15 December, 2017

ठहर ठहर के बढ़ती, अधूरी, लम्बी कहानी...पुकारती। कलपती। लेती राहत की साँस।

उसकी उँगलियों के पोर पर हमेशा स्याही लगी होती। अक्सर फ़ीरोज़ी रंग की। कभी कभी पीली और बहुत कम ही और किसी रंग की। जैसे कोई नन्ही ईश्वर अपने लिए एक छोटी सी दुनिया बनाते बनाते एक ब्रेक लेने उठी हो थोड़ी देर के लिए...थोड़ी थकान से...या कि सिगरेट पीने को ही। थोड़ी ही देर में फिर से काग़ज़ क़लम थामनी है तो फिर क्यूँ ही रगड़ के हाथ धोने की मेहनत की जाए। गीले हाथों से माचिस जलाने में दिक़्क़त होगी अलग।
***
इन दिनों पढ़ने वाली किताबों में कई ईश्वर और उनके कुछ पैग़म्बर आते जाते रह रहे हैं। राम। बुद्ध। कर्मपा। दलाई लामा। हनुमान। वो सोचती। अचानक से इतने सारे ईश्वर उसके इर्दगिर्द क्यूँ मिल रहे हैं। उसपर सबसे इतना याराना जैसे पिछले कई सालों की कोई नाराज़गी रही ही नहीं हो।
देवघर जैसे किसी शहर में बचपन बिताने से ये होता है कि बच्चा मानते हुए बड़ा होता है कि भोले बाबा की तरह सभी ईश्वर आसानी से माफ़ कर देने वाले और ख़ूब ख़ूब प्यार करने वाले होते हैं।
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उन दिनों इतरां को मालूम नहीं था कि उसका नाम मोक्ष था। मुझे मालूम था बस। मैंने रचा था उसका गोरा कांधा। उसके काँधे से उड़ती गंध। मैं तलाश रही थी उसके लिए एक शहर कि जिसका नाम मोह हो। 
इतरां कलप रही थी। और इतरां के साथ मैं भी। हम पिछले एक पूरे साल से कलप रहे हैं। कि किसी से सिर्फ़ एक बार मिलकर कैसा होता है इस डर को जीना कि हम अब इस ज़िंदगी में कभी दुबारा नहीं मिलेंगे। 
तलाश की नाउम्मीदी की हद कहाँ होती है। इतरां कहाँ कहाँ तलाशती है उसे। उसके काँधे के टैटू को। उसकी राख रंग की आँखों को। उसकी तलाश के साथ मैं भी घबराती हूँ कितना। हूक हुयी जाती हूँ। सर्दियों में बर्फ़ पड़ती है उस शहर में और नाज़ुक जीव-जंतुओं के लिए शेल्टर बना दिए जाते हैं। मैं बर्फ़ में खड़ी जमती जाती हूँ। अहिल्या कैसे हुयी होगी पत्थर। मैं पूछूँ, इस सर्द मौसम भर मुझे अपने दिल में पनाह दे सकोगे?
इतरां ने कितनी भाषाएँ सीख लीं इस बीच। अब वो उस शख़्स को नहीं तलाशती लेकिन एक शब्द तलाशती है जो इस कलप को परिभाषित कर सके। कोई शब्द। कोई शहर। कोई एक पीर कि जो मृत्यु के पहले माथे पर हाथ रख के कह दे... मत रो...रो मत...
दुनिया की किताबों के शब्द इतरां की आत्मा का हाल नहीं लिख सकते थे। छुट्टी पर आयी इतरां दादी सरकार की गोद में सर रख कर रोना चाहती थी...लेकिन दादी सरकार रामायण पाठ कर रही थी। बाल काण्ड। गोबर से लीपा हुआ गोसाईंघर था और अगरबत्ती, कपूर और कनेल के फूलों की मिलीजुली गंध। इतरां के लिए ये बचपन की सबसे आश्वस्त करने वाली गंध रही है हमेशा से। गोसाईंघर में दादी सरकार पूरे घर से पहले उठ कर नहा धो कर, माथे पर आँचल खींचे पूजा पर बैठ जातीं थीं। जब इतरां को शब्दों के मायने भी नहीं मालूम थे, तब से वो चुपचाप गोसाईंघर के एक अंधेरे कोने में चुपचाप बैठी दादी सरकार को सुनती रहती थी। दादी सरकार की थिर आवाज़ और वाल्मीकि रामायण के श्लोक जो कि इतरां को लगभग पूरे समझ आते थे। 
दादी सरकार इंद्र द्वारा दिति के पुत्रों के वध के समय कहे गए 'मा रुद' 'मा रुद' और फिर उनके जन्म के बाद उनके रखे हुए नाम, मारुत का हिस्सा पढ़ रही थी। 
सूर्योदय इतरां के मन के अंधेरे में भी हो रहा था। ऊँचे वाले रोशनदान से सूरज की किरणें सीधी दादी सरकार के आँचल पर गिर रही थीं और माथे पर खींचे लाल आँचल से छिटक कर कमरे में लाल रंग फैल रहा था। प्रेम का रंग। करुणा का रंग। आस्था का रंग। 
यही तो था वो शब्द कि जिसके लिए इतरां ने पूरी दुनिया की भाषाएँ तलाश ली थीं। उसके कलपते दिल पर इंद्र के शब्द जो मृत्यु से ज़्यादा शक्तिशाली थे। मन में मंत्र उभरने लगा। संजीवन मंत्र। शहर कि जिसमें साँस ली जा सकती थी। जिया जा सकता था। सतयुग का शहर। मारुत।

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’चापलूसी की जबरदस्त प्रतिभा : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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