मैं कभी भी बहुत ज़्यादा मोटर्सायकल रेसिंग या बहुत अच्छी बाइक्स के बारे में नहीं पढ़ती। ये बहुत स्टूपिड सा ख़याल लगता है कि मैं मोटरसाइकल रेसिंग करना चाहती थी। जब छोटी थी तब ही मोटरसाइकिल चलानी सीखी। मैं दसवीं में अपनी क्लास की लड़कियों से काफ़ी लम्बी थी, तो उस समय लगता था कि हाइट अच्छी होगी। लेकिन फिर जब पाँच दो पर अटक गयी तो फिर मोटरसाइकल चलाने की बहुत ज़्यादा कोशिश नहीं की। पटना देवघर जैसा सुरक्षित था भी नहीं कि मोटरसाइकिल चला सकूँ सड़क पर। दिल्ली जाने पर पढ़ाई और नौकरी में व्यस्त हो गयी। शादी अगर अपनी पसंद से नहीं करती तो घर वालों की पसंद से ही सही, लेकिन कर लेनी पड़ती बहुत जल्दी। हमारे किसी भी सपने पर एक टाइमर लगा हुआ होता था। पढ़ाई के बाद अगर एक साल नौकरी कर पायी तो वह बहुत बड़ी आज़ादी थी बहुतों के हिसाब से। जिस शहर और गाँव से में आयी थी, वहाँ लड़कियों को शहर अकेले पढ़ने भेजने की बात सपना थी…वहीं अकेले वर्किंग वुमन हॉस्टल में रह कर नौकरी करना तो एक ऐसा सपना था जो मेरे कारण मेरे बाद कई लड़कियों ने देखा। मेरा उदाहरण दे कर कई लड़कियों ने आगे पढ़ाई की, बड़े शहरों में नौकरियाँ भी कीं। पहली होने के कारण मेरे लिए सब कुछ जस्टिफ़ाई करना ज़रूरी था। तो मैं ऑफ़िस में बहुत मेहनत करती थी, किसी प्रोजेक्ट की ज़रूरत के लिए देर रात काम करने के लिए घर पर झूठ बोलना भी ख़ुद के लिए जस्टिफ़ाई कर सकती थी। उन दिनों इंटर्नेट इतना आसान नहीं था। मेरे पास कम्प्यूटर तो था लेकिन मैं हॉस्टल आ कर काम करके भेज नहीं सकती थी। ऐसा कई बार किया कि देर से हॉस्टल लौटना था तो ऑफ़िस से ही कॉल करके घर पे बोल दिया कि होस्टल पहुँच गयी हूँ। लेकिन अपने अंदर अच्छी लड़की बने होने का इतना दबाव था कि कभी लेट नाइट फ़िल्म नहीं देखी, कभी कोई डिस्को नहीं गयी और किसी बाहर के शहर छुट्टी मनाना तो सपने से बाहर की बात थी। IIMC में अपने साथ के क्लैस्मेट्स को देखती थी कि गोवा ट्रिप प्लान कर लिए हैं तो इतना अचरज होता था कि समझ नहीं आता था कि ऐसे लोग भी होते हैं दुनिया में जिनके मम्मी पापा उनको दोस्तों के साथ छुट्टी मनाने का इजाज़त दे देते हैं।
हम दिल्ली रहते हुए कभी ऋषिकेश जाने का प्लान तक नहीं बना पाए। सच में उन दिनों इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि हिंदुस्तान में अकेले घूम सकें। ख़ूबसूरत होना एक अलग दिक्कत होती थी। मैं एकदम साधारण कपड़े पहनती थी, कॉलेज के टाइम से ही। कभी बहुत चटख रंग के कपड़े तक नहीं पहने। लेकिन बीस की उम्र थी और ख़ूब गोरी, यूँ नाक नक़्श तीखे नहीं थे लेकिन शक्ल ऐसी था कि बोरा