14 December, 2012

खोये हुए लोग कहाँ चले जाते हैं?

बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था...मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी. सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता. मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना...मर जाने में एक स्थायित्व है. लोग रो पीट कर समझा लेते हैं...कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं. लेकिन खोये हुए लोग अपने पीछे एक इंतज़ार छोड़ जाते हैं. फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहाँ उसका हाथ छूटा था. सब कुछ लौट लौट कर वहीं आता है.

मुझे एक ज़माने में खो जाने का मन करता था...लुका छिप्पी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूँ तो? मैं टीवी में खोये हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूँगी.

जब से पोलैंड से लौटी हूँ एक अजीब चीज़ होती है...अख़बार में अक्सर मरे लोगों की तसवीरें छपती हैं. मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूँ करते हैं. मैं उन तस्वीरों को देखती हूँ तो अजीब सा महसूस होता है, जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूँ...जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं. उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है...वो मुझसे कहना चाहते हैं. मैं पेपर पलट कर रख देती हूँ और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूँ...एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर...इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूँ.
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आज सुबह अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा था...आज ही अपनी बुकिंग कराई है. ऑफिस के और भी तीन चार लोगों की बुकिंग करायी है. पांच सौ रुपये का डेलिगेट पास है...इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं. मन तो कर रहा है कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख जाऊं, लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है...हमने कहा तो बोला...एय...छुट्टी मैं लेकर जाऊँगा...तुम लोग यहाँ काम सम्हालो. असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे, क्रिसमस वाले दिन भी तीन चार फिल्में देखी जा सकती हैं. उसके अलावा रात के शायद कोई शो देख पाऊं, डिपेंड करता है कि जिस हौल में लगा होगा वो घर से कितनी दूर है. एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है...अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है, उसके घर आने पर करेंगे. टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है. नेहा आज दिन भर ऑफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है...लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं. मिस करती हूँ उसको. बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुयी है. बच्ची है वैसे तो...मुझसे छः साल छोटी है...पर हाँ...अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है, गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए, उसके जिंदगी और प्यार पे ज्ञान देने के लिए...जरूरत सी लगती है. नन्ही परी है मेरे लिए. अच्छी. प्यारी.
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सिंपल होने का मन करता है...लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न...इतनी उलझन नहीं होती. शामें अक्सर डिप्रेसिंग होती हैं. मुझे समझ में ये नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए. अब भी मैं खुद को समझ क्यूँ नहीं आती...जब कि बहुत सी चीज़ें बार बार घटती हैं...मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूँ. दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आये, मुझे अब तक दीवारें कहाँ है पता क्यूँ नहीं है. अब भी टकरा जाती हूँ...कितने सारे नीले निशान होते हैं. अचानक से मन बहुत बहुत उदास हो आया है...सोचती हूँ तो पाती हूँ कि अचानक नहीं है...एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती. देजा वू है...
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काश तुम्हारा ऑफिस इतनी दूर नहीं होता...सिर्फ एक नज़र तुम्हें देखने का कितना मन कर रहा है...कोर्नर हाउस में आइसक्रीम खाने का...एक अच्छी फिल्म साथ देखने का. अपने घर जाने का मन कर रहा है...तुम्हारे ऑफिस होते हुए. कभी कभी लगता है एकदम अकेली हूँ और बेहद रोने का मन करता है...फिर काम में भी मन नहीं लगता. मम्मी की बेतरह याद आ रही है सुबह से. और कितने साल लगेंगे उसके बिना जीना सीखने में?

13 December, 2012

आई लव यू टू

तुम किसी मूक फिल्म की तरह मेरी जिंदगी का हिस्सा हो...कभी कभार एक टाइटल आ जाता है जिसके अलावा सारी बातें किस प्लेन पर घटती हैं कोई नहीं जानता. कितने सारे सिनरिओज इमैजिन कर लेती हूँ ना...तुम आये हो...ऐसे बात करते हो मुझे. कितनी कम बातें की हैं तुमसे...मगर उन कुछ लम्हों को इतनी बार रिवाईंड कर चुकी हूँ कि अब तो फिल्म घिस जानी चाहिए मगर ये मन का कैमरा कैसा है कि हर बार नए शेड्स ले आता है. अरे...क्या...तुम्हें बताया नहीं, तुम्हारे रंग याद नहीं हैं मुझे...तुम बस काले और उजले के शेड्स में बस गए हो मेरे अन्दर कहीं.

या कि मौसम की शरारत है कि ऐसा लगा जैसे खिड़की के पार तुम हो...तुम्हारा होना ऐसे महसूस हुआ जैसे धक् से लगता है प्यार में गिरने पर...और यु तो नो...देयर इज नो फालिंग इन लव...इट जस्ट हैपन्स...धाड़...गिर गए...भटाक! अब लो...सम्हालो, कभी घुटने पर चोट लगती है, कभी दिल पर...रोंदू सी शकल लिए घूमते रहो फिर. यूँ तो प्यार बहुत तमीज से ठंढ के मौसम की तरह आता है लेकिन क्या करोगे, जिंदगी है...कभी कभी उससे भी गलती हो जाती है. इस बार दो महीने पहले आ गया. टाइमिंग गलत हो गयी...वो क्या है कि मुझे मालूम नहीं था कि उसके आने का मूड बन गया है और तुम स्टाइल में एंट्री सीक्वेंस के लिए खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हो...पगली मैं...कपड़े भी ढंग के नहीं पहने थे...तभी तो तुम्हें भी धोखा हो गया कि मैं ही हूँ या कोई और है. साइड हीरोइन पर कौन ध्यान देता है...बट लाइफ माय फ्रेंड इज फुल ऑफ़ सरप्राइजेज. प्यार हमेशा धमाकेदार एंट्री नहीं करता...चुपके से भी चला आता है.

कसम से, मेरे पास तुम्हारे दिल की भागती धड़कन को सुनने की कोई डिवाइस नहीं है...मेरा फोन आता है तो घबराया मत करो...एक गहरी सांस लेकर फोन उठा लिया करो. मैं जानती हूँ तुम्हें इतनी अच्छी एक्टिंग आती है कि मूक फिल्म में भी फोन उठा कर कुछ न कुछ मैनेज कर लोगे. होते हैं...सबकी लाइफ में ऐसे लम्हे आते हैं जब समझ नहीं आता कि कहें तो क्या कहें...लेकिन जानां...प्यार में हो तो उल्टा-पुल्टा मत सोचो...मुझे तुम्हारी हर अदा से प्यार है. उसे क्या कहते हैं जब आप किसी को इतनी अच्छी तरह जानते हो कि उससे फोन पर बात करते हुए आपको मालूम है कि सामने वाले का एक्जैक्ट एक्सप्रेशन कैसा है? मेरे तुम्हारे बीच वैसा कुछ है...है तो वैसे और भी बहुत कुछ...इस हसीन शहर का दिलफरेब मौसम...पुल के ऊपर का खाली ठहरा हुआ समय...बहुत बहुत से गुलमोहर के पेड़ों पर रुकी हुयी धूप...प्यार? कन्फर्म नहीं है.

मेरा आज तक कभी ध्यान नहीं गया था कि रियल जिंदगी में तुम वाकई कितनी बकवास बातें करते हो...तुम मेरी मूक फिल्म में ही सही थे...वो क्या है कि जब भी तुम्हारा फोन आया है मेरा किसी बात पर ध्यान ही नहीं रहता...सारा ध्यान इस बात पर रहता है कि तुम फोन रखते हुए साइन ऑफ़ में क्या कहते हो. क्यूँ? हुआ यूँ कि एक बार मुझसे बात करते हुए तुम ऑफिस को भाग रहे थे...तो फ़ोन रखते हुए तुम कुछ कह गए थे...क्या..गलती से...हाँ बाबा, जानती हूँ गलती से...ऐसी हसीन गलतियाँ जिंदगी में गिन के ही देता है खुदा...तो उस दिन तुम कह गए थे...ओके...लव यू...बाय. मैं हक्की-बक्की-बोक्की...सोच रही थी कि कभी तुमसे पूछूं...कितने लोगों को लव यू बाय बोलते हो कि आदत पड़ गयी है. वो दिन है और आज का दिन है...बाय और टाटा के सिवा कुछ नहीं मिलता.

जाने दो...देखो न कितनी बातें कर गयी तुमसे...ऐवें ही...फोन रखती हूँ...टाटा...बाय. जानती हूँ फोन रखने के बाद तुमने भी उधर कहा होगा...लव यू टू. 

12 December, 2012

एक तारीख से गुज़रते हुए...

१२/१२/१२                                      
इसी सुबह को...सपना...किसी ने काँधे से भींच कर पकड़ा है और झकझोर रहा है...आँखों में देख रहा है...उसकी नज़र ऐसे भेदती है जैसे आत्मा तक के सारे राज़ पता हैं उसे...कोई सवाल है जो वो मुझसे पूछता नहीं. किसी टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है मैंने...कुछ ऐसा है जो मुझे बिलकुल नहीं आता...वो कहता है...तुम कर सकती हो...मुझे मालूम है तुम जीत जाओगी...तुम्हें खुद पर यकीन क्यूँ नहीं होता. मैं कहता हूँ न तुम जीत जाओगी. मैं उसके यकीन पर भरोसा करती हूँ तो पाती हूँ कि मुझे वाकई मालूम थी पूरी प्रक्रिया...पूरा खेल...और मैं जीत जाती हूँ. खेल ख़त्म हो जाता है लेकिन कंधों पर रह जाती हैं उसकी हथेलियाँ और मैं दिन भर ऐसे चलती हूँ जैसे नशे में हूँ. कौन है वो जो मुझपर मुझसे ज्यादा यकीन करता है?

कोई आवाज़ है...पूछती है...तुम मुझे किस नाम से बुलाती थी? जाने किस शाम मैंने कौन सी कहानियां सुनायीं थीं उसे...मैं चली आई दूर मगर मेरी कहानियों के किरदार उसकी जिंदगी में रह गए. वे अक्सर उससे मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं. वो मुझसे पूछ रहा है कि ये किरदार कितने सच हैं, उनका किसी अल्टरनेट दुनिया में कोई ठिकाना है तो वो उन्हें उनके घर छोड़ आएगा. वो परेशां है थोड़ा, उसे इस दुनिया के लोग समझ नहीं आते...वो कहता है तुम ये लोग किस दुनिया से लाती हो, कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू करोगी क्या जो इस दुनिया के लोगों को थोड़ा तुम्हारी दुनिया के लोगों जैसा बना सके. उसे मेरी कहानी के किरदारों से जितना प्यार है अपनी जिंदगी के लोगों से नहीं. 
कोई क्यूँकर होता है इतना तन्हा?
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ऑफिस के बगल में एक दूकान है...जेनरल स्टोर्स टाईप...भूख लग रही थी, कुछ खाने का मन कर रहा था...सोचा कुछ ले आऊँ जा कर. देखती हूँ उसके ठीक सामने वाइन शॉप खुली है नयी...हाय कमबख्त, गालियाँ निकालती हूँ दूकान खोलने वाले को. बेहद खूबसूरत शॉप है...पूरा ग्लास का एक्सटीरियर है...सामने हर तरह की खूबसूरत बोतलों की अंतहीन कतारें...शोकेस में लगे बेहतरीन कांच के दिलफरेब टुकड़े...क्लास्सिक पोस्टर्स. एक तिलिस्म है अपनी ओर खींचता हुआ...एक हम हैं काम की उलझनों में उलझे हुए. दोस्त को फोन किया...ऐसे ही वीतराग मूड में...उधर से बोलता है...क्या है बे? अचानक हँसी आ गयी. शायद इसी लिए फोन किया भी था. चार गालियाँ पटकीं, फिर उसे घर निकलना था...कल बात करते हैं. देखें कल कितने दिन में आता है. 

किसी को समझा रही थी कि मैं लिखती कैसे हूँ. तीन चीज़ें होती हैं...किरदार, प्लाट और असल घटना...इसमें से कोई न कोई हमेशा सच रहता है. कभी किरदार सच होता है...मेरी जिंदगी से गुज़रा कोई या किसी और की जिंदगी का कोई नमूना...कभी प्लाट सही होता है कि ऑफिस, शहर, धूप, कोहरा, मौसम, बैंगलोर...ये  सबसे ज्यादा कॉमन एलिमेंट है जो अक्सर सच रहता है...और फिर वो है जो शायद ही सच होती है...इन सबके साथ घटा हुआ कुछ...ये अक्सर कोरी कल्पना होती है. 

एक प्रोजेक्ट पर काम करना था अभी...पर कुछ लिखने का मन था...उसके बिना काम में मन नहीं लगेगा...सो पहले लिखना निपटा देते हैं. इधर बहुत दिनों से कोई अच्छा म्यूजिक नहीं सुना है...खुद से खोजने का ट्रैक रिकोर्ड बेहद ख़राब है...शायद ही अपना तलाशा हुआ कुछ पसंद आता है. 

मुझे आजकल सबसे ज्यादा एट होम कार में फील होता है. उसमें अपनापन है...कहीं घूमने जाने का वादा है...कार चलाते हुए शीशे चढ़ा लो तो एक पैरलल दुनिया बन जाती है जिसमें मेरे दिमाग में घूमते किरदार होते हैं...सीडी प्लेयर पर मेरी पसंद का म्यूजिक होता है और हर सू बदलते नज़ारे होते हैं...बहुत सी शान्ति होती है. दुनिया के कुछ सबसे पसंदीदा कामों में से एक है कुणाल को ऑफिस से रिसीव करने जाना. आज जनाब बिना स्वेटर लिए चले गए हैं, सर्दी-खांसी-बुखार हो रखा है. तो आज हम ड्राइवरी करके जनाब को ऑफिस से उठाने जायेंगे. रोड अपना...चाँद अपना...गाने अपने...ओ हो हो. 

