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27 August, 2019

तुम धूप में कुम्हलाना मत

धूप से कुम्हलाता पौधा देखा है? जो कहीं थोड़ी सी छाँव तलाशता दिखे? कैसे पता होता है पौधे को कि छाँव किधर होगी... उधर से आती हवा में थोड़ी रौशनी कम होगी, थोड़ी ठंड ज़्यादा? किसी लता के टेंड्रिल हवा में से माप लेंगे थोड़ी छाँव?

भरी दुनिया की तन्हाई और उदासी में में तुम्हें कैसे तलाशती हूँ? ज़रा तुम्हारी आवाज़ का क़तरा? सालों से उतने की ही दरकार है।

हम ख़ुद को समझाते हैं, कि हमें आदत हो गयी है। कि हम नहीं चाहेंगे ज़रा कोई हमारा हाल पूछ ले। कि नहीं माँगेंगे किसी के शहर का आसमान। लेकिन मेरे सपनों में उसके शहर का समंदर होता है। मैं नमक पानी के गंध की कमी महसूस करती हूँ। बहुत बहुत दिन हो गए समंदर देखे हुए।

आज बहुत दिन बाद एक नाम लिया। किसी से मिली जिसने तुम्हें वाक़ई देखा था कभी। ऐसा लगा कि तुम्हारा नाम कहीं अब भी ज़िंदा है मुझमें। हमें मिले अब तो बारह साल से ऊपर होने को आए। बहुत साल तक whatsapp में तुम्हारी फ़ोटो नहीं दिखती थी, अब दिखने लगी है। मैं कभी कभी सोचती हूँ कि तुमने शायद अपने फ़ोन में मेरा नम्बर इसलिए सेव करके रखा होगा कि ग़लती से उठा न लो। तुम मेरे शहर में हो, या कि तुम्हारे होने से शहर मेरा अपना लगने लगा है? मुझे ज़िंदगी पर ऐतबार है...कभी अचानक से सामने होगे तुम। शायद हम कुछ कह नहीं पाएँगे एक दूसरे से। मैंने बोल कर तक़रीबन बारह साल बाद तुम्हारा नाम लिया था...पहली बार महसूस किया। हम किस तरह किसी का नाम लेना भूल जाते हैं।

ईश्वर ने कितनी गहरी उदासी की स्याही से मेरा मन रचा है। धूप से नज़र फेर लेने वाला मिज़ाज। बारिश में छाता भूल जाने की उम्र बीत गयी अब। आज एक दोस्त अपने किसी दोस्त के बारे में बता रहा था जिसकी उम्र 38 साल थी, मुझे लगा उसका दोस्त कितना उम्रदराज़ है। फिर अपनी उम्र याद करके हँसी आयी। मैंने कहा उससे, अभी कुछ ही साल पहले 40s वाले लोग हमसे दस साल बड़े हुआ करते थे। हम अब उस उम्र में आ गए हैं जब दोस्तों के हार्ट अटैक जैसी बातें सुनें... उन्हें चीनी कम खाने की और नियमित एक्सर्सायज़ करने की सलाह दें। जो कहना चाहते हैं ठीक ठीक, वो ही कहाँ कह पाते हैं। कि तुम्हारे होने से मेरी ज़िंदगी में काफ़ी कुछ अपनी जगह पर रहता है। कि खोना मत। कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे।

अब वो उम्र आ गयी है कि कम उम्र में मर जाने वाले लोगों से जलन होने लगे। मेरे सबसे प्यारे किरदार मेरी ज़िंदगी के सबसे प्यारे लोगों की तरह रूठ कर चले गए हैं, बेवजह। अतीत तक जाने वाली कोई ट्रेन, बस भी तो नहीं होती।

