दर्द जिस्म के इर्द गिर्द यूँ लिपटता है जैसे तुम बाहें फैला रहे हो...सोचती हूँ कि ऐसा दर्द कितनो को होता होगा, पर फिर भी हर शाम महसूसती हूँ तो लगता है दर्द भी जैसे म्यूटेट करना सीख लेता है. जैसे हर बार बुखार आता है तो अजीब से तिलिस्म बना जाता है, उसके उघड़े हुए उदास रंग हर बार एक अलग धुन में गाने लगते हैं. सब कुछ गड्ड मड्ड सा होने लगता है. चादर गर्म होती है लगता है आंसुओं का कोई समंदर सा है और उसका आइना आँखों में भी आ रहा है.
"जिंदगी" कितना ओवर यूज्ड शब्द है, जिसे देखो इस्तेमाल कर रहा है, शब्द न हुआ जीरे का तड़का हो गया, किसी भी सब्जी में मार दो, चलता है. इस चलता है के चक्कर में कहाँ तक घूम रही हूँ चकर घिरनी सी. बचपन में पढ़ी एक पंक्ति याद आती है "सत्य हमेशा शिव होता है, पर वह हमेशा सुन्दरम भी हो ये जरूरी नहीं". मैं याद करने की कोशिश करती हूँ की आखिरी बार कौन सा सच सुना था जो सुन्दर भी था, बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता. संस्कार हमेशा प्रक्टिकालिटी पर हावी हो जाते हैं, झूठ बोलना किसी भी तरह से पचता नहीं है. तबियत ख़राब लगने लगती है. और अगर इमानदारी से पूरा सच कहूँ तो मुझे आज भी झूठ बोलने पर ऐसा लगता है की कोई पाप कर दिया हो. झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है...ऐसा कुछ उस अनजानी उम्र से रट्टा मार रहे हैं जब न झूठ इतने बड़े लगते थे न सच इतना मुश्किल होता था.
मुझे तुम्हारी हर सिम्त जरूरत महसूस होती है. बहुत ज्यादा नहीं, बस थोड़ा थोड़ा. आज तक कभी महसूस नहीं किया था...पर मेरे शब्द तुमसे बात करने पर ही मिलते हैं मुझे. तुम नहीं होते तो बेजान शब्द निकलते ही नहीं. कुछ लिख नहीं पाती, पढना भी अच्छा नहीं लगता है खास. चुराती हूँ थोड़े शब्द तुम्हारे सोये हुए चेहरे की थकान से, कुछ तुम्हारी रुकी हुयी ख़ामोशी से और काम में डूबी रात से. लैपटॉप की किटिर किटिर लोरियां तो नहीं सुना सकती न.
जितनी थी किताबें घर में, सब पढ़ चुकी हूँ...अब बचे हुए खाली वक़्त में एल्बम के पन्ने पलटती रहती हूँ. चलो कुछ तो है तो कभी बीतता नहीं है. वनिला की खुशबू है रात में घुली हुयी, कैंडिल बहुत धीमे जलती है...बगल के मंदिरों में रामनवमी के लिए ढोल बज रहे हैं, लोग नाच रहे हैं उन्मुक्त होकर...डोली तैयार है, बरात जा रही है पर मुझे भगवान का चेहरा नहीं दिखता मेरी बालकनी से. सोचती हूँ की भगवान दिखते तो कुछ मांगती क्या?
कब से एक डायरी लाकर रखी है...जाने उसमें क्यों नहीं लिखती अब.
"जिंदगी" कितना ओवर यूज्ड शब्द है, जिसे देखो इस्तेमाल कर रहा है, शब्द न हुआ जीरे का तड़का हो गया, किसी भी सब्जी में मार दो, चलता है. इस चलता है के चक्कर में कहाँ तक घूम रही हूँ चकर घिरनी सी. बचपन में पढ़ी एक पंक्ति याद आती है "सत्य हमेशा शिव होता है, पर वह हमेशा सुन्दरम भी हो ये जरूरी नहीं". मैं याद करने की कोशिश करती हूँ की आखिरी बार कौन सा सच सुना था जो सुन्दर भी था, बहुत जोर देने पर भी याद नहीं आता. संस्कार हमेशा प्रक्टिकालिटी पर हावी हो जाते हैं, झूठ बोलना किसी भी तरह से पचता नहीं है. तबियत ख़राब लगने लगती है. और अगर इमानदारी से पूरा सच कहूँ तो मुझे आज भी झूठ बोलने पर ऐसा लगता है की कोई पाप कर दिया हो. झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है...ऐसा कुछ उस अनजानी उम्र से रट्टा मार रहे हैं जब न झूठ इतने बड़े लगते थे न सच इतना मुश्किल होता था.
