१७ जनवरी २०१७
१९ जनवरी २०१९
उम्र के तैन्तीसवे पड़ाव के ठीक बीच झूलती मैं अंतिम अरण्य पढ़ती हूँ...नितांत अकेलेपन के अंदर खुलने वाले इस उपन्यास को पढ़ने के लिए किसी ने मुझसे क्यूँ कहा होगा! मैं क्यूँ इसे पढ़ते हुए उसके अकेलेपन के क़रीब पाती हूँ ख़ुद को। क्या कभी कभी किसी का साथ माँग लेना इतना मुश्किल होता है कि बात को बहुत घुमा कर किसी नॉवल में छिपाना होता है।
'I thought you wanted to say something to me.' उसने कहा मुझसे मगर मुझे क्यूँ लगा वो ख़ुद की बात कर रहा है। उसे मुझसे कोई बात कहनी थी। बात। कौन सी बात। दो लोग कौन सी बात कहते हैं, कह लेते हैं। मेले के शोर और भगदड़ में एक कॉफ़ी भर की फ़ुर्सत में क्या कहा जा सकता है।
मैं उससे कहती हूँ, 'I miss writing to you'। जबकि कहीं मुझे मालूम है कि उसे लिखे ख़त किन्हीं और ख़तों का echo मात्र हैं। मैं जी नहीं रही, एक परछाई भर है मेरे बदन की जो अंधेरे में मुस्कुराती है...उदास होती है।
कोई सफ़र है...मेरे अंदर चलायमान...कोई शहर...मेरे अंदर गुमशुदा. बस इतना है कि शायद अगली कोई कहानी लिखने के पहले बहुत सी कहानियों को पढ़ना होगा...उनसे पनाह माँगनी होगी...
सुनो। क्या तुम मेरे लिए एक चिट्ठी लिख सकते हो? काग़ज़ पर। क़लम से। इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक जंगल होती गयी हूँ। इस जंगल के एक पेड़ पर एक चिट्ठीबक्सा ठुका हुआ है। ख़ाली।
मैं इंतज़ार में हूँ।
२१ जनवरी २०१७
२ मार्च २०१७
धूप की आख़िर सुबह अगर किताब के आख़िरी पन्ने से गुज़र कर चुप हो आने का मन करे...तो इसका मतलब उस किताब ने आपको पूरा पढ़ लिया है। हर पन्ने को खोल कर। अधूरा छोड़ कर। वापस लौट कर भी।
"जिंद?" मैंने उनकी ओर देखा।
'जिन्दल' उन्होंने कहा, नक़्शे में 'एल' दिखायी नहीं देता। वह दरिया में डूब गया है।"
मैंने भी जिन्दल का नाम नहीं सुना था...नक़्शे में भी पहली बार देखा...जहाँ सचमुच दरिया की नीली रेखा बह रही थी...
- निर्मल वर्मा। अंतिम अरण्य
***
इस शहर में रहते हुए कितने शहरों की याद आती है। वे शहर जो क़िस्सों से उठ कर चले आए हैं ज़िंदगी में। वे शहर जिनका नाम पहली बार पढ़ कर लगता है मैंने उस शहर में किसी को कोई ख़त लिखा था कभी।
'जिन्दल' उन्होंने कहा, नक़्शे में 'एल' दिखायी नहीं देता। वह दरिया में डूब गया है।"
मैंने भी जिन्दल का नाम नहीं सुना था...नक़्शे में भी पहली बार देखा...जहाँ सचमुच दरिया की नीली रेखा बह रही थी...
- निर्मल वर्मा। अंतिम अरण्य
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इस शहर में रहते हुए कितने शहरों की याद आती है। वे शहर जो क़िस्सों से उठ कर चले आए हैं ज़िंदगी में। वे शहर जिनका नाम पहली बार पढ़ कर लगता है मैंने उस शहर में किसी को कोई ख़त लिखा था कभी।
सुनो। तुम्हें नीलम वादी याद है क्या अब भी? नाम क्या था उस नदी का जो वहाँ बहती थी?