क़िस्से कहानियों के दिन बहुत ख़ूबसूरत थे। हर दुःख रंग बदल कर उभरता था किसी किरदार में। मैं भी तलाशती हूँ दुआएँ बुनने वाले उस उदास जुलाहे को। अपने आत्मा के धागे से कर दे मेरे दिल की तुरपाई भी। लिखना हमेशा दुःख के गहरे स्याह से होता था। लेकिन मेरे पास हमेशा कोरे पन्ने हुआ करते थे। धूप से उजले। इन दिनों इतना दुःख है कि अंधेरे में मॉर्फ़ कर जाता है। देर रात अंधेरे में भी ठीक ठीक लिखने की आदत अब भी बरक़रार है। लेकिन अब सुबह उठ कर भी कुछ पढ़ नहीं पाती। स्याह पन्ने पर स्याह लिखाई दिखती नहीं।

नींद फिर से ग़ायब है। इन रातों को जागे रहने का अपराध बोध भी होता है। कि जैसे आदत बनती चली गयी है। बारह से एक से दो से तीन से चार से पाँच से छह बजने लगते हैं। मैं सो नहीं पाती। इन दिनों कार्पल टनल सिंड्रोम फिर से परेशान कर रहा है। सही तरीके से लिखना ज़रूरी है। पीठ सीधी रख के, ताकि नस न दबे। spondilytis के दर्द वाले बहुत भयानक दिन देखे हैं मैंने। सब उँगलियों की झनझनाहट से शुरू होता है।

पिछले कई महीनों से बहुत ख़ूबसूरत काग़ज़ देखा था ऐमज़ान पर। लेकिन इंपोर्ट ड्यूटी के कारण महँगा था काफ़ी। सोच रहे थे अमरीका जाएँगे तो ख़रीद लेंगे। फिर ये भी लगता रहा, इतने ख़ूबसूरत काग़ज़ पर किसे ख़त लिखेंगे। आइवरी रंग में दो फ़िरोज़ी ड्रैगनफ़्लाई बनी हुई हैं। आज ख़रीद लिया। फिर चेरी ब्लॉसम के रंग की जापानी स्याही ख़रीदी, गुलाबी। जब काग़ज़ आएगा तो शायद कोई इजाज़त दे भी दे, कि लिख लो ख़त मुझे। तुम्हें इतना अधिकार तो दे ही सकते हैं।

मेरी चिट्ठियों से प्यार हो जाता है किसी को भी...क्या ही कहूँ, मनहूस भी नहीं कह सकती उन्हें...बेइमानी होगी।

आज फ़राज़ का शेर पढ़ा कहीं। लगा जान चली ही जाएगी अब।
"दिल को तेरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता"

मुझे प्यार मुहब्बत यारी दोस्ती कुछ नहीं चाहिए। जब ऑर्डर वाला काग़ज़ आ जाए, मुझे ख़त लिखने की इजाज़त दे देना, बस।
प्यार।

18 January, 2012

जान तुम्हारी सारी बातें, सुनती है वो चाँद की नानी

जान तुम्हारी सारी बातें
सुनती है वो चाँद की नानी
रात में मुझको चिट्ठी लिखना
सांझ ढले तक बातें कहना

जरा जरा सा हाथ पकड़ कर
इस पतले से पुल पर चलना
मैं थामूं तुम मुझे पकड़ना
इन्द्रधनुष का झूला बुनना 

रात इकहरी, उड़ी टिटहरी
फुग्गा, पानी, धान के खेत
बगरो बुड़बक, कुईयाँ रानी 
अनगढ़ बातें तुमसे कहना 

कितने तुम अच्छे लगते हो
कहते कहते माथा धुनना 
प्यार में फिर हो पागल जैसे
तुमसे कहना, तुमसे सुनना 

लड़की ने गहरा गुलाबी कुरता डाल रखा था और उसपर एकदम नर्म पीले रंग की शॉल...शाम चार बजे की धूप में उसके बाल लगभग सूख गए थे...कंधे तक बेतरतीबी से अनसुलझे बाल...धूप में चमकता गोरा रंग...चेहरे पर हल्की धूप पड़ रही थी और वो सूरज की ओर आधा चेहरा किए खून के गरम होने को महसूस कर रही थी...लग रहा था महबूब की हथेली को एक हाथ से थामे गालिब को पढ़ रही है। 

