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16 April, 2024

पैटर्न-ब्रेक

क्या इक उम्र के बाद हमारे जीवन से अचरज चुपचाप कहीं चला जाता है? बिना अलविदा कहे हुए।

हम पाते हैं कि हमारे सबसे सुंदर सुख और हमारे सबसे जानलेवा दुखों का एक सिरा हमारे अतीत में होता है। कई बार हम याद का धागा पकड़े हुए पीछे की ओर चलते जाते हैं अतीत के ठीक उस लम्हे को आइडेंटिफाई कर लेते हैं जहाँ इस दुख या सुख को पहली बार जिया था। लेकिन जब हम अतीत के इस धागे का दूसरा सिरा नहीं ढूँढ पाते हैं तो बेतरह उलझ जाते हैं।

बहुत साल पहले की बात है। छत्तरपुर मंदिर गई थी एक परिचित के साथ। मूर्ति के सामने हाथ जोड़े और वापस लौटने को पलटी कि उन्होंने कन्धा पकड़ के रोका, कि पहले पाँच कदम देवता की ओर से पीठ नहीं फेरते हैं। हमने पाँच कदम उल्टे रखे, मंदिर से बाहर की ओर…यह एक बात मुझे उस समय से कभी बिसरी नहीं।

लेकिन ये बात सिर्फ़ देवता पर नहीं, लोगों पर भी लागू होने लगी धीरे धीरे। जाने कितने कदम तक। गिनती में तो वैसे ही हमारा हाथ थोड़ा तंग है।

हम पीछे की ओर जाते हुए नहीं समझ पाते हैं कि हमें रुकना कहाँ है। जन्म-पार की यात्रा करते हुए हम तलाशते रहते हैं किसी गहरी स्मृति को…कई बार हमारे साथ कोई और व्यक्ति भी इसी तरह उलझा हुआ होता है। कि तुम
तक कौन सा रास्ता पहुँचता है…तुम वक़्त के कितने वक़्फ़े और कितने शहर तलाशती आयी हो यूँ इस तरह हमसे मिलने? प्रकाश-वर्ष दूर से? जन्म-पार से? ये दुनिया इतनी बड़ी, हमारा सोलर सिस्टम इतना छोटा सा, आकाश गंगा घूमती हुई…पूरा ब्रह्माण्ड सिमटता और फैलता हुआ। एंट्रॉपी तो यही है न कि किसी चीज़ में रैंडमनेस ही नॉर्मल है…तब तो ये ठीक ही है न कि तुमसे बिछड़ने के लम्हे दिल की धड़कनें रैंडम धड़कती हैं…कभी बहुत तेज़, कभी बहुत धीमे…कि हम एकदम ही बौरा जाते हैं।

तुम्हारे लिए क्या आसान रहा यूँ मेरी हथेली पकड़ के सीने पर रखना, कि देखो ना, दिल कितनी तेज़ धड़क रहा है! वही रैंडम हार्टबीट पासवर्ड हो गई…कि जन्मों के परे आना जाना कर लेते हैं हम उस धड़कन का धागा पकड़ के…हमारे पास लौटने की एक जगह है।

ज़िंदगी में क़िस्सा मुकम्मल तब तक ही लगता है न जब तक आपको इस बात का यक़ीन हो कि समय लीनियर है और हमेशा आप सिर्फ़ आगे की ओर बढ़ेंगे…वन-वे। जैसे ही आपको लगे कि सब कुछ एक वर्तुल है…कि यह सब हो चुका है पहले…कई बार और होगा…यूँ मिलना, बिछड़ना…तलाशना…

तुमसे दुबारा मिल कर समझ आया कि हमको किसी से भी सिर्फ़ एक बार मिलने में इतना डर क्यों लगता है। और कि तुमसे एक बार और मिलना क्यों ज़रूरी था। क्योंकि ग्राफ़ में सीधी लकीर खींचने के लिए दो को-ऑर्डिनेट्स चाहिए होते हैं। इसके बाद हम थोड़ा बहुत तलाश सकते हैं तुम्हें टाइमलाइन पर। फिर कभी भी न मिलो, तो भी चलेगा।

चल जाएगा, लेकिन चलाना मत, ओके? 

17 November, 2023

Emotional anaesthesia

एक हफ़्ते पहले डेंटिस्ट के पास गयी थी। डेंटल सिरदर्द पूरी उमर चलता रहा है। बहुत कम वक्त हुआ है कि दांतों में कोई दिक्कत न रही हो और दोनों ओर से ठीक-ठीक चबा कर खाना खा सकें। कैविटी थी बहुत सारी, इधर उधर, ऊपर नीचे…ग़ालिब की तरह, एक जगह हो तो बताएँ कि इधर होता है।

डेंटिस्ट ने पूछा, अनेस्थेसिया का इंजेक्शन देना है कि नहीं। तो हम बोले, कि ऑब्वीयस्ली देना है। कोई बिना अनेस्थेसिया के इंजेक्शन के क्यूँ ये काम कराएगा, क्या कुछ लोगों को दर्द अच्छा लगता है? इसपर डेंटिस्ट ने कहा, कभी कभी दर्द बहुत ज़्यादा नहीं होता है, बर्दाश्त करने लायक़ होता है।
अब ये बर्दाश्त तो हर व्यक्ति का अलग अलग होता है, सो होता ही है। मुझे ये भी महसूस हुआ कि उमर के अलग अलग पड़ाव पर हमारे दर्द सहने की क्षमता काफ़ी घटती-बढ़ती रहती है। 2018 में महीनों तक मुझे घुटनों में बहुत तेज़ दर्द रहा था। रात भर चीखते चीखते आख़िर को चुप हो गयी थी, तब लगा था, इससे ज़्यादा दर्द हो ही नहीं सकता। फिर 2019 में बच्चे हुए। सिज़ेरियन एक बड़ा ऑपरेशन होता है, उसमें भी मेरे जुड़वाँ बच्चे थे। जब तक ख़ुद के शरीर में ना हो, कुछ चीज़ें सेकंड हैंड एक्स्पिरीयन्स से नहीं समझ सकते। जब पेनकिलर का असर उतरा था, तो लगा था जान निकल जाएगी, ये भी लगा था, इतना दर्द होता है, फिर भी कोई औरत दूसरा बच्चा पैदा करने को सोचती भी कैसे है। यह सोचने के दो दिन बाद मेरी दूसरी बेटी NICU, यानी कि Neonatal ICU से निकल कर आयी थी और पहली बार दोनों बेटियों को एक साथ देखा, तो लगा, यह ख़ुशी एक अनेस्थेसिया है। इस ख़ुशी की याद से शायद हिम्मत आती होगी। डिलिवरी के ठीक एक हफ़्ता बाद हम पूरी तरह भूल गए थे कि कितना दर्द था। मेरी दर्द को याद रखने की क्षमता बहुत कम है। जल्दी भूल जाती हूँ।
बचपन में डेंटिस्ट के यहाँ जाते थे तब ये पेनकिलर इंजेक्शन नहीं बना था। अब तो पेनकिलर इंजेक्शन के अलावा नमबिंग जेल होता है, जिसके लगाने पर इंजेक्शन देने की जगह भी दर्द नहीं होता। दांत साफ़ करने की मशीन की झिर्र झिर्र मुझे दुनिया की सबसे ख़तरनाक आवाज़ लगती है, जिसे सुन के ही उस दर्द की याद आती है और सिहरन होती है।
यहाँ मैं डेंटिस्ट की कुर्सी पर बैठी हूँ, और मैं ही हूँ जो डेंटिस्ट से कह रही हूँ कि बिना अनेस्थेसिया कर के देखते हैं, कहाँ तक दर्द बर्दाश्त हो सकता है।
आँख के ऊपर तेज़ रोशनी होती है। तो आँखें ज़ोर से भींच के बंद करती हूँ। कुर्सी के हत्थों पर हाथ जितनी ज़ोर से हो सके, पकड़ती हूँ। साँस गहरी-गहरी लेती हूँ। डॉक्टर कहता है, रिलैक्स।
बिना ऐनेस्थेटिक। जिसको हम मन का happy place कहते हैं। ज़ोर से आँख भींचने पर दिखता है। साँस को एक लय में थिर रखती हूँ। Emotional anaesthesia.
मन सीधे एक नए शहर तक पहुँचता है, धूप जैसा। Can a hug feel like sunshine? Filling me with warmth, light and hope? अलविदा का लम्हा याद आता है। क्यूँ आता है? किसी को मिलने का पहला लम्हा क्यूँ नहीं आता? या कि आता है। धुँधला। किसी को दूर से देखना। घास के मैदान और मेले के शोरगुल और लोगों के बीच कहीं। सब कुछ ठहर जाना। जैसे कोई आपका हाथ पकड़ता है और वक़्त को कहता है, रुको। और वक़्त, रुक जाता है।
I float in that hug. Weightless. आख़िरी बार जब दो घंटे के MRI में मशीन के भीतर थी, तब भी यहीं थी। कि अपरिभाषित प्रेम से भी बढ़ कर होता है?
मुझे टेक्स्चर याद रह जाता है। रंग भी। कपास। लिनेन। नीला, काला, हल्का हरा। छूटी हुयी स्मृति है, कहती है किसी से, तुम्हारी ये शर्ट बहुत पसंद है मुझे। ये मुझे दे दो। उसे भूल जाने के कितने साल बाद यह लिख रही हूँ और उसके पहने सारे सॉलिड कलर्ज़ वाले शर्ट्स याद आ रहे, एक के बाद एक।
दो फ़िल्में याद आती हैं, वौंग कार वाई की। Days of being wild और As tears go by. इन दोनों में मृत्यु के ठीक पहले, एक लड़का है जो एक लड़की को याद कर रहा है। डेज़ ओफ़ बीइंग वाइल्ड वाला लड़का गलती से गोली लगने से मर रहा है और उस लड़की को याद कर रहा है, जिसके साथ उसने थिर होकर एक मिनट को जिया था और वादा किया था कि मैं इस एक मिनट को और तुम्हें, ताउम्र याद रखूँगा। As tears go by के लड़के को एक फ़ोन बूथ में हड़बड़ी में चूमना याद रहता है। स्लो मोशन में यह फ़ुटेज उसे लगती हुयी गोलियों के साथ आँख में उभरता है। हम पाते हैं कि we are unconsolable. मृत्यु इतनी अचानक, अनायास आती है, हमें खुद को सम्हालने का वक़्त नहीं मिलता। ये दोनों लड़के बहुत कम उमर के हैं। जिस उमर में मुहब्बत होती है, इस तरह का बिछोह नहीं।
मन में शांत में उगते ये लम्हे कैसे होते हैं। धूप और रौशनी से भरे हुए। मैं याद में और पीछे लौटती हूँ, सोचती हुयी कि ये लोग, ये शहर, ये सड़कें, ये इतना सा आसमान नहीं होता तो कहाँ जाती मैं, फ़िज़िकल दुःख से भागने के लिए। इन लम्हों में इतनी ख़ुशी है कि आँख से बहती है। आँसू। डेंटिस्ट की कुर्सी है। अभी अभी मशीन झिर्र झिर्र कर रही है, लेकिन मैं बहुत दूर हूँ, इस दर्द से। इतनी ख़ुशी की जगह जहाँ मैं बहुत कम जाती हूँ। मेरे पास ख़ुशी चिल्लर सिक्कों की तरह है जो मैंने पॉकेट में रखी है। इसे खर्च नहीं करती, इन सिक्कों को छूना, इनका आकार, तापमान जाँच लेना, यक़ीन कर लेना कि ये हैं मेरे पास। मुझे खुश कर देता है।
कि भले ही बहुत साल पहले, लेकिन इतना सा सुख था जीवन में…इतना सांद्र, इतना कम, इतना गहरा…अजर…अनंत…असीम।
इमोशनल अनेस्थेसिया के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये होती है, कि इसका असर हटता है तो मन में इतना दुःख जमता है कि लगता है इससे अच्छा कोई फ़िज़िकल पेन बर्दाश्त कर लेते तो बेहतर होता। मन इधर से उधर डोलता है। जैसे ज़मीन हिल रही हो। थोड़ी थोड़ी।
डेंटिस्ट के यहाँ से लौटते हुए देखती हूँ कि वहाँ पारदर्शी शीशा है। और वहाँ की कुर्सी, वहाँ के डॉक्टर, किसी ऑल्टर्नट दुनिया की तरह लगते हैं। कि मैं अभी जहाँ से लौटी हूँ कि जबड़ा पूरा दर्द कर रहा है। लेकिन दिल पर ख़ुशी का जिरहबख़्तर है और वो बेतरह खुश है। कि बदन को कुछ भी हो जाए, मुहब्बत में डूबे इस दिल को कोई छू भी नहीं सकता।

