31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

15 December, 2017

ठहर ठहर के बढ़ती, अधूरी, लम्बी कहानी...पुकारती। कलपती। लेती राहत की साँस।

उसकी उँगलियों के पोर पर हमेशा स्याही लगी होती। अक्सर फ़ीरोज़ी रंग की। कभी कभी पीली और बहुत कम ही और किसी रंग की। जैसे कोई नन्ही ईश्वर अपने लिए एक छोटी सी दुनिया बनाते बनाते एक ब्रेक लेने उठी हो थोड़ी देर के लिए...थोड़ी थकान से...या कि सिगरेट पीने को ही। थोड़ी ही देर में फिर से काग़ज़ क़लम थामनी है तो फिर क्यूँ ही रगड़ के हाथ धोने की मेहनत की जाए। गीले हाथों से माचिस जलाने में दिक़्क़त होगी अलग।
***
इन दिनों पढ़ने वाली किताबों में कई ईश्वर और उनके कुछ पैग़म्बर आते जाते रह रहे हैं। राम। बुद्ध। कर्मपा। दलाई लामा। हनुमान। वो सोचती। अचानक से इतने सारे ईश्वर उसके इर्दगिर्द क्यूँ मिल रहे हैं। उसपर सबसे इतना याराना जैसे पिछले कई सालों की कोई नाराज़गी रही ही नहीं हो।
देवघर जैसे किसी शहर में बचपन बिताने से ये होता है कि बच्चा मानते हुए बड़ा होता है कि भोले बाबा की तरह सभी ईश्वर आसानी से माफ़ कर देने वाले और ख़ूब ख़ूब प्यार करने वाले होते हैं।
***
उन दिनों इतरां को मालूम नहीं था कि उसका नाम मोक्ष था। मुझे मालूम था बस। मैंने रचा था उसका गोरा कांधा। उसके काँधे से उड़ती गंध। मैं तलाश रही थी उसके लिए एक शहर कि जिसका नाम मोह हो। 
इतरां कलप रही थी। और इतरां के साथ मैं भी। हम पिछले एक पूरे साल से कलप रहे हैं। कि किसी से सिर्फ़ एक बार मिलकर कैसा होता है इस डर को जीना कि हम अब इस ज़िंदगी में कभी दुबारा नहीं मिलेंगे। 
तलाश की नाउम्मीदी की हद कहाँ होती है। इतरां कहाँ कहाँ तलाशती है उसे। उसके काँधे के टैटू को। उसकी राख रंग की आँखों को। उसकी तलाश के साथ मैं भी घबराती हूँ कितना। हूक हुयी जाती हूँ। सर्दियों में बर्फ़ पड़ती है उस शहर में और नाज़ुक जीव-जंतुओं के लिए शेल्टर बना दिए जाते हैं। मैं बर्फ़ में खड़ी जमती जाती हूँ। अहिल्या कैसे हुयी होगी पत्थर। मैं पूछूँ, इस सर्द मौसम भर मुझे अपने दिल में पनाह दे सकोगे?
इतरां ने कितनी भाषाएँ सीख लीं इस बीच। अब वो उस शख़्स को नहीं तलाशती लेकिन एक शब्द तलाशती है जो इस कलप को परिभाषित कर सके। कोई शब्द। कोई शहर। कोई एक पीर कि जो मृत्यु के पहले माथे पर हाथ रख के कह दे... मत रो...रो मत...
दुनिया की किताबों के शब्द इतरां की आत्मा का हाल नहीं लिख सकते थे। छुट्टी पर आयी इतरां दादी सरकार की गोद में सर रख कर रोना चाहती थी...लेकिन दादी सरकार रामायण पाठ कर रही थी। बाल काण्ड। गोबर से लीपा हुआ गोसाईंघर था और अगरबत्ती, कपूर और कनेल के फूलों की मिलीजुली गंध। इतरां के लिए ये बचपन की सबसे आश्वस्त करने वाली गंध रही है हमेशा से। गोसाईंघर में दादी सरकार पूरे घर से पहले उठ कर नहा धो कर, माथे पर आँचल खींचे पूजा पर बैठ जातीं थीं। जब इतरां को शब्दों के मायने भी नहीं मालूम थे, तब से वो चुपचाप गोसाईंघर के एक अंधेरे कोने में चुपचाप बैठी दादी सरकार को सुनती रहती थी। दादी सरकार की थिर आवाज़ और वाल्मीकि रामायण के श्लोक जो कि इतरां को लगभग पूरे समझ आते थे। 
दादी सरकार इंद्र द्वारा दिति के पुत्रों के वध के समय कहे गए 'मा रुद' 'मा रुद' और फिर उनके जन्म के बाद उनके रखे हुए नाम, मारुत का हिस्सा पढ़ रही थी। 
सूर्योदय इतरां के मन के अंधेरे में भी हो रहा था। ऊँचे वाले रोशनदान से सूरज की किरणें सीधी दादी सरकार के आँचल पर गिर रही थीं और माथे पर खींचे लाल आँचल से छिटक कर कमरे में लाल रंग फैल रहा था। प्रेम का रंग। करुणा का रंग। आस्था का रंग। 
यही तो था वो शब्द कि जिसके लिए इतरां ने पूरी दुनिया की भाषाएँ तलाश ली थीं। उसके कलपते दिल पर इंद्र के शब्द जो मृत्यु से ज़्यादा शक्तिशाली थे। मन में मंत्र उभरने लगा। संजीवन मंत्र। शहर कि जिसमें साँस ली जा सकती थी। जिया जा सकता था। सतयुग का शहर। मारुत।

