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15 August, 2024

अस्थिर पानी जैसा मन…आँख में चुभता, लेकिन बहता नहीं



मेरे पास उसे देने को कुछ भी नहीं था। 
मेरे पास देने को उसके काम भर का कुछ भी नहीं था।
एक समय में मेरे पास बहुत सी कहानियाँ होती थीं। एक समय में मेरे पास ये गुमान भी होता था कि मेरी कहानियाँ लोग पढ़ना चाहते हैं। कि इन कहानियों का कोई मोल है।
अब मेरे पास कहानियाँ और वो गुमान, दोनों नहीं है। अब मेरे शब्द कोरे शब्द रह गये हैं।

मेरे पास चिट्ठियाँ लिखने भर मन अब भी बचा हुआ है। मेरा मन करता है मैं खूब चिट्ठियाँ लिखूँ। सुबह, शाम, दिन रात…मेरे पास समय ही समय हो…आसमान को खुलती खिड़की, बाहर बारिश, भीतर थोड़ी गर्मी हो…पाँव में मोजे हों…एक कैंडल हो, ख़ुशबूदार…पेरिस कैफ़े…जिससे गहरी, तीखी कॉफ़ी की ख़ुशबू आये…हथेलियों में भर जाये। सिगरेट और कैंडल जलाने को माचिस हो…माचिस के जलने की आवाज़ हो…तीली पर लपकती हुई आये लपट…उँगली जलने के पहले फूंक मारते हुए खींचें तीली को तेज़ी से…और फेंकें बारिश से गीले फ़र्श पर।

लिखें बे-तारीख़ चिट्ठियाँ। लिखें उल्टे-सीधे नोट्स। जायें किसी कम
साँस वाले शहर और वहाँ जागे रहें पूरी रात और लिख पायें छोटी सी चिट्ठी। कि इस कच्चे पहाड़ों वाली जगह साँस नहीं आती ठीक से। फिर याद कैसे आती है ऐसे बेतरह। दूर दूर तक सुनसान पहाड़ हैं। दोपहर के समय इस ऊँची मोनेस्ट्री में एकदम ख़ाली है पूजा करने की यह जगह। बहुत साल पुरानी है। यहाँ की धुंधली धूप और अजनबी गंध में घिरे हुए मैं अपने वर्तमान में थी। सब कुछ देखती- सोचती। कि जीवन से कितनी दूर चलते जाते हैं पैदल…ध्यान करने को ऊँचे पहाड़ में दिखती है एक छोटी सी मोनेस्ट्री। कोई बौद्ध भिक्षु आता होगा कभी अकेले। जाने कितनी दूर से सफ़र करते हुए। सड़क के साथ बह रही होती है सिंधु नदी। मैं उसके झंडियों वाले पुल पर दौड़ती हुई आती हूँ, कैमरे की ओर…

इतनी शांत, सुनसान जगहों में याद उंगली थामे चलती है। मैं बुद्ध के आगे हाथ जोड़ती हूँ। वहाँ सिर्फ़ पानी चढ़ाया(अर्पित किया) गया है। कटोरियों में रखा एकदम शुद्ध पानी। थिर पानी, कि देख के लगे कि कटोरी ख़ाली है। कि देने वाले के मन में कोई अहंकार न आए।

मुझे ध्यान आता है। प्रेम ऐसा ही है मन में। तुमसे है। लेकिन ये प्रेम मन में बहती नदी का पानी है। साफ़। मीठा। और तुम्हारे हिस्से निकाल लेने में कोई अहंकार नहीं है। मैंने कोई बड़ी चीज़ नहीं लिखी है तुम्हारे नाम।

I belong to no where, and to no one.

हम सफ़र के लोग। होटलों में बिछी सफ़ेद चादर और सफ़ेद कोरा काग़ज़ देखते ही खुश हो जाने वाले लोग। हमने जो चाहा कि कभी हो कोई जगह जहाँ लौट सकें, हो कोई शख़्स जिसे हमारा भी ख़्याल रहे। हमारे ज़िम्मे था घर बनाना…बसाना…हम जो अपनी कोशिश में हारे, टूटे हुए लोग हैं…हमारा क्या हो!

