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18 May, 2019

… तुम्हारा घर होना है।

'मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है'।

उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता।  फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।

प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ। 

वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो। 

कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है। 

वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव… 

एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’ 

काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।

कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।

03 July, 2015

उन खतों का मुकम्मल पता रकीब की मज़ार है


क्या मिला उसका क़त्ल कर के? औरत रोती है और माथा पटकती है उस मज़ार पर. लोग कहते हैं पागल है. इश्क़ जैसी छोटी चीज़ कभी कभी पूरी जिंदगी पर भारी पड़ जाती है. अपने रकीब की मज़ार पर वह फूल रखती...उसकी पसंद की अगरबत्तियां जलाती...नीली सियाहियों की शीशियाँ लाती हर महीने में एक और आँसुओं से धुलता जाता कब्र का नीला पत्थर.
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शाम के रंग और विस्कियों के नशे वाले ख़त तुझे नहीं लिखे गए हैं लड़की. तुम किस दुनिया में रहती हो आजकल? उसकी दुनिया में हैं तितलियाँ और इन्द्रधनुष. उसकी दुनिया में हैं ज़मीन से आसमान तक फूलों के बाग़ कि जिनमें साल भर वसंत ही रहता है. वहां खिलते हैं नीले रंग के असंख्य फूल. उस लड़की की आँखों का रंग है आसमानी. तुम भूलो उस दुनिया को. गलती से भी नहीं पहुंचेगा तुम्हारे पास उसका भेजा ख़त कोई...कोई नहीं बुलाएगा तुम्हें रूहों के उस मेले में...तुम अब भी जिन्दा हो मेरी जान...इश्क़ में मिट जाना बाकी है अभी.
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हूक समझती हो? फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियां पढ़ो. समझ आएगी हूक. उसके घर के पास वाले नीम की निम्बोलियां जुबां पर रखो. तीते के बाद मीठा लगेगा. वो इंतज़ार है. हूक. उसकी आवाज़ का एक टुकड़ा है हूक. हाराकीरी. उससे इश्क़. क्यूँ. सीखो कोई और भाषा. कि जिसमें इंतज़ार का शब्द इंतज़ार से गाढ़ा हो. ठीक ठीक बयान कर सके तुम्हारे दिल का हाल.
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क्यूँ बनाये हैं ऐसे दोस्त? मौत की हद से वापस खींच लायें तुम्हें. उन्हें समझना चाहिए तुम्हारे दिल का हाल. उन्हें ला के देना चाहिए तुम्हें ऐसा जहर जिससे मरने में आसानी हो. ऐसा कुछ बना है क्या कि जिससे जीने में आसानी हो? नहीं न? यूँ भी तो 'इश्क एक 'मीर' भारी पत्थर है, कब दिले नातवां से उठता है.'.
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तुम ऐसा करो इश्क़ का इक सिम्प्लीफाईड करिकुलम तैयार कर दो. कुछ ऐसा जो नौर्मल लोगों को समझ में आये. तुम्हारी जिंदगी का कुछ तो हासिल हो? तुम्हें नहीं बनवानी है अपनी कब्र. हाँ. तुम्हें जलाने के बाद बहा दिया जाएगा गंगा में तुम्हारी अस्थियों को. मर जाने से मुक्ति मिल जाती है क्या? तुम वाकई यकीन करती हो इस बात पर कि कोई दूसरी दुनिया नहीं होती? कोई दूसरा जन्म नहीं होता? फिर तुम अपने महबूब की इक ज़रा आवाज़ को सहेजने के लिए चली क्यूँ नहीं जाती पंद्रह समंदर, चौहत्तर पहाड़ ऊपर. तुम बाँध क्यों नहीं लेती उसकी आवाज़ का कतरा अपने गले में ताबीज़ की तरह...तुम क्यूँ नहीं गुनगुनाती उसका नाम कि जैसे इक जिंदगी की रामनामी यही है...तुम्हारी मुक्ति इसी में है मेरी जान.
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तुमने कैसे किया उसका क़त्ल? मुझे बताओ न? क्या तुमने उसे एक एक सांस के लिए तड़पा तड़पा के मारा? या कि कोई ज़हर खिला कर शांत मृत्यु? बताओ न?
प्रेम से?
तुमने उसका क़त्ल प्रेम से किया?
प्रेम से कैसे कर सकते हैं किसी का क़त्ल?
छोटी रेखा के सामने बड़ी रेखा खींच कर?
तुम्हें लगता है वो मान गयी कि तुम ज्यादा प्रेम कर सकती हो?
क्या होता है ज्यादा प्रेम?
कहाँ है पैरामीटर्स? कौन बताता है कि कितना गहरा, विशाल या कि गाढ़ा है प्रेम?
सुनो लड़की.
तुम्हें मर जाना चाहिए.
जल्द ही. 