09 December, 2017

धूप में छप-छप नहाता दिल के आकार के पत्तों वाला पौधा - प्यार

"दो दिन में तुम क्या सब-कुछ जान सकते हो?" फिर कुछ देर बाद हँसकर उसने मेरी ओर देखा, "यही अजीब है।" उसने कहा, "हम एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं!"
"मैंने कभी सोचा नहीं..."
"मैंने भी नहीं..." उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "इससे पहले मुझे या ख़याल भी नहीं आया था।"
"तुम्हें यह बुरा लगता है...इतना कम जानना...!"
"नहीं..." उसने कहा, "मुझे यह कम भी ज़्यादा लगता है..." वह मीता के बालों से खेलने लगी थी। 
"हम उतना ही जानते हैं, जितना ठीक है।" कुछ देर बाद उसने कहा।
"मैं यह नहीं मानता।"
"यह सच है..." उसने कहा, "तुम अभी नहीं मानोगे...पहले हम नहीं सोचते...बाद में, इट इज़ जस्ट मिज़री..."
उसका स्वर भर्रा सा-सा आया। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। मिज़री...मुझे लगा जैसे यह शब्द मैंने पहली बार सुना है। 
"तुम विश्वास करते हो?"
"विश्वास...किस पर?" मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा।
"वे सब चीज़ें...जो नहीं हैं।"
"मैं समझा नहीं।"
वह हँसने लगी।
"वे सब चीज़ें जो हैं...लेकिन जिनसे हमें आशा नहीं रखनी चाहिए...।"
उसका सवार इतना धीमा था कि मुझे लगा जैसे वह अपने-आप से कुछ कह रही है...मैं वहाँ नहीं हूँ।
धुंध उड़ रही थी। हवा से नंगी टहनियाँ बार-बार सिहर उठती थीं। कहीं दूर नदी पर बर्फ़ टूट जाती थी और बहते पानी का ऊनींदा-सा स्वर जाग उठता था।

- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा 

***
इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो। 

साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?

मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।

शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में। 

कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?

किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?

कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें। 

वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी। 

मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?

इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में। 

और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी। 

तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए। 

हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी। 

मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से। 
तुम भी तो। 

ढेर सारा प्यार। 
लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब। 
***






एक मुस्कुराता पौधा 
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते 
धूप में छप-छप करते 
खिड़की पर नहा रहे हैं

ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार

07 December, 2017

तुम मेरे प्राण में बसे हो

कुछ चीज़ें मुझे हिंदी में ही समझ आती हैं। मैं इनका ठीक ठीक मतलब समझा नहीं सकती हूँ किसी को। मन। प्राण। आत्मा। ये सब अलग अलग हैं। ये कहाँ हैं मालूम नहीं। लेकिन प्यार होता है तो कुछ है जो सबको एक ही रंग में रंग देता है।
फ़िल्म The Grandmaster में आख़िर अलविदा में वो उसे बता रही है कि कैसे सालों साल उसने उसे याद रखा है। वे मिल नहीं पाए और अब ज़िंदगी ख़त्म हो रही है। फ़िल्म मैंडरिन में है। उसके डाइयलॉग्ज़ के सब्टायटल्ज़ के दो वर्ज़न हैं। उसमें एक में वो कहती है "i really cared about you" दूसरे वर्ज़न में कहती है, "you are in my heart of hearts". भाषा नहीं समझ आती है, लेकिन वो सर झुकाए बताती जा रही है कई बातें और आख़िर में मिस्टर इप की आँखों में देख कर इतना सा ही कहती है तो कैसे तो कुछ अंदर तक टूट जाता है और हिंदी में एक ही पंक्ति आती है उसके लिए। 'तुम मेरे प्राण में बसे हो'। 
तुम्हें कैसे बताऊँ कैसा होता है ये सोच सोच कर बिखरना कि जिस किसी से एक बार मिले हैं, उससे शायद ज़िंदगी में दुबारा कभी ना मिलें। मतलब कभी भी नहीं। अनुपम ने मुझे Bisociation सिखाया था और उसकी ख़ूब प्रैक्टिस भी करायी थी। शायद इसलिए आज भी मैं सबसे ज़्यादा इसी का इस्तेमाल करती हूँ। इसका अर्थ है कोई दो एकदम अलग चीज़ों के बीच में कोई सम्बंध निकालना। मेटाफ़र बनाना। और लिखना। जैसे कि रंग नीला और बिल्ली। मैं पिछले कुछ दिनों में कहानियों से गुज़री हूँ। अपनी स्टोरीटेलिंग में मैंने 'ख़ुशबुओं का सौदागर' कहानी सुनायी। इसमें वो सौदागर एक लड़की की गंध तलाश रहा होता है, गंध जो उसके बालों से उड़ती है...इतरां की कहानी ऐसी जगह ठहरी है जब वो उस लड़के से सिर्फ़ एक ही बार मिली होती है कुलधरा में और फिर उसे तलाशती रहती है पूरी दुनिया में। इस डर को जीते हुए कि शायद वे फिर कभी ना मिलें। 
लिखते हुए वो डर एक शब्द था जो मुझे मालूम नहीं था। जीते हुए वो शब्द एक नाम हो गया है। तुम्हारा। मेरे बालों में तुम्हारे हाथों की उलझन रह गयी है। फिर पिछले कुछ दिनों में बनारस का गाना सुना...बनारसिया...फिर पापा बनारस गए और बताए कि बनारस में दीवाली देरी से मनायी जाती है, कि वे नाव से घाटों पर जले हुए असंख्य दिये देख रहे हैं और ये बहुत सुंदर है। 
बनारस में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। लोग वहाँ अपनी आख़िरी साँस लेने के लिए जाते हैं। मेरे मन में बहुत धुँधली सी याद है बनारस की। गंगा के पानी की। गलियों की। और पान की। बहुत साल पहले एक लड़के से प्यार था बहुत। उन दिनों बस इतना शौक़ था कि मैं जब मरती रहूँ तो वो पास रहे। मुझे उसके साथ ज़िंदगी का कोई भी हिस्सा जीने का कोई शौक़ नहीं था। वो लड़का कहता है हमारे बीच जो था उसको प्यार नहीं कहते हैं। कि उसको मुझसे प्यार नहीं था कभी। मैं उसको समझाती हूँ। कि इतना ही होता है प्यार। इसी को कहते हैं। 
मुझे जाने क्यूँ इस दुनिया का कोई शहर ऐसा नहीं लगा जहाँ तुम मुझसे मिल सको। या तो मैं कोई एक नया शहर देख आऊँ या रच दूँ एक नया शहर तुमसे मिलने को। कल जाने क्यूँ लगा कि हमें बनारस में मिलना चाहिए। 
इस दुनिया से अलग मेरा वो कौन सा हिस्सा है जो तुम्हारा हो गया है। मेरी आत्मा के कौन से धागे तुमसे जा उलझे हैं? मन। प्राण। आत्मा। में कैसे बस जाता है कोई। 
तुम कौन हो जो मेरी आत्मा में रहते हो? मैंने अपने जीवन में कभी ऐसा प्यार किया हो मुझे याद नहीं आता। ये कौन सा रंग है जो मेरी उँगलियों से झरता है। कौन सी नदी मेरी अंजलि से निकलती है। मेरे अंचल में बंधी तुम्हारे नाम की कौन सा मन्नत है। ये कौन सा दुःख मोल लिया है मैंने। 
तुम्हें मालूम है, मेरा उपन्यास अधूरा क्यूँ पड़ा है? क्यूँकि इतरां के जिस प्रेमी से उसे प्रेम होना था, उससे मुझे भी प्यार है...बहुत गहरा। और मैं उसका दिल तोड़ने से डरती हूँ। मृत्यु से भी। और जाने क्या सोच कर मैंने तुम्हारा नाम रखा, मोक्ष। 
कि मेरी जान, आह मेरी जान, जीते जी मोक्ष नहीं मिलता। 
प्यार। बहुत।

