Showing posts with label खिड़की. Show all posts
Showing posts with label खिड़की. Show all posts

19 November, 2013

झूलती हरियाली, नीला आसमान और बूंदों का ओपेरा

यूँ मुझे सरप्राइज होना कभी पसंद नहीं है. चीज़ों को लेकर इतनी पर्टिकुलर हूँ कि शायद ही कभी कोई मेरी पसंद का कुछ ला पाता है. बहुत कम लोग हैं जो अधिकारपूर्वक ये कह सकते हैं कि 'तुम्हें ये पसंद आएगा'. कल ऑफिस पहुंची तो पता चला हमें बेसमेंट से ऊपर शिफ्ट कर दिया गया है. ऑफिस में नया कमरा बना था कंटेंट और डिजाइन टीम के लिए, सबसे ऊपर वाले तल्ले पर. 

दरवाज़ा खोलते ही मिजाज हरा हो गया एकदम. हॉल में सफ़ेद दीवारें थीं...खुला खुला...हवादार और हर खिड़की पर झूलते हुए गमले. टेबल के पास कोई छः इंच की जगह पर छोटे छोटे फूलों वाले गमले. बहुत सारी धूप और रौशनी. ग्यारह बजे ऑफिस जाने का नतीजा ये कि सबसे अलग वाली खिड़की मिली मगर फायदा ये कि पूरी की पूरी खिड़की मेरी...किसी से शेयर करने की जरूरत नहीं. 

सीट से सामने खुला आसमान दिखता है, एकदम नीला और उसमें सफ़ेद बादल. लैपटॉप से नज़रें उठाओ और रिचार्ज हो जाओ. इन फैक्ट जगह इतनी अच्छी थी कि किसी का काम करने का मन नहीं करे...यहाँ दिन भर खयाली पुलाव पकाए और शेयर करके खाए जा सकते थे...कहानियां बुनी जा सकती थीं और खूबसूरत संगीत सुना जा सकता था. जगह इतनी अच्छी कि सुबह सुबह ऑफिस जाने का दिल करे. बाकी के ऑफिस के सारे लोग भी आ कर कह रहे थे कि ये अब वाकई क्रिएटिव रूम लगता है...कि वे भी यहाँ बैठ कर काम करना चाहते हैं. कमरे की सारी दीवारें सफ़ेद हैं सिवाए इस वाली के जिसका रंग डार्क ग्रे है...दोपहर को जब धूप गिरती है तो शेड्स बन जाते हैं और फिर बाहर के नीले आसमान को एक बेहतरीन कंट्रास्ट देते हैं. कल आइफोन से ही बहुत सी फोटो खींची...आज अपना डीएसएलआर ले कर जा रही हूँ. 

हम जिस जगह रहते हैं, उसको बेहतर किया जा सकता है कई मायनों में...इसके लिए सिर्फ सोच की जरूरत होती है. यहाँ जो गमले हैं वो नारियल रेशे की बुनी हुयी हैं, ये जोर्ज ने अपने भाई से केरला से मंगवाए थे. सन्डे को पूरा दिन वो इन गमलों की सही जगह और बाकी डेकोरेशन करता रहा. छोटी छोटी चीज़ों से कितना असर पड़ता है. थोड़ी सी हरियाली...जरा सा खुला आसमान...और क्या चाहिए? आज मैं कुछ और किताबें ले जा रही हूँ कि अब ये जगह अपनी सी लगती है, जिसे अपने हिसाब से सजाया और संवारा जा सकता है. 

ऑफिस की व्यस्ताओं के कारण लिखने का एकदम वक़्त नहीं मिला. इन फैक्ट जब से लिखना शुरू किया है, ये पहला साल है जब मैंने इतना कम लिखा है, बाकी सालों से आधा. कई बार इस चीज़ को लेकर काफी कोफ़्त होती है कि मेरे लिए जीने का मायना सिर्फ लिखने के पैमाने में नापा जा सकता है. अगर लिखती नहीं हूँ तो समझ नहीं आता कि पूरा साल गया कहाँ...किधर गायब हुआ...क्या करते बीता. यूँ बहुत सी चीज़ें की हैं प्रोफेशनली मगर उनसे जाने क्यूँ न गर्व का भाव आता है न वैसी संतुष्टि मिलती है. 