तुम्हें याद है क्या वो वक़्त जब कि दोस्ती बहुत गहरी थी...हम काग़ज़ की नाव तैराया करते थे पानी में। लिखा करते थे ख़त। काढ़ा करते थे तुम्हारा नाम रूमालों में।
तुम अजीब क़िस्म से याद आए हो। अचानक से तुम्हें देखने को आँख लरज़ उठी है।
१९ जनवरी २०१९
उम्र के तैन्तीसवे पड़ाव के ठीक बीच झूलती मैं अंतिम अरण्य पढ़ती हूँ...नितांत अकेलेपन के अंदर खुलने वाले इस उपन्यास को पढ़ने के लिए किसी ने मुझसे क्यूँ कहा होगा! मैं क्यूँ इसे पढ़ते हुए उसके अकेलेपन के क़रीब पाती हूँ ख़ुद को। क्या कभी कभी किसी का साथ माँग लेना इतना मुश्किल होता है कि बात को बहुत घुमा कर किसी नॉवल में छिपाना होता है।
'I thought you wanted to say something to me.' उसने कहा मुझसे मगर मुझे क्यूँ लगा वो ख़ुद की बात कर रहा है। उसे मुझसे कोई बात कहनी थी। बात। कौन सी बात। दो लोग कौन सी बात कहते हैं, कह लेते हैं। मेले के शोर और भगदड़ में एक कॉफ़ी भर की फ़ुर्सत में क्या कहा जा सकता है।
मैं उससे कहती हूँ, 'I miss writing to you'। जबकि कहीं मुझे मालूम है कि उसे लिखे ख़त किन्हीं और ख़तों का echo मात्र हैं। मैं जी नहीं रही, एक परछाई भर है मेरे बदन की जो अंधेरे में मुस्कुराती है...उदास होती है।
कोई सफ़र है...मेरे अंदर चलायमान...कोई शहर...मेरे अंदर गुमशुदा. बस इतना है कि शायद अगली कोई कहानी लिखने के पहले बहुत सी कहानियों को पढ़ना होगा...उनसे पनाह माँगनी होगी...
सुनो। क्या तुम मेरे लिए एक चिट्ठी लिख सकते हो? काग़ज़ पर। क़लम से। इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक जंगल होती गयी हूँ। इस जंगल के एक पेड़ पर एक चिट्ठीबक्सा ठुका हुआ है। ख़ाली।
मैं इंतज़ार में हूँ।
२१ जनवरी २०१७
हम क्या सकेरते हैं। कैसे।
अंतिम अरण्य को पढ़ते हुए मैं अपने भीतर के एकांत से मिलती हूँ। क्या हम सब के भीतर एक अंतिम अरण्य होता है? या फिर ये किताब मुझे इसलिए इतना ज़्यादा अफ़ेक्ट करती है कि मैं भी महसूस करती हूँ कि मैं इस जंगल में कुछ ज़्यादा जल्दी आ गयी हूँ। इस उम्र में मुझे किसी और मौसमों वाले भागते शहर में होना चाहिए। धूप और समंदर वाले शहर।
अंतिम अरण्य को पढ़ते हुए मैं अपने भीतर के एकांत से मिलती हूँ। क्या हम सब के भीतर एक अंतिम अरण्य होता है? या फिर ये किताब मुझे इसलिए इतना ज़्यादा अफ़ेक्ट करती है कि मैं भी महसूस करती हूँ कि मैं इस जंगल में कुछ ज़्यादा जल्दी आ गयी हूँ। इस उम्र में मुझे किसी और मौसमों वाले भागते शहर में होना चाहिए। धूप और समंदर वाले शहर।
मगर प्रेम रेत के बीच भूले से रखा हुआ ओएसिस है। मृगतृष्णा भी।
मैं अपने एक बहुत प्यारे मित्र के बारे में एक रोज़ सोच रही थी, 'तुम में ज़िंदा चीज़ों को उगाने का हुनर है...you are a gardener.' और वहीं कहीं कांट्रैस्ट में ख़ुद को देखती हूँ कि मुझे मुर्दा चीज़ें सकेरने का शौक़ है...हुनर है...मृत लोग...बीते हुए रिश्ते...किरदार...शहर...टूटे हुए दिल...ज़ख़्म...मैं किसी म्यूज़ीयम की कीपर जैसी हूँ...जीवाश्मों की ख़ूबसूरती में मायने तलाशती...अपने आसपास के लोगों और घटनाओं के प्रति उदासीन. Passive.
