शाम से सोच रहे हैं कि तमीज़ की हद कहाँ खींची जाती है। अपने आप से मुझे समझ कब आएगा! इतना क्युरीयस क्यूँ हूँ हर चीज़ को लेकर। सवाल पे सवाल पे सवाल। ऐसे सवाल जो कोई सोचेगा भी नहीं। कुछ ज़्यादा ही कल्पना है हर चीज़ को लेकर और फिर कल्पना तथ्य के कितने क़रीब है, सो पता करने के सवाल। इतना अचरज लिए जीती हूँ। हर सुबह धूप को देखती हूँ तो लगता है पहले देखा नहीं इस रंग में। कुछ ज़्यादा ही दौड़ते हैं कल्पनाओं के घोड़े...
मतलब हमसे तो बात करना ही बेकार है। कोई अच्छा लगेगा तो उसके शहर, मौसम, गली, दोस्त, किताबें... सब जान लेना होगा हमें।
मुझे दोस्तों की याद अक्सर शाम में आती है। दिन तो ऑफ़िस के कामकाज में फुर्र हो जाता है। शाम सूरज डूबता है तो जैसे दिल भी डूबने लगता है। ऐसा लगता है एक और दिन ख़त्म हुआ जिसमें उसकी आवाज़ का नशा नहीं घुला। कि जैसे सिगरेट, दारू, ड्रग्स वालों को तलब होती है... मुझे लोगों की आदत पड़ने लगती है जल्दी... उसमें भी सिर्फ़ ज़रा सी आवाज़ चाहिए होती है अक्सर। तो फ़ोन किया शाम को। कॉलेज में हमें जब वोईस ट्रेनिंग दी गयी थी तो फ़ोन पर बात करने के तरीक़े भी सिखाए गए थे, कुछ उस समय की ट्रेनिंग कुछ अपना जीवन का अनुभव... या तो फ़ोन में हेलो से समझ जाती हूँ, वरना पूछ लेती हूँ, व्यस्त तो नहीं हैं... अंग्रेज़ी में किया तो सिंपल, good time to talk? जब लोगों के पास फ़ुर्सत होती है तो फ़ोन उठा कर पहले शब्द जो वह कहते हैं उसमें घुल जाती है। कभी मेरा नाम, तो कभी सिर्फ़ हेलो, बहुत प्यार वाले लोग हुए तो जानेमन...
तो कल शाम की बात थी। फ़ोन किया। सरकार की आवाज़ में ज़रा सी नीम नींद थी। ज़रा सा शाम का अँधेरा। मैंने पूछा, 'क्या कर रहे थे अभी'। उन्होंने कहा, 'नहाने जा रहा था'। मेरे जैसा मुँहफट इंसान... पूछने वाली थी, आप कौन सा साबुन लगाते हैं। फिर लगा ये बदतमीज़ वाला सवाल है...तो रोक लिया। पूछा नहीं। लेकिन मन में आयी बात ना कहें तो बाक़ियों के पेट में दर्द होता है साला हमारा माथा दुखा जाता है। सवाल सीधे दिमाग़ के थ्रू जाता है और अंदर बाहर अंदर बाहर करता रहता है। ख़ुशबुएँ खँगालता हुआ। सोचता हुआ कि उस जैसा आदमी...फिर लगता है, उस जैसा तो कोई दूसरा आदमी है ही नहीं... फिर भी क़सम से सिर्फ़ साबुन के बारे में सोचता हुआ... ना उसे नहाते हुए, ना उसका भीगा बदन... कुछ भी नहीं सोचा... सोचा बस ये कि वो किस साबुन से नहाता होगा। फिर दुनिया के सारे साबुनों और उसकी गंध में डूबती रही... जिनकी गंध मैं पहचानती हूँ। कितने सारे साबुन याद आए रात भर में।