कल शाम होते होते काले बादल घिर आये और तेज़ बारिश हुयी. टप्पर की छत पर बूंदों ने ऐसी धमाचौकड़ी मचाई कि हम बगल वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को सुन नहीं सकते थे. बारिश बेहद तेज़ थी...बिजली का कड़कना दिखता और फिर जोर से बादल गरजते...ठीक बारिश के बीच बना घर जैसा कोई...एक ऐसा द्वीप जो बाकी दुनिया से कटा है. कमाल थी वो आवाज़...संगीत जैसी...ऊंचे सुर के आलाप जैसी...जहाँ कहानी का क्रेसेंडो हो. अभी जेनरेटर बैक अप नहीं है तो बिजली जाने के बाद अँधेरे में बस बिजली का चमकना...बूंदों का शोर और जाने कितनी कहानियां उमड़ती घुमड़ती हुयीं. 

शब्दों में यकीन करने वाले लोगों के लिए सब कुछ तो शब्द ही हैं...इसलिए...थैंक यू जोर्ज. 

16 November, 2013

कोहरे में सीलता. धूप में सूखता. कन्फुजियाता रे मन.

क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?

भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.

लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.

अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.

धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.

कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.

देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.

नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.

दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.

भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

27 March, 2012

शाम से कहो दुबारा आये...और तुम भी.


एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...शाम मेरे घर के खाली कमरों में तब भी तुम्हारी आहटें ढूंढेगी...जब कि दूर मैं जा चुकी हूँ पर शाम तुम्हें मिस करेगी. मैं कोई उलाहना भी नहीं दे पाउंगी शाम को कि किसी दूसरे शहर में मुझे एक अजनबी शाम से करनी होगी दोस्ती...चाहना होगा जबरन कि उम्र भर के रास्ते साथ चलने वाले से प्यार कर लेने में ही सुकून और सलीका है.

नए शहर में होंगी नयी दीवारें जिन्होंने नहीं चखा होगा मेरे आंसुओं का स्वाद...जिनमें नहीं छिपी होगी सीलन...जो नहीं जानती होंगी सीने से भींच कर लगाना कि उनमें नहीं उगी होगी सोलह की उम्र से काई की परतें. दीवारें जो इश्क के रंग से होंगी अनजान और अपने धुल जाने वाले प्लास्टिक पेंट पर इतरायेंगी...वाटर प्रूफ दीवारें...दाग-धब्बों रहित...उनमें नहीं होगा चूने से कट जाने का अहसास...उन्हें नहीं छुआ होगा बारीक भुरभुरे चूने ने...उन्हें किसी ने बताया नहीं होगा कि सफ़ेद चूना पान के साथ जुबान को देता है इश्क जैसा गहरा लाल रंग...और कट जाती है जुबान इससे अगर थोड़ा ज्यादा पड़ गया तो...कि जैसे इश्क में...तरतीब से करना चाहिए इश्क भी. गुलाबी दीवारें इंतज़ार करेंगी कीलों का...उनपर मुस्कुराते लोगों की तस्वीरों का...कैलेण्डर का...इधर उधर से लायी शोपीसेस का...कुछ मुखोटे...कुछ नयी पेंटिंग्स का...दीवारों को मालूम नहीं होगा कि मैं घर में यादों के सिवाए किसी को रहने नहीं देतीं.