06 December, 2017

जादू का तमाशा, उर्फ़, ज़िंदगी

कल बहुत दिन बाद Sleepless in Seattle दुबारा देख रही थी। जो चीज़ें हमने ख़ुद से नहीं देखी होती हैं उनपर कभी ध्यान नहीं जाता है। जैसे कि कितनी सारी फ़िल्मों में न्यू यॉर्क है। एम्पायर स्टेट बिल्डिंग है। इस इमारत की लाइटें हैं। 

इस फ़िल्म में हीरो बता रहा है कि कैसे उस लड़की को पहली बार मिला था, जब पहली बार उसका हाथ पकड़ा था, उस वक़्त जादू था...और उसे बस मालूम था कि बस यही है वो लड़की। कि उनके बीच जादू जैसा कुछ है।

कल मैं इस फ़िल्म को देखते हुए सोच रही थी कि मेरी ज़िंदगी में जादू जैसा कितना रहा है। कितनी कितनी बार। कितने लोगों से मिली हूँ और लम्हों में कुछ एकदम अलग था, जैसे स्टार्डस्ट जैसा कुछ...जादू कोई बारीक ग्लिटर जैसा। तब लगता है शायद मैं ही जादू की बनी हूँ कि इतना सारा कुछ तिलिस्मी मेरे इर्द गिर्द घटता रहता है। वरना ऐसे कमाल के लोग कैसे मिलते मुझे ज़िंदगी में। एक दोस्त कहता है मेरे बारे में...तुम साधारण चीज़ों को भी इतने ग़ौर से देखती हो कि तुम्हें वो यूनीक लगती हैं। लोगों को ख़ास महसूस करा देती हो, उनके ख़ुद के बारे में। ये वाक़ई मेरी सुपरपॉवर है 😊

