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04 March, 2023

थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब - मेले के आख़िरी दिन से पहले का दिन

पाँच बजे के उठे हुए हैं। सोए होंगे कोई एक डेढ़ बजे। जब एक डेढ़ घंटा और नींद नहीं आयी, तो लगा कि अब लिखने बैठ जाते हैं। 

कल पुस्तक मेले का आख़िरी दिन है। मेले में हम चार साल बाद आए हैं। आख़िर बार 2019 में आए थे। इस बीच बहुत सी घटनाएँ हुयीं। मेरी ही नहीं, सबकी दुनिया थोड़ी  थोड़ी बदली। कुछ लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए। ऐसे किसी बड़े हादसे के बाद, सब लोग, थोड़ा सा भीतर से बदल जाते हैं। मेरे लिए ये बदलाव ऐसा रहा कि मैं थोड़ा सा, YOLO में यक़ीन करने लगी। वैसे तो अफ़सोस करने में मेरा विश्वास हमेशा से थोड़ा कम रहा है। हम नहीं जानते कि कल क्या होगा, कल ये लोग होंगे या नहीं। ये मौसम होगा या नहीं। ये शहर रहने लायक़ होगा या नहीं। 



लेकिन आज। 


दस दिन का दशहरा होता है। हमारे यहाँ कहते हैं कि सप्तमी-अष्टमी से दुर्गा जी का चेहरा ज़रा उदास हो जाता है। दस दिन का मेला होता है। शनिवार को शुरू होकर, अगले रविवार तक। बुधवार को मेरा जी उदास होना शुरू हो जाता है। अभी ठीक याद नहीं आ रहा कि किस कविता का हिस्सा है, ‘मेरे दिल में एक आँसू भरा फुग्गा है जो दीवारों से टकराता रहता है।’

मेरा मन भीतर भीतर सीलने लगता है। जाने इस दुनिया में इतनी नाइंसाफ़ी कैसे है। कि मेरे जैसा बहुत ही ज़्यादा extrovert इंसान, किसी शहर में इतना अकेला कैसे हो सकता है। इतने लोग हैं उस शहर में, कोई तो हो, जिससे मेरा मिलने-जुलने-बतियाने को मन करे! लेकिन ये बहुत छोटी सी दिक्कत है। किसी के भी पास, सब कुछ तो नहीं हो सकता ना। तो, बस, इतनी सी दिक्कत है। 

हम दिल्ली में होते हैं। मेरा मन वसंत हुआ जाता है। मेरे हाथों में किसी का हाथ हो ना हो, कोई किताब ज़रूर होती है। शाम में किसी से मिलें ना मिलें, किसी से, किसी से भी, मिल लेने की उम्मीद ज़रूर होती है। मेरे पास वक्त कम पड़ जाता है, लोग कम नहीं पड़ते।

हम जो एक ज़रा सा काग़ज़ और थोड़ा सा क़िस्सा कहते हैं, मेले में आ कर इतनी किताबें देखते हैं। ये क्या ही अचरज की बात है, कि मेरी किताब, कुछ लोगों तक ही सही, पहुँच रही है। कितनी किताबें, इस मेले में, कितने स्टॉल्ज़ पर, एकदम अनछुई रह जाएँगी। ये कितनी उदास बात है। कितने लोग आएँगे चुप-चुप, किसी से नहीं कहेंगे अपने दिल की बात, और वैसे ही चले जाएँगे। भीतर भीतर शब्दों का ग्लेशियर जमाए। 

दिल्ली आते ही हम पागल हो जाते हैं। ऐसा असर किसी और शहर में नहीं होता। जैसे ही आसमान से थोड़ा सा दिखने लगता है, महबूब शहर। हमारे दिल की धड़कन बढ़ जाती है। मुझे यहाँ की इमारतों, सड़कों, शोर, मौसम, सबसे इतना इतना प्यार है। मुहब्बत की सूनामी आ जाती है मेरे भीतर। मुझे समझ नहीं आता खुद को कैसे सम्भालें। हिसाब-किताब से जीना तो मुझे वैसे ही नहीं आता। लेकिन तन्हाई और भीड़ का ये कांट्रैस्ट जो हर साल होता है, मुझे भीतर भीतर अजीब क़िस्म से तोड़ता-मरोड़ता-जोड़ता है। मेरे भीतर कोई बंजारन रहती है। कोई भटकता यायावर होता है। उसे लगने लगता है, अब, निकल पड़ते हैं, सामान बाँध कर। देखेंगे थोड़ी दुनिया। नापेंगे थोड़ी ज़मीन। चक्खेंगे कुछ नदियों का पानी। 

इतने सारे लोग, अपने भीतर कितनी कहानियाँ लिए हुए। क्या कभी हम इनसे सीख पाएँगे, चुप रहना? टोमास ट्रांसतोमर की कविताओं को पढ़ने के पहले, हम उनके देश गए थे। स्वीडन के जिस शहर के जिस छोटे से द्वीप पर उनका घर था, वहाँ जा कर महसूस किया कि ये कमाल का देश है। यहाँ रहते हुए, इसे जीते हुए ट्रांस्टोमर ऐसा ही लिखेंगे। उस समय ट्रांसतोमर की कविता का अनुवाद पढ़ा था, एक पीली तितली थी जिसने अपनी उड़ान को गिरते हुए पीले पत्तों में बुन दिया था। मैं इस रूपक को वहाँ के पतझर में देखती रही। हर बार जब कोई पीला पत्ता काँधे पर गिरा, मैंने उस तितली को कहा, खुशआमदीद। 

संजय से मिली कल। संजय व्यास। कितने साल बाद। कितना अच्छा लगा, कि हम किसी से मिलते हैं कोई सात आठ साल पहले और दुबारा मिलने में इतने साल लग गए, लेकिन कोई अजनबीपन नहीं होता। कि हम कुछ लोगों को उनके शब्दों और कहानियों से ज़्यादा जानते हैं। उनका लिखा कितना सांद्र होता है। कितना ख़ुशबूदार। किताब पढ़ो तो उँगली के पोर पर क़िस्से की ख़ुशबू रह जाए। इतनी छोटी और इतनी ख़तरनाक कहानियाँ मैंने और कहीं नहीं पढ़ीं। उनका अगर उपनाम होता, तो खुख़री होता। छोटा, मारक, अस्त्र।

दिल्ली आ कर मेरे reasoning वाले फ़िल्टर हट जाते हैं। मैं किसी और दुनिया में जीती हूँ। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में। यक़ीन नहीं होता कोई शहर इतना उदार, इतना दिलकश और मेरे प्रति इतनी मुहब्बत से भरा हो सकता है। कि मेरी ये हँसी, कहीं और नहीं दिखती। मैं इतनी खुश, कहीं और नहीं होती। कि मेरे पाँव जमीं पर नहीं पड़ते, उड़ती उड़ती रहती हूँ। कि आईना देखने की ज़रूरत ही नहीं। हम सुंदर इसलिए दिखना चाहते हैं कि हमें देख कर कोई खुश हो, हम खुश हों। यहाँ अलग ही खुमार है। नीट पानी पी कर बौराते हम, चाहते हैं कि इस बेइंतिहा ख़ूबसूरत दिल्ली से ऐसी मुहब्बत बनी रहे। 

वैसे तो अब ब्लॉग पढ़ने कोई नहीं आता। लेकिन 2005 से जो ब्लॉगिंग की थी, वैसे लोग अब कहाँ ही मिलेंगे। आप सबका शुक्रिया। दिल्ली की दीवानी लड़की आप सबसे बहुत बहुत मुहब्बत करती है। अगर आप पुस्तक मेला आ रहे हैं, तो खूब सारी किताबें ख़रीदें। लोगों से बातें करें। और हिंद युग्म के स्टॉल पर मेरी किताब, इश्क़ तिलिस्म है, उसे पढ़ें और मुझे बताएँ, कि कई सालों से उलझती इस कहानी को आप तक मैं ठीक-ठाक पहुँचा पायी हूँ या नहीं। 

Love, Lots of love. 

[पढ़ नहीं रहे इसे। नींद आ रही है। जा रहे, एक घंटा सो जाएँगे। कुछ गलती-वलती हुयी, तो बाद में पढ़ के एडिट कर लेंगे]

02 April, 2019

खिलते फूलों वाले शहर

फूलों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जैसे कि वसंत कितना कम वक़्त के लिए आता है किसी पेड़ पर, मगर क्या लहक के सुर्ख़ रंग बिखेरता है। देखो ऊपर तो आसमान भी गहरा लाल दिखे। और फिर पूरा पौधा सुर्ख़ लाल लगे, ऐसे सेमल या कि पलाश बहुत ज़्यादा दिन खिले नहीं रहते।

दिल्ली से गए कितना कम वक़्त हुआ लेकिन देखती हूँ सेमल के जिन पेड़ों को कितनी कितनी देर तक देखती रही थी कि इस सुर्ख़ रंग से थोड़ा सा इश्क़ रच सकूँ, उन पर अब एक भी लाल फूल नहीं दिखता, बल्कि छोटे छोटे हरे पत्ते खिल रहे हैं। क्या कहानियाँ ऐसे ही शुरू होती हैं?