नयी शाम, नए दीवारों वाले घर में सहमे हुए उतरेगी...मेरी ओर कनखियों से ताकेगी कि जैसे अरेंज मैरेज करने गया लड़का देखता है अपनी होने वाली पत्नी को...कि उसने कभी उसे पहले देखा नहीं है...शाम की आँखों में मनुहार होगा...भय होगा...कि मुझे उससे प्यार हो भी या नहीं...बहुत सी अनिश्चितता होगी. मैं छुपी होउंगी किसी कोने में...वहां मिलती दोनों दीवारें आपस में खुस-पुस बातें करेंगी कि इस बार अजीब किरायेदार रखा है मकान मालिक ने...लड़की अकेली चली आई है इस शहर. मैं गीली आँखों के पार देखूंगी...इस घर को अभी सलीके से तुम्हारा इंतज़ार करना नहीं आता.


नयी सड़क पर निकलती हूँ...शाम भी दबे पाँव पीछे हो ली है...सोच रही है कि ऐसा क्या कहे जो इस मौन की दीवार को तोड़ सके...मैं शाम को अच्छी लगी हूँ...पर मैं सबको ही तो अच्छी लगती हूँ एक तुम्हारे सिवा...या ठहरो...तुम्हें भी तो अच्छी लगती थी पहले. वसंत के पहले का मौसम है...सूखे पत्ते गिर कर हमारे बीच कुछ शब्द बिखेरने की कोशिश करते हैं...पूरी सड़क पर बिखरे हुए हैं टूटे हुए, घायल शब्द...मरहमपट्टी से परे...अपनी मौत के इंतज़ार में...सुबह सरकारी मुलाजिम आएगा तो उधर कोने में एक चिता सुलगायेगा...तब जाकर इन शब्दों की रूह को चैन आएगा.

इस शहर के दरख़्त मुझे नहीं जानते...उनके तने पर कच्ची हैण्डराइटिंग में नहीं लिखा हुआ है मेरा नाम...वो नहीं रोये और झगड़े है तुमसे...वो नहीं जानते हमारे किसी किस्से को...ये दरख़्त बहुत ऊँचे हैं...पहाड़ों से उगते आसमान तक पहुँचते...इनमें बहुत अहंकार है...या ये भी कह सकते हो कि इन बूढ़े पेड़ों ने बहुत दुनिया देखी है इसलिए इनमें और मुझमें सिर्फ जेनेरेशन गैप है...इतनी लम्बी जिंदगी में इश्क एक नामालूम चैप्टर का भुलाया हुआ पैराग्राफ है...फिर देखो न...इनके तने पर तो किसी ने भी कोई नाम नहीं लिखा है. शायद इस शहर में लोग प्यार नहीं करते...या फिर सलीके से करते हैं और अपने मरे हुए आशिकों के लिए संगेमरमर के मकबरे बनवाते हैं...या फिर उनके लिए गज़लें लिखते हैं और किताब छपवाते हैं...या कि जिंदगी भर अपने आशिक के कफ़न पर बेल-बूटे काढ़ते हैं...इश्क ऐसे तमीजदार जगहों पर अपनी जगह पाता है.