आज कुछ ऐसे ही लम्हे लिख के रख देने का मन है इधर। क्या है ना कि हम जिन चीज़ों में यक़ीन करते हैं उनसे ही बनी होती है हमारी ज़िंदगी। मैं जादू में यक़ीन करती हूँ। फ़िल्मी होने में भी।
१।
मैं उस लड़के के साथ दिल्ली में कहीं थी...क्या कर रही थी याद नहीं। लेकिन चलते चलते अचानक आसमान की ओर देखा और इमारतों और पेड़ों के बीच से पूरा पूरा पूरनमासी का चाँद निकल आया...मैं एकदम से, 'WOW! देखो उधर' आसमान की ओर दिखा कर ऐसे बोली जैसे ज़िंदगी में पहली बार देखा हो चाँद। लड़के ने उधर देखा और आँखों में सवाल लिए मेरी ओर देखा। मैं हँसते हुए बोली, 'चाँद...देखो, चाँद कितनाऽऽऽऽऽऽ सुंदर है'। अब वो हँस रहा था, 'अच्छा, वो'। फिर मैं थोड़ा झेंप कर उसे समझा रही थी कि मुझे चाँद कितना कितना तो अच्छा लगता है। वो मोमेंट एकदम से याद है मुझे। चाँद में उसका चेहरा। उसके बालों पर थोड़ी थोड़ी गिरती चाँदनी।
२।
हम लगभग पहली या दूसरी बार मिले होंगे। JNU उसका देखा हुआ था। सारी गली, पगडंडियाँ...सारी इमारतें। मैं दिल्ली में एकदम नयी थी। IIMC उसी कैंपस का हिस्सा था। उस शाम वो मुझे JNU दिखा रहा था। हम मामू के ढाबे पर गए थे। उन दिनों मामू के ढाबे में बैठने के लिए पत्थर हुआ करते थे और एक आध सीमेंट के बने हुए ब्लॉक्स। वहाँ उसने मेरे लिए गुझिया ख़रीदी। कि यहाँ की गुझिया बहुत अच्छी होती है। हम वहीं पत्थर पर बैठे हुए थे। एकदम से पूरे चाँद की रात थी। हम एक दूसरे को जान-समझ ही रहे थे। मैंने कहा होगा कि मैं गाती हूँ। उसने कहा कोई गाना सुनाओ। मैं लजा कर एक गाना गा रही थी। चाँदनी में वो बहुत सुंदर दिख रहा था। कुर्ता, जीन्स और बहुत ही प्यारी हँसी। किसी नितांत अनजान लड़के के साथ अकेले, रात की चाँद रोशनी में गीत गाना। वो जादू था। एकदम ही जादू।
३।
रात हो चुकी थी। कोई दस बज रहे होंगे। मुहल्ले की अंदर की सड़कों पर गाड़ियों की आवाजाही एकदम ही बंद थी। हमें घर जाने का मन नहीं कर रहा था और बातें बची रह गयी थीं। पीले लैम्पपोस्ट्स की रोशनी गिर रही थी हर थोड़े थोड़े अंतराल में। हम अक्सर मिला करते थे इस शहर में। शाम को ही। उस शाम हम कोई एक गीत साझा सुन रहे थे। वो काफ़ी लम्बा सा है। मैं एकदम छोटी सी हूँ। उसे मुझे कोई गीत सुनाना था अपने फ़ोन से। एक हेड्फ़ोन मैंने लगा रखा था दाएँ कान में...एक उसने लगा रखा था बाएँ कान में। हम क़रीब क़रीब...धीरे धीरे चलते हुए एक धुन को आधी आधी बाँट के सुन रहे थे, पीली रौशनी में भिगो कर। वो जादू था। आधी बँटी हुयी धुन का जादू।

ऐसे कई सारे लम्हे हैं ज़िंदगी में। कि मुझे अपनी पूरी डिटेल के साथ याद हैं। वे लोग। वो वक़्त। मौसम का तापमान। जादू हमेशा रोमांस नहीं होता। जादू ज़िंदगी को पूरी तरह डूब के महसूस लेने का नाम होता है। दो लोग जो एक दूसरे के प्यार में नहीं हों, लेकिन एक दूसरे के साथ होते हुए एक दूसरे के साथ ही हों...महसूस करते हैं इसे अपने बीच। 

ज़िंदगी जीने के लिए है। डूब कर। प्यार करते हुए इससे बेपनाह। हाँ, दुखता है अपना अकेलापन कभी कभी। लेकिन मुझे इतना इतना प्यार करने का कोई अफ़सोस नहीं है। इस तरह डूब के ज़िंदगी जीने का भी नहीं। कि मैं ख़ुद से प्यार करती हूँ। आइने में दिखती अपनी हँसती हुयी छोटी छोटी काली आँखों से। अपने बेतरह इश्क़ में दूबे हुए बुद्धू से दिल से। और अपने सारे पागल क़िस्म के दोस्तों से कि जो मेरी ज़िंदगी में हज़ार रंग भरते हैं। मेरी ज़िंदगी एक जादू का खेल है। बहुत सुंदर। बहुत रंगीन। बहुत आयामों का। शुक्रिया उन सारे लोगों का जो कभी जाने-अनजाने इस खेल का हिस्सा बने।

