Showing posts with label सूरज. Show all posts
Showing posts with label सूरज. Show all posts

23 October, 2012

स्ट्राबेरी आफ्टरनून्स

Love is temporary madness.
-Louis de Bernieres
---
'डेज ऑफ़ बीइंग वाइल्ड'. एक मिनट के लिए ऐसे ही रहना बस...सिर्फ एक मिनट. कहना न होगा कि जब से इस फिल्म को देखा है उस आखिर के लम्हे का इंतज़ार बेतरह बढ़ गया है. क्या नज़र आता है उस आखिरी लम्हे में...क्या वाकई ऐसी छोटी छोटी चीज़ें, छोटे छोटे वादे याद रहते हैं?

तो क्या लगता है...उस एक लम्हे की उम्र कितनी होगी? एक लम्हे...उसका चेहरा भी नहीं था सामने. आँखें देख नहीं सकती थीं मगर उसे छू कर महसूस कर सकती थी. वक़्त को भांग का नशा हो रखा था और वो धीमे गुज़र रहा था. जादू की तरह सारे लोग कहीं गायब हो गए...लम्हे भर को सूरज निकला और बहुत सारी रौशनी कमरे में भर गयी...मैं देख नहीं सकती थी इसलिए धूप दिखी नहीं वरना शायद पार्टिकल्स का डांस देख पाती कि कैसे धूल का एक एक कण मुझे देख कर मुस्कुरा रहा है...आती हुयी धूप हथेलियों में भर गयी और एक पूरे लम्हे की गर्माहट मैंने मुट्ठी में बंद कर ली. इश्वर के तथास्तु कहने के बाद का लम्हा था वो...जिसमें और कुछ भी मांगने की गुंजाईश ही नहीं बचती थी.

कभी कभी कितना जरूरी होता है ये अहसास कि कोई खो भी सकता है. फेसबुक के जमाने में किसी का खो जाना ही ख़त्म हो गया है...किसी से आखिरी बार मिलना. किसी से दूर जाते हुए उस आखिरी नज़र को किताब में बुकमार्क की तरह इस्तेमाल करना. खो जाना कभी कभी अच्छा होता है. खो जाने में उम्मीद होती है कभी तलाश लिए जाने की...कभी अचानक से मिल जाने की. वो दिन अच्छे थे जब बिछड़ना होता था. कीप इन टच एक जुमला नहीं होता था बस. किसी के चले जाने पर दिल में एक जगह खाली हो जाती थी और उसके कभी वापस आने का इंतज़ार करते हुए हम वो जगह हमेशा खाली रखते थे. ट्रेन में छेकी गयी सीट की तरह. कि यहाँ कोई अगले स्टेशन पर आ कर बैठने वाला है. कहने को जगह खाली होती थी पर यादें परमानेंट किरायेदार होती थीं. इस लिए कभी कभी जरूरी हो जाता है कि हम खुद खो जाएँ, ऐसी जगह कहाँ कोई और तलाश न सके.

वो बड़ी मीठी गंध थी. गाँव के लोग जैसी मीठी. अच्छे लोगों जैसी अच्छी. ताज़ी रोटियों की गंध जैसी अतुलनीय...मैं उसकी हथेली की एक लकीर माँगना चाहती थी, मेरे शब्दों के ऊपर की रेखा खींचनी थी...फिलहाल सारे अक्षर अलग अलग थे. उस एक लकीर से जोड़ना चाहती थी. उसकी हथेली में बहुत सी रेखाएं थीं मगर सिर्फ एक कविता कहने के लिए कैसे मैं एक लकीर मांग लेती. इकतारा बजाता एक फकीर गुज़रता है दरवाज़े से...उसकी फैली हुयी झोली में वो मेरे हाथ से एक रेखा मांगता है...मैं उसे अपनी हार्ट लाइन देती हूँ...फकीर उसे अपने झोले में रख लेता है...फिर अचानक से कहता है...उसे हार्ट लाइन नहीं लाइफ लाइन चाहिए थी. वो मेरी लकीर वापस करता है मुझे. मैं उसे कहना चाहती हूँ, ये मेरी हार्ट लाइन नहीं, किसी और की है...मगर मेरी लाइफ लाइन के बदले मुझे वही तुम्हारी एक रेखा मिलती है. उस रेखा को अपने अक्षरों के ऊपर रख कर मैं कविता पूरी करती हूँ. तब तक जिंदगी पूरी हो गयी है...मुझे सिर्फ एक ही कविता लिखने का वक़्त मिला है. मैं हैरान हूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं है.