इक कैफ़े कई साल से देख रही थी और सोच रही थी जाने का, लेकिन जाने तो कैसे वहाँ का मुहूर्त ही नहीं बनता था। कुछ यूँ कि वहाँ जाते जाते कहीं और को निकल जाते। आज कहीं और के लिए निकले थे और ज़रा सा वो कैफ़े जाने का मन कर गया तो चले गए। कि कैफ़े का नाम सही था, फ़र्ज़ी कैफ़े।

पिछले हफ़्ते इसी कैफ़े के पास सेमल खिले हुए थे। मैंने कितनी तो तस्वीरें उतारी थीं। आज कैफ़े गयी तो खिड़की से बाहर देखा, सोचा, खिले सेमल के मौसम में आऊँगी कभी। इसी खिड़की पर। देखूँगी कि धूप में लाल होता सेमल कैसा दिखता है इस खिड़की से। जिस दोस्त के साथ थी, उसे भी किसी और दोस्त की बेतरह याद आयी। हम इस वसंत की इस दोपहर किसी फ़िल्म के सीन को डिस्कस करते हुए जाने किन लोगों को याद कर रहे थे। मैं भी किसी और के बारे में सोच रही थी। किसी दूर देश में पी हुयी ऐब्सिन्थ के बारे में। किसी दूर दोपहर जी हुयी ज़िंदगी के बारे में।

हम किसके जीवन में कहाँ कहाँ रह जाते हैं, हमें ख़ुद भी मालूम नहीं होता। मैंने कभी किसी को एक फैबइंडिया का पर्फ़्यूम दिया था। मेरी थोड़ी आदत है कि जो चीज़ बहुत अच्छी लगती है, वो दोस्तों के लिए भी ख़रीद लेती हूँ। ख़ास तौर से ख़ुशबुएँ बहुत पसंद हैं मुझे। लैवेंडर इत्र कलाइयों पर रगड़ती हुयी सोचती हूँ जो किसी चिट्ठी में मेरी कलाइयों की गंध आएगी, कैसी आएगी? स्याही और काग़ज़ से धूप में मिलती हो, ज़रा ज़रा फीकी…वैसी? किसी की याद में कैसी दिखती रही होऊँगी मैं।

मैंने कई दिन से कहानी नहीं लिखी। सारे किरदार रूठ गए हैं। या कि मैं ख़ुद में इतनी उलझी हूँ कि अपने आसपास के किरदारों को देख नहीं पा रही। दिल्ली में गुज़रता हर शख़्स मुझे किसी कहानी का हिस्सा लगता है। आज जैसे स्टारबक्स में थी, दो लड़के ऐसे तन्मय हो कर बात कर रहे थे कि मुझे भारी कौतुहल हुआ कि वे क्या बात कर रहे होंगे। उनके चेहरों के बीच बमुश्किल छह इंच का फ़ासला होगा। उनकी हँसी साझी थी, आँखों की चमक भी एक दूसरे में रेफ़्लेक्ट कर रही थी। मैं सुन सकती थी कि वे क्या कह रहे हैं और समझ भी सकती थी…लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। मैं बस रौशनी में खड़ी, मुस्कुरा रही थी, कि मैं उनकी कहानी से ज़रा सा दूर हूँ…इसलिए नहीं कि मैं उनकी भाषा नहीं जानती, बल्कि इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि उनकी कहानी उस कहानी से अलग हो, जो मैंने मन में सोच रखी है। दो मर्द जो प्रेम में हों, मैंने कभी रियल ज़िंदगी में नहीं देखे हैं। मेरे ख़यालों के शहर में वे एक प्रेमी जोड़ा हैं जो किसी दोपहर का वायलेंट प्रेम डिस्कस कर रहे हैं और उनके साँवले चेहरे कत्थई हो रहे हैं। कल फ़्लाइट में आते हुए एक पुरानी कहानी पढ़ रही थी, अधूरी ही, उसमें एक लड़का लड़की को उलाहना दे रहा है कि बटन तोड़ने का इतना ही शौक़ है तो बटन टाँकने भी सीख लो, कितने शर्ट फेकूँ ऐसे मैं और लड़की हँसती हुयी कहती है, कभी ना कभी तंग आ कर टीशर्ट पहनना शुरू कर दोगे। मुश्किल ख़त्म। कितने प्यारे किरदार थे वो…और कैसी मीठी दोपहर जिसमें उनकी कहानी उभरी थी ख़याल में। कहानी जो ज़रा सी लिख के छोड़ दी।

दिल्ली में इतने रंग हैं कि मैं घर लौटती हूँ तो लगता है होली खेल के लौटी हूँ। पूरे देश के लोग आ के यहाँ रहते हैं तो चेहरों में इतनी विविधता, हेयर स्टाइल्ज़ में, कपड़ों में…यहाँ तक कि चेहरों पर आते भाव भी अलग अलग दिखते हैं। कभी कभी लगता है मैं कोई छायाकार हूँ। स्टिल लाइफ़ फ़ोटोग्राफर। मेरी कल्पना के शहर गुम हो रहे हैं…उनमें इश्क़ करने वाले लोग भी।

गरमी आ गयी है लेकिन अभी भी ज़रा ज़रा ठंड धप्पा कर देती है किसी पीले फूलों से ढके पेड़ों वाली सड़क पर, शाम टहलते हुए। मैं दूर से देखती सोचती हूँ, पिछले हफ़्ते तो ये ज़रा भी यहाँ नहीं था। ये कैसे अचानक से खिलता है…और कौन सा पेड़ है ये, नाम क्या है इसका। मगर पास नहीं जाती हूँ। कहीं जाने को देर हो रही है। दिल्ली अभी भी, और शायद हमेशा, मेरी जान रहेगी। 'शायद हमेशा', कितना सुंदर कॉम्बिनेशन है ना। इश्क़, उस एक से...कि जो जादू है...तिलिस्म है...शैदा...कितने शब्दों तक पहुँची हूँ, कि उसने ऊँगली थाम कर दिखाया है रास्ता... और कभी कभी ख़ुद तक भी तो उसकी कविता से पहुँचती हूँ। कि उसकी कविताओं में एक पगडंडी होती है जो मेरे मन में उतरती है। कि हर मौसम मिज़ाज ज़रा सी विस्की, ज़रा सी ऐब्सलूट और एक क्लासिक माइल्ड्स माँगने लगता है... वो धुएँ से उभरता है, महबूब... और लगता है कि इश्क़ अगर दुनिया के किसी शहर में अब भी जिया जा सकता है तो वो शहर सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली ही है।

पिछली बार आयी थी तो शेखर से पहली बार मिली थी। हम सीपी के पार्क में बैठे रहे थे पूरी शाम, ऐसे ही, बातें करते। वो अपने दोस्त के साथ आया था। मैंने उस दिन कह दिया था, आज मैं बातें सुनूँगी नहीं, बस कहूँगी…सुनोगे तो ठीक, वरना मैं स्टारबक्स में जा के लिख भी सकती हूँ। इस लड़के ने कई कई लोगों को तीन रोज़ इश्क़ पढ़ायी है। मन था उससे मिलने का…उस मुलाक़ात के बारे में फिर कभी। वो अनंतनाग में रहता है। आज उसकी whatsapp स्टोरी पर खुबानी के फूल देखे…ओह, कितने प्यारे गुलाबी, कैसे नाज़ुक और कितने ही सुंदर… इतने सुंदर कि अगली गाड़ी पकड़ के कश्मीर जाने का मन कर जाए। इतने सुंदर। हमारी ज़िंदगी में जो लोग आते हैं, वे कौन से रंग जोड़ेंगे हमारे आसमान में, हम नहीं जानते।

वे तस्वीरें अपने दूसरे पसंदीदा शहर भेज दीं। ख़ूबसूरती बाँटनी चाहिए। इस दुनिया में ज़रा सी हँसी, ज़रा सा प्यार, ज़रा सी ख़ूबसूरत तस्वीरें ही तो हैं…

19 May, 2015

इक रोज़ उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें | जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है


इस कविता को बहुत दिन पहले फेसबुक पर लिखा था. कल रात इसकी अचानक तलब लगी. कोई एक टुकड़ा था जो याद में चुभ गया था. यहाँ के बुरे इन्टरनेट कनेक्शन में इसे तलाशना भी मुश्किल था. फिर सोच रही थी कि हमें टूटी फूटी चीज़ें अक्सरहां ज्यादा पसंद आती हैं. के मुझे साबुत चीज़ों को तोड़ देने का और टूटी चीज़ों को जोड़ देने का शौक़ है. जाने क्या सोचते हुए परख रही थी उसका दिल. देख रही थी कि कितनी खरोंचें लगी हैं इस पर. फिर अपने दिल को देखा तो लगा कि है इसी काबिल के इसे तोड़ दिया जाए.
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इन्हीं आँखों से क़त्ल किया जाएगा हमें 
और भीगी रात के कफ़न में लपेट कर
दफना दिया जाएगा
किसी की न महसूस होती धड़कनों में

कोई चुप्पी बांधेगी हमारे हाथ
और विस्मृति की बेड़ियों में रहेंगे वो सारे नाम
जिनकी मुहब्बत
हमें लड़ने का हौसला दे सकती थी 

इन्साफ के तराजू में
हमारे गुनाहों का पलड़ा भारी पड़ेगा
सबकी दुआओं पर
और तुम्हारी माफ़ी पर भी 

हमारे लिए बंद किये जायेंगे दिल्ली के दरवाजे
देवघर के मंदिर का गर्भगृह
और सियाही की दुकानें

बहा दिया जाएगा जिस्म से
खून का हर कतरा
तुम्हारी तीखी कलम की निब से काट कर हमारी धमनी

हमें पूरी तरह से मिटाने को
बदल दिए जायेंगे तुम्हारी कहानियों के किरदारों के नाम
तुम्हारी कविताओं से हटा दी जाएँगी मात्रा की गलतियाँ
और तुम्हारे उच्चारण से 'ग' में लगता नुक्ता

इक रोज़
उसी बेपरवाही से क़त्ल किया जाएगा हमें
जिस बेपरवाही से हमने जिंदगी जी है

08 May, 2015

आमंत्रण: 9 मई को मेरी किताब तीन रोज़ इश्क़ का लोकार्पण IWPC, दिल्ली में.

