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10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

23 November, 2018

नवम्बर ड्राफ़्ट्स

सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।

तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?

ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में। 

मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ। 

मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है। 

तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।

नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।

मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ। 

***
***

कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे। 

किसी शहर से। 
किसी अहसास से।
किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।
किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।
किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था। 
किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से। 

आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में। 

कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है। 
मृत्युगंध। 

तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना। 

मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो। 

पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून। 

कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।
चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?

***
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लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था। 

लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही। 

शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर। 

10 November, 2017

एक ख़ूबसूरत लड़की की ख़ातिर सिफ़ारिशी चिट्ठी

तुम्हें सौंदर्य इतना आक्रांत क्यूँ करता है? उसकी सुंदरता निष्पाप है। उसने कभी उसका कोई घातक इस्तेमाल नहीं किया। कभी किसी की जान लेना तो दूर की बात है, किसी का दिल भी नहीं तोड़ा। उसने हमेशा अपने सौंदर्य को एक बेपरवाही की म्यान में ढक कर रखा। तुम्हें ख़ुद से बचा कर रखा। तुम उसकी ख़ूबसूरती से इतना डरते क्यूँ हो कि जैसे वो कोई बनैला जानवर हो...भूखा...तुम्हारे समय और तुम्हारे प्रेम का भूखा?

उसकी ख़ूबसूरती को लेकर पैसिव नहीं हो सकते तुम? थोड़े सहनशील। ऐसा तो नहीं है कि दुखता है उसका ख़ूबसूरत होना। उसकी काली, चमकती आँखें तुम्हें देखती हैं तो तकलीफ़ होती है तुम्हें? सच बताओ? तुम्हारा डर एक भविष्य का डर है। प्रेम का डर है। आदत हो जाने का डर है। ऐसे कई लोगों के भीषण डर के कारण वो उम्र भर अपराधबोध से ग्रस्त रही। एक ऐसे अपराध की सज़ा पाती रही जो उसने किया ही नहीं था। ख़ुद को हर सम्भव साधारण दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की। शृंगार से दूर रही, सुंदर रंगों से दूर रही...यहाँ तक कि आँखों में काजल भी नहीं लगाया कभी। अब उम्र के साथ उसके रूप की धार शायद थोड़ी कम गयी है, इसलिए उसने फिर से तुम्हें तलाशा।

तुम रखो ना अपने बदन पर अपना जिरहबख़्तर। तुम रखो अपनी आत्मा को उससे बहुत बहुत ही दूर। मत जुड़ने दो उससे अपना मन। लेकिन इतना तो कर सकते हो कि जैसे गंगा किनारे बैठ कर बात कर सकते हैं दो बहुत पुराने मित्र। एक दूसरे को नहीं देखते हुए, बल्कि सामने की धार को देखते हुए। ना जाओ तुम उसके साथ Bern, लेकिन बनारस तो चल सकते हो?

उसे तुम्हारी वाक़ई ज़रूरत है। ज़िंदगी के इस मोड़ पर। देखो, तुम नहीं रहोगे तो भी ज़िंदगी चलती रहेगी। उसे यूँ भी अपनी तन्हाई में रहने की आदत है। लेकिन वो सोचती है कभी कभी, तुम्हारा होना कैसा होगा। तुम्हारे होने से सफ़र के रंग सहेजना चाहेगी वो कि तुम्हारे लिए भेज सके काग़ज़ में गहरा लाल गुलाल...टेसू के फूलों से बना हुआ। तुम किसी सफ़र में जाओ तो सड़कों पर देख लो मील के पत्थर और उसे भेज दो whatsapp पर किसी एकदम ही अनजान गाँव का कोई gps लोकेशन। ज़िंदगी बाँटी जा सकती है कितने तरह से। थोड़ी सी जगह बनाओ ना उसके लिए अपनी इस ज़िंदगी में। बस थोड़ी सी ही। अनाधिकार तो कुछ भी माँगेगी नहीं वो। लेकिन कई बरस की दोस्ती पर इतना सा तो माँग ही सकती है तुमसे।

किसी नीले चाँद रात एक बाईक ट्रिप हो। सुनसान सड़कों पर रेसिंग हो। क़िस्से हों। कविताएँ। एक आध डूएट गीत। ग़ालिब और फ़ैज़ हों। मंटो और रेणु हों।

हम प्रेम की ज़रूरत को अति में देखते हैं। प्रेम की जीवन में अपनी जगह है। लेकिन उसके बाद जो बहुत सा विस्तार है। बहुत सा ख़ालीपन। उसमें दोस्त होते हैं। हाँ, डरते हुए दोस्त भी...कि तुमसे प्यार हो जाएगा, तुम्हारी लत लग जाएगी। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है। वो जानती है कि वो कभी भी love-proof नहीं होगी। उससे प्यार हो जाने का डर हमेशा रहेगा। लेकिन इस डर से कितने लोगों को खोती रहेगी वो ज़िंदगी में। और कब तक।

सुनो ना ज़िद ही मानो उसकी। समझो थोड़ा ना उस ज़िद्दी लड़की को जिसे तुम पंद्रह की उमर से जानते हो। She needs you. Really. कुछ वक़्त अपना लिख दो ना उसके नाम। थोड़ा दुःख तुम भी उठा लो। क्या ही होगा। कितना ही दुखेगा। पिलीज। देखो, हम सिफ़ारिश कर रहे हैं उसकी। अच्छी लड़की है। ख़तरनाक है थोड़ी। सूयसाइडल है। डिप्रेस्ड हो जाती है कई बार। लेकिन अधिकतर नोर्मल रहेगी तुम्हारे सामने। दोस्ती रखोगे ना उससे? प्रॉमिस?

31 October, 2017

प्यार। ढेर सारा प्यार।

कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो. मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ, अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना.
- उस लड़की में दो नदियाँ रहती थीं, [page no. 112, तीन रोज़ इश्क़]

30 August, 2017
आज वो दूसरी वाली नदी में उफान आया है।
धूप की नदी। सुख की। छलकती। बहती किनारे तोड़ के। खिलखिलाती।

याद करती एक शहर। दिल्ली की हवा में बजती पुराने गानों की धुन कैसी तो।  किसी पार्क में झूला झूलती लड़कियाँ खिलखिला के हँसतीं। छत पर खड़ा एक लड़का देखता एक लड़की को एक पूरी नज़र भर कर। चाय मीठी हुई जाती कितनी तो। लड़की अपने अतीत में होती। लड़का कहता, मुझे बस, ना, तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए। कहते हुए उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेता। बात को कई साल बीत जाते लेकिन लड़की नहीं भूलती उसका कहना। बिछड़े हुए कई साल बीत जाते। लड़की देखती फ़ोन में एक बच्चे की तस्वीर। टूटे हुए सपने से बहता हुआ आता प्यार कितना तो। लड़की मुस्कुराती फ़ोन देख कर। असीसती अपने पुराने प्रेमी के बेटे को।