26 July, 2017

वो या तो प्रेम में होती या इंतज़ार में

लड़की जिन दिनों प्रेम में होती, मर जाना चाहती। 
कि वो या तो प्रेम में होती या इंतज़ार में।

फ़ोन करते हुए उसकी आवाज़ में एक थरथराहट है जिसके कारण वो उसे फ़ोन नहीं कर पा रही है। उसके आइफ़ोन में इंटेलिजेंट असिस्टेंट है उसका। बहुत ही सेक्सी आवाज़ में बातें करने वाला - सीरी। वो प्यार से कहती है लेकिन सीरी अभी इतना बुद्धिमान नहीं हुआ है लड़की की थरथराती आवाज़ से उसका नाम छान ले और ठीक फ़ोन कर ले उसको। बार बार पूछता है भौंचक्का सा…मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ। क्या चाहिए तुम्हें। लड़की पगला गयी है थोड़ी थोड़ी। हँसती है और कहती है। आइ लव यू सीरी। इंटेलिजेंट असिस्टेंट को मालूम है इसका फ़ेवरिट जवाब क्या है। जैसे कोई लड़की लजाते हुए कहती है कि उसकी आवाज़ में अदा घुल आए, सीरी कहता है, ‘Ooh stop!’। अब बस भी करो। क्या ही करगा सीरी इस प्यार का। प्यार कोई सवाल तो है नहीं कि जिसका जवाब गूगल से खोज दिया जाए। स्टेटमेण्ट के लिए सीरी के पास कुछ नहीं है। बस कुछ प्रीकोडेड रेस्पॉन्सेज़ हैं। लड़की को शिकायत नहीं है। मुश्किल है।
लड़की की आवाज़ अगर थरथरा रही है तो उसकी उँगलियों का तो हाल पूछो ही मत। नील से पड़ रहे हैं उँगलियों के पोर। ऐसी थरथाराहट का कोई क्या भी करेगा। ऐसे में तो नम्बर भी नहीं डायल हो सकता। 

लड़की टेलीपैथी से जुड़ी हुयी है उन सारे लोगों से जिनसे वो प्यार करती है। हालाँकि इस नेट्वर्क का इस्तेमाल बहुत कम करती है कि इसका रीचार्ज कराना बहुत मुश्किल है और प्रीपेड कार्ड का बैलेंस देखना भी बहुत मुश्किल। आज शाम उसने लेकिन टेलीपैथी से उस लड़के को याद किया गहरे। मुझे फ़ोन करो। 

ठीक आधे सेकंड बाद उसका फ़ोन आया। सीरी पक्का जलभुन के ख़ाक हो जाता अगर सीरी को लड़की से ज़रा भी इश्क़ होता तो। 

ज़िंदगी इतनी ठंढी हुआ करती थी कि लड़की पूरा पूरा जमा हुआ आइस ब्लॉक हो जाया करती थी। ग्लेशियर जैसा कुछ। स्टारबक्स में पीती आइस्ड अमेरिकानो। एक पूरा भर के ग्लास में आइस। और फिर दो शॉट इस्प्रेसो। कॉफ़ी ऑन द रॉक्स। कितनी ठंढ होती उसके इर्द गिर्द। 

उसके फ़ोन से उसकी आवाज़ ने निकल कर लड़की को एक टाइट बीयर हग में कस लिया। लड़की एकदम से खिलखिलाती हुयी पहाड़ी नदी बन गयी। वो कहती थी उससे। तुमसे बात करके मैं नदी हुयी जाती हूँ। खिलखिलाती हुयी कह रही थी उससे, ‘क्या तुम मेरा नाम भूल गए हो?’। 

उसके गालों में छुपा हुआ डिम्पल था जो सिर्फ़ तभी ज़ाहिर होता था जब वो इश्क़ में होती थी। उसकी मुस्कान में दुनिया के सारे जादू आ के रहा करते थे। लेकिन लड़की जब इश्क़ में होती थी और ब्लश करती थी तो उसकी आँखों की रौशनी के चौंध में उसके बाएँ गाल पर का छुपा हुआ डिम्पल दिखने लगता था। वो ऐसे में अपनी दोनों हथेलियों से अपना पूरा चेहरा ढक लिया करती थी। डिम्पल को जल्दी ही नज़र लग जाती थी लोगों की और फिर लड़की की आँखों के सूरज को कई कई सालों के लिए ग्रहण लग जाता था। 

'अच्छा बताओ, अगर मैं कहूँ तुमसे ‘मैं जल्दी मरने वाली हूँ तो कितनी देर बात करोगे मुझसे?’
‘डिपेंड करता है’
‘मैं यहाँ मरने की बात कर रही हूँ और तुम कंडिशंज़ अप्लाई कर रहे हो। छी। किस बात पर डिपेंड करता है ये?’
‘इसपर कि तुम कितने दिन में मरने वाली हो’
‘अरे, कह तो रही हूँ, जल्दी’
‘जल्दी तो एक सब्जेक्टिव वर्ड होता है, तुम जब कहती हो कि मैं जल्दी आ रही हूँ दिल्ली तो तुम एक साल बाद आती हो'

लड़की उस शहर से बहुत प्रेम करती थी। साल में एक बार आना काफ़ी होता था। साल का आधा हिस्सा फिर याद के ख़ुमार में बीतता था और बचा हुआ आधा हिस्सा उम्मीद में।

मैग्लेव जानते हो तुम? मैग्नेटिक लेविटेशन। इन ट्रेनों के नाम दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन होने का रेकर्ड है। आकर्षण और विकर्शन का इस्तेमाल करती हुयी ट्रेनें ज़मीन को छुए बिना ही तेज़ी से भागती रहती हैं। प्रेम ऐसा ही कुछ रचता लड़की के पैरों और ज़मीन के बीच। लड़की के क़दम हवा में ही होते। वो बहुत तेज़ भागती जाती। धरती के दूसरे छोर तक कि जैसे नाप ही लेगी उसके दिल से अपने दिल तक की दूरी।

उसके पास कोई कहानियाँ नहीं होतीं कभी कभी। कभी कभी।

उन दिनों वो कहानी के टुकड़े रचती जाती और आधे अधूरे महबूब। असमय। कुसमय मर जाने वाले किरदार। उसकी याद में अटक जाती छोटी छोटी चीज़ें। पुराने प्रेम। छूटे हुए कमरे। रजनीगंधा और गुलाब की गंध। और एक लड़का कि जिसके छूने से एक पूर्ण औरत बन जाने की चाहना ने जन्म लिया था। मगर लड़की को औरतें पसंद नहीं थीं तो वो अक्सर उनके मर जाने का इंतज़ाम करते चलती थी। उनके दुःख का। उनके बर्बाद जीवन का। 

बहुत सी चीज़ों की प्रैक्टिस करती रहती लड़की। सबसे ज़रूरी होता, एक पर्फ़ेक्ट सूयसायड नोट लिखने की भी। दुनिया से जाते हुए आख़िरी चीज़ तो पर्फ़ेक्ट हो। बस ये ही डर लगता उसको कि मालूम नहीं होता कौन सा ड्राफ़्ट आख़िरी होगा। अच्छे मूड में सूयसायड नोट लिखने का मन नहीं करता और सूयसाइडल मोड में उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि क्या लिख रही है। 

मौत से इकतरफ़ा प्यार करती हुयी लड़की सोचती, मौत का जो दिल आए जाए उस पर…मर ही जाए वो फिर तो।

12 March, 2013

कि दिल का रंग होता है...गुलाबी

वो एक गुलाबी फूलों वाला पेड़ है. उसके पार से नीला आसमान दिखता है...सड़क पर करीने से गिरे हुए गुलाबी फूल हैं. दिल अगर कोई फूल होता तो इसी रंग का होता...ऐसा ही नर्म और नाज़ुक कि तोड़ते हुए आप खुद टूट जाओ. हलकी हवा चलती है तो बहुत से गुलाबी फूल हौले हौले गिरते हैं. रंग इतना हल्का है कि कैमरा में कैद नहीं हो पाता. कुछ हलकी भूरी आँखें याद आती हैं...उनका रंग जैसा मेरी यादों में है, किसी तस्वीर में नहीं है.