प्यार हमारी ज़िंदगी का हिस्सा न हो पाये, इससे उदास एक ही बात होती है…कि मुहब्बत मिल जाये हमें…हमारे रोज़मर्रा में शामिल हो और एक दिन हौले हौले हवा हो जाये। वाक़ई, इससे बड़ी ट्रेजेडी दुनिया में कुछ नहीं होती।

हज़ार फ़ैसलों में उलझे हुए हम। छोटे छोटे काम। प्लंबर बुलाना। गाड़ी ठीक होने के बाद ड्राइवर को लोकेशन भेजना। फूल ख़रीदना। सजाना। कपड़े धोना, कपड़ों को छाँटना। बच्चों के हज़ार काम। वैक्सिनेशन। पार्किंग। एक बेहद तनहा शहर। बैंगलोर।

क्या मैं अकेली ऐसी औरत हूँ जिसे इतना अकेला लगता है?
हमारे पूरे generation को हमारी माँओं ने सिखाया कि ठीक से लिख-पढ़ लो, नहीं तो हमारी तरह चूल्हा-चौका करती रह जाओगी। हमें किसी ने नहीं बताया कि जब हमें ये कह रही थीं हमारी मम्मियाँ तो लड़कों को उनकी माँओं ने घर का थोड़ा-बहुत काम नहीं सिखाया कि तुम्हारी पत्नी जीवन में कुछ करना चाहेगी और इसलिए नहीं कर पाएगी कि ये घर जो कि तुम दोनों का होना चाहिए था, उस का कुछ भी काम नहीं आता तुम्हें।

Are the other women less bitter? Have they made peace with managing a house and bringing up children? How do they build a better life for their family and yet have the time and mental space to do what brings them joy.

Women. Who cares for them?
कौन रखता है उनका ख़्याल? ख़ुद का ख़्याल रखते रखते जब वे थक जाती हैं।
जो भेजता है ज़रा सा उनके लिए किसी शहर की धुंध…किसी शहर की बारिश…किसी शहर से मेपल का लाल पत्ता…किसी शहर का स्नो-ग्लोब…कहीं की गिरी बर्फ़…किसी शहर की धूप…

वे दोस्त…वे जान से प्यारे लोग जो उसे पागल हो जाने से बचाये रखते हैं। मिलते हैं ज़रा ज़रा। कभी सात साल में एक बार…किसी शोरगर शहर में, भटकते हैं इर्द-गिर्द…

कभी साल में दो चार बार…पीते हैं सिगरेट-व्हिस्की-कॉफ़ी-हुक्का…रचते हैं धुएँ से शहर…बनाते हैं हथेली पर मुस्कान उँगलियों से…लिखते हैं नोटबुक में छोटा सा नोट…बे-तारीख़। 

कि जिन्हें किताब लिखनी थी, फ़िल्में बनानी थीं।
हमने गिल्ट की फैक्ट्री खोल ली और दिन रात अपने किए-अनकिये-सोचे-अनहुए - गुनाहों की सज़ा ख़ुद को देते जाते हैं।

हम बेसलीका लोग हैं। हिसाब के कच्चे। हमसे हिसाब मत माँगो।

***
मुझे पहली बार अपने हिस्से के लोग ब्लॉग पर मिले। मेरे जैसे। पढ़ने, लिखने, ख़्वाब-ख़्याल की दुनिया में जीने वाले।

मॉनेट और पिकासो और पॉलक को देखने समझने मुहब्बत करने वाले लोग।

मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले, जिन्होंने लगातार मुझे पढ़ा। कहा, कि किताब लिखो, छपवाओ। हमने छपवा भी दी। पेंगुइन से। हमको डर नहीं था। हमको उम्मीद थी कि चार लोग मेरे पहचान के पढ़ लें, काफ़ी है। बाक़ी पेंगुइन का सरदर्द है। साथ के कुछ और लोगों की किताब आयी, एक आध।

फिर जाने कैसे सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गये। उनके लिए लिखना ज़िंदगी का एक हिस्सा भर था।
मेरे लिये लिखने के सिवा कुछ था ही नहीं कभी।

मैं उन्हें मिस करती हूँ। बेतरह। उनका लिखा तलाशती हूँ। कि जैसे बचपन में खोयी कोई ख़ुशबू।
कभी-कभार कोई पोस्ट होती है ब्लॉग पर, कभी फ़ेसबुक प्रोफाइल पर। पेज पर। मुझे लगता है ज़िंदगी में वो जो ज़रा सा जादू मिसिंग था, वो मिल गया है फिर से।

