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23 November, 2018

नवम्बर ड्राफ़्ट्स

सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।

तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?

ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में। 

मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ। 

मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है। 

तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।

नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।

मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ। 

***
***

कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे। 

किसी शहर से। 
किसी अहसास से।
किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।
किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।
किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था। 
किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से। 

आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में। 

कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है। 
मृत्युगंध। 

तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना। 

मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो। 

पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून। 

कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।
चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?

***
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लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था। 

लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही। 

शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर। 

05 January, 2015

जिन्दा हूँ. हर गहरी साँस के साथ शुक्रगुज़ार.

मैं खुद से पूछती हूँ...
व्हेन डू आई स्लीप?
देर रात जाने किस किस नए बैंड को सुनते हुए...यूट्यूब के कमेंट्स सेक्शन में देखती हूँ कि डार्क म्यूजिक है ये...लोग इसे सुनते हुए कहीं डूब जाना चाहते हैं या किसी का क़त्ल कर देना चाहते हैं. कुछ लोगों को चिलम फूंकने या ऐसा कोई और नशा करने की ख्वाहिश होने लगती है. लिखना मेरे लिए नशे में होने जैसा है शायद इसलिए मैं लौट लौट कर अपने कागज़ कलम तक आती हूँ. साल २०१४ में मैंने अब तक का सबसे कम ब्लॉग पर लिखा है मगर आश्चर्यजनक रूप से मैंने नोटबुक में बहुत ज्यादा लिखा है. मई से लेकर दिसंबर तक में एक नोटबुक भर गयी है. ये किसी भी और साल से चार गुना है. कितने रंग की इंक से लिखती गयी हूँ मैं...जाने क्या क्या सहेज कर रख दिया है उसमें.

मैं रात को नहीं सोती...मुझे दिन को नींद नहीं आती. भयानक इनसोम्निया है कि मैं सो कर भी नहीं सोती...कुछ जागता रहता है मेरे अन्दर हमेशा. दिन रात धड़कन इतनी तेज़ रहती जैसे दिल कमबख्त कहीं भाग जाना चाहता है जिस्म से बाहर...कुछ कुछ मेरी तरह...जैसे मैं रहती हूँ इस दुनिया में मगर भाग जाना चाहती हूँ कहीं और. कहाँ? मैं आखरी बार सोयी कब थी?
मैं खुद से पूछती हूँ...
व्हेयर डू यू स्लीप?
नींद किस तलघर से आती है? नींद आती भी है? मेरे इर्द गिर्द बेड होता है...वाकई होता है क्या? सामने खिड़की भी होती है. वही खिड़की जिसमें से जाड़ों की देर दोपहर सूरज ताने मारता रहता है कि कभी घर से बाहर निकलो...ये क्या हाल बना रखा है. ये कोई मौसम है घर में रहने का. मगर रात को सब बदल जाता है. कमरे की दीवारें सियाह हो जाती हैं और उनमें से पुराने कागजों की गंध आती है. कभी कभी लगता है कि मैं अपनी किसी पुरानी किताब में सोती हूँ. किताब की कहानियां मेरे सपनों को बुनती हैं. मैं अक्षर अक्षर तकिया बना कर सोती हूँ.

मुझे अँधेरा इतना खींचता क्यूँ है? आखिर क्या बात है कि एक परफेक्ट शाम एक खूबसूरत रात में ढलती है...कुछ यूँ खूबसूरत कि बालकनी से चाँद को देखती हूँ और सिगरेट का कश फेंकती हूँ उसकी तरफ कि जैसे फ्लाइंग किसेज भेज रही हूँ. अब चाँद की भी गलती है न...मेरे जैसी लड़की से प्यार करेगा तो फ्लाइंग किसेज तो मिलेंगे नहीं...सिगरेट का धुआं ही मिलेगा... फ़िलहाल हवा चल रही है तो सारे रिंग्स टूटे टूटे बन रहे हैं वरना ऐसी किसी रिंग को चाँद की ऊँगली में पहना कर कह देती तुम हमेशा के लिए मेरे हो गए. अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगी. पकड़ के रख लूंगी डिब्बे में और रात को तुम्हें टेबल लैम्प की तरह इस्तेमाल करूंगी. हाँ बाबा...मुझे मुहब्बत ऐसी ही आती है कि इस्तेमाल करूँ तुम्हारा. ना सॉरी. तुम्हें ग़लतफ़हमी हुयी थी कि मैं बहुत भली हूँ. मुझसे पूछना चाहिए था न.

बहरहाल मैं इस खूबसूरत और डार्क रात की बात कर रही थी. तो हुआ ये कि शाम को सोनू निगम के गाने सुन रही थी और सोच रही थी कि साल का पहला लव लैटर उसके नाम लिखूंगी कि आज तक प्यार जब भी होता है पहली बार ही होता है और फिर सिर्फ और सिर्फ सोनू निगम सुनती हूँ...कि जब तक चिल्ला चिल्ला कर 'दीवाना तेरा' नहीं गा रही हूँ नौटंकी है सब...कोई प्यार व्यार नहीं है. मगर आजकल जाने क्या क्या तो खुराफात घूमती है. मुझे लगता है जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है मेरा पागलपन भी बढ़ रहा है. व्हीली सीखने का मन करता है. स्टंट्स करने का मन करता है बाइक पर. थ्रिल अब तक सिर्फ कागज़ के पन्नों में अच्छा लगता था लेकिन आजकल कुछ फिजिकली करने का मन करता है. तेज़ बाइक चलाना बहुत बोरिंग हो गया है. कुछ ज्यादा चाहिए. और ज्यादा. बंजी जम्पिंग? पैरा सेलिंग. डीप सी डाइविंग. हेलमेट पहन के बाइक...आर यू फकिंग किडिंग मी? इस सेफ सेफ लाइफ में इकलौता थ्रिल है पागलों की तरह बाइक चलाना...जिस दिन गिरूंगी उस दिन सोचूंगी. वैसे भी जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है. व्हाटेवर. नेवरमाइंड.

