'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'
छोटी सी सिम्मी अपने बड़े पापा की ऊँगली पकड़े कच्ची पगडण्डी पर चल रही थी. घर से पार्क जाने का शोर्टकट था जिसमें लंबे लंबे पेड़ थे और बच्चों को ये एक बहुत बड़ा जंगल लगता था. शाम को घर के सब बच्चे पार्क जाते थे हमेशा कोई एक बड़ा सदस्य उनके साथ रहता था. सिम्मी अपनी चाल में फुदकती हुयी रुक गयी थी. कल उसका एक्जाम था और वो थोड़ी परेशान थी...पहला एक्जाम था उसका. बड़े भैय्या ने कहा था भगवान से मांगो पेपर अच्छा जायेगा...वैसे भी तुम कितनी तो तेज हो पढ़ने में. छोटी सी सिम्मी के छोटे से कपार पर चिंता की रेखाएं पड़ रही थीं...कभी कभी वो अपनी उम्र से बड़ा सवाल पूछ जाती थी. अभी उसने नया नया शब्द सीखा था 'दुआ'.
बड़े पापा उसको दोनों हाथों से उठा कर गोल घुमा दिए...और फिर एकदम गंभीरता से गोद में लेकर समझाने लगे जैसे कि उसको सब बात अच्छे से समझ आएगी. 'बेटा दुआ की उम्र उतनी होती है जितनी आप मांगो...कभी कभी एक लम्हा और कभी कभी तो पूरी जिंदगी'. सिम्मी को बड़ा अच्छा लगता था जब बड़े पापा उससे 'आप' करके बात करते थे...उसे लगता था वो एकदम जल्दी जल्दी बड़ी हो गयी है.
'तो बड़े पापा आप हमेशा इस जंगल में मेरे साथ आयेंगे...हमको अकेले आने में डर लगता है. पर आप नहीं आयेंगे तो हम पार्क भी नहीं जा पायेंगे.'
'हाँ बेटा हम हमेशा आपके साथ आयेंगे'
'हर शाम!'
'हाँ, हर शाम'
उसके बाद उनका रोज का वादा था...शाम को सिम्मी के साथ पार्क जाना...उसको कहानियां सुनाना...बाकी बच्चों के साथ फुटबाल खेलने के लिए भेजना. सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे.
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उस दुआ की उम्र कितनी थी?
नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं. बिहार के उस छोटे से शहर दुमका में उसकी जिंदगी, उसकी दुनिया बस थोड़े से लोग थे...पर सिम्मी की आँखों से देखा जाता तो उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी...और ढेर सारी खुशियों से भरी भी. जैसे पार्क का वो झूला...ससरुआ...कुछ लोहे के ऊँचे खम्बे और सीढियां जिनसे सब कुछ बेहद छोटा दिखता था. घर से सौ मीटर पर का चापाकल...जिसमें सब बच्चे लाइन लगा कर सुबह नहाते थे. घर का बड़ा सा हौज...काली वाली बिल्ली जिसे सिम्मी अपने हिस्से का दूध पिला देती थी. बाहर के दरवाजे का हुड़का- जिसे कोई भी बंद नहीं करता था...बडोदादा का स्कूटर...गाय सब...पुआल और चारों तरफ बहुत सारे पेड़.
छुटकी सी सिम्मी...खूब गोरी, लाल सेब से गाल और बड़े बड़ी आँखें, काली बरौनियाँ...एकदम गोलमटोल गुड़िया सी लगती थी. उसपर मम्मी उसको जब शाम को तैयार करती थी रिबन और रंग बिरंगी क्लिप लगा कर सब उसे घुमाने के लिए मारा-मारी करते थे. मगर वो शैतान थी एकदम...सिर्फ बड़े पापा के गोदी जाती थी...बाकी सब के साथ बस हाथ पकड़ के चलती थी...अब बच्ची थोड़े है वो...पूरे ३ साल की हो गयी है. अभी बर्थडे पर कितनी सुन्दर परी वाला ड्रेस पहना था उसने. बड़े पापा उसको ले जा के स्टूडियो में फोटो भी खिंचवाए थे.
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दुमका से पटना, दिल्ली और फिर शिकागो...एकदम होशियार सिम्मी खूब पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गयी...रिसर्च के लिए विदेश आये उसे कुछ डेढ़ साल हुआ है. सोचती है अब डिग्री लेकर घर जायेगी एक बार दुमका का भी जरुर प्रोग्राम बनाएगी. हर बार वक्त इतना कम मिलता है कि बड़े पापा से मिलना बस खास शादी त्यौहार पर भी हो पाया है. घर से पार्क के रास्ते में अब भी जंगल है...उसने पूछा है. बड़े पापा अब रिटायर हो गए हैं और शाम को टहलने जाते हैं अपने पोते के साथ. इस बार दुमका जायेगी तो शाम को पक्का बड़े पापा के साथ पार्क जायेगी और इत्मीनान से बहुत सारी बातें करेगी. कितनी सारी कहानियां इकठ्ठी हो गयी हैं इस बार वो कहानियां सुनाएगी और कुछ और कहानियां सुनेगी भी. इस बार जब इण्डिया आना होगा तो बड़े पापा के लिए एक अच्छा सा सिल्क का कुरता ले जायेगी...मक्खन रंग का. उन्हें हल्का पीला बहुत पसंद है और उनपर कितना अच्छा लगेगा.