किताब एक सपना है. एक भोला. मीठा सपना. बचपन के दिनों में खुली आँखों से देखा गया. ठीक उसी दिन दिन जिस पहली बार किसी किताब के जादू से रूबरू होते हैं उसी दिन सपने का बीज कहीं रोपा जाता है. किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखते हुए सोचना कि कभी, किसी दिन किसी किताब पर मेरा नाम यहाँ ऊपर टॉप राईट कार्नर पर नहीं, किताब के नाम के ठीक नीचे लिखा जाएगा.
बचपन के विकराल दिखने वाले दुखों में, एक सुख का लम्हा होता है जब किसी किताब में अपने किसी लम्हे का अक्स मिल जाता है. कि जैसे लेखक ने हमारे मन की बात कह दी है. हम वैसे लम्हों को टटोलते चलते हैं....वैसे लेखक, वैसी किताब और वैसे लोग बहुत पसंद आते है. फिर एक किसी दिन कक्षा सात में पढ़ते हुए हमारे हिंदी के सर बड़ी गंभीरता में हमें समझाते हैं कि डायरी लिखनी चाहिए. रोज डायरी लिखने से एक तो भाषा का अभ्यास बढ़ेगा और हम इससे जीवन को एक बेहतर और सुलझे हुए ढंग से जीने का तरीका भी सीखेंगे. बाकी क्लास का तो मालूम नहीं पर उसी दिन हम बहुत ख़ुशी ख़ुशी घर आये और डायरी लेखन का पहला पन्ना खोल के बैठ गए. अब पहली मुसीबत ये कि अगर सीधा सीधा कष्टों को लिख दिया जाए और घर में किसी ने, यानि मम्मी या भाई ने पढ़ ली तो या तो परेशान हो जायेंगे, या कुटाई हो जायेगी या के फिर भाई बहुत चिढ़ायेगा. तो उपाय ये कि अपने मन की बात लिखी जाए लेकिन कूट भाषा में. जैसे कि आज आसमान बहुत उदास था. आज सूरज को गुस्सा आया था. वगैरह वगैरह. लिखते हुए 'मैं' नहीं होता था, बस सारा कुछ और होता था. लिखने का पहला शुक्रिया इसलिए स्वर्गीय अमरनाथ सर को.

लिखने का सिलसिला स्कूल और कॉलेज के दिनों में जारी रहा. बहुत से अवार्ड्स वगैरह भी जीते. स्लोगन राइटिंग, डिबेट, एक्स्टेम्पोर...और इस सब के अलावा बतकही तो खैर चलती ही थी. उन दिनों कविता लिखते थे. जिंदगी का सबसे बड़ा शौक़ था कादम्बिनी के नए लेखक में छप जाना. इस हेतु लेकिन न तो कोई कविता भेजी कभी, न कभी तबियत से सोचा कि कैसी कविता हो जो यहाँ छप जाए. पढ़ने-सुनने वाले लोग बहुत ही दुर्लभ थे. दोस्तों को कुर्सी से बाँध कर कविता सुनाने लायक दिन भी आये. उन दिनों हम बहुत ही रद्दी लिखा करते थे. माँ अलग गुस्सा होती थी कि ये सब कॉपी के पीछे क्या सब कचरा लिखे रहता है तुम्हारा. उन दिनों भले घरों की लड़कियों की कॉपी के आखिरी पन्ने पर इश्क मुहब्बत शायरी जैसी ठंढी आहें भरना अच्छी बात तो थी नहीं. देवघर ने हमारी मासूमियत को बरकरार रखा तो पटना ने हमें आज़ाद ख्याल होना सिखाया. मेरी जिंदगी में जिन लोगों का सबसे ज्यादा असर पड़ता है, उसमें सबसे ऊपर हैं पटना वीमेंस कोलेज के कम्यूनिकेटिव इंग्लिश विद मीडिया स्टडीज(CEMS) के हमारे प्रोफेसर फ्रैंक कृष्णर. सर ने हमारी पूरी क्लास को सिखाया कि सोचते हुए बंधन नहीं बांधे जाने चाहिए...कि दुनिया में कुछ भी गलत सही नहीं होता...हमें चीज़ों के प्रति अपनी राय सारे पक्षों को सुन कर बनानी चाहिए. दूसरी चीज़ जो मैंने सर से सीखी...वो था गलतियां करने का साहस. टूटे फूटे होने का साहस. कि जिंदगी बचा कर, सहेज कर, सम्हाल कर रख ली जाने वाली चीज़ नहीं है...खुद को पूरी तरह जीने का मौका देना चाहिए. 

IIMC दिल्ली में चयन होना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मील का पत्थर था. इंस्टिट्यूट में पढ़ा लिखा उतना नहीं जितना आत्मविश्वास में बढ़ावा मिला कि देश के सबसे अच्छे मास कम्युनिकेशन के इंस्टिट्यूट में पढ़ रहे हैं. हममें कुछ बात तो होगी. ब्लॉग के बारे में पटना में पढ़ा था, लेकिन यहाँ और डिटेल में जाना. कि ब्लॉग वेब-लॉग का abbreviation है. दुनिया भर में लोग अपनी डायरी खुले इन्टरनेट पर लिख रहे थे. बस. वहीं कम्प्यूटर लैब में हमने अपना पहला ब्लॉग खोला. 'अहसास' नाम से. ये २००५ की बात है. ब्लॉग पर पहला कमेन्ट मनीष का आया था. मुझे हमेशा याद रहता. फिर ब्लॉग्गिंग के सफ़र में अनगिनत चेहरे साथ जुड़ते गए. उन दिनों मैं अधिकतर डायरीनुमा कुछ पोस्ट्स और कवितायें लिखती थी. हिंदी ब्लॉग्गिंग तब एक छोटी सी दुनिया थी जहाँ सब एक दूसरे को जानते थे. उन दिनों स्टार होना यानी अनूप शुक्ल की चिट्ठा चर्चा में छप जाना. अनूप जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से इंस्पायर होकर हमने कुछ पोस्ट्स लिखी थीं, जैसे किस्सा अमीबा का, वगैरह. ब्लॉग एग्रेगेटर चिट्ठाजगत में नए लिखे सारे पोस्ट्स की जानकारी मिल जाती थी. इस आभासी दुनिया में कुछ सच के दोस्त मिले. उनके मिलने से न सिर्फ लिखने का दायरा बढ़ा बल्कि बाकी चीज़ों की समझ भी बेहतर हुयी. फिल्में और संगीत इनमें से प्रमुख है. अपूर्व शुक्ल की टिप्पणियां हमेशा ब्लॉगपोस्ट से बेहतर हो जाती थीं. नयी खिड़कियाँ खुलती थीं. नयी बातें शुरू होती थीं. अपूर्व के कारण मैंने दुबारा वोंग कार वाई को देखा. और बस डूब गयी. बात फिल्मों की हो या संगीत की. यूँ ही प्रमोद सिंह का ब्लॉग रहा है. वहां के पॉडकास्ट न सिर्फ दूर बैंगलोर में घर की याद की टीस को कम करते थे बल्कि उसमें इस्तेमाल किये संगीत को तलाशना एक कहानी हुआ करती थी. इसके अलावा इक दौर गूगल बज़ का था. इक क्लोज सर्किल में वहां सिर्फ पढ़ने, लिखने, फिल्मों और संगीत की बात होती थी. मैंने इन्टरनेट पर बहुत कुछ सीखा.

तुम्हें एक किताब छपवानी चाहिए ये बात लोगों ने स्नेहवश कही होगी कभी. मगर ये किताब छपवाने का कीड़ा तो शायद हर किताब प्रेमी को होता है. मेरी बकेट लिस्ट में एक आइटम ये भी था कि ३० की उम्र के पहले किताब छपवानी है. तो जैसे ही हम २९ के हुए, हमने सोचा अब छपवा लेते हैं. बैंगलोर में कोई भी हिंदी पब्लिशर नहीं मिला और ऑनलाइन खोजने पर किसी का ढंग का ईमेल पता नहीं मिला. उन दिनों सेल्फ-पब्लिशिंग नयी नयी शुरू हुयी थी और बहुत दूर तक इसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी. मेरा लेकिन इरादा क्लियर था. मुझे इसलिए छपना था कि पटना में मेरी किताब बिक सके...वहां तक पहुंचे जहाँ इन्टरनेट नहीं है. मुझे ऑनलाइन नहीं स्टोर में बिकने वाली किताब लिखनी थी. अभी भी लगता है कि जिस दिन किसी हिंदी किताब की पाइरेटेड कोपी देखती हूँ मार्किट में, उस दिन लगता है कि किताब वाकई बिक रही है. अब सवाल था कि किसी पब्लिशर तक जायें कैसे. IIMC जैसे किसी संस्थान से जुड़े होने का फायदा ये होता है कि हमें कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता. उसी साल 'कैम्पस वाले राइटर्स' पर केन्द्रित हमारी alumni meet हुयी थी. गूगल पर अपने क्लोज्ड ग्रुप में मेसेज डाला कि एक किताब छपवानी है. मार्गदर्शन चाहिए. अगली मेल में पेंग्विन, यात्रा बुक्स और राजकमल के संपादकों के नाम और ईमेल पता थे. ये २१ अक्टूबर २०१३ की बात थी.  

मैंने पेंग्विन की रेणु आगाल को अपनी पांच छोटी कहानियां भेजीं. उन्होंने पढ़ीं और कहा कि कोई लम्बी कहानी है तो वो भी भेजो. हमने ब्लू डनहिल्स नाम से श्रृंखला लिखी थी. आधी कहानी इधर थी. बाकी को पूरी करके भेज दी. इस लम्बी कहानी का भार इतना था कि रेणु का हाथ टूट गया और पलस्तर लग गया. एक महीने के लिए. जनवरी २०१४ में कन्फर्मेशन आया कि मेरी किताब छपेगी और १० मार्च, जो कि कुणाल का बर्थडे है. उस दिन कॉन्ट्रैक्ट आया किताब का. तो हमारी लिस्ट पूरी हो गयी थी. ३० की उम्र में किताब छपवाने का. ऑफिस से रिजाइन मारे कि किताब लिखना है. अगस्त में मैनुस्क्रिप्ट देनी थी ५०,००० शब्दों की. तो बस. स्टारबक्स की ब्लैक कॉफ़ी और अपना मैक. काम चालू. 

तीन रोज़ इश्क - गुम होती कहानियां. मेरा पहला कहानी संग्रह है. इसमें कुल ४६ छोटी कहानियां हैं. आखिरी लम्बी कहानी, तीन रोज़ इश्क के सिवा सारी ब्लोग्स पर थीं. मगर अब आपको वही कहानियां पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ेगी. मुझे पहले इस बात का बहुत अपराधबोध था और इसलिए किताब के बारे में ब्लॉग पर कुछ खास लिखा नहीं था. लेकिन जिस दिन पहली बार पेंग्विन के ऑफिस में किताब हाथ में ली और अपना पहला ऑटोग्राफ दिया...समझ में आया कि ब्लॉग दूसरी चीज़ है...किताब में छपने की बात और होती है. वही कहानियां जिन्दा महसूस होती हैं. सांस लेती हुयी. इस डर से परे कि अब इनको कुछ हो जाएगा. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कि अब मुझे मरने से डर नहीं लगता. कि अब मैं गुम नहीं होउंगी. अब मेरा वजूद है. कागज़ के पन्नों में सकेरा हुआ. 