19 August, 2013

सताए हुए लोगों से पूछो रास्ता करार का


लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.

वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.

वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.

मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.

कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.

वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.

आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.

बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.

07 December, 2011

होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए...

यूँ कहने को तो वो सारा सामान मौजूद था कि जिससे तुम्हारी याद न आये...कहा यूँ भी जा सकता है कि तुम बिन जीने का सारा सामान मौजूद था...एक मेरे जैसे ही स्माल साइज़ में व्हिस्की (JD- यही कहते हो न तुम जैक डैनयल्स को ?), दो अदद बोतल बीयर, चार-पांच फ्लेवर्स में बकार्डी ब्रीजर...औरेंज, ब्लैकबेरी, लाइम और जमैकन पैशन...रंग बिरंगी बोतलों में बंद जिंदगी के रंगों से फ्लेवर्स या कि तुम्हारी याद के रंगों के...मार्लबोरो लाइट्स...पसंदीदा लाइटर...अपनी कार और खुली सडकें...हाँ रॉकस्टार के गाने भी, सीडी में पहला गाना ही था...मेरी बेबसी का बयान है, बस चल रहा न इस घड़ी...होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए. बड़ी मेहनत से एक साथ ये सारी चीज़ें जुगाड़ी थीं...तुम्हारे आने के पहले इतनी तनहा तो कभी नहीं थी मैं.

तो कायदे से होना ये चाहिए था कि तुम्हारी आवाजों के चंद कतरे कतार में लगा दूं और बाकी खालीपन को शराब और सिगरेट के नशे में डुबो दूं...प्यार होता है तो सबसे पहले खाना बंद हो जाता है मेरा...सुबह से एक कौर भी निगल नहीं पायी हूँ...पानी भी गले से नहीं उतरता...ड्राइव करते हुए आज पहली बार सिगरेट पी...ओह्ह्ह क्या कहूँ तुमसे प्यार करना क्या होता जा रहा है मेरे लिए...एक खोज, एक तलाश की तरह है कि जिसमें मैं अपने अंधेर कुएं में सीढ़ियाँ लगा कर उतरने लगी हूँ.

पर तुम्हारी ये आवाज़ के कतरे भी दुष्ट हैं, तुम्हारी तरह. सच्ची में, कमबख्त बड़े मनमौजी हैं...एक तो नशे के कारण थोडा बैलंस वैसे भी गड़बड़ाया है उसपर ये कतरे पूरे घर में उधम मचाते घूम रहे हैं...किसी दिन तुम्हारे प्यार में घर जला बैठूंगी मैं...अपनी हालत नहीं सम्हलती उसपर सिगरेट की मनमर्जी...उँगलियों से यूँ लिपटी है कमज़र्फ कि जैसे तुम्हारा हाथ थाम किसी न ख़त्म होने वाली सड़क पर चल रही हूँ.