मैं रोज बाईक से आती हुयी उस पेड़ को देखती हूँ...हफ्ते भर का मौसम है...गुलाबी. रोज सोचती हूँ कि कैमरा ले आउंगी...इस खूबसूरती को कैद करने की कोशिश करूंगी मगर उनकी खूबसूरती आँखों में खिलती है...मूड का मौसम है उस पेड़ पर. कुछ बैलाड बजाती हूँ. कुछ आवाजें हैं कि वापस दुनिया में लौटा लाती हैं.

बहुत सी देखे हुए दृश्यों के रंग नहीं होते...बचपन में घुटने पर चोट लगी तो खून बह रहा था मगर खून का रंग सियाह याद आता है. एक बार तुम्हारी दवात गिर गयी थी, किस रंग से लिखते थे तुम? इतना दर्द लिखते हो अब तक, उस समय तो शायद गहरी नीली सियाही इस्तेमाल करते होगे या कि उम्र थी कच्ची...हरे रंग का था क्या? फिर मेरे खतों में तुम्हारा सिग्नेचर सिर्फ काले रंग में क्यूँ मिलता है? यादों का कौन सा फ़िल्टर है कि सारे रंग एक बार में ही खो जाते हैं.

मैंने तुम्हारे कमरे पर जो फूल लगाए थे गुलदान में, वो कैसे हो सकते हैं काले...कम से कम रजनीगंधा का कोई तो रंग होगा...हल्का गुलाबी...नर्म पीला...खामोश नीला...कोई तो रंग होगा...ऐसा कैसे हो सकता है कि कमरे की दीवारें काले रंग की हों...ऐसा तो सिर्फ इतना था न कि मेरी आँखों में लगा काजल था काले रंग का. साल में कितने दिन थे...दिन में कितने लम्हे...कितने लम्हों में तुम थे मेरी जान? बाकी लम्हों का रंग क्या था? उस साल क्या मैंने सारे दुपट्टे काले रंग के ख़रीदे थे...कहाँ थे रंग मेरी जिंदगी के.

सिर्फ सड़कें याद आती हैं मुझे...मगर कच्ची पगडंडियाँ तो भूरे रंग की होनी चाहिए थीं...काली मिट्टी तो उस जगह नहीं होती...वरना उस मिट्टी में लोग खेती करते. काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है. डार्क चोकलेट उन दिनों भी काले रंग की नहीं हो सकती...कत्थई रंग की होती है. तुमने जब हाथ पकड़ा था तो निशान पड़ गए थे...मुझे याद है कि वे निशान काले रंग के थे. मैंने कहा था कि मैं लौट कर नहीं आउंगी...मेरे जाने का रंग क्या था मुझे मालूम नहीं...मगर उस दिन के बाद शायद कमरे में बत्ती नहीं जली कभी. दिन को सूरज का भी रंग होता था न...तुम्हें रंग और रोशनियों में फर्क मालूम है? रोशनियाँ मिल कर सफ़ेद रंग की रौशनी बनती हैं मगर रंग मिला दोगे तो काला रंग बनता है. उस रंग से फिर कोई रौशनी वापस नहीं जाती.

मेरे मूड स्विंग्स थोड़े तमीजदार हो रहे हैं. बता कर आते हैं. कई बार कोशिश करती हूँ तो उदास मौसम को कुछ लम्हों के लिए टाल भी देती हूँ. मेरे पसंद की चोकलेट मिलनी बंद हो गयी है शहर में. मैं ठहरना चाहती हूँ मगर ठहर नहीं पाती...बाईक पर कोई जिन्न खींचता है...इतनी तेज़ इतनी तेज़ कि जैसे जिंदगी से रेस कर रही हूँ...फिर से कोलाज का मौसम है. दुपट्टे को रंगती हूँ सात रंगों में. घर में बजाती हूँ वाल्ट्ज...पढ़ती हूँ पुरानी किताबें. तलाशती हूँ खोयी हुयी किताबों के पीछे लिखी हुयी तारीखें. सोचती हूँ कहीं से लौट आने का मौसम किसी कैलेंडर में दिखेगा.

सांस रोकती हूँ पानी के अन्दर...सब धुंधला लिखता है. याद आता है आज फिर रोते रोते सो गयी हूँ. सुबह बदन में दर्द होता है बहुत. समंदर में डूब रही हूँ...पैरों में जंजीरें हैं...पत्थर है भारी सा कोई...सीने में दर्द है...कोशिश भी नहीं की है एक सांस लेने की...आँखें खोलूंगी तो जाने कैसा दृश्य होगा. किस रंग है जिंदगी? कौन बताये...कौन समझाए!

03 May, 2012

सोचो...हम और तुम परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न?


कोम्पोजिशन...सबसे पहली चीज़ पढ़ाई जाती है फोटोग्राफी में. मुझे जिंदगी के बारे में भी पढ़ाना होता तो फोटोग्राफी के कम्पोजीशन से ही पॉइंटर्स उठाती. रूल ऑफ थर्ड्स कहता है कि कुछ भी एकदम बीच में मत रखो...इससे उसकी खूबसूरती घट जाती है...आँखों के भटकने देने को थोड़ी सी ब्रीदिंग स्पेस देनी चाहिए...मूल सब्जेक्ट के दायें, बाएं, ऊपर या नीचे...जहाँ भी तुम्हें सबसे अच्छा लगे...थोड़ी सी खाली जगह छोड़ दिया करो. कॉपी पर लिखते हुए भी हम हाशिया छोड़ते हैं...फिर रिश्तों में ये क्यूँकर चाह होने लगती है कि उसकी सारी जिंदगी मेरे इर्द गिर्द कटे? ईमानदारी से...ऐसा होना अप्राकृतिक है...किसी की जिंदगी का सेंटर होना चाहना ही नहीं चाहिए...बल्कि अगर जियोमेट्री में ही जाना है तो किसी की परिधि बनना बेहतर है...कि वो बाहर न जाने पाए...लौट लौट आये...हालाँकि ये भी बुरा लगता है सोच कर...शायद जियोमेट्री में कोई सही तुलना नहीं है रिश्तों की.

रूल ऑफ थर्ड्स...आँख को जितना दिखता है उससे चार रेखाएं गुज़रती हैं...दोनों पैरलल रेखाएं एक दूसरे के परपेंडिकुलर...सोचो...हम और तुम  परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न? कहीं सुदूर अंतरिक्ष में चलते हुए किसी एक बिंदु पर क्षण भर के लिए ही मिले और फिर अपने अलग अलग रस्ते...पर अलग रस्ते होने पर उस बिंदु की याद तो नहीं चली जाती...उस पॉइंट का होना तो नहीं चला जाता...यूँ तो ऐसे ही बिंदु पर एक्स एक्सिस, वाय एक्सिस और जेड एक्सिस मिलते हैं और हमारे संसार की रचना करते हैं...त्रिआयामी...तीनो प्लेन्स अपनी अपनी जगह होते हैं...पर एक बिंदु तो होता है जहाँ स्पेस-टाइम लाइन पर भी मिलना होता है- होना होता है.

मेरा शब्दों पर से विश्वास चला गया है...कुछ यूँ कि इधर बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा...न कॉपी पर, न कहीं ड्राफ्ट में, ना कहीं और...न दोस्तों से बातें की...ना कुछ पढ़ा...सब झूठ लगता है...सारी दुनिया फानी...पहले जब तकलीफ होती थी तो लिखने से थोड़ा आराम मिलता था...आजकल लिखने की इच्छा ही चली गयी है...एकदम बेज़ार...शब्द सारे दुश्मन नज़र आते हैं. परसों बुक लॉन्च था...अपनी लिखी किताब पहली बार हाथ में आई...अपना नाम देखा कवर पर...नाम में भी कोई अर्थ नहीं जान पड़ा. नोर्मल केस में सबको फोन करके बताती...खुश होती...दोस्तों को पार्टी देती. इस केस में...वीतराग...मन की ख़ामोशी सारी खुशियाँ लील जाती है.

जब पहली बार एसलआर कैमरे के व्यूफाईंडर से दुनिया देखी थी तो मन में आइडिया लगाना होता था कि इस रंगभरी दुनिया में कौन सा फ्रेम है जो ब्लैक एंड वाईट में अपनी खूबसूरती बरक़रार रखेगा. उस समय हमारे पास जो फिल्म थी वो ब्लैक एंड वाईट थी...तो इससे आदत हो गयी कि जब चाहूँ दुनिया को ग्रे के शेड्स में देख सकती हूँ...बहुत ज्यादा कंट्रास्टिंग चीज़ें पसंद आती हैं. गहरे शेड वाले लोग अच्छे लगते हैं कि धुलने के बाद उनकी फिल्म एकदम साफ़ आती है...पोजिटिव पर उभरते अक्स से आज भी प्यार होता है...पर निगेटिव को वालेट में जगह देती हूँ...दुनिया वाकई नेगेटिव जैसी ही है...जो जैसा दिखता है उसके उलट होता है...गुलमोहर सफ़ेद दिखते हैं और बारिशें काली.

सोच रही हूँ कुछ दिन फोटोग्राफी पर ध्यान दिया जाए...तसवीरें खामोश होती हैं...सबके पीछे एक कहानी होती है पर कहानी आपको खुद गढ़नी होती है...अब ऊपर की तस्वीर में ये कहाँ लिखा है कि ये कौन से तल्ले पर की आखिरी सीढ़ियाँ हैं और मन कहाँ से कूद कर जान दे देना चाहता था...मगर मन का मरना आसान है...उसे जिलाए रखना...मुश्किल. आज जैसा सर दर्द हो रहा है उसके लिए हिंदी में 'भीषण' और इंग्लिश में 'माइग्रेन' जैसा कोई शब्द होगा...मैंने अपने आप से परेशान हूँ कि मेरी चुप्पी भी शब्द मांगती है.