इस शनिवार, 9 मई को मेरी किताब का लोकार्पण है. 4-7 बजे शाम को, दिल्ली के इन्डियन वुमेन्स प्रेस कोर(IWPC), 5 विंडसर प्लेस, अशोका रोड में. मेरे साथ होंगे निधीश त्यागी, अनु सिंह चौधरी और मनीषा पांडे. इन तीनों लोगों को ब्लॉग के मार्फ़त जाना है. फिर मुलाकातें अपना रंग लेती गयी हैं. अनु दी अपने बिहार से हैं और IIMC की सीनियर भी. जब बहुत उलझ जाती हूँ तो उनको फोनियाती हूँ...किसी परशानी के हल के लिए नहीं, उस परेशानी से लड़ने के ज़ज्बे और धैर्य के लिए. 'नीला स्कार्फ' और 'मम्मा की डायरी', दोनों किताबों को खूब खूब प्यार मिला है लोगों का.

निधीश जब आस्तीन के अजगर के उपनाम से लिखते थे तब ही उनसे पहली बार चैट हुयी थी. पिछले साल ३१ दिसंबर की इक भागती शाम पहली बार मिली...उनकी 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो' हाल फिलहाल में पढ़ी सारी किताबों में सबसे पसंदीदा किताब है. निड से बात करना लम्हों में जिंदगी की खूबसूरती को कैप्चर करना है. 

मनीषा से मिली नहीं हूँ. गाहे बगाहे पढ़ती रही हूँ उसे. किताब के सिलसिले में ही पहली बार फोन पर बात हुयी. उसकी आवाज़ में कमाल का अपनापन और मिठास है. दो अनुवाद, 'डॉल्स हाउस' और 'स्त्री के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है' खाते में दर्ज है. इन्हें पढूंगी जरूर. तीन रोज़ इश्क के जरिये इक और खूबसूरत शख्स को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा. 

ब्लॉग से किताब के इस सफ़र में आप लगातार मेरे साथ रहे हैं. उम्मीद है ये प्यार किताब को भी मिलेगा. अगर इस शनिवार 9th May आप फ्री हैं तो इवेंट पर आइये. मुझे बहुत अच्छा लगेगा. एंट्री फ्री है. आप अपने साथ अपने दोस्तों को भी ला सकते हैं. इवेंट के प्रचार के लिए, फेसबुक इवेंट पेज है. इसे अपना ही कार्यक्रम समझिये. फ्रेंड लिस्ट में लोगों को इनवाईट भेजिए...कुछ को साथ लिए आइये. तीन रोज़ इश्क़ आप इवेंट पर खरीद सकते हैं. साथ में मेरा ऑटोग्राफ भी मिल जायेगा :) फिरोजी सियाही से चमकते कुछ ऑटोग्राफ देने का मेरा भी मन है.

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किताब अब तक बुकस्टोर्स में आ गयी है. इसके अलावा, तीन रोज़ इश्क़ खरीदने के लिए इन लिंक्स को क्लिक कर सकते हैं.

बाकी सब तो जो है...पहली किताब का डर...इवेंट की घबराहट...लास्ट मोमेंट में मैचिंग साड़ी खरीद कर उसके झुमके वगैरह का आफत...फिरोजी स्याही की इंक बोतल लिए फिरना वगैरह...लेकिन बहुत सा उत्साह भी है. जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पढ़ा है या किताब पढ़ी है उनको पहली बार देखने का उत्साह. तो बस ख़त को तार समझना और फ़ौरन चले आना...न ना...फ़ौरन नहीं. 9 तारीख को. हम इंतज़ार करेंगे.

25 April, 2012

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.

उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी. 

मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था. 

बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है. 

ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.

आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है. 

ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे. 

कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!

21 January, 2012

जिंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हों की तसवीरें नहीं होतीं...


क्या कहूँ...आज के दिन का वाकई कुछ याद नहीं है...सिवाए इसके कि जितनी तुमने बाँहें खोली थीं उनमें पूरा आसमान आ जाता...
रिश्ते पर जाती हूँ तो बस इतना है कि मैं बहुत खुश थी...और तुम भी. बस. 

बहुत देर से कोरा पन्ना खुला हुआ है...जानती हूँ कि कुछ नहीं लिख सकूंगी...कुछ भी नहीं...तुम्हें इतने सालों बाद देखना...तुम्हें छूना...तुम्हारे गले लगना...

बस...आने वाले कई सालों के लिए इसे यहाँ सहेज के रख रही हूँ...कि आज इक्कीस जनवरी २०१२ की रात मेरे चेहरे पर एक मुस्कान थी...तुम्हारे कारण...दिल में धूप उतरी थी...सब कुछ अच्छा था...कहीं कोई दर्द नहीं था...एक लम्हा...सुकून था. 

La vie, Je t'aime!

Life, I love you!

जिंदगी...मुझे तुझसे मुहब्बत है!

12 December, 2011

दुनिया का सबसे झूठा वाक्य

दुनिया का सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाला वाक्य ढूंढ रही थी...दुनिया यानि मेरी या मेरे जैसे और लोगों की दुनिया का सबसेट...आखिर दुनिया उतनी ही तो है न जितनी हम जानते हैं...बाकी दुनिया तो हम तक पहुँचती नहीं. कम्पीटीशन कड़ा है...बहुत से उम्मीदवारों को छांटने के बाद मुझे दो बहुत ही मजबूत उम्मीदवार दिखे...'मैं तुमसे प्यार नहीं करती' और 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. एकदम अलग अलग समय और माहौल में बोले गए ये दो वाक्य अक्सर सबसे ज्यादा जो कहते दिखते हैं ठीक उससे उलट मतलब होता है इनका.

पहला वाला 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ/आई डोंट लव यू' से तो बहुतों का पाला पड़ा होगा...गौर कीजिये कि ये वाक्य लड़कियों की ओर से कहा जा रहा है...ऐसा नहीं है कि लड़के ऐसा झूठ बोलते ही नहीं है पर अगर आप कोई रिसर्च करेंगे तो देखेंगे कि इस मामले में लड़कियां झूठ बोलने में लड़कों को काफी पीछे छोड़ती हैं. रिसर्च जाने दीजिये, अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और लड़की/महिला हैं तो आप जानती हैं उम्र के कितने पड़ाव पर कितनी सहेलियों के किस्से जब उन्हें किसी लड़के ने हिम्मत करके प्रपोज कर दिया था. याद कीजिए...हॉस्टल का कमरा हो कि शाम को मोहल्ले का पार्क जहाँ रोज की गपशप(गोसिप?) होती है.

लड़कियां वैसे भी लड़कों से ज्यादा बातें करती हैं...मुझे अपने हॉस्टल का कमरा याद आता है...जहाँ हर रात खाने के बाद तमीज का सेशन होता था जिसमें मेरे जैसे कुछ लोग होते थे जो अपनाप को बहुत समझदार समझते थे...ख़ास तौर से रिश्तों के मामले में. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे दूर की चीज़ें भी महसूस होती हैं. ये लवगुरु टाईप का तमगा अर्न(earn...you have to earn a Bournville types) करना होता है. जब बहुत दिन तक आपकी दी हुयी मुफ्त की सलाह से लोगों का फायदा हो तो सम्मिलित रूप से लोग आपको ये महान उपाधि देते हैं. ये तब भी होता है जब कोई मुश्किल दौर से गुज़र रही हो और आप उसके मन को हूबहू समझ सकें और उसके मन मुताबिक कोई रास्ता निकल सकें. बहुत मुश्किल काम होता है ये...अपने फ्रीटाइम के इस उपयोग के कारण हमेशा से रिश्तों की कई गुत्थियाँ हमने अनुभव से सुलझाई हैं.

खैर...दिल्ली में तो काफी नोर्मल सी चीज़ थी पर पटना में प्यार वगैरह बड़ी आफत हुआ करती थी...किसी को जाने, देखे, मिले, समझे बिना लड़के प्रोपोज कर मारते थे और लड़कियां बेचारी मुश्किल में पड़ जाती थीं. सबको घर से धमकी आलरेडी मिली रहती थी लड़कों से ज्यादा बात वात मत करो टाइप्स...वैसे में कोई लड़का सीधे आ के बोल रहा है कि 'आई लव यू' तो अगर उसको पसंद भी करते हैं तो क्या कर सकते हैं. बेचारी लड़की दिल पर पत्थर रख के कहती थी 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ'.

लड़की के ऐसा कहने के पीछे बहुत सारा लोजिक रहता था...लड़की सबसे पहले सोचती थी लड़के का टाइटिल क्या है...यानि कि हमारे कास्ट का है कि नहीं...पहला न तो वहीं से उपजता था...पटना में उस समय कास्ट का बहुत पंगा चलता था...तो अगर लड़का दूसरी जाति का है तो बिना सोचे समझे, प्यार को मौका दिए न कह दिया जाता था. अगर बमुश्किल लड़का आपकी जाति का निकला(जो कि कभी नहीं होता था...सब आपस में मैच ऑप्शन के टेबल की तरह इधर उधर हुए रहते थे) तो दूसरी परेशानी आती थी कि कोई जान लेगा तो क्या होगा. लड़के से मिलेंगे कैसे, कोचिंग बंद हो जायेगी...भाई रोज छोड़ने आएगा...मम्मी से डांट पड़ेगी...वगैरह. इन सबसे सबसे मुश्किल चीज़ होती थी कि मिलेंगे कहाँ...और दूसरा खतरा...किसी ने देख लिया तो. तो इन सब प्रक्टिकल कारणों से लड़कियां सीधे न कह लेती थीं. एक बार में झंझट ख़तम.

दुनिया का सबसे बड़ा झूठा वाक्य का दूसरा उम्मीदवार है 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. ये वाक्य भी अधिकतर लड़कियां ही कहती हैं. इस वाक्य को कहने का एक और सिर्फ एक आशय होता है...कि मैं एकदम ठीक नहीं हूँ...थोड़ा मेरे और करीब आकर देखो कि मेरा दिल क्यूँ टूटा है...मैं क्यूँ बिखर रही हूँ...मुझे सम्हाल लो...मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की परेशानी या दुःख न हो इसलिए कहती हूँ कि मैं ठीक हूँ. लड़की ऐसी अजीब शय होती है वो भी मुहब्बत में कि जान देने जा रही होगी और आप उससे पूछेंगे कि कैसी हो, मैं आ जाऊं तो कह देगी 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो' इस वाक्य का हमेशा उल्टा मतलब होता है...डेंजर सिग्नल है एकदम ये वाला. इसको कभी भी इग्नोर नहीं करना चाहिए.