प्यार। बहुत।

05 December, 2017

फुटकर चिप्पियाँ : #simpleharmonicmotion

'तुम ये बाल धो कर मुझसे मिलने आना बंद करो'
'क्यूँ? मेरे बाल धोने से टेक्टानिक प्लेट्स में हलचल होती है? भूकम्प आते हैं?'
'नहीं। ईमान डोलता है। वो भूकम्प से ज़्यादा ख़तरनाक है'
'है तो सही'
'क्या लगाती हो तुम बालों में आख़िर? कौन सा शैंपू है ये?'
अब उसे कौन बताए कि लड़की कोई साधारण लड़की तो है नहीं, मेरी कहानी का किरदार है। उसकी रगों में इत्र दौड़ता है। चाँद से मीठी। प्यास सी तीखी। रूद्र की इतरमिश्री। मेरी इतरां।
इतरां मुस्कुरायी और बालों से जूड़ा पिन निकाला। उसके कमर तक लम्बे बाल हवा में झूम गए। इतरां अपना चेहरा लड़के के एकदम क़रीब लायी, एक बदमाश लट उसके गालों में गुदगुदी करने लगी। हौले से इतरां ने उसके कानों में कहा...
'शैंपू नहीं मेरी जान, अफ़ीम...मेरे बालों से अफ़ीम की गंध उड़ती है'।
***
ये दिन ख़तरनाक हैं। 
'प्यार', 'प्रेम', 'इश्क़' जैसे शब्दों का मनमाना इस्तेमाल कर रही हूँ कि जैसे ना ये शब्द ख़त्म होंगे, ना मेरे दिल में प्रेम। 
एक स्त्री का हृदय अक्षयपात्र था। उसमें प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। कभी कभी वह भूखी सो जाती क्यूँकि उसकी इच्छा नहीं होती एक चुम्बन चखने की भी। लेकिन कभी कभी वह दोनों हाथों से प्रेम उलीचती। उसकी छोटी छोटी हथेलियों में कितना ही प्रेम आ सकता...उसके छोटे से हृदय में कितना अपार प्रेम था। समंदर जितना। 
इन दिनों मैं वह औरत हुयी जाती हूँ। इन दिनों प्रेम और मैं अलग नहीं...इन दिनों भय को निष्कासित कर दिया गया है उदास और तनहा रेगिस्तान में। इन दिनों कोई नहीं है और बहुत लोग हैं। 
इन दिनों, मैं वो उजड़ा हुआ गाँव हूँ जहाँ आवाज़ें रह गयी हैं। ख़ाली मकान रह गए हैं। इन दिनों, मौसम बहुत ख़ूबसूरत है और मेरी आत्मा उदार। 
जानां, चले आओ कि शायद ये मेरे जीवन का आख़िरी वसंत है।
***
उदास रातों में धूप के उस दिन की चमकीली याद...कि क्यूँ ना याद आए तुम्हारी...हाँ चाह रही हूँ मैं, कि लौट आओ तुम, देहरी पर देखूँ तुम्हें, खींचूँ आँचल माथे पर, घूँघट के अंदर मुसकाऊँ...दौड़ के जाऊँ जब लाने तुम्हारे लिए सुराही का ठंढा, सोन्हा पानी तो साथ नन्हीं आवाज़ों की एक खिलखिलाहट चले साथ में...चूड़ी, पायल, झुमके...सब हँसें हौले हौले...
तुम्हारे लिए खींचूँ कुएँ से बाल्टी भर पानी कि तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो। पीढ़ा लगा दूँ तुम्हारे बैठने को और दोपहर का खाना परोस दूँ तुम्हें। भात, भुजा हुआ राहर का दाल, चोखा, बैगन का बचका और पापड़। तुम हाथ पकड़ लो तो चूड़ियाँ खिलखिलाने लगें फिर से। साथ में कौर खिलाना चाहो तुम। मैं बस, 'धत्तेरी के, बौरा गए हो का...देख लेगा कोई' कह सकूँ।