मैंने उसे अपने पाँव दिखाए...कि देखो मेरे पांवों में भँवरें हैं...मैं बहुत दूर देश तक घूमूंगी...उसने मेरे पांवों में बरगद के बीज रोप दिए...अब मैं जहाँ ठहरती हूँ मेरी जड़ें गहराने लगती हैं...जिस्म के हर हिस्से से जड़ें उगने लगती हैं...हर बार कहीं जाने में खुद को विलगाना होता है...तकलीफ होती है...मुझे सफ़र करना अच्छा लगता था मगर अब मेरा मन घर मांगने लगा है...एक ऐसी चीज़ जो मेरी नियति में नहीं लिखी है...हाथ की लकीरों में शरणार्थी लिखा है...विस्थापित होना लिखा है...भटकाव है...बंजारामिजाजी है...मन घर में बसता नहीं...और जिस्म की दीवारें उठ जाती हैं सरायखाना बनाने को. एक तार पर मन गाने लगा है, कैसा कच्चा गीत...मैं उलझन में हूँ...जानती भी हूँ कि मैं क्या चाहती हूँ!

08 January, 2012

खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बख्शे...

मैं किताबों की एक बेहद बड़ी दूकान में खड़ी थी...दूर तक जाते आईल थे जिनमें बहुत सी किताबें थीं...अक्सर उदास होने पर मैं ऐसी ही किसी जगह जाना पसंद करती हूँ...किताबों से मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है इसलिए उनके पास जा के कोई सुकून ढूँढने की ख्वाहिश रखी जा सकती है.

उन लम्बे गलियारों में बहुत से रंग थे...अलग कवर से झांकते चरित्र थे...मैं हमेशा की तरह उड़ती सी नज़र डाल कर डोल रही थी कि आज कौन सी किताब बुलाती है मुझे. मेरा किताबें पसंद करना ऐसा ही होता है...जैसे अजनबी चेहरों की भीड़ में कोई चेहरा एकदम अपना, जाना पहचाना सा होता है...कोई चेहरा अचानक से किसी पुराने दोस्त के चेहरे में मोर्फ भी कर जाता है. कपड़े, मुस्कराहट, आँखें...दिल जिसको तलाशता रहता है, आँखें हर शख्स में उसका कोई पहलू देख लेती हैं...

किताबें यूँ ही ढूंढती हैं मुझको...हाथ पकड़ पर रोक लेती हैं...आग्रह करती हैं कि मैं पन्ने पलट उन्हें गुदगुदी लगाऊं...फिर कुछ किताबें ऐसी होती हैं कि उँगलियाँ फिराते ही खिलखिलाने लगती हैं...कुछ हाथ से छूट भागती हैं, कुछ गुस्सा दिखाती हैं और कुछ बस इग्नोर करना चाहती हैं...तो कुछ किताबें ऊँगली पकड़ झूल जाती हैं कि मुझे घर ले चलो...तब मुझे तन्नु याद आती है...जब तीनेक साल की रही होगी तो ऐसे ही हाथ पकड़ के झूल जाती थी कि पम्मी मौती(मौसी) मुझे बाज़ार ले चलो. मुझे वैसे भी किताबों का अहसास हाथ में अच्छा लगता है...लगता है कि किसी अनजान आत्मीय व्यक्ति से गले मिल रही हूँ...जिसने बिना कुछ मांगे, बिना कुछ चाहे बाँहें फैला कर अपने स्नेह का एक हिस्सा मेरे नाम कर दिया है. 

मेरे दोस्त कभी नहीं रहे, स्कूल...कॉलेज कहीं भी...ठीक कारण मुझे नहीं पता बस ऐसा हुआ कि कई साल अकेले लंच करना पड़ा है...ऐसे में दो ही ओपशंस थे...या तो खाना ही मत खाओ या कोई किताब खोल लो और उसके किरदार को साथ बुला लो बेंच पर और उसके साथ पराठे बाँट लो. अब भूखे रहना भी कितने दिन मुमकिन था...तो कई सारे किरदार ऐसे रहे हैं जिन्होंने बाकायदा मेरे साथ दोपहर का लंच किया है. हाँ वहां भी कोई मेरा दोस्त नहीं बना कि जिसका नाम याद हो...कभी भी एक किताब को पढ़ने में तीन-चार घंटे से ज्यादा वक़्त नहीं लगा. बचपन से पढ़ने की आदत का नतीजा था कि पढ़ने की स्पीड हमेशा बहुत अच्छी रही थी. किताबों में अगर एकलौता दोस्त कोई है तो हैरी पोटर...इस लड़के ने कितनी जगहें मेरे साथ घूमी हैं गिनती याद नहीं. 

पटना में पुस्तक मेला लगता था घर के बगल पाटलिपुत्रा कालोनी में...उतनी सारी किताबों को एक साथ देखना ऐसा लगता था जैसे घर में शादी-त्यौहार पर सारे रिश्तेदार जुट आये हों...कुछ दूर के जिनसे सालों में कभी एक बार मिलना होता है. ऐसा कोई स्टाल नहीं होता था जिसमें नहीं जाते थे...कितना कुछ तो ऐसे ही देख के खुश हो जाते थे भले ही किताब न खरीद पाएं...बजट लिमिटेड रहता था. किताबों को देख कर...छू कर खुश हो जाते थे. किताबों का ख़ुशी के साथ एक धागा जुड़ गया था बचपन से ही. 

आज मैं बस ऐसे ही एक नयी किताब से दोस्ती करने गयी थी...ब्लाइंड डेट जैसा कुछ...कि आज मुझे जिस किताब ने बुलाया उसकी हो जाउंगी. कितनी ही देर नज़र फिसलती रही...कोई अपना न दिखा...किसी ने आवाज़ नहीं दी...किसी ने हाथ पकड़ के रोका नहीं...मैं उस किताबों की बड़ी सी दूकान में तनहा खड़ी थी...ऐसे ही ध्यान आया कि मोबाईल शायद साइलेंट मोड पर है...उसे देखा तो लाल बत्ती जल रही थी...फेसबुक पर देखा तो कुछ दिलफरेब पंक्तियाँ दिख गयीं...

वहीं किताबों से घिरे हुए...मोबाईल पर ब्लॉग खोला और सारी किताबें खो गयीं...रूठ गयीं...मुझे छोड़ कर चली गयीं...मेरे पास कुछ शब्द थे...बेहद हसीन बेहद अपने...और अगर ये मान भी लूं कि ये शब्द मेरे लिए नहीं हैं तो भी सुकून मिलता है...कि उसे जानती हूँ जिसने ये ताने बाने बुने हैं. मना लूंगी किताबों को...बचपन की दोस्ती में डाह की जगह नहीं होती.

उस लम्हा, वहाँ आइल में खड़े खड़े, किताबों से घिरे हुए...तुम्हारे शब्दों ने बाँहें फैलायीं और मुझे खुद में यूँ समेटा कि दिल भर आया...ऐसे कैसे लिखते हो कि शब्द छू लेते हैं स्क्रीन से बाहर निकल कर. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे..दिल से तुम्हारे लिए बहुत सी दुआ निकलती है दोस्त! ऐसे ही उजला उजला सा लिखते रहो...कि इन शब्दों की ऊँगली पकड़ कर कितने तनहा रास्तों का सफ़र करना है मुझे...दुआएं बहुत सी तुम्हारे लिए...

खास तुम्हारे लिए उस लम्हे को कैद कर लिया है...देखो मैं यहीं खड़ी थी...कि जब तुम्हारे शब्दों ने पहले गले लगाया था और फिर पूछा था...मुझसे दोस्ती करोगी?

14 December, 2011

तुम्हारे नाम चिट्ठी

हे इश्वर!

अखबारों में आया है कि आज तेरा एक कतरा मिला है तेरे जोगियों को...तेरी तलाश में कब से भटक रहे थे...तेरी तस्वीर भी आई है आज...बड़ी खूबसूरत है...पर यकीन करो, मेरे महबूब से खूबसूरत नहीं.

मेरा महबूब भी तुम सा ही है...उसके वजूद का एक कतरा मुझे मिल जाए इस तलाश में कपड़े रंग लिए जोगिया और मन में अलख जगा ली. सुबह उसके ख्यालों में भीगी उतरी है कि कहीं पहाड़ों पर बादल ने ढक लिया चाँद को जैसे...यूँ भी पहाड़ों में चाँद कम ही नज़र आता है जाड़े के इन दिनों...कोहरे में लिपटे जाड़े के इन दिनों.

ये भी क्या दिल की हालत है न कि तुम्हारी तस्वीर देख कर अपने महबूब की याद आई...बताओ जो ढूँढने से तुम भी मिल जाते हो तो मुझे वो क्यूँकर न मिल पायेगा. आज तो यकीन पक्का हुआ कि तुम हो दुनिया में...भले मेरी हाथों की पहुँच से दूर मगर कहीं तो कोई है जिसने तुम्हें देखा है...उन्ही आँखों से कि जिससे कोरा सच देखने में लोग अंधे हो जाते थे. तुम्हारा एक कतरा तोड़ के लाए हैं.

वैसा ही है न कुछ जैसे रावण शिव लिंग ले के चला था कैलाश से कि लंका में स्थापित करेगा और पूरे देवता उसका रास्ता रोकने को बहुत से तिकड़म भिड़ाने बैठ गए थे...और देखो न सफल हो ही गए. मगर जो मान लो ना होते तो मैं कहाँ से अपने महबूब की याद आने पर शंकर भगवान को उलाहना दे पाती कि हे भोला नाथ कखनS हरब दुःख मोर! मैं देखती हूँ कि आजकल मुझे याद तुम्हारी बहुत आती है...क्या तुमपर विश्वास फिर से होने लगा है? मेरे विश्वास पर बताओ साइंसजादों का ठप्पा कि तुम हो...जैसे कि मैं इसी बात से न जान गयी थी तुम्हारा होना कि दिल के इतने गहरा इतना इश्क है...

इश्क और ईश्वर देखो, शुरुआत एक सी होती है...इश्वर का मतलब कहीं वो तो नहीं जो इश्क होने का वर दे? हाँ मानती हूँ थोड़ा छोटी इ बड़ी ई का केस है इधर पर देखो न...अपना हिसाब ऐसे ही जुड़ता है. सुबह उठी तो मन खिला खिला सा था...सोचा कि क्यूँ तो महसूस हुआ कि जिंदगी में लाख दुःख हों, परेशानियाँ हों, कष्ट हों...मैं तुम्हें तब तक उलाहना नहीं देती तब तब प्यार है जिंदगी में.