कैसा अजीब होता है न प्यार कि खुद मरे जा रहे हैं उसकी चिंता नहीं है मगर महबूब अगर पूछे कि कैसी हो तो एक शब्द नहीं निकलेगा कि आ जाओ, मर रही हूँ. ये कैसी फितरत है...प्यार का ये कौन सा पहलू है मुझे आज तक समझ नहीं आता. कि जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है उस वक़्त आप चाहोगे कि वो खुद समझ जाए...बिना कहे हुए. इसलिए ये वाक्य बहुत खतरनाक है...इसका मतलब है कि आप जाओ, जहाँ भी है वो और उसे बाँहों में भर लो...लड़की बस इतना ही चाहती है.

कैसा होता है ये चाहना कि आप खुद कहो कि हाँ, अब चले जाओ, मैं ठीक हूँ जबकि दिल कहता है कि अभी कुछ देर और ठहर जाओ, दिल के टाँके कच्चे हैं...ज़ख्म थोड़ा भर जाने दो. उसपर जिंदगी ऐसी बेरहम है कि हालात ऐसे पैदा करती है कि वक़्त हमेशा कम पड़ता है...सोचो आप किसी आवाज़ को एक बार सुनने को तरस रहे हो...पर जानते हो कि वो ऑफिस में होगा...आप मेसेज करते हो...उधर से रिप्लाय आता है कि बीजी हूँ, बाद में फ़ोन करूँ...तुम ठीक हो न? लड़की क्या करेगी...करना चाहिए कि फ़ोन कर ले...एक मिनट की आवाज़ सुन कर रख दे...पर वो करेगी नहीं...वो जवाब देगी...कि वो ठीक है...उसकी चिंता एकदम मत करो. उसका दिल चाहेगा कि कहे कि ऑफिस छोड़ के अभी घर आ जाओ...मैं बहुत परेशान हूँ पर वो करेगी क्या...मेसेज करेगी, खाने में क्या बनवा लूं?

इन दोनों वाक्यों के पीछे की पूरी कहानी जानना बेहद जरूरी है...ये वाक्य कभी भी फेस वैल्यू पर नहीं लिए जा सकते. इनके पीछे बहुत कुछ होता है...अक्सर रोती आँखें और खाली, सूना सा दिल होता है...खैर.

तुमसे कुछ कहना था आज...मैं तुमसे प्यार नहीं करती...और मैं ठीक हूँ...मेरी बिलकुल चिंता मत करो! :)

PS: स्माइली से धोखा मत खाइए...वो बस ध्यान भटकाने के लिए है, मैं देख रही थी कि ऊपर के भाषण का कोई असर हुआ भी है कि एक स्माइली से आप भटक जायेंगे

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

वो कहते हैं तुम्हारे जन्म को इतने साल हो गए, उतने साल हो गए...मगर दिल्ली मेरी जान...मेरे लिए तो तुम जन्मी थी उसी दिन जिस दिन पहली बार मैंने तुम्हारी मिटटी पर पैर रखा था...उसी लम्हे दिल में तुम्हारी नन्ही सी याद का चेहरा उगा था पहली बार...वही चेहरा जो कई सालों तक लौट लौट उगता रहा पार्थसारथी के चाँद में.

तुम मुझमें किसी अंकुर की तरह उगी जिससे मैंने तब से प्यार किया जबसे उसके पहले नन्हे हरियाले पत्तों ने मेरी ओर पहली बार मासूमियत से टुकुर टुकुर देखा...तुम्हारी जड़ें मेरे दिल को अपने गिरफ्त में यूँ लेती गयीं जैसे तुम्हारी सडकें मेरे पांवों को...दूर दूर पेड़ों के बीच जेऐनयु में चलती रही और तुम मेरे मन में किसी फिल्म की तरह दृश्य, रंग, गंध, स्वाद सब मिला कर इकठ्ठा होती गयी.

अब तो तुम्हारा इत्र सा बन गया है, जिसे मैं बस हल्का सा अपनी उँगलियों से गर्दन के पास लगाती हूँ और डूबती सी जाती हूँ...तुमसे इश्क कई जन्मों पुराना लगता है...उतना ही पुराना जितना आरके पुरम की वो बावली है जिसे देख कर मुझे लगा था कि किसी जन्म में मैं यहाँ पक्का अपने महबूब की गोद में सर रखे शामें इकठ्ठा किया करती थी. पत्थर की वो सीढियां जो कितनी गहरी थीं...कितनी ऊँची और बेतरतीब...उनपर नंगे पाँव उतरी थी और लम्हा लम्हा मैं बुत बनती जा रही थी...वो तो मेरे दोस्त थे कि मुझे उस तिलिस्म से खींच लाये वरना मैं वहीँ की हो कर रह जाती.

तुम्हें मैं जिस उम्र में मिली थी तुमसे इश्क न होने की कोई वजह नहीं थी...उस अल्हड लड़की को हर खूबसूरत चीज़ से प्यार था और तुम तो बिछड़े यार की तरह मिली थी मुझसे...बाँहें फैला कर. तुम्हारे साथ पहली बारिश का भीगना था...आसमान की ओर आँखें उठा कर तुम्हारी मिटटी और तुम्हारे आसमान से कहना कि मुझे तुमसे बेपनाह मुहब्बत है.

आईआईएमसी की लाल दीवारें मुहब्बत के रंग में लाल थी...वो बेहद बड़ी इमारत नहीं थी, छोटी सी पर उतनी छोटी कि जैसे वालेट में रखा महबूब का पासपोर्ट साइज़ फोटो...कि जिसे जब ख्वाइश हो निकल कर होठों से लगा लिया और फिर दुनिया की नज़र से छुपा पर वापस जींस की पीछे वाली जेब में, कि जहाँ किसी जेबकतरे का हाथ न पहुँच सके. उफ़ दिल्ली, तुम्हें कैसे सकेरती हूँ कि तुम्हारी कोई तस्वीर भी नहीं है जिसे आँखों से लगा कर सुकून आये.

दिल्ली मेरी जान...तुम मेरी तन्हाइयों का सुकून, मेरी शामों की बेकरारी और मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा पन्ना हो...तुमसे मुझे दिल-ओ-जान से मुहब्बत है और तुम्हें क्या बताऊँ कि कैसी तड़प है तुम्हारी बांहों में फिर से लौट आने की.

दिल्ली तेरी गलियों का, वो इश्क़ याद आता है...
पुराने फोल्डर्स में देखती हूँ तो एक शाम का कतरा मिला है...पार्थसारथी का...अपने लिए सहेज कर यहाँ लगा रही हूँ...गौर से अगर देखोगी तो इस चेहरे को अपने इश्क में डूबा हुआ पाओगी...और हालाँकि ये लड़की बहुत खूबसूरत नहीं है...पर इश्क करते हुए लोग बड़े मासूम और भले से लगते हैं.

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

24 June, 2011

अधूरा सा 'बाय' अटका पड़ा है

'चलो रखती हूँ...गुडनाईट'
'गुडनाईट '

'ओके बाय'
'बा...'
बीप बीप...उधर से फोन कट चुका था...

'बाय' बिचारा बीच में अटका हुआ सोच रहा था किधर जाए...उसे ऐसे बीच में अटके हुए रहने की आदत थी नहीं.

लड़का अलग भौंचक्का सा खड़ा रह गया...कि ये क्या हो गया...उसे मेरे लिए आधा सेकण्ड टाइम नहीं है...अक्सर उसके बाय बहुत लम्बे हुआ करते थे...जैसे की कोई फ़्लाइंग किस भेज रही हो...उसका बा....से शरू होकर ...य तक आना किसी गीत के आलाप सा लगता था. खुशमिजाज़ और जीवंत...अल्हड़ और जोशीला. 

किसी भागते दौड़ते शहर में मोबाईल किसी जादू से कम है...जहाँ लोगों के पास किसी को भूलने की फुर्सत नहीं है...हर शाम ठीक आठ बजे उसका कॉल इतना नियमित था जैसे दिल की दो धड़कनों के बीच का अन्तराल... जैसे ठीक सवा ग्यारह बजे के बाद मेट्रो का न आना...जैसे कि हर शाम का बेहूदा यकीन की सारी जेबें खंगाल कर गोल्डफ्लेक के लिए ढाई रुपये ही निकलेंगे.

मेट्रो स्टेशन के बाकी पांच मिनट बेहद लम्बे खिंच गए...हालाँकि घड़ी बता रही थी कि मेट्रो ठीक ग्यारह बज कर बारह मिनट पर आई थी उसे लगा कि मेट्रो आज लेट आई...पूरे आधे सेकण्ड लेट. उसे लेट से आने वाली चीज़ें पसंद थी...पर आज उसे बेहद झुंझलाहट हुयी. दरवाज़े बंद हुए...झटके से मेट्रो चली और वह अपना अधूरा सा बाय लेकर सीट पर बैठा. अचानक से उसे तेज प्यास सी महसूस हुयी...हलक में अटका बाय उसका दम घोंटने लगा. आजकल जब वह फोन करती है तो अक्सर हेल्लो या कुछ और नहीं...उसकी बातें शुरू होती हैं...'हाँ' से. जैसे कि वो एक सदियों से ना पूछा गया सवाल है...और वो बाय के त्रिशंकु की तरह अटका हुआ जवाब. 

उसने अक्सर नोट किया है कि वो अपने ख़त में 'सुनो' बहुत बार कहती है...जैसे कि लिख कर उसका दिल नहीं भरता हो...कि जैसे वो सारे ख़त उसे बोल कर सुनाना चाहती है. रात की आखिरी मेट्रो एकदम खाली होती है और उसमें आवाज़ बहुत गूंजती है...वो शाम की बातों के टुकड़े उछालता रहता है और लौट कर आती आवाजें उसके बालों में उँगलियाँ फिरा जाती हैं...मेट्रो में सिगरेट पीना मना है और चूँकि एक ही सिगरेट है वो पैदल चलने के एकांत के लिए रखना चाहता है. पर हाथ बार बार पॉकेट में चला जाता है...