आज रजनीगंधा के फूल खरीदने का मन कर रहा है...सुबह सारे गर्म कपड़े धूप में सुखाये हैं...घर ईजी की नर्म खुशबू से भर गया है...दिसंबर...सर्दियाँ...खुशामदीद. 

फोटो वाली बिल्ली हमारे ऑफिस की है...हमारे प्रोजेक्ट्स की बहुत चिंता करती है...हमने इसे स्पेशल रास्ता काटने के लिए पाला है :)

11 December, 2012

सीले बदन पर, कोई दाग पड़ा है


दिन के फरेब में रात का नशा है/ जब भी छुआ है ज़ख्म सा लगा है
सीले बदन पर कोई दाग पड़ा है/बारिशें हैं...सब धुआं धुआं है 

आँखों में कोई कल रात छुपा था, आज सुबह रकीब की लाश मिली है...कसक कोई पानी में घुली है कि दुपट्टे को निचोड़ा है तो कितना सारा दुःख गीले छत पे बहा है...थप्पड़ खाया है चेहरे पर तो होठों से खून बहा है कि तुम्हारा नाम अब भी आदतों में रहा है...कहाँ है कोई...शहर में दिल्ली का कोहरा बुला दे...कहाँ है इश्क कि जीने का अंदाज़ भूलता जाता है...

कब की बात है जानां? आसमान आधा बंटा है...तेरे शहर में बारिश और यहाँ दरिया जला है...तू गुमशुदा कि जहां गुमशुदा है...तेरे दिल तक पहुंचे वो रास्ता कहाँ है? मैं क्यूँ उदास बैठी हूँ रात के तीसरे पहर कि अचानक से बहुत सी भीड़ आ गयी है मेरी तन्हाइयों में. किसने तोड़ दी है फिरोजी रंग की दवात? डॉक्टर ने चेक करके कहा है कि मेरे खून का रंग हरा है...किसी बियाबान में रोप दो ना अमलतास के पौधे...ढूंढ दो मेरी पसंद की कलम. मेरी जान...मैं भूल गयी हूँ अपनी पसंद के गाने...मुझे बता दो तुम्हारे गम में सुकून पहुंचे वो गीत कौन सा है?

सब उतना ही पुराना है तू जितना नया है...इश्क के क्लास में ब्लैकबोर्ड सा टंगा है...सफ़ेद चौक में टीचर की उँगलियों का नशा है, सिगरेट के छल्ले बनाना सीख रहा है...मेरी कहानियों का वो शख्स कितना गुमशुदा है...पेड़ है इमली का...हैरतजदा है. तुम झूठ बोलते हो...वहां झूला पड़ा है...मेले में चलो न, तारामाछी लगा है. कितनी बात करते हो...चुप रहना मना है.

शहर से भागते पुल के ऊपर एक शहर नया बसा है...कैसी रौशनी है...कितना तमाशा है...वहां भी कोई मिलने आएगा ऐसा धोखा हुआ है...जिंदगी फानी रे बाबू...दरिया है मगर सूखा हुआ है. मैं ठहरी हुयी हूँ तू ठहरा हुआ है...कितना दूर है कोई...किसी प्लेटफोर्म पर कोई जिंदगी से बिछड़ा है...सारा किस्सा कहा हुआ है, सारा कहना सुना हुआ है...गाँव चले आता है बस में चढ़ कर, शहर के बाहर लिखवा दो, शहर में रहना मना है. तुम्हारे बाग़ में बहार नहीं आई...अँधेरा कितना घना है...कितनी बर्फ पड़ी, कितना शोर बरसा...किसने भींचा बांहों में...कौन जाग जाने को कहता है...किसी पागल दिशा से आया पगला विरहा गाता है.

कितना लिखना, कितना बाकी बचा है?
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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कुछ भी ऐब्स्त्रैक्ट नहीं होता...जंगल में खोयी हुयी पगडण्डी भी किसी गाँव को पहुंचा ही देती है...मन के रास्ते किसी उलझे वाक्य से गुज़र कर जाते होंगे शायद...ये शायद क्या होता है?

06 December, 2012

बातें, सब बातें झूठी हैं

गाँव से बहुत दूर एक पुराने किले में एक दुष्ट जादूगरनी रहती थी जो कि छोटे बच्चों को पकड़ कर खा जाती थी...लेकिन आप जानते हो कि ये कहानी झूठी है कि गाँव के छोर पर एक गरीब की झोंपड़ी थी जिसमें एक सुनहले बालों वाली राजकुमारी रहती थी...उसके बाल खुलते थे तो सूरज की किरनें धान के खेतों पर गिरतीं थीं और गाँव वालों की खेती निर्बाध रूप से चलती थी.

वो जो दुष्ट जादूगरनी थी उसे काला जादू आता था...वो बच्चों को बहाने से बुला लेती थी और फिर उनका दिल निकाल कर उसकी कलेजी तल के खाती थी. उसे खरगोश जैसे मासूम बच्चे बहुत पसंद थे. गाँव के सारे बच्चों की माएं उन्हें उस जादूगरनी के बारे में बता के रखती थी और उनकी रक्षा के लिए काला तावीज बांधती थी. बच्चे लेकिन बहुत शैतान होते थे...वे भरी दुपहरिया पीपल के कोटर में अपना अपना तावीज रख आते थे और किले में उचक कर देखते थे. बच्चों को पूरा यकीन था कि शादी के बाद जिन लड़कियों की विदाई होती है वे कहीं नहीं जातीं, यही दुष्ट जादूगरनी उन्हें पकड़ के खा जाती है. 

मगर आप जानते हो कि दुष्ट जादूगरनी असल में किस्सा है...माएं अपने बेटों को उस राजकुमारी से बचाना चाहती थीं जिसका दिल एक राजकुमार ने तोड़ दिया था और उसके उदास आंसुओं की नदी से गाँव के सारे खेत सींचे जाते थे. गाँव के लड़के बहुत सीधे और भोले थे, उन्हें जादूगरनी से भी उतना ही खतरा था जितना कि राजकुमारी से. अगर उसने हँसना सीख लिया तो गाँव के सारे खेत सूख जायेंगे और सभी लोग भूखे मर जायेंगे.  जैसे किसी आशिक को अपने महबूब के वादों पर ऐतबार नहीं होता वैसे ही गाँव की माँओं को बारिश के आने पर भरोसा नहीं था. वे रातों को पीर की मजार पर राजकुमारी के आंसुओं की नदी बहती रखने की मन्नत बाँधने जातीं थी...आते और जाते हुए वे अपने बिछड़े हुए मायके के गीत गाया करतीं...ये गीत राजकुमारी तक हवा में उड़ कर पहुँच जाते...अगली भोर नदी में बाढ़ आ जाती और धान के खेत घुटने भर पानी में डूब जाते...अब धान के बिचड़ों को उखाड़ कर उनकी बुवाई शुरू हो जाती. 

छोटे बच्चों को मालूम नहीं होता कि माएं जो तावीज बांधती हैं उनमें उनकी सच्ची दुआएं शामिल होती हैं...जब वे तावीज को कोटर में रखते तो वे कुछ भी महसूस नहीं कर पाते...अगर वैसे में जादूगरनी उन्हें मार कर उनका दिल निकालती तो उन्हें दर्द नहीं होता...ये एक बहुत पुराने पीर का आशीर्वाद था. लेकिन वहां कोई जादूगरनी थी नहीं...जैसा कि समझदार लोग जानते हैं. बिना तावीज के उन्हें कुछ महसूस नहीं होता. वे देख नहीं पाते कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है...वे देख नहीं पाते कि राजकुमारी का दिल किस कदर टुकड़ों में है. उनमें से कोई राजकुमारी को अपने साथ खेलने के लिए भी नहीं बुलाता. वे बस दूर से देखते थे...उसके हवा में सूखते सतरंगी दुपट्टे को छू आने का साहस करते लेकिन पास नहीं जाते.

उस गाँव की लड़कियों की घर से बाहर निकलने की मनाही हो जाती...शादी के बाद और गौणा के पहले जो लड़कियां गाँव में रहतीं उन्हें दिखता था कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है. वे जब सावन में झूले की पींगें बढ़ातीं तो अक्सर रोते रोते उनकी हिचकियाँ बंध जातीं...वे फिर राजकुमारी के लिए दुआएं गातीं...गोरी..ओ री...कहाँ तेरा राजकुमार...गोरी रो री...चल नदिया के पार...बस कर दे बरसात ओ सावन कितना रोवे नैना...खोल दे रास्ता मन भागे हैं कहीं न पाए चैना...और भी कुछ ऐसा ही जिसका न ओर था न छोर था. कच्ची उमर की लड़कियां थीं, उसके दर्द में रोतीं थीं...जैसे जैसे उनके बाल पकते, कलेजा भी पत्थर होते जाता...फिर उन्हें न राजकुमारी की चिंता होती न उसके टूटे दिल की...वे अपने बेटों को दुष्ट जादूगरनी के किस्से सुनाने लगतीं, उनके गले में काला तावीज बाँधने लगतीं.

हर दुष्ट जादूगरनी की कहानी के पीछे ऐसी कोई कहानी होती है जो कोई नहीं सुनाता...भटकते भूतों का दर्द कौन सुनता है बैठ कर...जिसे मर कर भी चैन नहीं उससे ज्यादा उदास और कौन होगा...एक उदासी का फूल होता है...सदाबहार...जिस मन के बाग में वो खिलता है वहाँ सालों भर बरसातें होती हैं. किसी शहर में सालों भर बरसातें होती हों तो वहां खोजना...उदासी का फूल...उसका रंग सलेटी होता है, बहे हुए काजल जैसी रेखाएं होती हैं...उसे तोड़ते हुए ख्याल रखना...उसकी खुशबू उँगलियों में हमेशा के लिए रह जाती है. 

30 November, 2012

धानी ओ धानी, तेरी चूनर का रंग कौन?

बचपन में पढ़ी हुयी बात थी 'तिरिया चरित्तर'...नारी के मन की बात ब्रम्हा भी नहीं जानते...वो बहुत छोटी थी...उसे लगता था कोई नारी नाम की औरत होती होगी...कोई तिरिया नाम की चिड़िया होती होगी...जैसे नीलकंठ होता है...एक पक्षी जिसे साल के किसी समय देखना शुभ माना जाता है. गाँव में  बहुत दूर दूर तक फैले खेत थे. साल में कई बार गाँव जाने पर भी गाँव के बच्चों के साथ किसी खेल में उसका मन नहीं लगता था. तिलसकरात के समय उसे नीलकंठ हमेशा दिखता. गाँव के शिवाले से जाते बिजली के तार पर बैठा हुआ. बचपन की ये बात उसे सबसे साफ़ और अपने पूरे रंगों में याद है.

हरे खेतों के बीच से खम्बों की एक सीधी कतार दिखती थी. पुरानी लकड़ी के बने हुए खम्भे...उनसे कैसी तो दोस्ती लगती थी. दिन अमरुद के पेड़ पर कटता था...कच्चे अमरुद कुतरते हुए भी उसे ध्यान रहता कि कुछ हिस्सा भी बर्बाद न हो...पेड़ के नीचे फिंके हुए अमरुद देख कर उसे बहुत रुलाई आती कि साल में गिनती के अमरुद लगते थे उस पेड़ पर. 

शाम को लालटेन की रौशनी में उसके साथ के सारे भाई बहन चिल्ला चिल्ला के पहाड़े पढ़ते...उसे बहुत हंसी आती. उसका पढ़ने में कुछ ख़ास दिल नहीं लगता. क्लास में पढ़ती थी और फिर एक्जाम के पहले पढ़ लेती...इतने में उसके नंबर सबसे अच्छे आते थे. उसे किताबों में सर घुसाने से अच्छा भंसा में बैठना लगता था. वहां लालटेन नहीं होती थी...ढिबरी होती थी, जिसमें घूंघट काढ़े चाची शाम का खाना बना रही होती. वो पीढ़ी पर बैठ कर आगे पीछे झूलती रहती...सोचती रहती कि चाची को लालटेन की जरूरत है और बच्चों को सो जाने की. कच्ची मिटटी के बने चूल्हे में कभी कभी चाची उसके लिए आलू डाल देती. उसे भुने आलू बहुत पसंद थे. बचपन से बड़ी हो गयी लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि चाची से क्या बात करे. कैसे कहे कि ढिबरी की रौशनी में घूंघट काढ़े चाची का चेहरा कितना सुन्दर लगता है. 