The aftertaste of strawberry afternoons is you.

मेरी दोपहरों में रंग नहीं हैं इसलिए मुझे खुशबुएँ याद रह जाती है...तुम्हें पता है...इंसान सबसे जल्दी सेन्स ऑफ़ स्मेल एडजस्ट कर लेता है. मुझे तुम्हारे ब्रांड का परफ्यूम चाहिए...तुम जो परफ्यूम लगाते हो उसका ब्रांड नहीं. बताओ...है कोई जो तुम्हारा इत्र एक शीशी में बंद कर मुझे गिफ्ट कर सके. मैं तुम्हें छूने में डरती हूँ...मेरी उँगलियाँ तुम्हारी आँखों की याद दिलाती हैं...उन आँखों की जो मैंने देखी नहीं हैं. कोई गीत गुनगुनाते हुए तुम्हारी आदत है कुर्सी पर आगे पीछे झूलने की...मेरी आँखों पर रौशनी और परछाई के परदे बदलते रहते हैं. तुम्हें नहीं देख पाना एक अजीब किस्म की घबराहट है.

शायद एक दिन मैं फिर से देख पाउंगी...दुनिया शायद तब तक वैसी ही रहेगी. सूरज तब भी गुलाबी रंग का होगा...सड़क किनारे पेड़ों पर गुलाबी पत्ते होंगे...मेरे गाँव में बर्फ पिघल चुकी होगी और स्ट्राबेरी के छोटे पेड़ों पर पके लाल स्ट्राबेरी तोड़ने के लिए मैं एक छोटी डोलची लेकर घर से चलूंगी...तुम किसी सराय में रुके होगे और मैं तुम्हें देख कर पहचान नहीं पाउंगी क्यूंकि मेरी यादों में तुम्हारा कोई चेहरा ही नहीं है.

मैं हर बार भूल जाउंगी कि किसकी तलाश में गाँव के एकलौते बस स्टॉप पर बैठी हूँ...वहीं किसी पैरलल दुनिया में मेरी आँखों की रौशनी सलामत होगी और मैं तुम्हें देखते ही पहचान जाउंगी...तुम गाँव के मुखिया को रीति रिवाज के अनुसार मेरी चुनी हुयी स्ट्राबेरी की डोलची दोगे और बदले में मेरा हाथ मांग लोगे. जब इतना कुछ हो रहा होगा...किसी और पैरलल दुनिया में मैं ऐसा कुछ लिख रही होउंगी.

तो ये कौन सी वाली दुनिया है?

26 February, 2011

लौट आने वाली पगडण्डी

मुझ तक लौट आने को जानां
ख्वाहिश हो तो...
शुरू करना एक छोटी पगडण्डी से 
जो याद के जंगल से गुजरती है 
के जिस शहर में रहती हूँ
किसी नैशनल हायवे पर नहीं बसा है 

धुंधलाती, खो जाती हुयी कोहरे में 
घूमती है कई मोड़, कई बार तय करती है
वक़्त के कई आयाम एक साथ ही 
भूले से भी उसकी ऊँगली मत छोड़ना 

गुज़रेंगे सारे मौसम
आएँगी कुछ खामोश नदियाँ
जिनका पानी खारा होगा
उनसे पूछना न लौटने वाली शामों का पता

उदास शामों वाले मेरे देश में
तुम्हें देख कर निकलेगी धूप
सुनहला हो जाएगा हर अमलतास 
रुकना मत, बस भर लेना आँखों में

मेरे लिए तोहफे में लाना 
तुम्हारे साथ वाली बारिश की खुशबू 
एक धानी दुपट्टा और सूरज की किरनें
और हो सके तो एक वादा भी 

लौट आने वाली इस पगडण्डी को याद रखने का 
बस...