तुम साइकिल पर बिठा कर ले जाओ मुझे आम का बग़ीचा दिखाने। टिकोला खिलाने। मैं सूती साड़ी के आँचल से खोलूँ नमक की ढेली। तुम पॉकेट से निकालो ब्लेड। नहर किनारे बैठ कर टिकोला कुतरते हुए हम झगड़ें हमारे होने वाले बच्चों के नाम पर। तुम्हें मालूम भी है अजन्मे बच्चे किस तरह कचोटते हैं सीने में। तुम तो बस इसे हँसी और लाड़ ही समझोगे। या कि तुम भी जितना महसूसते हो उसका छटाँक भर भी कह नहीं पाते। 
ये चाहती हूँ मैं। मुझसे मत पूछो कि मैं अकेली हूँ या कि उदास हूँ और तुम्हारे लौट आने की कल्पनाएँ बुनती हूँ। तुम्हें मालूम भी नहीं कि मैं क्या क्या कल्पनाएँ बुनती हूँ। सुनो। इतने दूर देश से लौटते हुए क्या ला रहे हो मेरे लिए तुम?
***
मौसम बहुत अच्छा था। पीलापन लिए शाम थी और हवा में खुनक। आज मैं बहुत देर घर पर रही और ये सोचा कि शाम गहराने दूँगी और घर की बत्तियाँ ऑन नहीं करूँगी। मैंने बहुत दिनों से रात को आते नहीं देखा है। शाम होते ही लाइट्स जला देती हूँ। सिगरेट की तलब हो रही थी लेकिन उसका कसैला स्वाद मेरी शाम के रंग चुरा लेता, इसलिए सिगरेट नहीं पी। 
वर्क टेबल पर बैठ कर आसमान देखा लेकिन लगा कि आज छत पर जाना चाहिए। शाम का पीलापन सुनहला और चमकदार था। बाद थोड़ी ही देर में ये धूसर और उदास हो जाता। मैंने अपना कैमरा निकाला और घर में ताला लगा कर छत पर चली गयी। आसमान बहुत ख़ूबसूरत था। गहरा नारंगी और लाल। पीला और धूसर। बहुत से शेड्स थे लाल के। बादलों का आना जाना भी जारी था। मैंने मूड के मुताबिक़ कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें खींचीं। 
छत के पेंट्हाउस के ऊपर वाली छत पर जाने के लिए एक छोटी सी लोहे की सलाखों वाली सीढ़ी है। मैं उससे ऊपर चली गयी। ये इस इलाक़े की सबसे ऊँची छत है। यहाँ से बहुत दूर का दिख जाता है। फिर इस छत पर कोई आता भी नहीं। बहुत देर तक और भी तस्वीरें खींची। 
शाम गहराने लगी तो फिर तस्वीर खींचने का मतलब नहीं था। सब ग्रेनी आता और क्लीन अप भी नहीं होता हमसे। आज ठंढी हवा इतनी ख़ूबसूरत चल रही थी कि बस। कल बुधवार है। बाल धो लेने का दिन। तो बस। परसों मूसलाधार बारिश हुयी है तो आज छत एकदम साफ़ थी। जैसे किसी ने बुहार दिया हो। मैं छत पर लेट गयी। एक सेकंड को सोचा कि योगा मैट ले आना चाहिए था। या कोई चादर या चटाई होती तो अच्छा लगता। मगर फिर इन चीज़ों पर ध्यान नहीं गया। किसी भी फ़र्श पर बैठने या लेटने का अपना सुख होता है। छत के इर्द गिर्द तीन फ़ीट की बाउंड्री है तो निश्चिन्त थी कि मुझे कोई देख नहीं सकता। 
मौसम गर्म है इन दिनों तो छत तपी हुयी थी और हल्की गर्माहट थी फ़र्श में। मैंने बाहें खोल रखी थीं। बाल लम्बे और घने होने का फ़ायदा ये है कि कड़ा हो फ़र्श तो भी चुभता नहीं है। हल्की हल्की हवा चल रही थी कि जो ठंढी थी। तपी हुयी ज़मीन की गर्माहट और हवा की ठंढ। हल्के हल्के बाल उड़ रहे थे हवा में। मैं देर तक बादलों को देखती रही। उनका आसमान में इधर उधर भागना। रात के गहराते हुए उनका रंग घुल कर सियाह होना। सब। 