कोलेज जाने के बाद गाँव आई तो पहली बार चाची के चेहरे की झुर्रियों पर ध्यान गया...चाची फिर भी उसे खाने का कुछ छूने नहीं देती थी...कि कभी कभार तो गाँव आती हो...हम लोग शबासिन से खाना नहीं बनवाते हैं. घर में सब लोग उसके साथ अलग बर्ताव करते...वो सबकी बहुत दुलारी थी...लेकिन कभी कभी इसके कारण उसे सबसे अलग भी महसूस होता था. इस बार गाँव आई तो चाची को दूसरी नज़र से देख रही थी...उनका दिन भर चुप चुप रहना...मुस्कुराते हुए सबके लिए खाना बनाना...कुएं से पानी भरना...अचरज लगता था. उसका चाची की कहानियां सुनने का मन करता था. कभी तो चाची बिना घूंघट के रहती होंगी...स्कूल जाती होंगी...बाकी लड़कियों के साथ हंसती बोलती होंगी. पहली बार उसका ध्यान गया कि उसको चाची का नाम भी नहीं पता है. उसका दिल किया कि पूछे...फिर लगा कि चाची को उनका नाम याद भी होगा?
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बरसते नवम्बर का मौसम है...कमरे में लगे कोयले के तंदूर पर लड़की ने कुछ साबुत आलू रखे हैं...टेबल पर विस्की का ग्लास रखा है...बर्फ लगभग पिघल गयी है. आरामकुर्सी पर बैठे हुए उसने पाँव बालकनी की रेलिंग पर टिका दिए हैं. घर में शोपें का नोक्टर्न ७ बज रहा है. बारिश की गंध, आलू के छिलकों का हल्का जला हुआ टेक्सचर संगीत में घुल गया है उसे थोड़ा नशा हो रखा है...उसे जिंदगी के सारे नवम्बर याद आ रहे हैं...सिलसिला बहुत साल पुराना है. 

याद के पहले नवम्बर वो सोलह साल की थी...उसकी दीदी को देखने लोग आये हुए थे...चाची के पकोड़ों के साथ चटनी बनाने के लिए पुदीने के पत्ते लाने को कहा था...वो ख़ुशी में दौड़ी जा रही थी कि अचानक किसी से टकरा गयी...बाल्टी और रस्सी के गिरने की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि शायद पूरे गाँव ने सुन ली थी...और फिर काँधे पर भिगोये निचोड़े गए कपड़े भी तो गिर गए थे. नवम्बर की धूप बहुत नर्म थी...वो कुएं पर बाल्टी बाल्टी पानी भर कर देता जा रहा था और वो कपड़े झपला रही थी...नाम क्या था लड़के का...याद नहीं...हाँ उस धूप में उसका कुएं की मुंडेर पर खड़े होकर पानी खींचने का सीक्वेंस बंद आँखों से देख सकती थी...उसका रंग सांवला था पर कैसे सोने जैसा दमकता था...एक पल तो वो अपलक ताकती ही रह गयी थी...इतना सुन्दर भी कोई होता है!

याद के दूसरे नवम्बर वो एक चौड़ी सड़क पार करने के लिए खड़ी थी...इतनी गाड़ियाँ थीं और वो ख्याल में ऐसी खोयी कि जाने कितनी देर हो गयी थी...तभी अचानक से किसी ने उसकी कलाई पकड़ी थी और एक झटके में अपने साथ दौड़ाते हुए सड़क के दूसरी ओर ले आया था. 'वहां खड़े खड़े तुम्हारी उम्र एक साल तो बढ़ ही गयी होगी, कौन से गाँव से आई हो?' और वो एक अनजान लड़के को अपने गाँव का नाम अपने नाम के पहले बता चुकी थी. वो साथ चलते तो रास्ते बिछते जाते, दोनों बहुत तेज़ चला करते थे. उन्हें समय को पीछे छोड़ देने की जल्दी थी. रिश्तों के सारे हाइवे उन्होंने गिन लिए. फिर एक दिन अचानक ही उनकी दिशायें एक दूसरे से उलट हो गयीं. कोई सड़क क्या दिल पर ख़त्म होती है?

याद के तीसरे नवम्बर उसका जन्मदिन था. वो अपने लिए एक प्लैटिनम अंगूठी खरीद रही थी. हमेशा से अकेले शोपिंग करने की आदत के कारण उसका बड़बड़ाना जारी था...'तो मैडम, आज आपका बर्थडे है?' उसकी आँखों का रंग ऐसा क्यूँ है...ये सोचते हुए लड़की ने जब हाँ कहा था तो उसे कहाँ मालूम था कि नवम्बर फिर उसे अपने आगोश में लेने को बेसब्र है...उसने बिल देने ही नहीं दिया...वो एक ज्वेलरी डिजाइनर था और ये शॉप उसने बेहद शौक से ख़ास कद्रदानों के लिए खोली थी. अंगूठी तो मैं तुम्हें दूंगा, लेकिन ये वाली नहीं...और फिर उसकी अपनी जिद से वो लड़की की जिंदगी बनता गया था. लड़की भूल गयी कि साल में कितने नवम्बर आते हैं...लेकिन जिंदगी नहीं भूली कि लड़की की जिंदगी में कितने नवम्बर गिन के रखे हैं. वे बेहद समझदार लोग थे...बहुत प्यार से अलग हुए...लड़की आज भी उस अंगूठी को गले की चेन में पहनती है. 

फिर लड़की ने साल से नवम्बर का पन्ना फाड़ के फ़ेंक दिया...हर साल एक नवम्बर का पन्ना उसकी बालकनी से नीचे घूमता हुआ निकल जाता...हर पन्ना एक चीड़ का पेड़ बन जाता और उसके घर साल भर बरसातें होतीं. कुदरत ने सारे पन्नों का हिसाब लगा रखा था. उसकी जिंदगी में एक ऐसा साल आया जिसका हर महीना नवम्बर था...बारह सालों के बारह नवम्बर बरस रहे थे. इश्क के कितने रंग...कितनी खुशबुयें और कितना दर्द. लेकिन लड़की जानती थी कि उसका और नवम्बर का रिश्ता पुराना है...इसलिए दस नवम्बर बीतने के बाद जब ग्यारवाँ आया तो उसे लगा कि शायद वो इस नवम्बर को जज़्ब कर ले तो अगले महीने दिसंबर आ जाएगा. आज नवम्बर की तीस तारीख है. 

उसने डायरी लिखी...३० नवम्बर, २०१२...साल का लेखा जोखा...मौसमों के किस्से...बचपन की कहानियां...भाई की चिट्ठियां...पापा के भेजे चेक जो उसने कभी कैश नहीं कराये...पी गयी विस्कियों की किस्में...बांयें कंधे पर उकेरे गए टैटू वाली कविता...नीली चीनीमिट्टी के देश से आया कोई पोस्टकार्ड...सूखे फूल...चोकलेट के रैपर. 

इस सबके आखिर में उसने लिखना चाहा अपना नाम...
लेकिन उसका नाम क्या था?
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लव पैरालल्स ऑन ए ट्रैम्पोलीन

कल की शूट पर एक ट्रैम्पोलीन का इन्तेजाम था...एक वृताकार स्टील का फ्रेम होता है जिसपर एक बेहद हाई-टेंशन झेल सकने वाला ख़ास तरह का कपड़ा बंधा होता है. दोपहर को ट्रैम्पोलीन सेट अप हुआ...अब लोगों को बताना था की भैय्या आपको इस चीज़ पर कूदना है...और हम चूँकि ऐसा कोई काम लोगों को करने नहीं बोलते जो हमने खुद पहले कभी नहीं किया हो तो तुर्रम खान बनके पहले खुद चढ़ लिए ट्रैम्पोलीन  पर. इंस्टिंक्ट है कि जब पैर जमीन से हटते हैं तो इंसान को डर लगता है...चाहे हवा में उड़ना हो चाहे पानी में तैरना हो. ट्रैम्पोलीन जम्प करने का तरीका ये है कि दोनों पंजों को एक साथ रखें और बीच में जम्प करें...छोटे छोटे जम्प लेने से, जैसा कि वेव में होता है या झूले की पींगों में...एम्पलीट्यूड बढ़ता जाता है.

तो कूदना तो बहुत आसान था...फिर डायरेक्टर ने कहा...हाँ अब...लुक एट द कैमरा...एंड स्माइल...तो एक तो पहली बार जम्प करते हुए दिशा पता नहीं चलती है...आसमान में ऊपर जा तो रहे हैं मगर किधर...उसपर नीचे गिरेंगे किधर वो पता नहीं है...उसके ऊपर लुक एट द कैमरा...बाबा रे! और उसपर स्माइल...हे भगवान! मुस्कुराना कभी इतना मुश्किल नहीं लगा था. पहली बार थोड़ा समझ में आया कि जब हम किसी चीज़ पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं तो चेहरे पर एकाग्रता का भाव होता है...उसमें मुस्कुराना एक काम होता है...पार्ट ऑफ़ दा प्रोसेस. नारद जी कैसे एक लोटा दूध त्रिलोक में लेकर घूमते हुए नारायण नारायण जपना भूल गए थे...बेचारे नारद जी  का सारा ध्यान दूध को गिरने से बचाने में लगा था.

खैर...पहली बार के हिसाब से बहुत ही लाजवाब काम किये हम. दूसरी बार जब ट्रैम्पोलीन सेट हुआ तो हम तैयार होकर एकदम ड्यूड बन गए थे. हमारे साथ एक बन्दा था जो हवा में कूदते हुए पलटी मार सकता था...हमने ऐसी कलाबाजी पहले तो नहीं देखी थी. जब वो नीचे उतरा तो पहला वाक्य यही आया...यु डोंट हैव फीयर इन योर हार्ट...तुम्हारे दिल में डर नहीं है. (अनुवाद अपने खुद के लिए चिपकाया है :O वो क्या है कि कुछ वाक्य अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे लगते हैं...और बोला भी अंग्रेजी में ही था...तो इमानदारी बरतते हुए). ट्रैम्पोलीन पर कूदना अच्छा ख़ासा थका देने वाला अनुभव होता है...सांसें तेज़ चलने लगती हैं...पसीने छूट जाते हैं.

सही तरीके से जम्प करने के लिए कुछ छोटे छोटे जम्प लेने चाहिए फिर धीरे धीरे जैसे झूले की पींगें बढ़ती हैं वैसे ही जब हवा में कुछ ज्यादा ऊंचे जा रहे हैं तब आप अपने पोज मार सकते हैं...जैसे कि हवा में दोनों पैर पूरे ऊपर मोड़ना या फिर हाथों से भरतनाट्यम की मुद्रा बनाना इत्यादि...ये सब करते हुए जरूरी है कि आप कैमरा की ओर देखें और मुस्कुराएं जरूर...तब जाके एक अच्छा शॉट आता है. कल बड़ी अच्छी धूप थी बैंगलोर में और जमीन तपी हुयी थी...उसपर कुछ देर नंगे पाँव खड़े रहे...दौड़ते भागते रहे.
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नवम्बर सनलाईट. तुम. उफ़.
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मुझे सफ़र करते हुए और काम करते हुए बहुत भूख लगती है...तो मैं खाने पीने का पूरा इंतज़ाम करके चलती हूँ...चोकलेट...बिस्किट...जूस...कुछ स्नैक्स...और जाने कैसे मैंने कभी लोगों को खाने के बारे में थोड़ा सा ध्यान रखते या प्लानिंग करते नहीं देखा है. खैर...सबको मेरी तरह भूख लगती भी नहीं होगी. तो कल भी मैंने राशन पानी का इन्तेजाम कर रखा था...लेकिन मुझे ठीक मालूम नहीं था कि क्रू में लोग कितने होंगे...तो तीन बजते मेरा राशन ख़तम और मेरी भूख शुरू. तो फिर लगभग पांच बजे कैंटीन जा के कुछ कूकीज ले कर आई...किसी ने बताया था कि बिस्किट वो होते हैं जो मशीन से बनते हैं और कुकी वो होती है जो हाथ से बनती है...खैर...मुझे बहुत से लोग बहुत सा भाषण देते हैं. तो कल फिर बेचारे भूखे प्यासे लोग काफी खुश हुए...जोर्ज ने बोला...अब से पूजा को हर शूट पर ले जायेंगे (actually he said...now onwards Puja is a part of every shoot) जब आपको भूख लगी होती है तो आप अच्छी तरह से परफोर्म नहीं कर पाते हैं क्यूंकि दिमाग का एक हिस्सा हमेशा ये सोचता रहता है 'भूख लगी है'. वैसे तो ऐसे भी लोग होते हैं जो खाना पीना छोड़ कर काम करते हैं. पर मैं वैसी हूँ नहीं. मैं वैसे काम करने के पहले इन्तेजाम करके चलती हूँ.
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तुम मेरी याद  में उग आते हो.
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ट्रैम्पोलीन जम्प...प्यार के जैसे...हवा में उड़ रहे होते हैं...ऊपर जाते हुए मालूम नहीं होता कितना ऊपर जायेंगे...नीचे आते हुए मालूम नहीं होता कैसे गिरेंगे...मुंह के बल...एकदम फ़्लैट...पीठ के बल...या फिर पैरों पर तमीज से लैंड करेंगे. जरूरी ये सब होता भी नहीं है न...जरूरी होता है कि जब हम हवा में हो...उस फ्रैक्शन ऑफ़ सेकण्ड में...एक अच्छा पोज होल्ड कर सकें...जब हम प्यार में हों...उस लम्हे भर...जी सकें...मुस्कुरा सकें...बिना ये सोचे हुए कि आगे क्या होने वाला है. जरूरी है कि थोड़े बहादुर हों...कुछ गलतियाँ कर सकें...गिरने के डर से ऊपर उठ सकें...बिना ये सोचे हुए कि आसपास के लोग देख कर हंस रहे हैं...हम पर हंस रहे हैं...बेखबर दोनों हाथों को पूरा फैलाए हुए आसमान को बांहों में भर सकें...तो क्या हुआ अगर हम नीचे एकदम फ़्लैट-आउट होते हैं. प्यार हमें थोड़ा बेवक़ूफ़ होने की इजाजत देता है...कभी कभी मुझे लगता है कि हमें प्यार होता ही इसलिए है कि हम डर से निकल सकें...उसके सामने कुछ भी कह सकें...बिना ये सोचे हुए कि वो मुझे एकदम ही पागल समझेगा...इत्यादि.
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तुम मुझे बहुत रुलाते हो
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प्यार ये तो नहीं होता कि सिर्फ उस लम्हे आपसे प्यार होगा...प्यार तब भी होगा जब आप गिरेंगे...चोट आई होगी...तब उठाने समझाने प्यार ही तो आता है. प्यार ये कि कह सकें...जो दिल करे...कर सकें दुनिया भर का झगड़ा...हो सकें वो जो होने में डरते हैं. प्यार में डर नहीं होता. बेवकूफी में भी डर नहीं होता. तो अगर A=B and B=C, तो A=C तो माने...प्यार यानी बेवकूफी?