किसी किसी को पढ़ना एक ज़रूरी सफ़र होता है। निर्मल वर्मा मेरे बहुत से दोस्तों को पसंद हैं। मैंने पिछले साल उनके यात्रा वृत्तांत पढ़े। वे ठीक थे मगर मेरे अंदर वो तकलीफ़/सुख नहीं जगा पाए जिसके लिए मैं अपना वक़्त किताबों के नाम लिखती हूँ। मैंने लगभग सोच लिया था कि अब उन्हें नहीं पढ़ूँगी। वे मेरी पसंद के नहीं हैं। मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूँ कि अंतिम अरण्य की कौन सी बात को सुन कर मैंने इसे तलाशा। शायद ये बात कि ज़िंदगी के आख़िर का सघनतम आलेख है। या उदासी की आख़िरी पंक्ति। पहाड़ों पर इतनी तन्हाई रहती है उससे गुज़रने की ख़्वाहिश। या कि अपने अंतिम अरण्य को जाने वाली पगडंडी की शुरुआत देखना। आज जानती हूँ कि वे सारे मित्र जिन्होंने बार बार निर्मल को पढ़ा...उनके बारे में बातें कीं...वे इसलिए कि मैं इस किताब तक पहुँच सकूँ। पूछो साल की वो किताबें एक ज़रूरी पड़ाव थीं...मेरे सफ़र को इस 'अंतिम अरण्य' तक रुकना था। के ये मेरी किताब है। मेरी अपनी।
सुबहें बेचैन, उदास और तन्हा होती हैं। आज पढ़ते हुए देखा कि एक पगडंडी बारिश के पानी में खो रही थी। नीली स्याही से underline कर के मैंने उसके होने को ज़रा सा सहेजा। ज़रा सा पक्का किया।
सुनो। तुम्हारे किसी ख़त में मेरा अंतिम अरण्य है। मेरी चुप्पी।मेरी अंतिम साँस। मेरे जीते जी मुझे एक बार लिखोगे?
२ मार्च २०१७
धूप की आख़िर सुबह अगर किताब के आख़िरी पन्ने से गुज़र कर चुप हो आने का मन करे...तो इसका मतलब उस किताब ने आपको पूरा पढ़ लिया है। हर पन्ने को खोल कर। अधूरा छोड़ कर। वापस लौट कर भी।
मैं अंतिम अरण्य से गुज़रती हुयी ख़ुद को कितना पाती हूँ उस शहर में। मेरा भी एक ऐसा शहर है जिसे मैं मकान दर मकान उजाड़ रही हूँ कि मेरे आख़िर दिनों में मुझे कोई चाह परेशान ना करे। कि मैं शांत चित्त से जा सकूँ। इस किताब को पढ़ना मृत्यु को बहुत क़रीब से देखना है। किसी को कण कण धुआँ हो जाते देखना भी है।
अनजाने इस किताब में कई सारे पड़ाव ऐसे थे जिन पर मुझे रुकने की ज़रूरत थी। कहानी में एक कहानी है एक डाकिये की निर्मल लिखते हैं कि उस शहर में एक डाकिया ऐसा था कि जो डाकखाने से चिट्ठियाँ उठाता तो था लेकिन एक घाटी में फेंक आता था। वैली औफ़ डेड लेटर्स। इस किरदार के बारे में भी किरदार को एक दूसरा किरदार बताता है। वो किरदार जो मर चुका है। तो क्या कहीं वाक़ई में ऐसा कोई डाकिया है?