मैं बतिया रही थी कि बात जहाँ से शुरू हो...किसी अँधेरे मोड़ पर क्यूँ रुक जाती है. मैं अच्छा खासा साजन फिल्म का गाना, मेरा दिल भी कितना पागल है सुनते सुनते कैसे किसी हंगेरियन सुसाइड सौंग पर पहुँच जाती हूँ शोध का विषय है. कुछ तो बात है कि ऐसी ही चीज़ें खींचती हैं मुझे. मुझे रौशनी नहीं अँधेरे खींचते हैं. मुझे अच्छे लोगों से डर लगता है. बुरे लोग तो मैं आराम से हैंडल कर लेती हूँ. एक है कोई...उसे लूसिफर कहती हूँ. शैतान वाले स्माइली भेजती हूँ. खुश होती हूँ कि उसे हिंदी नहीं आती. मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ सकता. वरना कितनी गलियां देता. 

कुछ ख़त पेंडिंग हैं. कुछ लोगों को जताना भी कि वो कितने कितने अजीज़ हैं मुझे. बॉम्बे गयी थी. अंशु से आधा घंटा मिलने के लिए ठाने से डेढ़ घंटा सफ़र करके गोरेगांव गयी टैक्सी कर के. आठ साल बाद मिली. बातें शुरू हो गयीं और जाने का वक़्त आ गया. टैक्सी में बाकी के डेढ़ घंटे बतियाती रही. वापसी में हँस रहे थे दोनों. इतने साल हो गए. लोग बदल गए लेकिन टॉपिक बात का अब भी वही फेवरिट. बॉयज. 
आज बहुत दिन बाद अचानक से लगा कि स्पेशल हूँ. वापस से अपनी फेवरिट बनने लगी हूँ. कहानियां कुलबुलाने लगी हैं. मुहब्बत है बहुत बहुत सी. दोस्त हैं कुछ बेहद बेहद प्यारे. 

जिंदगी में कुछ अफ़सोस हैं. होने चाहिए.
जिन्दा हूँ. हर गहरी साँस के साथ शुक्रगुज़ार.



01 October, 2013

आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.

लड़की हमारे एक रात के क़त्ल का इलज़ाम तुम्हारे सर.
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गिटार बजता है शुरू में...कहीं पहले सुना है. ठीक ऐसा ही कुछ. बैकग्राउंड में लेकिन चुभता हुआ कुछ ऐसे जैसे टैटू बनाने वाली सुई...खून के कतरे कतरे को सियाही से रिप्लेस करती हुयी...दर्द में डुबो डुबो कर लिखती जाती एक नाम. प्यास की तरह खींचती रूह को जिस्म से बाहर.

गीत के कई मकाम होते हैं...सुर बदलता है जैसे मौसम में हवाओं की दिशा बदलती है और तुम्हारे शहर का मौसम मेरे शहर की सांस में धूल के बवंडर जैसा घूमने लगता है. गहरे नीले रंग का तूफ़ान समंदर के सीने से उठा है हूक की तरह, मुझे बांहों में भरता है जैसे कहीं लौट के जाने की इजाजत नहीं देगा. आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.
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इधर कुछ दिन पहले शाम बेहद ठंढी हो गयी थी. जाने कैसे मौसम बिलकुल ऐसा लग रहा था जैसे दिसंबर आ गया है. जानते हो, दिसंबर की एक गंध होती है, ख़ास. जैसे परफ्यूम लगाते हो न तुम, गर्दन के दोनों ओर. तुमसे गले मिलते हुए महसूस होती है भीनी सी...खास तौर से वो जो तुम ट्यूसडे को लगाते हो. मेरी कहानियों में दिसंबर वैसा ही होता है...नीली जींस और सफ़ेद लिनन की क्रिस्प शर्ट पहने हुए, कालरबोन के पास परफ्यूम का हल्का सा स्प्रे. जानलेवा एकदम. दाहिने हाथ में घड़ी. लाल स्वेड लेदर के जूते. आँखें...हमेशा लाईट ब्राउन...सुनहली. उनमें हलकी चमक होती है. गहरे अँधेरे में भी तुम्हारी आँखों की रौशनी से तुम तक पहुँच जाऊं...घुप्प अँधेरे में दूर किले की खिड़की में इंतज़ार के दिए जैसी अनथक लौ.
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देर रात जाग कर लिखने के मौसम वापस आ रहे हैं. दिल पर वही घबराहट का बुखार तारी है. दिल के धड़कने की रफ़्तार लगता है जैसे ४०० पार कर चुकी हो. मेरी कहानियों का इश्क एक ख़ास एक्सेंट में बोलता है. मेरा नाम भी लेता है तो लगता है कोई पुरानी ग्रीक कविता पढ़ कर सुना रहा हो बर्न के फाउंटेन में भीगते हुए. कभी मिले तुमसे तो उससे पाब्लो नेरुदा की कविता सुनना. मूड में होगा तो पूछेगा तुमसे, तुमने ये कविता सुनी है...सुनी भी होगी तो कहना नहीं सुनी...पढ़ी भी होगी तो कहना नहीं पढ़ी है...फिर वो तुम्हें अपना लिखा कुछ सुनाएगा...उस वक़्त मेरी जान खुद को रोक के रखना वरना समंदर में कूद कर जान दे देने को दिल चाहेगा. खुदा न खास्ता उसका गाने का मूड हो गया तब तो देखना कि धरती अपने अक्षांश पर घूमना बंद कर देगी. रेतघड़ी में रुक जाएगा सुनहले कणों का गिरना. तुम्हारे इर्द गिर्द सब कुछ रुक जाएगा. सब कुछ. खुदा जैसा कुछ होता है इसपर भी यकीं हो जाएगा. सम्हलना रे लड़की उस वक़्त.
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देखना उसकी तस्वीर को गौर से रात के ठहरे पहर. ऐतबार करना इस बात पर कि हिचकियों ने उसे सोने नहीं दिया होगा रात भर. खुश हो जाना इस झूठ पर और आइस क्यूब्स में थोड़ी और विस्की डाल लेना. पागल लड़की, बताया था न, ऐसी रात कभी भी लिख दूँगी तुम्हारी किस्मत में...फिर अपनी पसंद की सिगरेट खरीद कर क्यूँ नहीं रखी थी? मत दिया करो लोगों को अपनी सिगरेट पीने के लिए. देर रात तलब लगने पर कार लेकर एयरपोर्ट चली जाना. ध्यान रहे कि स्पीड कभी भी १०० से कम नहीं होनी चाहिए. दिल करे तो १२० पर भी चला सकती हो और अगर बहुत प्यार आये तो १३० पर. न, जाने दो. बड़ी प्यारी कार है, ऐसा करना १०० से ऊपर मत चलाना. कहीं किसी एक्सीडेंट में खुदा को प्यारी हो गयी तो इश्क का क्या होगा.
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उससे जब भी मिलना ऐसे मिलना जैसे आखिरी बार मिल रही हो. उसका ठिकाना नहीं है. एक बार जिंदगी में आये फिर ऐसा भी होता है कि ताजिंदगी इंतज़ार कराये और दुबारा कभी नज़र भी न आये. तुमने उसे देखा नहीं है ना लेकिन, पहचानोगी कैसे? तो ऐसा है मेरी जान...इश्क आते हुए कभी पहचान नहीं आता. सिर्फ उसके जाते हुए महसूस होता है कि वो जा चुका है. उसके जाने पर ऐसा लगेगा जैसे समंदर ने आखिरी लहरें वापस खींच ली हों...दिल ने पम्प कर दी है खून की आखिरी बूँद...लंग्स कोलाप्स कर रहे हों ऐसा निर्वात है चारों ओर. उसके जाने से चला जाता है जिंदगी का सारा राग...रात की सारी नींद...भोर का सारा उजास.
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सामान बांधना और चले जाना नार्थ पोल के पास के किसी गाँव में रहने जहाँ तीन महीने लगातार दिन होता है और फिर पूरे साल रात ही होती है एक लम्बी रात. रात को नृत्य करते हुए लड़के दिखेंगे. गौर से देखना, उसकी खुराफाती आँखें दिखेंगी मेले में ही कहीं. सब कुछ बदल जाता है, उसकी आँखें नहीं बदलतीं. बाँध के रख लेती हैं. गुनाहगार आँखें. पनाह मांगती आँखें. क़त्ल की गुज़ारिश करती आँखें.
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वो कुछ ऐसे गले लगाएगा जैसे कई जन्म बाद मिल रहा हो तुमसे. बर्फ वाले उस देश में औरोरा बोरियालिस तुम्हें चेताने की कोशिश करेगा...पल पल रंग बदलेगा मगर तुम उसकी आँखों में नहीं देख पाओगी खतरे का कोई भी रंग. वो डॉक्टर के स्काल्पेल को रखेगा तुम्हारी गर्दन पर और जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली रेखा...जैसे शायर लिखता है अपनी प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर...जैसे बच्चा सीखता है लिखना आयतें...तीखी धार से तुम्हारी गर्दन पर चला देगा कि मौत महसूस न हो.
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सफ़ेद बर्फ पर लिखेगा तुम्हारे लहू के लाल रंग से...आई लव यू...तुम्हारी रूह मुस्कुराएगी और कहेगी उससे...शुक्रिया.

