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02 October, 2019

तितली की बहन तिकनी

हम अगर बात नहीं करते हैं तो कई सारे शब्द खो जाते हैं। बात करना यानी कि सामने सामने से बात करना। पिछले कोई 11-12 साल से मैं बैंगलोर में हूँ। मेरी बोल-चाल की भाषा में कई नए शब्द जुड़े हैं जो यहाँ ज़्यादा बोले जाते हैं। टेक्नॉलजी, इवेंट, स्ट्रैटेजी, कम्यूनिकेशन, ईमेल, मोबाइल ऐप, इन्वेस्टर, लौंग वीकेंड, लौंग ड्राइव, चिलिंग, व्हिस्की, पब, सिगरेट, जींस, स्मार्ट वाच, आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स और entrepreneurship जैसे कई कई शब्द। ग़ौर करने पर देखती हूँ, इनमें अधिकतर अंग्रेज़ी के शब्द हैं। मैं जितने शहर घूमी हूँ और हमारे शहर जिस तरह से बदले हैं, तो मेट्रो, मौसम, ट्रेन स्टेशन, न्यू यॉर्क, पेरिस, डैलस, अमरीका, सीपी, फ़ोटोग्राफ़ी, ह्यूस्टन, टैक्सी, फ़ॉल, पोस्टकार्ड, स्टैम्प, म्यूज़ीयम, मैप, टाइम ज़ोन ... कई शब्द जो मैंने हाल फ़िलहाल में ज़्यादा इस्तेमाल किए हैं। हम जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, वे हमारी ज़िंदगी की कहानी बयान कर सकते हैं। किसी से थोड़ी देर बात करके पता चल जाएगा वो किस फ़ील्ड में काम करती है, उसकी पसंद क्या रही है, उसकी ज़िंदगी में किस तरह के शहर रहे हैं...अगर आप मेरी तरह थोड़े observant हुए तो। 

मैं लिखे हुए शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। किताब में पढ़ा कोई शब्द मुझे ज़िंदा नहीं लगता। जैसे निर्मल की ‘एक चिथड़ा सुख’ में चहबच्चे शब्द का इतना इस्तेमाल है कि दो तीन बार तो इस शब्द के खटकने के कारण मैं किताब पढ़ नहीं पायी। हम पढ़ते हुए कई नए शब्दों और उनके इस्तेमाल तक पहुँचते हैं, लेकिन मेरे लिए जब तक वे शब्द मैंने किसी से बातचीत में नहीं सुने हैं, मैं उन्हें इस्तेमाल नहीं कर सकती। ब्लॉग या फ़ेस्बुक, इससे अलग है… मेरे कुछ पसंदीदा लेखक भी। चूँकि उनसे मिल चुकी हूँ, या उनसे बात होती रहती है, मैं जब उनका लिखा पढ़ती हूँ तो कई बार लगता है उन्हें बोलते हुए सुन रही हूँ। इसका और कोई ठीक ठीक स्पष्टीकरण नहीं है मेरे पास कि ऐसा कैसे है। बस है। 

बहुत साल पहले जब मैं बैंगलोर आयी थी तो बहुत बातूनी थी। लोगों को टोक कर बात कर लेती थी, हँसती मुस्कुराती ज़्यादा थी। ख़ुश ज़्यादा रहती थी। मेरे इर्द गिर्द एक एनर्जी बबल रहता था। बहुत हाइपर क़िस्म के लोगों में आती थी। कुछ उम्र की बात थी, कुछ शहर की। शायद दिल्ली में रहती तो बहुत हद तक वैसी ही रहती। बैंगलोर में ऑफ़िस में अधिकतर लोग अंग्रेज़ी में बात करने वाले मिले। परायी भाषा में आप जानकारी का आदान प्रदान कर लेते हैं, सम्बंध नहीं जोड़ पाते। उसके लिए ज़रूरी है हम उस भाषा में बात करें जो हमारी अपनी हो। मुझे अपने जीवन में इसका एक ही अपवाद मिला है और वो कुछ ऐसा था कि उसके लिए एक पूरी कहानी लिखनी पड़ी। मेरे और उसके बीच बहुत सा संगीत भी था, इसलिए शायद भाषा की ज़्यादा ज़रूरत महसूस नहीं हुयी। अभी भी दिल्ली जाती हूँ तो कोई और हो जाती हूँ, ऐसा हमेशा लगता है। भले अंग्रेज़ी मेरी सेकंड लैंग्विज रही हो और कॉन्वेंट स्कूल में लगभग std 9 से इसका नियमित इस्तेमाल स्कूल, कॉलेज और फिर ऑफ़िस में किया है लेकिन अभी भी हिंदी में बोलना ज़्यादा आसान है। सहज है। 

कई सारे शब्द हमारे इस्तेमाल से बाहर होते हैं क्यूँकि वे वस्तुएँ हमें नहीं दिखतीं तो हम उनके बारे में बात नहीं करते। या कई बार वे लोग नहीं होते जिनसे हम उन चीज़ों के बारे में बात कर सकें, जिन्हें उससे फ़र्क़ पड़ता है। मैं लिख के सहेजना चाहती हूँ बहुत सारा कुछ जो शायद मेरे बहुत से दोस्त होते तो सिर्फ़ कह लेती उनसे और बात ख़त्म हो जाती। लिखने को तब भी बहुत कुछ बचता, लेकिन तब मैं इतना नियमित नहीं लिखती। लिखना एक आदत बनती गयी इस शहर के अकेलेपन के कई साल में। It’s strange, actually. कि इतने साल में भी शहर में ऐसे लोग नहीं जिनसे नियमित मिल सकूँ। कुछ इसलिए भी कि पसंद के लोग शहर छोड़ कर चले भी गए हैं। मैं बात करना भूलती जा रही हूँ और ये बात मेरे लिखने में भी मुझे महसूस होती है कि मेरे किरदार भी बात करने की जगह चुपचाप बैठ कर कहीं एक सिगरेट पीना चाहते हैं… किसी सोलो बाइक ट्रिप पर जाना चाहते हैं… कॉफ़ीशॉप में किसी किताब को पढ़ते हुए या चिट्ठी लिखते हुए अकेले रहते हैं। अपने अकेलेपन में रचे-बसे किरदार। उनके इस इर्द गिर्द में जगह बनाने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी होती है। 

खो जाना सिर्फ़ वस्तुओं का नहीं होता। खो जाना रिश्तों का भी होता है, उस छोटी सी उम्मीद या आदत का भी जिसमें लोग शुमार होते हैं। दिल्ली जाती हूँ तो इतना मालूम होता है कि न सही, शाम थोड़ी देर मिल सकते हैं किसी से। अगर ऐसे किसी शहर में रहती, तो हफ़्ते में एक बार तो किसी ना किसी से मिलने का प्रोग्राम बनता ही। फ़िल्में, नाटक, लिटरेचर फ़ेस्टिवल, फ़िल्म फ़ेस्टिवल जैसी चीजों के साथ अकेले जाना नहीं, किसी के साथ जाना और फिर डिस्कस करने, इंतज़ार करने की बातें भी जुड़ी होतीं। ये सब अचानक नहीं हुआ है लेकिन पिछले कुछ सालों में शहर ने मुझे बेतरह तन्हा किया है। हुआ ये, कि पिछले कुछ साल दिल्ली गयी तो ये देखा कि ज़िंदगी कुछ और भी हो सकती थी। 

मुझे लिखने को अच्छा काग़ज़ चाहिए होता है। मूड के हिसाब से सफ़ेद, आइवरी, पीला या नीला। मैंने अधिकतर ऐसे रंग के काग़ज़ पर ही लिखा है। कुछ दिन पहले चिट्ठियाँ लिखने का काग़ज़ मँगाया जो कि बहुत महँगा था। आजकल उसपर थोड़ा थोड़ा लिख रही हूँ। उस काग़ज़ के ऊपर ड्रैगनफ़्लाई बनी हैं। हल्के फ़िरोज़ी रंग में। कल मैंने लिखते हुए तितलियों की बात लिखी… किसी ने ट्विटर पर लिखा ये ड्रैगनफ़्लाई हैं… मुझे मालूम है ये क्या हैं। उस व्यक्ति का ऐसा पोईंट करना मुझे अखर गया। कि इन्हें तितलियों से कन्फ़्यूज़ नहीं कर सकते लेकिन बचपन में इनको तितली ही बोलते थे, या ऐसा ही कुछ, सो याद था मुझे। ड्रैगनफ़्लाई तो कोई नहीं बोलता था, तो मैं चाहूँ भी तो लिखने में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकती… और जो शब्द था, बचपन का ठीक-ठीक, वो याद नहीं आ रहा। 

इस तरह कितने शब्द हैं जो रोज़मर्रा के हिस्से से खो गए हैं। यहाँ ये वाली तितली दिखती नहीं है, सो इसके बारे में बात भी नहीं करते हैं। इसी तरह रोज़ के इस्तेमाल की चीज़ में खोयी एक चीज़ है हँसुआ। मम्मी लोग खड़े होकर सब्ज़ी काट नहीं सकती थी। टेक्निक्ली बैठ कर सब्ज़ी काटना आसान भी ज़्यादा होता है, हम शरीर के भार का इस्तमाल करते हुए जब हँसुआ से सब्ज़ी काटते हैं तो कलाई पर ज़ोर कम लगता है। चाक़ू से सब्ज़ी काटने में मेहनत भी ज़्यादा लगती है और वक़्त भी। चुक्कु-मुक्कु या पीढ़ा पर बैठनने से हेल्थ भी बेहतर रहती थी। मैं कई सारे देसी शब्दों को बहुत मिस करती हूँ। गाँव आना जाना भी एकदम बंद हो गया है, एक ये कारण भी है। जैसे पगडंडी को हम बचपन में कच्चा रास्ता बोलते थे। याद करूँगी तो ऐसे कई शब्द याद आएँगे और ऐसे कई शब्द होंगे जो एकदम याद नहीं आएँगे। जैसे ड्रैगन्फ़्लाई। 

दोस्त लोग को रात में मेसेज किए थे, सुबह दीदी लोग से बतियाए, बचकन सबको भी पूछे, कि क्या बोलते हैं इसको। इधर उधर whatsapp मेसिज किए। घर में सब जानता है कि हम थोड़े सटके हुए हैं तो भोरे भोर ड्रैगनफ़्लाई का हिंदी पूछने लगते हैं तो घबराता नहीं है। इसका अलग अलग वर्ज़न मिला। सिकिया/सुकिया बोलते हैं कि इसका लम्बा पूँछ सिक्की जैसा दिखता है। सिक्की माने सीधी, पतली रेखा जैसी कोई चीज़। जैसे सिकिया झाड़ू नारियल झाड़ू को बोलते हैं। बचपन में कान का छेद बंद न हो जाए इसलिए नीम का सिक्की डालते थे उसमें। दूसरा नाम मिला टुकनी या तिकनी जो कि तितली से मिलता जुलता नाम है। टुकनी शायद इसलिए भी होगा कि इसका बहुत बड़ा बड़ा आँख होता है और ऐसा लगता है जैसे देख रही है। याद करने का कोशिश करते हैं लेकिन बचपन में ये दिखती तो है, इसको क्या बोलते थे, वो याद नहीं आता। बदमाश बच्चा लोग इसको पकड़ कर इसके पूँछ में धागा बाँध के पतंग जैसा उड़ाता भी था इसको। हम लोग कभी कभी पंख से पकड़ के इसको किसी के पास ले जाते थे, इसका पैर से गुदगुदी लगता था। मम्मी देख के हमेशा डाँट देती थी। किसी जीव को कष्ट देना ग़लत काम में आता था। 

पिछले कुछ साल में देवघर जाती भी हूँ तो ससुराल जाती हूँ बस। वहाँ इतना बड़ा संयुक्त परिवार है कि दो हफ़्ते की छुट्टी में सबसे आपस में ही बात-चीत करते करते छुट्टी ख़त्म हो जाती है। सोच रही हूँ, समय निकाल कर गाँव जाने का प्रोग्राम रखूँ साल में एक बार कमसे कम। किसी एक त्योहार में। दुर्गा पूजा जैसे कि हमको बहुत पसंद है। गाँव का मेला। वहाँ की अलग मिठाइयाँ। वैसे उसका भी रूप रंग इतने साल में बदल गया होगा बहुत हद तक, फिर भी। अपनी भाषा, अपनी ज़मीन से जुड़ा रहना भी ज़रूरी है कि हमारे लिखने का ही नहीं, हमारे जीवन का पोषण भी वहीं से होता है। बंजारामिज़ाजी अच्छी है। लेकिन लौट के आने को एक घर, एक भाषा होनी चाहिए।

ये खोज भी अपने अंदर थोड़ी सी बची रहे तो एक रोज़ बाक़ी सब आ जाएगा, धीरे धीरे। 

18 September, 2019

ताखे पर रखी चिट्ठियाँ

बहुत दिन पहले किसी से बात हो रही थी। याद नहीं किससे। उन्होंने कहा, तुम्हारे जेनरेशन में कमसे कम ये अच्छा है कि कोई चिट्ठी नहीं लिखता। किसी के जाने के बाद, रिश्ता टूटने के बाद... कभी ये दिक्कत नहीं आती कि चिट्ठियों का क्या करना है। हम लोग में तो सबसे बड़ी दिक्कत यही होती थी। रख सकते नहीं थे कहीं भी...और कितना भी मनमुटाव हो गया हो, चिट्ठी फेंकने का भी मन नहीं करता था।

मुझे अपने पूरी ज़िंदगी में देखे वो कई सारे घर याद आए। गाँव के घर, जिनमें एक ताखा होता था लकड़ी का। जहाँ चीज़ें एक बार रख के भुला दी जाती थीं। ये प्लास्टिक के पहले की बात है। उन्हीं दिनों जो सबसे ज़्यादा मिलते थे वो थे चिट्ठियों के पुलिंदे। मैं छोटी थी उस समय लेकिन फिर भी मालूम होता था कि इनमें जान होती है। साड़ी या ऐसे ही किसी कपड़े से टुकड़े में कई बार लपेटे और पतले पतले धागों से बँधे हुए। दिखने में ऐसा लगता था जैसे ईंट हो। उस ज़माने में लिफ़ाफ़ों की एक ही साइज़ आती होगी। अभिमंत्रित लगते थे वे पुलिंदे। मैंने कई कई बार ऐसे कपड़ों में सहेजे पुलिंदों को खोल खोल कर पढ़ा है। आप इस ज़माने में यक़ीन नहीं कर सकते कि उन दिनों डाकखाना कितना efficient हुआ करता था। चिट्ठियों में मेले में मिलने की बात होती थी। अगले हफ़्ते किसी दोस्त के यहाँ किसी शाम के छह बजे टाइप जाने की बात होती थी। कोई पसंद के रंग के कुर्ते, दुपट्टे या कि स्वेटर की बात भी होती थी। ऐसे पुलिंदों में ही काढ़े हुए रूमाल भी होते थे अक्सर। एक आध बार किसी शर्ट की पॉकेट भी मिली है मुझे। 