दुनिया भर की किताबें पढ़ने वाले हम, ये चंद साल की ब्लॉगिंग में बर्बाद हो गये। कि अब किसी किताब को पढ़ कर उसके लेखक से मिलने का मन करता है। उसके साथ चाय-सिगरेट पीने का मन करता है। खाना खाने का मन करता है। मंटों के कब्र पहुँच कर वो मिट्टी माथे से लगा पायें, इतना भर काफ़ी होता एक समय मेरे लिये। लेकिन अब सोचते रहते हैं, निर्मल की चिट्ठी है एक दोस्त के पास…कोई एक दोस्त एक समय मानव कौल को बहुत पढ़ता था और जा कर उस से मिल के आया था। हम मुराकमी को पढ़ते हैं, खूब पढ़ते हैं और सोचते हैं उस जैज़ बार के बारे में जिसमें काम करते हुए वो रात के तीन बजे तक रोज़ लिखता था। लगातार। हम पढ़ते हैं Bukowski को, और सोचते हैं कि एक कविता में वो कहता है, कि अगर कविता हम तक पहुँच गई है…हम उसे पढ़ रहे हैं, इसका मतलब, he made it. Doctor Who के एक एपिसोड में वैन गो को टाइम मशीन में आगे लेकर आता है और एक म्यूजियम में उसकी पेंटिंग लगी है, उसके बारे में अच्छी बातें कह रहा है म्यूजियम का क्यूरेटर। कला से हम कभी कभी ये उम्मीद भी करते हैं कि कोई अच्छी तस्वीर हमारे मन में रहे, झूठी भी चलेगी।

हम अपने सपनों में मंटो से मिलते हैं। रेणु से। तीसरी क़सम वाला गाँव हमें दिखता है। हम भी अपने मन में खाते हैं क़समें…ये गुनाह न करेंगे कि पढ़ के किसी लेखक को तलाश लिया…देखा कि ज़िंदा है अभी…रहता है किसी ऐसे शहर में जो हमारी पहुँच से बहुत दूर नहीं है…हम पैदल चलते हैं प्राग में…निर्मल की ‘वे दिन’ वाला प्राग। हम सोचते हैं कि कैसी होगी नदी, जिसके बहने की आवाज़ होती है, ‘डार्क ऐंड डीप’।

बिगड़ गए हम। हमारे प्यारे लेखकों ने नास दिया हमको, माथा चढ़ा के…

दुनिया भर में 60 crore लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। साल 2023-24 के बजट में भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए 300 crore की राशि निर्धारित की है। आँकड़ों वाली इस दुनिया में किसी किताब के पहले एडिशन में 1100 कॉपीज़ छपती हैं। एक लेखक की रॉयल्टी पेंगुइन जैसे प्रकाशन के साथ 7.5% होती है। standard agreement के हिसाब से।

हम इस आँकड़े के लिए नहीं लिखते। हम पैसों के लिए भी नहीं लिखते। 

हम लिखते हैं कि किसी दिन इतरां जैसा कोई किरदार ख़्याल में उभरता है और हमसे कहता है कि लोगों को हमारी कहानी सुनाओ। हमको लगता है शायद दुनिया में लोगों को वैसी कहानियाँ अच्छी लगेंगी।

कभी कभी हम उदास होते हैं वाक़ई। कि किताबें ख़रीदी जाती हैं तो भरोसा होता है कि किताबें लिखी जानी चाहिए।
किसके लिए लिखे कहानी? कौन पढ़ेगा। क्यों पड़ेगा। short term memory, short attention span है दुनिया का। सबका ही। This is the way of life, now. 
फिर लगता है…
और क्या हज़ार पाँच सौ छोड़ो, क्या एक व्यक्ति को भी अपने दुख से उबार लेती है कहानी तो उसे लिखना नहीं चाहिए?

18 July, 2024

सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?


उसकी तस्वीर देखती हूँ। दिल में ‘धक’ से लगा है कुछ।

ब्लैक एंड वाइट तस्वीर है। मैं याद में उस तस्वीर के रंग तलाशती हूँ। उनकी आँखें कैसी लगती हैं धूप में? कैमरे के लेंस से उन्हें जी भर देखना चाहती हूँ। रुक के। फ्रेम सेट करने के लिए लेकिन ज़रूरी है कि धूप में हल्की सुनहली हुई उनकी आँखों के अलावा जो पूरा शख़्स है, वो फ्रेम में कितना फिट हो रहा है, ये भी देखूँ।