12 December, 2012

एक तारीख से गुज़रते हुए...

१२/१२/१२                                      
इसी सुबह को...सपना...किसी ने काँधे से भींच कर पकड़ा है और झकझोर रहा है...आँखों में देख रहा है...उसकी नज़र ऐसे भेदती है जैसे आत्मा तक के सारे राज़ पता हैं उसे...कोई सवाल है जो वो मुझसे पूछता नहीं. किसी टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है मैंने...कुछ ऐसा है जो मुझे बिलकुल नहीं आता...वो कहता है...तुम कर सकती हो...मुझे मालूम है तुम जीत जाओगी...तुम्हें खुद पर यकीन क्यूँ नहीं होता. मैं कहता हूँ न तुम जीत जाओगी. मैं उसके यकीन पर भरोसा करती हूँ तो पाती हूँ कि मुझे वाकई मालूम थी पूरी प्रक्रिया...पूरा खेल...और मैं जीत जाती हूँ. खेल ख़त्म हो जाता है लेकिन कंधों पर रह जाती हैं उसकी हथेलियाँ और मैं दिन भर ऐसे चलती हूँ जैसे नशे में हूँ. कौन है वो जो मुझपर मुझसे ज्यादा यकीन करता है?

कोई आवाज़ है...पूछती है...तुम मुझे किस नाम से बुलाती थी? जाने किस शाम मैंने कौन सी कहानियां सुनायीं थीं उसे...मैं चली आई दूर मगर मेरी कहानियों के किरदार उसकी जिंदगी में रह गए. वे अक्सर उससे मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं. वो मुझसे पूछ रहा है कि ये किरदार कितने सच हैं, उनका किसी अल्टरनेट दुनिया में कोई ठिकाना है तो वो उन्हें उनके घर छोड़ आएगा. वो परेशां है थोड़ा, उसे इस दुनिया के लोग समझ नहीं आते...वो कहता है तुम ये लोग किस दुनिया से लाती हो, कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू करोगी क्या जो इस दुनिया के लोगों को थोड़ा तुम्हारी दुनिया के लोगों जैसा बना सके. उसे मेरी कहानी के किरदारों से जितना प्यार है अपनी जिंदगी के लोगों से नहीं. 
कोई क्यूँकर होता है इतना तन्हा?
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ऑफिस के बगल में एक दूकान है...जेनरल स्टोर्स टाईप...भूख लग रही थी, कुछ खाने का मन कर रहा था...सोचा कुछ ले आऊँ जा कर. देखती हूँ उसके ठीक सामने वाइन शॉप खुली है नयी...हाय कमबख्त, गालियाँ निकालती हूँ दूकान खोलने वाले को. बेहद खूबसूरत शॉप है...पूरा ग्लास का एक्सटीरियर है...सामने हर तरह की खूबसूरत बोतलों की अंतहीन कतारें...शोकेस में लगे बेहतरीन कांच के दिलफरेब टुकड़े...क्लास्सिक पोस्टर्स. एक तिलिस्म है अपनी ओर खींचता हुआ...एक हम हैं काम की उलझनों में उलझे हुए. दोस्त को फोन किया...ऐसे ही वीतराग मूड में...उधर से बोलता है...क्या है बे? अचानक हँसी आ गयी. शायद इसी लिए फोन किया भी था. चार गालियाँ पटकीं, फिर उसे घर निकलना था...कल बात करते हैं. देखें कल कितने दिन में आता है. 

किसी को समझा रही थी कि मैं लिखती कैसे हूँ. तीन चीज़ें होती हैं...किरदार, प्लाट और असल घटना...इसमें से कोई न कोई हमेशा सच रहता है. कभी किरदार सच होता है...मेरी जिंदगी से गुज़रा कोई या किसी और की जिंदगी का कोई नमूना...कभी प्लाट सही होता है कि ऑफिस, शहर, धूप, कोहरा, मौसम, बैंगलोर...ये  सबसे ज्यादा कॉमन एलिमेंट है जो अक्सर सच रहता है...और फिर वो है जो शायद ही सच होती है...इन सबके साथ घटा हुआ कुछ...ये अक्सर कोरी कल्पना होती है. 

