोने में दबाये हुये दुनिया में सब सुंदर और सरल
करने की उम्मीद जगाती मेरे गाँव की खुशमिजाज़ औरतें। साँवली, हँसती आँखों
वाली...जिनका सारा जीवन इस गाँव में ही कटेगा और जिनकी पूरी दुनिया बस ये कुछ लोग
हैं। पर ये छोटी सी दुनिया इनके होने से कितनी कितनी ज्यादा खूबसूरत है।
मैं अपने घर, दफ्तर, बच्चों, लिखने में थोड़ी
थोड़ी बंटी हुयी सोचती हूँ जिंदगी इतनी आसान होती तो कितना बेहतर था...
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पर तुम भी जानते हो कि ये सारी बातें
झूठ हैं...दादी को गए कितने साल बीत गए, माँ भी अब बहुत दिन से मेरे साथ नहीं है...तुम भी शायद कभी
नहीं मिलोगे मुझसे...बच्चे मेरे हैं नहीं...और गाँव की ऐसी कोई सच तस्वीर नहीं बन
सकती...तो बात है क्या?
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बात बस इतनी है जानां...कि आज पूरी
पूरी दोपहर जाड़ों में धूप तापते हुये सिर्फ तुम्हें याद किया...दोपहर बेहद बेहद
खूबसूरत गुजरी...पर तुम ही बताओ जो एक लाइन में बस इतना कहती तो तुम सुनते भी?
Naya saal mubarak ho!
ReplyDeleteगुनगुनी धूप सी सुकून देती माँ की यादें।
ReplyDeleteमन की किसी कोने की याद ताज़ा कर दी, वो ऊन के गोले बनाने की, न ज्यादा नर्म न ज्यादा सक्त । वर्णन अच्छा है गाँव का - दृश्य और ध्वनि का अच्छा मेल है । आगे और भी लिखती रहो ।
ReplyDeleteख़ूबसूरत प्रस्तुति, बधाई.
ReplyDeleteनूतन वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ मेरे ब्लॉग "meri kavitayen " पर आप सस्नेह/ सादर आमंत्रित हैं.
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति……………आगत विगत का फ़ेर छोडें
ReplyDeleteनव वर्ष का स्वागत कर लें
फिर पुराने ढर्रे पर ज़िन्दगी चल ले
चलो कुछ देर भरम मे जी लें
सबको कुछ दुआयें दे दें
सबकी कुछ दुआयें ले लें
2011 को विदाई दे दें
2012 का स्वागत कर लें
कुछ पल तो वर्तमान मे जी लें
कुछ रस्म अदायगी हम भी कर लें
एक शाम 2012 के नाम कर दें
आओ नववर्ष का स्वागत कर लें
खूब ..
ReplyDeleteजाड़े की दोपहर का यूँ खाका खींचा है, लगा मानो एक जिंदगी समां गयी
काश सारी बातें एक शे'र मे लिख पाता... पुरानी यादें ताज़ा हो गईं, वो सूप से चूडे की फटकाई... एक लय मे उफ्फ्फ वो लय मुझे भी बहुत पसन्द है ! वेसे टाईटल देखकर लौट रहा था, पता नहीं क्यूँ हमेशा की तरह !
ReplyDeleteनव वर्ष मंगलमय हो !
अर्श