मैं बहुत छोटी होती थी उन दिनों। उम्र याद नहीं, कोई पाँच आठ साल की। जब ऐसे ताखे पर चढ़ने के लिए किसी सीढ़ी की ज़रूरत नहीं होती थी। मैं किसी खिड़की, दीवार में बने छेद को पकड़ कर लकड़ी पर झूल जाती थी और ऊपर चढ़ जाती थी। गाँव में छत ज़्यादा ऊँची नहीं होती थी...ख़ास तौर से घरों के पहले तल्ले में। फिर मेरा वज़न भी बहुत कम होता था तो ताखे के टूटने का डर नहीं लगता था। 

जबसे मैंने पूरा पूरा पढ़ना सीखा, ऐसे काम जब मौक़ा मिले, कर डालती थी। उस समय थोड़ा सा भय होता था कि कुछ ग़लत कर रही हूँ। लेकिन उन दिनों सजा थोड़ी कम मिलती थी। ज़्यादा डाँट कपड़े गंदे होने पर मिलती थी। किसी को लगता नहीं था कि मुझे चिट्ठियों की कुछ समझ होगी भी।

आख़िरी चिट्ठियाँ मुझे उन दिनों समझ नहीं आती थीं। उनमें अक्सर परिवार की बात होती थी। घर वाले नहीं मानेंगे टाइप। तुम तो समझते/समझती हो टाइप। मुझे लगता, उस उम्र के लोग बहुत समझदार होते हैं। कि एक दिन मैं भी समझ जाऊँगी कि आख़िरी चिट्ठियाँ आख़िरी क्यूं होती हैं। 

इन बातों को बहुत साल बीत गए। वैसी चिट्ठियों का पुलिंदा अपने सूती कवर और बारीक धागों के साथ चूल्हे में झोंके जाते हुए देखे। बढ़ती उम्र की अपनी क्रूरता होती है। बचपन की अपनी माफ़ी। उन दिनों खाने में नमक ज़्यादा लगता। दीदियों/चाचियों/भाभियों की आँख भरी भरी लगती। भैय्या/चाचा खाने की थाली थोड़ा ज़ोर से पटकते। कुआँ ख़ाली कर देंगे इस तरह नहाते। गोहाल में रेडीयो चलाते और दीवार के पीछे चुक्कु मुक्कु बैठ बीड़ी पीते। 

ऐसा लगता, घर में कोई मर गया हो। मैं थोड़ी भी समझदार हो चुकी होती तो वैसे किसी दिन क़सम खा लेती कि कभी भी चिट्ठियाँ नहीं लिखूँगी। लेकिन मैंने दूसरी ही चीज़ सोच ली… कि कभी प्यार नहीं करूँगी। पता नहीं, चिट्ठी नहीं लिखने का वादा भी पूरा कर पाती ख़ुद से कि नहीं, क्यूँकि प्यार…

मुझे मत कहो कि मैं तुम्हें चिट्ठियाँ लिखूँ… हर चिट्ठी में मेरी आत्मा थोड़ी सी रह जाती है… तुम्हारे यहाँ तो चूल्हा भी नहीं होता। कुछ जलाने की जगहें कितनी कम हो गयी हैं। कभी काग़ज़ भी जलाए हैं तुमने? इतना आसान नहीं होता। दुखता है अजीब क़िस्म से...किसी डायरी का पन्ना तक। चिट्ठी जलाना तो और भी बहुत ज़्यादा मुश्किल होता है। तुम पक्का मेरी चिट्ठियाँ समंदर में फेंक आओगे। हमारे धर्म में जलसमाधि सिर्फ़ संतों के या अबोध बच्चों के हिस्से होती है। वादा करो कि जब ज़रूरत पड़े मेरी चिट्ठियाँ जला दोगे…सिर्फ़ तब ही लिखूँगी तुम्हें।

और तुम क्या पूछ रहे थे, मेरे पास तुम्हारा पता है कि नहीं। बुद्धू, मुझे तुम्हारा पता याद है।

ढेर सारा प्यार,
तुम्हारी…

29 March, 2019

इस वसंत के गुलाबी लोग, हवा मिठाई की तरह मीठे, प्यारे और क़िस्सों में घुल जाने वाले

इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कितनी ख़तरनाक हो सकती है कोमलता?
इस कोमलता से जान जा सकती है क्या? इतनी कठोर दुनिया में कैसे जी सकता है कोई इतना कोमल हो कर।

स्पर्श को कैसे लिखते हैं कि वो पढ़ते हुए महसूस हो? इतने साल हो गए, अब भी कुछ बहुत गहरे महसूस होता है तो लिखना बंद हो जाता है। कि कैसे, इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कैसे बचे रह गए हो तुम, इतना कोमल होते हुए भी। 

ये सारे आर्टिस्ट्स ऐसे क्यूँ होते हैं? पिकासो की तस्वीर देखते हुए उसकी आँखों का वो हल्का का पनियल होना क्यूँ दिखता है किसी भागते शहर की भागती मेट्रो में ठहरे हुए दो लोगों को एक दूसरे की आँखों में। इतने क़रीब से देखने पर आँखें ज़रा ज़रा लहकती हैं। मैं भूल जाती हूँ उसे देख कर पलकें झपकाना। ऊँगली से खींच कर काजल लगाती हूँ ज़रा सा ही, कि बचा रहे थोड़ा सा प्यार हमारे बीच। 

दिल्ली में इस बार हिमांशु वाजपेयी की दास्तानगोई थी। उससे मिल कर अंकित की फिर याद आयी। आम की दास्तान सुनना असल में तकलीफ़देह था। अंकित की इतनी याद आयी। इतनी। परसों एक दोस्त से मिली तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए कह उठी, मैं अंकित को ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती। उसका होना जादू था। एक क़िस्से का जादू, किसी फ़रिश्ते सा। कि उसमें कुछ था जो इस दुनिया का नहीं था। कि वो जाने किस दुनिया का लड़का था। फिर इतनी कम उम्र में कौन लौटता है इस तरह अपने ईश्वर के पास। 

मुझे बहुत प्यारे लोगों से डर लगता है। ये डर बहुत दिनों तक अबूझ था, इन दिनों थोड़ा सा मुझे समझ में आ रहा है। ये जो फूल सा हाथ रखना होता है। सिर्फ़ अंकित ने रखा था…जब हम आख़िरी बार मिले थे। मुझे उस दिन भी उसका हाथ बिलकुल रोशनी और दुआओं का बना हुआ लगा था। मगर फिर अंकित नहीं रहा बस उसके तितलियों से हाथ रह गए हैं मेरे काँधे पर। उसके जीते जी कितना कुछ था वो। मैंने वो मैं क्यूँ नहीं लिखी कभी उसको। उसकी ईमेल id उसकी हैंडराइटिंग में मेरी नोटबुक पर है। कि कहा नहीं कभी उसके जीते जी।
***

तस्वीर खींचते हुए वो मुस्कुराया और फिर तस्वीर देखी मोबाइल पर…हमारे बीच ज़रा सी दूरी थी। उसने काँधे पर हाथ रखा और मुझे ज़रा सा अपने क़रीब खींच लिया। उसके हाथ इतने हल्के कैसे थे?

उसे विदा कहने के लिए मैं कार से उतरी। ऐसे कैसे गले लगाते हैं किसी को जैसे वो फ़्रैजल हो। एकदम ही नाज़ुक, कि छूने से टूट जाएगा। जैसे कोई तितली आ बैठी हो हथेली पर अचानक। precious। कितना क़ीमती है वो मेरे लिए। कितना प्यार उमड़ता है कभी कभी। जल्दी आना, उसने कहा। ज़्यादा मिस मत करना, मैंने कहना चाहा, पर कहा नहीं।

वे लड़के होते हैं ना, जिनसे मिलने ख़ाली हाथ जाने का मन नहीं करता। हम थोड़े अपॉलॉजेटिक से हो जाते हैं। सॉरी, आज मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लायी। कहानी सुनोगे? नयी सुनाएँगे, जो किसी को नहीं सुनायी है अभी। वो लड़के जिन से मिल कर जाने मन में कौन सी मौसी, दीदी, फुआ की याद आ जाती है जो हमारे लिए हमेशा कुछ न कुछ लेकर ही आती थी बाहर से। जिनके आने का इंतज़ार हमारे भीतर बसता था। जो मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहीं, लेकिन जिनकी कमी मुझे हमेशा खली। 

हम जब शायद कुछ और उम्र दराज़ हो जाएँगे तो तुमसे पूछ सकेंगे और तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठ सकेंगे किसी कॉफ़ी शॉप में, बिना कोई एक्स्प्लनेशन दिए बग़ैर। तुम्हारे सामने बैठ कर नर्वस हो कर लगातार कुछ न कुछ कहे जाने की बेबसी नहीं होगी। हम चुपचाप बैठ कर देख सकेंगे तुमको, आँख झुकाए बग़ैर। बिना कुछ कहे। किसी अकोर्डिंयन की धुन को रहने देंगे हमारे बीच, जैसे वक़्त का एक वक्फ़ा हमेशा के लिए याद रह जाएगा। हमेशा। जिसपर कि तुम यक़ीन नहीं करते हो। 

कुछ और समय बाद बुला सकूँगी तुम्हें अपने घर खाने पर। सिर्फ़ दाल भात चोखा। दिखा सकूँ तुम्हें दुनिया भर से लायी हुयी छोटी छोटी चीज़ें…कि ज़िद करके दे सकूँ तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने का सुंदर काग़ज़, कि लिखो मत। रखना लेकिन पास में। कभी किसी को चिट्ठी लिखने का मन किया और काग़ज़ नहीं मिला सुंदर तो क्या ख़राब काग़ज़ पर लिख के दोगे। 

एक तुम्हारी आउट औफ़ फ़ोकस फ़ोटो खींच लूँ, अपनी ख़ुशी के लिए। अपने धुँधले किसी किरदार को तुम्हारी शक्ल दूँगी। कि तुम ज़रा से और ख़ूबसूरत होते तो मुश्किल होती। अच्छा है तुम्हारा ऐसा होना, कि अच्छा है मेरा भी इन दिनों कुछ कम ख़ूबसूरत होना। हम अपने से बाहर की दुनिया देख पाते हैं। तुम्हें देखते ही रहने का मन करता रहता तो तुम्हें शूट कैसे करती।

***

वो कितना मीठा और हल्का सा है। हवा मिठाई जैसा। उसके साथ होना कितना आसान है। जैसे पचास पैसे में ख़रीद कर खा लेने वाली हवा मिठाई। जिसके लिए ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता। किसी की इजाज़त नहीं लेनी पड़ती। बचपन की एक छोटी सी ख़ुशी…उसके साथ ज़रा सा होना। सड़क पार करते हुए अचानक से हाथ पकड़ लेना। उससे मिलने के पहले आते हुए रास्ते में छोटी सी मुस्कान मुसकियाना। 
कोमल होना। प्यारा होना। अच्छा होना। 

इस बेरहम दुनिया में ज़रा सा होना किसी की पनाह। किसी का शहर, न्यू यॉर्क। किसी की पसंद की कविता की किताब के पहले पन्ने पर लेखक का औटोग्राफ। 

इस दुनिया में मेरे जैसा होना। इस दुनिया का इस दुनिया जैसा होना।

बदन दुखता रहे, हज़ार हस्पताल की दौड़ भाग के बाद, कितने इंजेक्शंज़ और जाने कितने टेस्ट्स की थकान के बाद। 

हर कुछ के बाद भी। किसी शाम कह सकना ज़िंदगी से। शुक्रिया। फिर भी। काइंड होने के लिए। कि मुहब्बत मुझे जीने का हौसला देती है और लिखना मुझे जीने के लायक़ मुहब्बत। 

लव यू।

09 February, 2017

बचपन से बिसरता स्पर्श - १

जिन दिनों हम ब्लॉग लिखना शुरू किए थे २००५ में उन दिनों ब्लॉग की परिभाषा एक ऑनलाइन डायरी की तरह जाना था। वो IIMC की लैब थी जहाँ पहली बार कुछ चीज़ें लिखी थीं और उनको दुनिया के लिए छोड़ दिया था। बिना ये जाने या समझे कि यहाँ से बात निकली है तो कहाँ तक जाएगी। हिंदी में ब्लौग्स बहुत कम थे और जितने थे सब लगभग एक दूसरे को जानते थे। मैंने अपने इस ऑनलाइन ब्लॉग पर जो मन सो लिखा है। कहानी लिखी, कविता लिखी, व्यंग्य लिखा, डायरी लिखी। सब कुछ ही। उन दिनों किताब छपना सपने जैसी बात थी। वो भी पेंग्विन से। मगर तीन ‘रोज़ इश्क़ मुकम्मल’ हुआ और पिछले तीन सालों में बहुत से रीडर्स का प्यार उस किताब को मिला। इन दिनों लिखना भी पहले से बदल कर क़िस्से और तिलिस्म में ज़्यादा उलझ गया। फिर फ़ेसबुक पर लिखना शुरू हुआ। लिखने का एक क़ायदा होता है जिसमें हम बंध जाते हैं। पहले यूँ होता था कि हर रोज़ के ऑफ़िस और घर की मारामारी के बीच का एक से दो घंटे का वक़्त हमारा अपना होता था। मैं ऑफ़िस से निकलने के पहले लिखा करती थी। मेरी अधिकतर कहानियाँ एक से दो घंटे में लिखी गयी हैं। एक झोंक में। फ़ेसबुक पर लिखने से ये होता है कि दिन भर छोटे छोटे टुकड़ों में लिखते हैं जिसके कारण शाम तक ख़ाली हो जाते हैं। पहले होता था कि कोई एक ख़याल आया तो दिन भर घूमते रहता था मन में। गुरुदत्त पर जब पोस्ट्स लिखी थीं तो हफ़्ते हफ़्ते तक सिर्फ़ गुरुदत्त के बारे में ही पढ़ती रही। ब्लॉग पर लिखने की सीमा है। १०००-१५०० शब्दों से ज़्यादा की पोस्ट्स बोझिल लगती हैं। यही उन दिनों लिखने का अन्दाज़ भी था। इन दिनों चीज़ें बदल गयी हैं। कहानी लगभग २०००-३००० शब्दों की होती है। कई बार तो पाँच या सात हज़ार शब्दों की भी। इस सब में मैं वो लिखना भूल गयी जो सबसे पहले लिखा करती थी। जो मन सो। वो।