शाम के रंग एक एक कर के हाज़िरी देने लगे थे...गुलाबी तो उसे कुर्ते को छोड़ कर ही जाने वाला था की उसने मिन्नतें करके रोका की सफ़ेद कुर्ते पर इश्क़ रंग चढ़ गया तो रात की सारी नींदें उससे झगड़ा कर बैठेंगी। लोहे की सीढ़ियों पर थोड़ी ही जगह थी जहां लड़की थोड़ा सा दीवार से टिक के बैठी थी और लड़का कॉपी पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। आप गौर से देखोगे तो पाओगे की पूरी कॉपी में बस एक नाम लिखा हुआ था और कोरे कागज़ पर तस्वीरें थीं...उनमें एक बड़ा दिलफ़रेब सा कच्चापन था...आम के बौर जैसा। सरस्वती पूजा आने में ज्यादा वक़्त रह भी नहीं गया था...बेर के पेड़ों से फल गिरने लगे थे। कहते हैं कि विद्यार्थियों को वसंत पंचमी के पहले बेर नहीं खाने चाहिए...वो पूजा में चढ़ने के बाद ही प्रसाद के रूप में खाने चाहिए। 

लड़का ये सब नहीं सोच रहा था...लड़की के बालों से ऐसी खुशबू आ रही थी कि उसका कुछ लिखने को दिल नहीं  कर रहा था...दोपहर का बचा हुआ ये जरा सा टुकड़ा वो अपने जींस की जेब में भर कर वहाँ से चले जाना चाहता था...पर लड़की की जिद थी कि जब तक बाल नहीं सूखेंगे वो छत से उतरेगी नहीं। उसने थक कर अपनी कॉपी बंद कर दी...लड़की ने भी गालिब को बंद किया और उसकी कॉपी उठा कर देखने लगी। उसका दिल तो किया कि कुछ शेर जो बहुत पसंद आए हैं वो लिख दे...पर ये बहुत परफेक्ट हो जाता। उसे परफेक्शन पसंद नहीं था...प्यार की सारी खूबसूरती उसके कच्चेपन, उसकी मासूमियत, उसके अनगढ़पन में आती थी उसे। बाल धोने के बाद की टेढ़ी-मेढ़ी मांग जैसी। 

इसलिए उसने कॉपी पर ये कविता लिख दी...ये एकदम अच्छी कविता नहीं है...इसमें कुछ भी सही नहीं है...पर इसमें खुशबू है...जिस एक दोपहर के टुकड़े दोनों एक दूसरे के साथ थे, उस दोपहर की।  इसमें वो तीन शब्द नहीं लिखे हुये हैं...पर मुझे दिखते हैं...तुम्हें दिखते हैं मेरी जान?

10 January, 2012

तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

जान,
अच्छा हुआ जो कल तुम्हारे पास वक़्त कम था...वरना दर्द के उस समंदर से हमें कौन उबार पाता...मैं अपने साथ तुम्हारी सांसें भी दाँव पर लगा के हार जाती...फिर हम कैसे जीते...कैसे?

बहुत गहरा भंवर था समंदर में उस जगह...पाँव टिकाने को नाव का निचला तल भी नहीं था...डेक पर थोड़ी सी जगह मिली थी जहाँ उस भयंकर तूफ़ान में हिचकोले खाती हुयी कश्ती पर खड़ी मैं खुद को डूबते देख रही थी. कहीं कोई पतवार नहीं...निकलने का कोई रास्ता नहीं...ऐसे में तुम उगते सूरज की तरह थोड़ी देर आसमान में उभरे तो मेरी बुझती आँखों में थोड़ी सी धूप भर गयी...उतनी काफी है...वाकई.

अथाह...अनन्त...जलराशि...ये मेरे मन का समंदर है, इसके बस कुछेक किनारे हैं जहाँ लोगों को जाने की इज़ाज़त है मगर तुम ऐसे जिद्दी हो कि तुम्हें मना करती हूँ तब भी गहरे पानी में उतरते चले जाते हो...कितना भी समझाती हूँ कि उधर के पानी का पता नहीं चलता, पल छिछला, पल गहरा है...और तुम...तुम्हें तो तैरना भी नहीं आता...जाने क्या सोच के समंदर के पास आये थे...क्या ये कि प्यास लगी है...उफ़ मेरी जान, क्या तुम्हें पता नहीं है कि खारे पानी से प्यास नहीं बुझती?