पैग बना रही हूँ...बर्फ के टुकड़े खाली ग्लास में डालती हूँ तो बड़ी महीन सी आवाज़ आती है...जैसे शाम बात करते हुए तुमने अचानक से कहा था 'कितनी ख़ामोशी बिखर गयी है न!'...ये कैसी ख़ामोशी है कि चुभती नहीं...पिघलती है, कतरा कतरा...जैसे मैं पिघल रही हूँ...जैसे बर्फ पिघल रही है व्हिस्की में डूबते उतराते हुए. ग्लास पहले गालों से सटाती हूँ...पानी की ठंढी बूँदें चूम लेती हैं...कि जैसे पहाड़ों से उतर कर तुम आते हो और शरारत से अपनी ठंढी हथेलियों में मेरा चेहरा भर लेते हो...खून बहुत तेजी से दौड़ता है रगों में और कपोल दहक उठते हैं तुम्हारे होठों की छुअन से. उसपर तुम छेड़ देते हो कि तुम्हें शर्माना भी आता है!

तुमने किया क्या है मेरे साथ? मुझे लगता था कि जितनी पागल मैं आलरेडी हूँ, उससे आगे कुछ नहीं हो सकता  पर जैसे हर शाम कई नए आयाम खुल जाते हैं मेरे खुद के...जिंदगी उफ़ जिंदगी...इश्क का ऐसा रंग बचा भी है मुझे कब मालूम होना था. हर शाम ग्लास में एक आखिरी घूँट छोड़ देती हूँ...तुम कहोगे कि शराब की ऐसी बर्बादी नहीं करते...पर जानां, तुम नहीं समझोगे हर शाम उम्मीद करना क्या होता है...कि आखिरी घूँट तक शायद तुम आ जाओ इस इंतज़ार में रात कट जाती है.



इस सलीकेदार दुनिया में तुम्हें इसी पागल से प्यार होना था...अब? क्या करोगे? जाने दो इतनी बातें कि इनमें उलझ गए तो जिंदगी ख़त्म हो जायेगी और तुम्हें पता भी न चलेगा...जहाँ हो अपना ग्लास उठाओ...आज अलग अलग शहर में, एक आसमान के नीचे बैठ चलो इश्क के नाम अपने जाम टकराते हैं, चाँद गवाही देगा कि जिस लम्हे तुमने अपना जाम उठाया था, उसी लम्हे मैंने भी...चीयर्स!

06 December, 2011

उसकी आँखों का इंतज़ार अब भी कच्चा ही था...

फिर उसने कच्ची इमली दांतों से काट कर उसका खट्टापन ख़त्म होने के पहले आँखें मींचे मीचे मीचे ही पक्का वादा किया की वो आज के बाद उसे भूल जायेगी, एकदम से पक्का भूल जायेगी. यह कहते हुए उसकी आँखें बंद थीं और खट्टापन इतना था कि हमेशा की तरह उसे कुछ और सूझ नहीं रहा था...भिंची हुयी आँखों से कुछ दिख भी नहीं रहा था...और वादा उस छोटे से पल में ही मांग लिया गया था...गोया कि लड़के को पता था की आँखें खुलते ही लड़की उसकी कोई बात नहीं मानने वाली...और लड़की ने आँखें ऐसे भींची थीं जैसे सब सपना हो और आँखे खोलते ही पहले जैसी हो जायेंगे चीज़ें.

लड़की को चिंता इस बात की ज्यादा थी कि उसके चले जाने के बाद टिकोले के मौसम में सबसे पहले टिकोले कौन ला के देगा...लड़का जानता नहीं था कि उसका सबसे बड़ा कॉम्पिटिशन बाकी लड़के नहीं, टिकोले और इमलियाँ हैं...वो शायद लड़की से इतना बड़ा वादा करवाता भी नहीं. कौन सा हमेशा के लिए जा रहा था...डिफेन्स अकेडमी में भी छुट्टियाँ होती थी, वो भी बाकी कॉलेज के लड़कों की तरह घर आता. पर लड़के के मन में जाने क्या हुआ कि उसने बंद आँखों वाली लड़की से वादा मांग लिया. वैसे भी जब वो इमली या टिकोले खा रही होती थी उससे कुछ भी मांग लो मिल जाता था...उसकी धानी चूनर में जड़ा शीशा हो कि शहर से आई नयी कलम.