भी पहन के निकल जाती तो ख़ूबसूरत लगती थी। किसी कपड़े में मैं कभी ख़राब नहीं दिखी। ऐसे में अकेले जाने में बहुत तरह के ख़ास ख़तरे सिर्फ़ मेरे लिए थे। जिनसे बाक़ी लड़कियाँ फिर भी सुरक्षित थीं। बिहार में पले-बढ़े होने के कारण एक डर का साया हमारी नींद में भी पीछा करता था। दिल्ली में अकेले घूम-फिर लेना मेरे लिए आज़ादी की परिभाषा थी। मैं अपने हैंडिकैम के साथ घूब घूमती थी। अकेले घूमती थी। जहाँ जहाँ बस जाती थी और जहाँ जहाँ पैदल जा सकती थी। लेकिन रात मेरे लिए तब भी अजनबी ही थी।
अपनी सैलरी और ख़ूब से पैसे होने के बावजूद मैं अपने लिए मोटरसाइकल ख़रीदने का सपना नहीं देख सकती थी। मैंने पैसे जोड़े थे वैगन आर ख़रीदने के लिए। मम्मी को अपने पैसों से ख़रीदी नयी गाड़ी में घुमाने का सपना था। 2007 में मैं एक रुरल इवेंट मैनज्मेंट वाली कम्पनी में काम करती थी और बहुत अच्छा काम करती थी। उन दिनों 27,000 रुपए मिलते थे सैलरी में। ये ख़ूब सारे पैसे होते थे। ख़ूब सारे।
माँ नहीं रही तो बहुत दिन तक तो सारे सपने ही मर गए। मुझे लगभग दस साल लगे किसी भी सपने का नया बिरवा रोपने में। अपने आप को फिर से तलाशने में। मैं 2017 में न्यूयॉर्क गयी। अकेले। लगभग दो-तीन दिन के लिए। बुधवार दोपहर पहुँची थी और शुक्रवार सुबह सुबह की फ़्लाइट थी। पहली रात कई बार सोचा, पर हिम्मत नहीं हुयी अकेले टाइम्ज़ स्क्वेर जाने की…जबकि वह मेरे होटल से एक किलोमीटर पर ही था। उस रात होटल की रिसेप्शनिस्ट से बात की, कि रात में जाना सेफ़ है…वो लड़की थी, बहुत ख़ूबसूरत…उसने कहा कि एकदम सेफ़ है। इतने सालों में मुझे कुछ ऐसे नामुराद दोस्त मिले थे जिन्होंने मुझे इस बात का यक़ीन करा दिया था कि मैं थोड़ी कम ख़ूबसूरत दिखती हूँ अब…इसलिए डर थोड़ा कम हो गया था। मैं अगली रात ग्यारह बजे के आसपास अकेले टाइम्ज़ स्क्वेयर गयी। वहाँ बहुत से लोग थे, तस्वीर खिंचाते, नाचते, गाते… मैं जहाँ से चली थी, वहाँ से इस जगह पहुँचना, सपने से भी बाहर था। मैं डाइअरी लेकर गयी थी। उसमें लिखा…तारीख़ बदलते समय… रात बारह बजे मैं वहाँ से अपने रूम वापस आ गयी।
मुझे नहीं मालूम नहीं अब किसी सोलो ट्रिप पर वैसे कब जा पाऊँगी। बच्चों को कहीं छोड़ कर जाने का मन नहीं करता। बचपन में मम्मी भी हम लोग को छोड़ कर कभी कहीं गयी नहीं…तो मुझे नहीं मालूम कि मैं जा पाऊँगी कि नहीं। लेकिन मैं किसी दिन रॉयल एनफ़ील्ड के एड्ज़ देख लेती हूँ तो मेरे अंदर एक हूक उठने लगती है। एक असीम दुःख। IIMC में पढ़ाई ख़त्म करने के दौरान हमने कम्प्यूटर लैब में इंटर्नेट पहली बार देखा था … ये साइबर कैफ़े से अलग था जहाँ हम