एक सिगरेट है...मोबाईल...और अटका हुआ 'बाय'.

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
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फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

28 January, 2011

मौसम मिस-मैनेजमेंट

तुम ही नहीं आये हो बस, वरना इस साल के मौसमों में तो कोई खराबी नहीं है.

बारिश कमोबेश पूरे दो महीने रही है, और पूरे वक़्त मेरी चाही हुयी शामों को फुहारें पड़ी हैं...गिनाई हुयी दोपहरों को मूसलाधार बारिश हुयी है ताकि मुझे अपने ऑफिस डेस्क पर बारिश का शोर सुनाई पड़ता रहे और व्यस्तताओं वाले दिन मैं बारिश को महसूस करने के लिए काम का हर्जा ना करूँ. बादल सामने मुंह फुला कर खड़े हैं कि हमारी कोई गलती नहीं है फिर भी डांट सुनवाती हो. अब तुम इस बारिश नहीं आये तो उदास थी मैं...बाकी सबने को पूरी कोशिश की थी.

कोहरा एक कोने में बिसूर रहा है कि अब तो तुम्हारी जिद पर बंगलोर भी आना पड़ा मुझे...दिल्ली कितनी खफा थी, पर तुम्हारे लिए मुंह अँधेरे उठ कर भागता आया हूँ...याद है पिछली लॉन्ग ड्राइव, तुम चार बजे उठ कर नंदी हिल्स जाना चाहती थी, ख्वाब में कोहरा देखा था तुमने...तुम्हारे एक ख्वाब की खातिर हांफता दौड़ता कितनी दूर पहाड़ों से भागा आया तुम्हारे घर के नीचे...कि तुम्हारे रास्ते कि शुरुआत हसीन हो...अब तुम अकेले क्यों जा रही थी इसका मुझसे क्या लेना देना. मेरी शिकायत लगाने की क्या जरूरत थी? इस साल जाड़ों का मौसम था भी तो एकदम परफेक्ट...ठंढ बस इतनी कि उसके बहाने तुम्हारा हाथ अपने हाथों में ले सकूँ...ज्यादा ठंढ पड़ती तब तो मुझे ही डांट देते ना कि दस्ताने लेकर चला करो. पर तुम आये ही नहीं तो जाड़ों के इस मौसम का करती भी तो क्या.

हाँ गर्मी थोड़ी बदतमीज थी...पर उससे कब उम्मीद रही है सुधरने की...मौसमों के स्कूल की सबसे जिद्दी बद्द्दिमाग बच्ची...कुछ कुछ मुझे अपने बचपन की याद भी तो दिलाती है...लू के थपेड़े, आलसी दोपहरें जिनमें करने को कुछ ना हो...कॉलेज की भी छुट्टी...पर गर्मियों में गमलों में पहली बार फूल खिले थे, घर में कश्मीर की वादी उतर आई थी. तुम्हें याद है जब तुम्हारे बिना कश्मीर गयी थी, उधर पतझड़ का मौसम था और मैंने कितने सूखे पत्ते उठा लिए थे...तुम्हें छोड़ कर आते हुए तुम्हारे चेहरे की तरह जर्द थे पत्ते...खूबसूरत और उदास.

पर हर मौसम से ज्यादा खफा है मुझसे बहार...वो तो अपनी सखी थी, बचपन की दोस्त, आत्मा का अंश...कि जिसके खिलते अमलतास ने हर ज़ख्म पर फाहे रख दिए हैं...लहकते गुलमोहर ने ही तो सिखाया है कि किस तरह प्यार हर खालीपन को भर देता है...जमीन तक पर लाल पंखुड़ियों की चादर बिछ जाती है...इस बार बहार के आने पर मैं उसके गले नहीं लगी. ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था...ऐसा कोई भी दर्द तो नहीं तो उसको नहीं पता. फिर तुम्हारे नहीं होने का ये कौन सा ज़ख्म है जिसे किसी से बांटना भी नहीं चाहती मैं.

साल के सारे मौसम अपनी अपनी पारी खेल कर जा चुके हैं...खुदा हाथ बांधे कमरे में इधर से उधर टहल रहा है, मैं बोल रही हूँ कि इनके प्रॉब्लम identification डिपार्टमेंट में गड़बड़ है...समस्या कभी भी मौसमों की थी ही नहीं...खामखा कितने लोगों को काम में लगा दिया. सीधी सी समस्या थी...तुम्हारा मेरे पास ना होना...उसका उपाय करते तो मैं कितनी खुश रहती...पर इनको  पूरा साल लगा ट्रायल और एरर में...अब जा के समझ आया है. रिसोर्सेस की बर्बादी...कोहरा, बादल, गर्मी, गुलमोहर...सब परशान रहे एक मुझे खुश रखने के लिए...खुदा ने बस तुम्हें भेज दिया होता.

मौसमों का नया साल शुरू होने को है...तुम कब आ रहे हो जान?

17 November, 2010

काँच की बोतल में सदाएं

एक दिलरुबा शहर ने
कांच की बोतल में
भर के सदाएं भेजी हैं
गुनगुनी ठंढ है, जानां चले आओ

इश्क के मौसम ने
खुशबुओं में डुबो के  
आने की अदाएं भेजी हैं
वादा है बारिश का, जानां चले आओ

रूठे हुए स्वेटर ने
कट्टी भी तोड़ दी है
कोहरे की ले बलाएँ भेजी हैं
आधी डब्बी सिगरेट की, जानां चले आओ

उस ठेले वाले ने
मूंग की पकौड़ी संग
चटपटी चटनी भी भेजी है
हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ

हर याद पुरानी ने
रस्ते बिछाए हैं
खुश-आमद-आयें भेजी हैं
तुम्हें मेरी है कसम, जानां चले आओ

06 November, 2010

नैना लग्यां बारिशाँ

वो आती तो हवाओं को हलके से छू कर खिलखिला देती, पलकें झपकतीं और हवा मुस्कुराती उसकी मासूमियत पर और अपनी मुट्ठी में उसकी उँगलियों की थिरकन को भर लेती. फिर वहां से चल देती और घंटों एक लड़के के एसी ऑफिस के सामने बैठी रहती, कि कोई आये दरवाजा खोले ताकि वो चुपके से दाखिल हो सके. ऑल इण्डिया रेडिओ के कालीनों वाले फर्श पर हवा की आहट सुनाई नहीं पड़ती और मोटी दीवारें ऐसी हैं कि आवाजें उनसे टकरा के गुम हो जाएँ...तो हवा के लिए ये जरूरी हो जाता कि वो उस लड़के को ढूंढ निकाले ये बताने के लिए कि हवा को गुदगुदी लगाने वाली लड़की दिल्ली आ गयी है और जल्दी ही उसे परेशान करने भी आ जायेगी. लड़का सर उठा के देखता तो हवा खुशी से गोल-गोल चक्कर काटने लगती और उसके लिखे रेडिओ स्क्रिप्ट्स तितिर बितर हो जाते...वो न्यूज़ की जगह कहानी लिखने लगता, सादे कागजों पर कविता लिख देता. हवा ये सारी गलतियाँ देख कर बहुत खुश हो जाती. शाम के बादलों तक सारी खबर पहुँच जाती और दिल्ली लहलहाती यमुना में अक्स देख कर सँवरने लगती. 

लड़की बहुत कम बोलती थी...उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी हुआ करती थी, लोहे का छोटा सा जादुई बटन...ताला खुलता था और सारा कमरा घर में बदलने लगता था. कपड़े अलगनी पर टंग जाते थे...हवा धूल को पटकनी मार कर बाहर भगा आती थी,   डब्बों में मिठाइयाँ, मैगी, बिस्कुट, काजू-किशमिश भर जाते थे...पड़ोसी भी घी की गंध ताड़ लेते थे...बगल के कमरे वाले लड़के खुश हो जाते थे कि शाम को अब जाने पर चाय मिला करेगी. 

शिफ्ट ख़तम हुए काफी वक़्त गुज़र जाता था, अचानक लड़के को याद आता था कि घर जाना है...उठता था तो दरवाजे के शीशे में अपना चेहरा देख कर सोचता था कि बिना उसके आये भी शेव बनवानी चाहिए वरना डांट खाने का चांस बढ़ जाता है. झोला उठाता था और स्क्रिप्ट्स ले लेता था कि वो देख कर खुश होगी...बस स्टैंड पर लड़की दिखती थी, मूंगफली खाती हुयी. आखिरी बस अक्सर काफी खाली आती थी...वो सबसे पीछे वाली सीट पर बैठती थी उसके साथ. चेहरा नोट करती थी...कहती कुछ नहीं थी...गाना गाती थी...मेरे पिया हुए लंगूर...मुस्कुराती थी, बस. रास्ते में उसकी स्क्रिप्ट चेक कर देती थी. हवा खिड़की से उछल-कूद करने अन्दर आती रहती थी...उसके बालों में भीनी खुशबू रहती थी. लड़का सोचता था ये कौन सा शम्पू लगाती होगी...सारे तो उसने ट्राई कर डाले हैं पर कभी उस जैसी खुशबू नहीं मिली. हवा हँसती थी उसकी खोज पर. बस स्टॉप से पहले लड़के का घर पड़ता था, फिर लड़की का होस्टल...पहले स्टॉप पर दोनों साथ उतरते थे और एक आध किलोमीटर चलकर लड़की के होस्टल तक जाते थे. 

रास्ते में ढेर सारे लैम्प-पोस्ट पड़ते थे...उनकी परछाईयाँ एक साथ चलती थीं, साथ चलते उसके बाल हलके हलके हवा में उड़ते रहते...परछाई पीले रौशनी में भूरी नज़र आती थी. लड़की को परछाई अपने जैसी लगती थी...कुछ पल का साथ जो बेइंतिहा खूबसूरत होता था पर उससे ज्यादा कुछ नहीं. वो अक्सर साथ चलते हुए उसका चेहरा देखने के बजाई परछाई देखते चलती थी...
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दिल्ली में सालों से वैसी प्यारी हवा नहीं चली है...लड़का अब सेनियर एडिटर हो गया है...बहुत कुछ करता है एक साथ, उसकी स्क्रिप्ट्स चेक करने के लिए ढेर सारे जूनियर लोग हैं. माँ घर पे रिश्ते देख रही है...और वो आजकल कम बोलने लगा है...उसे लगता है हवा शायद कुछ कहना चाहती हो. हवा आजकल चुप है. 