ये हर इक्वेशन में प्यार कमबख्त कहाँ से एंट्री मार जाता है...सोच रही हूँ प्यार वाले पैराग्रफ्स को डिलीट मार दें...लेकिन फिर जाने दो...इतना एडिटिंग करने का सरदर्द कौन ले. दो दिन से इनफाईनाईट काम है...दिन भर दौड़...भाग...उसपर ये सैटरडे वर्किंग. उफ़...वर्ल्ड इज नोट फेयर. हम सोच रहे हैं...कि इतना सोचना कोई अच्छी बात नहीं है...अपनी फिल्म लिखते हैं...सारे टाइम दिमाग में कोई और फिल्म चलती रही...कुछ लोग, थोड़ी लाइटिंग...थोड़ा म्यूजिक... ओ तेरे की! ये तो पैरलल सिनेमा हो गया!!

दो दिन में इतने लोगों से मिली कि सर घूम रहा है...कितने लोगों से बात की...कितनों को मस्का लगाया कितनों को बुद्धू बनाया...बहला के फुसला के पुचकार के रिकोर्डिंग के लिए तैयार किया...गज़ब किया! अपनी पीठ ठोके दे रहे हैं. मैं कहाँ डेस्क जॉब में फंसी हूँ...मुझे ऐसे ही काम में मज़ा आता है...किसी रिकोर्डिंग स्टूडियो में होना चाहिए. रुको...एक आध फिल्म बनाते हैं फिर...जैसे कल जोर्ज नेहा के बारे में बोला...कि अब वो किसी भी रिकोर्डिंग स्टूडियो में जाने के लिए रेडी है. वापसी की लॉन्ग ड्राइव थी...अकेले...पसंदीदा म्यूजिक के साथ...बहुत सारा कुछ सोचने का वक़्त मिल गया.
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मैं ये सब क्यूँ लिख रही हूँ...रिकोर्ड के लिए...कल को खुद ही सेंटी होकर सोचते हैं कि खाली डार्क लिखते हैं...तो आज थोड़ी धूप सही. सुबह हुयी...सात-साढ़े सात टाईप...धूप में खड़े हैं...चेहरा गर्म हो रहा है. सोच रहे हैं. जिंदगी बड़ी खूबसूरत है. 

29 November, 2012

जिसके खो जाने का डर तारी है...

मुझे नहीं मालूम कि ख़ास मेरे बॉस ने मुझे रिकोर्डिंग स्टूडियो क्यूँ जाने को कहा था...शाम के कुछ पहले का वक़्त था...स्टूडियो में एक बेहद अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर आये हुए थे. उन्होंने बड़े लोगों के साथ रिकोर्डिंग की थी...कुछ उसने कहा कि चली जाओ, थोड़ा तुम भी गा देना...एक और आवाज़ जुड़ जायेगी...बस मस्ती करो थोड़ा ज्यादा सीरियसली मत लो.

ऑफिस से स्टूडियो बहुत पास नहीं था पर बैंगलोर में मुझे ऑटो वाले कहीं ले नहीं जाते हैं...पैदल चली ऑफिस से. रास्ते का थोड़ा बहुत आईडिया था...और मैं कभी रास्ते नहीं भटकती...सो मैं रास्ता भटक गयी. नेहा से पूछा कि उसे खाने को कुछ चाहिए तो उसने कहा कुछ भी लेते आना...उसके लिए एक डेरी मिल्क उठायी और अपने लिए पानी. जाते हुए गाने सुन रही थी...एक दोस्त को फोन भी किया था कि उसका बर्थडे था. बहुत दिनों बाद शाम देखने को मिली थी...ढलती हुयी शाम.

रिकोर्डिंग स्टूडियो बेसमेंट में है...स्टूडियो का पहला दरवाज़ा खोलते ही लगा जैसे समय में बहुत पीछे चली गयी हूँ...दोनों दरवाज़ों के बीच एक वैक्यूम ज़ोन होता है...ताकि कमरा पूरी तरह साउंड प्रूफ हो...ये बीच का हिस्सा...जैसे वर्तमान है...अन्दर का दरवाज़ा अतीत में खुलता था और बाहर का दरवाज़ा भविष्य में. पहली बार आकाशवाणी पटना के स्टूडियो गयी थी तो एक ख़ास गंध साथ में लिपटी चली आई थी...इस गंध में इको नहीं होता था...कभी कभी मुझे लगता है कि गंध के साथ शब्द का ख़ासा रिश्ता होता है...स्टूडियो की गंध में कोई आवाज़ नहीं होती...इको नहीं होता. दीवारें जो अक्यूट एंगल पर मिलती हैं...वाकई क्यूट होती हैं. स्टूडियो की मोटी दीवारें...उनपर लगे गत्ते के हिस्से...कार्डबोर्ड...भारी परदे. वहां ठहरी हुयी गंध आती है...जैसे जब से रेडियो स्टेशन बना था तब से कही गयी हर आवाज़ वहीँ ठहरी हुयी है.

स्टूडियो में मेरे पहुँचते रिकोर्डिंग लगभग ख़त्म हो गयी थी...ऑडियो की मिक्सिंग होने में वक़्त लगता तो सिर्फ क्लीन करने के बाद बेस ट्रैक के लिए रुकना था. कितने दिन बाद कोंसोल देखा था...नोट्रे डैम का रवि-भारती याद आया...आईआईएमसी का 'अपना रेडियो' भी.

कुछ देर रुकने के बाद लगा कि बहुत देरी होगी...फिर सुबह की शूट भी थी आठ बजे से...तो घर के लिए निकल पड़ी. मेरी थिंग्स टू डू की लिस्ट में एक चीज़ थी फ़्लाइओवेर पर पैदल चलना. यूँ तो सड़क पर किनारे चलना चाहिए...लेकिन डोमलूर फ़्लाइओवेर के बीचोबीच मीडियन है. जैसा कि आमतौर पर होता है...आम तौर पर करने वाला कोई काम हम करते नहीं है. तो मीडियन पर चल रहे थे. गाने सुनते हुए...रात शुरू हो चुकी थी...दोनों तरफ से तेजी से भागती हुयी गाड़ियाँ...पूरी रौशनी आँखों पर पड़ती हुयी...और फिर बीच फ़्लाइओवेर पर फिर से सब पौज...सब ठहरा हुआ...नीचे गाड़ियाँ भागती हुयीं...ऊपर शहर दौड़ता हुआ...होर्डिंग पर मुस्कुराते लोग...भागते लोग...और ठहरी हुयी बस मैं या फिर आसमान में अटका हुआ चाँद. याद आती है शायद IQ84 में पढ़ी हुयी कोई लाइन...It's just a paper moon. फ्लाईओवर बहुत से लोग क्रोस करते होंगे...मगर सिर्फ फ्लेवर क्रोस करने पर इतना खुश हो जाना...कभी कभी सोचती हूँ कि छोटी छोटी चीज़ों पर खुश हो जाना कितना जरूरी है जिंदगी में कि बात चाहे सिर्फ पहली बार फ़्लाइओवेर क्रोस करने की ही क्यूँ न हो.

शूट पर इतने लोगों से बात की, इतने लोगों को देखा...इतने लोगों को रिकोर्ड किया कि शाम होते होते मिक्स सा कोई कोलाज बन गया...बेहद व्यस्त दिन रहा...भागना, दौड़ना, लोगों को शूट के लिए तैयार करना...शुरुआत कुछ ऐसे करना कि बस कैमरा के सामने खड़े होकर मुस्कुराना है और वहां से शुरू करके आम लोगों से गाने गवाना, डांस के स्टेप्स करना और कैमरे की ओर देख कर मुस्कुराना...ये सब एक साथ करवा लेना...डाइरेक्टर...कैमरामैन...नेहा पहली बार डाइरेक्ट कर रही थी...और मैं पहली बार देख रही थी. वैसे तो शूट पहले किया है पर इतने चेहरों में कोई एक चेहरा अलग सा दिखा. सोच रही थी कि ऐसा क्यूँ होता है कि कोई शख्स बड़ा जाना-पहचाना सा लगता है.

रात को सपना देखा कि कोई है...ठीक ठीक याद नहीं...पर कोई दोस्त है...बहुत करीबी...मुझसे मिलने आया है...मैं उसे अपने हेडफोन्स देती हूँ कि देखो मैं कितना अच्छा गाना सुन रही हूँ...पर वो कहता है कि उसके साथ बस कुछ देर चुप -चाप बैठूं...मैं चौथे महले की सीढ़ियों पर बैठी हूँ उसके साथ...कितनी देर, बिना कुछ कहे. फिर अगला दिन होता है और मुझे पता चलता है कि उसे फांसी हुयी है. इतने में नींद खुलती है...कितना भी याद करती हूँ याद नहीं आता कि सपने में कौन था...घबराहट लगती है...लोगों को खो देने का डर. कारण खोजती हूँ तो पाती हूँ कि कल अचानक से शूट के दौरान ही एक कलीग के घर से फोन आया था कि उसकी दादी को हार्ट अटैक आया है और वो घबरा के हॉस्पिटल भागी थी. हॉस्पिटल की इमरजेंसी और ऐसी चीज़ें दिमाग में रह गयी होंगी शायद.
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उसके खो जाने का डर तारी है...और मालूम भी नहीं है कि वो है कौन जो खो गया है.
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25 November, 2012

अहा जिंदगी!

कल सुबह सुबह अहा! जिंदगी वार्षिक विशेषांक की कॉपी मिली...साथ में चेक...सबसे पहले पापा को फोन किया...बहुत देर बताती रही मैगजीन कैसी है...मेरा छपा हुआ कैसा है...मैं जब हाइपर स्थिति में होती हूँ तो सामने वाले के पास हूँ-हाँ करने के सिवा कोई चारा भी नहीं होता.

कुणाल को बिना चाय के उठा कर हल्ला करना शुरू...मेरी मैगजीन आ गयी...मेरी मैगजीन आ गयी.

फिर भाई को, आकाश को, घर पर, बरुन मामा...सबको फोन किया...स्मृति को मेसेज किया, अंशु को मेल करके कॉपी भेजी और ऐसे कई खुराफाती काम किये जो लगभग महीनों से नहीं किये थे.

फिर साकिब की शादी की शोपिंग करनी थी...तो तैयार होकर निकल गए...एक शेरवानी पसंद आई है अभी...फोरम में जा के एक और पेन ख़रीदे...लामी का...इस बार ट्रांसपेरेंट वाला. पहले के दो पेन खो गए हैं :( हरे और व्हाईट वाले :( कुणाल बोला की पढ़ाई लिखाई का पैसा को पढ़ाई लिखाई के चीज़ में लगाना चाहिए. हमको तो कोई भी कारण चाहिए होता है कि पेन खरीदना जस्टिफाय कर सकें बस. लेट नाईट पिक्चर देखे...घर आ के सो गए.
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फिर आज की सुबह हुयी...मैगजीन के कुछ अच्छे फोटो खींचने को कैमरा बाहर निकाला, बेचारा कितने दिन से इग्नोर मोड में पड़ा था. दालचीनी वाली कॉफ़ी बनायीं. फेवरिट मग में डाली और कैमरा रेडी. सुबह के वक्त खिड़की से बड़ी अच्छी धूप आती है और इसमें फोटो खींचना बहुत पसंद है मुझे. तो ये रहे मैगजीन के दो फोटो. अब बाकी की कहानी शुरुआत से. :)
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सितम्बर के पहले हफ्ते में पारुल जी का फोन आया था कि तुम्हारी क्राकोव डायरीज अहा! जिंदगी में छपवाने के लिए भेज दो. बहुत अच्छी लिखी हैं. ब्लॉग लिखते हुए बहुत साल हुए तब से पारुल का चाँद पुखराज का हमेशा मेरी रीडिंग लिस्ट में रहा है...उनका फोन आया ये भी बहुत अच्छा लगा. तो सबसे पहले तो पारुल जी का ढेर सारा शुक्रिया.

कहीं लिखा हुआ कुछ छपवाने को लेकर अधिकतर विरक्त भाव रहता है...मेरे लिए इतना काफी है कि ब्लॉग पर लिख लिए...पर यहाँ बात अहा! जिंदगी की थी. ये मैगजीन मेरे पापा को बहुत पसंद है...कई बार उनसे इसका जिक्र सुना था...तो लगा की अहा! जिंदगी में छपेगा तो पापा को कितना अच्छा लगेगा. इसलिए बात स्पेशल थी.