मैं अपनी उँगलियाँ देखती हूँ...उनके पोर आंसुओं को पोछने के कारण गीले रहते रहते सिकुड़ से गए हैं...थोड़े सफ़ेद भी हो गए हैं...अब कलम पकड़ती हूँ तो लिखने में दर्द होता है. अच्छा है कि आजकल तुम्हें चिट्ठियां नहीं लिखती हूँ...मेरी डायरी तो कैसी भी हैण्डराइटिंग समझ जाती है. मंदिर जाती हूँ तो चरणामृत देते हुए पुजारी हाथ को गौर से देखता है...कहता है 'बेटा, इस मंदिर की अखंड ज्योति के ऊपर कुछ देर उँगलियाँ रखो...यहाँ के इश्वर सब ठीक कर देते हैं...बहुत अच्छे हैं वो'. मैं सर पर आँचल लेकर तुम्हारी उँगलियों के लिए कुछ मांग लेती हूँ...ताखे के ऊपर से थोड़ी कालिख उठाती हूँ और कहती हूँ कि इश्वर उसकी कलम में हमेशा सियाही रहे...उसकी आँखों में हमेशा रौशनी और उसके मन में हमेशा विश्वास कि साँस की आखिरी आहट तक मैं उससे प्यार करती रहूंगी.
---
एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...इस घर ने अपनी आदतें कहाँ बदलीं...शाम घर की अनगिनत दीवारों को टटोलती हुयी मुझे ढूंढती रही और आखिर उसकी भी आँखें बुझ गयीं...बेरहम रात चाँद से ठिठोली करती है...चाँद का चौरस बटुआ खिड़की से अन्दर औंधे गिरा है...कुछ चिल्लर मुस्कुराहटें कमरे में बिखर गयी हैं...बटुए में मेरी तस्वीर लगी है...ओह...अब मैं समझी...तुम्हें चाँद से इर्ष्या थी...कि वो भी मुझसे प्यार करता है...बस इसलिए तुमने शाम से रिश्ता तोड़ लिया...मुझसे खफा हो बैठे...शहर से रूठ गए...मेरी जान...एक बार पूछा तो होता...उस चाँद की कसम...मैंने सिर्फ और सिर्फ तुमसे प्यार किया है...हर शाम इंतज़ार सिर्फ तुम्हारा था...चाँद का नहीं. मेरा प्यार बेतरतीब सही...बेवफा नहीं है...और तुम लाख समझदार समझ लो खुद को...इश्क के मामले में कच्चे हो...तुम्हारी कॉपी देखती हूँ तो उसमें लाल घेरा बना रखा है...और एक पूर्णिमा के चाँद सा जीरो आया है तुम्हें...मालूम क्यूँ...क्यूंकि तुम मुझसे दूर चले आये...मेरी कॉपी देखो...पूरी अंगडाई लेकर हाथ ऊपर की ओर बांधे तुम हो...एक चाँद, एक सूरज से दो गोल...पूरे १०० में १०० नंबर आये हैं मेरे.


चलो...कल से ट्यूशन पढने आ जाना मेरे शहर...ओके? मानती हूँ ये वाला तुम्हारे शहर से दूर बहुत है...पर गलती तुम्हारी है...मैं वापस नहीं जाने वाली...तुम्हें इश्क में पास होना है तो मुझसे सीखो इश्क करना...निभाना...सहना...और थोड़ा पागलपन सीखो मुझसे...कि प्यार में हमेशा जो सही होता है वो सही नहीं होता...कभी कभी गलतियाँ भी करनी पड़ती हैं...बेसलीका होना होता है...हारना होता है...टूटना होता है. मुश्किल सब्जेक्ट है...पर रोज शाम के साथ आओगे और दोनों गालों पर बोसे दोगे तो जल्दी ही तुम्हें अपने जैसा होशियार बना दूँगी...जब मेरी बराबरी के हो जाओगे तब जा के फिर से प्रपोज करना हमको...फिर सोचूंगी...तुम्हें हाँ कहूँ या न. 

19 February, 2012

बदमाश दुपहरें...

'तुम्हें कहीं जाना नहीं है? घर, दफ्तर, पार्क...सिगरेट खरीदने, किसी और से मिलने...कहीं और?'
'कौन जाए कमबख्त महबूब की गलियां छोड़ कर'
'ए...मुझे कमबख्त मत कहो'
'तो क्या कहूँ  मेरी जान?'
'तुम आजकल बड़े गिरहकट हो गए हो...पहले तो लम्हों, घंटों की ही चोरी करते थे आजकल तो पूरे पूरे दिन पर डाका डाल देते हो, पूरी पूरी रातें चुरा ले जाते हो'
'बुरा क्या करता हूँ, इन बेकार दिनों और रातों का तुम करती ही क्या?'
'कह तो ऐसे रहे हो जैसे तुम्हारे सिवा मेरे पास और कोई काम ही नहीं है'
'है तो सही...पर मुझसे अच्छा तो कोई काम नहीं है न'
---