14 October, 2010

फिर जाना, फिर लौटना

उस वक़्त में
ज्यादा नहीं लगती थी दूरी
IIMC के हॉस्टल से पैदल 
गंगा ढाबा तक की
रात के कितने बजे भी
क्योंकि जानती थी
सड़कों के ख़त्म होने पर
दोस्त इंतजार करते होंगे
कि सर्द रातों में मिलेगी गर्म कॉफ़ी 
और उससे भी जलती बहसें 
कि वापस कोई आएगा साथ
सिर्फ रास्ते का अकेलापन बांटने के लिए
कि बारिश हुयी तो
खुल जायेंगे किसी भी होस्टल के दरवाजे 
कि पार्थसारथी जाने के लिए
कोई रोकेगा नहीं 
किसी के साथ घूमते रहने भर से
नहीं चुभेंगी शक की निगाहें
तब हुआ करती थी
हर पगडंडी की अलग खुशबू

किसी आने वाले कल में
मांगी जायेगी पहचान
JNU में अन्दर जाने के लिए भी
पार्थसारथी पर बैठा होगा दरबान
लुप्त हुए पगडंडियों के अवशेष
अकेले ढूँढने पड़ेंगे
कॉफ़ी का बिल चुकाने के लिए
किसी से झगड़ना नहीं होगा
कोई बताने वाला नहीं होगा
कि टेफ्ला की कौन  सी डिश सबसे अच्छी है 
बारिशों के लिए 
लेकर जाना होगा छाता 

घबराहट होती है
कि कैसा होगा 
अकेले उन्ही रास्तों पर चलना 
ये जानते हुए कि मेन गेट पर 
भी कोई नहीं होगा

कि कितना दर्द होगा
कि कैसी आह होगी
सभी यादों को दफना दूं
कोई कब्रगाह होगी?

13 October, 2010

दिल्ली...पहचान तो लोगी मुझे?

वक़्त नहीं लगता, शहर बदल जाते हैं. ये सोच के चलो कि लौट आयेंगे एक दिन, जिस चेहरे को इतनी शिद्दत से चाहा उसे पहचानने में कौन सी मुश्किल आएगी...मगर सुना है कि दिल्ली अब पहचान में नहीं आती...कई फिरंगी आये थे उनके लिए सजना सँवरना पड़ा दिल्ली को. दिल्ली की शक्लो सूरत बदल गयी है.
सुना है महरौली गुडगाँव के रास्ते पर बड़ा सा फ़्लाइओवर बना है और गाड़ियाँ अब सरपट भागती हैं उधर. मेरे वक़्त में तो IIMC से थोड़ा आगे बढ़ते ही इतना शांत था सब कुछ कि लगता ही नहीं था कि दिल्ली है...खूब सारी हरियाली, ठंढी हवा जैसे दुलरा देती थी गर्मी में झुलसे हुए चेहरे को...कई सार मॉल भी खुल गए हैं...एक बेर सराय का मार्केट हुआ करता था, छोटा सा जिसमें अक्सर दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाया करती थी. छोटी जगह होने का ये सबसे बड़ा फायदा लगता था...और फिर साथ में कुछ खाना पीना, समोसे वैगेरह...चाय या कॉफ़ी और टहलते हुए वापस आना कैम्पस तक. 
JNU तो हमारे समय ही बदलने लगा था...मामू के ढाबे की जगह रेस्तारौंत जैसी कुर्सी टेबलों ने ले ली, वो पत्थरों पर बैठ कर आलू पराठा और टमाटर की चटनी खाना और आखिर में गुझिया, चांदनी रात की रौशनी में...टेफ्ला में दीवारों पर २००६ में जो कविता थी मेरे एक दोस्त की, जिसे मैं शान से बाकी दोस्तों को दिखाती थी वो भी बदल दी गयी. पगडंडियों पर सीमेंट की सड़कें बन गयीं...जंगल अपने पैर वापस खींचने लगा...समंदर पे आती लहरों की तरह. 
जो दोस्त बेर सराय, जिया सराय में रहते थे वो पूरी दिल्ली NCR में बिखर गए. पहले एक बार में सबके घर जाना हो जाता था...इधर से उठे उधर जाके बैठ गए...अब किसी चकमकाती मैक डी या पिज़ा हट में मिलना होगा...एसी की हवा दोस्ती को छितरा देती है, बिखरने लगती है वो आत्मीयता जो गंगा ढाबे के मिल्क कॉफ़ी में होती है. अब तो पार्थसारथी जाने के लिए आईडी कार्ड माँगा जाने लगा है...कहाँ से कहें कि ये जगह JNU  में अभी पढने वाले लोगों से कहीं ज्यादा उनलोगों के लिए मायने रखती है जो यहाँ एक जिंदगी जी कर गए थे. पता नहीं अन्दर जाने भी मिलेगा कि नहीं.
१५ नवम्बर, किसी कैलेंडर में घेरा नहीं लगाना पड़ा है...आँखों को याद है कि जब दिल्ली आउंगी मैं, दो साल से भी ऊपर हुए...जाने कैसी होगी दिल्ली...याद के कितने चेहरों से मिल सकूंगी...नयी कितनी यादों को सहेज सकूंगी. बस...ख्वाहिशों का एक कारवां है जो जैसे डुबो दे रहा है. दिल्ली...जिंदगी का एक बेहद खूबसूरत गीत.

08 October, 2010

बारिश के रंग

बंगलोर में रहते हुए बारिशों के कई अंदाज़ देखे हैं, कुछ घर की खिड़की से, कुछ बालकोनी में कॉफ़ी के साथ, कुछ ऑफिस की सीट से बाहर...जिद्दी बारिश, प्यारी बारिश, तमतमाई बारिश, आलसी बारिश वगैरह...जिंदगी के कुछ हिस्सों में बारिश कैसे गुंथी है कि लगता है बादल बड़ा होशियार होता है. आज कुछ तरह की बारिशों के रंग में भीगते हैं.


इंस्टैंट बारिश: ये सबसे दुर्लभ किस्म की बारिश होती है...दुर्लभ यानि कि आम जनता के लिए. फिल्मों में ऐसी बारिश भरपूर मात्रा में पायी जाती है...खास तौर से ऐसे दिन जब हिरोइन के पास छाता ना हो. ऐसे अनेको उदाहरण हैं जब फिल्मों में बारिश एकदम राईट टाइम पर शुरू होती है. लेकिन इस बारिश का श्रेय हम मिस्टर बदल को नहीं दे सकते क्योंकि ये आर्टिफिसियल बारिश होती है. अधिकतर इंस्टैंट बारिश को काम बिगाडू माना जाता है. खडूस लोगों के विचारों से इतर...इंस्टैंट बारिश से प्यार के फूल खिलने की संभावना काफी बढ़ जाती है.

जुल्मी बारिश: ये वो बारिश है जिसे सभी प्यार करने वाले खार खाते हैं...इश्क कई बार आग का दरिया ना होकर असली दरिया भी होता है...हमें तो पाटलिपुत्रा का ज़माना याद आता है, मानसून आते ही पूरी कालोनी की सडकों पर पानी भर जाता था...वैसे तो पानी में इटा पर कूद फांद कर ट्यूशन पहुँच जाते थे पर जिस दिन ये कमबख्त 'जुल्मी' बारिश आती थी सड़कों पर गंगा बहने लगती थी. बारिश दरिया और नाले में कोई फर्क नहीं करती थी, सब तरफ सामान रूप से बरसती थी. ठीक वैसे ही मम्मी हमपर बरसती थी....दिमाग ख़राब हो गया है लड़की का, इत्ती बारिश में कहाँ जायेगी. हाय वो बचपन का प्यार...किसी को एक नज़र देखने के लिए घुटना भर से ऊपर पानी हेलकर अपनी साइकिल से जाते थे. तो जैसा कि मैंने उदाहरण दिया...ये जुल्मी बारिश हमेशा इश्क के सुलगते अरमानो को बुझा डालती है...डुबा डालती है. ग़ालिब पटना में पैदा हुए होते तो कहते...ये इश्क नहीं आसान, एक बाढ़ है, दरिया है और अबकी डूब जाना है.

गुस्सैल बारिश: इस बारिश का बिजली और गरज से सोलिड दोस्ती है. तीनो साथ मिलकर शहर शहर डुबोने का प्लान बनाते हैं. ये बारिश खास तौर से तब आती है जब हम घर से छाता लेकर निकलना भूल जाते हैं. ऐसे केस में बादल अपमानित महसूस करता है, कि सुबह से आसमान में क्या लुख्खा टाईमपास कर रहे थे, तुम हमको देख कर भी अनदेखा की, हमारा इन्सल्ट की. अब भुगतो! और अगर बारिश का मूड हुआ तो तो ओले से भी सेट्टिंग कर लेती है अपनी...खास तौर से जब कोई सर मुन्डाता है. इसलिए कहते हैं सर मुंडाते ही ओले पड़े. जब गुस्सैल बारिश आती है तो तेज हवा चलती है और थपेड़े से पेड़ों की जड़ें तक हिल जाती हैं. तब ये पेड़ ७ पटियाला पैग चढ़ाये इन्सान की तरह भरभरा के गिर जाते हैं. इस बारिश के कारण गाड़ियाँ ख़राब होती हैं, वो भी अं चौराहे पर...ताकि चारों तरफ का ट्रैफिक सत्यानाश हो जाए. इस बारिश के तेवर पहले से ही मालूम रहते हैं इसलिए इस बारिश को किसी हाल में इग्नोर नहीं करना चाहिए. इससे बचने का सबसे आसान उपाय है...बचना...यानि घर पर टिकना.

