15 August, 2024

अस्थिर पानी जैसा मन…आँख में चुभता, लेकिन बहता नहीं



मेरे पास उसे देने को कुछ भी नहीं था। 
मेरे पास देने को उसके काम भर का कुछ भी नहीं था।
एक समय में मेरे पास बहुत सी कहानियाँ होती थीं। एक समय में मेरे पास ये गुमान भी होता था कि मेरी कहानियाँ लोग पढ़ना चाहते हैं। कि इन कहानियों का कोई मोल है।
अब मेरे पास कहानियाँ और वो गुमान, दोनों नहीं है। अब मेरे शब्द कोरे शब्द रह गये हैं।

मेरे पास चिट्ठियाँ लिखने भर मन अब भी बचा हुआ है। मेरा मन करता है मैं खूब चिट्ठियाँ लिखूँ। सुबह, शाम, दिन रात…मेरे पास समय ही समय हो…आसमान को खुलती खिड़की, बाहर बारिश, भीतर थोड़ी गर्मी हो…पाँव में मोजे हों…एक कैंडल हो, ख़ुशबूदार…पेरिस कैफ़े…जिससे गहरी, तीखी कॉफ़ी की ख़ुशबू आये…हथेलियों में भर जाये। सिगरेट और कैंडल जलाने को माचिस हो…माचिस के जलने की आवाज़ हो…तीली पर लपकती हुई आये लपट…उँगली जलने के पहले फूंक मारते हुए खींचें तीली को तेज़ी से…और फेंकें बारिश से गीले फ़र्श पर।

लिखें बे-तारीख़ चिट्ठियाँ। लिखें उल्टे-सीधे नोट्स। जायें किसी कम
साँस वाले शहर और वहाँ जागे रहें पूरी रात और लिख पायें छोटी सी चिट्ठी। कि इस कच्चे पहाड़ों वाली जगह साँस नहीं आती ठीक से। फिर याद कैसे आती है ऐसे बेतरह। दूर दूर तक सुनसान पहाड़ हैं। दोपहर के समय इस ऊँची मोनेस्ट्री में एकदम ख़ाली है पूजा करने की यह जगह। बहुत साल पुरानी है। यहाँ की धुंधली धूप और अजनबी गंध में घिरे हुए मैं अपने वर्तमान में थी। सब कुछ देखती- सोचती। कि जीवन से कितनी दूर चलते जाते हैं पैदल…ध्यान करने को ऊँचे पहाड़ में दिखती है एक छोटी सी मोनेस्ट्री। कोई बौद्ध भिक्षु आता होगा कभी अकेले। जाने कितनी दूर से सफ़र करते हुए। सड़क के साथ बह रही होती है सिंधु नदी। मैं उसके झंडियों वाले पुल पर दौड़ती हुई आती हूँ, कैमरे की ओर…

इतनी शांत, सुनसान जगहों में याद उंगली थामे चलती है। मैं बुद्ध के आगे हाथ जोड़ती हूँ। वहाँ सिर्फ़ पानी चढ़ाया(अर्पित किया) गया है। कटोरियों में रखा एकदम शुद्ध पानी। थिर पानी, कि देख के लगे कि कटोरी ख़ाली है। कि देने वाले के मन में कोई अहंकार न आए।

मुझे ध्यान आता है। प्रेम ऐसा ही है मन में। तुमसे है। लेकिन ये प्रेम मन में बहती नदी का पानी है। साफ़। मीठा। और तुम्हारे हिस्से निकाल लेने में कोई अहंकार नहीं है। मैंने कोई बड़ी चीज़ नहीं लिखी है तुम्हारे नाम।

I belong to no where, and to no one.

हम सफ़र के लोग। होटलों में बिछी सफ़ेद चादर और सफ़ेद कोरा काग़ज़ देखते ही खुश हो जाने वाले लोग। हमने जो चाहा कि कभी हो कोई जगह जहाँ लौट सकें, हो कोई शख़्स जिसे हमारा भी ख़्याल रहे। हमारे ज़िम्मे था घर बनाना…बसाना…हम जो अपनी कोशिश में हारे, टूटे हुए लोग हैं…हमारा क्या हो!