17 July, 2010

ख़ामोशी के दोनों छोर पर

एक शोर वाली रात थी वो, एक भागते शहर की एक बेहद व्यस्त शाम गुजरी थी अभी अभी, बहुत सी निशानियों को पीछे छोड़ते हुए. अनगिनत होर्न, आँधियों वाली एक बारिश, अँधेरा सा दिन, सहमा सा सूरज...दर्द की कई हदों को छूते और महसूस करते हुए एक लड़की सड़क के किनारे भीगते हुयी चल रही थी, उसका चेहरा बिजली की चमक में सर्द दिखने लगता था. उसके उँगलियाँ एकदम बर्फ हो गयीं थीं, सदियों में किसी ने उसकी हथेली को चूम के पिघलाया नहीं था. सुनहली आँखें, जिनमें अभी भी कोई लपट बाकी दिखती थी, गोलाई लिए चेहरा मासूमियत से लबरेज. खूबसूरती और दर्द का एक ऐसा मेल की देखने वाले को उसके जख्मों की खरोंच महसूस होने लगे.
----------------------------

उस रात मैं मर जाना चाहती थी, इतनी बारिश इतना अँधेरा दिन, घर भूला हुआ छाता, यादों का ऐसा अंधड़...तन्हाई का ऐसा शोर. बस स्टाप से घर की दूरी...उसपर हर इंसान की ठहरती हुयी नज़र. इनको क्या मेरी आँखों का सारा दर्द नज़र आता है, इतनी बेचारगी क्यों है सबकी आँखों में...सहानुभूति...जैसे की ये समझ रहे हों हालातों को. नौकरी का आखिरी दिन था आज...ये तीसरी जगह है जहाँ से इसलिए निकाला गया की मैं खूबूरत हूँ. बाकी लोग काम पर ध्यान नहीं लगा पाते. उसने भी तो इसलिए मुझे छोड़ा था क्योंकि मुझे घूरते बाकी लोग उसे बर्दाश्त नहीं होते थे. रोज के झगडे, इतना सज के मत निकला करो, बिंदी तक लगाना बंद कर दिया मैंने...माँ कहती थी काजल लगाने से नज़र नहीं लगती...शायद मुझे नज़र लग गयी है.

----------------------

कांपते हाथों से उसने फ़ोन लगाया...एक बार उसकी आवाज सुन लेती तो शायद जिंदगी जीने लायक लगने लगती...फ़ोन पर किसी तरफ से कोई कुछ नहीं बोला...

----------------------
घर पहुँचते ही बेटी दौड़ के गले लग गयी. वो लगभग बेहोश हो चुकी थी...आँखें खुली तो सुबह की धूप खिड़की से आ रही थी...उसने देखा बेटी की आँखों का रंग बेहद सुनहला था, उसकी खुद की आँखों की तरह.
जिंदगी फिर से जीने लायक लगने लगी.

23 June, 2010

सायलेंट रीडर

मेरी छत से उसकी बालकनी दिखती है. मैंने उसे कई बार आसमान में जाने क्या ढूंढते देखा है. वो लड़की भी अजीब सी है...खुद में हँसती, सोचती, उदास होती...शाम को उसका चेहरा उदास दीखता है, मालूम नहीं ये शाम के रंगों का असर है या कुछ और. उसे अक्सर फ़ोन पर बातें करते देखा है...बस देखा भर है क्योंकि उसकी आवाज कभी नहीं आती, हालाँकि बहुत कम अंतर है, कुछेक फीट का बस. कभी कभी उसकी हंसी अचानक से बिखर जाती है. वो जब भी हँसती है मुझे छत पर गेहूं सुखाती अपनी बहन याद आती है.