क्यूट बारिश: इस बारिश को सभी पसंद करते हैं, ये बारिश अच्छे दोस्त की तरह कभी भी आती है, गौरतलब रहे कि इसमें और इंस्टैंट बारिश में बस ये एक समानता है. तो क्यूट बारिश बिलकुल हलके हलके पड़ती है, इसकी नन्ही नन्ही बूँदें चेहरे को प्यार से थपथपाती हैं. ये बारिश अक्सर दिल्ली में अगस्त के पहले मैंने में पायी जाती है...इस बारिश से तीन खास तरह के लोग बहुत खुश होते हैं, कॉफ़ी, पकौड़े और जलेबी बनाने वाले...जब ये बारिश आती है तो भुट्टे वालों का भी बिजनेस बढ़ जाता है. ये बारिश ऐसी है कि अकेले या दुकेले एन्जॉय की जा सके. अकेले लोगों के लिए आवश्यक है हेडफोन और कोई भी म्यूजिक प्लेयर   ये अकेला इन्सान अगर कवि हो तो उसकी लेखनी में चार चाँद लग जाते हैं. जो मनुष्य इस बारिश में ना भीगा हो उसका जीवन व्यर्थ है.

फिलहाल इतने बारिशों में भीगिए, बाकी रंग फिर किसी दिन उड़ेले जायेंगे.

09 September, 2010

एक आग का दरिया है

दिल्ली की चुभती गर्मियों की धूप तमाचे मार के रोज उठाती थी उसे. गर्मियों के ठहरी दोपहरों को उसकी उफनती क्रन्तिकारी सोच और आग लगा देती थी. यूँही थोड़े लोग कहते थे कि उसका दिमाग गरम रहता है हमेशा. लोग तो ये भी कहते थे कि उस लाल इमारत का कोई ऐसा मोड़ नहीं है जहाँ चार लोग उसको उसके फलसफे सुनने के लिए पकड़ ना लें...और बहसें कॉफ़ी या सिगरेट के साथ या बगैर गरमाती रहे. 

लोगों  को बस एक बात नहीं पता थी...कि एक दिन बुखार के तपते माथे पर किसी ने अमृतांजन लगा दिया है...और पूरब की उस इकलौती खिड़की पर एक पुराने चादर का पर्दा डाल दिया है...लोग ये भी नहीं जानते कि शाम को सूरज को चाय में डुबा कर होटों से लगाने लगा है वो. 

ये भी नहीं कि जिस दिन वो बहस अधूरी छोड़ के गया था वो करवाचौथ था और एक लड़की ने अठन्नी के बदले उसकी एक लम्बी उम्र खरीद ली है भगवान से. कि उसका बेख़ौफ़ होना इसलिए हैं कि कोई उसकी चिंता करने लगा है हद्द से ज्यादा. 

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आम लोग ये सच में नहीं जानते कि लिम्फोमा जैसे डराने वाली गंभीर बीमारी सिर्फ फिल्मों में नहीं...असल जिंदगी में भी किसी सत्ताईस साल की लड़की को सच में होते हैं...और किसी की जिंदगी से अचानक चले जाना हमेशा नीयत नहीं, नियति भी हो सकती है. 

लोगों की तो छोडो...वो ही क्या समझ पाया है कि प्यार होता है...और उस लड़की को उससे हुआ था. 

29 July, 2010

मेरा बिछड़ा यार...




इत्तिफाक...एक अगस्त...फ्रेंडशिप डे...और हमारी IIMC का रियुनियन एक ही दिन...वक़्त बीता पता भी नहीं चला...पांच साल हो गए...२००५ में में पहला दिन था हमारा...आज...पांच साल बाद फिर से सारे लोग जुट रहे हैं...


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आखिरी दिन...कॉपी पर लिखी तारीख...आज से पांच साल बाद हम जहाँ भी होंगे वापस एक तारीख को यहीं मिलेंगे...उस वक़्त मुस्कुरा के सोचा था...यहीं दिल्ली में होंगे कहीं, मिलने में कौन सी मुश्किल होगी...आज बंगलोर में हूँ...जा नहीं सकती.


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मैं फेसबुक बेहद कम इस्तेमाल करती हूँ...आज तबीयत ख़राब थी तो घर पर होने के कारण देखा...कम्युनिटी पर सबकी तसवीरें...गला भर आया...और दिल में हूक उठने लगी...जा के एक बार बस सब से मिल लूं तो लगे कि जिन्दा हूँ.


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भर दोपहर स्ट्रिंग्स का गाना सुना...मेरा बिछड़ा यार...सुबह के खाने के बाद कुछ खाने को था नहीं घर पर...बाहर जाना ही था...कपडे बदले, जींस को मोड़ कर तलवे से एक बित्ता ऊपर किया, फ्लोटर डाले और रेनकोट पहन कर निकली ब्रेड लाने...गाना रिपीट पर था...कुछ सौ मीटर चली थी कि बारिश जोर से पड़ने लगी...


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रेनकोट का हुड थोड़ा सा पीछे सरकाती हूँ...तेज बारिश चेहरे पर गिरती है, आँखों में पानी पानी...बरसाती नदी...और बंगलोर पीछे छूट गया...जींस के फोल्ड खुल गए, ढीला सा कुरता और हाथों में सैंडिल...कुछ बेहद करीबी दोस्त...एक भीगी सड़क. गर्म भुट्टे की महक, और पुल के नीचे किलकारी मारता बरसाती पानी. ताज़ा छनी जिलेबियां अखबार के ठोंगे में...गंगा ढाबा की मिल्क कॉफ़ी और वहां से वापस आना होस्टल तक...


उसकी थरथराती उँगलियों को शाल में लपेटना...भीगे हुए जेअनयू के चप्पे चप्पे को नंगे पैरों गुदगुदाना...पार्थसारथी जाना...आँखों का हरे रंग में रंग जाना...दोस्ती...इश्क...आवारगी...जिंदगी.
IIMC my soul.
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काश मैं दिल्ली जा सकती...
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करे मेरा इन्तेजार...मेरा बिछड़ा यार...मेरा बिछड़ा यार...

14 June, 2010

कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी

बारिशों में खोयी हो
अलसाई सी सोयी हो
थकी हो उदास हो
हाँ, मेरे आसपास हो
वहीँ से लौट आओ जिंदगी

ठहरा सा लम्हा है
भीगी सी सडकें हैं
चुप्पी सी कॉफ़ी है
बुझी सी सिगरेट है
वहीं बिखर जाओ जिंदगी

वो चुप मुस्कुराता है
हौले क़दमों से आता है
छत पे सूरज डुबाता है
अच्छी मैगी बनाता है
उससे हार जाओ जिंदगी

इश्क की थीसिस है
डेडलाइन की क्राईसिस है
जिस्म की तपिश है
रूह की ख्वाहिश है
इसमें उलझ जाओ जिंदगी

शब्द होठों पे जलते हैं
कागज़ पे खून बहता है
आँखें बंजर हो जाती हैं
शहर मर जाता है
अब अंकुर उगाओ जिंदगी

अब भी वापसी की राह तकती हूँ
कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी. 

11 May, 2010

विदा

ट्रेन खुल रही है स्टेशन से और आस पास का सारा मंजर धुंधला पड़ता जा रहा है. तेज रफ़्तार में धुंधला होने जैसा धुंधला, मुझे अचनक से याद आता है कि मैं तो खड़ा हूँ स्टेशन पर. दूर जाती हुयी एक खिड़की है, उसमें बैठी जिंदगी हाथ हिला कर मुझे विदा कर रही है...मैं बस देख रहा हूँ. इतना नहीं होता कि रोक लूं...गाड़ी बहुत आगे बढ़ चुकी है. जिंदगी अब गाड़ी के दरवाजे पर खड़ी है उसके दुपट्टे की महक प्लेटफोर्म को गार्डेन में तब्दील कर गयी है. निजामुद्दीन के आगे पटरी घूमती है, गाड़ी मुड़ती है वहां से. 

मुझे यहाँ से वो नहीं दिखती है पर उसकी आँखें यही रह गयी हैं उसी तरह जैसे उसका अहसास रह गया है, मेरे जिस्म, मेरी रूह में अभी भी...दिल्ली के भरे हुए प्लेटफोर्म पर किसी को पहली बार तो ट्रेन पर चढाने नहीं आया हूँ पर जिंदगी को यूँ कभी विदा भी तो नहीं किया है. उसने फ़ोन भी तो 'आखिरी वक्त' में किया था...मुझे अकेले जाने में डर लग रहा है मुझे स्टेशन पर छोड़ने आ जाओगे प्लीज...वो अब फोर्मल भी होने लगी थी. 

ट्रेन पर चढ़ कर हर एक मिनट में उसने फ़ोन किया था...कहाँ पहुंचे...अभी तक नहीं पहुंचे...किधर से आ रहे हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म में दुनिया की भीड़ को परे हटाते पहुंचना कुछ आग का दरिया पार करना ही जैसा था, दौड़ता हांफता मैं पहुंचा था साँस फूल रही थी...वो एक हाथ से बोगी का दरवाजा पकड़ के झाँक रही थी, बेचैनी अजीब सी थी उसके चेहरे पर उस दिन. सांस काबू में भी नहीं आई कि वो दौड़ के गले लग गयी, जैसे कहीं नहीं जायेगी जैसे मैं रुकने को कहूँगा तो बिना जिरह किये लौट आएगी. उसका मेरी बाहों में होना ऐसा था जैसे एक लम्हे में मेरी जिंदगी समा गयी हो...दिल्ली के उस भरे प्लेटफोर्म पर हो सकता है लोग देख रहे होंगे, हँस रहे होंगे...उसने कहा नहीं पर कहा कि मुझे लौटा लो...कि मैं नहीं जाना चाहती, कि एक बार कहो तो. 

ट्रेन ने आखिरी हिचकी ली सिग्नल हो गया...सब कुछ रफ़्तार पकड़ रहा था...धुंधला होता जा रहा था. उसे मुझे बहुत कुछ कहना था पर उसने कुछ नहीं कहा, उसकी आँखों में इतना पानी था कि कुछ दिखाई नहीं पड़ा...खट खट करती ट्रेन का शोर उसकी हंसी, उसके आँसू सब आपस में मिला दे रहा था. यमुना ब्रिज पर जाती ट्रेन...पल पल दूर जाती हुयी जिंदगी...

वो आखिरी ट्रेन थी या नहीं पता नहीं...पर प्लेटफोर्म एकदम खाली हो गया था. एकदम. मेरे जैसा. 

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