मेरी जान, तुम बेक़रार न हो...मैंने कल खुदा की दूकान में अपनी आँखों की चमक के बदले तुम्हारे जिंदगी भर का सुकून खरीद लिया है...यूँ तो सुकून की कोई कीमत नहीं हो सकती...कहीं खरीदने को नहीं मिलता है...पर वैसे ही, आँखों की चमक भी भला किस बाज़ार में बिकी है आजतक...उसमें भी मेरी आँखें...उस जौहरी से पूछो जिसने मेरी आँखों के हीरे दीखे थे...कि कितने बेशकीमती थे...बिलकुल हीरे के चारों पैमाने पर सबसे बेहतरीन थे  'The four Cs ', कट, कलर, क्लैरिटी और कैरट...बिलकुल परफेक्ट डायमंड...५८ फेसेट्स वाले...जिसमें किसी भी एंगल से लाईट गिरे वापस रेफ्लेक्ट हो जाती थी...एकदम पारदर्शी...शुद्ध...उनमें आंसू भर की भी मिलावट नहीं थी...और कैरट...उस फ़रिश्ते से पूछे जिसने मेरी आँखों से ये हीरे निकाले...खुदा के बाज़ार में ऐसा कोई तराजू नहीं था कि जो तौल सके कि कितने कैरट के हैं हीरे. सुना है मेरी आँखों की चमक के अनगिन हिस्से कर दिए गए हैं...दुनिया के किसी हिस्से में ख़ुशी कम होती है तो एक हिस्सा वहां भेज दिया जाता है...आजकल खुदा को इफरात में फुर्सत है.

मेरी आँखें थोड़ी सूनी लगेंगी अब...पर तुम चिंता मत करना...मैं तुमसे मिलने कभी नहीं आ रही...और जहाँ ख़ुशी नहीं होती वहां गम हो ऐसा जरूरी तो नहीं. तुम जिस जमीन से गुज़रते हो वहां रोशन उजालों का एक कारवां चलता है...मैं उन्ही उजालों को अपनी आँखों में भर लूंगी...जिंदगी उतनी अँधेरी भी नहीं है...तुम्हारे होते हुए...और जो हुयी तो मुझे अंधेरों का काजल बना डब्बे में बंद करना आता है.

कल का तूफ़ान बड़ा बेरहम था मेरी जान, मेरी सारी सिगरेटें भीग गयीं थी...माचिस भी सील गयी...और दर्द के बरसते बादल पल ठहरने को नहीं आते थे...मेरी व्हिस्की में इतना पानी मिल गया था कि नशा ही नहीं हो रहा था वरना कुछ तो करार मिलता...तुम भी न...पूछते हो कि मैंने पी रखी है...उफ़ मेरे मासूम से दिलबर...तुम क्या जानो कि किस कदर पी रखी है मैंने...किस बेतरह इश्क करती हूँ तुमसे. खुदा तुम्हें सलामती बक्शे...तुम्हारे दिन सोने की तरह उजले हों...तुम्हारी रातों को महताब रोशन रहे, तारे अपनी नर्म छाँव में तुम्हारे ख्वाबों को दुलराएँ.

मैं...मेरी जान...इस बार मुझे इस इश्क में बर्बाद हो जाने दो...टूट जाने दो...बिखर जाने दो...मत समेटो मुझे अपनी बांहों में कि इस दर्द, इस तन्हाई को जीने दो मुझे...ये दर्द मुझे पल पल...पल के भी सारे पल तुम्हारी याद दिलाता है...मेरी जान, ये दर्द बहुत अजीज़ है मुझे.









जान, अच्छा हुआ जो तुम्हारे पास वक़्त कम था...उस लम्हा मौत मेरा हाथ थामे हुयी थी...तुम जो ठहर जाते मैं तुमसे दूर जैसे जा पाती...तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

दुआएं,
वही...तुम्हारी.