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उसने सुना था कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं...पर जिंदगी ऐसे दगा दे जायेगी उसने कहाँ सोचा था...जब भाई का फोन आया तो ऐसा अचानक था कि रो भी नहीं पायी...घर से दूर...एकदम अकेले. एक एक साँस गिनते हुए उसे यकीं नहीं हो रहा था कि बड़े पापा जा सकते हैं...ऐसे अचानक.
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याद के गाँव में एक पुराने घर का सांकल खटखटाती है...बड़े पापा उसे गोद में उठा कर एक चक्कर घुमा देते हैं और कहते हैं...दुआ की उम्र उतनी जितनी तुम मांगो बेटा...है न?
आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...
'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'
दुआओं की उम्र, यादों की उम्र तब होतीं जब समय उनको बाँध सकता। शरीर पर समय की जकड़न से मु्क्त हैं यादें और दुआयें।
ReplyDeleteशायद दुआओं से लंबी.
ReplyDeleteभावुक,मार्मिक व हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
आदर्श व्यवस्था के आकांक्षियों द्वारा सुव्यवस्था पर विचार विमर्श के लिए प्रारंभ किया गया पहला विषय आधारित मंच , हम आप के सहयोग और मार्गदर्शन के आकांक्षी हैं |
ReplyDeleteसुव्यवस्था सूत्रधार मंच
http://www.adarsh-vyavastha-shodh.com/"
अपरिमित | जब तक दुआ करने वाले की, और याद करने वाले की उम्र है - तब तक तो कम से कम है ही ....
ReplyDeleteउफ़्………………मौन कर दिया।
ReplyDeleteआँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...
ReplyDelete'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'
बहुत खूब सुश्रीपूजा जी,बढ़िया लेखन,सुंदर अभिव्यक्ति..!!
बधाई है।
http://mktvfilms.blogspot.com
humesha ki tarah bahut achcha.
ReplyDeleteचलो लड़की कम से कम इस लायक तो है कि उम्र के साथ सवाल बदल जाते हैं. घर को इतने सुन्दरता से अपने मन में इसने संजोया है कि बड़े पापा को ख़ुशी ही होनी है.
ReplyDeleteसवाल जब बदला तो मन भी बदल गया... अब निर्भर तो उसी पर करता है जो अब अकेली है. याद कि उम्र अब उसी पर निर्भर करती है.
दिल को छू लेने वाली रचना....
ReplyDeleteबहुत से भारतीयों की आप बीती....
जो अपनों के गुजार जाने पर भी न आ सके....
कुछ समय हुआ, आपकी ब्लॉग्स follow कर रहा हूँ... अकारण प्रशंसा नहीं करता, आपकी इस पोस्ट ने मुझे अपने विचार व्यक्त करने पर मजबूर कर दिया. अभिव्यक्ति की सहजता मेरी कल्पना से परे थी, और आघात इतना सशक्त की मुझे विश्वास है, ये पोस्ट पढ़कर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसके दिल में हूक न उठी हो...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. बहुत-बहुत धन्यवाद...
कभी मौका मिले तो निदा फाज़ली की नज़्म वालिद पढ़िएगा... कुछ ऐसी ही अभिव्यक्ति है... कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ
"तुम्हारी क़ब्र पर मैं फ़ातिहा पढने नहीं आया...
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकते...
तुम्हारे मरने की सच्ची ख़बर जिसने फैलाई थी...
वो झूठा था..."
Pradip sahi keh rahe hain... ye nazm padhna.. ruko main deta hoon...
ReplyDeleteतुम्हारी कब्र पर मैं
ReplyDeleteफ़ातहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था-तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था
वो तुम कब थे ?
कोई सूखा हुआ पत्ता
हवा में गिर के टूटा था
मेरी आंखें तुम्हारे मंजरों में कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूं, सोचता हंू वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी
कलम कागज उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी पे पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों साथ बहता है
मेरी आवाज़ में छुपकर तुम्हारा ज़हन रहता है
मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफ़न हूं
तुम मुझमें जिंदा हो
कभी फुरसत मिले तो फ़ातहा पढ़ने चले आना ।
--- Nida
शुक्रिया सागर...मैंने ये पहले भी पढ़ी है. कमाल है न...निदा की एक कविता माँ पर है...इसी तरह असर करती है. आँखें गीली कर जाती हैं हर बार.
ReplyDelete@प्रदीप जी...इस बेहतरीन कविता की याद दिलाने के लिए आभार.
उफ्फ्फ.....ज़िन्दगी का सिलेबस भी अजीब है... :(
ReplyDeleteyaar, both saagar and puja, u guys are from my state, my senior from the same institute...so stop calling me ji...good to know you guys...
ReplyDeleteand puja, thanks for reminding me this one
http://chand-lamhe-fursat-ke.blogspot.com/2011/07/maa.html
apne nishabd kar diya...kuchh kahne ko baki nahi raha...
ReplyDeletebahut dinon baad khud se baahar niklaa tha... (facebook par aapka link dikha, courtesy: Prashant bhai)... do chaar post padhe... aur ab aisa jee kar raha hai ki fir se khud me band ho jaaun.. band darwaazon ke paar thodi aur der sisak aaun...!!!
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