लड़की का नाम भी ऐसा था कि कहीं भूलती नहीं थी...जुगनू...किताबों में से उजाले की तरह झाँकने लगती थी. ऐसे में वो पढ़ाई कैसे करता. उसने पहले तो सोचा था कि जुगनू को कहेगा उसे चिट्ठियां लिखती रहे पर जुगनू का कभी पढ़ाई में मन लगे तब तो, सारे वक़्त इधर उधर दौड़ती मिलती थी...कच्चे अमरुद हों, आम के बौर आये हों, पेड़ में नयी नारंगी फली हो या कि अनार का लाल फल झाँक रहा हो उसे तो सब पेड़ों के सारे फल  याद रहते थे. इसके साथ उसे ये भी तो याद रहता था कि कब गाँव से कुछेक किलोमीटर वाली पक्की सड़क पर फ़ौज का ट्रक जाता था...उसे शायद याद नहीं रहता था, बस उसे पता चल जाता था...और फिर जुगनू उसका हाथ पकड़े मेड़ पर दौड़ती चलती थी...उसे बस ट्रक को देख कर हाथ हिलाना होता था.

वैसे तो पूरे गाँव को यकीं था कि जुगनू का फौजी भाई एक दिन लौट आएगा कहीं से पर सबसे ज्यादा यकीन जुगनू को था की भैय्या वापस आएगा. आश्चर्य ये था कि जुगनू को हर फौजी उसका भाई या भाई का दोस्त लगता था और वो पूरे मन से हर साल अनगिन राखियाँ भेजती थी, बहुत सारे पतों पर...जिन जिन पतों पर उसके भाई की पोस्टिंग थी, उन सभी पतों पर.

लड़का जानता था कि जुगनू इंतज़ार कर सकती है...पर वो नहीं चाहता था कि उसके खो जाने पर जुगनू की चिट्ठियां कोई और पढ़े...उसने जुगनू को तब भी देखा है जब कोई और नहीं देखता. गाँव में तो कोई यकीन ही न करे कि जुगनू रोती भी है, सब उसे बस हमेशा उधम मचाते और पेड़ों से भगाते ही रहते हैं...इसके अलावा भी कोई जुगनू है जो कितनी बार पेड़ की फुनगी के पास कहीं देखती है की जितनी दूर तक दिख रहा है वहां पर उसके भैय्या की वर्दी दिखाई पड़ी या नहीं...सिर्फ लड़के ने जुगनू का इंतज़ार देखा है. उसकी अधीरता...उसका हर शाम उदास होना देखा है.

जिस दिन जुगनू को बताया कि वो डिफेन्स अकैडमी जा रहा है, जुगनू की आँखें चमक उठी थीं...उसे जाने कैसे तो लगा था कि लड़का पक्का भैय्या को कहीं से ढूंढ लाएगा...या कोई अन्दर की बात बताएगा जो उसे कोई नहीं बताता...कुछ समझाएगा जो बाकी लोगों को समझ नहीं आता. लड़का घबराता था...जुगनू का दिल जाने कैसा तो होगा...उसे अकेले छोड़ने पर परेशान भी हो रहा था...पर फिर उसने जुगनू से वादा ले लिया था कि वो उसे भूल जायेगी, उसे ढूंढेगी नहीं, उसे चिट्ठियां भी नहीं लिखेगी.

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बहुत साल हुए जब जुगनू उसे दिखी...उसकी आँखों का इंतज़ार अब भी कच्चा ही था...आर्मी में डॉक्टर थी वो. जाने कैसे समय में इतना पढ़ लिया उसने कि AFMC की उतनी कठिन परीक्षा पास कर डॉक्टर बन गयी. लड़का मानता ही नहीं कि वो जुगनू है...शाम के धुंधलके में उस बहुमंजिली बिल्डिंग की छत पर एक आकृति दिखी थी उसे...कुछ बहुत जाना पहचाना था उसमें तो वो कुछ देर रुक गया. सिगरेट जलने की गंध से पलटा था तो जुगनू की आँखें नज़र आई थीं, लाइटर की रौशनी में.