कल मैंने उसे पहली बार सिगरेट पीते देखा...पता नहीं क्यों झटका सा लगा. मैंने उसका चेहरा ध्यान से नहीं देखा है कभी. मुझे मालूम नहीं कि वो पास से कैसी दिखती होगी. मेरी छत से शाम के धुंधलके में बस कुछ कुछ ही दीखता है उसका चेहरा. एक आध बार सड़क पर चलते भी देखा है, शायद वो ही थी पर मैं पक्का नहीं कह सकता. उसके मूड का पता उसके बालों से लग जाता है...जब उसका मूड अच्छा होता है तो उसके बाल खुले होते हैं, इतनी उंचाई पर घर होने से हवा अच्छी आती है, और उसके बाल बिखरे बिखरे रहते हैं. 

वो लाइटर से खेल रही थी, उसकी आँखों की तरफ लपकती आग डरा रही थी मुझे. अचानक से ऐसा लगा कि उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं. ऐसा मुझे लगना नहीं चाहिए क्योंकि मैंने उसका चेहरा पास से कभी नहीं देखा है. मुझे ये भी लगा उसके बाल सफ़ेद हो गए हैं. याद करने की कोशिश करता हूँ तो ध्यान आता है कि मुझे इस घर में आये, साल भी तो बहुत बीत गए हैं. इतने सालों में उसने कब सिगरेट पीनी शुरू की मुझे पता ही नहीं चला.

डूबता सूरज, वो और मैं तीनो एक अजीब रिश्ते में बंधे हैं...जब भी कोई एक नहीं होता है तो लगता है दिन में कुछ अधूरा छूट गया है. आज लग रहा है कि कुछ टूट रहा है, उसकी बालकनी में लोहे के बड़े जंगले लग रहे हैं. शायद उसके बच्चे शहर से बाहर रहने लगे हैं, और उनके हाल में लौटने का कोई आसार नहीं आ रहा है. मुझे ये बालकनी के ग्रिल में रहते लोग हमेशा जेल के कैदी जैसे लगते हैं. आजकल उसकी हंसी कम सुनाई देती है. घर पर बहन भी कहाँ अब गेहूं सुखाती है, अब तो मार्केट में बना बनाया आटा मिलता है. गेहूं धोना, सुखाना कौन करता है अब.

कुछ दिनों से बादल छाये हैं, सूरज बिना बताये डूब जाता है. शाम का आना जाना पता ही नहीं चलता...पूरे पूरे दिन बारिशें होती हैं...वो कई दिनों से बालकनी में नहीं आई. मेरा दिन अधूरा सा बीतता है...रिश्ते कई तरह के होते हैं ना. मुझे लगता है सूरज भी उसको मिस करता होगा. 

तेज दर्द हो रहा है सर में, संडे की पूरी दोपहर खट खट होती रही है, कहीं काम चल रहा है शायद बढई या मिस्तरी का...शाम एकदम खिली हुयी हुयी है. बस थोड़े से बादल और धुला नीला आसमान. मेरा बेटा आजकल शायद छुप के सिगरेट पीता है, शाम को छत पर क्या करता है रोज के रोज. हो सकता है किसी लड़की का कॉल भी आता हो. सोच रहा हूँ उससे बात कर लूं, बहुत दिनों बाद छत पर चढ़ता हूँ. अब कुछ भी शारीरिक काम करने में आलस भी बहुत आता है, थकान भी होती है. 



छत पर उस बालकनी में उसकी बेटी है, शायद विदेश से पढाई पूरी कर के लौट आई है. ग्रिल भी गायब है, मिस्तरी इसी ग्रिल को हटाने का काम कर रहे थे सुबह से शायद. मेरा बेटा एजल पर एक बालकनी पेंट कर रहा है पेंटिंग आधी बनी है. उस लड़की के बाल खुले हैं और हवा में उसका हल्का नीला दुपट्टा लहरा रहा है. 

