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07 November, 2024

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट, कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


हमारे देश में अधिकतर लोगों का वक़्त उनका ख़ुद का नहीं होता। गरीब हो कि अमीर, एक आधापापी अब तामीर में शामिल हो गई है। हम जहाँ हैं, वहाँ की जगह कहीं और होना चाहते हैं। समय की इस घनघोर क़िल्लत वाले समय में कुछ लोगों ने अपने लिए थोड़ा सा वक़्त निकाल रखा है। यह अपने लिए वाला वक़्त किसी उस चीज़ के नाम होता है जिससे दिल को थोड़ा करार आये…वो ज़रा सा ज़्यादा तेज़ भले धड़के, लेकिन आख़िर को सुकून रहे। यह किसी क़िस्म का जिम-रूटीन हो सकता है, कोई खेल हो सकता है, या कला हो सकती है।

इस कैटेगरी की सब-कैटेगरी में वो लोग जिन्होंने इस ख़ास समय में अपने लिए कला के किसी फॉर्म को रखा है। नृत्य, गायन, लेखन, पेंटिंग…इनके जीवन में कला का स्थान अलग-अलग है। कभी यह हमारी ज़रूरत होती है, कभी जीने की सुंदर वजह, कभी मन के लिये कोई चाराग़र। मेरे लिये अच्छी कला का एक पैमाना यह भी है कि जिसे देख कर, सुन कर, या पढ़ कर हमारे भीतर कुछ अच्छा क्रिएट करने की प्यास जागे। उस कथन से हम ख़ुद को जोड़ सकें। हमारे समकालीन आर्टिस्ट्स क्या बना रहे हैं, उनकी प्रोसेस कैसी है…उनके डर क्या हैं, उनकी पसंद की जगहें कौन सी हैं, वे कैसा संगीत सुनते हैं…किसी हमउम्र लेखक या पेंटर से मिलना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हमारे समय में जी रहे हैं…हमारे परिवेश में भी। हमारे कुछ साझे सरोकार होते हैं। अगर लेखन में आते कुछ ख़ास पैटर्न की बात करें तो विस्थापन, आइडेंटिटी क्राइसिस, उलझते रिश्ते…बदलता हुआ भूगोल, भाषा का अजनबीपन…बहुत कुछ बाँटने को होता है।

कहते हैं कि how your spend your days is how you spend your life. मतलब कि हमारे जीवन की इकाई एक दिन होता है…और रोज़मर्रा की घटनायें ही हमारे जीवन का अधिकतर हिस्सा होती हैं। मैं बैंगलोर में पिछले 16 साल से हूँ…और कोशिश करने के बावजूद यहाँ की भाषा - कन्नड़ा नहीं सीख पायी हूँ। हाँ, ये होता था कि इंदिरानगर के जिस घर में दस साल रही, वहाँ काम करने वाली बाई और मेरी कुक की बातें पूरी तरह समझ जाती थी। मुझे कुछ क्रियायें और कुछ संज्ञाएँ पता थी बस। जैसे ऊटा माने खाना, केलसा माने काम से जुड़ी कोई बात, बरतिरा माने आने-जाने संबंधित कुछ, कष्ट तो ख़ैर हिन्दी का ही शब्द था, निदान से…मतलब आराम से…थिर होकर करना। उनकी बातचीत अक्सर घर के माहौल को लेकर होती थी…उसके बाद अलग अलग घरों में कामवालियों की भाषा नहीं समझ पायी कभी भी। मैं शायद भाषा से ज़्यादा उन दोनों औरतों को समझती थी। उन्होंने एक बीस साल की लड़की को घर बसाने में पूरी मदद की…उसकी ख़ुशी-ग़म में शामिल रही। उनको मेरा ख़्याल था…मुझे उनका। वे मेरा घर थीं, उतना ही जितना ही घर के बाक़ी और लोग। ख़ैर… घर के अलावा बाहर जब भी निकली तो आसपास क्या बात हो रही है, कभी समझ नहीं आया…सब्ज़ी वाले की दुकान पर, किसी कैफ़े में, किसी ट्रेन या बस पर भी नहीं…कुछ साल बाद स्टारबक्स आया और मेरे आसपास सब लोग अंग्रेज़ी में सिर्फ़ स्टार्ट-अप की बातें करने लगे। ये वो दिन भी थे जब आसपास की बातों को सुनना भूल गई थी मैं और मैंने अच्छे नॉइज़ कैंसलेशन हेडफ़ोन ले लिये थे। मैं लूप में कुछ इंस्ट्रुमेंटल ही सुनती थी अक्सर। 2015 में जब तीन रोज़ इश्क़ आयी तो मैं पहली बार दिल्ली गई, एक तरह से 2008 के बाद पहली बार। वहाँ मेट्रो में चलते हुए, कहीं चाय-सिगरेट पीते, खाना खाते हुए मैं अपने आसपास होती हुई बातों का हिस्सा थी। ये दिल्ली का मेरा बेहद पसंदीदा हिस्सा था। मुझे हमेशा से दिल्ली में पैदल चलना, शूट करना और कुछ से कुछ रिकॉर्ड करना भला लगता रहा है।

हिन्द-युग्म उत्सव में भोपाल गई थी। सुबह छह बजे की फ्लाइट थी, मैं एक दिन पहले पहुँच गई थी। सफ़र की रात मुझे यूँ भी कभी नींद नहीं आती। तो मेरा प्रोसेस ऐसा होता है कि रात के तीन बजे अपनी गाड़ी ड्राइव करके एयरपोर्ट गई। वहाँ पार्किंग में गाड़ी छोड़ी और प्लेन लिया। दिन भर भोपाल में दोस्तों से बात करते बीता। मैं वहाँ पर जहांनुमा पैलेस में रुकी थी, जो कि शानदार था। इवेंट की जगह पर शाम में गई, वहाँ इंतज़ाम देखा और उन लोगों के डीटेल लिए जिनसे अगले दिन इवेंट पर AI के बारे में बात करनी थी। भर रात की जगी हुई थी, तो थकान लग रही थी। रात लगभग 7-8 बजे जब रेस्टोरेंट गई डिनर करने के लिए तो हेडफ़ोन नहीं लिये। किंडल ले लिया, कि कुछ पढ़ लेंगे। कुछ सुनने का पेशेंस नहीं था। रेस्टोरेंट ओपन-एयर था। मैंने एक सूप और खाने का कुछ ऑर्डर कर दिया। मेरे आसपास तीन टेबल थे। दो मेरी टेबल के दायीं और बायीं और, और एक पीछे। इन तीनों जगह पर अलग अलग लोग थे और वे बातों में मशगूल थे। मुझे उनकी बातें सुनाई भी पड़ रही थीं और समझ भी आ रही थीं…यह एक भयंकर क्रॉसफेड था जिसकी आदत ख़त्म हो गई थी। मैं बैंगलोर में कहीं भी बैठ कर अकेले खाना खा सकती हूँ। सबसे ज़्यादा शोर-शराबे वाली जगह भी मेरे लिये सिर्फ़ व्हाइट नॉइज़ है जिसे मैं मेंटली ब्लॉक करके पढ़ना-लिखना-सोचना कुछ भी काम कर सकती थी। मैं चाह के भी किंडल पढ़ नहीं पायी…इसके बाद मुझे महसूस हुआ कि समझ में आने वाला कन्वर्सेशन अब मेरे लिये शोर में बदल गया है। एक शहर ने मुझे भीतर बाहर ख़ामोश कर दिया है।