मुझे तुम्हारी हर सिम्त जरूरत महसूस होती है. बहुत ज्यादा नहीं, बस थोड़ा थोड़ा. आज तक कभी महसूस नहीं किया था...पर मेरे शब्द तुमसे बात करने पर ही मिलते हैं मुझे. तुम नहीं होते तो बेजान शब्द निकलते ही नहीं. कुछ लिख नहीं पाती, पढना भी अच्छा नहीं लगता है खास. चुराती हूँ थोड़े शब्द तुम्हारे सोये हुए चेहरे की थकान से, कुछ तुम्हारी रुकी हुयी ख़ामोशी से और काम में डूबी रात से. लैपटॉप की किटिर किटिर लोरियां तो नहीं सुना सकती न.
जितनी थी किताबें घर में, सब पढ़ चुकी हूँ...अब बचे हुए खाली वक़्त में एल्बम के पन्ने पलटती रहती हूँ. चलो कुछ तो है तो कभी बीतता नहीं है. वनिला की खुशबू है रात में घुली हुयी, कैंडिल बहुत धीमे जलती है...बगल के मंदिरों में रामनवमी के लिए ढोल बज रहे हैं, लोग नाच रहे हैं उन्मुक्त होकर...डोली तैयार है, बरात जा रही है पर मुझे भगवान का चेहरा नहीं दिखता मेरी बालकनी से. सोचती हूँ की भगवान दिखते तो कुछ मांगती क्या?
कब से एक डायरी लाकर रखी है...जाने उसमें क्यों नहीं लिखती अब.
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
"दर्द भी जैसे म्यूटेट करना सीख लेता है."
ReplyDeletekar hi letaaa hai shayad.....dekho naa ek hi post mein kitne rang dikh gaye.......mann ki uhapoh shabdon mein sameti hi nahin piroyi hai aapne...
"तलाश ख़त्म नहीं होगी...नहीं हो सकती है क्योंकि मंजिल तुम ही तो हो, चार कदम के फासले पर."
ये पूजा ! अब डायरी लिखनी शुरू कर दो .....
ReplyDeleteसुंदर रचना............जिंदगी की उलझी हुई गांठों का दर्द बयान करती।
ReplyDeleteअभी कुछ दिन पहले मैंने लिखा था..........कितनी उलझी है जिंदगी सुलझानी भी है और सुलझाई भी नहीं जाती कितनी अजीब शै है जिंदगी......कितनी अजीब!!!!!!!
बहुत बढ़िया पोस्ट लगी. बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteशाबास ! यह हुई न बात... गोया तीसरा पैर को कमाल का है... ओरिजनल लेखन
ReplyDeleteकब से एक डायरी लाकर रखी है...जाने उसमें क्यों नहीं लिखती अब.
और ये पंच लाइन ... बेहतरीन... इस जाने क्यों नहीं में ही सारे जवाब छुपे हैं...
"जिंदगी" कितना ओवर यूज्ड शब्द है, जिसे देखो इस्तेमाल कर रहा है...
आगे भी होगा ... बहरहाल खाली शाम में बहुत कुछ भरा हुआ था.
वाह क्या जादू है शब्दों में.....
ReplyDeleteमासूम और छोटी बच्ची बन कर ..अपने आप से कितनी अच्छी बातें करती हो...
ReplyDeletewelcome back.....its one of u r best...again of that style...जिसको पढ़कर .....तुम्हे मालूम है ना......
ReplyDeletenice post
ReplyDeletelife is so rood but don't move any other side
thanks....
विचारों का प्रवाह उन्मुक्त है । लहरें बल खाती हुयी किनारों पर आती हैं और शब्दों में अपने भावों की अभिव्यक्ति पा जाती हैं । बहुत अच्छा ।
ReplyDeleteyep, you belong to the second category..
ReplyDeleteबाकी, सब तो ऊपर वालो ने कह दिया..
सच सुन्दर हो जरुरी नहीं.....सच नहीं पचता जमाने से तो सितम ढा देता है....सच कहना मुश्किल पर, अप्रिय सच कहना लगभग असंभव होता जा रहा है....
ReplyDeleteबाकायदा तड़के वाली बात पूजा आपकी पसंद आई ... आलम अब यह है के किसी भी सब्जी के साथ चला ली जाती है .... शुक्र है ... बेहद असरकार है यह ... पसंद आई यह रचना ..
ReplyDeleteबधाई
अर्श
आज दिनांक 3 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट खाली शाम शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
ReplyDeleteअपना ई मेल avinashvachaspati@gmail.com पर भेजें तो आपको प्रकाशित पोस्ट का स्कैनबिम्ब भिजवाया जा सकेगा।
ReplyDeleteकाफी खूबसूरत अल्फाजों में अपनी भावनाएं बयां करती हैं आप. मैं आपकी तरह ब्लोगर तो नहीं हूं, लेकिन हिंदी साहित्य में रूचि अवश्य रखता हूं. आप चाहें तो हम भी अपनी भावनाएं बाँट सकते हैं.
ReplyDeleteamitbaijnathgarg@gmail.com