14 December, 2011

जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...

ये वही दिन थे
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें


ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी

ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था 
दिल की दीवारों से 
रिस रिस के आते दर्द को 
रोकने को बाँध नहीं बना था 

वही दिन 
कि जब फोन काट दिया जाता था
आखिरी रिंग के पहले वाली रिंग पर
कि बर्दाश्त नहीं होता
कि उसने पहली रिंग में फोन नहीं उठाया 

कि दिन भर 
प्रत्यंचा सी खिंची
लड़की टूटने लगती थी
थरथराने लगती थी 
घबराने लगती थी 

ये वही दिन थे
जब कि बहुत बहुत बहुत 
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद 
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे

ये वही दिन थे
मैं चाहती थी
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता

04 February, 2011

कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

तुम्हें मालूम कहाँ रात के टूटे वो पहर
कि आधी नींद लेके बदगुमान थे बहुत हम
जब कि ख्वाब में भी तुमने हाथ छोड़ा था
कि आधे जागने में भी मुझसे दूर थे बहुत तुम

हाँ वो बातें ही थी, कोरी ख्याली बातें थी
बस तुम कहते थे तो लगता था सच से रिश्ता है
तुम कहा करते थे मैं खूबसूरत हूँ बहुत
ये भी तो कहते थे इश्क हमेशा सा होता है

तुम्हें याद है तुम मुझको 'जान' कहते थे
मुझे गुरूर था मैं तुमको 'तुम' बुलाती हूँ
आज लफ़्ज़ों में आवाज़ ढूंढती हूँ फिर
मैं फिर उदास होके तुमको 'ग़म' बुलाती हूँ


ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

28 January, 2011

मौसम मिस-मैनेजमेंट

तुम ही नहीं आये हो बस, वरना इस साल के मौसमों में तो कोई खराबी नहीं है.

बारिश कमोबेश पूरे दो महीने रही है, और पूरे वक़्त मेरी चाही हुयी शामों को फुहारें पड़ी हैं...गिनाई हुयी दोपहरों को मूसलाधार बारिश हुयी है ताकि मुझे अपने ऑफिस डेस्क पर बारिश का शोर सुनाई पड़ता रहे और व्यस्तताओं वाले दिन मैं बारिश को महसूस करने के लिए काम का हर्जा ना करूँ. बादल सामने मुंह फुला कर खड़े हैं कि हमारी कोई गलती नहीं है फिर भी डांट सुनवाती हो. अब तुम इस बारिश नहीं आये तो उदास थी मैं...बाकी सबने को पूरी कोशिश की थी.

कोहरा एक कोने में बिसूर रहा है कि अब तो तुम्हारी जिद पर बंगलोर भी आना पड़ा मुझे...दिल्ली कितनी खफा थी, पर तुम्हारे लिए मुंह अँधेरे उठ कर भागता आया हूँ...याद है पिछली लॉन्ग ड्राइव, तुम चार बजे उठ कर नंदी हिल्स जाना चाहती थी, ख्वाब में कोहरा देखा था तुमने...तुम्हारे एक ख्वाब की खातिर हांफता दौड़ता कितनी दूर पहाड़ों से भागा आया तुम्हारे घर के नीचे...कि तुम्हारे रास्ते कि शुरुआत हसीन हो...अब तुम अकेले क्यों जा रही थी इसका मुझसे क्या लेना देना. मेरी शिकायत लगाने की क्या जरूरत थी? इस साल जाड़ों का मौसम था भी तो एकदम परफेक्ट...ठंढ बस इतनी कि उसके बहाने तुम्हारा हाथ अपने हाथों में ले सकूँ...ज्यादा ठंढ पड़ती तब तो मुझे ही डांट देते ना कि दस्ताने लेकर चला करो. पर तुम आये ही नहीं तो जाड़ों के इस मौसम का करती भी तो क्या.