बैंगलोर में मेरे पास एक bhk फ्लैट है - Utopia, जिसे मैं अपने स्टडी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। लिखना-पढ़ना-सोचना अच्छा लगता है इस स्पेस में। लेकिन शायद जो सबसे अच्छा लगता है वो है इस स्पेस में अकेले होना। ख़ुद के लिए कभी कभी खाना बनाना। अपनी पसंद के कपड़े पहनना…देर तक गर्म पानी में नहाना…स्टडी टेबल से बाहर की ओर बनते-बिगड़ते बादलों को देखना। यह तन्हाई और खामोशी मेरे वजूद का एक हिस्सा बन गई है। बहुत शोर में से मैं अक्सर यहाँ तक लौटना चाहती हूँ।

मुराकामी की किताबें मेरे घर में होती हैं। किंडल पर। और Utopia में भी। ६०० पन्ने की The wind up bird chronicles इसलिए ख़त्म कर पायी कि यह किताब हर जगह मेरे आसपास मौजूद थी। कुछ दिन पहले एक दोस्त से बात कर रही थी, कि The wind up bird chronicles कितना वीभत्स है कहीं कहीं। कि उसमें एक जगह एक व्यक्ति की खाल उतारने का दृश्य है, वह इतना सजीव है कि ज़ुबान पर खून का स्वाद आता है…उबकाई आती है…चीखें सुनाई पड़ती हैं। कि मैं उस रात खाना नहीं खा पायी। वो थोड़े अचरज से कहता है, But you like dark stuff, don’t you? दोस्त हमें ख़ुद को डिफाइन करने के लिए भी चाहिए होते हैं। मैंने एक मिनट सोचा तो ध्यान आया कि मैं सच में काफ़ी कुछ स्याह पढ़ती हूँ। कला में भी मुझे अंधेरे पसंद हैं।

दुनिया में कई कलाकार हैं। इत्तिफ़ाक़न मैं जिनके प्रेम में पड़ती हूँ, उनके जीवन में असह्य दुख की इतनी घनी छाया रहती है कि कैनवस पर पेंट किया सूरज भी उनके जीवन में एक फीकी उजास ही भर पाता है। शिकागो गई थी, तब वैन गो की बहुत सारी पेंटिंग्स देखी थीं। वह एक धूप भरा कमरा था। उसमें सूरजमुखी थे। मैं वहाँ लगभग फफक के रो देना चाहती थी कि वैन गो…तुमने कैसे बनाए इतने चटख रंगों में पेंटिंग्स जब कि तुम्हारे भीतर मृत्यु हौले कदमों से वाल्ट्ज़ कर रही थी। अकेले। कि पागलपन से जूझते हुए इतने नाज़ुक Almond Blossoms कैसे पेंट किए तुमने…कि स्टारी नाइट एक पागल धुन पर नाचती हुई रात है ना? मैं ऐसी रातें जाने कहाँ कहाँ तलाशती रहती हूँ। कि जब न्यू यॉर्क में MOMA में स्टारी नाइट देखी थी तो रात को टाइम्स स्क्वायर पर बैठी रही, रात के बारह बजे अकेले…चमकती रोशनी में ख़ुद को देखती…स्याही की बोतल भरती बूँद बूँद स्याह अकेलापन से…

यह दुनिया मुझे ज़रा कम ही समझ आती है। अधिकतर व्यक्ति जब कोई अच्छा काम कर रहे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उन्हें एक मंच मिले, उन पर स्पॉटलाइट हो…वे गर्व मिश्रित ख़ुशी से सबके सामने अपनी उपलब्धियों के लिए कोई अवार्ड लेने जायें। मंच पर उन लोगों के नाम गिनायें जिन्होंने इस रास्ते की मुश्किलें आसान कीं…जो उनके साथ उनके मुश्किल दौर में खड़े रहे। ऐसे में दुनिया का अच्छाई पर भरोसा बढ़ता है और उन्हें लगता है मेहनत करने वाले लोग देर-सवेर सफलता हासिल कर ही लेते हैं। इन दिनों जिसे hustle कहते हैं। कि ऑफिस के अलावा भी कुछ और साथ-साथ कर रहे हैं। कि उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखने की क़वायद जारी रखी है।

मुझे अपने हिसाब का जीवन मिले तो उसमें रातें हों…कहीं चाँद-तारे की टिमटिम रौशनी और उसमें हम अपनी कहानी सुना सकें। अंधेरा और रौशनी ऐसा हो कि समझ न आए कि जो सच की कहानी है और जो झूठ की कहानी है। कि किताब के किरदारों के बारे में लोग खोज-खोज के पूछते हैं कि कहाँ मिला था और मेरे सच के जीवन के नीरस होने को झूठ समझें। कि सच लिखने में क्या मज़ा है…सोचो, किसी का जीवन कहानी जितना इंट्रेस्टिंग होता तो वो आत्मकथा लिखता, उपन्यास थोड़े ही न।

मैं विरोधाभासों की बनी हूँ। एक तरफ़ मुझे धूप बहुत पसंद है और दूसरी तरफ़ मैं रात में एकदम ऐक्टिव हो जाती हूँ - निशाचर एकदम। घर में खूब सी धूप चाहिए। कमरे से आसमान न दिखने पर मैं अवसाद की ओर बढ़ने लगती हूँ। और वहीं देर रात शहर घूमना। अंधेरे में टिमटिमाती किसी की आँखें देखना। देर रात गाड़ी चलाना। यहाँ वहाँ भटकते किरदारों से मिलना…यह सब मुझे ज़िंदा रखता है।

एक सुंदर कलाकृति हमें कुछ सुंदर रचने को उकसाती है। हमारे भीतर के स्याह को होने का स्पेस देती है। हमें इन्स्पायर करती है। किसी के शब्द हमारे लिए एक जादू रचते हैं। कोई छूटा हुआ प्रेम हमारे कहानी की संभावनायें रचता है। हम जो जरा-जरा दुखते से जी रहे होते हैं…किसी पेंटिंग के सामने खड़े हो कर कहते हैं, प्यारे वैन गो…टाइट हग्स। तुम जहाँ भी रंगों में घूम रहे हो। प्यारे मोने, क्या स्वर्ग में तुम ठीक-ठीक पकड़ पाये आँखों से दूर छिटकती रौशनी को कभी?