आज सुबह बहुत दिन या कहो सालों बाद तुम्हारे प्लान पर भरोसा किया है...कि तुम्हारी स्कीम में कहीं कुछ सबके लिए होता है. अभी ही देखो, घर पर कितनी परेशानी है...पर शायद ऐसा ही वक़्त होता है जब मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है. तुम मेरे इस भरोसे तो रक्खो या तोड़ दो...पर लगता तो है तुम कुछ गलत नहीं करोगे.

आज सुबह मन बहुत साफ़ है...जैसे बचपन में हुआ करता था...कोई दर्द नहीं, कोई ज़ख्म नहीं, कोई कसक नहीं. सोच रही हूँ कि वो जो अखबार में जो तस्वीर छपी है...उसमें कोई जादू भी है क्या? कि अपने महबूब की बांहों में होना ऐसा ही होगा क्या? कि हे ईश्वर तेरा ये कौन सा रूप है जिससे मैं प्यार करती हूँ? नन्हे पैरों से कालिया सर्प के फन पर नाचते हे मेरे कृष्ण...वो समय कब आएगा जब मैं तुम्हें सामने देख सकूंगी!

तुम्हारे प्यार में पागल,
पूजा 

10 December, 2011

वसीयत

मौत की सम्मोहक आँखों में देखते हुए मैं तुम्हें बार बार याद करती हूँ...इत्मीनान है कि तुम्हें आज शाम विदा कह चुकी हूँ...बता भी चुकी हूँ कि तुमसे कितना प्यार करती हूँ...दोनों बाँहों के फ़ैलाने से जितना क्षेत्रफल घिरता है, उतना...मेरे ख्याल से इतने प्यार पर तुम अपनी बची हुयी जिंदगी बड़े आराम से काट लोगे...मुझे यकीन है...तुम बस याद रखना कि ये वाक्य संरचना नहीं बदलेगी 'मैं तुमसे प्यार करती हूँ' कभी भी 'मैं तुमसे प्यार करती थी' नहीं होगा. मेरे होने न होने से प्यार पर कोई असर नहीं होगा.

मैं ऐसे ही मर जाना चाहती हूँ, तुम्हारे इश्क में लबरेज़...तुम्हारी आवाज़ के जादू में गुम...तुम्हारे यकीन के काँधे पर सर रखे हुए कि तुम मुझसे प्यार करते हो. इश्क के इस पौधे पर पहली वसंत के फूल खिले हैं...यहाँ पतझड़ आये इसके पहले मुझे रुखसत होना है...तुम ये फूल समेट कर मेरे उस धानी दुपट्टे में बाँध दो...मेरे जाने के बाद दुपट्टे से फूल निकाल कर रख लेना और दुपट्टा अपने गाँव की नदी में प्रवाहित कर देना...उसके बाद तुम जब भी नदी किनारे बैठोगे तुम्हें कहीं बहुत दूर मैं धान के खेत में अपना दुपट्टा हवा में लहराते हुए, मेड़ पर फूल से पाँव धरते नज़र आउंगी. मेरा पीछा मत करना...मेरा देश उस वक़्त बहुत दूर होगा.

यकीन करना कि मैं कहीं नहीं जा रही...तुम्हारे आसपास कहीं रहूंगी...हमेशा...हाँ ध्यान रखना, मेरी याद में आँखें भर आयें तो उस रात पीना नहीं...कि खारा पानी व्हिस्की का स्वाद ख़राब कर देता है और तुम तो जानते ही हो कि व्हिस्की को लेकर मैं कितना 'टची' हो जाती हूँ. तुम्हें ऐसा लगेगा कि मैं ये सब नहीं देख रही तो मैं आज बता देती हूँ कि मरने के बाद तो मैं और भी तुम्हारे पास आ जाउंगी...आत्मा पर तो जिस्म का बंधन भी नहीं होता, न वक़्त और समाज की बंदिशें होती हैं उसपर...एकदम आज़ाद...मेरे प्यार की तरह...मेरे मन की तरह. 

जिंदगी जितनी छोटी होती है, उतनी ही सान्द्र होती है...तुम तो मेरे पसंद के सारे लोगों को जानते हो कि जो कम उम्र में मर गए...कर्ट कोबेन, दुष्यंत कुमार, गुरुदत्त, मीना कुमारी...उनकी आँखों में जिंदगी की कितनी चमक थी...जिसके हिस्से जितनी कम जिंदगी होती है उसकी आँखों में खुदा उतनी ही चमक भर देता है. तुमने तो मेरी आँखें देखी हैं...क्या लगता है मेरी उम्र कितने साल है?

इतनी शिद्दत से किसी को प्यार करने के बाद जिंदगी में क्या बाकी रह जाता है कि जिसके लिए जिया जाए...मैं नहीं चाहती कि इस प्यार में कुछ टूटे...मुझे इस प्यार के परफेक्ट होने का छलावा लिए जाने दो. मैं टूट जाने से इतना डरती हों कि वक़्त ही नहीं दूँगी ये देखने के लिए कि हो सकता है इस प्यार में वक़्त के सारे तूफ़ान झेल लेने की ताकत हो. 

मुझे चले जाने से बस एक चीज़ रोक रही है...फ़र्ज़ करो कि तुमने मेरे ख़त नहीं पढ़े हैं...ये ख़त भी तुम तक नहीं पहुंचा है...अपने दिल पर हाथ रख के जवाब दो, तुम्हें पूरा यकीन है तो सही कि मैं तुमसे बेइंतेहा प्यार करती हूँ या कि मेरे जाने के बाद कन्फ्यूज हो जाओगे? 
मेरे बाद की कोई शाम...




मैं तुम्हारे नाम अपनी बची हुयी धड़कनें करती हूँ...कि मोल लो इनसे इश्क के बाज़ार में तुम्हें जो भी मिले...याद का सामान जुगाड़ लो कि भूली हुयी शामों में राहत हो कि एक पागल लड़की ने चंद छोटे लम्हों के लिए सही...तुम्हें प्यार बहुत टूट के किया था. 

06 December, 2011

लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं

स्ट्रगलिंग राइटर को देखा है? किसी शहर में उसके लिए कभी कोई जगह नहीं रहती...लेखक स्वाभाव से आवारा होता है इसलिए उसे हमेशा लौट आने के लिए एक जगह चाहिए होती है, एक कोना, एक कमरा, एक बिस्तर जिसे वो घर कह सके. अगर उसके पास लौट आने को आसरा नहीं होगा तो उसकी यात्राएं अनंत तक फैलती जायेंगी और एक वक़्त ऐसा भी आएगा कि जब उसके पास लौट आने की इच्छा ही नहीं बची होगी.

राइटर मकान मालिक से इल्तिजायें करता है, आंटी प्लीज थोड़ी सी जगह चाहिए रहने के लिए...बरसाती में रह लूँगा...आपको कभी कोई तकलीफ नहीं होगी...न सही ये बरामदा ही घेर कर वो कोने वाली जगह मुझे दे दो...एक गद्दा और कुछ किताबें...बस इससे ज्यादा कुछ नहीं है मेरे पास. प्लीज आंटी...घर पर आपकी भी हेल्प कर दिया करूँगा...प्लीज आंटी प्लीज...थोड़ी सी तो जगह की बात है, आप इतने बड़े घर में अकेले बोर भी हो जायेंगी...मुझे गिटार बजाना आता है, बहुत अच्छे से...आपकी पसंद के गाने बजाऊंगा. मदर प्रोमिस.

रिश्ते भी कभी कभी ऐसे हो जाते हैं...कहने में दर्द होता है मगर हम जानते हैं कि रिश्ते में हाशिया भर को ही मिले, हमें जीने के लिए चाहिए होता है. आजादी की कीमत तभी है जब कहीं न कहीं, छोटा सा ही सही, बंधन हो. There is nothing like absolute freedom. पूरी तरह से बंधनमुक्त होने पर हम अपनी आजादी तक एन्जॉय नहीं कर पाते...मन जो होता है न, वही मांगता है जो उसे नहीं मिलता...तो जब आपको बंधन नहीं मिलते आप बंधन की ओर भागते हो. कहीं कोई एक हो, जो आपको बाँध के रख सके...अपनी मर्जी से मोड़ सके, तोड़ सके...दुःख पहुंचा सके.

हम लाख खुद को तटस्थ करना चाहें, मन का एक कोना हमेशा छीजता रहता है...मन तब तक खुला है जब तक कोई कहे कि तुम्हारी सीमा आसमान है...किसी के कहे बिना इस कथ्य का होना भी नहीं होता...वैसा ही है जैसे हनुमान जी के पास बहुत सी शक्तियां थी, पर जब तक उनको कोई याद नहीं दिलाता उन्हें पता ही नहीं था कि वो क्या क्या कर सकते हैं.

बड़े साइंटिस्ट लोग रिसर्च कर के कह रहे हैं कि हमें जो दिखता है  इसलिए नहीं कि वो है...उसका होना इसलिए है की उसे देखने वाला कोई है...उस तरह से सच तो फिर कुछ भी नहीं रहा...उस तरह से तो फिर जो मैंने देखा वो सच...तो सबका सच अलग अलग होगा...और होता भी तो है. उफ्फ्फ!

हाशिया...गुम हो जाएगा ये भी धीरे धीरे...कागज़ ख़त्म हो रहा है, कलमें और दवात भी...और इसी के साथ एक पूरी प्रोसेस लुप्त हो रही है. लिखना सिर्फ शब्दों को सकेर देना नहीं है...लिखने में आता है जबान पे घुलता सियाही का स्वाद...आँखों से शब्दों को पीना...और सफ़ेद कागज़ का आमंत्रण...कुछ लिखने का, कुछ गढ़ने का...कुछ बनने का. एक ऐसी दुनिया रचने का जिसमें सब कुछ लेखक ही है पर एक परदे के पीछे. एक नाम लिखते ही किरदार जन्म ले लेता है और उसके साथ ही जन्मता है एक पूरा संसार...लेखक इसलिए तो भगवान् से कम नहीं होता.