आँखों का कोई एक रंग नहीं होता। धूप में कुछ और होती हैं, चाँदनी में कुछ और। दिन में कुछ और, रात में कुछ और। प्रेयसी के सामने कुछ और, ज़माने के लिए कुछ और। ब्लैक ऐंड व्हाइट कैमरे में जो नहीं पकड़ आता, वो भी तो एक रंग होता है…सलेटी का कौन सा शेड है वो? डार्क ग्रे आइज़। मन फ़िल्म वाले कैमरे से उनकी तस्वीर खींचना चाहता है। निगेटिव में देखना चाहता है उन पुतलियों को…मीडियम के हिसाब से बदलते हैं रंग। उस नेगेटिव में स्याह सफ़ेद दिखता है और सफ़ेद स्याह। अच्छा लगता है कि मैंने फोटोग्राफी सीखने के दरम्यान डेवलपिंग स्टूडियो में बहुत सा वक़्त बिताया था। मैं याद में अपने प्रेजेंट की घालमेल करती हूँ। स्टूडियो में सिर्फ़ लाल रंग का बल्ब जलता है। लाल। मेरे दिल में धड़कता…मुहब्बत भरा…उस नाम में, उस रंग में रौशन। मैं निगेटिव लिए खड़ी हूँ, उसे डिवलप करते हुए मेरे पास ऑप्शन है कि मैं उन आँखों को थोड़ा गहरा या थोड़ा हल्का बना दूँ…मैं चुन सकती हूँ अपनी पसंद का ग्रे। मैं पॉज़िटिव को डेवलपर के घोल में डालती हूँ। सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?

कब खींची थी मैंने ये तस्वीर? याद नहीं आ रहा। लेकिन उन आँखों में चमकता हुआ एक सितारा है, इसे मैं पहचानती हूँ। मुहब्बत के नक्षत्र में जब इसका उदय हुआ था, तब इसका नामकरण मैंने ही किया था। यह सितारा मेरे नाम का है। मेरा अपना। जब कभी राह भटकती हूँ और ख़्यालों की दुनिया में ज़्यादा चलते हुए पाँव थक जाते हैं तो यह सितारा मुझसे कहता है, पूजा, यहाँ आओ। मेरे पास बैठो। यह तुम्हारे ठहरने की जगह है। यहाँ रहते हुए तुम्हें कहीं और भाग जाने का मन नहीं करेगा।

विलंबित लय में गाते हैं तो ताल साथ में सुनते हैं…लयकारी में आलाप लेते हुए ध्यान रखते हैं कि कहाँ पर ‘सम’ है। क्योंकि वहीं सब ख़त्म करना होता है। फिर से नया सुर उठाने के पहले।

सम सैंड ड्यून। पहली बार सुना था, तब से कई बार सोचा है कि क्यों उसका नाम सम है। मगर सिर्फ़ सोचा है, पूछा नहीं है। आजकल आसान है न सब कुछ जान लेना। गूगल कर लो, किसी दोस्त से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। ऐसे में किसी सवाल का जवाब नहीं चाहना। सिर्फ़ सवाल से मुहब्बत करना।

मुहब्बत। हमारे लिए सवाल नहीं है। स्टेटमेंट है। एक साधारण सा वाक्य। इसके साथ बाक़ी दुख नहीं आते सवालों की शक्ल में। ‘हमें आपसे मुहब्बत है’। There is a finality to love that I find hard to explain. Like the desire to keep typing every time I open my iPad and start writing something.

आज बहुत बहुत दिन बाद इत्मीनान की सुबह मिली थी। ऐसी सुबहें रूह की राहत होती हैं।

कभी कभी ऐसे में किसी को वीडियो कॉल करने का मन करता है। पर्दे हवा में नाच रहे हों। कभी जगजीत सिंह, तो कभी नुसरत बाबा की आवाज़ हो…कोई ग़ज़ल, कोई पुराना गीत…मद्धम बजता रहे, राहत की तरह। बहुत तेज़ हवा बह रही है, पर्दे हवा में नाच रहे हैं। हल्की धूप है। मैं सब्ज़ियाँ काटते काटते कभी उधर देख लेती हूँ। मन हल्का है।

खाना बनाते हुए उनकी याद क्यों आती है अभी फ़िलहाल? हमने जिनके साथ जीवन के बहुत कम लम्हे बिताये हों, उनके सिर्फ़ कुछ चंद फ़ोन-कॉल्स में उनके हिस्से का आसमान-ज़मीन सुना हुआ, देखा हुआ कैसे लगता है। हमारी मुहब्बत क़िस्सा-कहानी है। कविता है। डायरी है।