एक प्रोजेक्ट पर काम करना था अभी...पर कुछ लिखने का मन था...उसके बिना काम में मन नहीं लगेगा...सो पहले लिखना निपटा देते हैं. इधर बहुत दिनों से कोई अच्छा म्यूजिक नहीं सुना है...खुद से खोजने का ट्रैक रिकोर्ड बेहद ख़राब है...शायद ही अपना तलाशा हुआ कुछ पसंद आता है. 

मुझे आजकल सबसे ज्यादा एट होम कार में फील होता है. उसमें अपनापन है...कहीं घूमने जाने का वादा है...कार चलाते हुए शीशे चढ़ा लो तो एक पैरलल दुनिया बन जाती है जिसमें मेरे दिमाग में घूमते किरदार होते हैं...सीडी प्लेयर पर मेरी पसंद का म्यूजिक होता है और हर सू बदलते नज़ारे होते हैं...बहुत सी शान्ति होती है. दुनिया के कुछ सबसे पसंदीदा कामों में से एक है कुणाल को ऑफिस से रिसीव करने जाना. आज जनाब बिना स्वेटर लिए चले गए हैं, सर्दी-खांसी-बुखार हो रखा है. तो आज हम ड्राइवरी करके जनाब को ऑफिस से उठाने जायेंगे. रोड अपना...चाँद अपना...गाने अपने...ओ हो हो. 

आज रजनीगंधा के फूल खरीदने का मन कर रहा है...सुबह सारे गर्म कपड़े धूप में सुखाये हैं...घर ईजी की नर्म खुशबू से भर गया है...दिसंबर...सर्दियाँ...खुशामदीद. 

फोटो वाली बिल्ली हमारे ऑफिस की है...हमारे प्रोजेक्ट्स की बहुत चिंता करती है...हमने इसे स्पेशल रास्ता काटने के लिए पाला है :)

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


19 July, 2012

हरकारे ओ हरकारे!

I miss you.
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जैसे किसी ने कभी मेरा नाम नहीं पुकारा हो...जैसे मेरा कोई नाम हो ही नहीं...मैं सिर्फ एक संख्या हूँ...बाइनरी डिजिट्स से बनी ऐस्काई कोडिंग में रची कोई कविता...तुमने कौन सी कुंजी से जान लिया मेरे नाम का उच्चारण...तुम वो पहले व्यक्ति थे जिसने मेरा नाम पुकारा था.

हम एक मौन प्रजाति के जीव थे...कोई भी बोलना नहीं जानता था...आँखें उठाना नहीं जानता था...हम एक दूसरे को देखते तो थे पर किसी के चेहरे पहचान नहीं सकते थे...ऐसे में तुम जाने कैसे मेरी आँखों को बाँध सके थे...वो पूरा एक मिनट था जब तुमने मेरी ओर देखा था...उतनी देर में गार्डों ने २० लोगों की रोल-कॉल कम्प्लीट कर ली थी.

हमें खास जेनेटिक प्रयोगशालाओं में बनाया गया था...हमारा जीवन चक्र नियमित होता था और इस चक्र को अनियमित करने वाले जितने भी कारक थे उनका समय समय पर उन्मूलन किया जाता रहता था. नियत समय पर जीने और मरने वाले हम लोग खेत में लगे अरबी या खरीफ की फसल जैसे ही तो थे.
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ये बहुत बुरी बात है कि इतने पर भी प्रेम जैसी कोई चीज़ मेरे अंदर बची रह गयी है. कि जैसे किसी जर्मन कवि ने कहा था कि अब इस भाषा में कभी भी कविताएं नहीं रची जा सकेंगी. उन्होंने फिर आजीवन कुछ नहीं लिखा.  मेरी हालत ऐसी है जैसे कि अंदर कहीं आग लगी हुयी है और मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही हूँ. मैं जानती हूँ कि मेरे लिए लिखना जरूरी है...मगर इस वक्त...इस वक्त...मैं दिल्ली में होना चाहती हूँ.
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I miss you.
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हालाँकि मैं जानती हूँ कि मैं जिस तुम के पीछे भागती हूँ वो दरअसल मेरी खुद को ढूँढने की कोशिश है. लोग आइनों की तरह होते हैं...उनमें आपका खुद का अक्स दिखता है. तलाश एक ऐसे आईने कि है जिसमें अक्स धुंधला न दिखे. बस.
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आह...जरा सी जो कच्ची फाँक मिल जाती तुम्हारी आवाज़ की तो क्या बात होती!                                                                      

06 July, 2012

एक ओक भर सांस...


उसकी आवाज़ नीम नींद के किसी गलियारे में भटकती है...आधे भिड़े हुए दरवाज़े खटखटाती है...रौशनी की बुझती हुयी लकीर से उलझती है...मुझे छू कर पहचानती है...उस आवाज़ ने मेरी आँखें नहीं देखीं हैं.

आवाज़ है कि काँधे पर खुशबू बांधती है...लंबी पतली उँगलियों से मेरी गिरहें खोलती है...उसकी आवाज़ है कि गाँव की कच्ची याद कोई...टीसते ज़ख्म खोलती है और सिलती है...धान की बालियों सी तीखी काट है उस की.

एक दिन पुराना पूर्णिमा का चाँद है कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...वो खनखनाता है मेरी खिलखिलाहटों में...बिखेरता है जैसे कबूतरों को चुगाती है दाना कोई लड़की...मेरी कलाइयां थाम लीं थीं उसने आज.

कतरा है आवाज़ का मैं रोज जमा करती हूँ गुल्लक में थोड़ा थोड़ा...जिस दिन पूरा हो जाएगा उसके होठों का मानचित्र मैं ऊँगली बढ़ा कर पोंछ दूँगी खून का नन्हा सा कतरा जो उभर आया है...सिसकियाँ रोकते रोकते.

वो जिस्म है भी कि रूह है कोई कि जो बात करती है मुझसे कि कैसे छू कर देखते हैं आवाज़ को...कि ऐसा भी हुआ है कि वो कहता जाता है जाने क्या कुछ...पर मैं सुनती हूँ सिर्फ साँसों की नदी का बहना... कल... कल... कल...कल. वो कभी मुझसे सच में नहीं मिलेगा?