हाँ गर्मी थोड़ी बदतमीज थी...पर उससे कब उम्मीद रही है सुधरने की...मौसमों के स्कूल की सबसे जिद्दी बद्द्दिमाग बच्ची...कुछ कुछ मुझे अपने बचपन की याद भी तो दिलाती है...लू के थपेड़े, आलसी दोपहरें जिनमें करने को कुछ ना हो...कॉलेज की भी छुट्टी...पर गर्मियों में गमलों में पहली बार फूल खिले थे, घर में कश्मीर की वादी उतर आई थी. तुम्हें याद है जब तुम्हारे बिना कश्मीर गयी थी, उधर पतझड़ का मौसम था और मैंने कितने सूखे पत्ते उठा लिए थे...तुम्हें छोड़ कर आते हुए तुम्हारे चेहरे की तरह जर्द थे पत्ते...खूबसूरत और उदास.

पर हर मौसम से ज्यादा खफा है मुझसे बहार...वो तो अपनी सखी थी, बचपन की दोस्त, आत्मा का अंश...कि जिसके खिलते अमलतास ने हर ज़ख्म पर फाहे रख दिए हैं...लहकते गुलमोहर ने ही तो सिखाया है कि किस तरह प्यार हर खालीपन को भर देता है...जमीन तक पर लाल पंखुड़ियों की चादर बिछ जाती है...इस बार बहार के आने पर मैं उसके गले नहीं लगी. ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था...ऐसा कोई भी दर्द तो नहीं तो उसको नहीं पता. फिर तुम्हारे नहीं होने का ये कौन सा ज़ख्म है जिसे किसी से बांटना भी नहीं चाहती मैं.

साल के सारे मौसम अपनी अपनी पारी खेल कर जा चुके हैं...खुदा हाथ बांधे कमरे में इधर से उधर टहल रहा है, मैं बोल रही हूँ कि इनके प्रॉब्लम identification डिपार्टमेंट में गड़बड़ है...समस्या कभी भी मौसमों की थी ही नहीं...खामखा कितने लोगों को काम में लगा दिया. सीधी सी समस्या थी...तुम्हारा मेरे पास ना होना...उसका उपाय करते तो मैं कितनी खुश रहती...पर इनको  पूरा साल लगा ट्रायल और एरर में...अब जा के समझ आया है. रिसोर्सेस की बर्बादी...कोहरा, बादल, गर्मी, गुलमोहर...सब परशान रहे एक मुझे खुश रखने के लिए...खुदा ने बस तुम्हें भेज दिया होता.

मौसमों का नया साल शुरू होने को है...तुम कब आ रहे हो जान?