लड़की ने कॉफ़ी का मग धूप में रखा हुआ है...हेडफोन पर एमी का गाना लगा हुआ है कल रात से 'वी ओनली सेड गुडबाई विद वर्ड्स'. पूरी रात एक ही गाना सुना है उसने...गाने से कोई मदद मिली हो ऐसा भी नहीं है. गैर तलब है कि बिछड़ने के लिए एक बार तो मिलना जरूरी होता है. उसने सर को हल्का सा झटका दिया है जैसे कि उसका ख्याल बाहर आ गिरेगा...धूप के चौरस टुकड़े में उसके शर्ट की उपरी जेब का बिम्ब नहीं बनेगा...उसका दिल कर रहा है लैपटॉप एक ओर सरका कर धूप में आँखें मूंदे लेट जाए...शायद ऐसा ही लगेगा कि जैसे उसके सीने पर सर रखा हो. वो बेडशीट के रंग को उसकी शर्ट के कलर से मैच कर रही है...दिल नहीं मानता...उठती है और चादर बदल लेती है...नीले रंग की...हाँ ये ठीक है. शायद ऐसे रंग की शर्ट पहनी हो उसने...अब ये धूप का टुकड़ा एकदम उसके पॉकेट जैसा लग रहा है. यहाँ चेहरे पर जो गर्मी महसूस होगी वो वैसी ही होगी न जैसे शर्म से गाल दहक जाने पर होती है. डेरी मिल्क बगल में रखी है...उसे कुतरते हुए दिमाग में डेरी मिल्क के ऐड के शब्द छुपके चले आते हैं...किस मी...क्लोज योर आईज...मिस मी...और उसका दिल करता है किसी से खूब सारा झगड़ा कर ले.

महबूब शब्दों को छोड़ कर जा ही नहीं रहा...प्रोजेक्ट कैसे ख़त्म करेगी लड़की...स्क्रिप्ट क्या लिखनी है...डायलोगबाजी कहाँ कर रही है. वाकई उसका काम में मन नहीं लगता...दिन के लम्हे बड़ी तेजी से भागते जा रहे हैं...जैसे वो बाइक चलाती है, वैसे...बिना स्पीडब्रेकर पर ब्रेक लिए हुए...फुल एक्सीलेरेटर देते हुए...और जब बाइक थोड़ी सी हवा में उड़ कर वापस जमीन पर आती है तो उसके बाल एक अनगढ़ लय में उसकी पीठ पर झूल जाते हैं...थोड़ी सी गुदगुदी भी लगती है...कभी कभार जब कोई गाड़ी रस्ते में आ खड़ी होती है तो वो जोर से ब्रेक मारती है...एकदम ड्रैग करती हुयी बाइक रूकती है. सामने वाले के होश फाख्ता हो जाते हैं, उसे लगता है बाइक लड़की के कंट्रोल में नहीं है...वो नहीं जानता लड़की और बाइक अलग हैं ही नहीं...बाइक लड़की के मन से कंट्रोल होती है...लड़की अधिकतर लो बीम में ही चलाती है पर कभी कभी जब स्ट्रीट लैम्प के बुझने तक भी उसका घर आने का मन नहीं होता तो हाई बीम कर देती है...बाइक की हेडलाईट चाँद की आँखों में चुभती तो है मगर क्या उपाय है...माना कि उत्ती खूबसूरत लड़की रात को किसी को बाइक से ठोक भी देगी तो लड़का ज्यादा हल्ला नहीं करेगा...एक सॉरी से मान जाएगा फिर भी...किसी अजनबी को सॉरी बोलने से बेहतर है कि चाँद को सॉरी बोले.