कहाँ रख दूँ इतनी सारी मुस्कान।
किसके नाम लिख दूँ। वसीयत कर दूँ। मेरे सुख का एक हिस्सा उसे दे दिया जाए। थोड़ी धूप खिले उसकी खिड़की पर। उसकी आँखों में भी। उसके शहर का ठंढा मौसम कॉफ़ी में घुलता जाए। कॉफ़ी कप के इर्द गिर्द लपेटी हुयी उँगलियाँ। कितने ठंढे पड़ते हैं तुम्हारे हाथ। नरम स्वेड लेदर के दास्ताने पहनती लड़की। कॉफ़ी शॉप पर भूल जाती कि टेबल के सफ़ेद नैपकिन के पास रह जाते दास्ताने। लड़का अगली रोज़ जाता कॉफ़ी शॉप तो वेट्रेस कहती, 'आपकी दोस्त के दास्ताने रह गए हैं यहाँ, ले लीजिए'। उसके गर्म हाथों को दास्ताने की ज़रूरत नहीं लेकिन पॉकेट में रख लेता है। फ़ोल्ड किए। नन्हें दास्ताने। कोई जा कर भी कितना तो रह जाता है शहर में।

कभी होता है, बहुत प्यार आ रहा होता है...इस प्यार आने का अचार कैसे डालते हैं मालूम ही नहीं। कहाँ रखते हैं इसको। भेजते हैं कैसे। किसको। जैसे लगता है कभी कभी। कोई सामने हो और बस टकटकी लगा के देखें उसको। कि जब बहुत तेज़ी से भागती हैं चीज़ें आँखों के सामने से तो रंग ठीक ठीक रेजिस्टर नहीं होते। लड़की चाहती कि उस रिकॉर्डिंग को पॉज़ कर दे। स्लो मोशन में ठीक उस जगह ठहरे कि जब उसका चेहरा हथेलियों में भरा था। उसका माथा चूमने के पहले देखे उसकी आँखों का रंग। याद कर ले शेड। कि कभी फिर दुखे ना ब्लैक ऐंड वाइट तस्वीरों में उसकी आँखों का रंग होना सलेटी।

प्यार। ढेर सा प्यार। बहुत ख़ूब सा। शहर भर। दिल भर। काग़ज़ काग़ज़ क़िस्सों भर। और भर जाने से ज़्यादा छलका हुआ।
किरदारों के नाम कैसे हों? 'मोह', शहर का नाम, 'विदा' लड़की का नाम, 'इतरां'। मगर सारे किरदार भी फीके लगें कि तुम्हारी हँसी के रंग जैसा कहाँ आए हँसना मेरे किसी किरदार को। तुम्हारी आवाज़ की खनक नहीं रच पाऊँ मैं किसी रंग की कलम से भी। कि चाहूँ कहना तुमसे, सामने तुम्हारे रहते हुए। एक शब्द ही। प्यार।

हमको कुछ चाहिए भी तो नहीं था।
हमको कभी कुछ चाहिए नहीं होता है। कभी कभी लिखने को एक खिड़की भर मिल जाए। एक पन्ना हो। चिट्ठी हो कोई। अटके पड़े नॉवल का नया चैप्टर हो। तुम्हारी हथेली हो सामने। उँगलियों से लिखती जाऊँ उसपर हर्फ़ हर्फ़ कर के जो कहनी हैं बातें तुमसे। कौन सी बातें ही? नयी बातें कुछ? चाँद देखा तुमने आज? आज जैसा चाँद पहले कहाँ निकला था कभी। आज जैसा प्यार कहाँ किया था पहले कभी भी तो। पर पहले तुम कहाँ मिले थे। किसी और से कैसे कर  लेती तुम्हारे हिस्से का, तुम्हारे जैसा - प्यार।

कैसे होता है। जिया हुआ एक लम्हा कितने दिनों तक रौशन होता है। वो पल भर का आँख भर आना। मालूम नहीं सुख में या दुःख में। बीतता हुआ लम्हा। बिसरता हुआ कोई। पूछूँ तुमसे। क्यूँ? मगर तुम्हारे पास तो सारे सवालों के जवाब होते हैं। और बेहद सुंदर जवाब। सवालों से सुंदर। कितना अच्छा है इसलिए तुमसे बात करना। कहीं कुछ अटका नहीं रहता। कुछ चुभता नहीं। कुछ दुखता नहीं। सब सुंदर होता। सहज। सत्यम शिवम् सुंदरम। जैसा शाश्वत कुछ। लम्हा ऐसा कि हमेशा के लिए रह जाए। ephemeral and eternal.

और तुम। रह जाओ ना हमेशा के लिए। नहीं?
उन्हूँ...हमेशा वाले दिन अब समझ नहीं आते। तुम जी लो इस लम्हे को मेरे साथ। रंग में। ख़ुशबू में। छुअन में। कि सोचूँ कितना कुछ और कह पाऊँ कहाँ तुमसे। कौन शब्द में बांधे मन की बेलगाम दौड़ को। नदी हुए जाऊँ। बाँध में सींचती रही कितनी कहानियाँ मगर लड़की का मन, तुमसे मिलकर फिर से नदी हुआ जाता। पहाड़ी नदी। जो हँसती खिलखिल।

सपने में खिले, पिछली बरसात लगाए हुए गुलाब। आँख भर आए। सुख। जंगली गुलाबों की गंध आए सपनों में। टस लाल। कॉफ़ी की गंध। कपास की। किसी के बाँहों में होने की गंध। मुट्ठी में पकड़े उसके शर्ट की सलवटें। क्या क्या रह जाए? सपने से परे, सपने के भीतर?

कहूँ तुमसे। कभी। कह सकूँ। आवाज़ में घुलते हुए।
प्यार। ढेर सारा प्यार। 

02 August, 2017

किसी से प्रेम किए बिना उसका दिल तोड़ना गुनाह है

दिन भर अस्पताल में बीता था। दुखते हुए टेस्ट। ये वो इग्ज़ैमिनेशंज़ नहीं थे जिन्हें पास करने या टॉप करने के लिए ख़ूब सी मेहनत करनी होती। ढंग के नोट्स बनाने होते। या क्लास में समय पर जा कर अटेंडन्स ही पूरी करनी होती। ये वो टेस्ट थे जो ज़िंदगी बिना किसी तैय्यारी के ले लेती है।

अस्पताल शायद किसी को भी अच्छे नहीं लगते होंगे। वहाँ की एक अजीब सी गंध होती है। मुर्दा गंध को ढकने वाली गंध। जैसे बिना नहाए लोग डीओ लगा लेते हैं और और भी ज़्यादा बिसाएन महकते हैं। ये ठीक ठीक गंध नहीं है। ये उस जगह का बहुत सा दुःख और अवसाद का सांद्र एनर्जी फ़ील्ड है। ये गंध से ज़्यादा महसूस होता है। ख़ास तौर से मुझे। मैं नॉर्मली हॉस्पिटल के रूट ट्रैवल में भी अवोईड करती हूँ। 

झक सफ़ेद रौशनी। एकदम सफ़ेद ब्लीच की हुयी चादरें। परदे। सब बिलकुल सफ़ेद। मगर यही सफ़ेद चादरें फ़ाइव स्टार होटल में होती हैं तो सुकून का बायस बनती हैं। उल्लास का। छुट्टियों का। मगर यही सफ़ेद हॉस्पिटल में दिखता है तो मन से सारे रंग सोख लेना चाहता है। 