06 January, 2011

एक लेखक का कन्फेशन- २

वो:   क्या लिख रही हो?
मैं:   कुछ
वो:   कुछ माने? तुमको पता नहीं है कि क्या लिख रही हो.
मैं:   नहीं
वो:   तो फिर क्यों लिख रही हो? लिखने का कोई मकसद, कोई मंजिल होनी चाहिए ना?
मैं:   अच्छा? ऐसा होना जरूरी है क्या? और अगर ना हो तो, लिखने का कोई तयशुदा मकसद ना तो हो, लिखना लिखना नहीं       रहेगा? तो फिर क्या रह जाएगा? मकसद?
वो:   मैंने तो बस यूँ ही पुछा था कि क्या लिख रही हो, तुम तो मुझे ही सवालों से बाँधने लगी. आजकल तुम इतने सवाल करने लगी हो, पहले तुम कितनी खुशगवार बातें किया करती थी.
मैं:   तुम्हें संतोष हो जाएगा अगर मैं ये कहूँ कि मैं तुम्हें भुलाने के लिए बहुत से किरदार रच रही हूँ जो बिलकुल तुम्हारे जैसे नहीं हैं? कि मैं बहुत सी कहानियां लिख रही हूँ जो तुम्हारी बात कहीं भी नहीं कहते...तुम मान लोगे कि मैं तुम्हें याद ना करने के लिए अपनी कलम इस्तेमाल करती हूँ. लोगों को जैसे पी के नशा होता है मुझे लिख के होता है, या कहो...लिखने के दौरान होता है.
वो:   तुम मुझे भुलाना चाहती क्यों हो, मेरे होने के साथ जीना इतना मुश्किल तो नहीं है.
मैं:   मुश्किल तो नहीं है, सच कहते हो...मुश्किल तो सिगरेट ना पीना है, मुश्किल तो ये सोचना है कि आज ग्लास में कितनी आइस क्यूब्स डालूं...या फिर सर्दी है थोड़ी, नीट पी लूं क्या, मुश्किल तो ये सारे निर्णय हैं. तुम्हारे होने के साथ जीना तो इनके सामने खिलवाड़ लगता है. तुम समझ रहे हो ना?
वो: जान...अगर मैं कहूँ कि सिगरेट और शराब छोड़ तो तो प्लीज ऐसा करोगी?
मैं:    नहीं, तुम्हें ये कहने का कोई हक नहीं है.
वो:   आजकल तुम अबूझ होती जा रही हो मेरे लिए.
मैं:   अच्छा है...इसी तरह अबूझ होते हुए अनजान होकर तुम्हारे लिए भूलने लायक हो जाउंगी, जो बातें समझ में नहीं आती उन्हें याद रखना हद दर्जे का मुश्किल काम है...कुछ कुछ वैसा जैसे कि सुबह डिसाइड करना कि आज तुमसे मिलने कौन से कपड़े पहन कर आऊं. शायद एक दिन ऐसा आएगा जब मुझे सचमुच यकीन हो जाए कि कपड़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता...कि तुम मेरी रूह से प्यार करते हो.
वो:   करता हूँ...तुम्हारी रूह से प्यार करता हूँ, पर एक बात समझाओ. प्यार तो हमेशा अपनी जगह था, प्यार होने के लिए तुम्हारे पास होना जरूरी नहीं होता. फिर जब तुम पास नहीं होती हो, याद किसकी आती है? प्यार कहीं चला तो नहीं जाता...याद तो इस खुशबू की आती है ना, तुम्हारी उँगलियों की आती है जो मेरी उँगलियों में फंसी हुयी हैं. मेरे कंधे पर जो तुम सर टिकाये बैठी हो इस अहसास की आती है. फिजिकली पास होना भी उतना ही जरूरी है.
मैं:   मुझे लगता है मैं ये कहानी पूरी नहीं कर पाउंगी.
वो:   क्यों?
मैं:   सच और झूठ के बीच की लकीरें धुंधलाने लगी हैं. मुझे लगता है मैंने आज कुछ ज्यादा पी ली है...वो तुम्हारे आने की ख़ुशी और तुम्हारे जाने का ग़म एक साथ था ना, इसलिए. तुम यूँ एक दिन के लिए मुझसे मिलने मत आया करो.
वो:   देखो...अल्कोहल हेल्थ के लिए ठीक नहीं होता.
मैं:  नहीं, मोडरेट क्वांटिटी में अल्कोहल दिल के लिए अच्छा होता है, ऐसा रिसर्च में आया है. और चूँकि दिल में तुम रहते हो तो अल्कोहल तुम्हारे लिए भी फायदा करेगा. तुम्हारे लिए पी रही हूँ जान.
वो:  सुबह होने को आई, उजास फूट रही है.
मैं:  तुम्हारे जाने वाली सुबह...कितनी चुभती है.
वो:   मैं बैठा हूँ...तुम कहानी पूरी कर लो, फिर जाऊँगा.
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उसने कभी कहानी पूरी नहीं की...हर बार वो देर रात तक एक कहानी की बातें करते थे. उसे कहानी लिखनी थी, पर पूरी नहीं करनी थी क्योंकि उसके हमराही का वादा था कहानी पूरी होने तक साथ रहने का.
उसकी कलम में स्याही की जगह शराब भरी होती थी...वो लिखती थी तो उसे नशा चढ़ता था, वो पीती थी तो उसे लिखने का मन करता था.
कहानी मुकम्मल नहीं थी...पर लिखना, बेहद मुकम्मल हुआ करता था.

22 December, 2010

तुम्हारे आने का कौन सा मौसम है जान?