तो आज फिर से लौट रही हूँ वैसी ही किसी चीज़ पर। अगर मैं अपने ब्लॉग पर लिखने से पहले भी सोचूँगी तब तो होने से रहा। यूँ कलमघिसाई ज़रूरी भी है।
आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्टिकल शेयर की। स्पर्श पर। मैं बहुत सी चीज़ें सोचने लगी। ज़िंदगी के इतने सारे क़िस्से आँखों के सामने कौंधे। ऐसे क़िस्से जो शायद मैं अपने नाम से कभी ना लिखूँ। कई सारे परतों वाले किरदार के अंदर कहीं रख सकूँ शायद।
मैं बिहार से हूँ। मेरा गाँव भागलपुर के पास आता है। मेरा बचपन देवघर नाम के शहर में बीता। दसवीं के बाद मेरा परिवार पटना आ गया और फिर कॉलेज के बाद मैं IIMC, दिल्ली चली गयी PG डिप्लोमा के लिए। मेरा स्कूल को-एड था और उसके बाद ११th-१२th और फिर पटना वीमेंस कॉलेज गर्ल्ज़ ओन्ली था।
स्पर्श कल्चर का हिस्सा होता है। हम जिस परिवेश में बड़े हुए थे उसमें स्पर्श कहीं था ही नहीं। बहुत छोटे के जो खेल होते थे उनमें बहुत सारा कुछ फ़िज़िकल होता है। छुआ छुई का तो नाम ही स्पर्श पर है। लुका छिपी का सबसे ज़रूरी हिस्सा था ‘धप्पा’ जिसमें दोनों हाथों से चोर की पीठ पर झोर का धक्का लगा कर धप्पा बोलना होता था। पोशमपा भाई पोशमपा में हम एक दरवाज़ा बना कर खड़े होते थे और बाक़ी बच्चे उसके नीचे से गुज़रते थे। बुढ़िया कबड्डी में एक गोल घेरा होता था और एक चौरस। गोल घेरे में बुढ़िया होती थी जिसका हाथ पकड़ कर विरोधी टीम से बचा कर दौड़ते हुए दूर के चौरस घेरे में आना होता था। कबड्डी में तो ख़ैर कहाँ हाथ, कहाँ पैर कुछ मालूम नहीं चलता था। रस्सी कूदते हुए दो लड़कियाँ हाथ पकड़ कर एक साथ कूदती थीं और दो लड़कियाँ रस्सी के दोनों सिरों को घोल घुमाती रहती थीं। 

अगर हम बचपन को याद करते हैं तो उसका बहुत सा हिस्सा स्पर्श के नाम आता है। बाक़ी इंद्रियों के सिवा भी। शायद इसलिए कि हम सीख रहे होते हैं कि स्पर्श की भी एक भाषा होती है। मेरे बचपन की यादों में मिट्टी में ख़ाली पैर दौड़ना। छड़ से छेछार लगाना। जानना कि स्पर्श गहरा हो तो दुःख जाएगा…ज़ख़्म हो जाएगा भी था। 

स्पर्श के लिए पहली बार बुरा लगना कब सीखा था वो याद नहीं, बस ये है कि जब मैं छोटी थी, लगा लो कोई std.५ में तब मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था उसको हमेशा ऐसे हाथ पकड़ कर झुलाते झुलाते चलना पसंद नहीं। मैं जो गलबहियाँ डाल कर चलती थी, वो भी नहीं। लगभग यही वक़्त था जब मुहल्ले के बच्चे भी दूसरे गेम्स की ओर शिफ़्ट कर रहे थे। घर में टीवी आ गया था। इसी वक़्त मुहल्ले में चुग़ली भी ज़्यादा होने लगी थी। किसी के बच्चों को पीट दिया तो उसकी मम्मी घर आ जाती थी झगड़ा करने। फिर कोई नहीं सुनता था कि उसने पहले चिढ़ाया था या ऐसा ही कुछ। घर में कुटाई होती थी। यही समय था जब मारने के लिए छड़ी का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था। उसके पहले तो मम्मी हाथ से ही मारती थी। इसी समय इस बात की ताक़ीद करनी शुरू की गयी थी कि लड़कों को मारा पीटा मत करो। और लड़के तो ख़ैर लड़के ही थे। नालायकों की तरह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। ये अघोषित नियम था कि लड़कियों को खेलाने नहीं ले जाएँगे। हमको तबसे ही क्रिकेट कभी पसंद नहीं आया। क्रिकेट ने हमें लड़की और लड़के में बाँट दिया था। 

क्लास में भी लड़के और लड़की अलग अलग बैठने लगे थे। ऐसा क्यूँ होता है मुझे आज भी नहीं समझ आता। साथ में बैठने से कौन सी छुआछूत की बीमारी लग जाएगी? सातवीं क्लास तक आते आते तो लड़कों से बात करना गुनाह। किसी से ज़्यादा बात कर लो तो बाक़ी लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। हम लेकिन पिट्टो जैसे खेल साथ में खेलते थे। हमको याद है उसमें एक बार हम किसी लड़के को हींच के बॉल मार दिए थे तो वो हमसे झगड़ रहा था, इतना ज़ोर से बॉल मारते हैं, हम तुमको मारें तो…और हम पूरा झगड़ गए थे कि मारो ना…बॉल को थोड़े ना लड़की लड़का में अंतर पता होता है। पहली बार सुना था, ‘लड़की समझ के छोड़ दिए’ और हम बोले थे, हम लड़का समझ के छोड़ेंगे नहीं, देख लेना। इसके कुछ दिन बाद हमारे साथ के गेम्स ख़त्म हो गए। ठीक ठीक याद नहीं क्यूँ मगर शायद हम भरतनाट्यम सीखने लगे थे, इसलिए।

मेरे जो दोस्त 6th के आसपास के हैं, उनसे दोस्ती कुछ यूँ हैं कि आज भी मिलते हैं तो बिना लात-जुत्ते, मार-पीट के बात नहीं होती है। मगर इसके बाद जो भी दोस्त बने हैं उनके और मेरे बीच एक अदृश्य दीवार खिंच गयी थी। मुझे स्कूल के दिनों की जो बात गहराई से याद है वो ये कि मैं किसी का हाथ पकड़ के चलना चाहती थी। या हाथ झुलाते हुए काँधे पर रखना चाहती थी। छुट्टी काटना चाहती थी। इस स्पर्श को ग़लत सिखाया जा रहा था और ये मुझे एक गहरे दुःख और अकेलेपन से भरता जा रहा था। स्पर्श सिर्फ़ दोस्तों से ही नहीं, परिवार से भी अलग किया जा रहा था। कभी पापा का गले लगाना याद नहीं है मुझे। मम्मी का भी बहुत कम। छोटे भाई से लड़ाई में मार पिटाई की याद है। चुट्टी काटना, हाथ मचोड़ देना जैसे कांड थे लेकिन प्यार से बैठ कर कभी उसका माथा सहलाया हो ऐसा मुझे याद नहीं। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। ये पहली बार था कि मैंने कुछ चाहा था और उलझी थी कि सब इतने आराम से क्यूँ हैं। किसी और को तकलीफ़ क्यूँ नहीं होती। किसी और को प्यास नहीं लगती। अकेलापन नहीं लगता? सब के एक साथ गायब हो जाने का डर क्यूँ नहीं लगता। 

लिख रही हूँ तो देख रही हूँ, कितना सारा कुछ है इस बारे में लिखने को। कुछ दिन लिखूँगी इसपर। बिखरा हुआ कुछ। स्पर्श के कुछ लम्हे जो मैंने अपनी ज़िंदगी में सहेज रखे हैं। शब्द में रख दूँगी। 

तब तक के लिए, जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, आपने आख़िरी बार किसी को गले कब लगाया था? परिवार, पत्नी, बच्चों को नहीं…किसी दोस्त को? किसी अनजान को? किसी को भी? जा कर ज़रा एक जादू की झप्पी दे आइए। हमको थैंक्स बाद में कहिएगा। या अगर पिट गए, तो गाली भी बाद में दे सकते हैं। 

09 September, 2015

तालपत्र, संस्कृत की लिपियाँ और इतिहास की चिप्पियाँ

मुझे याद है कि जब मैं स्टैण्डर्ड एट या सेवेन में थी तो मुझे लगता था हम हिस्ट्री क्यूँ पढ़ते हैं. सारे सब्जेक्ट्स में मुझे ये सबसे बोरिंग लगता था. एक कारण शायद ये भी रहा हो कि हमारी टीचर सिर्फ रीडिंग लगा देती थीं, अपनी तरफ से कुछ जोड़े बगैर...कोई कहानी सुनाये बगैर. उसपर ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिसमें बहुत रट्टा मारना पड़ता था. पानीपत का युद्ध कब हुआ था से हमको क्या मतलब. कोल्ड वॉर चैप्टर क्यूँ था मुझे आज भी समझ नहीं आता. या तो हमारी किताबें ऐसी थीं कि सारे इंट्रेस्टिंग डिटेल्स गायब थे. अब जैसे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को अगर कोई टीचर रोचक नहीं बना पा रहा है तो वो उसकी गलती है. उन कई सारे किताबों पर भारी पड़ती थी एक कहानी, 'उसने कहा था'. मुझे लगा था कि टेंथ के बाद हिस्ट्री से हमेशा के लिए निजात मिल गयी.

बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.

ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.

अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard' यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़' तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां' में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.

भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.

ओरियेंटल लाइब्रेरी में रखे रैक्स में तालपत्र
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मैसूर युनिवर्सिटी का ये शताब्दी साल है. इस अवसर पर एक कॉफ़ी टेबल बुक का लेखन और संपादन कर रही हूँ जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा जनवरी में प्रिंट होगा. प्रोजेक्ट की शुरुआत में हम वाइसचांसलर और रजिस्ट्रार से मिलने गए. यूनिवर्सिटी में ओरिएण्टल लाइब्रेरी है. हमने रिसर्च की शुरुआत वहीं से की...इस लाइब्रेरी में कुल जमा 70,000 पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनमें कुछ तो आठ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. मैंने पांडुलिपियों की बात सुनी तो सोचा कि एक आध होंगी. अभी तक जितनी भी देखी थीं वो सिर्फ संग्रहालयों में, वो भी शीशे के बक्से में. यहाँ पहली बार खुद से छू कर ताड़ के पत्तों पर लिखा देखा. इनपर लिखने के लिए धातु की नुकीली कलम इस्तेमाल होती थी...तालपत्र पर लिखने वालों को लिपिकार कहते थे. कवि, लेखक, इत्यादि अपनी रचनायें कहते थे और लिपिकार उन्हें सुन कर तालपत्रों पर उकेरते जाते थे. 
उसे लाइब्रेरी कहने का जी नहीं चाहता...ग्रंथालय कहने का मन करता है. लोहे के पुराने ज़माने के रैक और लोहे की जालीदार सीढियाँ. ज़मीन से तीन तल्लों तक जाते रैक्स और उनपर ढेरों पांडुलिपियाँ. एक अजीब सी गंध. पुरानी लकड़ी की...लेमनग्रास तेल की...और पुरानेपन की. जैसे ये जगह किसी और सदी की है और हम किसी टाइम मशीन से यहाँ पहुँच गए हैं. सन के धागे से बंधे तालपत्र. उनपर की गयी नम्बरिंग. मैंने सब फटी फटी आँखों से देखा. मुझे पहली बार मालूम चला कि संस्कृत को देवनागरी की अलावा कई और लिपियों में लिखा गया है. कन्नड़. ग्रंथ. तमिल. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ में लिखी गयी संस्कृत के श्लोकों के बीच खाली जगह नहीं दी गयी थी. संस्कृत में वैसे भी लम्बे लम्बे संयुक्ताक्षर होते हैं लेकिन बिना किसी स्पेस के लिखे हुए श्लोकों को पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. फिर हर लिपिकार की हैण्डराइटिंग अलग अलग होती है...हमें वहां मैडम ने बताया कि कुछ दिन तो एक लिपिकार की लिपि समझने में ही लग जाते हैं. उन्होंने ये भी बताया कि देवनागरी में तालपत्रों पर लिखने में मुश्किल होती थी क्योंकि देवनागरी में अक्षरों के ऊपर जो लाइन खींची जाती है, उससे तालपत्र कट जाते थे और जल्दी ख़राब हो जाते थे.
तालपत्र- ओरियेंटल लाइब्रेरी, मैसूर, clicked by my iPhone

मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति' रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.

बात फिर से आइडेंटिटी या कहें कि पहचान की आ जाती है. मैंने शायद इस बात पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी हूँ और उसके बाद देवघर में पली बढ़ी. वेद और श्लोक हमारे जीवन में यूँ गुंथे हुए थे कि हमारी समझ से इतर भी एक इतिहास हो सकता है इसपर कभी सोच भी नहीं पायी. अगर आप देवघर मंदिर जायेंगे तो वहां पण्डे बहुत छोटी उम्र से वेद-पाठ करते हुए मिल जायेंगे. उत्तर भारत की इस पृष्ठभूमि के कारण भी मैंने कभी संस्कृत के उद्गम के बारे में कुछ जानने की कोशिश भी नहीं की. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है.

Brahmi script on Ashoka Pillar,
Sarnath" by ampersandyslexia 
भारत की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मी है. 250–232 BCE में बने अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि के उद्धरण हैं. ब्राह्मी लिपि से मुख्यतः दो अलग तरह के लिपि वर्ग आगे जाके बनते गए...दक्षिण भारत की लिपियाँ जैसे कि तमिल, कन्नड़, तेलगु इत्यादि वृत्ताकार या कि गोलाई लिए हुए बनीं जबकि उत्तर भारत की लिपियाँ जैसे कि देवनागरी, बंगला, और गुजराती में सीधी लकीरों से बनते कोण अधिक थे. संस्कृत को कई सारी लिपियों में लिखा गया है. 

मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है. 

जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.

भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.

06 October, 2013

इतवारी डायरी: सुख

ऑफिस के अलावा फ्री टाइम जो भी मिलता है उसमें मुझे दो ही चीज़ें अच्छी लगती हैं. पढ़ना या फिर लिखना. कभी कभी इसके अलावा गाने सुनना शामिल होता है. घर के किसी काम में आज तक मेरा मन नहीं लगा. कपड़े तार पर फैलाना जरा सा अच्छा लगता है बस. इस सब के बावजूद, फॉर सम रीजन मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूँ, पंगा ये है कि खाना बहुत कम बनाती हूँ. उसमें भी मन से खाना बनाना बहुत ही रेयर ओकेजन होता है. कल दुर्गा पूजा शुरू हो गयी. पहली पूजा थी तो सोचा कि कुछ अच्छा करूँ. कुक आई तो नींद के मारे डोल रही थी सो उसे वापस भेज दिया. 


शायद त्योहारों के कारण होगा कि खाना बनाने का मूड था. उसपर घर में अब दस दिन प्याज लहसुन नहीं बनेगा तो खाना बनाना अपने घर जैसा लगता है. सब्जी के नाम पर खाली सीम था घर में. पहले सोचे कि पूड़ी सब्जी बनाएं फिर लगा कि पराठा बनाते हैं. पराठा के साथ बाकी चीज़ खाने का भी स्कोप होता है. फिर तेल में जीरा नहीं डाले बल्कि पचफोरना डाले. खाली फोरन अलग डालने से स्वाद का कितना अंतर आ जाता है ये देखने का दिन भी कभी कभी बनता है. सब सब्जी का बनते हुए अलग गंध होता है, हमको उसमें सीम का बहुत ज्यादा पसंद है. कल लेकिन बिना पूजा किये खा नहीं सकते थे तो खाली सूंघ के ही खुश हो लिए. सीम और छोटा छोटा कटा आलू, फिर मसाला डाल के भूने. फिर टमाटर डाल के और भूने. फिर ऐसे ही मन किया तो एक चम्मच दही डाल दिए. सरसों पीसने का बारी आया तो फिर कन्फ्यूज, हमको कभी नहीं याद रहता कि काला सरसों किसमें पड़ता है और पीला सरसों किसमें, काला सरसों पीसे मिक्सी में और थोड़ा सा सब्जी में डाले. लास्ट में नमक. 

तब तक देखे कि नीचे एक ठो सब्जी वाला है, उसके पास पालक था. उसको रुकने को बोले. भागते हुए पहले शॉर्ट्स चेंज किये. तमीज वाला पजामा पहने फिर नीचे गए तो देखे कि एक ठो बूढ़े बंगाली बाबा हैं साइकिल पर. बंगाली उनके टोन से बुझा गया. पता नहीं काहे...दुर्गा पूजा था इसलिए शायद. बहुत अच्छा लगा. घर जैसा. फिर पलक ख़रीदे, धनिया पत्ता, पुदीना, हरा मिर्ची...जितना कुछ था, सब थोड़ा थोड़ा ले लिए. अब ध्यान आया कि कितना अंतर आया है पहले और अब में. पन्नी लेकर आये नहीं थे, और अब दुपट्टा होता नहीं था कि उसी में बाँध लिए आँचल फैला कर. खैर. मुस्कुराते हुए आये तो लिफ्ट लेने का मन नहीं किया. फर्लान्गते हुए चार तल्ला चढ़ गए. ऊपर आये तो देखे गनीमत है कुणाल सो ही रहा है. 

फिर दाल में पालक डाल के चढ़ा दिए. धनिया पत्ता एकदम फ्रेश था तो सोचे चटनी बना देते हैं. फिर उस बूढ़े बाबा के बारे में सोच रहे थे. कहीं तो कोई कहानी पढ़े थे कि अपने अपने घर से सब बाहर निकलते जाते हैं, नौकरी के लिए, अंत में आखिर क्या मिलता है हाथ में. वही दो रूम का फ़्लैट खरीद कर रहते हैं लोग. पापा अपने गाँव से बाहर निकले. हम लोग देवघर से बाहर निकले. कल को हमारे बच्चे शायद किसी विदेश के शहर में सेटल हो जायें. रिफ्यूजी हैं हम लोग. अपने शहर से निकाले हुए, वही एक शहर हम अपने दिल में बसाए चलते हैं. खाना बनाते हुए पुराने गाने सुन रहे थे. बिना गाना बजाये हम कोई काम नहीं कर सकते. या तो पुराना गाना बजाते हैं, किशोर कुमार या रफ़ी या फिर सोनू निगम. इसके अलावा कोई पसंद नहीं आता हमें. 

कहते हैं त्यौहार के टाइम के खाना में बहुत टेस्ट होता है. कल खाना इतना अच्छा बना था कि क्या बताएं. दाल वैसी ही मस्त, चटनी एकदम परफेक्ट और सब्जी तो कालिताना था एकदम. कुणाल कितना सेंटी मारा कि रे चोट्टी, इतना बढ़िया खाना बनाती है, कभी कभी बनाया नहीं जाता है तुमको. आज बनायी है पता नहीं फिर अगले महीने बनाएगी. इतना अच्छा सब चीज़ देख कर उसको चावल खाने का मन करता है, तो भात चढ़ा दिए कूकर में. वो खाना बहुत खुश हो कर खाता है. हमको खाने से कोई वैसा लगाव नहीं रहा कभी. कभी भी खाना बनाते हैं तो यही सोच कर कि वो खा कर कितना खुश होगा. वही ख़ुशी के मारे खाना बना पाते हैं. 

कल कैसा तो मूड था. पुरानी फिल्मों टाईप. साड़ी पहनने का मन कर रहा था. परसों बाल कटवाए थे रात को तो कल अच्छे से शैम्पू किये. कंधे तक के बाल हो गए हैं, छोटे, हलके. अच्छा लगता है. चेंज इज गुड टाइप्स. भगवान को बहुत देर तक मस्का लगाए कल. शुरू शुरू में पूजा करने में एकदम ध्यान नहीं लगता है, बाकी सब चीज़ पर भागते रहता है. बचपन में नानाजी के यहाँ जाते थे हमेशा दशहरा में. आरती के टाईम हम, जिमी, कुंदन चन्दन सब होते थे. हम और कुंदन शंख बजाते थे, जिमी और चन्दन घंटी. आरती का आखिरी लाइन आते आते बंद आँख में भी वो ओरेंज कलर वाला मिठाई घूमने लगता था. इतने साल हो गए, अब भी आरती की आखिरी लाइन पर पहुँचती हूँ तो मिठाई ही दिखती है सामने. अजीब हंसने रोने जैसा मूड हो जाता है. शंख फूंकना अब भी दहशरा का मेरा पसंदीदा पार्ट है. 

खाना का के मीठा खाने का मन कर रहा था तो कल खीर भी बना लिए. गज़ब अच्छा बना वो भी. खूब सारा किशमिश, काजू और बादाम डाले थे उसमें. शाम को घूमने निकले. फॉर्मल सैंडिल खरीदने का मन था. वुडलैंड में गए तो माथा घूम गया. पांच हज़ार का सैंडिल. बाप रे! फिर कल एक ठो रे बैन का चश्मा ख़रीदे. बहुत दिन से ताड़ के रखे थे. हल्का ब्लू कलर का है. टहलते टहलते गए थे. दो प्लेट गोलगप्पा खाए कुणाल के साथ. फिर पैदल घर. मूड अच्छा रहता है तो रोड पर भी गाना गाते रहते हैं, थोड़ा थोड़ा स्टेप भी करते रहते हैं. कुणाल मेरी खुराफात से परेशान रहता है और मेरा हाथ पकड़े चलता है कि किसी गाड़ी के सामने न आ जाएँ हम. 

आज सुबह उठे सात बजे. धूप खाए. बड़ा अच्छा लगा. फिर सोचे कि दौड़ने चले जायें. अस्कतिया गए. रस्सी कूदने का महान कार्य संपन्न किये. ५०० बार. अपना पीठ ठोके. नौट बैड. ऐब क्रंचेस. १६ के तीन सेट. अब हम आज के हिस्से का खाना बाहर खाने लायक कैलोरी जला लिए हैं. काम वाली तीन दिन के छुट्टी पर गयी है. सुबह से कमर कसे कि बर्तन धोयेंगे. अभी जा के ख़तम हुआ है सारा. किचन चकचका रहा है. अब झाडू पोछा मारेंगे. फिर पूजा करेंगे और निशांत लोग के साथ बाहर खाने जायेंगे. कल एक नया शर्ट ख़रीदे थे लाल रंग का. आज वही पहनने का मूड है. नया कपड़ा पहनने के नामे मिजाज लहलहा जाता है. 

इतना काम करके बैठे हैं. देह का पुर्जा पुर्जा दुखा रहा है. एक कप कॉफ़ी पीने का मन है मगर अनठिया देंगे अभी. तैयार होके निकलना है. सोच रहे हैं सुख क्या होता है. कभी कभी घर का छोटा छोटा काम भी वैसा ही सुख देता है जैसे मन में आई कोई कहानी कागज़ पर उतार दिए हों. अभी दो ठो कहानी आधा आधा पड़ा है ड्राफ्ट में. उसको लिखेंगे नहीं. आराम फरमाएंगे. भर बैंगलोर भटक कर एगो व्हाईट शर्ट खरीदेंगे. कुणाल का माथा खायेंगे. बचा हुआ सन्डे आराम करेंगे. बहुत सारा केओस है पूरी दुनिया में. कितना कुछ बिखरा हुआ है. बहुत सी फाइल्स हार्ड डिस्क से कॉपी करनी हैं रेड वाले लैपटॉप में. एक फॉर्मल सैंडिल खरीदनी है. कपड़े धोने हैं. मगर अभी. मैं कुछ नहीं कर रही.

मैं खाना खाती हूँ तो वो बड़े गौर से देखता है. कल चिढ़ा रहा था कि मेरे इतना खाते वो किसी लड़की को नहीं देखा. उससे भी ज्यादा मैं खाती हूँ तो मुझे कोई गिल्ट फील नहीं होता. बाकी लड़कियां खाते साथ गिल्ट फील करने लगती हैं. वो अब भी ऐसे देखता है मुझे जैसे समझने की कोशिश कर रहा है कि कैसी आफत मेरे मत्थे पड़ गयी है. वो अब भी मुझे देख कर सरप्राइज होता है. एक फिल्म है 'पिया का घर' उसमें सादी सी साड़ी पहने गाना गाती है 'ये जीवन है, इस जीवन का, यही है, यही है, यही है रंग रूप...थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियाँ भी...यही है, यही है, यही है जिंदगी'. बस ऐसे ही किसी जगह हूँ आज. किसी फिल्म में जैसे. कैसी कैसी तो है जिंदगी. पल पल बदलती. मगर जैसी भी है जिंदगी. बहुत प्यार है इससे. 

09 April, 2013

द हारमोनियम इन माय मेमोरी

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं. वक़्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं. 

ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है. छः साल के शाश्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है. आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज़ को मिस कर रही हूँ. हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था. शहर की फितरत, वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं. दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था. बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे, उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता. उस वक़्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा. उस वक़्त हम भाई बहन एक रियाज़ करने के लिए जान देते थे. 

हम उसे बहुत प्यार से छूते थे. नयी लकड़ी की पोलिश...चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा...उसके सफ़ेद कीय्ज ऐसे दीखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों. मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या. उस वक़्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज़ हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था. हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे. कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे. 

गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थी. राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे 'बादल रे, उमड़ घुमड़, बरसन लागे, बिजली चमक जिया डरावे'. मजेदार बात ये थी कि जून जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज़ में यही राग गाती थी. अब बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है. जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था. वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे. सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे. मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं. राग देश में भी सर उसको कोई और छोटा ख्याल सिखाये कि उसका नाम बादल है न...बादल रे गायेगा तो अच्छा थोड़े लगेगा उसको. 

जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में, एक्जाम देने जाते थे तो एक्जामिनर उससे प्यार कर बैठते थे. एक तो एकदम छोटा प्यारा और बहुत मासूम लगता था उसपर आवाज़ इतनी मीठी थी कि एक्जामिनर खुश होकर दो चार और राग सुनने के मूड में आ जाता, जिमी का और गाने का मूड नहीं होता लेकिन...एक तो हम लोग एक ही राग पूरा अच्छे से रियाज़ करके जाते थे, आलाप, ख्याल और तान के साथ. एक्जामिनर खुशामद करता, कोई भजन ही सुना दो...सर बोलते...अरे जिमी वो वाला सुना दो न जो अभी पिछले सन्डे सिखाये थे. जिमी गाता...एक्जामिनर सर या मैडम उसको खूब आशीर्वाद देते. हम दिल ही दिल में सोचते अच्छा है मेरा आवाज़ उतना अच्छा नहीं है, हमको अभी एक ठो और गाना गाने कोई बोले तो यहीं जान चला जाए. एक्जाम का खौफ होता था. एक बड़ा सा हॉल होता था उसमें पूरे शहर के दिग्गज बैठे होते थे...सबको सुनते थे तो कमाल लगता था, उसपर एक्जामिनर कभी कभी अच्छा अच्छा को सुन कर खुश नहीं होता था. हम तो डरे सहमे आधा चीज़ वहीँ भूलने लगते थे. एक उसी एक्जाम और एक उसी ऑडियंस का हमको लाइफ में डर लगा है. वरना हम बड़े तीस मारखां थे...कहीं, किसी से नहीं डरते. 

हारमोनियम हम पटना लेकर आये...वहां कभी कभी रियाज़ करते थे, डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे. दरअसल रियाज़ करने का असल मज़ा भोर में है, जब सब कुछ एकदम शांत हो, हलकी ठंढी हवा बह रही हो. पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे. याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था. कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी...शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, गीत के बोल भूलने लगती हूँ, जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है. कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आये...अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती. 

शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है. अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ. बहुत सालों से टाल रही हूँ, पर इस बार सर से भी मिलूंगी. अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है...उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूँगी. 
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इस सब के दरमयान चुप चुप रोउंगी कि मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहीं कभी भी. उसकी याद खुशबू की तरह है...कुछ कहती नहीं...दिल में कहीं बसती है. कल सुबह दराजों को हवा लगा कर कपड़े वापस रख रही थी, मम्मी के बुने सारे स्वेटर थे...वो थी यहीं कहीं. किसी दूसरे कमरे में फंदे गिनती...पीठ से लगा कर बित्ता हिसाब करती. मैं थक गयी हूँ उस खालीपन को दुनिया भर के काम से भरती हुयी. थक कर सो जाना चाहती हूँ हर रोज़ मगर याद भी कोई धुन की तरह ही है...कहीं नहीं जाती. मैं जाने कब उसके बिना जीना सीखूंगी. 
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बहुत दिन से रियाज़ करने का मन कर रहा है. सुर सारे भटक गए हैं. स थोड़ा ऊपर जो जाता है...कोमल ग ठीक से नहीं लगता है...नी जाने कैसा तो सुनने में आता है. पहले जब रियाज़ करती थी तो एक एक सुर पहले साधती थी. अब फिर से थोड़ा जिंदगी को साध रही हूँ. बहुत कुछ सुर से भटक गया...बहुत कुछ स्केल से अलग है. केओस को थोड़ा कम कर रही हूँ. जैसे कुछ सबसे खूबसूरत राग जिनमें सारे स्वर नहीं लगते, कुछ स्वर निषेध होते हैं. कभी कभी होता है...सन्डे को सुबह का वक़्त होता है...यूट्यूब पर कोई पसंद का गीत लगा देती हूँ और दूसरे कमरे में रोकिंग चेयर पर बैठ कर सिलास मारीनर जैसा कोई पुराना क्लासिक पढ़ती हूँ. जिंदगी अच्छी लगती है. सुकून लगता है. लगता है कि बहुत अच्छे से रियाज़ कर के उठे हों. मन शांत होता है. 

याद में स्वर आते हैं...कुछ शुद्ध, कुछ कोमल...गु ज री या  गा आ ग र  भ र ने ए  च ली  रे
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शीर्षक एक कोरियन फिल्म के नाम से. 

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

06 December, 2012

बातें, सब बातें झूठी हैं

गाँव से बहुत दूर एक पुराने किले में एक दुष्ट जादूगरनी रहती थी जो कि छोटे बच्चों को पकड़ कर खा जाती थी...लेकिन आप जानते हो कि ये कहानी झूठी है कि गाँव के छोर पर एक गरीब की झोंपड़ी थी जिसमें एक सुनहले बालों वाली राजकुमारी रहती थी...उसके बाल खुलते थे तो सूरज की किरनें धान के खेतों पर गिरतीं थीं और गाँव वालों की खेती निर्बाध रूप से चलती थी.

वो जो दुष्ट जादूगरनी थी उसे काला जादू आता था...वो बच्चों को बहाने से बुला लेती थी और फिर उनका दिल निकाल कर उसकी कलेजी तल के खाती थी. उसे खरगोश जैसे मासूम बच्चे बहुत पसंद थे. गाँव के सारे बच्चों की माएं उन्हें उस जादूगरनी के बारे में बता के रखती थी और उनकी रक्षा के लिए काला तावीज बांधती थी. बच्चे लेकिन बहुत शैतान होते थे...वे भरी दुपहरिया पीपल के कोटर में अपना अपना तावीज रख आते थे और किले में उचक कर देखते थे. बच्चों को पूरा यकीन था कि शादी के बाद जिन लड़कियों की विदाई होती है वे कहीं नहीं जातीं, यही दुष्ट जादूगरनी उन्हें पकड़ के खा जाती है. 

मगर आप जानते हो कि दुष्ट जादूगरनी असल में किस्सा है...माएं अपने बेटों को उस राजकुमारी से बचाना चाहती थीं जिसका दिल एक राजकुमार ने तोड़ दिया था और उसके उदास आंसुओं की नदी से गाँव के सारे खेत सींचे जाते थे. गाँव के लड़के बहुत सीधे और भोले थे, उन्हें जादूगरनी से भी उतना ही खतरा था जितना कि राजकुमारी से. अगर उसने हँसना सीख लिया तो गाँव के सारे खेत सूख जायेंगे और सभी लोग भूखे मर जायेंगे.  जैसे किसी आशिक को अपने महबूब के वादों पर ऐतबार नहीं होता वैसे ही गाँव की माँओं को बारिश के आने पर भरोसा नहीं था. वे रातों को पीर की मजार पर राजकुमारी के आंसुओं की नदी बहती रखने की मन्नत बाँधने जातीं थी...आते और जाते हुए वे अपने बिछड़े हुए मायके के गीत गाया करतीं...ये गीत राजकुमारी तक हवा में उड़ कर पहुँच जाते...अगली भोर नदी में बाढ़ आ जाती और धान के खेत घुटने भर पानी में डूब जाते...अब धान के बिचड़ों को उखाड़ कर उनकी बुवाई शुरू हो जाती. 

छोटे बच्चों को मालूम नहीं होता कि माएं जो तावीज बांधती हैं उनमें उनकी सच्ची दुआएं शामिल होती हैं...जब वे तावीज को कोटर में रखते तो वे कुछ भी महसूस नहीं कर पाते...अगर वैसे में जादूगरनी उन्हें मार कर उनका दिल निकालती तो उन्हें दर्द नहीं होता...ये एक बहुत पुराने पीर का आशीर्वाद था. लेकिन वहां कोई जादूगरनी थी नहीं...जैसा कि समझदार लोग जानते हैं. बिना तावीज के उन्हें कुछ महसूस नहीं होता. वे देख नहीं पाते कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है...वे देख नहीं पाते कि राजकुमारी का दिल किस कदर टुकड़ों में है. उनमें से कोई राजकुमारी को अपने साथ खेलने के लिए भी नहीं बुलाता. वे बस दूर से देखते थे...उसके हवा में सूखते सतरंगी दुपट्टे को छू आने का साहस करते लेकिन पास नहीं जाते.

उस गाँव की लड़कियों की घर से बाहर निकलने की मनाही हो जाती...शादी के बाद और गौणा के पहले जो लड़कियां गाँव में रहतीं उन्हें दिखता था कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है. वे जब सावन में झूले की पींगें बढ़ातीं तो अक्सर रोते रोते उनकी हिचकियाँ बंध जातीं...वे फिर राजकुमारी के लिए दुआएं गातीं...गोरी..ओ री...कहाँ तेरा राजकुमार...गोरी रो री...चल नदिया के पार...बस कर दे बरसात ओ सावन कितना रोवे नैना...खोल दे रास्ता मन भागे हैं कहीं न पाए चैना...और भी कुछ ऐसा ही जिसका न ओर था न छोर था. कच्ची उमर की लड़कियां थीं, उसके दर्द में रोतीं थीं...जैसे जैसे उनके बाल पकते, कलेजा भी पत्थर होते जाता...फिर उन्हें न राजकुमारी की चिंता होती न उसके टूटे दिल की...वे अपने बेटों को दुष्ट जादूगरनी के किस्से सुनाने लगतीं, उनके गले में काला तावीज बाँधने लगतीं.

हर दुष्ट जादूगरनी की कहानी के पीछे ऐसी कोई कहानी होती है जो कोई नहीं सुनाता...भटकते भूतों का दर्द कौन सुनता है बैठ कर...जिसे मर कर भी चैन नहीं उससे ज्यादा उदास और कौन होगा...एक उदासी का फूल होता है...सदाबहार...जिस मन के बाग में वो खिलता है वहाँ सालों भर बरसातें होती हैं. किसी शहर में सालों भर बरसातें होती हों तो वहां खोजना...उदासी का फूल...उसका रंग सलेटी होता है, बहे हुए काजल जैसी रेखाएं होती हैं...उसे तोड़ते हुए ख्याल रखना...उसकी खुशबू उँगलियों में हमेशा के लिए रह जाती है. 

01 April, 2012

एक अप्रैल...मूर्ख दिवस बनाम प्रपोज डे और कुछ प्यार-मुहब्बत के फंडे

बहुत दिन हुआ चिरकुटपंथी किये हुए...उसपर आज तो दिन भी ऐसा है कि भले से भले इंसान के अन्दर चिरकुटई का कीड़ा कुलबुलाने लगे...हम तो बचपन से ये दिन ताड़ के बैठे रहते थे कि बेट्टा...ढेर होसियार बनते हो...अभी रंग सियार में बदलते हैं तुमको. तो आज के दिन को पूरी इज्ज़त देते हुए एक घनघोर झुट्ठी पोस्ट लिखी जाए कि पढ़ के कोई बोले कि कितना फ़ेंक रहे हो जी...लपेटते लपेटते हाथ दुखा गया...ओझरा जाओगे लटाइय्ये  में...और हम कहते हैं कि फेंका हुआ लपेटिये लिए तो फेंकना बेकार हुआ.

खैर आज के बात पर उतरते हैं...ई सब बात है उ दिन का जब हम बड़का लवगुरु माने जाते थे और ऊ सब लईका सब जो हमरा जेनुइन दोस्त था...मतबल जो हमसे प्यार उयार के लफड़ा में न पड़ने का हनुमान जी का कसम खाए रहता था ऊ सबको हम फिरि ऐडवाइस दिया करते थे कौनो मुहब्बत के केस में. ढेरी लड़का पार्टी हमसे हड़का रहता था...हम बेसी हीरो बनते भी तो थे हमेशा...टी-शर्ट का कॉलर पीछे फ़ेंक के चलते तो ऐसे थे जैसे 'तुम चलो तो ज़मीन चले आसमान चले' टाइप...हमसे बात उत करने में कोईयो दस बार सोचता था कि हमरा कोई ठिकाना नहीं था...किसी को भी झाड़ देंगे...और उसपर जबसे एक ठो को थप्पड़ मारे थे तब से तो बस हौव्वा ही बना हुआ था. लेकिन जो एक बार हमारे ग्रुप में शामिल हो गया उसका ऐश हुआ करता था. 

एक तो पढ़ने में अच्छे...तो मेरे साथ रहने वाले को ऐसे ही डांट धोप के पढ़वा देते थे कि प्यार मुहब्बत दोस्ती गयी भाड़ में पहले कोर्स कम्प्लीट कर लो...उसपर हम पढ़ाते भी अच्छा थे तो जल्दी समझ आ जाता था सबको...फिर एक बार पढाई कम्प्लीट तो जितना फिरंटई करना है कर सकते हैं. हमारे पास साइकिल भी सबसे अच्छा था...स्ट्रीटकैट...काले रंग का जब्बर साइकिल हुआ करता था...एकदम सीधा हैंडिल और गज़ब का ग्राफिक...बचपन में भी हमारा चोइस अच्छा हुआ करता था. घर पर मम्मी पापा कितना समझाए कि लड़की वाला साइकिल लो...आगे बास्केट लगा हुआ गुलाबी रंग का...हम छी बोलके ऐसा नाक भौं सिकोड़े कि क्या बतलाएं. तो हमारे साथ चलने में सबका इज्जत बढ़ता था.

उस समय पटना में लड़की से बात करना ही सबसे पहला और सबसे खतरनाक स्टेप था...अब सब लड़की मेरे तरह खत्तम तो थी नहीं कि माथा उठा के सामने देखती चले...सब बेचारी भली लड़की सब नीचे ताकते चलती थी...हालाँकि ई नहीं है कि इसका फायदा नहीं था...ऊ समय पटना में बड़ी सारा मेनहोल खुला रहता था...तो ऐसन लईकी सब मेनहोल में गिरने से बची रहती थी...हालाँकि हमारा एक्सपीरियंस में हम इतने साल में नहीं गिरे और हमारी एक ठो दोस्त हमारे नज़र के सामने गिर गयी थी मेनहोल में...उ एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर पढ़ते चल रही थी...उस दिन लगे हाथ दू ठो थ्योरी प्रूव हो गया कि मूड़ी झुका के चलने से कुछ फायदा नहीं होता...और एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर तो एकदम्मे नहीं देखना चाहिए. 

देखिये बतिये से भटक गए...तो लईकी सब मूड़ी झुका के चलती थी तो लईका देखती कैसे तो फिर लाख आप रितिक रोशन के जैसन दिखें जब तक कि नीचे रोड पे सूते हुए नहीं हैं कोई आपको देखेगा ही नहीं...भारी समस्या...और उसपर भली लईकी सब खाली घर से कोलेज और कोलेज से घर जाए...तो भईया उसको देखा कहाँ जाए...बहुत सोच के हमको फाइनली एक ठो आइडिया बुझाया...एक्के जगह है जहाँ लईकी धरा सकती है...गुपचुप के ठेला पर. देखो...बात ऐसा है कि सब लईकी गुपचुप को लेकर सेंटी होती है अरे वही पानीपूरी...गोलगप्पा...उसको गुपचुप कहते हैं न...चुपचाप खा लो टाइप...प्यार भी तो ऐसे ही होता है...गुपचुप...सोचो कहानी का कैप्शन कितना अच्छा लगेगा...मियां बीबी और गुपचुप...अच्छा जाने दो...ठेला पर आते हैं वापस...कोई भी लड़की के सामने कोई लईका उससे बेसी गुपचुप खा जाए तो उसको लगता है कि उसका इन्सल्ट हो गया. भारी कम्पीटीशन होता है गुपचुप के ठेला पर...तो बस अगर वहां लड़की इम्प्रेस हो गयी तो बस...मामला सेट. अगर तनी मनी बेईमानी से पचा पाने का हिम्मत है तो ठेला वाला को मिला लो...लड़की पटाने के मामले में दुनिया हेल्पफुल होती है...तो बस तुमरे गुपचुप में पानी कम...मसाला कम...मिर्ची कम...और यही सब लड़की के गुपचुप में बेसी...तो बस जीत भी गए और अगले तीन दिन तक दौड़ना भी नहीं पड़ा...

