उँगलियों को सिगरेट की अजीब सी तलब लगी है...मन बावरा भागते हुए फिर दिल्ली पहुँच गया है जहाँ घना कोहरा लैम्प पोस्ट से गिर रहा है...घनी ठंढ है और ऊँगली में फंसी हुयी है सिगरेट...कुछ कुछ कलम जैसी ही, बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...सिगरेट पीने की आदत नहीं है कभी, पीते हुए लिखने की तो एकदम ही नहीं...पर ऐसा खालीपन सा है कि लगता है लंग्स कोलाप्स कर जायेंगे...जैसे निर्वात है, वक्युम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये.
अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.
किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.
आह...काश!
उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!
अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.
किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.
आह...काश!
कोई रात के ढाई बजे हों...अपनी बाइक उठा कर अकेली कहीं निकल पडूँ...किसी झील किनारे सिगरेट सुलगाऊं और तारों का अक्स धुएं के परदे के पार देखूं...फ्लास्क से निकाल के कॉफ़ी पियूं और उन सब लोगों को खुले आसमान के नीचे पुकारूं...इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कमसेकम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा.
उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!
aaah pooja sach main. main bhi aisa hi mehsoos kar raha ho. 3 films dekh chuka hu kabhi lagta hai bahut kush hai andar jo likh nahi pa raha hu aur kabhi lagta hai ki bilkul virangi hai atma main. sach main kya khoob likha hai yaar aapne.
ReplyDeletevaise maine bhi cigrate se hi ise shair kiya hai fark itna hai ki apne proze likha hai aur main poem
शीर्षक में है जवाब इस प्रश्न का ...मध्यान्तर है ... बस खतम होगा ही।
ReplyDeleteकि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है..
ReplyDeleteऔर ऐसा लिखा हुआ पढने के बाद बहुत देर तक मैं भी वातशून्य से घिर जाता हूँ. खूबसूरत.
... ... ... ?
ReplyDeleteखुद को रिफ्रेश कीजिये... कंप्यूटर की भाषा में ऍफ़ फाइव ...
ReplyDeleteकुछ चुलबुले गाने सुनो और उनके साथ गुनगुना दो ..किसी बच्चे के गाल थपथपा दो ...किसी शांत मंदिर की घंटियाँ बजा दो ...उदासियाँ फिर भी साथ हो तो उनको पडोसी का पता दो !:)
ReplyDeleteये लिखना तो भूल ही गयी की शब्द कैसे चुने हैं की उदासी सामने खड़ी नजर आ रही है!
ReplyDeleteबकोल गुलज़ार ......
ReplyDeleteतुम्हारे गम की डली उठाकर
जबान पर रख ली है देखो मैंने
वो कतरा कतरा पिघल रही है
मै कतरा कतरा ही जी रहा हूँ
पिघल पिघल गले से उतरेगी आखरी बूँद दर्द की जब
मै सांस की आखिरी गिरह भी खोल दूंगा -
कब से ढूंढ रहा हूँ बटन एफ फाइव का.......
आधे आधे एहसास, तनहाई पूरी।
ReplyDeleteउफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!
ReplyDeleteदामन में कितनी उदासिया भरी पड़ी है..जाने कौन से रास्तो से गुजरी हो..
कहीं पढ़ा था पता नहीं किसका लिखा है-
ये तुमने ठीक कहा कि तुम्हे मिला न करूं,
मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम...
"बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...… निर्वात है, वैक्यूम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये."
ReplyDeleteआहहहहहहह…………… एक मुद्दत बाद इस शिद्दत की छटपटाहट मह्सूस हुई। ये सोच कर कुछ करार भी मिला कि हम अकेले नहीं हैं ऐसे मर्ज़ों के शिकार।
"इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कम से कम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा."
…………………… क्या कहूँ इस पर !
लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.
ReplyDeleteकिताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है ek baar tut kar apne mahboob ke sath ishak kar lijiye jindhgi ka sara pagal pan dur ho jayega
lagta hai is bhag dod ki duniya mai aapki ruh ishak ki khusbu ko bhul chuki hai ......
ReplyDeletesundar
ReplyDeleteकिसी दिन रास्ते में अचानक रुकना.. फिर दाये बाये देखना मुस्कुराना और फिर आगे बढ़ जाना..
ReplyDeleteज़िन्दगी कभी कभी सरप्राईज़ भी देती है..
सुन्दर गद्य!
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