वो एमी को बाय बोल चुकी है और इंस्ट्रूमेंटल संगीत सुन रही है...सुनते सुनते मेंटल होने की कगार आ चुकी है...दिन आधा बीत चुका है...आधी चाँद रात के वादे की तरह. सोच रही है कि अब क्या करे...कॉफ़ी का दूसरा कप बनाये या ग्रीन टी के साथ सिगरेट के कश लगा ले...या हॉट चोकलेट में बाकी बची JD मिला के पी जाए. बहुत मुश्किल चोइसेस हैं...लड़की ने जूड़े से पिन निकाल फेंका है...लैपटॉप के उपरी किनारे से पैरों की उँगलियाँ झांकती हैं...नेलपेंट उखड़ रहा है...पेडीक्यूर जरूरी हो गया है अब. दुनिया की फालतू चीज़ें सोच रही है...जानती है कि दिन को उससे काम बहुत कम होता है. पर रात को तो उसकी याद और बेतरह सताती है...रात को काम कैसे करेगी.

इतना सोचने में उसका सर दर्द करने लगा है...अब तो लास्ट उपाय ही बचा है. लड़की ऐसी खोयी हुयी है कि फिर से उसने दो शीशे के ग्लासों में नीट विस्की डाल दी है...सर पे हाथ मारते हुए फ्रीज़र से आइस निकलती है...और ग्लास में डालती जाती है...ग्लास में बर्फ के गिरने की महीन आवाज़ से उसे हमेशा से प्यार है. 'तुम जो न करवाओ' जैसा कुछ कहते हुए एक सिप लेती है...धीमे धीमे लिखना आसान होने लगता है...दूसरे ग्लास में बर्फ पिघल रही है...पर लड़की को कोई हड़बड़ी नहीं है आज...दो पैग पीने के लिए उसके पास इतवार का बचा हुआ आधा दिन और पूरी रात पड़ी है.

उसने महबूब के हाथ में अपनी कलम दे रखी है...महबूब परेशान 'तुम जो न करवाओ' जैसा कुछ कहते हुए उसके साथ प्रोजेक्ट ख़त्म करने में जुट गया है...वरना लड़की ने धमकी दी है कि विस्की का ग्लास भूल जाओ. लड़की खुश है...कभी तो जीती उस दुष्ट से. फ़िज़ा में लव स्टोरी का इंस्ट्रूमेंटल बज रहा है...खिड़की से सूखे हुए पत्तों की खुशबू अन्दर आ रही है...वो खुश है कि महबूब के साथ किसी प्रोजेक्ट पर काम करना भी इश्क जैसा ही खूबसूरत है.

ऐसी दोपहरें खुदा सबको नसीब करे. आमीन!

12 January, 2012

जिंदगी की सबसे खूबसूरत चीज़...मोशन ब्लर

लड़की क्या थी पाँव में घुँघरू बांधे हवाएं थीं...सुरमई शाम को आसमान से उतरती चांदनी का गीत थी...बारिश के बाद भीगे गुलमोहर से टप-टप टपकती संतूर का राग थी...कहीं रूकती नहीं...पैर हमेशा थिरकते रहते उसके. गिरती-पड़ती उठ के खिलखिलाती...कैनवास उठा के रंग भरती...पानी से खेलती...

जिंदगी जैसी थी वो...कपड़े भी सुखाती रहती तो उसमें ऐसी लय थी कि उसे देखना अद्भुत लगता था...जैसे जादू की छड़ी थी लड़की, जिधर घूमती आँखों में सितारे चमक उठते...वो एक थिरकन थी...सर से पैर तक नृत्य की कोई मुद्रा जिसे देखते हुए कभी दिल न भरे...और वो कौन सा गीत गुनगुनाती रहती थी हमेशा...उसके होठ एक दूसरे पर टिके बहुत कम रहते...हर कुछ अंतराल पर अलग होते रहते...कभी गाती, कभी बोलती कुछ...कभी किसी को यूँ ही आवाज़ दे कर बुलाती...कभी खुद से बातें करती.

लड़की सामने रहे तो समझ नहीं आये कि कहाँ देखूं...आँखें चंचल...काली...और जिंदगी से लबरेज़...चेहरा चमकता हुआ...गोरे रंग पर गुलाबी...कि जैसे पूजा के लिए कांसे की परात में रखे दूध को किसी ने हलके सिन्दूर के हाथों छू दिया हो...इतनी खूबसूरत कि छूने के पहले धुले हाथ तौलिये से सुखा लिए जाएँ.