वो कैसे देखेगा मेरी नब्ज़...उसके छूते ही तो बढ़ जाती हैं न सांसें...धड़कन...मैं ख्वाब में भी उसकी आवाज़ को ढूंढती चलती हूँ...वो कहता है जरा कलाई दिखाओ तो...यहाँ...ठीक यहाँ ब्लेड मारना और पानी में डुबा देना कलाइयां...मैं तुम्हें मौत और जिंदगी के बीच मिलूँगा कहीं.

अधिकतर ऐसा होता है कि जिंदगी में लोग होते हैं और उसके साथ जुड़ी आवाज़ होती है...यहाँ आवाज़ है...पर उससे जुड़ा वो कैसा है मुझे मालूम नहीं.

मेरा गला सूखता है...होठों पर जीभ फिराती हूँ तो लगता है उसके होठों को छू लिया है...बिजली का करंट लगता है. उसके होठों का स्वाद बीड़ी जैसा है...बीड़ी धूंकनी होती है...सिगरेट की तरह नफासत नहीं है उसमें. मैं एक बार देखना चाहती हूँ कि जब वो मेरा नाम लेता है तो उसके होठ किस तरह हिलते हैं...क्या वैसे ही  जैसे मैं हमेशा सोचती आई हूँ?

केमिस्ट्री के नियम समझा नहीं सकते कि मुझमें और उसमें कौन सा बौंड है...फिजिक्स पीछे हट जाता है कि ये कौन सा एनर्जी कन्वर्शन है कि उसकी आवाज़ सुनती हूँ तो खाए पिये बगैर भी दिन गुज़र जाता है. 

दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क.

मैं उससे पूछती हूँ...कि तुम्हारा नाम कुछ खास है कि मुझे लगता है...पूछती हूँ...नुक्ते का फर्क...ग़ और ग में...वो समझाता है गिलास वाला ग नहीं...ग़ालिब वाला ग. मैं हँसती हूँ...अच्छा...गधा वाला ग नहीं...हम दोनों की आवाज़ घुलती जा रही है एक दूसरे में. जैसे हम दोनों घुलते जा रहे हैं...एक दूसरे में. उसके नाम से मैं सुनने लगी हूँ...मेरे नाम से वो बुलाने लगा है...

कंठमणि ...ओह! हिंदी के कुछ शब्द कितने सुन्दर हैं...अडैम्स एप्पल में वो बात कहाँ...सारी मुसीबत की जड़ यही है न...अपने हाथों से उसका गला दबा के मार दूं...फिर इस आवाज़ के पीछे नहीं भागूंगी.

रति की तरह विलाप करती हूँ...आह अनंग...तुम्हारी आवाज़ मुझे बाँहों में नहीं भर सकती है...नीम अँधेरे में आँखों को ढके हुए करवट बदलती हूँ...मेरे उसके बीच सिर्फ सांसों की नदी बहती है...एक ओक भर सांस उठा कर उसके हिस्से का दिन जी लेती हूँ...एक पाल भर नाव बढ़ा कर उसकी हिस्से की प्यास.

आह...अनंग! आह अनंग! 

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27 May, 2012

पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ.

आप १४० पर हड़बड़ में नहीं पहुँच सकते.

मैं गाड़ी की स्पीड की बात कर रही हूँ...१४० किलोमीटर प्रति घंटा.

ऐसा नहीं होगा कि आप एक्सीलेरेटर को पूरा नीचे तक दबा दिए तो गाड़ी उड़ती हुयी १४० टच कर जायेगी.
ऐसा हो भी सकता है. पर वो कारें दूसरी तरह की होती हैं. मैं एक नोर्मल कार की बात कर रही हूँ...जैसे कि मेरे पास है. स्कोडा फाबिया. एक साधारण, मिड-लेवल कार...ये कारें हमारे पागलपन के लिए नहीं, हमारी सुरक्षा के लिए बनी हैं.

कोई क्यूँ चलाना चाहेगा कार को १४० की स्पीड पर...जैसा कि मैं खुद से कहती हूँ...१४० मजाक नहीं होता. ८० पर गाड़ी चलाना तेज रफ़्तार माना जाता है. १०० पर चलाने पर अगर कुछ लोग गाड़ी की बैक सीट में हैं तो मुमकिन है कि एक आध बार टोक दें...गाड़ी थोड़ा धीरे चलाओ प्लीज. १२० की स्पीड हाइवे पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिए अक्सर जरूरी होती है. बहुत मूड हुआ तो १२५ और महज छूने की खातिर कि कैसा लगता है १३० पर चलाना कई बार लोग स्पीडोमीटर पर ध्यान देते हुए स्पीड बढ़ा भी सकते हैं. एक बार फिर सुई १३० टच कर जाए तो वापस लौट आते हैं. कभी हुआ है कि भीड़ में कोई शख्स आगे जा रहा है और कौतुहल इतना बढ़ जाए कि आपको तेज कदम बढ़ा कर उसका चेहरा देखना हो...वैसा ही कुछ.

१४० पर चलाने के पहले के हालात और १४० के दरमयान क्या चलता है दिमाग में? जी...दिमाग कमबख्त १४० पर भी सोचना बंद नहीं करता...इस स्पीड में भी पैरलल ट्रैक चलाता है. वैसे अगर आपने चला रखी है गाड़ी तो फिर पढ़ने का सेन्स नहीं बनता कि आप जानते हैं कि कैसा लगता है...मगर फिर भी, हर अनुभव दूसरे से अलग होता है कि हर इंसान के सोचने समझने और रिएक्ट करने के तरीके अलग होते हैं. उसमें भी मैं तो जाने किस मिट्टी से बन के आई हूँ.