राइटर के पास लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं क्यूंकि उसमें तुम्हारा चेहरा उग आता है...तुम...तुम...तुम...जिस दिन मैं इस 'तुम' की परिभाषा लिख लूंगी, उस दिन मेरी कहानी पूरी हो जायेगी.

ओह! मेरी उँगलियाँ ठंढ से अकड़ रही हैं, अभी तो शुरूआती दिसंबर है...पूरा जाड़ा आना बाकी है. तुम्हारे पास लाइटर है न, जरा मेरी उँगलियाँ सेक लेने दो...एक आखिरी चिट्ठी लिखनी है तुम्हें. 

26 April, 2011

जो ऐसा मौसम नहीं था

वो ऐसा मौसम नहीं था 
कि जिसमें किसी की जरुरत महसूस हो 
वो ठंढ, गर्मी, पतझड़ या वसंत नहीं था
मौसम बदल रहे थे उन दिनों

तुम आये, तुम्हारे साथ 
मौसमों में रंग आये
मुझसे पूछे बगैर
तुम जिंदगी का हिस्सा बने

तुमने मुझसे पूछा नहीं
जिस रोज़ बताया था 
कि तुम मुझसे प्यार करते हो
मैंने भी नहीं पूछा कि कब तक 

यूँ नहीं हुआ कि तुम्हारे आने से
बेरहम वक़्त की तासीर बदल गयी
यूँ नहीं हुआ कि मैं गुनगुनायी
सिर्फ मुस्कराहट भर का बदलाव आया 

तुमने सोलह कि उम्र में
नहीं जताया अपना प्यार 
और मैं इकतीस की उम्र में
नहीं जता पाती हूँ, कुछ भी 

शायद इसलिए कि
हम बारिशों में नहीं भीगे
जाड़ों में हाथ नहीं पकड़ा 
गर्मियों में छत पर नहीं बैठे 

जब पतझड़ आया तो
पूछा नहीं, बताया 
कि तुम जा रहे हो 
और मैं बस इतना कह पायी 

कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है 

27 December, 2010

किसी राह पर, किसी इंतज़ार में

मुझे बहुत कम किताबें पसंद आती हैं...और जो बेहद पसंद आती हैं ऐसा तो बहुत कम होता है. मैंने पचपन खम्भे लाल दीवारें जब पढ़ी थी...वो एक ठहरी हुयी दोपहर थी. घर के बरामदे पर मेरा नीले रंग का सोफा हुआ करता था उन दिनों...वो सोफा पूरे दोपहर आराम से लेट कर किताबें पढने के लिए बेस्ट था. आज भी लेट कर सोफे पर किताबें पढ़ना मुझे मेरे सबसे खुशनुमा दिनों की याद दिलाता है. 
आज मैंने सोचा है...देर रात जागुंगी, बहुत कुछ लिखूंगी...बहुत वक़्त हुआ, पूरी रात जाग कुछ लिखा नहीं...कुछ पढ़ा नहीं. दिन में चाहे जितना भी लिख लो, रात की बराबरी कोई और वक़्त कर ही नहीं सकता. फ़र्ज़ किया जाए कि रात के तीन बजने वाले हैं और मैंने कल ही कुणाल की जिद पर एक horror फिल्म देखी है...वैसे फिल्म बुरी नहीं थी पर जब भी ऐसी फिल्में देखती हूँ मुझे रात में थोड़ा डर लगता है. और चूँकि मेरे पास मेरे इस डर से बचाने के लिए कोई भगवान नहीं हैं तो मैं चाहती हूँ कि ऐसे किसी हालत में ना फंसूं. डर लगने पर मेरे पास कोई रास्ता नहीं होता है सिवाए गहरी सांसें लेकर खुद की सोच को किसी और दिशा में मोड़ने के. ये नहीं कह सकती कि हमेशा ऐसा कर ही पाती हूँ. But then, that is the reason why I have like tons of drafts that I am never gonna publish.

वापस पचपन खम्बे लाल दीवारें पर...मैंने जब किताब पढ़ी थी तो पूरी एक बार में एक सांस में. मुझे याद आता है कि जब मैंने पढ़ना शुरू किया था कोई दोपहर शुरू होने वाली थी...ग्यारह बज रहे होंगे...ख़त्म होने में लगभग दो घंटे लगे होंगे...मेरी बरामदे की खिड़की से घर का मेन गेट दिखता था और गेट के सामने जामुन का बड़ा सा पेड़...और सड़क. देर दोपहर उस सड़क पर कोई नहीं आता था, वो दोपहर आज की रात की तरह थी, एकदम खामोश. मेरा रोना भी चुप ही होता था...आँखों से आँसू चुप चाप चल पड़ते थे, जैसे किसी को दिल भर के प्यार करने के बाद उसकी जिंदगी से जाना पड़े. किसी से दूर होते वक़्त आप क्या कह सकते हैं. ऐसा क्या कह दूं कि मेरे जाने का दर्द कम हो जाए...ऐसे कोई शब्द नहीं होते हैं. 

वो दोपहर थी...नील नहीं आने वाला था, हाँ पचपन खम्बे का नील...मुझे लगता था कि सामने की सड़क से वो आएगा, आज की शाम से पहले आएगा. जिंदगी में पहली बार किसी उपन्यास के किरदार से प्यार हुआ था. मेरी जिंदगी में नील के नहीं होने के कारण मैं बहुत टूट कर रोई थी उस दिन. बहुत गुस्सा आया था उषा प्रियंवदा पर...उस दिन पहली बार जाना था किसी का जिंदगी से ऐसे चला जाना...एकदम फेड आउट हो जाना, जैसे वो कभी जिंदगी का हिस्सा था ही नहीं. मैंने ये किताब अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा खोयी है और खरीदी भी है. तब से नील का जाना बहुत चुभा है...आज भी कभी ऐसी रात में सोचती हूँ तो याद आता है वो पाटलिपुत्रा का चौराहा जो घर के सामने पड़ता था...दूर के हलके जमुनी रंग के पेड़...और नील, जो उस दोपहर नहीं आया. नील किरदारों में मेरा पहला प्यार है...हमेशा से. कभी कभी लगता है आज भी उसका इंतज़ार उसी राह पर कर रही हूँ पर वो कभी आएगा नहीं. 

किसी के जाने पर ऐसे टूट कर बस एक ही बार और रोई हूँ...गॉन विद द विंड के रेट बटलर के लिए. उफ़ वो कितना हैंडसम था...उसका जाना इतना हार्ट ब्रेकिंग था. Frankly my dear, I don't give a damn. आज उसकी बात नहीं कर पाउंगी...फिर कभी. 

09 June, 2010

The breaking dawn

Writing is my salvation
my escape from the grim realities of life
my acceptance of the harder responsibilities

words hold my hand
take me to a shore of undulating waves
take me to an orchestra of silence

black and white merge
to give shape to my inner conflicts
to paint in shades of light and dark grey

i revolt against myself
try to make sense of the madness unleashed
try to rise from the ashes like a phoenix

the barriers are there
to protect from the frightening unknown
to forbid the exultation of discovery

blood stained paper
does justice to a bleeding heart
does justice to a spirit on fire

i die. i am born.

01 June, 2010

धुएं में लिपटी आवाज

वो कार से उतरते ही फ़ोन लगाती है. और बात करते हुए ही घर में जाती है. अँधेरे घर की लाईट अकेले जलाना अच्छा नहीं लगता इसलिए. फ़ोन की आवाजें कभी फ़ोन में नहीं रहतीं, पूरे घर में चहलकदमी करने लगती हैं. वो सोचती है कि उसे लोगों की आवाजों की कई बारीकियां मालूम हैं.

उसके रिश्ते फकत घर में टहलती इन आवाजों से है, पुरानी, छोड़ी हुयी, गिरती इमारतों की तरह. घर लौटना हमेशा अकेला होता है...किससे बात कर रही है उसके हिसाब से आवाज का एक पसंदीदा कोना होता उस घर में, एक कमरे का छोटा सा घर. एक आवाज है जो एक अकेली बालकनी में टंग जाती है और सिगरेट फूंकती रहती है, उस आवाज से उसे अजीब सा लगाव हो गया है. उस आवाज में गाहे बगाहे ट्रैफिक भी गलबहियां डाले मिलता है, तब वो आवाज एक अकेले की ना होके एक शहर की हो जाती है...एक कभी ना सोने वाले शहर की. वो अक्सर उस आवाज से सिगरेट छीन कर अपनी व्हिस्की के ग्लास में डुबा देती है, फिर रात को पीने का मूड नहीं होता. दूसरा पैग वो वैसे भी खुद अकेले के लिए कभी नहीं बनाती. और वो अक्सर अकेले ही पीती है. अजनबी लोगों के साथ वो जूस या कुछ और पीती है...अजनबी...उसकी जिंदगी में सब अजनबी ही लोग आते हैं. जान पहचान के लोग चाँद पर बने कोलनियों में शिफ्ट कर गए हैं. वहां जाने का किराया नहीं है उसके पास.

उसकी कई बार इच्छा होती है कि इस पसंदीदा आवाज को रिकोर्ड कर ले पर ये बात वो उसे बता नहीं सकती इस लिए रिकोर्ड भी नहीं करती है. भागते शहर के ठहरे हुए ट्रैफिक में रेडियो या सीडी सुनने के बजाये उसकी आवाज सुनेगी तो लगेगा वो उसके साथ लॉन्ग ड्राइव पर गयी है. कार चलते हुए बात नहीं करने का उसका नियम है. वैसे भी वो आजकल बहुत ज्यादा नियमों से बंधने लगी है. उसे अपना बहुत पुराना लिखा कुछ याद आता है "एक उम्र में आ के हर लड़की अपनी माँ की तरह हो जाती है". वो भी अपनी माँ की तरह चीज़ों को करीने से करने लगी है, बहुत कुछ बनाना सीख लिया है उसने. उसकी इच्छा होती है कि माँ होती तो उससे पूछती कि वो उसके जैसे हुयी है कि नहीं कितना बाकी है. उसे अपनी तरह पुरानी चीज़ें अच्छी लगने लगी हैं.
उसे बालों को रंगना पसंद नहीं है, हालाँकि लोग कहते हैं कि उसपर सफ़ेद बाल बहुत सूट करते हैं स्मार्ट और कूल लगती है वो.