ई तो केस था एकदम अनजान लईकी को पटाने का...अगर लईकी थोड़ी जानपहचान वाली है तो मामला थोड़ा गड़बड़ा जाता है...खतरा बेसी है कि पप्पा तक बात जा के पिटाई बेसी हो सकता है...यहाँ एकदम फूँक फूँक के कदम रखना होता है...ट्रायल एंड एरर नहीं है जी हाईवे पर गाड़ी चलानी है...एक्के बार में बेड़ापार नहीं तो एकदम्मे बेड़ापार...तो खैर...यहाँ एक्के उपाय है...फर्स्ट अप्रील...लईका सब पूछा कि काहे...तो हम एकदम अपना स्पेशल बुद्धिमान वाला एक्सप्रेशन ला के उनको समझाए...हे पार्थ तुम भी सुनो...इस विधि से बिना किसी खतरे से लड़की को प्रपोज किया जा सकता है...एक अप्रैल बोले तो मूर्ख दिवस...अब देखो प्यार जैसा लफड़ा में पड़ के ई तो प्रूव करिए दिए हो कि मूर्ख तो तुम हईये हो...तो काहे नहीं इसका फायदा उठाया जाए...सो कैसे...तो सो ऐसे. एकदम झकास बढ़िया कपड़ा पहनो पहले...और फूल खरीदो...गेंदा नहीं...ओफ्फो ढकलेल...गुलाब का...लाल रंग का...अब लईकी के हियाँ जाओ कोई बहाना बना के...टेस्ट पेपर वगैरह टाइप...आंटी को नमस्ते करो...छोटे भाई को कोई बहाना बना के कल्टी करो. 

ध्यान रहे कि ई फ़ॉर्मूला सिर्फ साल के एक दिन ही कारगर होता है...बाकी दिन के लतखोरी के जिम्मेदार हम नहीं हैं. लईकी के सामने पहले किताब खोलो...उसमें से फूल निकालो और एकदम एक घुटने पर (बचपन से निल डाउन होने का आदत तो हईये होगा) बैठ जाओ...एक गहरी सांस लो...माई बाबु को याद करो...बोलो गणेश भगवन की जय(ई सब मन में करना...बकना मत वहां कुछ)...और कलेजा कड़ा कर के बोल दो...आई लव यू...उसके बाद एकदम गौर से उसका एक्सप्रेशन पढो...अगर शर्मा रही है तब तो ठीक है...ध्यान रहे चेहरा लाल खाली शर्माने में नहीं...गुस्से में भी होता है...ई दोनों तरह के लाल का डिफ़रेंस जानना जरूरी है...लड़की मुस्कुराई तब तो ठीक है...एकदम मामला सेट हो गया...शाम एकदम गोपी के दुकान पर रसगुल्ला और सिंघाड़ा...और जे कहीं मम्मी को चिल्लाने के मूड में आये लड़की तो बस एकदम जमीन पे गिर के हाथ गोड़ फ़ेंक के हँसना शुरू करो और जोर जोर से चिल्लाओ 'अप्रैल फूल...अप्रैल फूल' बेसी मूड आये तो ई वाला गाना गा दो...देखो नीचे लिंक चिपकाये हैं...अप्रैल फूल बनाया...तो उनको गुस्सा आया...और इसके साथ उ लड़के का नाम लगा दो जो तुमको क्लास में फूटे आँख नहीं सोहाता है...कि उससे पांच रूपया का शर्त लगाये थे. बस...उसका भी पत्ता कट गया. 

चित भी तुमरा पट भी तुमरा...सीधा आया तो हमरा हुआ...ई बिधि से फर्स्ट अप्रैल को ढेरी लईका का नैय्या पार हुआ है...और एक साल इंतज़ार करना पड़ता है बाबु ई साल का...लेकिन का कर सकते हो...कोई महान हलवाई कह गया है...सबर का फल मीठा होता है. ई पुराना फ़ॉर्मूला आज हम सबके भलाई के लिए फिर से सर्कुलेशन में ला दिए हैं. ई फ़ॉर्मूला आजमा के एकदम हंड्रेड परसेंट नॉन-भायलेंट प्रपोज करो...थप्पड़ लगे न पिटाई और लड़की भी पट जाए. 

आज के लिए बहुत हुआ...ऊपर जितना कुछ लिखा है भारी झूठ है ई तो पढ़ने वाला बूझिये जाएगा लेकिन डिस्क्लेमर लगाये देते हैं ऊ का है ना ई महंगाई के दौर में कौनो चीज़ का भरोसा नहीं है. तो अपने रिक्स पर ई सब मेथड आजमाइए...और इसपर हमरा कोनो कोपीराईट नहीं है तो दुसरे को भी ई सलाह अपने नाम से दे दीजिये...भगवान् आपका भला करे...अब हम चलते हैं...क्या है कि रामनवमी भी है तो...जय राम जी की!


14 January, 2012

हैप्पी बर्थडे बिलाई

आज सुबह छह बजे नींद खुल गयी...अक्सर सुबह ही उठ रही हूँ वैसे...इस समय लिखना, पढना अच्छा लगता है. सुबह के इस पहर थोड़ा शहर का शोर रहता है पर आज जाने क्यूँ सारी आवाजें वही हैं जो देवघर में होती थीं...बहुत सा पंछियों की चहचहाहट...कव्वे, कबूतर शायद गौरईया भी...पड़ोसियों के घर से आते आवाजों के टूटे टुकड़े...अचरज इस बात पर हो रहा है कि कव्वा भी आज कर्कश बोली नहीं बोल रहा...या कि शायद मेरा ही मन बहुत अच्छा है.

बहुत साल पहले का एक छूटा हुआ दिन याद आ रहा है...मकर संक्रांति और मेरे भाई का जन्मदिन एक ही दिन होता है १४ जनवरी को. आजकल तो मकर संक्रांति भी कई बार सुनते हैं कि १५ को होने वाला है पर जितने साल हम देवघर में रहे...या कि कहें हम अपने घर में रहे, हमारे लिए मकर संक्रांति १४ को ही हर साल होता था. इस ख़ास दिन के कुछ एलिमेंट थे जो कभी किसी साल नहीं बदलते.

मेरे घर...गाँव के तरफ खुशबू वाले धान की खेती होती है...मेरे घर भी थोड़े से खेत में ये धान की रोपनी हर साल जरूर होती थी...घर भर के खाने के लिए. अभी बैठी हूँ तो नाम नहीं याद आ रहा...महीन महीन चूड़ा एकदम गम गम करता है. १४ के एक दो दिन पहले गाँव से कोई न कोई आ के चूड़ा दे ही जाता था हमेशा...चूड़ा के साथ दादी हमेशा कतरी भेजती थी जो मुझे बहुत बहुत पसंद था. कतरी एक चीनी की बनी हुयी बताशे जैसी चीज़ होती है...एकदम सफ़ेद और मुंह में जाते घुल जाने वाली. कभी कभार तिल के लड्डू भी आते थे.

अधिकतर नानाजी या कभी कभार छोटे मामाजी पटना से आते थे...खूब सारा लडुआ लेकर...मम्मी ने कभी लडुआ बनाना नहीं सीखा. लडुआ दो तरह का होता था...मूढ़ी का और भूजा हुआ चूड़ा का...पहले हम मूढ़ी वाले को ही ख़तम करते थे क्यूंकि चूड़ा वाला थोड़ा टाईट होता था उसको खाने में मेहनत बेसी लगता था. नानाजी हमेशा जिमी के लिए स्वेटर भी ले के आते थे और नया कपड़ा भी. जिमी के लिए एक स्वेटर मम्मी हमेशा बनाती ही थी उसके बर्थडे पर...वो भी एक आयोजन होता था जिसमें सब जुट कर पूरा करते थे. कई बार तो दोपहर तक स्वेटर की सिलाई हो रही होती थी. हमको हमेशा अफ़सोस होता था कि मेरा बर्थडे जून में काहे पड़ता है, हर साल हमको दो ठो स्वेटर का नुकसान हो जाता था.

तिलकुट के लिए देवघर का एक खास दुकान है जहाँ का तिलकुट में चिन्नी कम होता है...तो एक तो वो हल्का होता है उसपर ज्यादा खा सकते हैं...जल्दी मन नहीं भरता. उ तिलकुट वाला के यहाँ पहले से बुकिंग करना होता है तिलसकरात के टाइम पर काहे कि उसके यहाँ इतना भीड़ रहता है कि आपको एक्को ठो तिलकुट खाने नहीं मिलेगा. वहां से तिलकुट विद्या अंकल बुक करते थे...कोई जा के ले आता था.

सकरात में दही कुसुमाहा से आता था...कुसुमाहा देवघर से १६ किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पापा के बेस्ट फ्रेंड पत्रलेख अंकल उस समय मुखिया थे...उनके घर में बहुत सारी अच्छी गाय है...तो वहां का दही एकदम बढ़िया जमा हुआ...खूब गाढ़ा दूध का होता था...ई दही एक कुढ़िया में एक दिन पहले कोई पहुंचा जाता था...और दही के साथ अक्सर रबड़ी या खोवा भी आता था. इसके साथ कभी कभी भूरा आता था जो हमको बहुत पसंद था...भूरा गुड का चूरा जैसा होता है पर खाने में बहुत सोन्हा लगता है. १४ को हमारे घर में कोबी भात का प्रोग्राम रहता था...उसके लिए खेत से कोबी लाने पापा के साथ विद्या अंकल खुद कुसुमाहा जाते थे...१४ की भोर को.

ये तो था १४ को जब चीज़ों का इन्तेजाम...सुबह उठते...मंदिर जाते...नया नया कपड़ा पहन के जिम्मी सबको प्रणाम करता. तिल तिल बौ देबो? ये सवाल तीन पार पूछा जाता जिसका कि अर्थ होता कि जब तब शरीर में तिल भर भी सामर्थ्य रहेगा इस तिल का कर्जा चुकायेंगे...या ऐसा ही कुछ. फिर दही चूड़ा खाते घर में सब कोई और शाम का पार्टी का तैय्यारी शुरू हो जाता.

तिलसकरात एक बहुत बड़ा उत्सव होता जिम्मी के बर्थडे के कारण...होली या दीवाली जैसा जिसमें पापा के सब दोस्त, मोहल्ले वाले, पापा के कलीग, घर के लोग...सब आते. शाम को बड़ा का केक बनाती मम्मी...कुछ साथ आठ केक एक साथ मिला के, काट के, आइसिंग कर के. घर की सजावट का जिम्मा छोटे मामाजी का रहता. सब बच्चा लोग को पकड़ के बैलून फुलवाना...फिर पंखा से उसको बांधना...पीछे हाथ से लिख के बनाये गए हैप्पी बर्थडे के पोस्टर को टांगना. ऐसे शाम पांच बजे टाइप सब कोई तैयार हो जाते थे.

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आज सुबह से उन्ही दिनों में खोयी हूँ...यहाँ बंगलौर में कुल जमा दो लोग हैं...घर से चूड़ा आया हुआ है...अभी जाउंगी दही खरीदने...दही चूड़ा खा के निपटाउंगी. जिमी के लिए कल शर्ट खरीद के लाये हैं...उसको कुरियर करेंगे...सोच रहे हैं और क्या खरीदें उसके लिए.

सारे चेहरे याद आ रहे हैं...सब पुराने दोस्त...लक्की भैया, रोजी दीदी, नीलू, छोटू-नीशू, लाली, रोली, मिक्की, राहुल, बाबु मामाजी, छोटू मामाजी, सीमा मौसी, इन्द्रनील, नीति, आकाश, नीतू दीदी, शन्नो, मिन्नी, मनीष, आभा, सोनी...कितने लोग थे न उस समय...कितनी मुस्कुराहटें. अपने लिए दो फोटो लगा रहे हैं...हालाँकि ये वाला पटना का है...पर मेरे पास यही है.


यहाँ से तुमको ढेर सारा आशीर्वाद जिमी...खूब खूब खुश रहो...आज तुमको और पापा को बहुत बहुत मिस कर रहे हैं हम. 

08 January, 2012

खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बख्शे...

मैं किताबों की एक बेहद बड़ी दूकान में खड़ी थी...दूर तक जाते आईल थे जिनमें बहुत सी किताबें थीं...अक्सर उदास होने पर मैं ऐसी ही किसी जगह जाना पसंद करती हूँ...किताबों से मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है इसलिए उनके पास जा के कोई सुकून ढूँढने की ख्वाहिश रखी जा सकती है.

उन लम्बे गलियारों में बहुत से रंग थे...अलग कवर से झांकते चरित्र थे...मैं हमेशा की तरह उड़ती सी नज़र डाल कर डोल रही थी कि आज कौन सी किताब बुलाती है मुझे. मेरा किताबें पसंद करना ऐसा ही होता है...जैसे अजनबी चेहरों की भीड़ में कोई चेहरा एकदम अपना, जाना पहचाना सा होता है...कोई चेहरा अचानक से किसी पुराने दोस्त के चेहरे में मोर्फ भी कर जाता है. कपड़े, मुस्कराहट, आँखें...दिल जिसको तलाशता रहता है, आँखें हर शख्स में उसका कोई पहलू देख लेती हैं...

किताबें यूँ ही ढूंढती हैं मुझको...हाथ पकड़ पर रोक लेती हैं...आग्रह करती हैं कि मैं पन्ने पलट उन्हें गुदगुदी लगाऊं...फिर कुछ किताबें ऐसी होती हैं कि उँगलियाँ फिराते ही खिलखिलाने लगती हैं...कुछ हाथ से छूट भागती हैं, कुछ गुस्सा दिखाती हैं और कुछ बस इग्नोर करना चाहती हैं...तो कुछ किताबें ऊँगली पकड़ झूल जाती हैं कि मुझे घर ले चलो...तब मुझे तन्नु याद आती है...जब तीनेक साल की रही होगी तो ऐसे ही हाथ पकड़ के झूल जाती थी कि पम्मी मौती(मौसी) मुझे बाज़ार ले चलो. मुझे वैसे भी किताबों का अहसास हाथ में अच्छा लगता है...लगता है कि किसी अनजान आत्मीय व्यक्ति से गले मिल रही हूँ...जिसने बिना कुछ मांगे, बिना कुछ चाहे बाँहें फैला कर अपने स्नेह का एक हिस्सा मेरे नाम कर दिया है. 

मेरे दोस्त कभी नहीं रहे, स्कूल...कॉलेज कहीं भी...ठीक कारण मुझे नहीं पता बस ऐसा हुआ कि कई साल अकेले लंच करना पड़ा है...ऐसे में दो ही ओपशंस थे...या तो खाना ही मत खाओ या कोई किताब खोल लो और उसके किरदार को साथ बुला लो बेंच पर और उसके साथ पराठे बाँट लो. अब भूखे रहना भी कितने दिन मुमकिन था...तो कई सारे किरदार ऐसे रहे हैं जिन्होंने बाकायदा मेरे साथ दोपहर का लंच किया है. हाँ वहां भी कोई मेरा दोस्त नहीं बना कि जिसका नाम याद हो...कभी भी एक किताब को पढ़ने में तीन-चार घंटे से ज्यादा वक़्त नहीं लगा. बचपन से पढ़ने की आदत का नतीजा था कि पढ़ने की स्पीड हमेशा बहुत अच्छी रही थी. किताबों में अगर एकलौता दोस्त कोई है तो हैरी पोटर...इस लड़के ने कितनी जगहें मेरे साथ घूमी हैं गिनती याद नहीं. 