कोई मुझे ख़त लिख सके, ये इजाज़त मैंने बहुत कम लोगों को दी है। जब कि चाहा हर सिम्त है कि ख़त आए। बहुत साल पहले एक मेल किया था किसी को तो उसने जवाब में एक पंक्ति लिखी थी, ‘अपने मन मुताबिक़ जवाब देने का अधिकार कितने लोगों के पास होता है’। यूँ तो उसका लिखा बहुत सारा कुछ ही मुझे ज़बानी याद है मगर उस सब में भी ये पंक्ति कई बार मेरा हाथ सहलाती रही है। बैंगलोर आयी थी तो बहुत शौक़ से लेटर ओपनर ख़रीदा था। मुझे लगता रहा है हमेशा कि मेरे हिस्से के ख़त आएँगे। अब लगता है कि कुछ लोगों का दिल एक लालडिब्बा हुआ गया है कि जिसमें मेरे हिस्से की मोहरबंद चिट्ठियाँ गिरी हुयी हैं। बेतरतीब। जब वे चिट्ठियाँ मुझे मिलेंगी तो मैं सिलसिलेवार नहीं पढ़ पाऊँगी उन्हें। हज़ार ख़यालों में उलझते हुए बढ़ूँगी आगे कि किसी के हिस्से का कितना प्रेम हम अपने सीने में रख सकते हैं। अपनी कहानियों में लिख सकते हैं।
अंतिम अरण्य मैंने दो हिस्सों में पढ़ा। पहली बार पढ़ते हुए यूँ लगा था जैसे कुछ सील रहा है अंदर और इस सीलेपन में कोई सरेस पेपर से छीजते जा रहा है मुझे। कोई मेरे तीखे सिरों को घिसता जा रहा है। लोहे पर नए पेंट की कोट चढ़ाने के पहले उसकी घिसाई करनी होती है। सरेस पेपर से। पुरानी गंदगी। तेल। मिट्टी। सब हटाना होता है। ऐसे ही लग रहा है कि मैं एकदम रगड़ कर साफ़ कर दी गयी हूँ। अब मुझ पर नया रंग चढ़ सकता है।
कितनी इत्मीनान की किताब है ये। कैसे ठहरे हुए किरदार। शहर। अंदर बाहर करते हुए ये कैसे लोक हैं कि जाने पहचाने से लगते हैं। मैं फिर कहती हूँ कि मुझे लगता है मैंने अपना अंतिम अरण्य बनाना शुरू कर दिया है। आज की सुबह में किताब का आख़िर हिस्सा पढ़ना शुरू किया। धूप सुहानी थी जब पन्नों ने आँखें ढकी थीं। अब धूप का जो टुकड़ा खुले काँधे पर गिर रहा है उसमें बहुत तीखापन है। चुभन है।
किसी हिस्से को उद्धृत करने के लिए पन्ने पलटाती हूँ तो देखती हूँ पहले के पढ़े हुए कुछ पन्नों में मैंने अपनी चमकीली फ़ीरोज़ी स्याही से कुछ पंक्तियाँ अंडरलाइन कर रखी हैं। मुझे ये बात बहुत बुरी लगती है। मृत्यु की इस पगडंडी पर चलते हुए इतने चमकीले रंग अच्छे नहीं लगते। वे मृतक के प्रति एक ठंढी अवहेलना दिखाते हैं। ये सही नहीं है। मुझे पेंसिल का इस्तेमाल करना चाहिए था। मैं रंगों को ऐसे तो नहीं बरतती। अनजाने तो मुझ से कुछ नहीं होता। गुनाह भी नहीं।
पढ़ते हुए अनजाने में बहुत लेखा जोखा किया। बहुत शहरों से गुज़री। कुछ लोगों से भी। इन दिनों जो दूसरी किताब पढ़ रही हूँ वो भी ऐसी ही कुछ है। नीला घर- तेज़ी ग्रोवर। त्रांस्टोमेर के एक द्वीप पर बने घर में वह जाती है और उनके सिर्फ़ दो शब्दों से और घर के इर्द गिर्द जीती हुयी चीज़ों से कविताओं में बची ख़ाली जगह भरती है।