इतने भाषण के बाद क्रोनोलोजिकल आर्डर में बात करती हूँ. भोर का पहला पहर था...चार बज रहे होंगे...एकदम सन्नाटा. फिर कोई दस मिनट के आसपास चिड़िया पार्टी हल्ला करना शुरू की. मेरे घर के पीछे एक बहुत बड़ा सा पेड़ है...वही सबका अड्डा है. अँधेरा अपने सबसे सान्द्र फॉर्म में था...यू नो...सूरज उगने के पहले सबसे ज्यादा अँधेरा होता है...वही वक्त. मेरा मन थोड़ा छटपट कर रहा था...या फिर कह सकते हैं कि कहीं भाग जाने का मन कर रहा था...बहुत लंबी सड़क पर

बैंगलोर से बाहर जाने के सारे रास्ते मुझे मालूम है...वैसे अब तो आईफोन में जीपीएस है पर उसके पहले भी साधारण नक़्शे को मैं ही पढ़ती थी और हम घूमने जाते थे...इसलिए शहर का अच्छे से आइडिया है. सारे रास्तों में मुझे सबसे मायावी लगता है हाइवे नंबर ७ जो बहुत से घुमावदार शहरों से होकर कन्याकुमारी जाता है. मुख्यतः दो या तीन रास्ते हैं लेकिन जिनपर ड्राइव करने जाया जा सकता है. घर से निकलते ही सोचना पड़ता है किधर जाएँ...एक रास्ता है ओल्ड मद्रास रोड...जो हाइवे नंबर ४ है...चेन्नई जाता है. पोंडिचेरी जाने के लिए भी इस रास्ते को लिया जा सकता है. एक रास्ता है एयरपोर्ट होते हुए...जिसपर आगे चलते जायें तो हैदराबाद पहुँच जायेंगे. कोरमंगला होते हुए भी एक रास्ता बाहर को जाता है...जिसका सबसे बड़ा आकर्षण है १० किलोमीटर लंबा चार लेन का फ्लाईओवर...इसमें कोई खास मोड़ भी नहीं हैं...एकदम सीधी सड़क है. एयरपोर्ट के रस्ते में अच्छा ये था कि वहाँ मेरी पसंद की कॉफी मिलती है...मगर चार बजे सुबह एयरपोर्ट का रास्ता काफी बिजी रहता है. नाईस रोड भी ले सकती थी पर उधर के रास्ते जाने के लिए थोड़ा मैप ज्यादा देखना पड़ता...तो फिर सोचा कि इलेक्ट्रोनिक सिटी फ्लाईओवर के तरफ निकलते हैं आसानी से पहुँच जायेंगे और भीड़ कम रहेगी.

मैं कार बहुत हिसाब से चलाती हूँ...इतने साल में अब अच्छी ड्राइवर का खिताब मिल चुका है. काफी कण्ट्रोल में और नियमों के हिसाब से चलाती हूँ. अक्सर शांत रहती हूँ गाड़ी चलाते हुए...कार के शीशे उतार के चलाती हूँ...एसी चलाना पसंद नहीं है. सुबह इनर रिंग रोड...कोई ट्रैफिक नहीं था...सिल्क बोर्ड होते हुए आगे और फ्लाईओवर सामने. मेरे फोन में एक प्लेलिस्ट है 'लव मी डू'...बीटल्स के एक ट्रैक के नाम पर. इसमें मेरे सारे सबसे पसंद के गाने हैं...ऐसे गाने जिनसे मैं कभी बोर नहीं हो सकती. क्लासिक. सुबह यही प्लेलिस्ट चल रही थी. हवा में हलकी सी ठंढ थी, जैसे दूर कहीं बारिशें हुयी हों...आसमान में एक तरफ सलेटी रंग के बादल दिखने लगे थे...भोर की उजास फ़ैल रही थी.

फ्लाईओवर स्वप्न सरीखा है...स्विटजरलैंड की सड़कें याद आ गयीं. एकदम सीधी बिछी हुयी सड़क...शहर के कोलाहल से ऊपर...ऐसा लगता है किसी और दुनिया में जी रहे हैं...जहाँ न शोर है, न लोग हैं, न कोई ट्रैफिक सिग्नल. किसी से गहरे प्यार में होना इस फ्लाईओवर के अलावा की दुनिया है...और किसी से अचानक औचक प्यार हो जाना ये फ्लाईओवर...भले ही मुश्किल से दस मिनट का सफ़र होगा...मगर कभी न भूल जाने वाला अनुभव. मिस्टर ऐंड मिसेज अइयर देखते हुए नहीं सोचा था पर रिट्रोस्पेक्ट में हमेशा सोचती हूँ...प्यार की उम्र हमेशा कम ही होती है...और जब कम होती है तो हम बिना किसी रिजर्वेशन के जीते हैं...फिर हमारे पास लौट के जाने को कुछ नहीं होता है...तो दस मिनट से कम के लिए ही सही पर हम पूरी शिद्दत से वो होते हैं वो हम हैं...वो जीते हैं जो हम जीना चाहते हैं. लिविंग ऑन द एज जैसा कुछ.

फ्लाईओवर पर स्पीड लिमिट ८० है. कच्ची उम्र का डायलोग. रिश्ते की लिमिट काँधे तक है. उसके नीचे छू नहीं सकते. सोच नहीं सकते. उसके होटों का स्वाद कैसा है. मैं जब पागल होती हूँ तो १५ की उम्र में क्यूँ लौटती हूँ? स्पीड लिमिट ८० है...इसके कितने ऊपर तक छू सकते हैं? सीधी...सपाट सड़क...दूर दूर तक कोई गाडियां नहीं. न आगे न पीछे. पैर एक्सीलेटर पर हलके हलके दबाव बनाता है...इंटरमिटेन्टली. थोड़ा प्रेशर फिर कुछ नहीं. सुई आगे बढती है...१००...थोड़ी देर बाद फिर १२०...दुनिया अच्छी सी लगने लगी है. १३०...दिल की धड़कन तेज हो गयी है...वो पहली बार इतने करीब आया है...उसकी साँसों में ये कैसी खुशबू है...मीठी सी...१३०...बहुत देर से सुई १३० पर है...अब सब रुका हुआ सा लगता है.

कैसी हूँ मैं...१३० की स्पीड पर सब ऐसा लगता है जैसे रुका हुआ हो...धीमा हो...खंजर दिल में है...मैं रिस रही हूँ...ऐसिलेरेटर पर फिर हल्का दबाव बनाती हूँ...दूर दूर तक कोई गाड़ी नहीं है...थोड़ा और...अब सब कुछ बेहद तेज़ी से मेरी ओर आ रहा है...आसपास चीज़ें इतनी तेज हैं जैसे मैं वक्त में पीछे जा रही हूँ...टाइम ट्रैवेल जैसा कुछ...जिंदगी और आगे का रास्ता जैसे फिश आई लेंस से देख रही हूँ...एक छोटा सा शीशा है जिसमें से मेरी पूरी जिंदगी गुज़र रही है आँखों के सामने से जैसे पुरानी कहानी में एक अंगूठी से ढाके की मलमल का पूरा थान निकल आता था.

१४०...पॉज...एकदम जैसे सांस रुक गयी हो. फ्रैक्शन ऑफ अ मोमेंट...क्या उतना ही छोटा जब पहली बार अहसास हुआ था कि प्यार हो गया है मुझे?