मैं मशरूम पास्ता बनाती हूँ अपने लिए। सोचती हूँ, किसी के ख़्याल और मुहब्बत में गुम। मुहब्बत में कितनी सारी जगह होती है। हमको बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता। शौक़िया ही बनाते हैं। लेकिन इस कम खाना-बनाने खिलाने में भी हमारे हाथ का आलू पराठा और चिनियाबदाम की चटनी वर्ल्ड फ़ेमस है। कभी कभी इस फ़िरोज़ी किचन में खड़े होकर सोचते हैं। और कुछ हो न हो, मेरे दोस्तों को एक बार यहाँ आना चाहिए। और हमको उनके लिए आलू पराठा और चटनी बनानी चाहिए। इसके बाद एक कप नींबू की चाय हो, आधी-पूरी, मूड के हिसाब से। या फिर कॉफ़ी। सिगरेट हो। बातें हों। चुप्पी हो।

और अगर हम दोनों के दिल में लगभग बराबर-बराबर मुहब्बत या दोस्ती या लगाव हो…तो बारिश होती रहे, आसमान में सलेटी बादल रहें और हम इस सुकून में रहें कि दुनिया सुंदर है। जीने लायक़ है।

कि जिस घर का नाम Utopia है, जिसका होना नामुमकिन है। वो है। सच में। मेरा अपना है।

16 May, 2024

क्या करें लिखने के कीड़े का? मार दें?

कितना मज़ा आता है ना सोचने में, कि भगवान जी ने हमको बनाया ही ऐसा है, डिफेक्टिव पीस। लेकिन भगवान जी से गलती तो होती नहीं है। तो हमको अगर जान-बूझ के ऐसा बनाया है कि कहीं भी फिट नहीं होते तो इसके पीछे कोई तो कारण होगा। शायद कुछ चीज़ें ऐसे ही रैंडम होती हैं। किसी ऐसे मशीन का पुर्ज़ा जो कब की टूट चुकी है। हम सोचते रहते हैं कि हमारा कोई काम नहीं है…कितनी अजीब चीज़ है न कि हम उपयोगी होना चाहते हैं। कि हमारा कोई काम हो…कि हमसे कुछ काम लिया जा सके। हम अक्सर सोचते हैं कि हम किसी काम के नहीं हैं, लिखने के सिवा। क्योंकि लिखना असल में कोई क़ायदे का काम है तो नहीं। उसमें भी हम किसी टारगेट ऑडियंस के लिये तो लिखे नहीं। लिखे कि मन में चलता रहता है और लिखे बिना चैन नहीं आता। हमसे आधा-अधूरा तो होता नहीं। लिखना पूरा पूरा छोड़े रहते हैं क्योंकि मालूम है कि लिखना एक बार शुरू कर दिये तो फिर चैन नहीं पड़ेगा, साँस नहीं आएगी…न घर बुझायेगा, ना परिवार, ना बाल-बच्चा का ज़रूरत समझ आएगा। मेरी एकदम, एकमात्र प्रायोरिटी एकदम से लिखना हो जाती है।

अभी कलकत्ता आये हुए हैं…भाई-भौजाई…पापा…मेरे बच्चे, उसके बच्चे…सब साथ में गर्मी छुट्टी के मज़े ले रहे हैं। हमको भर दिन गपियाने में मन लग रहा है। आम लीची टाप रहे हैं सो अलग। मौसम अच्छा है। रात थोड़ी गर्म होती है हालाँकि, लेकिन इतनी सी गर्मी में हमको शिकायत मोड ऑन करना अच्छा नहीं लगता।

सब अच्छा है लेकिन लिखने का एक कीड़ा है जो मन में रेंगता रहता है। इस कीड़े को मार भी नहीं सकते कि हमको प्यारा है बहुत। इसके घुर-फिर करने से परेशान हुए रहते हैं। मन एकांत माँगता है, जो कि समझाना इम्पॉसिबल है। कि घर में सब लोग है, फिर तुमको कुछ इमेजिनरी किरदार से मिलने क्यूँ जाना है…हमको भी मालूम नहीं, कि क्यों जाना है। कि ये जो शब्दों की सतरें गिर रही हैं मन के भीतर, उनको लिखना क्यों है? कि कलकत्ता आते हैं तो पुरानी इमारतें, कॉलेज स्ट्रीट या कि विक्टोरिया मेमोरियल जा के देखने का मन क्यों करता है…देखना, तस्वीर उतारना…क्या करेंगे ये सब का? काहे ताँत का साड़ी पहन के भर शहर कैमरा लटकाये पसीना बहाये टव्वाने का मन करता है। इतना जीवन जी लिये, अभी तक भी मन पर बस काहे नहीं होता है? ये मन इतना भागता काहे है?