उनका कहा हुआ आख़िरी शब्द होता है, ‘थैंक्स’ इसके बाद वे कुछ भी कह नहीं पाते। मृत्यु के पहले वो अपनी कृतज्ञता जता पाते हैं। मुझे ये एक शब्द बहुत कचोटता है। उनके साथ रहने वाले नौकर ने उनकी दर्द में तड़पती हुयी पत्नी के लिए जल्दी मर जाने की दुआएँ माँगी थीं। वे पूछते हैं, मेरे लिए तुमने कभी मन्नत माँगी? नौकर जवाब देता है, आपके पास तो सब कुछ है। आपके लिए क्या मांगूँ। कोई हो मेरे लिए मन्नत कर धागा बाँधने वाला तो मेरे लिए तुम्हारी एक चिट्ठी माँग दे। सिर्फ़ एक। काग़ज़ पर लिखी हुयी। तुम्हारी उँगिलयों की थरथराहट को समेटे हुए। तुम्हारे जीने, तुम्हारे साँस लेने और तुम्हारे ख़याल में किसी एक लम्हा धूमकेतू की तरह चमके मेरे ख़याल को भी।
आख़िर में बस एक छोटा सा पैराग्राफ़ यहाँ ख़ुद के लिए रख रही हूँ। किसी चीज़ की असली जगह कहाँ होती है। मैं जो बेहद बेचैन हुआ करती हूँ। एक जगह थिर बैठ नहीं सकती। आज अचानक लगा है। तुम बिछड़ गए हो इक उम्र भर के लिए। मेरे लिए आख़िर, सुकून की जगह, तुम्हारे दिल में बनी वो क़ब्र है जिसमें मेरी चिट्ठियाँ दफ़्न हैं।
***
2.4
कोर्बेट के मेमोयर का हिस्सा ‘मेरी आहट सुनते ही सारा जंगल छिप जाता था’ — वह लिखते हैं — और मुझे लगता था जैसे…”, वह एक क्षण को रुके, जैसे किसी फाँस को अपने पुराने घाव से बाहर निकाल रहे हों, “जैसे मैं किसी ऐसी जगह आ गया हूँ जो मेरी नहीं है।”
वह कुछ देर इसकी ओर आँखें टिकाए लेटे रहे। फिर कुछ सोचते हुए कहा, “हो सकता है — हमारी असली जगह कहीं और हो और हम ग़लती से यहाँ चले आएँ हों?” उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मैं हकबका सा गया।
“कौन सी असली जगह?” मैंने कहा, “इस दुनिया के अलावा कोई और जगह है?”
“मुझे नहीं मालूम, लेकिन जहाँ पर तुम हो, मैं हूँ, निरंजन बाबू हैं, ज़रा सोचो, क्या हम सही जगह पर हैं? निरंजन बाबू ने एक बार मुझे बड़ी अजीब घटना सुनायी…तुम जानते हो, उन्होंने फ़िलोसफ़ी तो छोड़ दी, लेकिन साधु-सन्यासियों से मिलने की धुन सवार हो गयी…जो भी मिलता, उससे बात करने बैठ जाते! एक बार उन्हें पता चला की कोई बूढ़ा बौद्ध भिक्षुक उनके बग़ीचे के पास ही एक झोंपड़ी में ठहरा है…वह उनसे मिलने गए, तो भिक्षुक ने बहुत देर तक उनके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं दिया…फिर भी जब निरंजन बाबू ने उन्हें नहीं छोड़ा, तो उन्होंने कहा — पहले इस कोठरी में जहाँ तुम्हारी जगह है, वहाँ जाकर बैठो…निरंजन बाबू को इसमें कोई कठिनाई नहीं दीखी। वह चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गए। लेकिन कुछ ही देर बाद उन्हें बेचैनी महसूस होने लगी। वह उस जगह से उठ कर दूसरी जगह जाकर बैठ गए, लेकिन कुछ देर बाद उन्हें लगा, वहाँ भी कुछ ग़लत है और वह उठ कर तीसरी जगह जा बैठे…उनकी बेचनी बढ़ती रही और वह बराबर एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहे…फिर उन्हें लगा जैसे एक ही जगह उनके लिए बची थी, जिसे उन्होंने पहले नहीं देखा था, दरवाज़े की देहरी के पास, जहाँ पहले अँधेरा था और अब हल्की धूप का चकत्ता चमक रहा था…वहाँ बैठते ही उन्हें लगा, जैसे सिर्फ़ कुछ देर के लिए — कि यह जगह सिर्फ़ उनके लिए थी, जिसे वह अब तक खोज रहे थे…जानते हो — वहाँ बैठ कर उन्हें क्या लगा…एक अजीब-सी शांति का बोध — उन्हें लगा उन्हें भिक्षुक से कुछ भी नहीं पूछना, उन्हें सब उत्तर मिल गए हैं, मन की सारी शंकाएँ दूर हो गयी हैं — वह जैसे कोठरी में आए थे, वैसे ही बाहर निकल आए…”
— अंतिम अरण्य