वहाँ बहुत से बेड्ज़ लगे थे। हर बेड के इर्द गिर्द परदे। मेरे बग़ल वाले बेड पर आयी औरत रो रही थी। उसकी सिसकी मुझे सुनायी पड़ रही थी। कुछ इस तरह कि लग रहा था उसके आँसुओं का गीलापन मेरे पैरों तक पहुँच रहा है और मेरे तलवे ठंढे कर रहा है। मुझे ठंढे होते हुए पैर बिलकुल अच्छे नहीं लगते। मुझे उनसे हमेशा मम्मी की याद आती है। लेकिन इन दिनों मेरा पूरा बदन गरम रहता है, सिर्फ़ तलवे ठंढे पड़ने लगे हैं। मुझे ऐसा भी लगता है कि ज़मीन का लगाव कम रहा है मेरे प्रति। उसकी ऊष्मा मेरे तलवों तक नहीं पहुँचती। उसे मेरा ज़मीन पर नंगे पाँव चलना नहीं पसंद। या शायद मैं उड़ने लगी हूँ और मेरे पैरों को हवा से गरमी सोखना नहीं आता। 

मेरे हर ओर सिर्फ़ सफ़ेद था। कोई भी रंग नहीं। हॉस्पिटल के गाउन में भी कितना दर्द होता है। बदन पर डालते ही लगता है कितनी आहें और सिसकियाँ इसमें घुली होंगी। किसी सर्फ़ या ब्लीच से फ़ीलिंज़ थोड़े ना धुल जाती हैं। एसी बहुत ठंढा था। मेरे पास किताबें थीं। नोट्बुक थी। मोबाइल भी था। कुछ देर पढ़ने के बाद मैंने सब कुछ अलग रख दिया। मुझे वैसे भी मर जाने का बहुत डर लगता है। फ़ॉर्म भी तो साईन करवाते हैं। कि मैं मर गयी तो हॉस्पिटल ज़िम्मेदार नहीं होगा। वग़ैरह। यूँ ही। सवाल पूछो तो कहेंगे प्रोटोकॉल है। मतलब मज़े मज़े में पूछ लिया कि साहब आप मर गए तो हमारी ग़लती नहीं है। 

मैं भी यूँ ही लोगों से फ़ॉर्म भरवा लिया करूँ मिलते साथ…इश्क़ हो जाए तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इन फ़ैक्ट मेरी कोई ज़िम्मेदारी कभी नहीं होनी चाहिए। नाबालिग़ तो होते नहीं लोग। कि मैंने फुसला लिया। जान बूझ कर आपको पुल से नीचे बहते दरिया में कूद के जान देनी है तो शौक़ से दीजिए ना। बस मेरे लिए एक आख़िरी चिट्ठी छोड़ जाइए कि हम दिखा सकें लोगों को कि मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया था। वॉर्निंग भी दी थी। बचाने के लिए लाइफ़बोट भी भेजी थी। अब कोई मेरे इश्क़ से बचने के लिए मौत के गले पड़ जाए तो मैं क्या करूँ।
मौत। कहाँ कहाँ मिलती है। अपनी ठंढी उँगलियाँ भोंक देती है मेरे सीने में। दिल में छेद होकर सारा इश्क़ ख़ुमार बह जाए, सो भी नहीं होता। बस तड़प कहाँ होनी चाहिए, उसी की शिनाख्त करती है मौत। मेरे साथ और भी चार-छः लोग गए थे अंदर। सबके चेहरे पर क़ब्ज़ा जमाए बैठी थी मौत। जैसे जाने अंदर यमराज ख़ुद अपना भैंसा लेकर खड़े हों और बाँध कर ले ही जाएँगे। मैं हँस रही थी। पागलों की तरह। अश्लील हँसी। कि हस्पताल में नियम है कि मुर्दा शक्ल बना के घूमो। वहाँ ऐसे बेपरवाह होकर हँसना गुनाह ही था। ऐसा नहीं है कि मुझे दर्द नहीं होता। लेकिन फ़िज़िकल पेन के प्रति मेरा स्टैमिना बहुत ज़्यादा है। बर्दाश्त की हद ज़्यादा। बाएँ काँधे में हड्डी टूटी थी तो भी अपनी काइनेटिक फ़्लाइट ख़ुद ही राइड करके वहाँ से घर आयी थी। बिना किसी मदद के। घर आके पूरे घर में जो पैर के ज़ख़्म से ख़ून बहता आया था, उसे पोछे के कपड़े से पोछा था। सो दुखता है तो बस गहरी साँस लेती हूँ। इंतज़ार करती हूँ कि दर्द ख़त्म हो जाएगा। 

पर यहीं ज़रा मेरा दिल तोड़ के देखो। हफ़्तों खाना पानी बंद हो जाएगा। तोड़ना तो छोड़ो, खरोंच लगा के देखो ज़रा मेरे दिल पर। उसी में रोना धोना और चूल्लु भर पानी ढूँढ के मर जाना, सब कर लूँगी। ज़ुबान पर मेटल का टेस्ट आ रहा है। लोहे जैसा। काँसे जैसा। धातु। मुट्ठी भर दवाइयाँ हैं। निगलते निगलते परेशान। मेरे दिमाग़ दिल का उपाय क्यूँ नहीं होता इन डाक्टर्ज़ के पास। पूछूँ कि मेरा मन क्यूँ दुखता है? ये रात भर नींद क्यूँ नहीं आती। ग़लत लोगों से इश्क़ क्यूँ होता है? जिन्हें भूल जाना चाहिए, उनके नाम दिल में ज़मीन क्यूँ लिख देती हूँ। डॉक्टर ये भी तो बताएँ कि इश्क़ घूम घूम कर क्यूँ आता है जीवन में। लम्हे भर का। घंटे भर का। शाम भर का। 

तुम्हारा इश्क़ मेरा नाम पुकारता है। जैसे देर रात बेमौसम कूकती है कोई अकेली कोयल। ऐसी हूक कि जिसका कोई जवाब नहीं से नहीं आता। मैं क्या करूँ। हम दोनों के बीच कितने सारे शब्द हो जाते हैं। लेकिन शब्द बेतरतीब किसी जंगल की तरह नहीं उगते कि मैं तुम तक पहुँच नहीं पाऊँ। ना ही कोई पहाड़ या कि घाटी बनते हैं। शब्द मेरे तुम्हारे बीच नदी बनते हैं। पुल बनते हैं। बह जाने का गीत बनते हैं। मैं तुम्हारे लड़कपन की तस्वीरों के साथ अपनी ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो साथ में रखती हूँ और सोचती हूँ हम ग़लत वक़्त में मिले। हमें तब मिलना था जब मेरा दिल थोड़ा कम टूटा था और तुम थोड़े ज़्यादा बेपरवाह हुआ करते थे। 

तुम्हें मालूम है मुझे तुमसे कितनी बातें करनी हैं? मैं हर मौसम के हर शाम की कोई तस्वीर खींचना चाहती हूँ सिर्फ़ तुम्हारे लिए। गुनगुना देना चाहती हूँ कोई मुहब्बत में डूबा गीत। ख़त लिखना चाहती हूँ तुम्हें। इश्क़ कोई देश है। कोई शहर। गली। मुहल्ला कोई? कमरा है तुम्हारे दिल का…ख़ाली?