पटना में पुस्तक मेला लगता था घर के बगल पाटलिपुत्रा कालोनी में...उतनी सारी किताबों को एक साथ देखना ऐसा लगता था जैसे घर में शादी-त्यौहार पर सारे रिश्तेदार जुट आये हों...कुछ दूर के जिनसे सालों में कभी एक बार मिलना होता है. ऐसा कोई स्टाल नहीं होता था जिसमें नहीं जाते थे...कितना कुछ तो ऐसे ही देख के खुश हो जाते थे भले ही किताब न खरीद पाएं...बजट लिमिटेड रहता था. किताबों को देख कर...छू कर खुश हो जाते थे. किताबों का ख़ुशी के साथ एक धागा जुड़ गया था बचपन से ही. 

आज मैं बस ऐसे ही एक नयी किताब से दोस्ती करने गयी थी...ब्लाइंड डेट जैसा कुछ...कि आज मुझे जिस किताब ने बुलाया उसकी हो जाउंगी. कितनी ही देर नज़र फिसलती रही...कोई अपना न दिखा...किसी ने आवाज़ नहीं दी...किसी ने हाथ पकड़ के रोका नहीं...मैं उस किताबों की बड़ी सी दूकान में तनहा खड़ी थी...ऐसे ही ध्यान आया कि मोबाईल शायद साइलेंट मोड पर है...उसे देखा तो लाल बत्ती जल रही थी...फेसबुक पर देखा तो कुछ दिलफरेब पंक्तियाँ दिख गयीं...

वहीं किताबों से घिरे हुए...मोबाईल पर ब्लॉग खोला और सारी किताबें खो गयीं...रूठ गयीं...मुझे छोड़ कर चली गयीं...मेरे पास कुछ शब्द थे...बेहद हसीन बेहद अपने...और अगर ये मान भी लूं कि ये शब्द मेरे लिए नहीं हैं तो भी सुकून मिलता है...कि उसे जानती हूँ जिसने ये ताने बाने बुने हैं. मना लूंगी किताबों को...बचपन की दोस्ती में डाह की जगह नहीं होती.

उस लम्हा, वहाँ आइल में खड़े खड़े, किताबों से घिरे हुए...तुम्हारे शब्दों ने बाँहें फैलायीं और मुझे खुद में यूँ समेटा कि दिल भर आया...ऐसे कैसे लिखते हो कि शब्द छू लेते हैं स्क्रीन से बाहर निकल कर. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे..दिल से तुम्हारे लिए बहुत सी दुआ निकलती है दोस्त! ऐसे ही उजला उजला सा लिखते रहो...कि इन शब्दों की ऊँगली पकड़ कर कितने तनहा रास्तों का सफ़र करना है मुझे...दुआएं बहुत सी तुम्हारे लिए...

खास तुम्हारे लिए उस लम्हे को कैद कर लिया है...देखो मैं यहीं खड़ी थी...कि जब तुम्हारे शब्दों ने पहले गले लगाया था और फिर पूछा था...मुझसे दोस्ती करोगी?

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

08 July, 2011

दुआ की उम्र

'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'
छोटी सी सिम्मी अपने बड़े पापा की ऊँगली पकड़े कच्ची पगडण्डी पर चल रही थी. घर से पार्क जाने का शोर्टकट था जिसमें लंबे लंबे पेड़ थे और बच्चों को ये एक बहुत बड़ा जंगल लगता था. शाम को घर के सब बच्चे पार्क जाते थे हमेशा कोई एक बड़ा सदस्य उनके साथ रहता था. सिम्मी अपनी चाल में फुदकती हुयी रुक गयी थी. कल उसका एक्जाम था और वो थोड़ी परेशान थी...पहला एक्जाम था उसका. बड़े भैय्या ने कहा था भगवान से मांगो पेपर अच्छा जायेगा...वैसे भी तुम कितनी तो तेज हो पढ़ने में. छोटी सी सिम्मी के छोटे से कपार पर चिंता की रेखाएं पड़ रही थीं...कभी कभी वो अपनी उम्र से बड़ा सवाल पूछ जाती थी. अभी उसने नया नया शब्द सीखा था 'दुआ'.

बड़े पापा उसको दोनों हाथों से उठा कर गोल घुमा दिए...और फिर एकदम गंभीरता से गोद में लेकर समझाने लगे जैसे कि उसको सब बात अच्छे से समझ आएगी. 'बेटा दुआ की उम्र उतनी होती है जितनी आप मांगो...कभी कभी एक लम्हा और कभी कभी तो पूरी जिंदगी'. सिम्मी को बड़ा अच्छा लगता था जब बड़े पापा उससे 'आप' करके बात करते थे...उसे लगता था वो एकदम जल्दी जल्दी बड़ी हो गयी है.

'तो बड़े पापा आप हमेशा इस जंगल में मेरे साथ आयेंगे...हमको अकेले आने में डर लगता है. पर आप नहीं आयेंगे तो हम पार्क भी नहीं जा पायेंगे.'

'हाँ बेटा हम हमेशा आपके साथ आयेंगे'
'हर शाम!'
'हाँ, हर शाम'

उसके बाद उनका रोज का वादा था...शाम को सिम्मी के साथ पार्क जाना...उसको कहानियां सुनाना...बाकी बच्चों के साथ फुटबाल खेलने के लिए भेजना. सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे.
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उस दुआ की उम्र कितनी थी?
नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं. बिहार के उस छोटे से शहर दुमका में उसकी जिंदगी, उसकी दुनिया बस थोड़े से लोग थे...पर सिम्मी की आँखों से देखा जाता तो उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी...और ढेर सारी खुशियों से भरी भी. जैसे पार्क का वो झूला...ससरुआ...कुछ लोहे के ऊँचे खम्बे और सीढियां जिनसे सब कुछ बेहद छोटा दिखता था. घर से सौ मीटर पर का चापाकल...जिसमें सब बच्चे लाइन लगा कर सुबह नहाते थे. घर का बड़ा सा हौज...काली वाली बिल्ली जिसे सिम्मी अपने हिस्से का दूध पिला देती थी. बाहर के दरवाजे का हुड़का- जिसे कोई भी बंद नहीं करता था...बडोदादा का स्कूटर...गाय सब...पुआल और चारों तरफ बहुत सारे पेड़.

छुटकी सी सिम्मी...खूब गोरी, लाल सेब से गाल और बड़े बड़ी आँखें, काली बरौनियाँ...एकदम गोलमटोल  गुड़िया सी लगती थी. उसपर मम्मी उसको जब शाम को तैयार करती थी रिबन और रंग बिरंगी क्लिप लगा कर सब उसे घुमाने के लिए मारा-मारी करते थे. मगर वो शैतान थी एकदम...सिर्फ बड़े पापा के गोदी जाती थी...बाकी सब के साथ बस हाथ पकड़ के चलती थी...अब बच्ची थोड़े है वो...पूरे ३ साल की हो गयी है. अभी बर्थडे पर कितनी सुन्दर परी वाला ड्रेस पहना था उसने. बड़े पापा उसको ले जा के स्टूडियो में फोटो भी खिंचवाए थे.

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दुमका से पटना, दिल्ली और फिर शिकागो...एकदम होशियार सिम्मी खूब पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गयी...रिसर्च के लिए विदेश आये उसे कुछ डेढ़ साल हुआ है. सोचती है अब डिग्री लेकर घर जायेगी एक बार दुमका का भी जरुर प्रोग्राम बनाएगी. हर बार वक्त इतना कम मिलता है कि बड़े पापा से मिलना बस खास शादी त्यौहार पर भी हो पाया है. घर से पार्क के रास्ते में अब भी जंगल है...उसने पूछा है. बड़े पापा अब रिटायर हो गए हैं और शाम को टहलने जाते हैं अपने पोते के साथ. इस बार दुमका जायेगी तो शाम को पक्का बड़े पापा के साथ पार्क जायेगी और इत्मीनान से बहुत सारी बातें करेगी. कितनी सारी कहानियां इकठ्ठी हो गयी हैं इस बार वो कहानियां सुनाएगी और कुछ और कहानियां सुनेगी भी. इस बार जब इण्डिया आना होगा तो बड़े पापा के लिए एक अच्छा सा सिल्क का कुरता ले जायेगी...मक्खन रंग का. उन्हें हल्का पीला बहुत पसंद है और उनपर कितना अच्छा लगेगा.

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उसने सुना था कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं...पर जिंदगी ऐसे दगा दे जायेगी उसने कहाँ सोचा था...जब भाई का फोन आया तो ऐसा अचानक था कि रो भी नहीं पायी...घर से दूर...एकदम अकेले. एक एक साँस गिनते हुए उसे यकीं नहीं हो रहा था कि बड़े पापा जा सकते हैं...ऐसे अचानक.

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याद के गाँव में एक पुराने घर का सांकल खटखटाती है...बड़े पापा उसे गोद में उठा कर एक चक्कर घुमा देते हैं और कहते हैं...दुआ की उम्र उतनी जितनी तुम मांगो बेटा...है न?

आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...
'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'

17 September, 2010

भारी राड़ है ई बादल

इ बादलवा नम्बरी बदमास है, कोने में नुका के बैठल रहेगा और जैसे ही कपडा लार के आयेंगे दन्न से बरसेगा जैसे केतना जो एमरजेंसी है. भोरे से बैठ के एतना चादर धोये हैं, तनी कमर सीधा करने लगे के आंख लग गया. भर दुपहर सुतले निकल गया. साम में माथा में ऐसा दर्द ऊठा के लगा के अबरी तो कपार फट जायेगा...बड़ी मुस्किल से चाय बना के पीए. तनी गो दर्द रुका तो जा के सब ठो चादर उलारे...संझा बाती देईए रहे थे कि बस...ए बादलवा का बदमासी सुरु. अब एक जान संझा दे की भाग के छत से कपड़वा उतारे.

छत पर अन्हेरा में छड़ से छेछार लग गया...चादरवा धर के सांसो नहीं लिए हैं कि बारिस ख़तम. भारी राड़ है ई बादल, ई कोई मौसम है बरसने का, ई कोई बखत है...बेर कुबेर देखे नहीं मनमर्जी सुरु हो गए...अबरी तो सेकायत लगा के मानेंगे. एकरा का लगता है कोई देखने वाला हैय्ये नहीं है का. पूरा एंगना में पिच्छड़ हो गया है, के गिरेगा इसमें पता नहीं. सब बच्चा सब एक जगह बैठ के पढ़ाई नहीं कर सकता...घर भर में भागते फिरेगा. हाथ गोड़ टूटेगा बोलते रहो कुछ बूझबे नहीं करता है.

अब लो...लालटेन में बत्ती ख़तम है, रे टुनकी भंसा से बत्ती लाओ, ऊपर वाले ताक पर है. ठीक से जाना आँगन में बहुत पिच्छड़ है, फिसलना मत. उठी रे!? बाप रे, केतना मच्छर हो गया है, एक मिनट चैन से नहीं बैठने देता है तब से भमोर रहा है. ई गर्मी के मौसम में मच्छर होने का है बरसात में तो बाप रे! उठा के ले जाएगा. कछुआ बारो रे कोई.

(गाँव के कच्ची पक्की यादों में से मेरे, दीदी, दादी, चाची और बहुत से लोगों के बीच का होता एकालाप जो मेरी भाषा में मुझे ऐसे ही याद रह पाता है)

वो कौन सा मौसम है जब तुम याद नहीं आती हो मम्मी.

24 August, 2010

मेहंदी का रंग

सावन में सैयां के लिए और भादों में भैय्या के लिए मेहंदी लगानी चाहिए...इससे प्यार बढ़ता है. 

ऑफिस और घर की कवायद के बीच एक बहन कहाँ तक बची रह पाती है मालूम नहीं...वो भी तब जब तबीयत ऐसी ख़राब हो कि गाड़ी चलाना मुमकिन ना हो...किसी महानगर में जहाँ कुछ भी पैदल जाने की दूरी पर ना मिले...वो भी ऐसी जगह जहाँ पर राखी दुकानों में हफ्ते भर पहले ही आ पाती है.

पूरा बाज़ार घूमना, छोटे भाई का हाथ पकडे हुए...एक राखी ढूँढने के लिए...जो सबसे अलग हो, सबसे सुन्दर हो और जो भाई की कलाई पर अच्छी लगे...घर पर रेशम के धागों और फेविकोल का ढेर जमा करना साल भर...कि राखी पर अपने हाथ से बना कर राखी पहनाउन्गी..ऐसी राखी तो किसी के कलाई पर नहीं मिलेगी ना.

मेहंदी को बारीक़ कपडे से दो बार छानना...फिर पानी में भिगो कर दो तीन घंटे रखना...साड़ी फाल की पन्नी से कुप्प्पी बनाना...रात को पहले मम्मी को को मेहंदी लगाना...मेहंदी पर नीबू चीनी का घोल लगाना और पूरे बेड पर अखबार डाल के सोना...अगली सुबह देखना कि मेहंदी का रंग कितना गहरा आया है...जितना गहरा मेहंदी का रंग, उतना गहरा भाई का प्यार...सुबह उठ के नहा के तैयार हो जाना..राखी में हर बार नए कपडे मिलते थे...राखी बाँध कर झगडा करना, पूरे घर में छोटे भाई को पैसे लेने के लिए दौड़ाना...

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वो आसमान की तरफ देख रही है...भीगी आँखें, सोच रही है, पूछ रही है अगर कहीं कोई भगवान है तो...उलाहना...कोई मुझे प्यार नहीं करता...बहुत साल पहले...ऐसा ही उलाहना, जन्मदिन पर किसी ने चोकलेट नहीं दिया था तो...छोटा भाई पैदल एक किलोमीटर जा के ले के आता है...उस वक़्त वो अकेले जाता भी नहीं था कहीं.

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इस साल मेहंदी का रंग बहुत फीका आया है...नमक पानी रंग आने के लिए अच्छा होता भी नहीं है...रात डूबती जा रही है और मैं सोच रही हूँ कि अकेलापन कितना तकलीफदेह होता है...गहरे निर्वात में पलकें मुंद जाती हैं...जख्म को भी चुभना आ गया है...ये लगातार दूसरा साल है जब मेरी राखी नहीं पहुंची है...राखी के धागों में बहुत शक्ति होती है, वो भाई की हर तकलीफ से रक्षा करती है.
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नींद के एक ना लौटने वाले रास्ते पर...एक ही ख्याल...मेहंदी का रंग इस साल बहुत फीका आया है.