वो दोस्त जो शहर में है लेकिन अभी भी शहर से बाहर है, उसको भर मन गरिया भी नहीं सकते कि अचानक से प्रोग्राम बना और उसको बताये नहीं। एक पुरानी पड़ोसी रहती थीं यहीं, अभी फिर से कनेक्ट किए तो पता चला कि दूसरे शहर शिफ्ट हो गई हैं। कितने साल से लगातार आ रहे कोलकाता लेकिन अभी भी शहर अजनबी लगता है। कभी कभी तो खूब भटकने का मन करता है। दूसरे ओर-छोर बसे दोस्तों को खोज-खाज के मिल आयें। कैमरा वाले दोस्तों को कहें कि बस एक इतवार चलें शूट करने। भाई को भी कहें कि कैमरे को बाहर करे…बच्चों को दिखायें कि देखो तुम्हारी मम्मी सिर्फ़ राइटर नहीं है, फोटोग्राफर भी है। सब कुछ कर लें…इसी एक चौबीस घंटे वाले दिन में? कैसे कर लें?

यहाँ जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ कुछ तो विवाद होने के कारण बिल्डर ने इमारतें बनानी बंद कर दीं। देखती हूँ अलग अलग स्टेज पर बनी हुई बिल्डिंग…कुछ में छड़ें निकली हुई हैं, कुछ में ढाँचा पूरा बन गया है खिड़कियाँ खुली हुई हैं…उनमें से कई टुकड़े आसमान दिखता है। मुझे अधूरापन ऐसे भी आकर्षित करता है। मैं हर बार इन इमारतों को देखते हुए उन परिवारों के बारे में सोचती हूँ जिन्होंने इन घरों के लिए पैसे दिए होंगे…कितने सपने देखे होंगे कि ये हमारा घर होगा, इसमें पूरब से नाप के इतने ग्राम धूप आएगी…इसकी बालकनी में कपड़े सूखने में इतना वक़्त लगेगा…कि इस दरवाज़े से हमारे देवता आयेंगे कि हम मनुहार करके अपने पुरखों को बुलाएँगे…कि यहाँ से पार्क पास है तो हमारे बच्चे रोज़ खेलने जा सकेंगे…कि हमारे पड़ोसी हमारे दोस्त पहले से हैं…एक अधूरी इमारत में कितने अधूरे सपने होते हैं। 

Among other things, इन दिनों जीवन का केंद्रीय भाव गिल्ट है…चाहे हमारी identity के जिस हिस्से से देखें। एक माँ की तरह, एक थोड़ी overweight औरत की तरह, एक लेखक कि जो अपने किरदारों को इग्नोर कर रही है…उसकी तरह। लिखना माने बच्चों को थोड़ी देर कहीं और छोड़ के आना…उस वक़्त ऐसे गुनहगार जैसे फीलिंग आती है…घर रहती हूँ और किरदार याद से बिसरता चला जाता है, मन में दुखता हुआ…बहुत खुश होकर कुछ खूब पसंद का खा लिया तो अलग गिल्ट कि वज़न बढ़ जाएगा…हाई बीपी की दवाइयाँ दिल को तेज़ धड़कने से रोक देती हैं। पता नहीं ये कितना साइकोलॉजिकल है…लेकिन मुझे ना तेज़ ग़ुस्सा आता है, ना मुहब्बत में यूँ साँस तेज़ होती है। ये भी समझ आया कि ग़ुस्सा एक शारीरिक फेनोमेना है, मन से कहीं ज़्यादा। ब्लड प्रेशर हाई होने से पूरा बदन थरथराने लगता है…खून का बहाव सर में ऐसा महसूस होता है जैसे फट जाएगा…अब मुझे ग़ुस्सा आता है तो शरीर कंफ्यूज हो जाता है कि क्या करें…मन में ग़ुस्सा आ तो रहा है लेकिन बदन में उसके कोई सिंपटम नहीं हैं…जैसे भितरिया बुख़ार कहते हैं हमारे तरफ़। कि बुख़ार जैसा लग रहा है पर बदन छुओ तो एकदम नॉर्मल है। उसी तरह अब ग़ुस्सा आता भी है तो ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी की फ़िल्म में ग़लत बैकग्राउंड स्कोर बज रहा है…यहाँ डांस बीट्स की जगह स्लो वायलिन प्ले होने लगी है। दिल आहिस्ता धड़क रहा है।