कितने शब्द लिखे गए हैं हमारे नाम से? कितनी किताबें हो जाती उन चिट्ठियों को जोड़ कर जो मेरे ख़याल में उगी लेकिन काग़ज़ पर मार दी गयीं। इस वायलेन्स के लिए कोई प्रोटेस्ट क्यूँ नहीं करता? 

ये बदन टूट फूट गया है। कोई कबाड़ी इसे किलो के भाव से तोलेगा इसलिए जब दिल्ली आती हूँ भर मन छोले कुलचे खाती हूँ। आइसक्रीम जाड़ों में। कोहरे में जिलेबी।

रूह में भी दरारें हैं। मेरे लिए महीन शब्द लिखो और गुनगुनाहट की कोई धुन। सिल दो ये बिखरा बिखरा लिबास। ज़रा देर को तुम्हारे काँधे पर सर रख लूँ। थक गयी हूँ। 

मुझे नहीं मालूम मेरे मर जाने पर कितने लोग मुझे कैसे याद रखेंगे। मगर मैं चाहूँगी तुम मुझे एक अफ़सोस की तरह याद रखो। एक जलते, दुखते, ज़िंदा अफ़सोस की तरह। कि तुम तो जानते हो। अफ़सोस की उम्र ज़िंदगी से कहीं ज़्यादा होती है। 

तुम मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहे लेकिन मैं तुम्हें ऐसे मिस करती हूँ जैसे इक उम्र बिता कर गए हो तुम। रूठ कर। 

किसी किताब के पहले पन्ने पर कुछ भी लिखना गुनाह है। 
किसी से प्रेम किए बिना उसका दिल तोड़ना भी।

12 January, 2015

उसके शहर में एक घंटे में होते हैं अनगिनत सेकंड्स


जब वो कहता है, तुम्हें करता हूँ आधे घंटे में फोन. उसके आधे घंटे के पहले पक्षी बना लेते हैं मेरे सामने वाली खिड़की पर एक पूरा घोंसला...चिड़िया सिखा देती है अपने बच्चे को उड़ना और कई शामों तक इधर उधर कर वही पक्षी फिर वापस लौट आते हैं मेरी खुली खिड़की पर अपना घोंसला बनाने. मगर उसका कॉल नहीं आता. 

मैं उतनी ही देर में जी लेती हूँ कई सारे मौसम. जाड़ों की कई दुपहरों को गीले बाल सुखाते हुए कर लेती हूँ अनगिनत कल्पनाएँ. मैं लौट जाती हूँ किसी उम्र में जब सलवार कुरता पहनना अच्छा लगा करता था. जब सूट के रंग से मिला कर ख़रीदा करती थी कांच की चूड़ियाँ. जब कि चूड़ीवाले की आँखें खोजती रहती थी मुझे कि एक मेरे आने से बिक जाती थीं उसकी कितने सारे रंगों की चूड़ियाँ...लाल...हरी...फिरोजी...गुलाबी...बैगनी...कि मेरी गोरी कलाइयों पर कितना तो सुन्दर लगता था कोई सा भी रंग. कितने खूबसूरत हुआ करते थे उन दिनों मेरे हाथ, कि बढ़े हुए नाखूनों पर हमेशा लगी रहती थी सूट से मैचिंग नेल पौलिश. मेरी कल्पनाओं में उभरते हैं उसके हाथ तो अपने हाथों पर अचानक से कोई मोइस्चराइजर लगाने का दिल करता है. मैं फिर से पहनना चाहती हूँ कोई नीला फिरोजी सूट और हाथों में कलाई कलाई भर सतरंगी चूड़ियाँ. मैं उसको कह देती हूँ कि मेरे लिए खरीद देना जनपथ से झुमके और मैं किन्ही ख्यालों की दुनिया में उन झुमकों का झूला डाल लेती हूँ. गोल गोल से उन झुमकों में नन्हीं नन्हीं घंटियाँ लगी हैं फिरोजी रंग कीं...जब मैं हंसती हूँ तो मेरे गालों के गड्ढे के आसपास इतराते हैं वो झुमके. याद के मौसम पर खिलती है मम्मी की झिड़की...ये क्या शादीशुदा जैसे भर भर हाथ चूड़ी पहनने का शौक़ है तुमको रे...करवा दें शादी क्या? और हम सारी उतार कर बस दायें हाथ में रख पाए हैं आधा दर्जन चूड़ियाँ. उसे कहाँ मालूम होगा कि उसके एक कॉल के इंतज़ार में कितनी चूड़ियों की गूँज घुलने लगी है. खन खन बरसता है जनवरी की रातों का कोहरा. कई कई साल उड़ते चले जाते हैं कैलेण्डर में. मेरी बालों में उतर आती है सर्दियों की शाम कोई...एकदम सफ़ेद...उसका कॉल नहीं आता. 

इतनी शिद्दत से इंतज़ार के अलावा भी कुछ करना चाहिए. मैं इसलिए लिखना चाहती हूँ कहानियां मगर शब्द बहने लगते हैं जैसे आँखों में जमे हुए आँसू...कोई नदी बाँध तोड़ देती है. पैराग्रफ्स में रुकता ही नहीं कुछ. सारे शब्द टूटे टूटे से गिरते हैं एक दूसरे के ऊपर...जैसे मैं चलती हूँ डगमग डगमग...कविता बनने लगती है अपनेआप. मुझे नहीं आता होना जरा जरा सा. मुझे नहीं आता लिखना पूरा सच...मैं घालमेल करती रहती हूँ उसमें बहुत सारा कुछ और...फिर भी हर शीर्षक में दिख जाती है उसकी भूरी आँखें. मैं संघर्ष फिल्म के डायलाग को याद करती मुस्कुराती हूँ 'ये आँखें मरवायेंगी'. कागज़ पर लिखती हूँ तो कविता की जगह स्केच करने लगती हूँ उसका नाम. रुमाल पर काढ़ने के लिए बेल बूटे बनाने लगती हूँ. कागज़ पर लिखती हूँ कुछ कवितायें. कहानियों का लड़का जिद्दी हुआ जाता है और कविताओं का शायर मासूम. मुझे डर लगता है उसका दिल तोड़ने से. मैं मगर चली जाना चाहती हूँ बहुत दूर. किसी हिल स्टेशन पर. किसी शाम पैक कर लेना चाहती हूँ अपना इकलौता तम्बू और निकल जाती हूँ बिना वेदर रिपोर्ट सुने हुए. मैं जानती हूँ कि लैंडस्लाइड से बंद हो जाएगा कई दिनों तक वापस जाने का रास्ता. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा दुनिया से. या कि मरने जीने से भी. मगर मेरी एडिटर को चिंता हो जायेगी मेरी और वो कहीं से ढूंढ निकालेगी मेरा जीपीएस लोकेशन. फिर इन्डियन आर्मी को भेजा जाएगा मुझे एयरलिफ्ट करने. मैं सोचूंगी. अब भी एक जान की कीमत है हमारे देश में. मैं परेशान होउंगी कि फालतू के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं जवान...कितनी कीमती है इनकी जान...कितनी मेहनत...कितना पैसा लगा होगा इनकी ट्रेनिंग के लिए. खुदा न खास्ता किसी को कुछ हो गया तो इनकी फैमिली को क्या जवाब दूँगी. ऐसा जीना किस काम का. मैं उस क्लिफ पर लगाये गए अपने तम्बू से कूद कर जान दे देना चाहूंगी. बीच हवा में मोबाईल में आएगा एक टावर का सिग्नल. फ़ोन पर आएगी तुम्हारी आवाज़. मैं कहूँगी आखिरी बार तुमसे. आई लव यू जानम.