मेरी दुनिया अचरज की दुनिया है। मैं इंतज़ार के महीन धागे से बँधी उसके इर्द गिर्द दुनिया में घूमती हूँ। जाने किस जन्म का बंधन है…उसकी एक धुंधली सी तस्वीर थी। खुली हुई हथेली में जाने एक कप चाय की दरकार थी या माँगी हुई सिगरेट की…बदन पर खिलता सफ़ेद रंग था या कोरा काग़ज़…

जाने उसके दिल पर लिखा था किस-किस का नाम…जाने कितनी मुहब्बत उसके हिस्से आनी थी…
मेरे हिस्से सिर्फ़ एक सवाल आया था…उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी? 

जलता हुआ दिल सिगरेट के धुएँ जैसा महकता है। भगवान ही जानता है कि कितनी पागल रातें आइस्ड वाटर पिया है। बर्फ़ीला पानी दिल को बुझाता नहीं। नशा होता है। नीट मुहब्बत का नशा। कि हम नालायक लोग हैं। बोतल से व्हिस्की पीने वाले। इश्क़ हुआ तो चाँद रात में संगमरमर के फ़र्श पर तड़पने वाले। आत्मा को कात लेते किसी धागे की तरह और रचते चारागार जुलाहों का गाँव कि जहाँ लोग टूटे हुए दिल की तुरपाई करने का हुनर जानते। कि हमारे लिये जो लोग ईश्वर ने बनाये हैं, वे रहते हैं कई कई किलोमीटर दूर…कि उनके शहर से हमारे शहर तक कुछ भी डायरेक्ट नहीं आता…न ट्रेन, न प्लेन, न सड़क…हर कुछ के रास्ते में दुनियादारी है…

हम थक के मुहब्बत के उसी ईश्वर से दरखास्त करते, कि दिल से घटा दे थोड़ी सी मुहब्बत…कि इतने इंतज़ार से मर सकते हैं हम। कि कच्ची कविताओं की उम्र चली गई। अब ठहरी हुई चुप्पियों में जी लें बची हुई उम्र।

लेकिन दिल ज़िद्दी है। आख़िर, किसी लेखक का दिल है, इस बेवक़ूफ़ को लगता है, हम सब कुछ लिख कर ख़त्म कर देंगे। लेकिन असल में, लिखने से ही सब कुछ शुरू होता है।


***
कलाई पर प्यास का इत्र रगड़ता है
बिलौरी आँखों वाला ब्रेसलेट
इसके मनके उसकी हथेलियों की तरह ठंढे हैं।

***
इक जादुई तकनीक से कॉपी हो गये
महबूब के हाथ
वे हुबहू रिप्लीकेट कर सकते थे उसका स्पर्श
उसकी हथेली की गर्माहट, कसावट और थरथराहट भी

प्रेमियों ने लेकिन फेंक दिया उन हाथों को ख़ुद से बहुत दूर
कि उस छुअन से आती थी बेवफ़ाई की गंध।

***

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट
कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


29 July, 2019

इंतज़ार की कूची वाला जादूगर

इक उसी जादूगर के पास है, इंतज़ार का रंग। उसके पास हुनर है कि जिसे चाहे, उसे अपनी कूची से छू कर रंग दे इंतज़ार रंग में। शाम, शहर, मौसम… या कि लड़की का दिल ही।

एकदम पक्का होता है इंतज़ार का रंग। बारिश से नहीं धुलता, आँसुओं से भी नहीं। गाँव के बड़े बूढ़े कहते हैं कि बहुत दूर देश में एक विस्मृति की नदी बहती है। उसके घाट पर लगातार सोलह चाँद रात जा कर डुबकियाँ लगाने से थोड़ा सा फीका पड़ता है इंतज़ार का रंग। लेकिन ये इस पर भी निर्भर करता है कि जादूगर की कूची का रंग कितना गहरा था उस वक़्त। अगर इंतज़ार का रंग गहरा है तो कभी कभी दिन, महीने, साल बीत जाते है। चाँद, नदी और आह से घुली मिली रातों के लेकिन इंतज़ार का रंग फीका नहीं पड़ता।
एक दूसरी किमवदंति ये है कि दुनिया के आख़िर छोर पर भरम का समंदर है। वहाँ का रास्ता इतना मुश्किल है और बीच के शहरों में इतनी बरसातें कि जाते जाते लगभग सारे रंग धुल जाते हैं बदन से। प्रेम, उलाहना, विरह…सब, बस आत्मा के भीतरतम हिस्से में बचा रह जाता है इंतज़ार का रंग। भरम के समंदर का खारा पानी सबको बर्दाश्त नहीं होता। लोगों के पागल हो जाने के क़िस्से भी कई हैं। कुछ लोग उल्टियाँ करते करते मर जाते हैं। कुछ लोग समंदर में डूब कर जान दे देते हैं। लेकिन जो सख़्तज़ान पचा जाते हैं भरम के खारे पानी को, उनके इंतज़ार पर भरम के पानी का नमक चढ़ जाता है। वे फिर इंतज़ार भूल जाते हैं। लेकिन इसके साथ वे इश्क़ करना भी भूल जाते हैं। फिर किसी जादूगर का जादू उन पर नहीं चलता। किसी लड़की का जादू भी नहीं। 

तुमने कभी जादूगर की बनायी तस्वीरें देखी हैं? वे तिलिस्म होती हैं जिनमें जा के लौटना नहीं होता। कोई आधा खुला दरवाज़ा। पेड़ की टहनियों में उलझा चाँद। पाल वाली नाव। बारिश। उसके सारे रंग जादू के हैं। तुमसे मिले कभी तो कहना, तुम्हारी कलाई पर एक सतरंगी तितली बना दे… फिर तुम दुनिया में कहीं भी हो, जब चाहो लौट कर अपने महबूब तक आ सकोगे। हाँ लेकिन याद रखना, तितलियों की उम्र बहुत कम होती है। कभी कभी इश्क़ से भी कम। 

अधूरेपन से डर न लगे, तब ही मिलना उससे। कि उसके पास तुम्हारा आधा हिस्सा रह जाएगा, हमेशा के लिए। उसके रंग लोगों को घुला कर बनते हैं। आधे से तुम रहोगे, आधा सा ही इश्क़। लेकिन ख़ूबसूरत। चमकीले रंगों वाला। ऐब्सलूट प्योर। शुद्ध। ऐसा जिसमें अफ़सोस का ज़रा भी पानी न मिला हो। 

हाँ, मिलोगे इक उलाहना दे देना, उसे मेरी शामों को इतने गहरे रंग के इंतज़ार से रंगने की ज़रूरत नहीं थी।