दो आँखों में दो इंतज़ार पल रहे थे...दोनों इंतज़ार उतने ही सच्चे थे...लड़के ने आगे बढ़ कर जुगनू का एक इंतज़ार तो ख़त्म कर दिया...उस बात को भी बहुत साल हुए...दोनों के इर्द गिर्द एक घर उग आया...घर में खुशियाँ, गीत, डांस, पार्टियाँ सब आने लगी बारी बारी से. दुनिया का हिसाब किताब चलता रहा...सियासत न बदली थी, न बदली.

बहुत साल हुए...जितने में सब ख़त्म हो जाने लगा था...हाँ लेकिन दूसरा इंतज़ार अब भी दोनों बाँट कर करते हैं...

05 December, 2011

मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है.

वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार रहने लगा एक ख़ास वक़्त पर. मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैंने घड़ी की बेजान सुइयों के साथ तुम्हारी मुस्कराहट का रिश्ता बाँध दिया और मोबाईल की घंटी का अलार्म.

वक़्त के साथ परेशानी ये है कि ये हर शाम वहीं ठहर जाता है...मैं घड़ी को इग्नोर करने की पुरजोर कोशिश करती हूँ पर यकीन मानो मेरे दोस्त(?) मुझे भी उस वक़्त तुम्हारी याद आती है. कभी कभी छटपटा जाती हूँ पूछने के लिए...कि तुम ठीक तो हो...तुम्हारा कहना सही है, तुम्हारी फ़िक्र बहुत लोगों को होती है...इसी बात से इस बात की भी तसल्ली कर लेती हूँ कि जो लोग तुम्हारा हाल पूछते होंगे वो वाकई तुम्हारा ध्यान रखेंगे, मेरी तरह दूर देश में बैठ कर ताना शाही नहीं चलाएंगे. मुझे माफ़ कर दो कि मैंने बहुत सी शर्तें लगायीं...बहुत से बंधन बांधे... तुम कहीं बहुत दूर आसमानों के देश के हो, मुझे जमीनी मिटटी वाली से क्या बातें करोगे. मैं खामखा तुम्हें किसी कारवां की खूबसूरत बंजारन से शादी कर लेने को विवश कर दूँगी कि इसी बहाने तुम कहीं आस पास रहोगे.

तुम आसमानों के लिए बने हो मेरे दोस्त...अच्छा हुआ जो हमारी दोस्ती टूट गयी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए दो लम्हा भी रुका जाए...कई बार तो मुझे अफ़सोस होता है तुम्हारा वक़्त जाया करने के लिए. तुम्हारी जिंदगी में बेहतर लोग आ सकते थे...बेहतर किताबें हो सकती थीं, बेहतर रचनायें लिखी जा सकती थीं. तुम उस वक़्त का जाहिर तौर से कोई बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे...तुम्हारे दोस्त कुछ बेहतर लोग होने चाहिए...मैं नहीं...मैं बिलकुल नहीं. तुम कोई डिफेक्टिव पीस नहीं हो कि जिसे सुधारा जाए...मैं तुम्हें बदलते बदलते तोड़ दूँगी, मैं अजीब विध्वंसक प्रवृत्ति की हूँ.

तुम्हें पता है लोग कब कहते हैं की 'मुझसे दूर रहो'?
जब उन्हें खुद पर विश्वास नहीं होता...जब वो इतने कमजोर पड़ चुके होते हैं कि खुद तुमसे दूर नहीं जा सकते...तब वे चाहते हैं कि तुम उनसे दूर चले जाओ.


आज बशीर बद्र का एक शेर याद आया तुम्हारी याद के साथ...
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है 


मैं तुम्हारे बिना जीना सीख रही हूँ, थोड़ी मुश्किल है...पर जानते हो न, बहुत जिद्दी हूँ...ये भी कर लूंगी. 

हाँ, एक बात भूल गयी...

तुम मुझसे दूर ही रहो!