15 June, 2010

dusk - the ethereal curtain fall

the sky is a simple halo...dark clouds around the setting sun, a whispering goodbye to all things beautiful and natural...like the rays of light...like sunshine.


i tend to float...push lightly from the tip of my toe and waft in the outgoing breeze from my 8th floor cubicle. i think of freedom. of souls that stay forever in infinity...of ghosts trapped between life and death...of a shadow quietly leaning on the shoulder of my memories.


sadness takes a brush, dips it in the overflowing oceans and paints a tear near the corner of my eye...i touch it to find it has moistened my heart and choked my breath. my fingers are stuck in the bottle of the yellow i wanted to paint the canvas with...words are getting lost...again.


an ink bottle has rolled all the way down to the corner of the sky, it wants a monochromatic rainbow. i listen to a montage from wong kar wai's film. minimise the video on my desktop and dream of the character in the film that says "if memory has an expiry date, let it be 10,000 years".


instrumental music lets you paint, just you need to be moving with the notes. and keep the piano moving. i think its a good accompaniment to memories...very un-disturbing...very smooth. i can't believe i still sketch those eyes...light brown ones...honey colour as they say...with a black pencil...and i see those colours. 


love touches you for a moment, and changes you forever...tinting you sunsets to a shade of honey.


my soul misses its companion. 

18 May, 2010

सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता

समंदर सूरज पर कमंद फेंक कर  
आसमान पर चढ़ बैठा है 
लहर लहर बारिश हो रही है 

शहर अँधेरे पानी में डूब गया है
इसी पानी में सूरज भी घुला था 
पर उसकी रौशनी कहीं भी नहीं पहुंची है 

सारे घर लंगर डाले बैठे हैं 
किसी की नींव उठाई नहीं जा सकती अब 
थपेड़ों में अचल, शांत, अमूर्त 

मोमबत्ती की बुझने वाली लौ में 
जलाई जा रही है आखिरी सूखी सिगरेट 
जिसके कश लेकर मरना चाहता है कवि 

प्रलय के इस वक़्त भी वह नास्तिक है
इश्वर से जीतने पर गर्वोन्मत्त 
इच्छा, आशा, क्या प्रेम भी? से मुक्त 

गरजते बादल में कौंधती है बिजली 
एक क्षण. काली आँखें. रोता बच्चा 
कवि को गुजरती बारात याद आती है 

जल विप्लव सी सांझ वो काली आँखें 
सिन्दूरी सूरज सा लाल जोड़ा 
भयावह शोर नगाड़ों का, प्रलय. 

नींद टूटती है तो उसके हाथ जुड़े होते हैं 
सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता 
वो कल्कि अवतार का इंतज़ार करने लगता है  

06 May, 2010

कन्फ्यूज्ड सूरज







सूरज बादलों में उलझ के
घर जाने का रास्ता भूल गया है
कंफ्यूज्ड सा सोच रहा है
पश्चिम किधर है

जिस पेड़ से पूछता है
हड़का देता है, जम्हाई लेते हुए
सोने का टाइम हो रहा है
ऊंघ रहे हैं सारे पेड़

रात छुप के खड़ी है
क्षितिज की ओट में
सूरज के कल्टी होते ही
दादागिरी करने आ जायेगी

शाम लम्बी खिंच गयी है 
पंछी ओवरटाइम के कारण
भुनभुनाते लौट रहे हैं
ट्रैफिक बढ़ गया है आसमान का

चाँद बहुत देर से
आउट ऑफ़ फोकस था
सीन में एंट्री मारा
फुसफुसा के सिग्नल दिया

डाइरेक्शन मिलते ही
सूरज सर पे पैर रख के भागा
अगली सुबह हाँफते आएगा
बदमाश पेड़ को बिफोर टाइम जगाना जो है. 