सिर्फ़ प्रोजेक्ट प्रिंट करने जाते थे या नौकरी के लिए कम्पनियों के ऐड्रेस और फ़ोन नम्बर तालाशने। उस समय मैंने पहली बार ट्रैवल फ़ोटोग्राफर की नौकरी के बारे में जाना था। कि ऐसे भी लोग होते हैं जो दुनिया भर में घूम घूम कर तस्वीरें खींचते हैं, उन जगहों के बारे में लिखते हैं। उन्हीं दिनों एक बार अनुपम से बात कर रही थी…उसके पास उसकी बाइक थी…उसने कहा सड़ रही है, तुम चलाओगी तो ले जाओ, मैं तो ख़ुश ही रहूँगा कि कोई तो चला रहा है…उसने कार ख़रीद ली थी। उन दिनों क्षण भर के लिए दो सपने आँख में चमक गए थे। बाइक चलाना और ऐसी कोई नौकरी करना। मैं जानती थी कि ऐसा कभी भी नहीं कर पाऊँगी। लेकिन सपना तो सपना होता है। आँख में मरता नहीं।
मेरे अंदर कोई यायावर रूह है। हमेशा बाइक देखकर उड़ती, भटकती हुयी। रॉयल एनफ़ील्ड बहुत ज़्यादा इसलिए भी नहीं चलायी कि फिर अकेले कहीं निकल जाने का सपना न पालने लगूँ। अब मेरी दो बेटियाँ हैं। देश में लर्निंग लाइसेंस मिलने की उमर सोलह साल है। मैं अपनी बेटियों के साथ बाइक ट्रिप के ख़्वाब देखती हूँ। उम्मीद करती हूँ कि वे अपने पिता से जेनेटिक माल-मटीरीयल में उसकी अच्छी हाइट पाएँगी। मैं लगभग पचास की हो जाऊँगी। लेकिन मेरा सपना शायद मेरी आँख में हरा ही रहेगा। ज़िंदगी कहाँ ले जाएगी, मालूम नहीं। न्यूयॉर्क शायद कुछ साल रहने जाएँ। विदेशों में कई सारी बाइक्स कस्टम मेड होती हैं। मेरी साइज़ की भी हैं कुछ। वहाँ इंडिया की तरह बेहिसाब रोड ऐक्सिडेंट्स भी नहीं होते। क्या किसी दुनिया में एक खुली सड़क होगी? समंदर होगा…हवा में लहराते बाल होंगे?
चौदह की उमर में पहली बार मोटरसाइकिल चलायी थी। मेरी अपनी रॉयल एनफ़ील्ड, रूद्र, 500cc है…मैं बहुत तेज़ बाइक चलाती हुयी ईश्वर के क़रीब होती हूँ। शांत। स्थिर। धीर। मेरी धमनियों में रफ़्तार अभी भी कम नहीं हुयी है। क्या सपनों की कोई expiry डेट होनी चाहिए? किसी उम्र में हड्डियों के टूटने का डर या अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर निकलने का डर हमें शायद बाहर न निकलने दे। पंद्रह-सोलह साल बहुत वक़्त होता है। बेटियाँ अपने पापा की तरह हुयिं तो उनको भी कार में इंट्रेस्ट होगा, बाइक में नहीं।
मेरी धड़कन हमेशा से लगभग 90 पर होती है। हमेशा हायपर रहती हूँ, कुछ न कुछ लेकर। लेकिन किसी उम्र में एक बाइक होगी। ख़ूब दूर तक जाती हुयी तनहा सड़क और मैं होऊँगी। अपने होने के साथ सम पर। शांत। स्थिर। बाइक शायद एक सौ बीस पर होगी लेकिन मेरे दिल की धड़कन आख़िर को साठ पर थिर होना सीख जाएगी।
यूटोपिया ना? लेकिन ऐसे किसी सपने के बिना जीना क्या जीना।
अस्तु।