उसकी बहनों के बच्चे अपनी इस मौसी को बहुत पसंद करते हैं, उसके गिफ्ट सबसे अच्छे होते हैं. आखिर वो गिफ्ट खरीदती भी तो है सबसे अलग और ढूंढ ढूंढ कर...वो सब कुछ जो शायद उसे कभी खुद के लिए चाहिए होता. पिछले महीने उसने नीलाभ के लिए मोटरसाइकिल खरीदी थी, सबसे लेटेस्ट वाली...नीलाभ नाम भी तो उसी का दिया हुआ है. जिस शाम बच्चे फ़ोन करते हैं वो अपना डाइटिंग मिस कर देती है और आइसक्रीम या गुलाबजामुन खाती है. एक आधा किलोमीटर ज्यादा jog कर लेती है और यूँ ही मुस्कुराते रहती है.

उसकी जिंदगी में सब कुछ जल्दी जल्दी बदलता रहता है, शहर, देश, सोने का समय उठने का समय...पर हर बार लौट के एक घर होता है, और एक आवाज. उसे कुछ और नहीं चाहिए बस उस फ़ोन की आवाज की सीडी.
क्या उसे पूछ के रिकोर्ड करना चाहिए या बिना पूछे?

18 May, 2010

सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता

समंदर सूरज पर कमंद फेंक कर  
आसमान पर चढ़ बैठा है 
लहर लहर बारिश हो रही है 

शहर अँधेरे पानी में डूब गया है
इसी पानी में सूरज भी घुला था 
पर उसकी रौशनी कहीं भी नहीं पहुंची है 

सारे घर लंगर डाले बैठे हैं 
किसी की नींव उठाई नहीं जा सकती अब 
थपेड़ों में अचल, शांत, अमूर्त 

मोमबत्ती की बुझने वाली लौ में 
जलाई जा रही है आखिरी सूखी सिगरेट 
जिसके कश लेकर मरना चाहता है कवि 

प्रलय के इस वक़्त भी वह नास्तिक है
इश्वर से जीतने पर गर्वोन्मत्त 
इच्छा, आशा, क्या प्रेम भी? से मुक्त 

गरजते बादल में कौंधती है बिजली 
एक क्षण. काली आँखें. रोता बच्चा 
कवि को गुजरती बारात याद आती है 

जल विप्लव सी सांझ वो काली आँखें 
सिन्दूरी सूरज सा लाल जोड़ा 
भयावह शोर नगाड़ों का, प्रलय. 

नींद टूटती है तो उसके हाथ जुड़े होते हैं 
सपने में नास्तिक होना संभव नहीं होता 
वो कल्कि अवतार का इंतज़ार करने लगता है  

09 May, 2010

मिस यू माँ

दर्द में डूबे डूबे से कुछ लम्हे हैं. अख़बारों पर बिखरी पड़ी मदर्स डे की अनगिन बधाईयाँ हैं...मुस्कुराती हुयी माँ बेटी की तसवीरें देख रही हूँ सुबह से. एक उम्र के बाद हर बेटी अपनी माँ का अक्स हो जाती है. मैंने भी पहले कभी नोटिस नहीं किया था, घर पर सब हमेशा कहते थे की मेरी शकल एकदम पापा जैसी है.

गुजरते वक़्त के साथ आज जब मम्मी मेरे साथ नहीं है, मैं देखती हूँ की वाकई मैं धीरे धीरे अपनी मम्मी का चेहरा होती जा रही हूँ. किन्ही तस्वीरों में, या कभी आईने में खुद को देखती हूँ तो मम्मी दिख जाती है. कभी हंसती हूँ तो लगता है मम्मी भी ऐसे ही हंसती थी. कभी अपनी बातों में अचानक से उसके ख्यालों को पाती हूँ. जा कर भी मम्मी कहीं नहीं गयी है, वो मेरे जैसी थी मैं उसके जैसी हूँ.

मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, एक ऐसी दोस्त जिससे बहुत झगडे होते थे मेरे...पर उससे बात किये बिना मेरा दिन कभी पूरा नहीं होता था. कॉलेज से आती थी तो मम्मी से बात करने की इतनी हड़बड़ी रहती थी की खाना नहीं खाना चाहती थी, जब तक उसको दिन भर की कमेंट्री नहीं दे दूं खाना नहीं खाती, ऐसे में मम्मी मेरे पीछे पीछे प्लेट ले के घूमती रहती थी और कौर कौर खिलाती रहती थी. दिल्ली आके भी मम्मी कभी बहुत दिन दूर नहीं रही मुझसे, हर कुछ दिन में अकेले ट्रेन का टिकट कटा के मिलने चली आती थी. और जब वो नहीं रहती थी तो फ़ोन पर दिन भर की कहानी सुना देती थी उसको.

मुझे अपनी मम्मी के जैसा कुछ नहीं आता, ना वैसा खाना बनाना, ना वैसे स्टाइल से बाल बांधना, ना वैसे सिलाई, कढाई, बुनाई...ना बातें...ना उसके जैसा परिवार को एक जैसा समेट के रखना. मैं अपनी मम्मी की परछाई भी नहीं हो पायी हूँ. और सोचती हूँ की अब वो नहीं है हमको सब सिखाने के लिए तो और दुःख होता है. ऐसा कितना कुछ था जो खाली उसको आता था, मैंने किसी और को नहीं देखा करते हुए. उसकी खुद की खोज...वो सब मैं कैसे सीखूं. मैं मम्मी जैसी समझदार और intelligent कैसे हो जाऊं समझ नहीं आता.

किसी भी समस्या में फंसने पर मम्मी के पास हमेशा कोई ना कोई उपाय रहता था, उसकी बातों से कितनी राहत मिलती थी. कभी ये नहीं लगा की अकेले हैं हम. अब जब वो नहीं है तो समझ नहीं आता है की किस्से पूछूं की जिंदगी अगर अजीब लगती है तो ये वाकई ऐसी है या सिर्फ मेरे साथ ऐसा होता है.

जिंदगी में कितनी भी independent हो जाऊं, सब कुछ खुद से कर लूं, महानगर में अकेले जी लूं पर मम्मी तुम्हारी जरूरत कभी ख़तम नहीं होगी. तुम्हारे बिना जीना आज भी उतना ही मुश्किल और तकलीफदेह है.
तुम बहुत याद आती हो मम्मी.

07 April, 2010

अख़बार से रंगा एक दिन

आधा दिन से ऊपर होने को आया...

मैं मान लूंगी कि मैंने आज का अखबार नहीं पढ़ा।

कि अस्सी जवानों के मारे जाने की बात सुनकर मुझे बस झुंझलाहट हुयी कि मैंने पेपर पढ़ना फिर क्यों शुरू किया.
कि मेरे दिमाग में कॉलेज के ज़माने का मीडिया एथिक्स का एक लेक्चर आया जिसमें ये था कि पहले अखबार वाले फ्रंट पेज पर ऐसी तसवीरें नहीं छापते थे जो विचलित कर सकती हूँ, खून वाली तसवीरें ब्लैक एंड व्हाईट में छापते थे।
कि सुबह से मुझे घबराहट हो रही है, मुझे लगता है मेरे हाथों पर खून लगा हुआ है। कहीं ना कहीं मेरी कोई जिम्मेदारी है जिससे मैं भाग रही हूँ। मुंह छुपा रही हूँ।

कि मुझे लगता है कि मैं उन लोगों को जानती हूँ जो उनके परिवार में थे, कि खून से रंगी पोशाकों में जो चेहरे थे उन्हें मैंने कभी, कहीं हँसते देखा है।

कि मेरी जिंदगी में बस ये दुःख है कि मैंने अपनी माँ को खो दिया है पर मुझे वही दुःख पहाड़ लगता है और जिंदगी जीने के काबिल नहीं पर मुझे आज ये सोच कर शर्म आती है।

कि मुझे लगता है कि किसी भी वजह के लिए इतनी बर्बरता से खामोशी से इतने लोगों कि जान लेना गलत है और अगर कुछ लोग इसे सही ठहरा सकते हैं तो हमारे समाज कि बुनियाद में कोई खोट है

कि थोड़ा चैन पाने के लिए मैंने टीवी देखना शुरू किया पर टीवी में 'अब तक छप्पन' चल रही थी, जिसमें वो सीन था जहाँ नाना पाटेकर बात करते करते किसी को गोली मार देता है...अंग्रेजी में शोट हिम इन कोल्ड ब्लड...व्हाटेवर दैट मीन्स।

कि मुझे रसीदी टिकट का एक वाकया याद आता है जिसमें कोई जर्मन कहता है कि इस भाषा ने इतने गुनाह किये हैं जर्मन में कभी कवितायेँ नहीं रची जानी चाहिए। मुझे भी लगता है कि कविताओं का कोई औचित्य नहीं है।

कि मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे हर बार मैं बस सोच के रह जाती हूँ और कुछ भी नहीं करती। कि मैं सोचती हूँ कि क्या वाकई मैं मुझ कर सकूंगी अगर करना चाहूँ तो।

कि किताबें अगर जला दी जाएँ तो हाथों में क्या थामें, दूसरा सहारा कहाँ है...संगीनों के साए में

कि जिंदगी से जरूरी ऐसी कौन सी जंग लड़ रहे हैं लोग...कितना भी पढूं समझ में नहीं आता।

कि एक मसीहा के इन्तेजार में बैठे हैं, पर मसीहा हम में से एक को ही तो बनना पड़ता है, जिम्मेदारी कभी कभी खुद से भी उठानी पड़ती है।

कि स्याही जैसे दिन पर फ़ैल गयी है...मुझे हर तरफ से रोना सुनाई देता है, ऐसा रूदन जिसमें आवाज नहीं है।

कि मनुष्य की बनायीं दुनिया की प्रोब्लेम्स का हल भगवान् के पास नहीं होता, हमें खुद तलाशना पड़ता है।

कि क्या मैं मन में गूंजते इस श्लोक की रौशनी में बस बैठी रहूँ..."असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।"

25 March, 2010

खाली शाम

खामोश हूँ जैसे कि कहने को कुछ बचा नहीं रह गया, रुक गयी हैं उँगलियाँ कि हर अहसास, हर दर्द जो बयां किया जा सकता था लिखा जा चुका है. चलती हूँ तो लगता है पूरी धरती क़दमों से नाप लूं फिर भी क़दमों की तलाश ख़त्म नहीं होगी...नहीं हो सकती है क्योंकि मंजिल तुम ही तो हो, चार कदम के फासले पर. ऐसे चार कदमों के फासले पर जो पूरे नहीं किये जा सकते.