लिरिल - उसके साथ वाला ऐड्वर्टायज़्मेंट... पटना की गरमी वाले दिन, जिसमें हमेशा सिर्फ़ लिरिल ही लगाती थी। वो मेरे घर आया हुआ था जस्ट नहा के निकला था बाथरूम से... मतलब तौलिया लपेट कर, उफ़! क्या ही कहें पहली बार किसी लड़के को वैसे देखा था। बदन पर ज़रा ज़रा पानी की बूँदें, साँवला रंग... पहली बार लगा इसी को रेड-हॉट कहते हैं। बदन जिस पर से पानी की बूँदें भाप बन कर उड़ जाएँ। हमने शरीफ़ लड़की की तरह नज़रें फेर लीं लेकिन वो दृश्य एकदम छप गया था था मिज़ाज में। हरारत की तरह। मैं उसे क़रीब से नहीं जानती थी तो ज़ाहिर सी बात है, गंध के बारे में कुछ नहीं पता था। बाथरूम में लिरिल की सांद्र गंध थी। मैं इसी साबुन से रोज़ नहाती थी लेकिन उस रोज़ पहली बार किसी की देह गंध भी घुली हुयी महसूस की। हिंदी के तो शब्द ही ख़त्म थे, अंग्रेज़ी से उधार लेने पड़े... heady cocktail of fragrances... कुछ ऐसा कि सर घूम जाए।
सेंट औफ़ ए वुमन का वो सीन भी याद आया कल, कर्नल कहता है, मैं इस गंध को पहचानता हूँ और ठीक ठीक नाम बता देता है, ओगिल्वि सिस्टर्ज़ सोप। जो कि डौना को उसकी ग्रैंड्मदर ने दिए हैं। फिर अपनी लिखी वो कहानी जिसमें लड़का लड़की दोनों अपनी पसंद का साबुन लाने के लिए लड़ रहे होते हैं और आख़िरी लिरिल से ही नहाते हैं। पीयर्स मेरे नानाजी लगाया करते थे। ज़िंदगी भर उन्होंने अपना साबुन नहीं बदला। मुझे अब भी बचपन में लौटना होता है तो पीयर्स ले आती हूँ। पटना में जिस घर में रहते थे, वहाँ हमारे एक पड़ोसी थे, वो सिर्फ़ लाइफ़ बॉय ही लगाते थे। ये इसलिए पता चला कि हमलोग होली का रंग छुड़ाने के लिए हमेशा लाइफ़बॉय का इस्तेमाल करते थे। एक बार लाना भूल गए तो वो आंटी हम सब को नया साबुन ला के दे दी थी, सबको मालूम था।
मेरे दिमाग़ में ख़ुशबुओं की पूरी डिक्शनरी है। जिसमें कई लोग रहते हैं। साबुन। पर्फ़्यूम। आफ़्टर शेव लोशन। मॉस्चराइज़र। कितना कुछ मालूम रहता है। किसी का हाथ चूमा था तो उसकी उँगलियों से सिगरेट की गंध आ रही थी। जो लोग मुझे पसंद होते हैं, उनकी गंध मुझे याद होती है। और अगर नहीं होती है तो बौराने लगते हैं। समंदर किनारे भटकते हुए आँख बंद करके पूरे ध्यान से याद करने की कोशिश करते हैं कि कैसी गंध थी उसकी। किसी स्टेशन पर विदा कहते हुए। आख़िरी बार गले लगते हुए गहरी साँस लेना और सोचना कुछ भी नहीं। जाती ट्रेन को देखना। ख़ाली स्टेशन पर भरी भरी आँख और भरा भरा दिल लिए गुनगुनाना। इश्क़ की ख़ुशबू लपेटना इर्द गिर्द... किसी नर्म सी शॉल जैसे। टहलना कच्ची सड़क पर, झील किनारे।
कि जब सोची जा सकती हैं कितनी सारी चीज़ें, पूछा जा सकता है कितना सारा कुछ... उलझना इसी सवाल पर। कि कौन सा साबुन लगाता है वो। कैसी ख़ुशबू आती है उसके गीले बदन से। रात को नहा कर निकलता है तो हवा ठंडी और दीवानी हुयी जाती है। कि वो आदमी है कि तिलिस्म। खुलता ही नहीं। बाँधता है बाँहों में। ख़यालों में। कहानियों में। चुप्पी में भी।
Curiosity killed the cat. हम भी ना, उफ़। मर जाएँ!
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीनस गर्ल की सौन्दर्य-आभा : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteजबरदस्त
ReplyDeleteसादर..