15 May, 2019

ख़्वाब गली

सपने ठीक ठीक किस चीज़ के बने होते हैं, मालूम नहीं। हमें जो चाहिए होता है...इस दुनिया में बिखरी जो तमाम ख़्वाहिशें हैं... मेरी नहीं, किसी और की, किसी और वक़्त में किसी की माँगी हुयी कोई दुआ...सच की... कि हम जो महसूसना चाहते हैं, भले ही वो हमारी ज़िंदगी में कभी न घटे लेकिन वैसा होने से हम कैसा महसूसते, ये हमें सपने में दिख जाता है। एक थ्योरी तो यह भी कहती है कि अगर आपने सपने में किसी को देखा है तो इसका मतलब वो व्यक्ति आपको याद कर रहा था, बेतरह।

जानां। आज पूरी रात कई सारे सपनों में बीती। हर सपना टूटने के बाद दूसरा शुरू हो जाता था। इन सारे सपनों में बस तुम ही कॉमन रहे। क्यूँ देखा तुम्हें पूरी रात मालूम नहीं। सुबह को दो सपने याद हैं।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो खाना बना रही है और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर बरामदे से भीतर आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो बड़े से पतीले पर चढ़ा भात देख रही है...जो कि खदबद कर रहा है...और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर से आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

बस से हम ठीक अपने देवघर वाले घर के सामने उतरे हैं। मैं और तुम, घर के बाक़ी लोग आगे चले गए हैं। मेरे तुम्हारे, दोनों के घर वाले। मेरे घर के पहले तल्ले पर जाने के लिए पीछे का छोटा वाला दरवाज़ा है और वहाँ तक जाने वाली छोटी सी गली है... सामने से पड़ोसी और उसके साथ एक और लड़का आता हुआ दिख रहा है। मैं गली की दूसरी साइड चली गयी हूँ ... वैसे तो हमारी बात नहीं होती, लेकिन कोई दूसरा लड़का है उनके साथ और मैं नहीं चाहती वो मुझे टोके।

लोहे का गेट खोल कर हम अंदर घुसते हैं और फिर लकड़ी वाला दरवाज़ा मैं चाबी से खोलती हूँ... इतनी देर में तुमने जूते उतार के बाहर रख दिए हैं। तुम जब अंदर आते तो तो मैं देखती हूँ, जूते बाहर हैं। मैं उन्हें उठा लेती हूँ... कि हमारे यहाँ कोई बाहर नहीं खोलता जूते। लेदर के पुराने ओल्ड फ़ैशन जूते... मेरे पापा पहनते हैं ऐसे ही...बाटा वाले। मैं आगे बढ़ती हूँ, तुम्हें चाबी दी है...दरवाज़ा लॉक करने के लिए। सीढ़ियों से ऊपर चढ़े हैं। दायीं तरफ़ पहला कमरा मेरा है। मेरी स्कूल की किताबें लगी हुयी हैं। लंच बॉक्स और पेंसिल बॉक्स रखा हुआ है। खिड़की के पास मेरा सिंगल बेड है। तकिए के पास कुछ किताबें पसरी हुयी हैं... एक आधी नोट्बुक और पेन पेंसिल भी।

तुम्हें पीठ में दर्द हो रहा है। दाएँ कंधे के थोड़े नीचे। शायद बस में चोट लगी थी या ऐसा ही कुछ। मैं कहती हूँ कि विक्स लगा देती हूँ। तुम कहते हो कि कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ा सा दर्द है... ऐसे ही ठीक हो जाएगा। मैं ज़िद करती हूँ कि थोड़ा सा लगा के पीठ दबा ही दूँगी तो दिक्कत क्या है... ऐसे दर्द में रहने की क्या ज़रूरत है। तुम अपनी शर्ट के बटन खोलते हो और आधी शर्ट उतार कर बेड पर लेट जाते हो... मैं विक्स लगा रही हूँ... मेरी हथेली गर्म लग रही है... तुम्हें शायद चोट लगी है कि वहाँ कत्थई निशान है, लगभग मेरी हथेली जितना। मैं हल्के हल्के विक्स लगाती सोच रही हूँ... मैंने पहले कभी इतने intimately तुम्हें छुआ नहीं है। कभी कभी सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा है और सिर्फ़ एक बार तुम्हारे बाल ठीक किए हैं। मैं पहली बार जान रही हूँ तुम्हें छूना कैसा है। तुम्हारा कंधा साँवला है और त्वचा एकदम चिकनी जिसमें थोड़ी सी चमक है। मुझे नेरुदा याद आते हैं... the moon lives in the lining of your skin...क्या गोरखधंधा हो तुम खुदा जाने...

तुम उठ कर बैठते हो...शर्ट के बटन लगा रहे हो...काली चेक शर्ट है... कॉटन की... मैं पहली बार तुमसे मिली थी तो तुमने यही शर्ट पहनी हुयी थी। खिड़की वाली दीवार पर टेक लगा कर बैठते हो... मैं तुम्हारी लेफ़्ट ओर बैठी हूँ तुम मुझे गले लगाते हो... मैं तुम्हारे सीने पर सर रख कर बैठी हूँ... तुमने बाँहों में घेर कर माथे पर हथेली रखी हुयी है...और हल्के से मेरा सर थपथपा रहे हो...बाल सहला रहे हो...

मैं आँख बंद करती हूँ कि जान जाती हूँ ये सपना है और सब कुछ एक हूक की तरह सीने में हौल करता है... तुम मुझे चूमते हो... सपने और जाग के बीच बने बारीक पुल पर...

मैं जागती हूँ तो मेरी हथेलियों में इक गर्माहट की याद है। पहली चीज़ मन किया कि तुमसे पूछ लूँ, तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी है... फिर अमृता प्रीतम याद आती हैं... जब वे साहिर के सीने पर विक्स लगा रही होती हैं। फिर मैं भूल जाती हूँ दोनों को। मुझे तुम्हारी बेइंतहा याद आयी है। रुला देने वाली। कि वाक़ई होना चाहिए इस दुनिया में ऐसा कि किसी को ऐसे याद करने के बजाए, हम जा सकें उससे मिलने। फ़्लाइट पकड़ कर उतर सकें उसके शहर। मिल सकें, पी सकें एक कॉफ़ी...कह सकें, इस याद से तो मर जाना बेहतर था।

ऐसी किसी सुबह लगता है कि शायद तुमने भी मुझे याद किया हो... इतना नहीं, थोड़ा कम सही।

लव यू।

25 April, 2019

मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे

इन दिनों किंडल ऐप डाउनलोड कर लिया है और उसपर एक किताब गाहे बगाहे पढ़ती रहती हूँ। उसमें एक दूसरी किताब की बात है जो कि एक उपन्यास के बारे में। इस उपन्यास का नाम है lost city radio, एक रेडीओ प्रेज़ेंटर है जो युद्ध के बाद रेडीओ स्टेशन में काम करती है और सरकार के हिसाब से ख़बरें पढ़ती है… लेकिन उसका एक कार्यक्रम है जिसमें वो खोए हुए लोगों के नाम और उसके बारे में और जानकारियाँ देती है। युद्ध के बाद खोए हुए अनेक लोग हैं। पूरे देश में उसका प्रोग्राम सबसे ज़्यादा लोग सुनते हैं…उसका चेहरा कभी मीडिया के सामने उजागर नहीं किया जाता।

मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।

बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।

कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…

मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं। 

17 February, 2019

नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का

उन्हें मालूम भी नहीं होता। बेपरवाही में गुज़रते हैं शहर से... एक दूसरे के सामने से भी। अपने में खोए हुए। उनके पीछे हो रही बारिश सिहरती है... उनके हिस्से की ठंड शहर ओढ़ लेता है, पतझर को थोड़ा लम्बा रुकने की गुज़ारिश करते हुए। सड़कों पर पीले पत्ते कुछ ज़्यादा दिन बिछे रह जाते हैं। पतझर एक बेहद उदार मौसम है, आप तो जानते ही होंगे।

लड़की बहुत दिन बाद अपने मुहल्ले लौटी है। ११ साल जहाँ रूक जाओ, घर हो ही जाता है। उसने पहली बार ग़ौर किया कि वो इस जगह के मौसमों को पहचानती है। यहाँ के फूलों को, पेड़ों को, आसमान के हिस्से को भी। इन रास्तों को भी तो पता है कि किसी किसी मौसम, जब सारे गुलाबी फूल खिल जाते हैं, लड़की देर रात सिगरेट क्यूँ पीती है।

वे साल में एक बार मिलते थे। बातें करते थे। चुप रहते थे बहुत देर। सड़कों पर चलते थे दूर दूर तक। कभी कभी भीड़ वाली सड़कों पर एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। कॉफ़ी पीते हुए अक्सर देखते थे एक दूसरे के हाथ, कप के इर्द गिर्द लिपटे हुए और सोचते थे कि हाथ पकड़ के बैठना कितना सिर्फ़ उन्हें असहज करेगा या आसपास बैठे और लोगों को भी। ज़िंदगी ने ठीक ठीक हिसाब रखा था, लड़की के हिस्से में स्याही तो बहुत आयी थी, क़िस्से भी बहुत… लेकिन उसकी फ़ेवरिट ब्लैक कॉफ़ी - आइस्ड अमेरिकानो पीने से डॉक्टर ने मना कर दिया था। इन दिनों, गहरी गुलाबी चाय पीती थी लड़की, बहुत मीठी ख़ुशबू वाली, बिना शक्कर की चाय… ठीक उसके होठों के रंग की। लड़के के इतने तामझाम नहीं थे, हमेशा से वही सिंपल कैपचीनो।

अच्छा, प्यारा, सादामिज़ाज लड़का था। अक्सर कपड़े भी सफ़ेद ही पहनता था। प्योर कॉटन की शर्ट्स जो ठीक ठीक आँसू सोख लेते थे। लड़की के बचपन में उसकी मम्मी स्कूल ड्रेस में एक तिकोना रूमाल आलपिन से टाँक के भेजती थी हर रोज़, जो रोज़ कहीं खो जाता था। फिर लड़ाई झगड़ा, गिरना पड़ना तो लगा ही रहता था। तो आँसू हमेशा सफ़ेद शर्ट की स्लीव में ही पोंछे गए थे। लड़की बचपन से जानती थी। सफ़ेद कॉटन की शर्ट्स अच्छे से आँसू सोख लेती हैं। लेकिन क्या ये बात लड़के को पता थी? 

उसकी शर्ट्स की ही ख़ासियत होती होगी, लड़की में इतना बचपना तो था नहीं कि हर आख़िरी मुलाक़ात में रो दे। यूँ भी काजल लगाने वाली लड़कियाँ अपने आँसुओं पर अच्छा ख़ासा कंट्रोल रख सकती हैं। वे जिनके अज़ीज़ सफ़ेद शर्ट्स पहनें आख़िरी मुलाक़ात में, वे लड़कियाँ तो ख़ास तौर से। 

लड़की हर बार उसके लिए कोई तोहफ़ा ले कर आती। कभी काढ़े हुए रूमाल। कभी बहुत दूर देश से कोई सिगरेट लाइटर। कभी किसी नए शहर में सुनी जिप्सी गानों की सीडी। इक बार बहुत सुंदर सा मफ़लर लेकर आयी। फ़िरोज़ी रंग का, बेहद नर्म ऊन से बना हुआ। जैसे लड़की पहली बार मिलती थी तो गले में बाँहें डालती थी… एकदम हौले से… जैसे लड़का कोई ख़्वाब है। टूट जाएगा। उस साल दिल्ली में ठंड भी बहुत पड़ी थी। उन्होंने उस साल ठंड के लिहाज़ से पहली बार साथ में थोड़ी सी विस्की पी थी। ये उस शहर में इस साल की आख़िरी शाम भी थी। कोहरीले शहर में हथेलियाँ इतनी ठंडी थीं कि वे हाथ थामे चल रहे थे। एक दूसरे में ज़रा ज़रा सिमटते हुए। 

लड़की साल में बस यही कुछ दिन सिगरेट पीती, जब उसके साथ होती। उसकी जूठी सिगरेट। लड़का हर साल आख़िरी दिन, जाने के ठीक पहले, एक पूरी डिब्बी सिगरेट ख़रीदता। वे रेलवे स्टेशन से बहुत दूर होते लेकिन फिर भी जैसे रेल की सीटी सुनायी देती…पटरियों पर से गुज़रती रेल की थरथराहट लड़की के बदन में भर जाती। वो सड़क पर चलते हुए भी कभी कभी पूरी थरथराने लगती थी। फिर हथेलियों को आपस में रगड़ती हुयी कहती, इस साल ठंड बहुत ज़्यादा है ना। इस बार वो कुछ यूँ ही थरथरा रही थी तो लड़के ने अपने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतारा और उसके गले में लपेट दिया। लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसके आँसू मफ़लर को गीला करने लगे। शहर के इस बिंदु से स्टेशन और एयरपोर्ट बराबर दूरी पर थे। दोनों अपना सामान लेकर चले थे, छोटे छोटे बक्से, पहियों वाले। पेवमेंट पर दाएँ बाएँ रख दिया था। जैसे सोफ़े के हत्थे होते हैं। उनके चेहरे पर पड़ती हल्की धूप आँखों की उदासी को गर्माहट दे रही थी। ख़ुद को संयत करने के लिए लड़की ने गहरी साँस ली तो महसूस किया कि हवा की ख़ुशबू थोड़ी अलग है। फ़िरोज़ी मफ़लर से लड़के की भीनी भीनी गंध आ रही थी। लड़के ने उसके काँधे पर हाथ रखा और थोड़ा सा उसे अपने पास खींच लिया। लड़की ने उसके काँधे पर सिर टिका दिया। दोनों के चेहरे पर एक उदास रोशनी थी। प्रेम और विदा की मिलिजुली।