सब कुछ रिवाइंड हो रहा है...एक इमेज उभरती है कि कार अगर फ्लाईओवर की बाउंड्री से टकराएगी तो प्रोजेक्टाइल की तरह गिरेगी. मैं विचार को झटक देती हूँ...सामने नज़र आती सड़क के अलावा लोग बहुत तेज़ी से आ जा रहे हैं...जैसे जिंदगी वाकई एक १४० की स्पीड से दौड़ती हुयी कार है और जिंदगी में आये हुए सभी लोग सिर्फ एक धुंधला सा अक्स.

मैंने एक्सीलेरेटर छोड़ दिया है और बेहद हलके ब्रेक मारती हूँ...लगभग छूती हूँ...जैसे खुद को रोकना...कि उससे प्यार नहीं करना है...हलके ब्रेक्स...थोड़ी थोड़ी देर पर. स्पीड घटती है...१३०...१२०...१००...८०. अब ठीक है...अब सब स्टेबल है. फ्लाई ओवर भी थोड़ी देर में खत्म हो जाएगा. उम्र...अगले महीने २९ की हो जाउंगी...जिंदगी भी थोड़ी देर में खत्म हो जायेगी.

टोल प्लाज़ा आ गया है...टू वे टोल...मैं शीशे के बोक्स में बैठे उस लड़के को देख कर मुस्कुराती हूँ. जब तक वो छुट्टा निकाल रहा है...टोल बूथ के दूसरी तरफ दो लोग खड़े हैं...मुझे कौतुहल से देखते हैं. इतनी इतनी भोर में अकेली लड़की गाड़ी लेकर शहर से बाहर क्यूँ जा रही है. मुझे हमेशा से लोगों का ये बेहद उलझा हुआ चेहरा बहुत पसंद है. मैं हलके गुनगुनाने लगती हूँ...टोल का टिकट लेकर आगे बढ़ी हूँ. यहाँ हाइवे है...इस समय बैंगलोर की तरफ आने वाले बहुत से ट्रक दिख रहे हैं दूसरी लेन में. अभी भी अँधेरा है तो उनकी हेडलाइट्स जली हुयी हैं. हाइवे पर बहुत देर बहुत दूर तक ड्राइव करती हूँ...अब लौटने का मन है...हाई बीम के कारण रोड दिख नहीं रहा है ढंग से...यू टर्न या तो राईट लेन से होगा या लेफ्ट लेन से फ्लाईओवर के नीचे से. जिंदगी ऐसी ही है न...लौटने का या तो सही रास्ता होता है या गलत.

इत्तिफाक कहूँ या फितरत...लेफ्ट लेन में यू टर्न मिला है...बहुत ध्यान से कार मोड़ती हूँ...कुछ देर रुक कर देखती हूँ...कोई गाड़ी नहीं आ रही. हाइवे पर ध्यान ज्यादा देना होता है...स्पीड बहुत तेज रहती है तो अचानक से गाड़ी आ सकती है सामने...वैसे में कंट्रोल में रहना जरूरी होता है. कोलेज बंक मार कर जेएनयू में टहलते हुए कई बार टीचर भी दिख जाते थे. वैसे में नोर्मल रहना होता है जैसे किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में जाना पड़ा था कहीं और अब लौट रहे हैं.

लौटते हुए बहुत से ट्रक हैं रास्ते में और उन्हें ओवरटेक करना पड़ा है...वापस लौटना वैसे भी हमेशा उतना आसान नहीं होता जितना कि चले जाना...अवरोध होते ही हैं. १२० पर ओवरटेक करती हूँ...गानों पर ध्यान देती हूँ...फ्लाईओवर फिर से सामने है...पर इस बार स्पीड बढ़ाऊंगी तो जाने किसका अक्स ठहर जाएगा...डरती हूँ. ८० की स्थिर स्पीड पर चलाती हूँ. ले बाई है. गाड़ी पार्क करती हूँ. एसएलआर निकालती हूँ...ट्राइपोड लाना भूल गयी. खुद को कोसती हूँ कि फोटो अच्छी नहीं आ पाएंगी. गाड़ियां भूतों की तरह भागती हैं कैमरे के व्यूफाइंडर में से...कुछ ऐसे ही फोटो उतारती हूँ...फिर फोन से खुद की एक तस्वीर उतारती हूँ. जानती हूँ मेरी फेवरिट रहेगी बहुत दिनों तक.

शहर जागने लगा है...मैं पूरी रात नहीं सोयी हूँ. फिर भी थकी नहीं हूँ...जरा सी भी. पहचाने रास्तों पर लौट आई हूँ...सिल्क बोर्ड के पास बहुत से फूल बिकते रहते हैं सुबह...जासमिन की तीखी गंध आई है अंदर तक...मैं बारिशों वाले दिन और बालकनी में कॉफी की याद करती हूँ...एक सिगरेट पीने का मन करता है. दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है अब तक. कार पार्क करती हूँ. एहतियात से घर का लॉक खोलती हूँ.

कॉफी बनाती हूँ...सूरज उग गया है पर दिख नहीं रहा...बहुत बादल हैं. मैं हमेशा उन लोगों को बहुत एडमायर करती थी जो बहुत तेज़ी से कार चलाते हुए भी स्थिर रह सकते हैं...खुद को वहाँ देखती हूँ तो अच्छा लगता है. कुछ लोग खतरे का बोर्ड देख कर आगाह होते हैं...कुछ लोग खतरे का बोर्ड देखते ही वही काम करने चल देते हैं. मैं दूसरे टाइप की हूँ. फिर से वो साइन टांग देने का मन कर रहा है. 'Danger Ahead. You might fall in love with me'...लेकिन...कोई फायदा नहीं...फिर से खुद से प्यार हो गया मुझे.

थोड़ी पागल...थोड़ी खतरनाक...थोड़ी आवारा...थोड़ी नशे में...जरा सी बंजारामिजाज...थोड़ी घुमक्कड़...थोड़ी थोड़ी प्यार में. पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ. 