जान...आज जाने कितने साल हो गए तुम्हें एक नज़र देखे हुए. अभी अभी लॉन्ग ड्राइव से लौटी हूँ. ड्राइविंग लाइसेंस एक्सपाइर होने वाला है, उसको रिन्यू कराने के पहले के कई सारे कागजातों का पुलिंदा है, मेडिकल सर्टिफिकेट है, इन सबके बीच कमजोर होती नज़र है...उम्र का तकाजा वाले कुछ मूड स्विंग्स हैं.

सोचती हूँ कि इस लाइसेंस के ये आखिरी दिन थोड़ी दूर तक ड्राइव करती चली जाऊं, कौन जाने किस शहर में, किस ट्राफिक सिग्नल पर तुम दिख जाओ. जबसे तुमने मना किया है गाड़ी तेज नहीं चलाती हूँ. वैसे तो मेरा आज भी मानना है कि मुझे अगर किसी ट्रैफिक एक्सीडेंट में मरना होगा तो पैदल चलते हुए मरूंगी, गाड़ी चलाते हुए नहीं. पर क्या करूँ, जाते हुए तुम्हारा आखिरी फरमान जो था...गाड़ी ठीक से चलाना. सोचती हूँ, तुम्हें पता होगा क्या कि वो हमारी आखिरी मुलाक़ात होगी? बोलना ही था तो कुछ अच्छा कहते...अपना ख्याल रखना, मैं तुमसे हमेशा प्यार करता रहूँगा, मुझे याद तो रखोगी न टाइप कुछ...मगर गाड़ी ठीक से चलाना?! ये कोई बात है आखिरी मुलाक़ात में कहने की.

कार अब तक जाने कितनी दूर आ चुकी है...शायद उतनी ही जितनी मैं खुद, जितनी दूरी मेरे तुम्हारे बीच खिंच गयी है कुछ उतनी? आजकल मौसम में ठंढ बहुत बढ़ गयी है और मैंने एक बार अपनी तबियत का ख्याल न रखते हुए(तुम्हें याद तो है न तुमने मुझे अपना ख्याल रखने नहीं कहा था?) मैंने खिड़की के शीशे उतार दिए. गाल लगभग सुन्न ही हो गए थे...चश्मे पर भी भाप सी जमने लगी थी. आँख के आंसू हवा में घुलने लगे थे और कार के शीशे पर भी पानी की नन्ही नन्ही बूँदें ठहरने लगी थीं.

घर पर हूँ और सोच रही हूँ कि आज के सूचना और टेक्नोलोजी के ज़माने में ऐसा कैसे मुमकिन है कि कहीं तुम मुझे ढूंढ ना पाओ. जिस जमाने में ये सब कुछ नहीं था तब भी तुम मुझे ढूंढ निकालते थे...याद है वो नए साल का सरप्राइज जब तुम हॉस्टल की दीवारें फांद कर बस मुझसे मिलने आये थे एक लम्हे के लिए बस. वो लिफ्ट में जब तुमने कहा था 'किस मी' तुम्हें याद है कि चलती लिफ्ट के वो भागते सेकंड्स जब भी याद करती हूँ हमेशा स्लो मोशन में चलते हैं.

बहुत साल हो गए जान...अफ़सोस कि मैं एक स्त्री हूँ इसलिए ये नहीं कह सकती...कि जान मैंने सात पैग व्हिस्की पी है, दो डब्बे सिगरेट फूंकी है और तब जा के कहने की हिम्मत कर पायी हूँ...काश कि ऐसा होता मेरी जान. पर मैंने कोई नशा नहीं किया है...तुम्हारी याद को ताउम्र जीते हुए, आज इस सांझ में तुम्हारी आँखों में आँखें डाल कर कहना चाहती हूँ 'मुझे लगता है मुझे तुमसे प्यार हो गया है जान...काश तुम सामने होते तो तुम्हारे होठों को चूम सकती'.

Some people come in your life for a reason, some people come in life for a season and some people come in your life for-ever.

'तुम्हारी बहुत याद आती है जान...किसी रोज आ जाओ अब...बहुत कम जिंदगी बाकी है'

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