लड़के ने डिब्बे से सिगरेट निकाल कर जलायी। लड़की को सिगरेट देते हुए ज़रा से उसके हाथ भी काँपे… कोई ट्रेन उसके भीतर भी गुज़र रही थी। इस शहर से बहुत दूर जाती हुयी। वे चुप थे। बातें इतनी थीं कि शुरू होतीं तो ख़त्म नहीं होतीं। ऐसी बातें ना कही जाएँ तो विदा कहना आसान होता है। सिगरेट ख़त्म हुयी तो लड़के ने उसे पेवमेंट पर हल्का सा रगड़ कर बुझाया और फिर जेब से वालेट निकाला। लड़की हँस पड़ी। ‘फिर से?’। ‘और नहीं क्या’, लड़का आँखें नचाता हुआ बोला। प्रेम में ये उनका छोटा सा खेल था। वालेट में रेज़गारी के साथ सिगरेट का टुकड़ा था, लड़के ने बड़े प्यार से उसे चूम कर बाय बाय कहा और अभी की बुझायी सिगरेट बट को उसमें रख दिया। फिर उसने सिगरेट की डिब्बी लड़की को दे दी। उसमें उन्निस सिगरेटें बची थीं। लड़का हर बार जाने के पहले एक पैकेट सिगरेट ख़रीदता, उसमें से एक सिगरेट जला कर दोनों पीते और फिर वो सिगरेट का डिब्बा लड़की को दे कर चला जाता। कि साल में जब भी कभी मेरी बहुत याद आए तो एक सिगरेट जला लेना और हम साथ में सिगरेट पी रहे होंगे। लड़की हर बार पूछती, साल में सिर्फ़ उन्निस दिन बहुत याद करना, कुछ कम नहीं है, लड़का कहता कि नम्बर में न बाँधो तो प्यार इन्फ़िनिट हो जाएगा। मैं नहीं चाहता तुम मुझसे इतना प्यार करो, या कि मुझे इतना याद करो। कम की बाउंड्री वो सिगरेट से जला कर मार्क कर देता था। लड़की जिरह करती, मुझपर ही लिमिट क्यूँ। तुम कर सकते हो, जितना मर्ज़ी प्यार मुझसे… लड़का कहता, तुम ज़्यादा प्यार करती हो, तुम्हें ख़ुद की कोई लिमिट बनानी नहीं आती। मैं इतने से में नहीं बाँधूँगा तो तुम मेरे प्यार में पागल, घर बार छोड़ कर बुलेट लिए निकल जाओगी दुनिया के किसी भी रास्ते पर। लड़की उसके बेसिरपैर के तर्कों पर हँसती, हँसते हँसते आँख भर आती। 

लड़की ने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतार कर थोड़ी देर हाथ में लिए लिए पूछा, ‘‘मैं तुम्हारा मफ़लर रख लूँ?’। ‘रख लो’… लड़की ने उसका जवाब सुनते सुनते भी लड़के के गले में मफ़लर लपेट दिया। ‘सॉरी, थोड़ा गीला होगा। इतना रोना नहीं चाहिए था मुझे, तुम पर खिलता है। बहुत शौक़ से लायी थी तुम्हारे लिए’। लड़के ने उसे बाँहों में भरा। दोनों के बदन से एक सी ख़ुशबू आ रही थी। धूप, धुएँ और आँसुओं में हल्के भीगे फ़िरोज़ी मफ़लर की।

इक पूरा लम्बा साल और क़ायदे से देखा जाए तो सिर्फ़ अट्ठारह सिगरेटें। कि लड़की आख़िरी सिगरेट बचा कर रखती थी जब तक लड़के से दुबारा मिल न ले। पहली सिगरेट एयरपोर्ट पर पीती। स्मोकिंग लाउंज में सिगरेट जलाने के लिए एक बटन होता था जो ज़ाहिर तौर से मर्दों की हाइट के लिए होता था…लड़की पंजों पर उचक कर सिगरेट जलाती। मुस्कुराती। कि लड़का होता तो उसकी सिगरेट जला देता। कश छोड़ते हुए छत को देखती लड़की…आँखें भर आतीं। सोचती, छत पर कुछ ख़ूबसूरत बना होना चाहिए कि जब वो कश छोड़ते हुए ऊपर देखे, तो महबूब की आँखें कुछ कम याद आएँ। 

पहला हफ़्ता सबसे मुश्किल गुज़रता। पहला महीना भी। 

स्टडी टेबल पर लिखते हुए सिगरेट जला लेती। काग़ज़ से लड़के की ख़ुशबू आती। उँगलियों पर फ़िरोज़ी स्याही लगी होती तो उसका मफ़लर याद आता। वो सिर्फ़ ख़त लिखना चाहती। या कि कविताएँ। कविता लिखना शुरू करती तो हिचकियाँ आने लगती बहुत। फिर वो स्टडी से बाहर छत पर आ जाती। आधा चाँद होता आसमान में… आधा उसकी आँखों में चुभता। उसे लगता सब कुछ आधा आधा ही है दुनिया में… आधी पी हुयी सिगरेट बुझा देती। चटाई बिछा कर लेट जाती और गुनगुनाती। लड़के ने दस सिगरेटें लगातार पी रखी होतीं उस शाम और सीने में जलन हो रही होती। वो छोटी छोटी साँस लेता। सीने पर हाथ रखता और जाने किससे कहता, ‘ओह, इतना याद मत किया करो जान।’। 

अगली सुबह लड़की अपना बैग तैयार करती। कुछ कॉटन की साड़ियाँ, शॉर्ट्स, टीशर्ट्स। लोर्का, बोर्हेस और सिंबोर्सका की किताबें। लैवेंडर इत्र। स्याही की बोतल। कलमें। एयरबीऐनबी पर एक स्टूडीओ बुक करती और समंदर किनारे के शहर को निकल पड़ती ड्राइव कर के। रास्ते में जैज़ सुनती, रफ़ी को भी और 90s के गाने भी। कई बार सोचती… काश कि उसका शहर देख पाती। लड़के का शहर कोई तिलिस्म लगता उसे। गूगल के थ्री डी मैप में देखती। गालियाँ, दुकानें, उसका दफ़्तर, उसकी सिगरेट की दुकान। सब कुछ रियल लगता। कि जैसे वो लड़का भी सिगरेट के डिब्बे पर लिखी झूठी वॉर्निंग नहीं है। सच में उससे इश्क़ करने से मर सकती है वो। 