29 November, 2011

जिंदगी, रिवाईंड.

आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ  महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.

ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.

मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.

जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.

ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.

यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.

एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?

मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.

आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड. 

01 October, 2011

क्या कहते हो दोस्त, कुछ उम्मीद बाकी है क्या?

मंदिर का गर्भ-गृह है...मैं एक चुप दिए की लौ की तलाश में बहुत अँधेरे से आई हूँ, उम्मीद की एक नासमझ चिंगारी लिए. कैसा लगे कि अन्दर देवता की मूरत नहीं हो और उजास की आखिरी उम्मीद भी बुझ जाए. वाकई जिसे मंदिर समझा था, सुबह की धूप में कसाईघर निकले और जिस जमीन पर गंगाजल से पवित्र होने के लिए आये थे वहां रक्त से लाल फर्श दिखे. पैर जल्दी से उठाएं भी तो रखने की कहीं जगह न हो. जैसे एक सफ़ेद मकबरे(जिसे प्यार का सबूत कहते हैं लोग) के संगमरमरी फर्श पर भरी दुपहरी का हुस्न नापने निकले लोग पाँव जलने से बचने के लिए जल्दी जल्दी कदम रखते रहते हैं फिर भी पाँव झुलस ही जाते हैं. 

मैं सारी रात सो नहीं पायी और उलझे हुए ख्यालों में अपनी पसंद का धागा अलगाने की कोशिश करती रही. देखती हूँ कि मेरी आँखें कांच की हो गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में किसी लुप्त हुयी प्रजाति की खाल में भूसा भर कर रख दिया गया हो. कैसा लगे कि आखिर पूरी जिंदगी जिस मन और आत्मा के होने का सबूत लिए कागज़ काले करते रहे, मौत के कुछ पहले बता दिया जाए कि आत्मा कुछ नहीं होती...अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो बस ये तुम्हारा शरीर, कि जिसकी खाल उतारकर दुनिया तुम्हारे होने को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देगी. कांच की आँखों में तुम्हारा अक्स बेहद खूबसूरत दिखता है, और तुम इस ख्याल पर खुश हो लोगे. एक पूरी जिंदगी जीने से सिर्फ इसलिए रोक देना कहाँ का न्याय है कि तुम्हें मेरा शरीर चाहिए...ना ना, मांस भी नहीं कि जिसे खा के तुम्हारी क्षुधा तृप्त हो सके(तुम कितने सदियों के भूखे हो ओ मनुष्य)...ओह मनुष्य तुम कितने निष्ठुर हो. तुम क्या जानो जब ऐसे मेरे पूरे होने को ही नकार देते हो तो फिर मेरे शब्द किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते. 

मर जाने पर भी मरने क्यूँ नहीं देते...मुझे नहीं चाहिए अमरत्व...प्राणहीन...शुष्क...मत बचाओ मेरी आँखों की रौशनी, मुझे नहीं देखनी है ये दुनिया...बिना आँखों के ये दुनिया कहीं खूबसूरत लगती है. एक बात बताओ, मृत शरीर भी तुम्हें जीवंत क्यूँ दिखना जरुरी हो...मेरे प्राण लेने पर तुम्हें संतोष नहीं होता? 

कैथेड्रल, बर्न
बहुत जगह सुबह हो चुकी होगी...मेरा गाँव भी ऐसी जगह में से ही एक है. मगर तुम मेरे गाँव से चित्र चुराने आये हो, क्यूँ? मुझे नींद आ रही है अब...कल पूरी रात सो नहीं पायी हूँ. शाम को ही सुना था, कसाई नाप ले गया है...बकरा कटने के लिए तैयार हो गया है. 

मौत के बाद अँधेरे से आगे कुछ होगा? रौशनी होगी?

अगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता 


01 July, 2011

आवाज़ की गुमशुदा गलियों में


देर रात स्टूडियो में...ऑडियो कंसोल पर तुम्हारे आवाज़ की खुरदुरी नोकें हटा रहा हूँ...ये पिनक ऐसी है जिसे मैं चहकना कहता हूँ पर तुम्हारे सुनने वालों को तुम्हारी ठहरी हुयी आवाज़ पसंद आती है...गहरी नदी की तरह. ये काँट छाँट  इलीगल(illegal) कर देनी चाहिए.

यूँ लग रहा है जैसे पहाड़ी नदी पर बाँध बना रहा हूँ...उसकी उर्जा को किसी 'सही' दिशा में इस्तेमाल करने के लिए...गोया कि सब कुछ बहुतमत की भलाई (पसंद!) के लिए होना चाहिए. साउंड वेव देखता हूँ और बचपन में तुम्हारा झूला झूलना याद आता है कि तुम पींग बढ़ाते जाती थी...और जब तुम्हारे पैर शीशम के पेड़ की उस फुनगी को छू जाते थे तुम किलकारियां मार के हँसती थी...और फिर अगली बार में वहां से छलांग...तुम क्या जानो पहले बार तुम्हें वैसे कूदते देखा था तो कैसे कलेजा मुंह को आ गया था मेरा...मुझे लगा कि तुम गिर गयी हो...अब भी डर लगता है...तुम्हें खो देने का. मैं अपने कमरे की खिड़की से तुम्हें कभी देखता था, कभी सुनता था और कभी डरता था कि तुम्हारे पापा का ट्रांसफर मेरे पापा से पहले हो गया तो?

इतनी बार मेरी जिंदगी में आती जाती रही हो कि अब आदत लग जानी चाहिए...फिर भी तुम्हारे जाने की आदत कभी नहीं लगती. जाने कैसे तुम्हारा दिल्ली आना हुआ...और मेरा भी आल इण्डिया रेडियो ज्वाइन करना  हुआ. वैसे तो सब कहते थे तुम्हारी दिन रात के बकबक से कि तुम्हें रेडियो में होना चाहिए...तुम्हें यहाँ देख कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए...उस हिसाब से तो मैं यहाँ एकदम अनफिट हूँ...हमेशा से पढ़ाकू, चश्मिश...शांत, शर्मीला...पर जिंदगी ऐसी ही है. हमें मिलाना था...मगर तुम ठहरी जिद्दी...तुम्हारा रास्ता नहीं बदल सकी तो मेरा बदल दिया...और हम ऐसे ही स्टूडियो के आड़े तिरछे रास्तों में टकरा गए.

सोचता हूँ तुम्हारे ऑडियोग्राफ के मुताल्लिक एक मेरा ईसीजी भी निकला जाए...शायद ऐसा ही कुछ आएगा...जिगजैग...कि दिल की धड़कनें कहाँ कतार में चलती हैं...तुम्हारा नाम आया नहीं कि सब डिसिप्लिन ही ख़त्म हुआ जाता है...तुम्हारी आवाज़ का एको(echo) हो जाती हैं बस. 

सोच रहा हूँ तुम्हारा आवाज़ में 'आई लव यू' सुनना कैसा लगेगा.
शायद. परफेक्ट!

18 May, 2011

तोरा कौन देस रे कवि?

कई दिनों बाद कुछ लिखा था कवि ने, पर जाने क्यूँ उदास था...उसने आखिरी पन्ना पलटा और दवात खींच कर आसमान पर दे मारी...झनाके के साथ रौशनी टूटी और मेरे शहर में अचानक शाम घिर आई...सारी सियाही आसमान पर गिरी हुयी थी. 

आजकल लिखना भूल गयी हूँ, सो रुकी हुयी हूँ...कवि ने एक दिन बहुत जिरह की की क्यों नहीं लिख रही...उसकी जिद पर समझ आया पूरी तरह से की मेरे किरदार कहीं चले गए हैं. पुराने मकान की तरह खाली पड़ी है नयी कॉपी...बस तुम और मैं रह गए हैं. कैसे लिखूं कहानी मैं...कविता भी कहीं दीवारों में ज़ज्ब हो रही है. अबके बरसात सीलन बहुत हुयी न. सो.