***
आँख खुलेगी तो चेहरा सुन्न पड़ा होगा. शौकिया सीखी गयी क्लिफ डाइविंग बचा लेगी मुझे उस रोज़ भी...गिरते हुए...तुम्हारी आवाज़ के ताने बाने में डूबते हुए भी शरीर खुद को मिनिमल इम्पैक्ट के लिए एंगल कर लेगा. सर्द जमी हुयी झील से मुझे निकाल लायेंगे फ़रिश्ते. आँख खुलेगी तो हेलीकाप्टर में कोई कर्नल साहब होंगे...खींच के मारेंगे थप्पड़. पागल लड़की. फिर बेहोशी छाएगी. देखूँगी उनकी आँखें तुम्हारी आँखों जैसी है. ब्राउन. दिल खुदा को देखेगा मुस्कुराते हुए. चित्रगुप्त बोलेगा. आमीन.

09 January, 2015

इक बेमुरव्वत महबूब के इंतज़ार में

जब अगले दिन हैंगोवर से माथा फट रहा होता है तब जा के समझ आता है कि साला ओल्ड मौंक बहुत ही वाहियात दारू होती है. एकदम पहले प्यार कि तरह जब हमारा कोई टेस्ट नहीं था या कि कहिये कोई क्लास नहीं था...या कि एकदम ख़तम क्लास था कि कोई भी पसंद आ जाए. ओल्ड मौंक से प्यार सच्चा प्यार है. इसमें कोई मिलावट नहीं सिवाए कोक के...या फिर ज्यादा मूड या दिमाग खराब हुआ और मौसम हमारे आशिक की तरह हॉट तो कुछ आइस क्यूब्स भी डाल दिए जाएँ. ओल्ड मौंक पीना अपने अन्दर की सच्चाई से रूबरू होना है. खुद को समझाना है कि पैग के नियत डेफिनेशंस बकवास हैं. बिना पिए भी मुझे कभी मालूम नहीं चल पायेगा कि ३० मिली कितना है और पटियाला पेग कहाँ तक आएगा. तो आपको कितनी चढ़ेगी ये सिर्फ और सिर्फ उस पर डिपेंड करता है कि आपने ग्लास कैसा चुना है. अगर आप मेरी तरह थोड़े से सनकी हैं और शीशे के स्क्वायर वाले ग्लासेस में दारू पीते हैं तो आपका हिसाब फिर भी थोड़ा ठीक हो सकता है. मुझे फिफ्टी फिफ्टी लगभग पसंद आता है. मैं दारू भी कोल्ड ड्रिंक की तरह पीती हूँ. ये वाइन पीने वाले लोगों के ड्रामे कि साला ग्लास में मुश्किल से एक चौथाई वाइन है मुझे हरगिज़ पसंद नहीं आती. मेरा गिलास पूरा भरा होना चाहिए. जिंदगी की तरह.

नशा. हाँ नशा कितना चढ़ता है ये इसपर निर्भर करता है कि आप इश्क में है या नहीं. इश्क नहीं है तो ओल्ड मौंक आपकी ऐसी उतारेगा कि जिंदगी भर बोतल देखते खार खायेंगे. बचपन के सारे डर...सारी लड़कियों के ब्रेक-ऑफ जो आपने दोस्तों को बड़े शान से बताये थे कि आपने उस लड़की को छोड़ दिया...सारे खुल्ले में उभर आयेंगे. बचपन में नाइंथ स्टैण्डर्ड में जिस लड़के ने आपको भाव नहीं दिया और जिसके कारण लगता था कि जिंदगी जीने लायक नहीं है. ये सारे किस्से कुछ यूं निकलेंगे कि जिंदगी भर आपके दोस्त रुपी दुश्मन आपको चिढ़ा चिढ़ा मारेंगे. रूल हमेशा एक है. अगर आपको चढ़ी है तो दुनिया को डेफिनेटली आपसे कम चढ़ी है. और लड़कियों के साथ तो कभी दारू पीना ही मत. उनके सेंटियापे से बड़ा ज़हर कुछ नहीं होता. अब कौन ध्यान देना चाहता है कि किसने दो किलो वजन बढ़ा लिया है पिज़्ज़ा खा खा के. उस कमबख्त को आप कितना भी कह लें कि तुम बहुत हॉट हो, उसको कभी यकीन नहीं होगा. उसकी नज़रों में वो सिर्फ एक ओवरवेट लड़की है. उसको कौन बताये कि सेक्स अपील लाइज इन द ब्रेन बेबी. उस पर माया ऐन्ज्लेउ की कविताओं का असर भी नहीं पड़ेगा...फिर भी आप उसे सुनाना...कुछ लाइंस जो पार्टी में सबको अनकम्फर्टेबल कर दें...आप राइटर हो, आपका काम है अच्छी खासी हंसती खिलखिलाती पार्टी को ज़हर बना देना. सबके ऊपर आप अपने एक्सपर्ट कमेन्ट दीजिये. लेकिन इसके पहले कि हम भूल जायें कि ओल्ड मौंक और हमारे मन में कविताओं के उपजने का क्या किस्सा है..,कविता की कुछ लाइंस जो कि हर लड़की को जुबानी याद होनी चाहिए...
You may shoot me with your words,
You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I’ll rise.