07 June, 2010

भाई के नाम

मेरा भाई उम्र में मुझसे तीन साल छोटा है. बचपन हमारा भी बाकी बच्चों की तरह मार पीट में गुजरा. पर जैसे जैसे हम थोड़े बड़े हुए, मैंने देखा कि उसमें मुझसे कहीं ज्यादा समझदारी है. किसी चीज़ में अगर दोनों जिद्द करते तो मम्मी उसको ही मान जाने बोलती, और वो मान भी जाता. आज मुझे कई बार दुःख होता रहता है कि बचपन में मैंने उसे कुछ क्यों नहीं दिया. यहाँ तक कि बड़े होने के बाद भी उसके लिए कुछ खास नहीं किया है मैंने...इन फैक्ट कुछ भी नहीं किया है मैंने.

पर उसके हर बड़प्पन के बावजूद वो है तो मेरा छोटा भाई ही. जब पटना से दिल्ली आई तो पहली बार उससे इतने दिनों तक दूर रहना पड़ा था, उसकी बड़ी याद आती थी. सारे झगड़े, सारी बातें याद आती थीं...बड़ा मन करता था कि वो आये और हम फिर से खूब सारी बातें कर सकें...और इस बार मैं उससे बिलकुल झगडा नहीं करती. मेरे जन्मदिन पर हर साल वो याद से डेरी मिल्क खरीद के ले आता था...कई बार तो लगता था वो मेरा बड़ा भाई है. 

जिंदगी अचानक से नए रास्तों पर ले आई और उससे मैं दूर होती चली गयी. अब फुर्सत वाली रातें नहीं आती जब मैं उससे कभी चिढाने की तो कभी बदमाशी पर डांटने की बातें कर सकूँ. मेरा भाई मेरी तरह बिलकुल नहीं है, बहुत कम बोलता है वो...अपनी भावनाएं कभी बांटता नहीं है. माँ के जाने के बाद वो बोला था, और है ही कौन मेरा. पर मैं उसके साथ नहीं खड़ी हो सकी, उसकी खुशियाँ उसके ग़मों में शरीक नहीं हो सकी. हालात कितने अजीब हो जाते हैं बड़े होने के बाद. बचपन कितना अनकोम्प्लिकेटेड होता है. 

उससे मैंने हमेशा पाया ही है. TCS में इंजीनियर बन गया है वो, अपनी पहली सैलरी से उसने मेरे लिए घडी खरीद के भेजी है, titan रागा, बहुत खूबसूरत है. आज ही कुरियर आया हमको. मेरा छोटा भाई कब इतना बड़ा हो गया पता ही नहीं चला. तब से पलकें भीगी ही हैं...आज भी मेरे पास उसको देने के लिए कुछ नहीं है. बस ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद. 

09 May, 2010

मिस यू माँ

दर्द में डूबे डूबे से कुछ लम्हे हैं. अख़बारों पर बिखरी पड़ी मदर्स डे की अनगिन बधाईयाँ हैं...मुस्कुराती हुयी माँ बेटी की तसवीरें देख रही हूँ सुबह से. एक उम्र के बाद हर बेटी अपनी माँ का अक्स हो जाती है. मैंने भी पहले कभी नोटिस नहीं किया था, घर पर सब हमेशा कहते थे की मेरी शकल एकदम पापा जैसी है.

गुजरते वक़्त के साथ आज जब मम्मी मेरे साथ नहीं है, मैं देखती हूँ की वाकई मैं धीरे धीरे अपनी मम्मी का चेहरा होती जा रही हूँ. किन्ही तस्वीरों में, या कभी आईने में खुद को देखती हूँ तो मम्मी दिख जाती है. कभी हंसती हूँ तो लगता है मम्मी भी ऐसे ही हंसती थी. कभी अपनी बातों में अचानक से उसके ख्यालों को पाती हूँ. जा कर भी मम्मी कहीं नहीं गयी है, वो मेरे जैसी थी मैं उसके जैसी हूँ.

मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, एक ऐसी दोस्त जिससे बहुत झगडे होते थे मेरे...पर उससे बात किये बिना मेरा दिन कभी पूरा नहीं होता था. कॉलेज से आती थी तो मम्मी से बात करने की इतनी हड़बड़ी रहती थी की खाना नहीं खाना चाहती थी, जब तक उसको दिन भर की कमेंट्री नहीं दे दूं खाना नहीं खाती, ऐसे में मम्मी मेरे पीछे पीछे प्लेट ले के घूमती रहती थी और कौर कौर खिलाती रहती थी. दिल्ली आके भी मम्मी कभी बहुत दिन दूर नहीं रही मुझसे, हर कुछ दिन में अकेले ट्रेन का टिकट कटा के मिलने चली आती थी. और जब वो नहीं रहती थी तो फ़ोन पर दिन भर की कहानी सुना देती थी उसको.

मुझे अपनी मम्मी के जैसा कुछ नहीं आता, ना वैसा खाना बनाना, ना वैसे स्टाइल से बाल बांधना, ना वैसे सिलाई, कढाई, बुनाई...ना बातें...ना उसके जैसा परिवार को एक जैसा समेट के रखना. मैं अपनी मम्मी की परछाई भी नहीं हो पायी हूँ. और सोचती हूँ की अब वो नहीं है हमको सब सिखाने के लिए तो और दुःख होता है. ऐसा कितना कुछ था जो खाली उसको आता था, मैंने किसी और को नहीं देखा करते हुए. उसकी खुद की खोज...वो सब मैं कैसे सीखूं. मैं मम्मी जैसी समझदार और intelligent कैसे हो जाऊं समझ नहीं आता.

किसी भी समस्या में फंसने पर मम्मी के पास हमेशा कोई ना कोई उपाय रहता था, उसकी बातों से कितनी राहत मिलती थी. कभी ये नहीं लगा की अकेले हैं हम. अब जब वो नहीं है तो समझ नहीं आता है की किस्से पूछूं की जिंदगी अगर अजीब लगती है तो ये वाकई ऐसी है या सिर्फ मेरे साथ ऐसा होता है.

जिंदगी में कितनी भी independent हो जाऊं, सब कुछ खुद से कर लूं, महानगर में अकेले जी लूं पर मम्मी तुम्हारी जरूरत कभी ख़तम नहीं होगी. तुम्हारे बिना जीना आज भी उतना ही मुश्किल और तकलीफदेह है.
तुम बहुत याद आती हो मम्मी.

23 April, 2010

महुआ


कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो शब्द नहीं एक पूरी कहानी होते हैं अपनेआप में, उनका अर्थ समझाया नहीं जा सकता। ऐसा ही एक शब्द है 'महुआ' बोलो तो जैसे मीठा सा स्वाद आ जाता है जुबान पर।

गुलाबी-लाल फूलों से ढका एक पेड़ झूमने लगता है पछुआ हवा बहने के साथ...उस बहती हवा में मिठास घुली रहती है, ऐसी मिठास जैसे रसिया बनाते वक़्त मिट्ठी की हड़िया से आती है...ये मिठास जैसे रोम रोम से फूट पड़ती है, पेड़ के नीचे की मिट्टी, लाल धूसर और फूलों की कुछ दहकती पंखुडियां...डूबता सूरज लाल होता हुआ।

इस मिठास में नशा होता है, जैसे सब कुछ नृत्य करने लगा हो...दूर कोई संथाली में गीत गाने लगता है...गीत के बोल समझ नहीं आते, पर भाव समझ आता है। बांसुरी की आवाज घुँघरू के साथ बजने लगती है। लगता है कोई जन्मों का बिछड़ा प्रियतम बुला रहा हो, किसी झील के पार से। घर के पास के पोखर में चाँद घोलटनिया मारने लगता है, महुआ को छू कर आती पछुआ नीम के पेड़ों से उचक कर उस तक भी पहुँच गयी है।

फुआ का घर अभी बन ही रहा है, हम लोग छत का ढलैया देखने आये हैं। मैं बालू में अपने भाई के साथ घरोंदा बना रही हूँ, वो बहुत छोटा है लेकिन अपने छोटे छोटे हाथों में जितना हो सके बालू ला के दे रहा है मुझे। मम्मी हम दोनों को एका एकी कौर कौर खिला रही है। महुआ की रोटी, मीठी होती है।

आसमान बहुत साफ़ है, उसमें खूब सारे तारे हैं ...मेरी आँखें ठीक हैं, मुझे बिना चश्मा के भी आसमान पूरा दिखता है, हम उसमें सप्त ऋषि ढूंढते हैं। घर चलने का वक़्त हो गया है। मैं सड़क पर एक हाथ में जिमी का हाथ और एक हाथ में रोटी लिए चल रही हूँ...मीठी मीठी महक आ रही है महुआ की।

15 February, 2010

बदमाश वाले भूत और हनुमान जी

ये उस समय की बात है तब करीबन पाँच साल की उम्र रही होगी, घर से कुछ दूर पर बाँस के पेड़ों का झुरमुट था, शाम या रात गए हवा चलने पर ऐसी भुतहा आवाज उठती थी किया बतायें। उस कच्चे बचपन में हनुमान चालीसा का महत्त्व अपनी माँ से सुना होगा ऐसा मेरा अंदाजा है। क्योंकि बहुत याद करने पर भी मुझे ये याद नहीं आता की कब जाना की हनुमान चालीसा पढने से भूत नहीं आते।
अगर शब्दों की समझ होने के बाद जानती तो शायद समझ के जानती की "भूत पिसाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे" का मतलब ही हुआ की भूत वगैरह पास नहीं आयेंगे। साल बीते ठीक उस बाँस के झुरमुट के नीचे हनुमान जी का मंदिर भी बन गया...पर हमको उस मंदिर की मूर्ति से ज्यादा अपने चालीसा पर विश्वास था...तो रात के समय वहां से गुजरना होता था तो साक्षात् हनुमान जी का कोई आसरा नहीं होने पर हम मूर्ति से काम नहीं चलते थे...अपना हनुमान चालीसा पढ़ते जाते थे। अरे हाँ, ये तो बताना ही भूल गए की हमें चालीसा भी इसी लाइन तक याद थी, तो कभी कभार डर भी लगता था की कहीं हनुमान जी बीच में ही अटक गए तो...इस डर का कारण एक चुटकुला था...वो ये रहा, वैसे तो हमको चुटकुले कभी याद नहीं रहते पर ये है...

एक भक्त था उसको भगवान पर बहुत भरोसा था, एक बार उसको रास्ते में डाकू सब पकड़ लिया, वो डर गया और भगवान से हाथ जोड़ के प्रार्थना करने लगा बचाने के लिए, पहले उसने कहा हे भोले बाबा बचाइए, फिर थोड़ी देर में कहता है हे राम जी मेरी रक्षा कीजिये, फिर थोड़ी देर में कहता है हे हनुमान जी बचाईये...पर उसको कोई भगवान नहीं बचाने आये और उसको डाकू ने मार दिया। वो ऊपर गया तो भगवान से पूछा की हमको बचाने काहे नहीं आये...तो भगवान बोले की पहले तुमने शंकर भगवान का नाम लिया, हम शंकर भगवान बनकर आ ही रहे थे की तुम राम जी को पुकारने लगे, हम जल्दी से जाके राम का वेश धारण किये उसके बाद भी हम तुमको बचा ही लेते की तुम बोले हे हनुमान जी बचाईये...हम लगभग तुमको बचा ही लिए थे, बस पूंछ लगाने में देर हो गयी।

ये सुनके हमारी सिट्टी पिट्टी गुम थी, की भाई बड़ा रिस्क है एक साथ कई भगवान को बुला नहीं सकते हैं...तो बस हमारे देवघर में दो ही भगवान थे....एक तो अपने भोले बाबा और दुसरे हनुमान जी। इन दोनों के सहारे हमारा बचपन आराम से गुजर गया बिना किसी भूत के पकडे हुए। थोड़ा बड़े होने के बाद तो हम ऐसे निडर हुए कि भूत प्रेत हमसे डरते होंगे ऐसा समझने लगे। ऐसी हालत आराम से दिल्ली तक थी। फिर मम्मी का अचानक चले जाना...मैं आखिरी वक़्त तक उसका हाथ लिए जितने मन्त्र मुझे आते थे, गायत्री मन्त्र, महा मृत्युंजय मन्त्र, हनुमान चालीसा...सब पढ़ गयी...मगर वो नहीं रुकी।

उस दिन के बाद से हनुमान चालीसा नहीं पढ़ी मैंने...और अस्चार्यजनक रूप से डरने लगी बहुत चीज़ों से...समझ में ये नहीं आता था कि ज्यादा ख़राब क्या है...ये डर जो दिल की तहों में भीतर तक घुस कर बैठा है या हनुमान चालीसा जिसका पहला दोहा आते ही aiims का वो वार्ड याद आने लगता है। डर दोनों हालातों से लगता था।

और दुर्भाग्य से हमको ऐसा और कुछ पता नहीं था जो भूतों को भगा सके...कुणाल से भी पूछा कि यार और कोई भगवान हैं जिनसे भूत डरें तो उसने भी यही कन्फर्म किया कि भूतों का डिपार्टमेंट एक्स्क्लुसिव्ली हनुमान जी के पास है। अब हम ऐसे थेथर कि डरेंगे भी और भूत वाला पिक्चर भी देखेंगे और घबराएंगे और बिचारे को रात में जगाते रहेंगे कि डर लग रहा है...अच्छे खासे भले आदमी की नींद ख़राब।

सोचा आप लोगों से ही पूछ लें...कोई और तंतर मंतर है तो बताइए...अब ईई मत कहियेगा कि भूत उत होता ही नहीं है, बेकार सोच रही हो...आता है तो बतईये...नहीं तो हम थोड़ा बहुत हनुमान चालीसा से काम चला रहे हैं। आजकल ठीक हो गयी है हालत फिर भी...परसों पैरा नोर्मल एक्टिविटी देखने कि कोशिश की, नहीं देखी ...पर हनुमान चालीसा जरूर पढ़ी...अब धीरे धीरे वार्ड का डर निकल रहा है दिमाग से। उम्मीद है जल्दी ही भूत का डर भी निकलेगा।

तब तक...
बोलो हनुमान जी की जय!

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