09 September, 2010

एक आग का दरिया है

दिल्ली की चुभती गर्मियों की धूप तमाचे मार के रोज उठाती थी उसे. गर्मियों के ठहरी दोपहरों को उसकी उफनती क्रन्तिकारी सोच और आग लगा देती थी. यूँही थोड़े लोग कहते थे कि उसका दिमाग गरम रहता है हमेशा. लोग तो ये भी कहते थे कि उस लाल इमारत का कोई ऐसा मोड़ नहीं है जहाँ चार लोग उसको उसके फलसफे सुनने के लिए पकड़ ना लें...और बहसें कॉफ़ी या सिगरेट के साथ या बगैर गरमाती रहे. 

लोगों  को बस एक बात नहीं पता थी...कि एक दिन बुखार के तपते माथे पर किसी ने अमृतांजन लगा दिया है...और पूरब की उस इकलौती खिड़की पर एक पुराने चादर का पर्दा डाल दिया है...लोग ये भी नहीं जानते कि शाम को सूरज को चाय में डुबा कर होटों से लगाने लगा है वो. 

ये भी नहीं कि जिस दिन वो बहस अधूरी छोड़ के गया था वो करवाचौथ था और एक लड़की ने अठन्नी के बदले उसकी एक लम्बी उम्र खरीद ली है भगवान से. कि उसका बेख़ौफ़ होना इसलिए हैं कि कोई उसकी चिंता करने लगा है हद्द से ज्यादा. 

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आम लोग ये सच में नहीं जानते कि लिम्फोमा जैसे डराने वाली गंभीर बीमारी सिर्फ फिल्मों में नहीं...असल जिंदगी में भी किसी सत्ताईस साल की लड़की को सच में होते हैं...और किसी की जिंदगी से अचानक चले जाना हमेशा नीयत नहीं, नियति भी हो सकती है. 

लोगों की तो छोडो...वो ही क्या समझ पाया है कि प्यार होता है...और उस लड़की को उससे हुआ था. 

14 comments:

  1. ये पोस्ट भी अच्छी लगी ......

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  2. समझ नहीं आया पहले दो बंधुओं को क्या सुन्दर और क्या अच्छा लगा !!!

    क्या वो लड़का साहिर था ?

    "ए वाइज़-ए-नादान तू करता है रोज़ क़यामत का चर्चा,
    यहाँ रोज़ निगाहें मिलती हैं, यहाँ रोज़ 'क़यामत' होती है"

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  3. पूजा ! आपको कहानी लिखनी चाहिए !!!!!!!

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  4. सर्दी और गर्मी का एहसास एक दिन में हा हो जाता है, इस बीमारी में।

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  5. पोस्ट के लेबल भी कुछ कहानी बयां कर जाते है.. मैं भी हाय्बर्नेट मोड़ में हूँ.. नो कमेन्ट

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  6. बहुत ही मार्मिक !!!

    वैसे लिम्फोमा क्या होता है....प्लीज बताना ..

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  7. @सागर.....
    न जाने क्यों आपने मेरे और विक्रम जी के कमेंट्स पर कटाक्ष किया? जिस पोस्ट के संदर्भ में आपने एक उम्दा शेर लिख दिया, उसी पोस्ट के संदर्भ में अगर हमने सुंदर या अच्छा लिख दिया तो आपने हमारे शब्द चयन की सार्थकता पर ही सवालिया निशान लगा दिया ?

    दोस्त.....हो सकता है कि हम आपकी तरह सफल ब्लोगरस न हों या आपकी बराबर अच्छा न लिख सकते हों.फिर भी मेरा मानना है कि किसी पोस्ट को अच्छा या सुंदर समझना हमारे अपने-२ नज़रिए पर निर्भर करता है.
    तो दोस्त ...ये तो अपना -२ नज़रिया होता है.
    दूसरे लोगों ने भी अपने-2 नज़रिए से कमेंट्स किए.

    हम सबके नज़रिए अलग-अलग हैं तभी तो
    हर ब्लॉग अपने आप में अलग है. हाँ समानताएँ
    भी हैं. लेकिन ये हमेशा हों, ऐसा नहीं हो सकता.