ध्यान रखे कि ओल्ड मौंक से प्यार आपको एम्बैरस भी कर सकता है. वैसे ही जैसे पहला प्यार करता है. कि पहला प्यार आप दुनिया को दिखाने के लिए नहीं करते. पहला प्यार जब होता है आपका कोई पैमाना नहीं होता...डाल दे साकी उतनी शराब कि जितने में खुमार हो जाए...आज तुम्हारी कसम खा के कहते हैं जानम, ओल्ड मौंक इज अ नॉन प्रेटेंसीयस ड्रिंक. जिससे प्यार है उससे है यार...अब ये क्या बात हुयी कि कुंडली के लक्षण, जात और गोत्र देख के प्यार करेंगे. हो गया तो हो गया. धांय. तो उस पार्टी में सब अपने अपने ड्रिंक्स शो ऑफ कर रहे होंगे जैसे कि लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड्स या कि वाइस वरसा. आपको अगर अपने पर यकीन है तो आप खुल्लम खुल्ला अपने ओल्ड मौंक वाली मुहब्बत का इज़हार कर सकते हैं. मगर अगर आपको ज़रा सा भी इन्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स है तो आप किसी कमबख्त ब्लू लेबल की बीस हज़ार के प्राइस टैग के पीछे कुछ बहुत ओरिजिनल और ओथेंटिक खो रहे हैं. कुछ ऐसा कि जिसे देख कर उस खूबसूरत लड़की को आपसे प्यार होने ही वाला था. कि जब वो पूछे कि व्हाट इस योर चोइस ऑफ़ पोइजन...आप उसकी आँखों में आँखें डाल कर कह सकें...डार्लिंग इफ यू आर आस्किंग, हाउ डज ईट मैटर...आई वुड चूज यू...तुम्हारे हाथों से पानी में भी नशा होगा. मगर ये कहने के लिए जो जिगर जैसी चीज़ चाहिए उसे ओल्ड मौंक जैसी कोई वाहियात दारू ही मज़बूत कर सकती है. नफासत वाले ड्रिंक्स आपको जेंटलमैन बनायेंगे. कलेजा. सर. कलेजा. ओल्ड मौंक पचा जाने वाला. कहिये. है आपमें? तो अगर आपको ओल्ड मौंक पच जाती है...या फिर आपको ओल्ड मौंक अच्छी लगती है तो शायद आप मुझसे बात करने का कोई कॉमन ग्राउंड तलाश सकते हैं. मेरे खयाल से आपको भी ग़ालिब पसंद होंगे. और दुष्यंत. हाँ क्या? कमाल है. हम पहले क्यूँ नहीं मिले? अच्छा, आप भी इसी ठेके से हमेशा अपनी दारू खरीदते हैं. कमाल है. चलिए. मिल गए हैं तो जिंदगी लम्बी है. किसी रोज़ बैठते हैं इस सर्द मौसम में अलाव जला कर. कुछ आपके किस्से, कुछ ओल्ड मौंक और जरा सी हमारी मुहब्बत.

लाइए जाम...इस बेमुरव्वत....बेतरतीब...बेलौस और बेइंतेहा मुहब्बत के लिए चियर्स.

19 June, 2012

बारिशों का मौसम इज विस्की...सॉरी...रिस्की...उफ़!


सोचो मत...सोचो मत...अपने आप को भुलावा देती हुयी लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है...नयी विस्की आई है घर में...जॉनी वाकर डबल ब्लैक...ओह...एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएँ की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुयी है...डबल ब्लैक.

तुम्हारी याद...यूँ भी कातिलाना होती है...उसपर खतरनाक मौसम...डबल ब्लैक. मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गयी थी...सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे...वनीला जलाने को सोचती हूँ...लम्हा भी नहीं गुज़रता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूँ और कपकेक्स हैं सामने, घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं...मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूँ.

ना...वाइल्ड रोज तो हरगिज़ नहीं जलाऊँगी आज...मौसम भी बारिशों का है...वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा ऑफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था...और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहाँ अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था.तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे...फिर तो तुमने जबरदस्ती मुझे भी पानी में खींच लिया था...वो तो अच्छा हुआ कि मैंने एक सेट सूखे हुए कपड़े प्लास्टिक रैप करके रखे थे वरना गीले कपड़ों में ही बाकी ट्रेकिंग करनी पड़ती. ना ना करते हुए भी याद आ रहा है...पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना...फिर मेरे दाँत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियाँ रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था...गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है...डबल ब्लैक?

कॉफी...ओह नो...मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें...हवा में बारिश की गंध थी...आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे...आधा घंटा लगा था फ़िल्टर कॉफी को रेडी होने में...मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी, कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े...बारिश का पीछा करने...हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफ़ान से गले लगने जा रहे थे हम. फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी...दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी...हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी. फिर आसमान टूट कर बरसा...हमने गाड़ी अलग पार्क की...थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गयी...सड़क किनारे नदी बहने लगी थी...कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए...और तुम...ओह मेरे तुम...एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हाथेली मेरे सर के ऊपर रखते...ओह मेरे तुम...थ्रिल...कुछ हम दोनों की फितरत में है...घुली हुयी...दोनों पागल...डबल ब्लैक?

मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूँ नहीं रख सकती...परेशान होती हूँ...फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आँखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अँधेरे की...मोबाइल पर एक इन्स्ट्रुमेन्टल संगीत का टुकड़ा है...वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूँ...कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा...सोचती हूँ धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है. शंखनाद में कैसी आर्त पुकार...घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह. संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है...अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता...एकदम सही बीट्स देता है...गिने हुए अंतराल पर.

आज तो सिगार पीने का मूड हो आया है...गहरा धुआं...काला...खुद में खींचता हुआ...हलकी लाल रौशनी में जलते बुझते होठों की परछाई पड़ती है फ्रेंच विंडोज के धुले हुए शीशे में...डबल ब्लैक. 

15 April, 2012

अनलिखे की डायरी

डिस्क्लेमर: मुझे लिख के एडिट करना न आया है न आएगा...कुछ वाक्य थे जो सोने नहीं दे रहे थे...इनमें कोई काम की बात नहीं है...आप इस पोस्ट को पढ़ना स्किप कर सकते हैं.
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रतजगे का सोचना...इसे आधी रात का जागना भी नहीं कह सकते...आधी रात को तो मैं हमेशा नींद में होती हूँ...जाग जाती हूँ कुछ २ बजे से चार बजे के बीच. नींद मेरी हमेशा से कम रही है...बचपन से बहुत सारा पढ़ने की आदत और बहुत कुछ सकेर लेने का मोह. इधर इंटरव्यू में शायद किसी ने सवाल पूछा था...इतना सारा कुछ करने के लिए वक़्त कैसे निकाल लेती हो...और मेरा जवाब था...आई स्लीप लेस. यानि मैं कम सोती हूँ...चार से पांच घंटे हमेशा मेरे लिए काफी रहे हैं. स्कूल के दिनों में रात ग्यारह बारह तक सिलेबस पढ़ना होता था और उसके बाद एक दो घंटे अपने पसंद का कुछ...मुझे आज भी रात को बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आती.

कोलेज में आकर तो और आदत ही हो गयी रात दो बजे सोने की...आदत दिल्ली तक बरकरार रही...उसपर सुबह छह से सात बजे तक हर हाल और हर मौसम में उठ जाने की भी आदत बनी रही. इधर तीन चार सालों से थोड़ा रूटीन भी गड़बड़ था और नींद भी ज्यादा आती थी. अभी फिर पिछले तीन चार महीनों से वही पहले वाला हाल...चार घंटे, पांच घंटे की नींद. कल रात भी कोई १२ बजे सोयी होउंगी...तीन बजे नींद खुल गयी...और कितना भी चाहूं नींद आएगी नहीं. 

सब अच्छा रहता और इतना दर्द न रहता तो हमेशा की तरह इस वक़्त तुम्हें एक चिट्ठी जरूर लिखती...ब्लॉग पर यूँ अलाय बलाय लिखने के बजाये या फिर लिखने के पहले...पर आजकल मुझे जाने क्या हो गया है...एक एक शब्द को पकड़ कर रखती हूँ. मुझे तुम्हारी बहुत याद भी आ रही है अभी...अकेले तुम्हारी नहीं, कुछ और अजीज दोस्तों की भी...तो कह सकती हूँ कि तुम्हारे लिए मेरे मन में कोई खास कोर्नर या कोना नहीं है जिसके लिए मैं या तुम परेशान होना चाहो. 