ये था पहला फैक्टर...इसके बावजूद क्राकोव डायरीज का आखिरी पार्ट लिख नहीं पायी थी उस समय तक क्यूंकि इस डायरी के एक एक पन्ने को लिखने के लिए गहरे अवसाद से गुजरना होता था...उन लम्हों को फिर से जीना होता था. एक दिन बहुत कोशिश करके आखिरी पार्ट लिखा 'ये खिड़की जिस आसमान में खुलती है, वहां कोई खुदा रहता है'. फिर अगला काम था जो मुझसे सबसे ज्यादा नापसंद था...लिखे हुए को रिव्यू करना. ब्लॉग पर लिखने में कई बार गलतियाँ रह जाती हैं...क्यूंकि ये कलम से लिखने जैसा नहीं है. पब्लिश किये पन्ने पर गलतियाँ मुझे बर्दाश्त नहीं होतीं...और मैं किसी सब-एडिटर पर खुद से ज्यादा विश्वास कर नहीं सकती कि वो पूरे लेख को ठीक से पढ़ेगा. कुल मिला कर २६ पन्ने हुए थे और साढ़े दस हज़ार शब्द. इनको प्रूफचेकर की निगाह से पढ़ना पड़ा. फोन के कोई दो हफ्ते बाद मैंने आर्टिकल भेज दी.

नवम्बर में अहा! जिंदगी के संपादक आलोक जी का मेल आया कि आपका लेख अहा! जिंदगी के वार्षिक विशेषांक में छपा है. यहाँ से एक दूसरी ट्रेजर हंट शुरू हुयी...मैग्जिन खोजने की...पापा ने पटना में पेपर वाले को बोल रखा था उसके अलावा बुक स्टाल पर भी कई बार देखा लेकिन मैक्जिन सोल्ड आउट थी. फिर जिमी देवघर गया हुआ था वहां उसको खोजने पर एक प्रति मिली. भाई ने खुश होकर फोन किया...कि वो भी रेगुलर रीडर है मैगजीन का...कि बहुत अच्छा छपा है...पता है पूरा आठ पन्ने में छपा है. हम हियाँ परेशान कि बाबू रे! लगता है जितना भेजे थे लिख के सब छाप दिया है. पता नहीं कैसा है...कहाँ एडिट हुआ है रामजाने. ऊ अपने फेसबुक पर शेयर किया...हम फूल के कुप्पा. खाली उसका ऊ पोस्ट देखने के लिए एक रात फेसबुक एक्टिवेट किये और फटाफट हुलक आये.

फिर दिल्ली से बरुन मामा का फोन आया कि मैगजीन हाथ आ गयी है लेकिन इसमें तुम्हारा छपा नहीं है. हम नौटंकीबाज...बोलते हैं मामाजी ठीक से देखिये...मेरा नाम पूजा उपाध्याय है :) :) इसी नाम से मिलेगा. फिर मस्त कोम्प्लिमेंट मिला मामाजी से...कि तुमको बुरा लगेगा लेकिन फ्रैंकली स्पीकिंग हमको नहीं लगा था कि इतना कवरेज मिलेगा...बताइये...अपने घर में कितना अंडर एस्टीमेट किया जाता है हमको...कोई इज्ज़ते नहीं है हमारे लिखने का. खैर सेंटी होना बंद किये. मामाजी भी पढ़ के बोले कि बहुत अच्छा लिखी हो.

इस दौरान यहाँ बैंगलोर में कुणाल की मम्मी, नानाजी, नानी और गोलू आये हुए थे...कुणाल की मम्मी छठ करती हैं तो सबको दीवाली की बाद वापस जाना पड़ा...यहाँ से कलकत्ता फ्लाईट और फिर ट्रेन से देवघर. इस बीच हमारे होनहार देवर ने मैगजीन ढूंढ निकाली और फोन किया कि भाभी मैगजीन मिल रहा है...हम बोले दो ठो कॉपी उठा लो...एक ठो हम अपने पापा को भेज देंगे. फिर ट्रेन का सफ़र था देवघर का चार घंटे का तो बीच में नानाजी भी देख लिए मैगजीन...जैसा कि हमारे बिहार में होता है...नाम छपा हुआ देख कर सब लोग बहुत खुद हो जाते हैं...हियाँ तो फोटो भी छपा था उसपर आठ पन्ने का आर्टिकल...नानाजी खुश कि पतोहू खानदान का नाम रोशन की :) :) उनका कितना अरमान रहा कि अखबार में किसी का नाम आये तो फाइनली ई महान काम हम पूरा किये. :) :) (इमैजिनरी फोटू में हम माथा तक घूंघट काढ़े लजाये हुए मुस्कुरा रहे हैं)

ये सब ड्रामा पिछले एक महीने से चल रहा था जबकि हम खुद देखे ही नहीं थे कि भैय्या मैगजीन है कैसी और कैसा छपा है...कि हम तो कभी पढ़े थे नहीं ई वाला मैगजीन. घर पर फोन करके हल्ला किये कि रे हमरे मैक्जीन का पतंग और हवाईजहाज बनाओगे कि भेज्बो करोगे...तो पता चला कि काजू भैय्या का बर्तुहार आ गया था तो हमारा मैगजीन भेजने का काम अभी लेट हो गया...उसपर गाँव से स्पेशल खोया का पेड़ा आ रहा है उसके बिना नहीं आएगा...तिस पर छठ का परसाद...ठेकुआ भी कुरियर होगा. एक मैक्जिन के पीछे कितना उपन्यास लिखने लायक कहानी बन रहा था इधर.

दरबान को रोज एक बार सुबह और एक बार शाम में पूछ लेते कि हमारा कोई कुरियर आया है...खाली एक परसों नहीं पूछे रात को कि बेचारे हम थक कर आये थे ऑफिस से तो भोरे भोर एकदम चकाचक हो गयी. मैगजीन देख कर एकदम मिजाज लहलहा गया जब ई सोचे कि घर में जितना लोग देखा होगा कितना खुश हुआ होगा. मेरा क्या हम तो ब्लॉग छाप के खुश हैं...इतने में मेरा खाना-पानी-दाना चल जाता है. सबसे अच्छा कोम्प्लिमेंट कुणाल से मिला...कि ये है पोलैंड...हमको तो लगता है हम पोलैंड गए ही नहीं...सब तुम ही घूम के आई हो...जो कि गलत है भी नहीं वो तो ऑफिस में काम करता था...घुमक्कड़ी तो हम करते रहते थे...पर दुनिया का कोम्प्लिमेंट एक तरफ...पतिदेव का एक तरफ...काहे कि वो मेरा सबसे बड़ा क्रिटिक है. उसको कुछ पसंद आ गया तो सच में अच्छा लिखे होंगे.

अब आप कहियेगा कि हम इतना कहानी ऊ भी सन्डे को काहे सुना रहे हैं...क्राकोव डायरी ई ब्लॉग पढ़ने वाले सब लोग तो इधर पढ़िए चुके हैं...लेकिन बात यहाँ छपने का नहीं था ना...उसके पीछे कितना ड्रामा था, इमोशन था, ट्रेजेडी था...तो अच्छा ख़ासा मसाला था. बहरहाल...किसी को लिखा हुआ छपा में पढ़ने का मन करे तो अहा! जिंदगी के वार्षिक विशेषांक में छपा है...देखिये कोई अखबार वाले के यहाँ अब भी शायद मिल जाए...और लेट इन्फोर्मेशन के लिए गरियाने का मन है तो एक गिलास ठंढा पानी पी लीजिये...बहुत अच्छा महसूस करेंगे ;) ;)

आज के लिए इतना ही...हम चले खाना बनाने...अभी अभी कुक का फोन आया है कि वो आज सुबह नहीं आएगी...यही है जिंदगी कभी ख़ुशी कभी कम...कभी विस्की कभी रम...पतिदेव खुश होंगे कि पूड़ी सब्जी खाने को मिलेगा...हम परेशान कि बनाना तो हमको पड़ेगा. फिर भी...सुबह सुबह मूड मस्त...अहा जिंदगी!

फुटनोट: क्राकोव डायरीज 

23 November, 2012

बुझा दो सांस जिंदगी कि बहुत धुआं हैं शामों में...

लकड़ियाँ हैं...आम सी लकड़ियाँ...नन्हे से बिरवे में उगीं, जवानी के दिनों में आसमान का सीना चूमा...हवाओं से यारी की...एक एक कोशिका में जीवन था. सेल्फ डिपेंडेंट...खुद के लिए खाना बनाने में सक्षम एक विशाल पेड़ बना था उनसे...गहरे जमीन में जाती जड़ें पानी का कतरा खोजती थीं...हर शाख तक पहुंचाती थीं. जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती थी, इंसानी झुर्रियों जैसी परत दर परत उसका बाहरी हिस्सा बनते जाता था और नाखूनों जैसा मृत हो जाता था.

लकड़ियाँ ही थीं जब तक कि उन्हें काट कर खम्बे में परिवर्तित कर दिया गया...उनका नसीब कुछ भी हो सकता था...कुछ लकड़ियाँ लोगों की चौखटों में लगी...कुछ छकड़ों में...कुछ मंदिर, गिरजाघरों में...और कुछ बदनसीब लकड़ियाँ ऐसी भी होती थीं जिनसे फांसी का तख्ता बनाया जाता था. जिंदगी और मौत के बीच को महसूसने वाली लकड़ियाँ...कलेजा काठ का होता था उनका...पर कई बार होता था कि तख्ते में कच्ची लकड़ियाँ   इस्तेमाल हो जाती थीं. इन लकड़ियों में चंद आखिरी सांसें रह जाती थीं. सहमी हुयीं. कई बार ऐसा भी होता था की बागियों को जिन्दा पेड़ों पर फांसी दे दी जाती थी...उन पेड़ों के पत्ते सहम जाते थे...कोटरों में रहने वाले पक्षी दूसरी जगह बसेरा ढूंढ लेते थे.
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मैं अब लिख नहीं सकती. मैं अब लिखना नहीं चाहती. सोचती रहती हूँ कि इन दोनों वाक्यों में से कौन सा सही है. मैं पढ़ नहीं सकती. कितनी तरह की किताबें पढ़ने की कोशिश की पर पूरी नहीं कर पायी. फिल्में भी नहीं देख पाती हूँ. गाने भी नहीं सुन पाती हूँ. बैंगलोर का मौसम अजीब हो रखा है...नवम्बर में बारिश...
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कुछ तो खींचे जिंदगी की ओर...ऐसे में क्या मिलूं किसी से और क्या बातें करूं...हमेशा की आदत...खुश रहती हूँ तो लोगों से मिलती हूँ...उदास रहती हूँ तो बंद कमरा. मगर अब ऐसा क्यूँ लगता है कि दीवारों को भी मेरी बातें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

अजीब अजीब ख्याल आते हैं. किस किस उम्र में जा के लौट आती हूँ...किसी से प्यार करो तो सवाल ये नहीं होता है कि वो भी आपसे प्यार करता है या नहीं...सवाल सिर्फ एक होता है...उसकी दुनिया में आप हो भी या नहीं. सिर्फ इतना...डू यु इवन एक्जिस्ट...इन द सेम वर्ल्ड...या फिर आपकी एकदम अलग अलग दुनिया है. दिन भर में उसे कभी फुर्सत भी मिलती है आपके बारे में सोचने की. व्यस्त होने के कैसे पैरामीटर हैं.
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इसे जीना नहीं कहते हैं...जिंदगी जब तक एक ड्रग की तरह धमनियों में उत्तेजना पैदा नहीं करे जिंदगी नहीं होती...बहुत ख़ुशी और बहुत गम के बीच का सी-सॉ झूलते हुए बीच की स्थिति में जीना कभी आया ही नहीं. अभी सब ठहरा हुआ है. कहीं कुछ आगे नहीं बढ़ता...कहीं कुछ भूलता नहीं...कहीं कुछ याद नहीं आता...कहीं बारिश नहीं रूकती...कहीं नदी बाँध तोड़ कर नहीं बहती...कहीं मैं कह नहीं पाती हूँ तुमसे ही कि प्यार है कितना...कहीं से खुद को खोज कर ला नहीं सकती हूँ. नफरतों के ऐसे कांटे उग आये हैं कि लहूलुहान हुए बैठे हैं.

खुद से नफरत करने की भी एक हद होती है...कमसे कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि उफनती गंगा में कूद कर जान दे सकें...इतनी होनी चाहिए कि ब्लेड से धमनियां काटते हुए सोचना न पड़े...इतनी होनी चाहिए कि तेज़ रफ़्तार आती हुयी किसी बस के आगे खुद को फ़ेंक सकें...इतनी होनी चाहिए कि किसी डॉक्टर को सही सही सिम्पटम्स बता सकें कि नींद नहीं आती...नींद की गोलियों को पानी में घोल कर पी जाने जितनी नफरत तो होनी ही चाहिए खुद से...इससे कम नफरत की भी तो क्या की...विरक्त भाव से जीना भी कोई जीना है.

आखिर कब तक काले साए मेरा पीछा करेंगे...हर रोज़ देखती हूँ, हर मोड़ पर चेहरा...हर खिड़की में आँखें...रिव्यू मिरर में कोई इंतज़ार करता हुआ. इतनी बार धोखा तो नहीं हो सकता ना...कोरी पड़ी कोपियों में कितनी चिट्ठियां लिख के फाड़ डाले कोई...कितना आग लगा दें कि काफी हो. क्यूँ न मर ही जाए एक बार इंसान कि रोज़ रोज़ का टंटा ख़त्म हो.

या खुदा! कहाँ रखी है क़यामत...आँखों से लहू बरसता है...अब तो भेज जलजले कि इस कमबख्त जिंदगी से पीछा छूटे...नहीं चाहिए मुझे गुनाहों की माफ़ी...नहीं चाहिए उम्रकैद...कहीं कोई सुनवाई घर है तेरे यहाँ तो भेज मौत के फ़रिश्ते को...कि चाहे फ़ेंक दे मुझे दोज़ख में...कहीं...खुदा...कितनी उम्र बची है मेरी?

