09 April, 2018

अनुगच्छतु प्रवाहं

अगर हम ज़िंदगी को किसी कहानी की तरह देखें, तो कभी कभी हमारी ज़िंदगी में एक 'point of no return' आता है। जैसे कि हर लम्बी कहानी के किरदार के साथ होता है, उस पोईंट पर हमें एक निर्णय लेना पड़ता है, और उस निर्णय के साथ होने वाले cause-effect के लिए तैय्यार रहना पड़ता है।

मैं अपनी ज़िंदगी में ऐसे ही एक क्षण पर खड़ी हूँ कि लगता है यहाँ से कोई एकदम ही अलग दिशा बनानी पड़ेगी।

जो दो चीज़ें मुझे बहुत ज़्यादा परेशान करती हैं वो हैं १. नैतिकता - नीति - शील - morality vs आज़ादी : कि जीने का नहीं, लेकिन क्या लिखने वाले की कोई नैतिकता होती है। जब मैं अपनी कल्पना के घोड़ों को खुला छोड़ती हूँ तो उनकी आज़ादी की कोई सीमारेखा है? क्या जीवन जीने के जो मानक नियम हैं, जो समाजिकता है...वही लेखन पर भी लागू होती है क्या लेखन का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है जिसे समाज के नियमों से बँधने की ज़रूरत नहीं है। लिखते हुए मैं सीमा कहाँ बनाती हूँ, कहाँ बनानी चाहिए। लिखते हुए जो डर मुझे परेशान किए रहते हैं, दुनिया के खड़े किए हुए डर...ये वे ही डर हैं जो मुझे जीने नहीं देते। तो मेरी क़लम इनसे कितनी बग़ावत कर सकती है। मैं जिन विषयों पर लिखना चाहती हूँ, मैं जैसे किरदार रचना चाहती हूँ...मेरे किरदारों को जिस तरह के भीषण दुःख देना चाहती हूँ...उनके पहले ये कौन सी सेल्फ़-सेन्सर्शिप लगा रखी है मैंने। उस लेखक का क्या हुआ जिसने किताब लिखने के बाद कहा था, सबसे ही, मैं आपके किसी सवाल का जवाब दूँ, आप इसका हक़ नहीं रखते। मेरा जो मन करेगा मैं लिखूँगी, आप मेरी ज़िंदगी को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं, मेरे लेखन को नहीं।

२. शब्द - व्यक्ति - दोस्त - रिश्ते - बातें : मेरे जीवन में मेरे अधिकतर क़रीबी मित्र लेखन से जुड़े हैं। कुछ यूँ कि मेरी गहरी दोस्ती उन लोगों से हुयी जो लिखते रहे हैं और जिससे मेरी गहरी दोस्ती रही, उसे मैं कभी ना कभी लिखने की दिशा में धकियाया ज़रूर। तो चाहे वे लिखें या ना लिखें, वे पढ़ते ख़ूब ख़ूब हैं। मैं अपने इन क़रीबी दोस्तों से सबसे ज़्यादा बात करते हुए लिखने-पढ़ने का बहुत सारा कुछ साथ लिए आती हूँ। हमारे बीच पसंद की किताबें होती हैं। ईमेल होते हैं। चिट्ठियाँ होती हैं। कहने का मतलब ये, कि मुझे शब्दों की बहुत ज़रूरत पड़ती है और ये शब्द मेरे क़रीबी दोस्तों से मिलते हैं मुझे।
पिछले कुछ सालों से लेकिन पैटर्न ये रहा है कि किसी से दोस्ती होने, उस मित्रता को पनपने और ठीक वहाँ पहुँचने जहाँ बात कहने के साथ ही कॉंटेक्स्ट देने की ज़रूरत ना पड़े...इसमें ठीक ठीक दो साल लगते हैं। फिर ठीक इसी बिंदु पर पहुँच कर वे दोस्त छूट जाते हैं। कभी ज़िंदगी ऐसे हालात खड़े कर देती है, कभी कुछ यूँ ही हम अलग अलग दिशाओं में चल देते हैं। मतलब, कारण मालूम नहीं रहता, लेकिन ऐसा हो जाता है - हमेशा। मुझे हर समस्या का हल खोजने की आदत है, इसलिए ये दिक़्क़त मुझे बहुत परेशान करती है। तो अब ये वक़्त आ गया है कि मैं इस समस्या को हल करने की ज़िद छोड़ दूँ और समझ जाऊँ कि कुछ चीज़ें मुझे समझ नहीं आतीं...कुछ चीज़ों पर मेरा बस नहीं चलता।
मुझे हमेशा लगता रहा है कि लोगों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैं किसी से बात करने के किसी भी मौक़े को जाने नहीं देती। मुझे लोगों से बात करना बहुत अच्छा लगता है। मैं हमेशा चिट्ठियाँ और जवाबों से लम्बे जवाब दिया करती हूँ। तो ऐसे में लगता है, कि दोस्त ना सही, जो सेकंड सर्कल औफ़ फ़्रेंड्ज़ होते हैं, वो होनी चाहिए। ऐसे लोग जो दोस्त नहीं हों, लेकिन जिनसे गाहे बगाहे बात की जा सके। लिखने पढ़ने पर या कि उनकी ज़िंदगी में होती घटनाओं पर भी।
फिर मुझे लगता है कि इस समस्या का इकलौता और अंतिम समाधान है चुप्पी। लेकिन ओढ़ी हुयी नहीं, थोपी हुयी नहीं...ऐसी चुप्पी नहीं जो अंदर तक जला दे...बल्कि एक शांति...तो ऐसे में सही शब्द होता है - मौन।
मेरे जैसे धुर वाचाल का मौन धारण करना मेरे स्वभाव के एकदम विपरीत है और अगर मैं इस स्टेप को ठीक से हैंडल नहीं करती तो मैं घुट के मर जाऊँगी। मुझे इस मौन के साथ सामंजस्य बिठाना होगा क्यूँकि ये अंतिम सत्य है।