मुझे लिखे बिना रहना नहीं आता...मेरी आदत है...मुझे लोग बहुत समझाते हैं कि हर बात लिखनी नहीं चाहिए...कुछ मन में भी रखना चाहिए...उसे गुनना चाहिए...फिर जाके अच्छा लिखना होता है. इसी तरह लोग बोलने के बारे में भी समझाते हैं कि कभी चुप भी रहना चाहिए...मुझसे नहीं होता. मैं क्या करूँ...कितना चाहती हूँ हाथ रोकूँ...मुझसे होता नहीं...पर हर बार जब ये कोशिश करती हूँ मैं बेहद उदास हो जाती हूँ...कलम की सारी सियाही आँखों में बहने लगती है और फिर रात रात नींद नहीं आती. 

एक बार ऐसे ही उदासी में अनुपम से कह दिया था...राइटिंग इज अ कर्स टु मी...उसने बहुत डांटा था कि ऐसे कभी नहीं कहते...कि काश वो मेरी तरह होता...कि उसे एक लाइन लिखने में कितनी दिक्कत होती है, कितना सोचना होता है तब जा के लिखता है. मैं जब ऑफिस में थी तब भी ऐसी ही थी. उसने कहा कि उसके साथ जितने ट्रेनी लोगों ने काम किया है सिर्फ मैं ऐसी थी कि वो निश्चिंत रहता था कि बॉडी कॉपी अगले दिन तैयार रहेगी. परसों से अनुपम की बहुत याद आ रही है...और ऐसा हो जा रहा है कि उससे बात करने का टाइम नहीं मिल पा रहा. जब मैं फ्री रहती हूँ वो नहीं रहता...जब वो फ्री रहता है मैं नींद में बेहोश. अभी सोच रही थी कि मंडे को उसे चिट्ठी लिखूंगी...बहुत दिन हो गए. 
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बहुत चाह रही हूँ कि सोचूँ उसके शब्दों के बारे में...मगर आज ही पहली बार तस्वीर देखी है और बाकी शब्द धुंधलाते दिख रहे हैं...मन एक ही बात पर अटका है...कवि कितना खूबसूरत है...बेहद से भी ज्यादा. दुनिया की फिलोसफी मुझे कभी जमी नहीं...मेरे जिंदगी के अपने फंडे रहे हैं...तो मन की खूबसूरती जैसी बकवास बातों पर कभी मेरा यकीन नहीं रहा...ये और बात है कि दोस्त हमेशा कहते थे कि तेरी खूबसूरती का पैमाना बायस्ड है. मुझे जो लोग अच्छे लगते हैं वो मुझे खूबसूरत लगने लगते हैं, आम से लोग पर मुझसे सुनोगे कि वो कैसे दिखते हैं तो लगेगा दुनिया में उनसे अच्छा कोई है ही नहीं. 
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मैं बेहद थक गयी हूँ अब...बहुत साल हो गए मेरे नाम एक भी चिट्ठी नहीं आई...मैं यूँ तनहा दीवारों से बातें करते थक गयी हूँ...मैं तुम्हारे नाम लगातार चिट्ठियां लिखते लिखते थक गयी हूँ...पूरी पूरी जिंदगी मौत का इंतज़ार करते करते थक गयी हूँ. मैं दो ही चीज़ों से ओब्सेस्ड हूँ...जिंदगी और मौत. बार बार सोचती हूँ कि कोई तुम्हारे जैसा कैसे होता है...समझ नहीं आता...शायद मैं बहुत आत्मकेंद्रित हूँ कि मुझे अपने से अलग लोग समझ नहीं आते...मुझे लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको किसी की याद आये और आप उसे बताएं नहीं...किसी से प्यार हो और उसी से छुपा ले जाएँ...किसी से प्यार ख़त्म हो चुका हो और झूठ उसे यकीन दिलाते जायें...कैसे जी लेते हैं लोग झूठ के मुखोटे में. 

मुझे किसी की याद आती है तो बता देती हूँ...किसी से प्यार होता है तो जता देती हूँ...कभी प्यार टूटता है तो समझा देती हूँ...किसी को भूल जाती हूँ तो माफ़ी मांग लेती हूँ...मुझे कॉम्प्लीकेटेड होना नहीं आता. पर आज तकलीफ है बहुत...बेहद...जिंदगी हम जैसे लोगों के लिए नहीं है...और मैं क्या करूँ कि मुझे तो झूठ का हँसना भी नहीं आता...तुमने बहुत हर्ट किया है मुझे...जितना मैं तुम्हें बताउंगी नहीं...और जितना मेरे शब्दों में खुल कर दिखता है उससे कहीं ज्यादा. 

पर मैं क्या करूँ...मैं ही कहती थी न...कोई आपको दुःख सिर्फ और सिर्फ तब पहुंचा सकता है जब वो आपसे प्यार करता हो...उलझी हूँ...कोई सुझा दे...गिरहें. 

20 March, 2012

दरख़्त के सीने में खुदे 'आई लव यू'

इससे अच्छा तो तुम मेरे कोई नहीं होते 
गंध...बिसरती नहीं...मुझे याद आता है कि जब उसके सीने से लगी थी पहली बार...उदास थी...क्यूँ, याद नहीं. शायद उसी दिन पहली बार महसूस हुआ था कि हम पूरी जिंदगी साथ नहीं रहेंगे. एक दिन बिछड़ना होगा...उसकी कॉटन की शर्ट...नयेपन की गंध और हल्का कच्चापन...जैसे आँखों में कपास के फूल खिल गए हों और वो उन फाहों को इश्क के रंग में डुबो रहा हो...गहरा लाल...कि जैसे सीने में दिल धड़कता है. आँखें भर आई थीं इसलिए याद नहीं कि उस शर्ट का रंग क्या था...शायद एकदम हल्का हरा था...नए पत्तों का रंग उतरते जो आखिरी शेड बचता है, वैसा. मैंने कहा कि ये शर्ट मुझे दे दो...उसने कहा...एकदम नयी है...सबको बेहद पसंद भी है...दोस्त और घर वाले जब पूछेंगे कि वो तो तुम्हारी फेवरिट शर्ट थी...कहाँ गयी तो क्या कहूँगा...मैंने कहा कि कह देना अपनी फेवरिट दोस्त को दे दिया...पर यु नो...दोस्त का इतना हक नहीं होता.
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तुम मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो 
और फिर लौट आने को...मन की दीवार पर पेन्सिल से लिखा है...शायद अगली दीवाली में घर पेंट होगा तो इसपर भी एक परत गुलाबी रंग की चढ़ जायेगी...पर तब तक की इस काली लिखावट और उसके नीचे के तुम्हारे इनिशियल्स से प्यार किये बैठी हूँ. तुम्हें लगता है कि पेन्सिल से लिखा कुछ भी मिटाया जा सकता है...पागल...मन की दीवार पर कोई इरेजर नहीं चलता है...तुम्हें किसी ने बताया नहीं?
सुनती हूँ कि तुम्हारे घर में एक नन्हा सा तुम्हारा बेटा है...एक खूबसूरत बीवी है...बहुत सी खुशियाँ हैं...और सुना ये भी है कि वहां एक छोटा सा स्टडी जैसा कमरा खाली है...अच्छे भरे पूरे घर में खाली कमरा क्या करोगे...वहां उदासी आ के रहने लगेगी...या कि यादें ही अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जायेंगी. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो...पेईंग गेस्ट यु सी. मेरा तुम्हारा रिश्ता...कुछ नहीं...अच्छा मकान मालिक वो होता है जो किरायेदार से कम से कम मेलजोल रखे.
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कितने में ख़रीदा है सुकून?
खबर मिली है कि पार्क की एक बेंच तुमने रिजर्व कर ली है...रोज वहां शाम को बैठ कर किसी लड़की से घंटों बातें करते हो. अब तो रेहड़ी वाले भी पहचानने लगे हैं तुम्हें...एकदम वक़्त से मुन्गोड़ी पहुंचा देते हैं और मूंगफली भी...और चिक्की भी...ऐसे मत कुतरो...किसी और का दिल आ गया तो इतनी लड़कियों को कैसे सम्हालोगे?
दिल्ली जैसे शहर में कुछ भी मुफ्त तो मिलता नहीं है. सुकून कितने में ख़रीदा वो तो बताओ...अच्छा जाने दो...उस पार्क के पुलिसवाले को कितना हफ्ता देते हो रोज़ वहां निश्चिंत बैठ कर लफ्फाजी करने के लिए. ठीक ठीक बता दो...मैं पैसे भिजवा दूँगी...किसी और से बात करने के लिए क्यूँ? खुश रहते हो उससे बात करके...ये भी शहर ने बता दिया है...अरे दिल्ली में मेरी जान बसती है...तुम में भी...तुम्हारा सुकून इतने सस्ते मिल रहा है...किसी और के खरीदने के पहले मैं खरीद लेती हूँ...आखिर तुम्हारा पहला प्यार हूँ.
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सारे तारे तुम्हारी तरफदारी करते हैं 