क्या मुहब्बत भी बस खून का तेज़ या धीमा बहाव है? कि उन्हें देख कर भी दिल की धड़कन तमीज़ नहीं भूली…तो मुहब्बत क्या सिर्फ़ हाई-ब्लड प्रेशर की बीमारी थी…जो अभी तक डायग्नोज़ नहीं हुई? और इस तरह जीने का अगर ऑप्शन हो तो हम क्या करेंगे? कभी कभी लगता है कि बिना दवाई खाये किए जायें…कि मर जाएँ किसी रोज़ ग़ुस्से या मुहब्बत में, सो मंज़ूर है मुझे…लेकिन ये कैसी ज़िंदगी है कि कुछ महसूस नहीं होता। ये कैसा दिल है कि धड़कन भी डिसिप्लिन मानने लगी है। इस बदन का करेंगे क्या हम अब? कि हाथों में कहानी लिखने को लेकर कोई उलझन होगी नहीं…कि हमने दिल को वाक़ई समझा और सुलझा लिया है…

तो अब क्या? कहानी ख़त्म? 

आज कलकत्ता में घर से भाग के आये। बच्चों को नैनी और घर वालों के भरोसे छोड़ के…कि लिखना ज़रूरी है। कि साँस अटक रही है। कि माथा भाँय भाँय कर रहा है। कि स्टारबक्स सिर्फ़ पंद्रह मिनट की ड्राइव है और शहर अलग है और गाड़ी अलग और रास्ता अलग है तो भी हम चला लेंगे। कि हम अब प्रो ड्राइवर बन गये हैं। भगवान-भगवान करते सही, आ जाएँगे दस मिनट की गाड़ी चला कर। कि हमारी गाड़ी पर भी अर्जुन की तरह ध्वजा पर हनुमान जी बैठे रहते हैं रक्षा करने के लिए। हनुमान जी, जब लड्डू चढ़ाने जाते हैं तो बोलते हैं, तुम बहुत काम करवाती हो रे बाबा! तुम्हारा रक्षा करते करते हाल ख़राब हो जाता है हमारा, तुम थोड़ा आदमी जैसा गाड़ी नहीं चला सकती? कौन तुमको ड्राइविंग लाइसेंस दिया? 

सोचे तो थे कि ठीक एक घंटा में चले आयेंगे। लेकिन तीन बजे घर से निकले थे और साढ़े पाँच होने को आया। अब इतना सा लिख के घर निकल जाएँगे वापस। लिख के अच्छा लग रहा है। हल्का सा। आप लोग इसे पढ़ के ज़्यादा माथा मत ख़राब कीजिएगा। जब ब्लॉग लिखना शुरू किए थे तो ऐसे ही लिखते थे, जो मन सो। वैसे आजकल कोई ब्लॉग पढ़ता तो नहीं है, लेकिन कुछ लोगों के कमेंट्स पढ़ के सच में बहुत अच्छा लगता है। जैसे कोई पुराना परिचित मिल गया हो पुराने शहर में। उसका ना नाम याद है, न ये कि हम जब बात करते थे तो क्या बात करते थे…लेकिन इस तरह बीच सड़क किसी को पहचान लेने और किसी से पहचान लिये जाने का अपना सुख है। हम उस ख़ुशी को थोड़ा सा शब्दों में रखने की कोशिश करते हैं।

कुछ देर यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड्स लिखे। कुछ दोस्तों को। कुछ किरदारों को। कुछ ज़िंदगी को।

***




बहुत दिन बाद एक शब्द याद आया…हसीन।

और एक लड़का, कि जो धूमकेतु की तरह ज़िंदगी के आसमान पर चमकता है…कई जन्मों के आसमान में एक साथ…अचानक…कि उस चमक से मेरी आँखें कई जन्म तक रोशन रहती हैं…कि रोशनी की इसी ऑर्बिट पर उसे भटकना है, थिरकना है…और राह भूल जाना है, अगले कई जन्मों के लिए।

09 December, 2023

अधूरी कहानियों के सल्तनत की शहज़ादी

 


