क्षितिज के कोने से अटक गया था
अप्सरा का साँवला दुपट्टा
खींच रही थी वो, आँखें दिखा रही थी
बिजलियाँ कौंध गयीं देर शाम...
बिखर गए दुपट्टे में अटके सितारे
बारिश खुशबू से भिगा गयी धरती को
मचल के उठी धुंध उसको एक बार छूने के लिए
डांटा उसने जोर से, बदल गरज गए
तीन ताल बज रहा था खिड़की के पल्ले पर
बूंदों को याद थी उसके पैरों की थाप
ठुड्डी पे हाथ टिकाये पेड़ रस में डूबे थे
झूम रहा था कण कण मदोन्मत्त होकर
सूरज शर्म से लाल हो गया
शाम अँधेरे में दबे पाँव उतर गयी
धीमा हो गया राग मल्हार
रंग बुझे, पर्दा गिरा...रात हुयी
बिलकुल नये बिम्ब !!!!!!!!! इस अनोखी बारिश में भीग गया तन -मन , सुन्दर सी अभिव्यक्ति के लिए ढेरों बधाइयाँ .
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeletejane kyon dil ko chooten hai ye shabd...
ReplyDeleteutkrist kalpanasheelta..
puja jee likhte raha kariye....
ReplyDeletejansatta me apka aalekh dekhne ke baad aapke blog ke baare me jana....
kaam par aate hi aapke blog ki nayee post ki raah takta hoon...
mujhe mere sundar se ateet me le jati hain aapki abhiwyaktee....
shabd dar shabd tarash deti hain aap bhawnao ke sundar jagat ko...
badhai ho....
गजब-गजब बिंब हैं! जय हो!
ReplyDeleteपिछले 3 दिनों से बंगलुरु वर्षा में नहाया है । सब शीतल है । सामयिक विषय, दार्शनिक दृष्टिकोण ।
ReplyDeletebaarish ka kya khoob varnan..
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
khoobsurat drishya racha hai
ReplyDeletewah wah wah,, kal barish hui hai lagta hai Bengaluru mein... bahut pyara aur kya sunadar shabdo ka istemal kiya hai,,
ReplyDeleteइस कविता मे बेहद खूबसूरत बिम्बों का इस्तेमाल किया है आपने यही इसे कविता बनाते हैं ।
ReplyDeleteइस भागदौड़ भरी लाइफ में एक जैसी कविता मना है... शुक्र है हमारे पास लहरें हैं जहाँ कई रंग मिल जाते हैं वरना नयी कविता के नाम पर तो हमलोग बस रोजमर्रा की चीजें लिख रहे हैं... इस कविता में इतने पैकर हैं की मन लुभा गया... हम तो गद्द सोचे बैठे थे ये तो पद्द निकला...
ReplyDelete"उँगलियों पर तीन ताल गिनता हूँ;
हम्म. वक़्त की रफ़्तार अभी दुरुस्त है "
रंग बुझे, पर्दा गिरा...रात हुयी.
छोटे छोटे शब्द... बड़े बड़े केनवास मानस पटल पर खिंच गए.... शुक्रिया.
तीन ताल बज रहा था खिड़की के पल्ले पर
ReplyDeleteबूंदों को याद थी उसके पैरों की थाप
ठुड्डी पे हाथ टिकाये पेड़ रस में डूबे थे
झूम रहा था कण कण मदोन्मत्त होकर"
बहुत सुन्दर पँक्तियाँ..............."
कविता नही एक सिगरट है जो दिल्ली मे अप्रैल के दूसरे हफ़्ते की ४३ डिग्री वाली उमस भरी शाम मे बहते पसीने के बीच डाह की आग सी पी जाने लायक है..जिसे पढ़ कर धुँआ भर हताशा एक लम्बी आह के साथ बाहर निकल जाय..उफ़ बारिश!!
ReplyDeleteठुड्डी पे हाथ टिकाये पेड़ रस में डूबे थे
ReplyDeleteझूम रहा था कण कण मदोन्मत्त होकर"
बहुत सुन्दर पँक्तियाँ...
:) ये कविता सा पढ रहा हू.. मुझे पढने दो :) disturb mat kero :D
ReplyDeletebahut acchi rachna hai puja, shabdo ki ek aisi dor hai jo ek lye bandhe hui hai.....
ReplyDeletevery nice..........
जाने क्यों कविता में मुझे वही पूजा दिख जाती है......
ReplyDeleteकविता से मुग्ध हो कर टिप्पणी-बक्से तक पहुँचा तो अपूर्व की टिप्पणी ने लूट लिया...
ReplyDeleteकन्फुजियाया हुआ वापस जा रहा हूँ...