सच को लिखना जितना आसान होता है, उसको जीना उतना ही मुश्किल।
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।
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एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।
ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...
कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
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some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.
ऐसे ही मैं पटना को मिस करता हूँ
ReplyDeleteओह पूजा...........मैं आज आज सुबह से थोडा सेंटी थी (मेरे पिया गए रंगून टाइप सिचुएशन में) आपके पोस्ट ने और भी..........ये यादें भी न.... कभी भी चली आती हैं, कहीं भी ले जाती हैं.........दिल की हालत समझती ही नहीं।
ReplyDeleteबहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeleteबड़ी बड़ी इमारतों के पीछे बेचारा चाँद कहाँ नज़र आता है.हर दिन चंद ईद का होता जा रहा है..
ReplyDeleteदर्दे दिल बयां कर गई
ReplyDeleteखुद का सामना कर गई
आपमें कला है ... शब्दों का कला ...
बढ़िया लिखा है आपने ....
Puja ji,
ReplyDeleteJNU me samajh lijiye padhte-padhte reh gaya!
MBA me dakhila ho gaya tha Hamdard mein!
Venky me padhte samay kaee baar jaana hua, aur har baar yehi aarzoo ke ek din yahan bhi padhna hai....
Lekin ye ho na saka!!!
Aur haan, saagar kabhi kyun nhain thakta, lehro ko patakte hue...?
ReplyDeleteIska jawab main doonga, agli post mein!
Shubhkaamnaen!
बस, यहीं गलती कर दी आपने । हम जब भी कब्बन पार्क से निकलते हैं, गाड़ी का शीशा खोल कर फेंफड़ो में ऑक्सीज़न उतार लेते हैं । अब आपने कब्बन पार्क की हवा में अपने पुराने सेंटीमेन्ट्स घोल दिये हैं और वो भी पार्थसारथी रॉक वाले । अब सांस लेने में एक आधा सेन्टीमेन्ट भेजे में घुस गया तो हमें भी जेएनयू की पार्थसारथी रॉक में जाकर बैठना पड़ेगा । :)
ReplyDeleteमुझे इस ब्लॉग से रश्क है
ReplyDeleteइतना सुंदर तो मेरा होना चाहिए.
Kuch pas na ho tabhi uski ahmiyat ka ahsas hota hai.
ReplyDeletehai mer lucknow...jab bhi wahan pahunchta hun dil karta hai ek baar jameen me lot lun...
ReplyDelete, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...
ReplyDeleteबस जी यही तो पढ़ने आते है :)
देस में निकला होगा चांद....
ReplyDeleteइंशाजी बहुत याद आते हैं आप। और आपसे ज्यादा चांद...जो बहुत रूमानी है।
पैराशुट बांध के चांद ,,,जबरदस्त शीर्षक है....चांद हर किसी की यादों में समाया हूआ है....क्या कहें..किस किस की याद दिला जाता है. आजकल चांद से बचते हैं..कहीं टकरा गया तो जाने कौन सा तार छेड़ जाए..
ReplyDeleteटाइटल देख कर ही चली आई इस ब्लॉग पर । य़ादें ही तो हमारे अतीत का खजाना होती हैं । चांद को छत पर चढ कर देखना, हाथ में भी आ सकता है ।
ReplyDeleteयह खूबसूरत भाषा भी जे एन यू की वज़ह से ही है ना ?
ReplyDeleteaur har 5 minute me sar ke oopar se gujarta ek pushpak vimaan... :)
ReplyDeleteकुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद,............ ये बेहतरीन यादों का काफिला अकसर आता है किसी मुख़्तसर से पेंटिंग में
ReplyDeleteaap achha likhti hain .......or gehra sochti hain....
ReplyDeleteसुपर्ब...
ReplyDelete"कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।"
जबरदस्त..