उम्र का तक़ाज़ा है। हम बहुत कुछ भूलने लगे हैं। चीज़ें कहीं रख कर भूल जाना। शहरों में अकेले जाती और अकेले लौटती हूँ तो कोई कमरे से निकलते हुए नहीं कहता, ठीक से देख लो, कुछ छूट तो नहीं गया। हम उन शहरों में छूटे हुए रह जाते हैं। कभी रातें छूट जाती हैं, कभी सुबह। कभी कोई मौसम रह जाता है बिना ठीक से देखे हुए। हम उस अनदेखे मौसम को अपने कपड़ों में टटोलते रहते हैंकि सिल्क की इस साड़ी को तो उस शहर की आख़िरी डिनर पार्टी में पहनना था। कैसे भूल गयी मैं। बहुत साल पहले एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें दो लोग एक साथ चल रहे थे। ठंढ के दिन थे इसलिए लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ पर अपनी कोट की जेब में रख लिया। वह लड़की जब उसके जीवन से जा चुकी थी, तब भी उसके उस कोट में उसे लड़की का हाथ महसूस होता था। 

मैंने उसे पहली बार देखा तो उसने काला कोट पहना हुआ था। उसके इर्द गिर्द वसंत की ख़ुशबू थी। आसमान में मेरी पसंद के फूल खिले थे। उसके पैरों तले घास का ग़लीचा था। मैं उसे दुनिया से छुपा कर देखना चाहती थी, इसलिए मैंने हम दोनों के इर्द गिर्द धुएँ का एक पर्दा खींच दिया। मैं भूल गयी हूँ कि मैं उससे पहली बार कितने साल पहले मिली थी। कि पहली बार मिलते हुए ऐसा लगा कि मैं उसके इर्द गिर्द हमेशा से रही हूँ। उस छूटी हुयी सिगरेट की तरह जो बेहद ख़राब आदत थी। 


उसकी सिफ़ारिश करते हुए उसके एक परिचित ने कहा कि वो अच्छा आदमी है। उसका परिचित शायद अच्छा आदमी रहा होगा। अच्छे आदमी दूसरे अच्छे आदमियों की यह कह कर तारीफ़ करते हैं कि वो अच्छा आदमी है। ख़राब लेखक, ख़ूबसूरत महबूब को दिल और क़िस्सों में बसाए रखते हैं, उसके अच्छे या ख़राब आदमी होने से बेपरवाह। 


***


यह शहर बेहद ठंढा है। इसकी तासीर भी और इसका मौसम भी। 

आजकल तो टेम्प्रेचर-कंट्रोल्ड स्विमिंग पूल का पानी भी ठंढा रहता है।


मुझे फ़ुरसत मिली तो मैंने धुएँ से रचे हाथ से सिगरेट छीन के पीने वाले दोस्त। कि उँगलियों में उलझ जाए उनकी बदमाशी, आँख में ठहर जाए उनकी मुस्कान। हम सोचते रह जाएँ कि ख़ूबसूरती का गोदाम तो आज ही शाम को हमने लूटा है, तो फिर आज इस ख़ुराफ़ाती के चेहरे पर इतनी रौशनी कैसे है। हम मजाज़ का शेर भूलना चाहते हैं सड़क क्रॉस करते हुए ही, “हुस्न को शर्मसार करना ही इश्क़ का इंतिक़ाम होता है।” 


***


वैसे तो आज क़ायदे से इक आध छोटा मोटा गुनाह कर लेना चाहिए।

क्या है आज मेरे उस नालायक दोस्त का जन्मदिन है, जो भगवान क़सम, इतना भला है कि हरगिज़ कभी नरक नहीं जाएगा। उसके बिना तो हमारा मन लगेगा ही नहीं। तो ऐसा करते हैं, आज कुछ गुनाह कर लेते हैं, और उसके बही-खाते में लिखवा देते हैं, बतौर तोहफ़ाकि तुमसे तो होगा नहीं। दोस्त आख़िर होते किस लिए हैं। इतना सारा अधूरा इश्क़ कर कर के छोड़े हो इस जन्म, सब को मुकम्मल करने के लिए मल्टिपल जन्म तो लेना ही होगा तुमको। 


***


अधूरी कहानियों की एक सल्तनत थी। वहाँ की एक शहज़ादी थी। जिसके इर्द गिर्द कच्ची कहानियों के मौसम रहते थे। उसकी ज़ुबान पर टूटी-फूटी शायरी के मिसरे भटकते रहते थे। कभी कुछ पूरा नहीं करती। उसका दिल भी क़रीने से ठीक ठीक पूरा टूटा नहीं था। 


वहाँ कुछ क़िस्से लूप में चलते थे, कुछ गाने लूप में बजते थे और कुछ लोगों को उमर भर उन्हीं लोगों से बार बार प्यार होता रहता था, जिनसे एक बार भी नहीं होना चाहिए था। 


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