हवा। जैसे पूरी दुनिया का अँधेरा इकट्ठा कर मेरी आँखों में सहेज देना चाहती थी। हर बार जब आँखों से गुज़रती, सब कुछ एक शेड और डार्क हुआ जाता। अँधेरा मेरे इर्द गिर्द जमा होता रहा। मैं अंधेरे में फ़्लोट कर रही थी। 
मेरा दिल किया कि मैं झूठ झूठ किसी को फ़ोन कर के कह दूँ। मेरा शहर बहुत याद करता है तुम्हें। और कि मुझे इश्क़ है तुमसे। बेतरह। कि तुम अपने शहर के आसमान का एक टुकड़ा मेरे नाम लिख दो प्लीज़...कि जानां, मेरे शहर में तो पूरा आसमान तुम्हारा ही है। खुले आसमान के नीचे, छत पर बाल बिखेरे सोयी हुयी इस पागल लड़की के दिल की तरह, सब तुम्हारा ही है। 
घर लौटी तो सारे कमरे अंधेरे थे। वर्क टेबल पर रखे ज़रबेरा के फूल काले अंधेरे के आगे कांट्रैस्ट में बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। तुम्हारे वीतराग के सियाह बैक्ग्राउंड में मेरा गहरा लाल इश्क़। 
सुनो। इस तस्वीर में रंग मत तलाशना। ना मेरे शब्दों में इज़हार। कि तुम तो जानते ही हो, कि सब फ़रेब है जानां। फिर भी। इश्क़ तुमसे। तुम से ही।
***
मैंने तुम्हें सुना है। इंतज़ार की तरह।
अपने फ़ेवरिट गाने में बोल शुरू होने के पहले बजते इन्स्ट्रमेंटल संगीत के ख़त्म होने के इंतज़ार की तरह। बहुत देर की चुप्पी के बाद की कविता की तरह। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ। देर तक। अविराम। साँस की तरह। लय में। नियमित। और यक़ीन के साथ। कि तुम्हारी आवाज़ इस बात का सबूत हो कि मैं ज़िंदा हूँ। 
बारिश हवा को थका देती है। कितना पानी अपने साथ लिए कितने शहर भिगोना पड़ता है उसे। हवा हौले हौले मेरे घर के किवाड़ खटखटा रही है। उसे सुस्ताने के लिए बहुत सी घंटियों वाली विंडचाइम चाहिए ऐसा उसने कहा है। मैं हवा को सुनती हूँ। तुम्हारी आवाज़ की अनुगूँज लिए हुए।
वर्क टेबल पर एक सफ़ेद लिली है जो अभी खिलेगी एक आध दिन में। तीन ज़रबेरा हैं। दो पीले, एक सफ़ेद। उनके पीछे का आसमान थोड़ा पीलापन लिए है...मगर ये पीलापन ऐसा नहीं है कि आसमान का रंग है...ऐसा कि रोशनी पीली है। सब कुछ एक पीलेपन में सरगत है...सराबोर है...डूबा हुआ है। 
मैं बहुत दिन बाद किसी की याद में कोल्ड्प्ले का गीत गाना चाहती हूँ। येलो। 
अँधेरा गिर नहीं रहा। इर्द गिर्द बह रहा है। लपेट रहा है मुझे। जैसे कोई काली शॉल हो। जाड़े के दिनों में। कम्फ़र्टिंग। मैं अपने इर्द गिर्द थोड़ा अँधेरा समेटती हूँ। अपने दिल में थोड़ी जगह बनाती हूँ, अंधेरे के लिए। घर की लाइट्स नहीं जलायी हैं। मैं सब कुछ अँधेरा होना महसूसना चाहती हूँ। 
फिर मैं तुम्हारा नाम लूँगी। और आइने में देखूँगी कि आँखों में कितनी चमक आती है।
या कि बजता है रात की चुप्पी में कौन सा राग ही।

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