पता नहीं साल कैसे बीतता। कितना वो जलती, कितना सिगरेट सुलगती। मुश्किल होने लगता अलग अलग शहरों में जीना। दायरों में बंध के मुहब्बत करना। लड़की चाहती कि ख़रीद ले एक पूरी पैकेट सिगरेट और एक साथ पी डाले। कि साँस साँस तकलीफ़ महसूस हो, तो शायद माने कि मुहब्बत कोई अच्छी चीज़ नहीं है। लिखने भर को की गयी मुहब्बत कब ज़िंदगी में अपना हिस्सा माँगने लगती है, तय नहीं किया जा सकता। कविताएँ लिख कर उसका दिल नहीं भरता। इरॉटिका लिखती। उसके दिमाग़ में वायलेंट लवमेकिंग के दृश्य उगते। नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का। फ़िरोज़ी स्याही से लिखे क़िस्सों के किरदार फ़िरोज़ी ही होते हैं, हमेशा। फ़िरोज़ी मफ़लर से बंद कर रखी होती है उसने उसकी आँखें…इतनी ज़ोर से पकड़ी है कलाई कि गुलाबी दाग़ पड़ गए हैं उसकी उँगलियों के… लड़की समंदर किनारे सोयी हुयी है। लहर आती जाती भिगोती है उसे। वो आँख बंद करती है खोलती है… सूरज जलता बुझता है। गोल गोल लाल नारंगी रोशनियाँ नाचती हैं उसकी बंद आँखों में… हिकी… तुम समझे नहीं मैं मफ़लर ही क्यूँ लायी तुम्हारे लिए, उफ़! 

सारी सिगरेटें पी गयी है लड़की। समंदर किनारे। पूरी धूप में जलती है। बालों में खारा पानी है। बदन पर रेत। बैरा ड्रिंक रख के गया है अभी दो मिनट पहले। विस्की ऑन द रॉक्स। एक ही घूँट में पी कर ग्लास नीचे रखती है और महसूसती है कि तीखी प्यास लगी है, सर घूम रहा है, सिगरेटें ख़त्म हैं और ये पहला ही महीना है। 

उसे मेसेज करती है, ‘सुनो, सिगरेट ख़त्म हो गयी हैं ग़लती से। भिजवा दो, या लेकर आ जाओ। मैं इस शहर में हूँ’। अगली सुबह फ़ोन देखती है तो ख़ुद को लानत भेजती है कि नशे में भी इतना होश रहता है कि कौन सा मेसेज सेंड करना है और कौन सा सेव ऐज ड्राफ़्ट। क़िस्सा लिखती है, लेकिन किसी किताब में छापने के लिए नहीं।

ब्लॉग है जो कि प्राइवेट है… उसमें भी पोस्ट्स कोई पब्लिश नहीं… लेकिन वे ड्राफ़्ट्स… वे मुहब्बत के नहीं, क़त्ल के ड्राफ़्ट हैं। लड़की सोचती है उससे कहेगी कभी, ‘सुनो, मुझसे समंदर किनारे किसी शहर में कभी मत मिलना’।

13 February, 2019

ढेर सवाल जवाब में मत उलझो, बुड़बक बिल्ली, अचरज से ही मरती है

शाम से सोच रहे हैं कि तमीज़ की हद कहाँ खींची जाती है। अपने आप से मुझे समझ कब आएगा! इतना क्युरीयस क्यूँ हूँ हर चीज़ को लेकर। सवाल पे सवाल पे सवाल। ऐसे सवाल जो कोई सोचेगा भी नहीं। कुछ ज़्यादा ही कल्पना है हर चीज़ को लेकर और फिर कल्पना तथ्य के कितने क़रीब है, सो पता करने के सवाल। इतना अचरज लिए जीती हूँ। हर सुबह धूप को देखती हूँ तो लगता है पहले देखा नहीं इस रंग में। कुछ ज़्यादा ही दौड़ते हैं कल्पनाओं के घोड़े...

मतलब हमसे तो बात करना ही बेकार है। कोई अच्छा लगेगा तो उसके शहर, मौसम, गली, दोस्त, किताबें... सब जान लेना होगा हमें। 

मुझे दोस्तों की याद अक्सर शाम में आती है। दिन तो ऑफ़िस के कामकाज में फुर्र हो जाता है। शाम सूरज डूबता है तो जैसे दिल भी डूबने लगता है। ऐसा लगता है एक और दिन ख़त्म हुआ जिसमें उसकी आवाज़ का नशा नहीं घुला। कि जैसे सिगरेट, दारू, ड्रग्स वालों को तलब होती है... मुझे लोगों की आदत पड़ने लगती है जल्दी... उसमें भी सिर्फ़ ज़रा सी आवाज़ चाहिए होती है अक्सर। तो फ़ोन किया शाम को। कॉलेज में हमें जब वोईस ट्रेनिंग दी गयी थी तो फ़ोन पर बात करने के तरीक़े भी सिखाए गए थे, कुछ उस समय की ट्रेनिंग कुछ अपना जीवन का अनुभव... या तो फ़ोन में हेलो से समझ जाती हूँ, वरना पूछ लेती हूँ, व्यस्त तो नहीं हैं... अंग्रेज़ी में किया तो सिंपल, good time to talk? जब लोगों के पास फ़ुर्सत होती है तो फ़ोन उठा कर पहले शब्द जो वह कहते हैं उसमें घुल जाती है। कभी मेरा नाम, तो कभी सिर्फ़ हेलो, बहुत प्यार वाले लोग हुए तो जानेमन... 

तो कल शाम की बात थी। फ़ोन किया। सरकार की आवाज़ में ज़रा सी नीम नींद थी। ज़रा सा शाम का अँधेरा। मैंने पूछा, 'क्या कर रहे थे अभी'। उन्होंने कहा, 'नहाने जा रहा था'। मेरे जैसा मुँहफट इंसान... पूछने वाली थी, आप कौन सा साबुन लगाते हैं। फिर लगा ये बदतमीज़ वाला सवाल है...तो रोक लिया। पूछा नहीं। लेकिन मन में आयी बात ना कहें तो बाक़ियों के पेट में दर्द होता है साला हमारा माथा दुखा जाता है। सवाल सीधे दिमाग़ के थ्रू जाता है और अंदर बाहर अंदर बाहर करता रहता है। ख़ुशबुएँ खँगालता हुआ। सोचता हुआ कि उस जैसा आदमी...फिर लगता है, उस जैसा तो कोई दूसरा आदमी है ही नहीं... फिर भी क़सम से सिर्फ़ साबुन के बारे में सोचता हुआ... ना उसे नहाते हुए, ना उसका भीगा बदन... कुछ भी नहीं सोचा... सोचा बस ये कि वो किस साबुन से नहाता होगा। फिर दुनिया के सारे साबुनों और उसकी गंध में डूबती रही... जिनकी गंध मैं पहचानती हूँ। कितने सारे साबुन याद आए रात भर में। 