यूँ उसका चेहरा देखो तो कुछ भी सुन्दर नहीं था...न हिरनी की तरह बड़ी आँखें थी...न सुतवां नाक थी...पर चेहरे पर पानी इतना था कि आँखें हटती नहीं थीं. चंचल इतनी थी कि एक मिनट ठहरती ही नहीं नहीं...उसे देख कर सोचा करता था कि उसकी फोटो खींचूंगा तो ब्लर आएगी...उसे स्थिर रहना आता ही नहीं था...मान लो स्पोर्ट्स मोड में ठहर के आ भी गयी एक पल तो उसके चेहरे पर जो इश्क में डूबा अहसास हवाओं की तरह गुज़रता है उसे कैसे कैद करूँगा. इसलिए जितनी देर वो सामने रहती थी...मैं सामने ही रखता था उसे.

उसे हर चीज़ से प्यार था...कांच की चूड़ियों को धूप में घुमा घुमा के देखती कि उनसे आई धूप किस रंग की है...कभी खनखना के देखती कि चूड़ियों का गीत उसके मन के राग से मेल खाता है कि नहीं...दुपट्टा तो हमेशा हवा में लहराते ही चलती...उसका पारदर्शी दुपट्टा कभी गुलाबी, कभी नीला, कभी वासंती...कभी ऊँगली में लिपटा तो कभी हवाओं से गुफ्तगू करता हुआ...जिस दिन थोड़ी भी हवा चले उसका दुपट्टा उन्ही के संग कभी दादरा तो कभी कहरवा में ताल देता हुआ होता. उसे कितनी बार अकेले...बिना किसी धुन के आँगन में उन्मुक्त नाचते देखा...हाय...दिल पर क्या गुज़रती थी...इतना खूबसूरत कोई इतना खुल के कैसे नाच सकता है! उसे सब देखते थे...बार बार देखते थे...हवाएं...आसमान...बादल...और बारिश उफ़...बारिश तो उसे बांहों में ही भर लेती थी...वो भी मेरे सामने...मत पूछो दिल में क्या आग लगती थी!

सामने होती तो भी यकीन नहीं होता कि वो सच में है...सालों साल उसे देखने के बावजूद कभी हो नहीं पाया कि एक बार उसे छू कर देख सकूँ...आज बहुत साल बाद उसके शहर में आना हुआ है...बच्चों के स्कूल में एक फोटोग्राफी असैन्मेंट के लिए गया हूँ...मन तो शहर के उस पुराने घर में ही अटका हुआ है कि जिसके छज्जे पर से जिंदगी सी खूबसूरत उस ख्वाबों की लड़की को अपने कैमरे में कैद करने कि ख्वाहिश लिए जाना पड़ा था.

आज सामने देखता हूँ तो एक खुशबू में भीगा दुपट्टा दिखता है...इतने साल हो गए...उसके गाल का डिम्पल गहरा गया है...पर थिरकन वही है...एक नन्ही परी जैसी बच्ची को गोद में उठा कर गोल चक्कर काट रही है...बच्ची किलकारियां मार रही है...मुझे अब कैमरा अच्छे से इस्तेमाल करना आ गया है...इस एक लम्हा उसकी आँखों पर कैमरा फोकस करता हूँ...इतने सालों बाद इश्क से लबरेज़, जिंदगी में डूबे चेहरे एक फ्रेम में आये हैं...ये हैं जिंदगी की सबसे खूबसूरत चीज़...मोशन ब्लर. 

05 December, 2011

मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है.

वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार रहने लगा एक ख़ास वक़्त पर. मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैंने घड़ी की बेजान सुइयों के साथ तुम्हारी मुस्कराहट का रिश्ता बाँध दिया और मोबाईल की घंटी का अलार्म.