प्यार हमारी ज़िंदगी का हिस्सा न हो पाये, इससे उदास एक ही बात होती है…कि मुहब्बत मिल जाये हमें…हमारे रोज़मर्रा में शामिल हो और एक दिन हौले हौले हवा हो जाये। वाक़ई, इससे बड़ी ट्रेजेडी दुनिया में कुछ नहीं होती।

हज़ार फ़ैसलों में उलझे हुए हम। छोटे छोटे काम। प्लंबर बुलाना। गाड़ी ठीक होने के बाद ड्राइवर को लोकेशन भेजना। फूल ख़रीदना। सजाना। कपड़े धोना, कपड़ों को छाँटना। बच्चों के हज़ार काम। वैक्सिनेशन। पार्किंग। एक बेहद तनहा शहर। बैंगलोर।

क्या मैं अकेली ऐसी औरत हूँ जिसे इतना अकेला लगता है?
हमारे पूरे generation को हमारी माँओं ने सिखाया कि ठीक से लिख-पढ़ लो, नहीं तो हमारी तरह चूल्हा-चौका करती रह जाओगी। हमें किसी ने नहीं बताया कि जब हमें ये कह रही थीं हमारी मम्मियाँ तो लड़कों को उनकी माँओं ने घर का थोड़ा-बहुत काम नहीं सिखाया कि तुम्हारी पत्नी जीवन में कुछ करना चाहेगी और इसलिए नहीं कर पाएगी कि ये घर जो कि तुम दोनों का होना चाहिए था, उस का कुछ भी काम नहीं आता तुम्हें।

Are the other women less bitter? Have they made peace with managing a house and bringing up children? How do they build a better life for their family and yet have the time and mental space to do what brings them joy.

Women. Who cares for them?
कौन रखता है उनका ख़्याल? ख़ुद का ख़्याल रखते रखते जब वे थक जाती हैं।
जो भेजता है ज़रा सा उनके लिए किसी शहर की धुंध…किसी शहर की बारिश…किसी शहर से मेपल का लाल पत्ता…किसी शहर का स्नो-ग्लोब…कहीं की गिरी बर्फ़…किसी शहर की धूप…

वे दोस्त…वे जान से प्यारे लोग जो उसे पागल हो जाने से बचाये रखते हैं। मिलते हैं ज़रा ज़रा। कभी सात साल में एक बार…किसी शोरगर शहर में, भटकते हैं इर्द-गिर्द…

कभी साल में दो चार बार…पीते हैं सिगरेट-व्हिस्की-कॉफ़ी-हुक्का…रचते हैं धुएँ से शहर…बनाते हैं हथेली पर मुस्कान उँगलियों से…लिखते हैं नोटबुक में छोटा सा नोट…बे-तारीख़। 

कि जिन्हें किताब लिखनी थी, फ़िल्में बनानी थीं।
हमने गिल्ट की फैक्ट्री खोल ली और दिन रात अपने किए-अनकिये-सोचे-अनहुए - गुनाहों की सज़ा ख़ुद को देते जाते हैं।

हम बेसलीका लोग हैं। हिसाब के कच्चे। हमसे हिसाब मत माँगो।

***
मुझे पहली बार अपने हिस्से के लोग ब्लॉग पर मिले। मेरे जैसे। पढ़ने, लिखने, ख़्वाब-ख़्याल की दुनिया में जीने वाले।

मॉनेट और पिकासो और पॉलक को देखने समझने मुहब्बत करने वाले लोग।

मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले, जिन्होंने लगातार मुझे पढ़ा। कहा, कि किताब लिखो, छपवाओ। हमने छपवा भी दी। पेंगुइन से। हमको डर नहीं था। हमको उम्मीद थी कि चार लोग मेरे पहचान के पढ़ लें, काफ़ी है। बाक़ी पेंगुइन का सरदर्द है। साथ के कुछ और लोगों की किताब आयी, एक आध।

फिर जाने कैसे सब अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गये। उनके लिए लिखना ज़िंदगी का एक हिस्सा भर था।
मेरे लिये लिखने के सिवा कुछ था ही नहीं कभी।

मैं उन्हें मिस करती हूँ। बेतरह। उनका लिखा तलाशती हूँ। कि जैसे बचपन में खोयी कोई ख़ुशबू।
कभी-कभार कोई पोस्ट होती है ब्लॉग पर, कभी फ़ेसबुक प्रोफाइल पर। पेज पर। मुझे लगता है ज़िंदगी में वो जो ज़रा सा जादू मिसिंग था, वो मिल गया है फिर से।