लिरिल - उसके साथ वाला ऐड्वर्टायज़्मेंट... पटना की गरमी वाले दिन, जिसमें हमेशा सिर्फ़ लिरिल ही लगाती थी। वो मेरे घर आया हुआ था  जस्ट नहा के निकला था बाथरूम से... मतलब तौलिया लपेट कर, उफ़! क्या ही कहें पहली बार किसी लड़के को वैसे देखा था। बदन पर ज़रा ज़रा पानी की बूँदें, साँवला रंग... पहली बार लगा इसी को रेड-हॉट कहते हैं। बदन जिस पर से पानी की बूँदें भाप बन कर उड़ जाएँ। हमने शरीफ़ लड़की की तरह नज़रें फेर लीं लेकिन वो दृश्य एकदम छप गया था था मिज़ाज में। हरारत की तरह। मैं उसे क़रीब से नहीं जानती थी तो ज़ाहिर सी बात है, गंध के बारे में कुछ नहीं पता था। बाथरूम में लिरिल की सांद्र गंध थी। मैं इसी साबुन से रोज़ नहाती थी लेकिन उस रोज़ पहली बार किसी की देह गंध भी घुली हुयी महसूस की। हिंदी के तो शब्द ही ख़त्म थे, अंग्रेज़ी से उधार लेने पड़े... heady cocktail of fragrances... कुछ ऐसा कि सर घूम जाए। 

सेंट औफ़ ए वुमन का वो सीन भी याद आया कल, कर्नल कहता है, मैं इस गंध को पहचानता हूँ और ठीक ठीक नाम बता देता है, ओगिल्वि सिस्टर्ज़ सोप। जो कि डौना को उसकी ग्रैंड्मदर ने दिए हैं। फिर अपनी लिखी वो कहानी जिसमें लड़का लड़की दोनों अपनी पसंद का साबुन लाने के लिए लड़ रहे होते हैं और आख़िरी लिरिल से ही नहाते हैं। पीयर्स मेरे नानाजी लगाया करते थे। ज़िंदगी भर उन्होंने अपना साबुन नहीं बदला। मुझे अब भी बचपन में लौटना होता है तो पीयर्स ले आती हूँ। पटना में जिस घर में रहते थे, वहाँ हमारे एक पड़ोसी थे, वो सिर्फ़ लाइफ़ बॉय ही लगाते थे। ये इसलिए पता चला कि हमलोग होली का रंग छुड़ाने के लिए हमेशा लाइफ़बॉय का इस्तेमाल करते थे। एक बार लाना भूल गए तो वो आंटी हम सब को नया साबुन ला के दे दी थी, सबको मालूम था। 

मेरे दिमाग़ में ख़ुशबुओं की पूरी डिक्शनरी है। जिसमें कई लोग रहते हैं। साबुन। पर्फ़्यूम। आफ़्टर शेव लोशन। मॉस्चराइज़र। कितना कुछ मालूम रहता है। किसी का हाथ चूमा था तो उसकी उँगलियों से सिगरेट की गंध आ रही थी। जो लोग मुझे पसंद होते हैं, उनकी गंध मुझे याद होती है। और अगर नहीं होती है तो बौराने लगते हैं। समंदर किनारे भटकते हुए आँख बंद करके पूरे ध्यान से याद करने की कोशिश करते हैं कि कैसी गंध थी उसकी। किसी स्टेशन पर विदा कहते हुए। आख़िरी बार गले लगते हुए गहरी साँस लेना और सोचना कुछ भी नहीं। जाती ट्रेन को देखना। ख़ाली स्टेशन पर भरी भरी आँख और भरा भरा दिल लिए गुनगुनाना। इश्क़ की ख़ुशबू लपेटना इर्द गिर्द... किसी नर्म सी शॉल जैसे। टहलना कच्ची सड़क पर, झील किनारे। 

कि जब सोची जा सकती हैं कितनी सारी चीज़ें, पूछा जा सकता है कितना सारा कुछ... उलझना इसी सवाल पर। कि कौन सा साबुन लगाता है वो। कैसी ख़ुशबू आती है उसके गीले बदन से। रात को नहा कर निकलता है तो हवा ठंडी और दीवानी हुयी जाती है। कि वो आदमी है कि तिलिस्म। खुलता ही नहीं। बाँधता है बाँहों में। ख़यालों में। कहानियों में। चुप्पी में भी। 

Curiosity killed the cat. हम भी ना, उफ़। मर जाएँ!
Read more: https://www.springfieldspringfield.co.uk/movie_script.php?movie=scent-of-a-woman

24 November, 2017

ये सातवाँ था ब्रेक-अप और बारवीं मुहब्बत, दिल तोड़ने की तौबा मशीन हो रहे हो

ग़ुस्ताख़ हो रहे हो 
रंगीन हो रहे हो 
सारी हिमायतों की 
तौहीन हो रहे हो 

वो और होते होंगे 
बस हैंडसम से लड़के 
तुम हैंडसम नहीं रे 
हसीन हो रहे हो

होठों पे जो अटकी है 
आधी हँसी तुम्हारी
चक्खेंगे हम भी तुमको 
नमकीन हो रहे हो 

ये सातवाँ था ब्रेक-अप 
और बारवीं मुहब्बत 
दिल तोड़ने की तौबा 
मशीन हो रहे हो 

इतनी अदा कहाँ से 
तुम लाए हो चुरा के 
इतना नशा कहाँ पे   
तुम आए हो लुटाते 
छू लें तो जल ही जाएँ 
उफ़, इतने हॉट हो तुम 
हों दो मिनट में आउट
टकीला शॉट हो तुम 

थोड़ा रहम कहीं से 
अब माँग लो उधारी 
वरना तो मेरे क़ातिल
लो जान तुझपे वारी 
अब जान का मेरी तुम
चाहे अचार डालो 
हम फ़र्श पे गिरे हैं
पहले हमें उठा लो 

इतना ज़रा बता दो
तुम्हें पूरा भूल जाएँ 
या दोस्ती के बॉर्डर 
पर घर कोई बनाएँ 
लेकिन सुनो उदासी 
तुमपर नहीं फबेगी
कल देखना कोई फिर
अच्छी तुम्हें लगेगी 

तुम फिर से रंग चखना 
तुम फिर अदा से हँसना 
दिल तोड़ना कोई फिर 
और ज़ख़्म भर टहकना 
तुम इक नया शहर फिर
होना कभी कहीं पर 
हम फिर कभी मिलेंगे 
आँखों में ख़्वाब भर कर

अफ़सोस की गली की  
कोठी वो बेच कर के 
लाना बुलेट नयी फिर 
घूमेंगे हम रगड़ के
ग़ालिब का शेर बकना 
विस्की में चूर हो के 
कहना दुखा था कितना
यूँ हमसे दूर हो के 

इस बार पर ठहरना 
जैसे कि बस मेरे हो 
मन, रूह या बदन फिर 
कोई जगह रुके हो 
हम फिर कहेंगे तुमसे 
ग़ुस्ताख़ हो गए हो 
तुम चूम के चुप करना 
और कहना तुम मेरे हो 

09 November, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

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