18 November, 2012

जिंदगी, तुम्हारे जवाबों के लिए मेरे पास सवाल नहीं हैं

मैंने उसे बचाए रखा है जैसे सिगरेट के आखिरी कश में बचा रह जाता है थोड़ा सा तुम्हारे होठों का स्वाद...हाँ...मैंने बचा रखी है अब भी अपने अन्दर थोड़ी सी वो लड़की जिससे तुम्हें प्यार हुआ था. कि अब याद नहीं आखिरी बार कब चलाई थी बाईक...कितने दिनों से टूटी हुयी है पेट्रोल की टंकी...ठीक नहीं कराती हूँ...सर्विस स्टेशन नहीं भेजती हूँ...मगर आज भी चाबियों के गुच्छे में मौजूद है घर की और चाबियों के साथ ही बाईक की चाबी भी...
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एक एक करके इस घर में मेरी कितनी सारी कलमें खो गयीं...अब बस एक बची है...पर्पल कलर की...कितना सोचती हूँ पर फिर कहाँ खरीदती हूँ नयी कलम...सियाही की बोतलें भी तो आधी हो गयीं हैं अब. कितनी सारी कोपियाँ खरीद रखी हैं पर कहाँ लिख पाती हूँ तुम्हें एक पन्ने की चिट्ठी भी. गहरे हरे रंग से लिख रही हूँ आजकल...तुम्हें याद है वो ग़ालिब का शेर...हम बियाबां में हैं और घर में बहार आई है. कितना कुछ है तुमसे कहने को पर अब शब्दों में विश्वास नहीं होता और तुम मेरी खामोशियाँ नहीं समझते.
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देर रात वायलिन के तारों से नस काटने की कोशिश की थी...ख़ामोशी की झील पर...झिलमिल कुछ टुकड़े...इतने खूबसूरत कि मरने नहीं देते. आज चाँद भी बेहद तीखा और धारदार था, हंसुली की तरह...चांदनी में कोई गीत गाते हुए कटिया से धान की फसल काटती औरतें याद आयीं. यूँ याद नहीं आ सकती, मैंने कभी औरतों को धान काटते नहीं देखा है.
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मैं पैरानोइड हो गयी हूँ...आज फिर कुछ लोगों को देखा...
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बंगलौर की कुछ बेहद ठंढी शामें हैं. सिगरेट पीने का मन करता है...पीती नहीं हूँ कि ऐसे ही शौक़ से एक कश दो कश मारते हुए आदत लग जायेगी. मेरे पास एक हल्दी के रंग की शॉल है...जैसे दिल्ली में तुमने खो दी थी न, वैसी ही...आज देर रात सड़क पर सन्नाटा और कोहरा पसरा हुआ था. बहुत मन हुआ कि स्लीवलेस कोई टॉप पहन कर, बाएँ कंधे पर शॉल डाल कर थोडा सड़क पर टहल लूं...साइकिल चलाते हुए देखा कि सारे सूखे पत्तों को एक जगह इकठ्ठा कर दिया गया है...शायद सुबह इनमें आग लगाई जायेगी. आज से पहले ध्यान नहीं गया था कि पतझड़ आ गया है. मन के मौसम से वसंत को गए तो जैसे कितने महीने बीत गए. हर बार सोचती हूँ और बर्फ जमने नहीं देती...विस्की अकेले पीने का मन था आज.
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आप जैसे हो वैसे खुद को एक्सेप्ट कर लो या जैसा होना चाहते हो वैसे खुद को बदल लो...इनमें से कुछ नहीं हो सकता है तो कागज़ उठाओ...पागलों/लेखकों/कवियों की दुनिया में स्वागत है.
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शराब बहुत बुरी चीज़ है ऐसा सब कहते हैं...मैंने बहुत ज्यादा लोगों को कुछ पीते हुए देखा नहीं है...जो थोड़े लोगों को देखा है वैसे में देखा है कि पीने के बाद लोग बेहतर इंसान हो जाते हैं...दिल में जो है कह पाते हैं...प्यार है तो जता पाते हैं...अक्सर देखा है पहला काम कि लोगों को बताना कि वो कितने इम्पोर्टेन्ट हैं लाइफ में.
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लैपटॉप क्रैश करने से दो मेजर दिक्कतें हैं...आईफोन पर अपनी पसंद के नए गाने नहीं डाल सकती और फोटो नहीं देख सकती...कोई बैक-अप नहीं था तो सब कुछ याद करना होता है. ऐसे में अक्सर याद कुछ और करने चलती हूँ याद कुछ और आ जाता है.
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जनवरी की वो रात याद आ रही है...जयपुर में यही रात के कोई ढाई बज रहे थे...हम अपने होटल से निकल कर...निशांत के सौजन्य से किसी नेता की गाड़ी में अपने होटल जा रहे थे...गलत रास्ता था...सो कुछ दूर पैदल चलना था...हील्स में चलने में दिक्कत थी...मैंने बूट्स उतार दिए थे. ठंढ के दिन थे...सड़क पर नंगे पाँव चल रही थी. पूरी पलटन...आगे आगे मैं और डेल्टा...रास्ता खोजने के लिए...और पीछे कुणाल और पौन्डी...डेल्टा को चिढ़ाते हुए टर्रर्र टर्रर्र करते हुए. थोड़े से टिप्सी...बहुत सारे खुश...आज सब लखनऊ में मुझे मिस कर रहे हैं...मैं यहाँ उन्हें मिस कर रही हूँ.
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जिंदगी के साथ लव-हेट रिलेशनशिप है...

थे बहुत बे-दर्द लमहे खत्मे-दर्दे-इश्क़ के
थी बहुत बे-महर सुबहें मेहरबां रातों के बाद
-फैज़
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'और बता, कैसी है?'
'ठीक हूँ'
'अच्छा, तो अब झूठ बोलना भी सीख लिया'
(@#$%%^^&*((&^%)
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कहानी वाली लड़की का क्या हुआ? 
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b.r.e.a.t.h.e

15 November, 2012

स्मोकिंग अंडरवाटर

एक डूबे हुए जहाज के तल में बैठी हूँ...एक कमरे भर ओक्सिजन है. शीशे के बाहर काली गहराई है. लम्हे भर पहले एक मिसाइल टकराई थी और पूरा जहाज डूबता चला गया है. पानी में कूदने का भी कोई फायदा नहीं होने वाला था...मुझे तैरना नहीं आता. मेरे पास एक पैकेट सिगरेट हैं...मैं लंग कैंसर होने के डर से मुक्त हूँ. देखा जाए तो डर बीमारी का नहीं मौत का था...लेकिन जब मौत सामने खड़ी है तो उससे डर नहीं लग रहा.

एक के बाद दूसरी सिगरेट जलती हूँ...कमरे की ऑक्सीजन को बिना शिकायत हम दोनों आधा आधा बाँट लेते हैं...मेरी पसंदीदा मार्लबोरो माइल्ड्स...सफ़ेद रंग के पैकेट पर लिखी चेतावनी को देखती हूँ...जिंदगी के आखिरी लम्हों में कविता सी लगती है...स्मोकिंग किल्स.

धुएं के छल्ले बनाना बहुत पहले सीख लिया था...छल्ला ऊपर की ओर जाता हुआ फैलता जाता है...मौत बाँहें पसार रही है. शीशे के बाहर कुछ नहीं दिखता...पूरे जहाज़ पर चीज़ें टूट-फूट रही होंगी...खारा पानी शक्ति-प्रदर्शन में लगा होगा. मैं कोई गीत गाने लगती हूँ...विरक्त सा कोई गीत है जो मुझसे कहता है कि दुनिया फानी है...न सही.

दोपहर एक दोस्त को फोन किया था डाइविंग जाने के पहले...कुछ जरूरत थी उसे...समझाया था ढंग से...फिर बिना मौसम की बात की थी...चिंता मत कर...पुल से कूदने के पहले तुझे फोन कर लूंगी. बचपन की दोस्त की याद ऐसे आती है  कि दरवाजा खोल कर समंदर में घुल जाने का दिल करने लगता है. मोबाईल में एक एसएमएस पड़ा है...तुम्हें समझ नहीं आता...नहीं कर सकता बात मैं तुमसे...व्यस्त हूँ. सोचती हूँ...मैं वाकई कितनी बेवक़ूफ़ हूँ कि मुझे समझ नहीं आता. देवघर का घर...झूला...मम्मी का बनाया हुआ केक याद आता है.

मुझे विदा कहना नहीं आता...जिंदगी एक्सीडेंट ही है...मौत का इतना तमाशा क्यूँ हो?

मैं उससे पहली बार मिली तो जाना था हम किसी के लिए बने होते हैं...जिन परीकथाओं के बारे में सोचा नहीं था उन पर यकीन करने का दिल किया था. मैं उसके बारे में नहीं लिखती...कभी नहीं...उसका नाम इतना पर्सनल लगता है कि धड़कनों को भी उसका नाम तमीज से लेने की हिदायत दे रखी है. उससे मिलने के बाद जाना था किसी के लिए जीना किसे कहते हैं...मेरे लिए हमेशा वो ही है...एक बस वो.

पूरी पूरी जिंदगी मौत के तैय्यारी हो या जीने का जश्न...फैसला हमेशा हमारे हाथ में नहीं होता...कमरे में ऑक्सीजन कम हो गयी है...सांस लेने में तकलीफ होने लगी है अब...ये आखिरी कुछ लम्हे हैं...मुझे सब याद आता है...उसकी जूठी सिगरेट...उससे कोई एक फुट छोटा होना...उसका कहना कि हंसती हो तो दिखता कैसे है...तुम्हारी आँखें इतनी छोटी हैं. आज बड़ी शिद्दत से वो दिन याद आ रहा है जब उससे पहली बार मिली थी. हर छोटी छोटी चीज़...खुशबुएँ...दिल्ली का कोहरा...मैगी...कॉफ़ी...फर का वो भूरा कोट...मेरा शॉल जो उसने भुला दिया.

सब कुछ रिवाईंड में चलता है...जिंदगी...इश्क...बचपना...और फिर सब कुछ भूल जाना...

06 November, 2012

धूप देश की लड़की...छाँव देश का लड़का

लड़का बिखेरते चलता...धूप, हवा, खुशबू...लड़की समेटते चलती उसके पीछे, धानी दुपट्टा, दूब और पगडंडियाँ...लड़का उँगलियों से खड़े कर देता पहाड़...लड़की उनमें खींचती नदियाँ...लड़का बनाता रात का गहरा काला आकाश...लड़की उसमें उकेर देती बिजलियों की अल्पना...लड़का चलता चुप-चुप-चुप...लड़की चलती गुन-गुन-गुन. लड़का रचता जेठ का महीना...लड़की रचती बारिशें.

फिर एक दिन दोनों बिछड़ गए...फिर लड़के ने बनाया आँसू तो लड़की ने घोल दिया उसमें नमक...लड़के को नमक की तासीर कहाँ मालूम थी...उसने आँसू से नमक निकालने को बनाए समंदर तो लड़की ने बनाए नमक पत्थर के अभेद्य किले...कि लड़का बनता था पानी तो लड़की होती थी चट्टान...कि लड़का लगाता था आग तो लड़की बनती थी हवा...कि उनमें जो भी एक जैसा था वो टूटने लगा था.
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टूटने के यही दिन थे कि जब दुनिया में कुछ का भी नाम नहीं था...सिर्फ स्वर थे...संगीत के स्वर...षडज, रिषभ, गन्धर्व, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद...लड़की उसका नाम ढूंढ रही थी...कोमल सुर या तीव्र...मगर धीरे धीरे उसकी स्वर पहचानने की क्षमता घटती जा रही थी...एक एक करके उसके जीवन से सारे सुर लोप होते जा रहे थे...सबसे पहले गंभीर और अनुभवी षडज कहीं दूर चला गया. लड़की ने खुद को समझाया कि उसकी उम्र हुयी...कौन जाने किसी दिन अलंकार के जंगल में रास्ता भटक गया और भूखा कोई ताल उसे खा गया हो. फिर एक दिन रिषभ भी ज़ख़्मी हालत में वीणा के नाद में गुम हो गया...अब लड़की को गन्धर्व की चिंता शुरू हुई...वो कहाँ गुम होयेगा? कैसे जाएगा? गन्धर्व उसका पसंदीदा सुर था...कोमल 'ग' और शुद्ध 'ग'. दोनों उसके बचपन के दोस्त थे...जुड़वां भाई जो कुछ कुछ एक जैसे थे. फिर एक दिन एक सन्नाटे का अंधड़ चला और लड़की के हाथ से दोनों गन्धर्व छूट गए...लड़की बहुत रोई...बहुत रोई. फिर उसने बाकी बचे सुरों को समेटा और उनसे एक राग बनाया...अपूर्ण...षडज के बिना शुरुआत नहीं होती थी.
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लड़की चुप होती गयी...मध्यम ने बहुत दिन कोशिश की...वो समझाता कि एकदम चुप न रहे...कभी कभार कुछ तो कहे...कि वो समझता था कि लड़की का चुप रहने का मन करता है...फिर भी कभी कभार कुछ कहना जरूरी होता है. पंचम, धैवत और निषाद बहुत कोशिश करते थे कि कोई राग बना सकें कि लड़की का फिर से गाने का मन करे मगर लड़की एकदम चुप हो गयी थी. ऐसी कि तार सप्तक का षड्ज जब मिला तो उसे पहचान भी नहीं पाया.
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मगर उन्हें मिलना था तो वे फिर मिले...लड़के का अब तक कोई नाम नहीं था...युंकी देखा जाए तो लड़की का भी कोई नाम नहीं था...पर उसे नाम की जरूरत नहीं थी कि लड़का कभी उसे पुकारता नहीं था वो खुद उसकी परछाई की ऊँगली पकड़ कर उसके पीछे चला करती थी...कभी कभार लड़का ज्यादा तेज़ चलने लगता था तो लड़की को उसे बुलाना पड़ता था...इसलिए उसे एक नाम चाहिए था...लड़की ने सप्तक तोड़े...फिर से उसे अपने दोनों नन्हे, भटके, खोये हुए गन्धर्वों की याद आई...उसे याद आई वीणा...जंगल का अँधेरा.