बहुत साल पुरानी बात लगती है...मैं एक कवि को जाना करती थी...बहुत साल हो गए, जाने कौन गली, किस शहर है. पता नहीं उसने कभी मुझे ख़त लिखे भी या नहीं. वो मुझे नहीं जानता, या ये जानता है कि मैंने उसके कितने ख़त जाने किस किस पते पर गिरा दिए हैं. उसके पास तो मेरा पता नहीं है...उसे मेरा पता भी है क्या भला? चिठ्ठीरसां- क्या इसका मतलब रस में डूबी हुयी चिठियाँ होती हैं? पर शब्द कितना खूबसूरत है...अमरस जैसा मीठा. 

मैं किसी को जानती हूँ जो किसी को 'मीता' बुलाता है...उसका नाम मीता नहीं है हालाँकि...पहले कभी ये नाम खास नहीं लगा था...पर जब वो बुलाता है न तो नाम में बहुत कुछ और घुलने लगता है. नाम न रह कर अहसास हो जाता है...अमृत जैसा. जैसे कि वो नाम नहीं लेता, बतलाता है कि वो उसकी जिंदगी है. उसकी. मीता.

आजकल खुद को यूँ देखती हूँ जैसे बारिश में धुंध भरे डैशबोर्ड की दूसरी तरफ तेज रोशनियाँ...सब चले जाने के बाद क्या रह जाता है...परछाई...याद...दर्द...नहीं रे कवि...सब जाने के बाद रह जाती है खुशबू...पूजा के लिए लाये फूल अर्पित करने के बाद हथेली में बची खुशबू. मैं तुम्हें वैसे याद करुँगी. बस वैसे ही. 

22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

04 March, 2011

नीले पांवों वाली लड़की

बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे. 

उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.

लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.

उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.

लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.

सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.

उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए. 

16 February, 2011

मध्यांतर

उँगलियों को सिगरेट की अजीब सी तलब लगी है...मन बावरा भागते हुए फिर दिल्ली पहुँच गया है जहाँ घना कोहरा लैम्प पोस्ट से गिर रहा है...घनी ठंढ है और ऊँगली में फंसी हुयी है सिगरेट...कुछ कुछ कलम जैसी ही, बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...सिगरेट पीने की आदत नहीं है कभी, पीते हुए लिखने की तो एकदम ही नहीं...पर ऐसा खालीपन सा है कि लगता है लंग्स कोलाप्स कर जायेंगे...जैसे निर्वात है, वक्युम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये.

अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.

किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.

आह...काश!
कोई रात के ढाई बजे हों...अपनी बाइक उठा कर अकेली कहीं निकल पडूँ...किसी झील किनारे सिगरेट सुलगाऊं और तारों का अक्स धुएं के परदे के पार देखूं...फ्लास्क से निकाल के कॉफ़ी पियूं और उन सब लोगों को खुले आसमान के नीचे पुकारूं...इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कमसेकम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा.

उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!

17 January, 2011

किनारे पर डूबने की जिद

गहरे लाल सूरज के काँधे से
रात उतारती है लिबास उदासी का 
और दुपट्टे की तरह फैला देती है आसमान पर
हर बुझती किरण से कोहरे की तरह
बरस रही है उदासी

हर डूबते लम्हे में डूबती हूँ मैं
बुझती किरण का आँखों को छू जाना
जैसे सागर किनारे रेत पर
लेटी हुयी हूँ मैं
महसूसती हूँ लहरों को
चेहरे के ऊपर से जाते हुए
साँस-साँस खारा पानी
लहर गुज़र जाने तक

किनारे पर डूबने की जिद के मुख्तलिफ
तेरी याद जिरह करती है
उतरती हूँ गहरे ख़ामोशी में
गर्म कोलतार सी रात
पैर रोकती है

तनहा...उदास...सहमी सी
मौत का इंतज़ार करती हूँ
'जिंदगी' कितना बेमानी लफ्ज़ हो गया है.

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