दर्द जिस्म के इर्द गिर्द यूँ लिपटता है जैसे तुम बाहें फैला रहे हो...सोचती हूँ कि ऐसा दर्द कितनो को होता होगा, पर फिर भी हर शाम महसूसती हूँ तो लगता है दर्द भी जैसे म्यूटेट करना सीख लेता है. जैसे हर बार बुखार आता है तो अजीब से तिलिस्म बना जाता है, उसके उघड़े हुए उदास रंग हर बार एक अलग धुन में गाने लगते हैं. सब कुछ गड्ड मड्ड सा होने लगता है. चादर गर्म होती है लगता है आंसुओं का कोई समंदर सा है और उसका आइना आँखों में भी आ रहा है.

"जिंदगी" कितना ओवर यूज्ड शब्द है, जिसे देखो इस्तेमाल कर रहा है, शब्द न हुआ जीरे का तड़का हो गया, किसी भी सब्जी में मार दो, चलता है. इस चलता है के चक्कर में कहाँ तक घूम रही हूँ चकर घिरनी सी. बचपन में पढ़ी एक पंक्ति याद आती है "सत्य हमेशा शिव होता है, पर वह हमेशा सुन्दरम भी हो ये जरूरी नहीं". मैं याद करने की कोशिश करती हूँ की आखिरी बार कौन सा सच सुना था जो सुन्दर भी था, बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता. संस्कार हमेशा प्रक्टिकालिटी पर हावी हो जाते हैं, झूठ बोलना किसी भी तरह से पचता नहीं है. तबियत ख़राब लगने लगती है. और अगर इमानदारी से पूरा सच कहूँ तो मुझे आज भी झूठ बोलने पर ऐसा लगता है की कोई पाप कर दिया हो. झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है...ऐसा कुछ उस अनजानी उम्र से रट्टा मार रहे हैं जब न झूठ इतने बड़े लगते थे न सच इतना मुश्किल होता था.

मुझे तुम्हारी हर सिम्त जरूरत महसूस होती है. बहुत ज्यादा नहीं, बस थोड़ा थोड़ा. आज तक कभी महसूस नहीं किया था...पर मेरे शब्द तुमसे बात करने पर ही मिलते हैं मुझे. तुम नहीं होते तो बेजान शब्द निकलते ही नहीं. कुछ लिख नहीं पाती, पढना भी अच्छा नहीं लगता है खास. चुराती हूँ थोड़े शब्द तुम्हारे सोये हुए चेहरे की थकान से, कुछ तुम्हारी रुकी हुयी ख़ामोशी से और काम में डूबी रात से. लैपटॉप की किटिर किटिर लोरियां तो नहीं सुना सकती न.

जितनी थी किताबें घर में, सब पढ़ चुकी हूँ...अब बचे हुए खाली वक़्त में एल्बम के पन्ने पलटती रहती हूँ. चलो कुछ तो है तो कभी बीतता नहीं है. वनिला की खुशबू है रात में घुली हुयी, कैंडिल बहुत धीमे जलती है...बगल के मंदिरों में रामनवमी के लिए ढोल बज रहे हैं, लोग नाच रहे हैं उन्मुक्त होकर...डोली तैयार है, बरात जा रही है पर मुझे भगवान का चेहरा नहीं दिखता मेरी बालकनी से. सोचती हूँ की भगवान दिखते तो कुछ मांगती क्या?

कब से एक डायरी लाकर रखी है...जाने उसमें क्यों नहीं लिखती अब.

11 February, 2010

आधा दिन और तीन जिंदगियाँ


एक हलकी नीली शाम, बादलों के कुछ टुकड़े
आधे दिन में दो जिंदगियां पढ़ी
"रसीदी टिकट" और "सूरज का सातवाँ घोडा"
कुछ वाक्य बादलों की तरह आसमान में उड़ रहे थे

और मैं एक सरफिरे कवि से बात कर रही थी
जिसे शब्दों को सुघड़ बनाना नहीं आता
वो अगर चित्र बनाता तो यक़ीनन
उसके कपड़े भी उसके कैनवास का हिस्सा होते

एक ही दिन मंटो की १९ कहानियां पढ़ीं
उसे बताया तो उसने पूछा, कैसी लगी
कोई उसे समझाए कि कैसे पढ़ सकता है कोई
लगातार उन्नीस खराब कहानियाँ

शायद उसे लगता होगा वैसे ही
जैसे इस हाद्सातों भरी जिंदगी में
एक कवि जिन्दा रहता है
कहता है "बोलती हो तो लगता है कि जिन्दा हो"

नहीं जानती तो सोचती
कि किस मिट्टी का बना है वो
ऐसी तपी हुयी कवितायेँ लिखता है
पढ़ने में आंच आती है

शायद ऐसी मिट्टी बिहार की ही हो सकती है
गंगाजल से सनी, जिंदगी की भट्ठी में झोंकी गयी
मूरत की भी जबान सलामत और तेज
जिसके लिए सत्य का सुन्दर होना अनिवार्य नहीं

कमरे में जलती तीन मोमबत्तियां
सांझ दिए गए धूप की महक
डूबे हुए सूरज का थोड़ा सा टुकड़ा
और राहत की साँस कि "सोच को मरने नहीं दिया जाएगा "

20 January, 2010

उलझनें

जिंदगी बेतरह लम्बी फिल्म है
जिसके पात्र अचानक से कहीं चले गए हैं
और मैं स्टेज पर मौन हूँ
अकेली भी हूँ, और कहने को कुछ ढूंढ रही हूँ

फिल्म विथिन अ फिल्म
जब शब्द ना हों तो मुझे बहुत परेशानी होती है
ये शब्द ही इस दुनिया से जुड़े तंतु हैं
अचानक से माईम आर्टिस्ट कैसे बन जाऊं मैं

मैं चाहती हूँ कोई समझे
कि मैं क्यों बाईक ८० पर चलाती हूँ
कभी कभी
और गाने क्यों सुनती हूँ अँधेरे कमरे में
क्यों साफ़ करने लगती हूँ अलमारियां
क्यों बाल्टी भर कपड़े धो डालती हूँ

क्या ये मौन पात्र नहीं हैं
जिंदगी की फिल्म के फ्रेम का हिस्सा
जब बोलती नहीं हूँ
कलम भी नहीं चलती है

जब सोच में शब्द नहीं होते हैं
कोहरे में छिपे दृश्य होते हैं बस
इन्हें किसी कैनवास पर उतार दूं शायद
क्या मुझसे पेंटिंग हो पाएगी?

रंगों को देखती हूँ तो अचानक से
सब ब्लैक वाईट और ग्रे में बदल जाते हैं
अचानक से मैं खो देती हूँ अपनी आँखें
क्या रंगों को छू कर अलग रंगों का पता चल सकता है?

संगीत अपनी लय खो देता है
मुझे वक़्त का आभास होना बंद हो जाता है
इसलिए ताल नहीं दे सकती मैं
तीनताल, दादरा, कहरवा, दुगुन, तिगुन
सब अनजान हो जाते हैं मेरे लिए
खोयी हुयी दुनिया के खोये शब्द

मैं सृजन करना चाहती हूँ
शायद माँ बनना भी चाहती हूँ
ताकि अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर
मैं अपनी दुनिया वापस पा सकूँ

जब कोई किरदार नहीं रहे मेरी फिल्म में
मैं एक किरदार पैदा करना चाहती हूँ

औरत हूँ मैं, जिंदगी जन्म दे सकती हूँ
और उसके इर्द गिर्द काट सकती हूँ बाकी समय
बिना गिने हुए, बिना देखे हुए

सिर्फ छू कर...

राधा का भी प्रेम था, यशोदा का भी
कृष्ण ने दोनों को बिछोह दिया


मैं अपने कृष्ण को कहाँ ढूंढ रही हूँ...

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मुझे लगता है मैं पागल हो जाउंगी बहुत जल्दी।

07 January, 2010

सोचिये तो लगता है भीड़ में हैं सब तनहा

देर रात तक तनहा चाँद से गुफ्तगू की मैंने
फ्लाईट पर खिड़की से कोहनी टिका के
कमबख्त चाँद भी तुम्हारी तरह पास होने का धोखा देता है
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हवाईजहाज से आसमान भी space जैसा दिखता है रात को
चांदनी में लिपटे बादल शनि के छल्लों जैसे
और अचानक जैसे हवाईजहाज टाईम मशीन हो जाता है
लगता है स्वर्ग यहाँ से कुछ ज्यादा नज़दीक होगा
सोचती हूँ भगवान के हाथ एक मेसेज भिजवा दूं
"तुम बहुत याद आती हो मम्मी, इतने दिनों बाद भी उतनी ही"
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मेरे बचपन के भी किस्से रहे होंगे
कुछ खूबसूरती के, कुछ शैतानियों वाले
कुछ कपड़े लत्तों के, पसंदीदा मिठाइयों के
घूमने फिरने के, रोने धोने के
माँ के जाने के साथ बचपन के सारे किस्से चले जाते हैं।

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आज मैंने भी डायरी के कुछ पुराने पन्ने पढ़े, और जी भर के उन सारे लोगों को एक सिरे से कोसा जो कहीं खो गए हैं, गुमशुदा से कुछ लम्हे मिले आँखें नाम करने वाले। dairy मिल्क के कुछ rappers, कुछ स्टिकर्स, एक सूखा हुआ फूल...कुछ मरे कॉकरोच।

और मिली माँ की ढेर सी चिट्ठियां, हिम्मत नहीं हुयी उन्हें खोल कर पढने की...बस लिखावट को देखा और टीसते दर्द को डायरी के साथ बंद कर दिया।
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किसी ज़माने में एक सीरियल आता था, तनहा...उसका टाइटल गाना बहुत ढूँढा और आज मिल ही गया...मुझे बेहद पसंद है, शायद आपको भी हो...

देखिये तो लगता है, जिंदगी की राहों में,
एक भीड़ चलती है...
सोचिये तो लगता है, भीड़ में है सब तनहा...


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