26 April, 2010

पैराशूट से उतरता चाँद

सच को लिखना जितना आसान होता है, उसको जीना उतना ही मुश्किल।
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।

-----------------------

एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।

ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...

कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
------------------------------

some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.

23 April, 2010

एक शाम

डूबते सूरज को सीट के ऊपर से देखती हूँ।
आठवें फ्लोर पर ऑफिस है,
सूरज सामने लगता है

वायलिन सुनती हूँ
किसी की याद में भीगते हुए
सूरज से कहती हूँ रुको ना थोड़ी देर और

दोस्ती हो गयी है
शाम के इस लाल गालों वाले
गुदगुदे सूरज से

क्षितिज पर झूला झूलता है वो
मुस्कुराता है मुझे देख कर
उस तरफ कोई इंतज़ार कर रहा है

चलो ठीक है, जाने दिया
कल फिर आओगे ना
प्रोमिस? हाँ प्रोमिस।

14 April, 2010

बारिश

क्षितिज के कोने से अटक गया था
अप्सरा का साँवला दुपट्टा
खींच रही थी वो, आँखें दिखा रही थी
बिजलियाँ कौंध गयीं देर शाम...

बिखर गए दुपट्टे में अटके सितारे
बारिश खुशबू से भिगा गयी धरती को
मचल के उठी धुंध उसको एक बार छूने के लिए
डांटा उसने जोर से, बदल गरज गए

तीन ताल बज रहा था खिड़की के पल्ले पर
बूंदों को याद थी उसके पैरों की थाप
ठुड्डी पे हाथ टिकाये पेड़ रस में डूबे थे
झूम रहा था कण कण मदोन्मत्त होकर

सूरज शर्म से लाल हो गया
शाम अँधेरे में दबे पाँव उतर गयी
धीमा हो गया राग मल्हार
रंग बुझे, पर्दा गिरा...रात हुयी

19 February, 2009

पुराने दोस्त

आज एक पुराने दोस्त से बात हुयी
और जाने कैसे जख्मों के टाँके खुल गए

सालों पुरानी बातें जेहन में घूमने लगीं
खुराफातों के कुछ दिन अंगडाई लेकर उठे

बावली में झाँकने लगी कुछ चाँद वाली शामें
पानी में नज़र आई किसी की हरी आँखें

सड़कों पर दौड़ने लगी कुछ उंघती दुपहरें
परछाई में मिल गया एक पूरा हुजूम

सीढियों पर हंसने लगे कुछ पुराने मज़ाक
फूलों पर उड़ने लगी मुहब्बत वाली तितली

बालकनी में टंग गया तोपहर का गुस्सैल सूरज
गीले बालों में उलझ गई पीएसार की झाडियाँ

सड़कों पर होलिया गई फाग वाली टोली
रंगों में भीग गया पूरा पूरा हॉस्टल

चाय की चुस्कियों में घुल गए कितने नाम
पन्नो के हाशियों पर उभर गई कैसी गुफ्तगू

गानों का शोर कब बन गया थिरकन
फेयरवेल बस उत्सव सा ही लगा था बस

पर वो जाने पहचाने चेहरों की आदत
कई दिनों तक सालती रही...

उस मोड़ से कई राहें जाती थी
और हम सबकी राहें अलग थी

कभी कभी लगता है
जेअनयू के उसी पुल पर
हम सब ठहरे हुए हैं...
जिसके पार से दुनिया शुरू होती थी

आज हम सब इसी दुनिया में कहीं हैं
पुल के उस पार के जेअनयू को ढूंढते हुए

यूँ ही कभी कभी
कोई दोस्त मिल जाता है

तो चल के उस पुल पर कुछ देर बैठ लेते हैं
इंतज़ार करते हैं...शायद कुछ और लोग भी लौटें

जाने उस पुल पर अलग अलग समय में
हम में से कितने लोग अकेले बैठते हैं...

कभी इंतज़ार में...और कभी तन्हाई में।

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...