लेकिन लड़के को ठहरना नहीं आता था...वो फिर चल पड़ा...लड़की की आँखों में बहुत अँधेरा था इसलिए उसने रचा सूरज...लड़की के होठों पर बहुत उदासी थी इसलिए उसने रची गुदगुदी...लड़की के दिल को चोट लग गयी थी इसलिए उसने रचा इश्क.

बस...यहीं गलती हो गयी लड़के से...इश्क एकदम अपनी किस्म का मनचला था...जिद्दी...बद्दिमाग...और उसकी संगत में लड़की भी कुछ कुछ अलग ही होने लगी थी...पहले से ही वो बावरी थी...इश्क से मिलने के बाद तो उसके मूड का कोई ठिकाना ही नहीं रहता...लड़का परेशान रहने लगा था. उसे लड़की की बहुत फ़िक्र होती थी...वो खुद से रास्ते नहीं तलाश सकती थी. हर बार लड़का उसे ढूंढ के लाता...वो हर बार टूटी और सुबकती हुयी मिलती थी.

लेकिन लड़की अपनी तरह की जिद्दी थी...लड़का अपनी तरह का...लड़के ने बनायी डार्क चोकलेट और लड़की ने बनायी सिल्वर रैपर...लड़के ने उड़ायी केसर की गंध तो लड़की ने बनायी चावल की खीर...लड़का मुस्कुराया तो लड़की शरमाई...वे साथ चलते रहे...कभी लड़का आगे हो जाता...कभी लड़की...फिर लड़की ने बनाया रूठना तो लड़के ने बनाया मनाना...फिर लड़के ने बनाया कमरा तो लड़की ने बनाया घर...फिर लड़के ने बनायी कतार तो लड़की ने रोपी खुशियाँ...

फिर...

31 October, 2012

अच्छी वाली बारिशें

जब सुबह इन्द्रधनुष के बुलाने से नींद खुले
तुम बनाओ मेरे लिए दालचीनी वाली कॉफ़ी
खाने को कहीं से मिल जाए मम्मी के हाथ का खाना
पापा कॉल कर के पूछे कि मैं कैसी हूँ 

दोनों कानों के झुमके एक साथ टंगे हों 
बिना ढूंढें मिल जाए फेवरिट दुपट्टा
शैम्पू करने में लगे सिर्फ पांच मिनट
बारिश में घुल जाए मेरा परफ्यूम  

सड़क किनारे बन जाएँ नदियाँ
तुम छाता लेकर भागो मेरे पीछे
भीगूँ मैं और सर्दी तुम्हें हो 
फिर साथ बनाएं तुलसी का काढ़ा 

सेट-अप करें होम-थियेटर सिस्टम
सुने एक दूसरे की पसंद के गाने
उलटे-पुल्टे स्टेप्स वाले डांस करें
और थक के सो जायें बिना खाए पिए

फिर बारिश ही जगाये रात दो बजे
दो मिनट की मैगी बनाएं 
साथ खींचें अजीब एंगल में फोटो
बारिश को कहें...कम अगेन 

जाने दो...साढ़े आठ बज गए 
उठो जानेमन...कि दिन शुरू हुआ 
कमबख्त बारिश...कमबख्त ऑफिस 
तुम ये ख्याली पुलाव खाओ, मैं चाय बनाती हूँ 

29 October, 2012

अधीरमना...

Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.

मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.

विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.

हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.

कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.

मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.

थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...

बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...

केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...

23 October, 2012

स्ट्राबेरी आफ्टरनून्स

Love is temporary madness.
-Louis de Bernieres
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'डेज ऑफ़ बीइंग वाइल्ड'. एक मिनट के लिए ऐसे ही रहना बस...सिर्फ एक मिनट. कहना न होगा कि जब से इस फिल्म को देखा है उस आखिर के लम्हे का इंतज़ार बेतरह बढ़ गया है. क्या नज़र आता है उस आखिरी लम्हे में...क्या वाकई ऐसी छोटी छोटी चीज़ें, छोटे छोटे वादे याद रहते हैं?

तो क्या लगता है...उस एक लम्हे की उम्र कितनी होगी? एक लम्हे...उसका चेहरा भी नहीं था सामने. आँखें देख नहीं सकती थीं मगर उसे छू कर महसूस कर सकती थी. वक़्त को भांग का नशा हो रखा था और वो धीमे गुज़र रहा था. जादू की तरह सारे लोग कहीं गायब हो गए...लम्हे भर को सूरज निकला और बहुत सारी रौशनी कमरे में भर गयी...मैं देख नहीं सकती थी इसलिए धूप दिखी नहीं वरना शायद पार्टिकल्स का डांस देख पाती कि कैसे धूल का एक एक कण मुझे देख कर मुस्कुरा रहा है...आती हुयी धूप हथेलियों में भर गयी और एक पूरे लम्हे की गर्माहट मैंने मुट्ठी में बंद कर ली. इश्वर के तथास्तु कहने के बाद का लम्हा था वो...जिसमें और कुछ भी मांगने की गुंजाईश ही नहीं बचती थी.

कभी कभी कितना जरूरी होता है ये अहसास कि कोई खो भी सकता है. फेसबुक के जमाने में किसी का खो जाना ही ख़त्म हो गया है...किसी से आखिरी बार मिलना. किसी से दूर जाते हुए उस आखिरी नज़र को किताब में बुकमार्क की तरह इस्तेमाल करना. खो जाना कभी कभी अच्छा होता है. खो जाने में उम्मीद होती है कभी तलाश लिए जाने की...कभी अचानक से मिल जाने की. वो दिन अच्छे थे जब बिछड़ना होता था. कीप इन टच एक जुमला नहीं होता था बस. किसी के चले जाने पर दिल में एक जगह खाली हो जाती थी और उसके कभी वापस आने का इंतज़ार करते हुए हम वो जगह हमेशा खाली रखते थे. ट्रेन में छेकी गयी सीट की तरह. कि यहाँ कोई अगले स्टेशन पर आ कर बैठने वाला है. कहने को जगह खाली होती थी पर यादें परमानेंट किरायेदार होती थीं. इस लिए कभी कभी जरूरी हो जाता है कि हम खुद खो जाएँ, ऐसी जगह कहाँ कोई और तलाश न सके.

वो बड़ी मीठी गंध थी. गाँव के लोग जैसी मीठी. अच्छे लोगों जैसी अच्छी. ताज़ी रोटियों की गंध जैसी अतुलनीय...मैं उसकी हथेली की एक लकीर माँगना चाहती थी, मेरे शब्दों के ऊपर की रेखा खींचनी थी...फिलहाल सारे अक्षर अलग अलग थे. उस एक लकीर से जोड़ना चाहती थी. उसकी हथेली में बहुत सी रेखाएं थीं मगर सिर्फ एक कविता कहने के लिए कैसे मैं एक लकीर मांग लेती. इकतारा बजाता एक फकीर गुज़रता है दरवाज़े से...उसकी फैली हुयी झोली में वो मेरे हाथ से एक रेखा मांगता है...मैं उसे अपनी हार्ट लाइन देती हूँ...फकीर उसे अपने झोले में रख लेता है...फिर अचानक से कहता है...उसे हार्ट लाइन नहीं लाइफ लाइन चाहिए थी. वो मेरी लकीर वापस करता है मुझे. मैं उसे कहना चाहती हूँ, ये मेरी हार्ट लाइन नहीं, किसी और की है...मगर मेरी लाइफ लाइन के बदले मुझे वही तुम्हारी एक रेखा मिलती है. उस रेखा को अपने अक्षरों के ऊपर रख कर मैं कविता पूरी करती हूँ. तब तक जिंदगी पूरी हो गयी है...मुझे सिर्फ एक ही कविता लिखने का वक़्त मिला है. मैं हैरान हूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं है.

The aftertaste of strawberry afternoons is you.

मेरी दोपहरों में रंग नहीं हैं इसलिए मुझे खुशबुएँ याद रह जाती है...तुम्हें पता है...इंसान सबसे जल्दी सेन्स ऑफ़ स्मेल एडजस्ट कर लेता है. मुझे तुम्हारे ब्रांड का परफ्यूम चाहिए...तुम जो परफ्यूम लगाते हो उसका ब्रांड नहीं. बताओ...है कोई जो तुम्हारा इत्र एक शीशी में बंद कर मुझे गिफ्ट कर सके. मैं तुम्हें छूने में डरती हूँ...मेरी उँगलियाँ तुम्हारी आँखों की याद दिलाती हैं...उन आँखों की जो मैंने देखी नहीं हैं. कोई गीत गुनगुनाते हुए तुम्हारी आदत है कुर्सी पर आगे पीछे झूलने की...मेरी आँखों पर रौशनी और परछाई के परदे बदलते रहते हैं. तुम्हें नहीं देख पाना एक अजीब किस्म की घबराहट है.

शायद एक दिन मैं फिर से देख पाउंगी...दुनिया शायद तब तक वैसी ही रहेगी. सूरज तब भी गुलाबी रंग का होगा...सड़क किनारे पेड़ों पर गुलाबी पत्ते होंगे...मेरे गाँव में बर्फ पिघल चुकी होगी और स्ट्राबेरी के छोटे पेड़ों पर पके लाल स्ट्राबेरी तोड़ने के लिए मैं एक छोटी डोलची लेकर घर से चलूंगी...तुम किसी सराय में रुके होगे और मैं तुम्हें देख कर पहचान नहीं पाउंगी क्यूंकि मेरी यादों में तुम्हारा कोई चेहरा ही नहीं है.

मैं हर बार भूल जाउंगी कि किसकी तलाश में गाँव के एकलौते बस स्टॉप पर बैठी हूँ...वहीं किसी पैरलल दुनिया में मेरी आँखों की रौशनी सलामत होगी और मैं तुम्हें देखते ही पहचान जाउंगी...तुम गाँव के मुखिया को रीति रिवाज के अनुसार मेरी चुनी हुयी स्ट्राबेरी की डोलची दोगे और बदले में मेरा हाथ मांग लोगे. जब इतना कुछ हो रहा होगा...किसी और पैरलल दुनिया में मैं ऐसा कुछ लिख रही होउंगी.

तो ये कौन सी वाली दुनिया है?

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


12 October, 2012

गुजारिशें...


चलो,
हथेलियों से उगायेंगे बारिशें 
किसी शहर में 
जहाँ होंगी गलियां
खुरदुरी चट्टानों से बनी हुयीं 

सुनो,
चौराहे पर आती है 
अनगिन वाद्ययंत्रों की आवाज़ 
बहती हवा के साथ बह कर 
संतूर की धुन चुनते हैं 
बारिश के बैकड्रॉप में 

देखो,
नदी पर पाल वाली नावों को
नक़्शे में ढूंढो हमारा घर 
गुलाबी हाइलाईटर से मार्क करो 
दिल से दिमाग के रास्ते को
भटक जाती हूँ कितनी बार 

लिखो,
एक ख़त मुझे 
ऐसी भाषा में जो मुझे नहीं आती 
समझाओ एक एक शब्द का अर्थ 
पन्ने पर करना वाटरमार्क 
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर 

रचो,
एक दुनिया 
कि जिसमें मेरी पसंद के सारे लोग हों
ढूंढ के लाओ खोये हुए किस्से 
टहकते ज़ख्म, अधूरी कवितायें
सीले कागज़ और टूटी निब वाले पेन 

जियो 
इस लम्हे को मेरे साथ
कि छोटी है उम्र की रेखा 
ह्रदय रेखा से 
जैसे प्यार होता है बड़ा
जिंदगी और मौत से

10 October, 2012

चाबी वाली लड़की

खुदा ने इन्द्रधनुष में डुबायी अपनी उँगलियाँ और उसके गालों पर एक छोटा सा गड्ढा बना दिया... और वो मुस्कुराने के पहले रोने के लिए अभिशप्त हो गयी. 
किसी गाँव में चूल्हे से उठती होगी लकड़ियों की गंध. कहीं कोई लड़की पहली बार बैठी होगी बैलगाड़ी पर. किसी दादी ने बच्चे की करधनी में लगाए होंगे चांदी के चार घुँघरू...किसी लड़की ने पहली बार कलाई में पहनी होंगी हरे कांच की चूड़ियाँ. कवि ने पेन्सिल को दबाया होगा दांतों में. टीचर ने चाक फ़ेंक कर मारा होगा क्लास की सबसे बातूनी लड़की को. 

कहीं कोई विवाहिता कड़ाही में छोड़ती है बैगन के बचके. कहीं एक बहन बचाती है अपने भाई को माँ की डांट से. कोई उड़ाता है धूप में सूखते गेहूं के ऊपर से गौरैय्या. कहीं माँ रोटी में गुड़ लपेट कर देती है तुतरू खाने को. कुएं में तैरना सीखता है एक चाँद. पीपल के पेड़ पर घर बनाता है एक कोमल दिल वाला भूत. शिवाले में प्रसाद में मिलते हैं पांच बताशे. हनुमान जी की ध्वजा बताती है बारिश का पता. चन्दन घिसने का पत्थर कुटाई वाली की छैनी से कुटाता है. रात को कोई बजाता है मंदिर की सबसे ऊंची वाली घंटी. 