तो मैं ज़िंदगी के इस पोईंट औफ़ नो रिटर्न पर खड़ी ये सोच रही हूँ कि पूर्ण स्वतंत्रता - आज़ादी और गहरा मौन - शांति, इनको जीवन में शामिल करूँ तो कैसे और इस मुश्किल रास्ते को आसान कैसे करूँ। कि मेरे अंदर बहुत ही ज़्यादा छटपटाहट भर गयी है और मैं ऐसे जी नहीं सकती हूँ।

जब जाने का मन करता है तो एक जगह से जाने का मन नहीं करता...सारी जगहों से जाने का मन करता है...बात नहीं करनी होती है तो किसी से भी बात नहीं करनी होती है।

तो कुछ महीने सारी बातें बंद कर के मैं सिर्फ़ अपने एकांत में, अपनी चुप्पी में और अपने मन के अंदर की आज़ाद दुनिया में उतरना और रहना चाहती हूँ।

चाहती हूँ।
करूँगी तो क्या ये तो ब्रह्मा भी नहीं जानते!

20 comments:

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    उपरोक्त बातों से यह साफ़ होता है कि आपके पोस्ट अच्छे होते हैं और मैं उन्हें पसंद करता हूँ, इसीलिए 'वाह आपने बहुत अच्छा लिखा है, क्या खूब, बधाई हो...इत्यादि नहीं कहूँगा...बस मुद्दे की बात लिख रहा हूँ...'जैसे कुत्ता लाख कोशिश करके भी अपनी पूछ को नहीं पकड़ पाता है, उसकी प्रकार मन(मैं) ख़ुद ही ख़ुद से मुक्त नहीं है...मन(मैं)से मुक्ति तो संभव है, लेकिन मैं(मन)-की मुक्ति संभव नहीं है...! और फिर 'मुक्ति में मुक्ति तो होती है, लेकिन कोई 'मुक्त' नहीं होता है. जो 'मुक्त' होना चाह रहा है, उसी से 'मुक्त' होना है..और यह प्रयास दांत से दांत काटने और हाथ से हाथ पकड़ने जैसा है...
    और अपने देश में हमने दो तरह के लेखक को जाने है..एक ऋषि और दूसरा कवि...कवि वह जिसको उसके कविता से अलग किया जा सकता है..कवि वह होता है जिस पर कविता उतरता है| लेकिन ऋषि के साथ ऐसा नहीं होता है..ऋचा को ऋषि से अलग नहीं किया जा सकता है...ऋचा ऋषि से जन्म लेता हैं...कवि को भूल कर कविता को बचाया जा सकता है, कवि अगर खो भी जाए तो कोई बात नहीं, कोई नुकसान नहीं है, लेकिन ऋषि को खो कर ऋचा को बचाना बेवकूफी है...कृष और गीता में चुनना हो तो कृष्ण को चुनना चाहिए, लेकिन यदि रवीद्रनाथ और गीतांजलि में चुनना हो तो गीतांजलि चुनना चाहिए...!

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  11. Hi nice padhke aisa laga jaise mein khud hun kahin isme. Thanks

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  13. Ap bahut achha likhti h mam🥰

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  14. God bless you for telling the truth,as your soul is pure.

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