दुनिया भर की किताबें पढ़ने वाले हम, ये चंद साल की ब्लॉगिंग में बर्बाद हो गये। कि अब किसी किताब को पढ़ कर उसके लेखक से मिलने का मन करता है। उसके साथ चाय-सिगरेट पीने का मन करता है। खाना खाने का मन करता है। मंटों के कब्र पहुँच कर वो मिट्टी माथे से लगा पायें, इतना भर काफ़ी होता एक समय मेरे लिये। लेकिन अब सोचते रहते हैं, निर्मल की चिट्ठी है एक दोस्त के पास…कोई एक दोस्त एक समय मानव कौल को बहुत पढ़ता था और जा कर उस से मिल के आया था। हम मुराकमी को पढ़ते हैं, खूब पढ़ते हैं और सोचते हैं उस जैज़ बार के बारे में जिसमें काम करते हुए वो रात के तीन बजे तक रोज़ लिखता था। लगातार। हम पढ़ते हैं Bukowski को, और सोचते हैं कि एक कविता में वो कहता है, कि अगर कविता हम तक पहुँच गई है…हम उसे पढ़ रहे हैं, इसका मतलब, he made it. Doctor Who के एक एपिसोड में वैन गो को टाइम मशीन में आगे लेकर आता है और एक म्यूजियम में उसकी पेंटिंग लगी है, उसके बारे में अच्छी बातें कह रहा है म्यूजियम का क्यूरेटर। कला से हम कभी कभी ये उम्मीद भी करते हैं कि कोई अच्छी तस्वीर हमारे मन में रहे, झूठी भी चलेगी।

हम अपने सपनों में मंटो से मिलते हैं। रेणु से। तीसरी क़सम वाला गाँव हमें दिखता है। हम भी अपने मन में खाते हैं क़समें…ये गुनाह न करेंगे कि पढ़ के किसी लेखक को तलाश लिया…देखा कि ज़िंदा है अभी…रहता है किसी ऐसे शहर में जो हमारी पहुँच से बहुत दूर नहीं है…हम पैदल चलते हैं प्राग में…निर्मल की ‘वे दिन’ वाला प्राग। हम सोचते हैं कि कैसी होगी नदी, जिसके बहने की आवाज़ होती है, ‘डार्क ऐंड डीप’।

बिगड़ गए हम। हमारे प्यारे लेखकों ने नास दिया हमको, माथा चढ़ा के…

दुनिया भर में 60 crore लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। साल 2023-24 के बजट में भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए 300 crore की राशि निर्धारित की है। आँकड़ों वाली इस दुनिया में किसी किताब के पहले एडिशन में 1100 कॉपीज़ छपती हैं। एक लेखक की रॉयल्टी पेंगुइन जैसे प्रकाशन के साथ 7.5% होती है। standard agreement के हिसाब से।

हम इस आँकड़े के लिए नहीं लिखते। हम पैसों के लिए भी नहीं लिखते। 

हम लिखते हैं कि किसी दिन इतरां जैसा कोई किरदार ख़्याल में उभरता है और हमसे कहता है कि लोगों को हमारी कहानी सुनाओ। हमको लगता है शायद दुनिया में लोगों को वैसी कहानियाँ अच्छी लगेंगी।

कभी कभी हम उदास होते हैं वाक़ई। कि किताबें ख़रीदी जाती हैं तो भरोसा होता है कि किताबें लिखी जानी चाहिए।
किसके लिए लिखे कहानी? कौन पढ़ेगा। क्यों पड़ेगा। short term memory, short attention span है दुनिया का। सबका ही। This is the way of life, now. 
फिर लगता है…
और क्या हज़ार पाँच सौ छोड़ो, क्या एक व्यक्ति को भी अपने दुख से उबार लेती है कहानी तो उसे लिखना नहीं चाहिए?

2 comments:

  1. ऐसा नहीं होता कि कोई बताए ना तो ये मान लिया जाए कि कोई पढ़ नहीं रहा। पढ़ने वाले पढ़ ही लेते हैं , हाँ, कभी कभी बताने के लिए कुछ नहीं होता तो शायद बताते नहीं होंगे!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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