दुनिया का बहुत सा कारोबार बेखटके चलता रहता है. एक लड़की बैठी होती है गंगा किनारे...नदी उफान पर है और इंच इंच करके खतरे के निशान को छूने की जिद में लड़की से कहीं और चले जाने की मिन्नत करती है. 

विजयादशमी के लिए रावण का पुतला तैयार करने वाले कारगर की बेटी बैठी है पटाखों के पिरामिड पर. माचिस के डब्बों से बनाती है मीनारें. 

कहीं एक परफेक्ट दुनिया मौजूद है...शायद आईने के उस पार.

पोसम्पा भाई पोसम्पा...लाल किले में कितने सिपाही? कतार लगा कर सारे बच्चे जल्दी जल्दी भागते हैं. आखिर गीत ख़त्म होने तक एक बच्चा दो जोड़ी हाथों में कैद हो जाता है और किले का एक पहरेदार बदल दिया जाता है. 

कोई बताता नहीं कि खट्टी इमली क्यों नहीं खानी चाहिए या फिर जो चटख गुलाबी रंग का लस्सा लपेटे आदमी आता है उसकी मिठाई खराब क्यूँ है. सवालों के चैप्टर के अंत में जवाब लिखने के लिए जगह नहीं है. एक लड़की टीचर से पूछती है कि दुनिया में सारे लोग क्या सिर्फ नीली और लाल इंक से लिखते हैं. लड़की को हरा रंग पसंद है. टिकोले की कच्ची फांक सा हरा।
धान की रोपनी में लगे किसान और जौन मजदूर एक लय में काम करते हैं. घर आया मजदूर मुझसे मुट्ठी भर गमकौउआ चूड़ा मांगता है. मैं फ्राक के खजाने से उसे एक मुट्ठी चूड़ा देती हूँ. उसकी फैली हथेली में मेरी छोटी सी मुट्ठी से गिरा चूड़ा बुहत कम लगता है लेकिन वो सौंफ की तरह उसे फांक कर एक लोटा पानी गटक जाता है. 
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एक दुनिया है जिसमें लड़की खो जाती है जंगल में तो उस जंगल में खिल आते हैं असंख्य अमलतास...जंगल से बाहर आती है तो शुरू होते हैं सूरजमुखी के खेत...सूरजमुखी के खेतों से जाती है एक अनंत सड़क जिसके दोनों ओर हैं सफ़ेद यूकेलिप्टस...उस रास्ते में आता है सतरंगी तितलियों का घोसला...वहां के झींगुरों ने बनाए हैं नए गीत...वहां बारिश से आती है दालचीनी की हलकी खुशबू...दुआओं के ख़त पर लगती है रिसीव्ड की मुहर...एक तीखे मोड़ पर है एक कलमकार की दूकान जो बेचता है गुलाबी रंग की स्याही...उसी दुनिया में होती है छह महीने की रात...मगर वहीं दीखता है औरोरा बोरेआलिस...उसी दुनिया में रुक गयी है मेरे हाथ की घड़ी. उस दुनिया में कोई नहीं लिखता है कहानियां कि कहानियों से चले आते हैं खतरनाक किस्म के लोग और पैन्डोरा के बक्से की तरह वापस जाने को तैयार नहीं होते.

दुनिया में ताली के लिए ताला होता है...लड़की की उँगलियों में उग आते हैं खांचे और उसकी आँखों में उग आता है ताला..लड़की अपनी हथेलियाँ रखती है आँखों पर और अपनी पलकों को लौक कर देती है. 

07 October, 2012

बोस के हेडफोन्स...न ना...मेरे हेडफोन्स :) :)


बारिशें आजकल मूडी हो गयी हैं बैंगलोर में...मेरा असर पड़ा है मौसम पर लगता है. आज सुबह सूरज गायब है...कोहरे कोहरे वाली दिल्ली सा मौसम लग रहा है. ठंढ बिलकुल वैसी ही है...खिड़की खुली है और हलकी हवा चल रही है. जाड़ों के आने की पहली आहट है.

लिखने-पढ़ने के बाद जो चीज़ मुझे सबसे अच्छी लगती है वो है म्यूजिक...कुछ अच्छा सुनना...अपनी पसंद का. कुछ दिन पहले कुणाल ने मेरे लिए बोस के हेडफोन खरीद दिए. अभी से कोई तीन साल पहले नए हेडफोन्स खरीदने का मन हुआ था तो ऐसे ही बोस के शोरूम चले गए थे हम...सोचा था कितना महंगा होगा...पाँच हज़ार टाइप भी होगा तो खरीद लेंगे. जब बात संगीत की आती है तो बोस सबसे अच्छा है. वहाँ हेडफोन की कीमतें देखीं तो हँसी आ गयी. दो मॉडल थे...एक सत्रह हज़ार का और एक बाईस हज़ार का. हम डिस्कस करते हुए निकले कि ये लोग पागल हैं क्या, कौन खरीदेगा सत्रह हज़ार का हेडफोन. ऐसा क्या कर देंगे हेडफोन में कि सत्रह हज़ार लगायेगा कोई. चुपचाप सेनहैजर का दो हज़ार वाला नोर्मल हेडफोन ख़रीदे और अभी तक वही इस्तेमाल कर रहे थे. 

फुल-टाइम ऑफिस मेरे जैसे लोगों के बस का नहीं है ऐसा डिसाइड कर चुके थे. फ्रीलांसिंग में अच्छे प्रोजेक्ट्स आ रहे थे. एक किताब लिखनी खत्म की थी कि एक अच्छे साड़ी के ब्रांड के लिए फिर से कॉफी टेबल बुक का ओफ्फर पास में था. क्लायंट को मेरा काम पसंद आया था. किताब लिखने में कोई छः महीने टाइप लग जाते हैं लगभग. सब अच्छा चल रहा था कि इस वाले ऑफिस के लिए इंटरव्यू में चले गए. सब अच्छा रहा तो ज्वायन भी कर लिए. अब ऑफिस ज्वायन करते ही जो चीज़ सबसे पहले चाहिए होती है वो है हेडफोन...मुझे काम करते हुए किसी भी तरह का डिस्टर्बेंस पसंद नहीं है. ध्यान भंग होता है तो सोच की लड़ी टूट जाती है फिर वापस उसी जगह जा कर लिखना या सोचना हो नहीं पाता है. 

जहाँ बैठती हूँ पहली बार ऐसा हुआ है कि और भी कंटेंट के लोग हैं. टीम जहाँ बैठती है वो बेसमेंट में है और ऊपर सड़क को खिड़की खुलती है. हम उसे डंजयंस (Dungeons) कहते हैं. मुझे लगता है इस टीम का हिस्सा होने के लिए पागलपन एक जरूरी क्वालिफिकेशन है. हम जोर्ज को पूछते भी हैं कि कंटेंट टीम में लोग लेने के पहले क्या पागलपन मीटर चेक भी होता है. सब एक दूसरे की खिंचाई का एक भी मौका नहीं जाने देते. शब्द तो ऐसे पकड़ते हैं कि कोलेज का जमाना याद आ जाता है. जरा सा जुबान फिसली नहीं कि लपेटे में आ जाते हैं. तो अधिकतर काफी हल्ला-गुल्ला-मस्ती का माहौल रहता है. ऊपर डिजाइन टीम के लोग अगर कभी कभार आ जाते हैं तो घंटे आधे घंटे में ही सर पकड़ लेते हैं. 

मैंने जितने कॉपीराइटर्स या लिखने वाले लोगों को देखा है सब अधिकतर एक ही खाके से निकल कर आये होते हैं. कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर...बेहद आउटगोइंग...बिंदास और बहुत ज्यादा बोलने वाले. अधिकतर एक ऑफिस में एक ही काफी होता है पर यहाँ तो हम चार चार हैं. मैं अभी नयी आई हूँ तो अभी डिजाइन टीम के साथ ज्यादा काम नहीं किया था मगर अभी हाल में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक दिन ऊपर बैठना पड़ा. लोग परेशान कि आज तुमको हो क्या गया है...तुम तो ऐसी नहीं थी...और मैं कि नहीं रे बाबा मैं हमेशा से ऐसी ही थी तुम लोग जानते नहीं थे हमको. सब कहते हैं कि जोर्ज के पास सबसे 'हैपनिंग' टीम है. यहाँ पर तृश का म्यूजिक चोईस मुझे अक्सर पसंद आता है...तो जब मेरे पास मेरे अपने सुनने के कुछ खास पसंद के गाने नहीं होते तो तृश से पूछ लेती हूँ...आज क्या सुन रहे हो...और अधिकतर वो कुछ ऐसा सुन रहा होता है जो मैंने पहले कभी  नहीं सुना है. इंग्लिश में मैंने बहुत कम गाने सुने भी हैं तो हमेशा कुछ नया सुनने का स्कोप रहता है. कुछेक और दोस्त हैं मेरे जो मुझे म्यूजिक भेजते रहते हैं...musically on the same page. :)

खैर...इतने शोर में लोचा ये है कि या तो बहुत लाउड म्यूजिक प्ले करना पड़ता था या फिर काम करने में हज़ार दिक्कत होती थी. मैं काम करते हुए अधिकतर इन्स्ट्रुमेन्टल सुनती हूँ...लूप पर या फिर कोई ऐसा गाना जो मैंने इतनी हज़ार बार सुना है कि उसके शब्द वैसे ही बहते हैं जैसे रगों में खून...अब ऐसा कुछ लाउड वोल्यूम में प्ले करना का मन नहीं करता है. फिर लगा कि शायद अच्छे हेडफोन खरीदने होंगे. जिनमें नोइज कैंसिलेशन अच्छा होता हो. हम फिर बोस के शोरूम गए...देखने के लिए कि वाकई हेडफोन अच्छे हैं क्या. यहाँ फोरम मॉल में संडे के लिए मेला लगा रहता है...आधा बैंगलोर शायद वहीं पहुँच जाता है. हमने शोरूम में अटेंडेंट से पूछा कि इसका नोइज कैंसिलेशन कैसा है...उसने कहा कि बता नहीं सकती...आपको अनुभव करना होगा. हम शोव्रूम के बाहर आये...वहाँ दुनिया भर का शोर था. हेडफोन्स ऑन किये और दुनिया का शोर जैसे फेड कर गया...जैसे संगीत के अलावा कहीं और कुछ था ही नहीं. वो एक अद्भुत अनुभव था...एकदम जादू जैसा. वोल्यूम बहुत तेज भी  नहीं था...मीडियम था. मेरे चेहरे पर मेरा आश्चर्य दिख रहा होगा...

बस...मूड तो वहीं बन गया कि हेडफोन्स चाहिए. अब बात थी बैक कैलकुलेशन की.१७ हज़ार के हेडफोन्स...घर पे बताएँगे तो सबसे पिटेंगे कि दिमाग खराब हो गया है. इतना महंगा कोई हेडफोन खरीदता है...इतने में कुछ और कुछ अच्छा खरीद लो. बस कुणाल है कि हमेशा कहता है कि अगर अच्छी चीज़ है तो दाम का मत सोचो. लेकिन हम हैं कि गिल्ट से मरे जा रहे हैं...फिर हाँ ना करते करते...खुद को समझाते. हमको अच्छा म्यूजिक पसंद है...अच्छा म्यूजिक सुनने के लिए अच्छे हेडफोन्स चाहिए...फिर ऑफिस में हल्ला कितना होता है. अच्छा हेडफोन जरूरी है. बोस के नोइज कैंसिलेशन की तकनीक के कारण हल्का सा वैक्यूम सा बनता है...और हेडफोन की फिटिंग भी बहुत सही आती है. 

कोई महीने से ऊपर हुआ बोस के हेडफोन्स इस्तेमाल करते हुए. लगता तो ये है कि अभी तक मैंने जितना कुछ भी ख़रीदा है ये सबसे अच्छी चीज़ खरीदी है. चाहे फिल्म देख रहे हों या कि अपनी पसंद का कोई गाना सुन रहे हों. इन हेडफोन्स से पूरी डिटेल साफ़ सुनाई पड़ती है. अगर म्यूजिक का थोड़ा ज्यादा शौक़ है और अफोर्ड कर सकते हैं तो इन हेडफोन्स से बेहतर कुछ भी नहीं हैं. खास तौर से इन्स्ट्रुमेन्टल...क्लासिक सुनने का मज़ा ही और है. लगता ही नहीं है कि आसपास की दुनिया एक्जिस्ट भी करती है. वोकल सुनती हूँ तो लगता है कोई मेरे लिए ही गा रहा है...खास मेरे लिए...बिलकुल करीब आ कर. संगीत से रोमांस की शुरुआत है...और उफ़...कितना खूबसूरत है ये. 

मुझे नैट किंग कोल काफी पसंद हैं...बीटल्स को भी बहुत सुनती हूँ...आज की सुबह जेरी वेल के नाम रही...कुछ अच्छे लोगों के कारण कुछ बेहद अच्छा संगीत सुना है मैंने. इन अच्छी चीज़ों के लिए शुक्रिया नहीं होता...बार्टर सिस्टम होता है...तुम मुझे संगीत दो...बदले में हम भी तुमको कुछ अच्छा भेजेंगे :) :) 

आप ये सुनिए...Innamorata...Sweetheart in Italian. 

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

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