वक़्त के साथ परेशानी ये है कि ये हर शाम वहीं ठहर जाता है...मैं घड़ी को इग्नोर करने की पुरजोर कोशिश करती हूँ पर यकीन मानो मेरे दोस्त(?) मुझे भी उस वक़्त तुम्हारी याद आती है. कभी कभी छटपटा जाती हूँ पूछने के लिए...कि तुम ठीक तो हो...तुम्हारा कहना सही है, तुम्हारी फ़िक्र बहुत लोगों को होती है...इसी बात से इस बात की भी तसल्ली कर लेती हूँ कि जो लोग तुम्हारा हाल पूछते होंगे वो वाकई तुम्हारा ध्यान रखेंगे, मेरी तरह दूर देश में बैठ कर ताना शाही नहीं चलाएंगे. मुझे माफ़ कर दो कि मैंने बहुत सी शर्तें लगायीं...बहुत से बंधन बांधे... तुम कहीं बहुत दूर आसमानों के देश के हो, मुझे जमीनी मिटटी वाली से क्या बातें करोगे. मैं खामखा तुम्हें किसी कारवां की खूबसूरत बंजारन से शादी कर लेने को विवश कर दूँगी कि इसी बहाने तुम कहीं आस पास रहोगे.

तुम आसमानों के लिए बने हो मेरे दोस्त...अच्छा हुआ जो हमारी दोस्ती टूट गयी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए दो लम्हा भी रुका जाए...कई बार तो मुझे अफ़सोस होता है तुम्हारा वक़्त जाया करने के लिए. तुम्हारी जिंदगी में बेहतर लोग आ सकते थे...बेहतर किताबें हो सकती थीं, बेहतर रचनायें लिखी जा सकती थीं. तुम उस वक़्त का जाहिर तौर से कोई बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे...तुम्हारे दोस्त कुछ बेहतर लोग होने चाहिए...मैं नहीं...मैं बिलकुल नहीं. तुम कोई डिफेक्टिव पीस नहीं हो कि जिसे सुधारा जाए...मैं तुम्हें बदलते बदलते तोड़ दूँगी, मैं अजीब विध्वंसक प्रवृत्ति की हूँ.

तुम्हें पता है लोग कब कहते हैं की 'मुझसे दूर रहो'?
जब उन्हें खुद पर विश्वास नहीं होता...जब वो इतने कमजोर पड़ चुके होते हैं कि खुद तुमसे दूर नहीं जा सकते...तब वे चाहते हैं कि तुम उनसे दूर चले जाओ.


आज बशीर बद्र का एक शेर याद आया तुम्हारी याद के साथ...
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है 


मैं तुम्हारे बिना जीना सीख रही हूँ, थोड़ी मुश्किल है...पर जानते हो न, बहुत जिद्दी हूँ...ये भी कर लूंगी. 

हाँ, एक बात भूल गयी...

तुम मुझसे दूर ही रहो!


02 November, 2011

बारिशों से, बारिशों में लिखे खत

इकतरफा प्यार भी इकतरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.

हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. 

तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे. 

यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में. 

कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान. 

कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया. 

मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं. 

आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

11 August, 2011

देर रात की कोरी चिट्ठी

बावरा मन
बावरा बन
ढूंढें किसको
जाने कैसे 

रात बाकी
दर्द हल्का
चुप कहानी
गुन रहा 

नींद छपके
चाँद बनके
आँख झीलें
डूब जा

याद लौटी
अंजुरी भर
आचमन कर
हीर गा 

भोर टटका 
राह भटका
रे मुसाफिर
लौट आ 

22 June, 2011

जिनसे बिछड़ना था उनसे मिलते रहे





खत जिनके जवाब आने थे, मैंने लिखे नहीं...जिनसे बिछड़ना था उनसे मिलते रहे...तुम्हारे शहर में गिरवी रखा था खुद को कि जब्त हो कर भी शायद तुमसे मिलता रहूँ...

इक अजनबी शहर में शाम गुजारते हुए..आज भी समझ नहीं आता कि धोखा किसने दिया...शहर ने...जिंदगी ने...
या तुमने.

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...