उसकी आवाज़ नीम नींद के किसी गलियारे में भटकती है...आधे भिड़े हुए दरवाज़े खटखटाती है...रौशनी की बुझती हुयी लकीर से उलझती है...मुझे छू कर पहचानती है...उस आवाज़ ने मेरी आँखें नहीं देखीं हैं.
आवाज़ है कि काँधे पर खुशबू बांधती है...लंबी पतली उँगलियों से मेरी गिरहें खोलती है...उसकी आवाज़ है कि गाँव की कच्ची याद कोई...टीसते ज़ख्म खोलती है और सिलती है...धान की बालियों सी तीखी काट है उस की.
एक दिन पुराना पूर्णिमा का चाँद है कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...वो खनखनाता है मेरी खिलखिलाहटों में...बिखेरता है जैसे कबूतरों को चुगाती है दाना कोई लड़की...मेरी कलाइयां थाम लीं थीं उसने आज.
कतरा है आवाज़ का मैं रोज जमा करती हूँ गुल्लक में थोड़ा थोड़ा...जिस दिन पूरा हो जाएगा उसके होठों का मानचित्र मैं ऊँगली बढ़ा कर पोंछ दूँगी खून का नन्हा सा कतरा जो उभर आया है...सिसकियाँ रोकते रोकते.
वो जिस्म है भी कि रूह है कोई कि जो बात करती है मुझसे कि कैसे छू कर देखते हैं आवाज़ को...कि ऐसा भी हुआ है कि वो कहता जाता है जाने क्या कुछ...पर मैं सुनती हूँ सिर्फ साँसों की नदी का बहना... कल... कल... कल...कल. वो कभी मुझसे सच में नहीं मिलेगा?
वो कैसे देखेगा मेरी नब्ज़...उसके छूते ही तो बढ़ जाती हैं न सांसें...धड़कन...मैं ख्वाब में भी उसकी आवाज़ को ढूंढती चलती हूँ...वो कहता है जरा कलाई दिखाओ तो...यहाँ...ठीक यहाँ ब्लेड मारना और पानी में डुबा देना कलाइयां...मैं तुम्हें मौत और जिंदगी के बीच मिलूँगा कहीं.
अधिकतर ऐसा होता है कि जिंदगी में लोग होते हैं और उसके साथ जुड़ी आवाज़ होती है...यहाँ आवाज़ है...पर उससे जुड़ा वो कैसा है मुझे मालूम नहीं.
मेरा गला सूखता है...होठों पर जीभ फिराती हूँ तो लगता है उसके होठों को छू लिया है...बिजली का करंट लगता है. उसके होठों का स्वाद बीड़ी जैसा है...बीड़ी धूंकनी होती है...सिगरेट की तरह नफासत नहीं है उसमें. मैं एक बार देखना चाहती हूँ कि जब वो मेरा नाम लेता है तो उसके होठ किस तरह हिलते हैं...क्या वैसे ही जैसे मैं हमेशा सोचती आई हूँ?
केमिस्ट्री के नियम समझा नहीं सकते कि मुझमें और उसमें कौन सा बौंड है...फिजिक्स पीछे हट जाता है कि ये कौन सा एनर्जी कन्वर्शन है कि उसकी आवाज़ सुनती हूँ तो खाए पिये बगैर भी दिन गुज़र जाता है.
दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क.
मैं उससे पूछती हूँ...कि तुम्हारा नाम कुछ खास है कि मुझे लगता है...पूछती हूँ...नुक्ते का फर्क...ग़ और ग में...वो समझाता है गिलास वाला ग नहीं...ग़ालिब वाला ग. मैं हँसती हूँ...अच्छा...गधा वाला ग नहीं...हम दोनों की आवाज़ घुलती जा रही है एक दूसरे में. जैसे हम दोनों घुलते जा रहे हैं...एक दूसरे में. उसके नाम से मैं सुनने लगी हूँ...मेरे नाम से वो बुलाने लगा है...
कंठमणि ...ओह! हिंदी के कुछ शब्द कितने सुन्दर हैं...अडैम्स एप्पल में वो बात कहाँ...सारी मुसीबत की जड़ यही है न...अपने हाथों से उसका गला दबा के मार दूं...फिर इस आवाज़ के पीछे नहीं भागूंगी.
रति की तरह विलाप करती हूँ...आह अनंग...तुम्हारी आवाज़ मुझे बाँहों में नहीं भर सकती है...नीम अँधेरे में आँखों को ढके हुए करवट बदलती हूँ...मेरे उसके बीच सिर्फ सांसों की नदी बहती है...एक ओक भर सांस उठा कर उसके हिस्से का दिन जी लेती हूँ...एक पाल भर नाव बढ़ा कर उसकी हिस्से की प्यास.
आह...अनंग! आह अनंग!
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दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क....zabrdast.....energy banaye rakho yun hi apni energy....
ReplyDeleteसुख ढूढ़ने के प्रयास में हमने बाटना प्रारम्भ कर दिया, क्या पता था हमें कि प्यार बंधनों की समग्रता में बसता है।
ReplyDelete'कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...'
ReplyDeleteBeautiful comparison!
बढ़िया :)
ReplyDeleteसिनर्जी भी होता है. मुझे एनर्जी से सिनर्जी याद आया. २+२ = ५ टाइप्स :)
इस टाइप:
ReplyDeleteवो एक
मैं एक.
साथ - दो तो नहीं.
कुछ और ही :)
सुन्दर एहसास के साथ बेहतरीन गुफ्तगू का तरीका .
ReplyDeleteबड़ी फुर्सत से लिखती हैं. जी तो चाहता है बहुत कुछ मैं यहाँ भी उकेर दूं पर डर लगता है. अपने उम्र का लिहाज़ भी तो रखना होता है :-)
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