22 May, 2012

उसमें इतनी गिरहें थीं कि खोलने वाला खुद उलझ जाता था

अजीब लड़की थी कि उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी थी...हर कुछ दिन में ऐसे छटपटाने लगती थी जैसे हवा में ओक्सिजेन खत्म हो गयी हो. कितना भी बातें कर ले...लिखे बिना उसका दिन नहीं मानता था. ऐसे में लगता था कि कोई उसका हाथ पकड़ के मरोड़ दे...कुछ ऐसे कि उँगलियाँ चिटक जायें...नील पड़ जाएँ और वह कलम न उठा सके. उसे सादा कागज़ यूँ खींचता था जैसे मरने वाले को मौत अपनी ओर...जैसे पहाड़ों का निर्वात अपनी ओर...घाटियों की गहराई छलांग लगा देने को पुकारती हो जैसे.

फिरोजी सियाही...गुलाबी...नारंगी...हरा...उसे नीले और काले रंग से लिखना नापसंद था. उसने एक दिन आखिर परेशान होकर घर की सारी कापियों में आग लगा दी...लिखा हुआ उसे और लिखने के लिए उकसाता था और सादा कागज़ उसे भीगी चादर की तरह दोनों किनारे पकड़ मरोड़ डालता था कि लड़की का पूरा सार तत्व किसी के नाम चिट्ठी में उतर आये...पर मन का सारा गीलापन निकल जाने पर भी थोड़ी सी नमी बाकी रह जाती थी और वो बालकनी में अधभीगी चादर की तरह पसरी रहती. कभी कॉफी में खुद को डुबाती तो थोड़ा नशा चढ़ता फिर सिगरेट और बची हुयी व्हिस्की से खुद में पानी की कमी को पूरा करती.

फिलहाल पूरे घर में जले हुए कागज़ के कतरे उड़ रहे हैं और दीवारों पर लटके जाले थोड़े सियाह हो गए हैं...पंखों पर उन चिट्ठियों के बेताल चमगादड़ों की तरह लटक गए हैं. कितनी बातें...ओह कितनी बातें लिखी थी उसने...थोड़ी तकलीफ होती है उसे जब भी वो ऐसे कागजों की होली जलाती है पर ये इतना नहीं होता कि फूट फूट कर रो पड़े...उसे लिखा हुआ जलने का अफ़सोस नहीं होता...रोज रोज इतना लिखती रहती है कि जो खो गया उसके लिए रोने का वक्त नहीं मिलता उसे. हाँ सादे कागजों के लिए उसकी आँखें भर भर आती हैं. ऐसा तो नहीं होगा कि सादा कागज़ नहीं होगा तो वो चिट्ठियां ही नहीं लिखेगी फिर भी हर कुछ दिन में उसे कागजों में आग लगा देने में अच्छा लगता है.

वो सोचती है कि उसे भूलना क्यूँ नहीं आता...लिखना ही भूल जाए...या कि उसे भूल जाए जिसे चिट्ठियां लिखना चाहती है...या यही भूल जाए कमसे कम कि घर में कलम कहाँ छुपा के रखी है. पर वो तो ऐसी है कि पार्क में बैठी होगी तो धूल में उसके नाम चिट्ठी लिख आएगी, नए शहर जायेगी तो आँखों में उस शहर की सारी इमारतों की यादों में उसका नाम चस्पां कर देगी. और ये शहर...जितना पुराना हुआ है कि लगता है पूरा शहर एक विशाल लाल डब्बे में कन्वर्ट हो गया है जिसमें कि उसके नाम की अनगिनत चिट्ठियां गिरी हुयी हैं. वनीला एन्वेलोप में...सादी सी हैंडराइटिंग में खुद को कतरा कतरा समेटती गयी है लड़की.

बिना जवाब के चिट्ठियां लिखना एक अनंत काल की यातना है...ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी से प्यार करने के एवज में ये माँगना/चाहना कि वो भी आपसे प्यार करे. लड़की चिट्ठियां लिख कर निश्चिन्त हो जाती थी...बार बार कहती थी कि जवाब ना भी दो तो कोई बात नहीं...पर न चाहते हुए भी एक जवाब की उम्मीद के नन्हे टेंड्रिल्स उसके दिल के इर्द गिर्द लिपटने लगते थे...बेहद कमज़ोर...खुद के दम पर खड़े भी नहीं हो सकते पर धीरे धीरे मजबूत होने लगते थे...फिर लड़की का दिल तो इतनी संभावनाओं और प्यार से भरा था कि उम्मीदें मरती ही नहीं थी...अमरबेल की तरह दिल से पोषित होती रहती थीं.

उसने कई बार कलम से अपनी कलाई पर निशान बनाये जहाँ कि उसे ब्लेड चलानी थी...पर उसे टैटू पसंद नहीं थे और उसे मालूम था कि धमनी काटने के बावजूद वो मरेगी नहीं...उसे कहीं न कहीं मालूम था कि उसकी चिट्ठियां दुआएँ बन जाती हैं और ऊपर खुदा के दरबार तक पहुँच जाती हैं. वो सारी चिट्ठियां जो उसने लिखी थीं उसकी जिजीविषा से पोषित थीं...उनमें उसकी आत्मा का एक अंश होता था...उसे मालूम था कि उसकी सांसें बुझने लगेंगी तो उसकी सारी चिट्ठियों से स्याही निकल कर उसकी धमनियों में बहने लगेगी...जितना उसके बदन में खून नहीं है उससे कहीं ज्यादा सियाही उसकी चिट्ठियों में भरी है...जीती-जागती सियाही...ऐसी सियाही जो संजीवनी बन सकती है...खून बन के रगों में दौड़ सकती है.

घर के सारे सादे कागजों में आग लगा देने के बावजूद भी उसका मन करता है कि वो चिट्ठियां लिखे...उसे जीने के लिए खाना-पानी-नींद नहीं चाहिए...इनके बिना उसका काम चल जाता है. उसे चिट्ठियां लिखने के लिए कागज़ चाहिए होता है...कलम चाहिए होती है...कोई भी एक शख्स चाहिए होता है जिसे वो चिट्ठियां लिख सके. उसने अनजान लोगों को चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान पतों पर चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान भाषाओँ में चिट्ठियां लिखी हैं...उसने समंदर में बोतल में बंद कर चिट्ठियां फेंकी है. उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी है. वो हाथ बाँध कर बैठी है...कि डाकिये का इंतज़ार उससे सांसें छीन लेता है.


ये झूठ है कि वो कविता लिखती है, कहानी लिखती है, गद्य लिखती है...वो सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ चिट्ठियां लिखती है.


तुम्हें समझ में आती है वो लड़की? तुम्हें समझ में आती है वो चिट्ठी?

मुझे दोनों समझ में नहीं आती. 

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