    चलिए कोई बात नहीं ..रचनात्मक उपलब्धिओं के सन्दर्भ को लेकर आरोप-प्रत्यारोप या कटाक्ष कोई नई बात नहीं है.

    आप के सुंदर और सफल भविष्य की कामना करते हुए मैं अपनी बात यहीं ख़त्म करता हूँ .

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  8. @ विजयेन्द्र सिंह चौहान,
    आप अपनी बात ख़त्म करते हैं तो हम शुरू करते हैं..
    जिस तरह से आप देखने कह रहे हैं वैसे हमने भी देखा था पर थोड़ी देर बाद, आपकी बात शत-प्रतिशत सही है कि लिखने कि लिहाज से
    "दिल्ली की चुभती गर्मियों की धूप तमाचे मार के रोज उठाती थी उसे. गर्मियों के ठहरी दोपहरों को उसकी उफनती क्रन्तिकारी सोच और आग लगा देती थी.

    कि एक दिन बुखार के तपते माथे पर किसी ने अमृतांजन लगा दिया है...और पूरब की उस इकलौती खिड़की पर एक पुराने चादर का पर्दा डाल दिया है...लोग ये भी नहीं जानते कि शाम को सूरज को चाय में डुबा कर होटों से लगाने लगा है वो.

    ये भी नहीं कि जिस दिन वो बहस अधूरी छोड़ के गया था वो करवाचौथ था और एक लड़की ने अठन्नी के बदले उसकी एक लम्बी उम्र खरीद ली है "

    यह लाइन बहुत अच्छी है... और हो ना हो आपने भी यही पकड़ा है... और जो माजरा नहीं जानते यही कौशल पकड़ेंगे... तो यह अच्छी बात है... में मुआमले पर था आप लेखन पर... पल विशेष किसी कि कोई गलती नहीं थी...

    दूसरी बात - तथाकथित शेर हमने नहीं शायद वाइज़ साहेब ने लिखी है हमने बस उद्धृत किया है :)

    "दोस्त..... - शुक्रिया

    "हो सकता है कि हम आपकी तरह सफल ब्लोगरस न हों या आपकी बराबर अच्छा न लिख सकते " --- ये कुंठा मन से निकाल दें, हम लिखते हैं - घंटा!

    "किसी पोस्ट को अच्छा या सुंदर समझना हमारे अपने-२ नज़रिए पर निर्भर करता है.
    तो दोस्त ...ये तो अपना -२ नज़रिया होता है.
    दूसरे लोगों ने भी अपने-2 नज़रिए से कमेंट्स किए.

    हम सबके नज़रिए अलग-अलग हैं तभी तो
    हर ब्लॉग अपने आप में अलग है. हाँ समानताएँ
    भी हैं. लेकिन ये हमेशा हों, ऐसा नहीं हो सकता"

    सत्य वचन, दो सौ फीसदी सहमत दोस्त

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  9. ये कुंठा मन से निकाल दें, हम लिखते हैं - घंटा!

    सागर जी ......
    कुंठा जैसी कोई बात तो कभी रही ही नहीं.
    Mere man men sabhi blogers ke liye bahut samman hai.
    lekin कुंठा जैसी कोई cheez नहीं.

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  10. बात घुमाकर कही गयी है किन्तु पूरी सच्चाई के साथ. राष्ट्रीय स्तर पर लिखने वाले बहुत लोग हैं, क्षेत्रीय और अपने आस पास के बारे में लिखो तो ज्यादा सकूं मिलेगा.

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  11. सबसे झूठा सच तो जिंदगी खुद होती है..एक लम्हे की निगाह की तपिश के बदले जिंदगी भर का दर्द खरीद लेती है..वो अगर समझ भी लेता तो शायद उसका दर्द कम नही होता..घने जंगल के बीच कही ठंडे पानी का शर्मीला सोता बहता है..यह जंगल के अलावा कौन जानता है..जिंदगी के दरवाजे से निकल जाने को कौन रोक लेता है..और दुख के दबे पाँव दरवाजे से घुसने को भी कौन रोक पायेगा..! बस अठ्न्नी मे खरीदी उम्र वाकई लम्बी और भरपूर गुजरे..इतना ही..

    सुशीला जी की बात पर ध्यान देना चाहिये..सीरियसली!!

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