तुम तो बड़े वाले पोलिटिशियन निकले, सारे सितारों को अपनी साइड मिला लिया है...ऐसे थोड़े होता है. एक सूरज और एक चाँद...ऐसे तो मेरा केस बहुत कमजोर पड़ जाएगा...तुमसे हार जाने को तो मैं यूँ ही बैठी थी तुम खामखा के इतने खेल क्यूँ खेल रहे हो...जिंदगी भले शतरंज की बिसात हो...इतना प्यार करती हूँ कि हर हाल में तुमसे 'मात' ही मिलनी थी. चेकमेट क्यूँ...प्लेमेट क्यूँ नहीं...मुझे ऐसे गेम में हराने का गुमान पाले हुए हो कि जिसमें मेरे सारे मोहरे कच्चे थे. इश्क के मैदान में उतरो...शाह-मात जाने दो...गेम तो ऐसा खेलते हैं कि जिंदगी भर भूल न पाओ मुझे.
लोग एक चाय की प्याली में अपना जीवनसाथी पसंद कर लेते हैं...तुम्हारी तो शर्तें ही अजीब हैं...सारी चालें देख कर प्यार करोगे मुझसे?
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कैन आई काल यू 'हिकी'?
तुम्हारे दांतों से जो निशान बनते हैं उन्हें गिन कर मेरी सहेलियां अंदाज़ लगाती हैं कि तुम मुझसे कितना प्यार करते हो. अंदाज़ तो ये भी लगता है कि इसके पहले तुम्हारी कितनी गल्फ्रेंड्स रही होंगी...ये कोई नहीं कहता. हिकी टैटू की तरह नहीं होता अच्छा है...कुछ दिन में फेड हो जाता है. तुम्हारा प्यार भी ऐसा होगा क्या...शुरआत में गहरा मैरून...फिर हल्का गुलाबी...और एक दिन सिर्फ गोरा...दूधधुला...संगेमरमर सा कन्धा...अछूता...जैसे तुमने वाकई सिर्फ मेरी आत्मा को ज़ख्म दिए हों.
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उनींदी आँखों पर तुम्हारे अख़बार का पर्दा 
यु नो...आई यूज्ड तो हेट टाइम्स आफ इंडिया...पर ये तब तक था जब तक कि हर सुबह आँख खोलते ही उसके मास्टहेड की छाँव को अपनी आँखों पर नहीं पाती थी...तुम्हें आती धूप से उठना पसंद था...और मुझे आती धूप में आँखें बंद कर सोना...धूप में पीठ किये खून को गर्म होते हुए महसूसना...पर तुम्हारी शिकायत थी कि तुम्हें सुबह मेरा चेहरा देखना होता था...तो तुमने अख़बार की ओट करनी शुरू की.
आज अर्ली मोर्निंग शिफ्ट थी...सुबह एक लड़का टाइम्स ऑफ़ इण्डिया पढ़ रहा था...तुम्हें देखने की टीस रुला गयी...मालूम है...आज पहली बार अख़बार के पहले पन्ने पर तुम्हारी खबर आई थी...बाईलाइन के साथ...अच्छा तुम्हें बताया नहीं क्या...तुमसे ब्रेकऑफ़ के बाद मैंने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया...सबस्क्राइब कर लिया था.
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सिक्स्थ सेन्स हैज नो कॉमन सेन्स 
मेरी छठी इन्द्रिय को अब तक खबर नहीं पहुंची है कि मैं और तुम अलग हो गए हैं...कि अब तुम्हारे लिए दुआएं मांगने का भी हक किसी और का हो गया है. किसी शाम तुम्हारा कोई दर्द मुझे वैसे ही रेत देता है जैसे तुम्हारे जिस्म पर बने चोट के निशान. मैं उस दोस्त क्या कहूँ जो मुझे बता रहा था कि पिछले महीने तुम्हरा एक्सीडेंट हुआ था...कह दूं कि मुझे मालूम है? वो जो तुम्हारी है न...उससे कहो कि तुम्हारा ध्यान थोड़ा ज्यादा रखे...या कि मैं फिर से तुम्हारा नाम अपनी दुआओं में लिखना शुरू कर दूं?
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आखिरी सवाल...डू यू स्टिल रिमेम्बर टू हेट मी?

29 February, 2012

जाने दे यार, शी इज नॉट योर टाईप


जिद्दी लड़की ने 
बालों को दुपट्टे में लपेट कर बाँधा 
और दिन भर की पूरे घर की साफ़ सफाई

पंखों पर के जाले हटाये
डांट के भगाई किताबों पर की सारी धूल
पोछा लगाया सारे कोनों में 
तह कर के रखे अलमारियों में कपड़े 

फेंकने को थीं 
बासी कविताएं
पुरानी कलमें, सूखी दवातें 
मुरझाये फूल, चोकलेट रैपर, बुकमार्क
उसकी ब्लैक एंड वाईट तस्वीर 
बहुत सारी कॉफी शॉप की बिल्स 
पेपर नैपकिंस पर लिखी आधी अधूरी पंक्तियाँ 
इधर उधर पड़ी डायरियों में उसका सिग्नेचर 

कमोबेश हर चादर में अटकी हुयी मिलती थी
उसकी कोई छूटी हुयी अंगडाई 
रूमाल में उसकी उँगलियों के निशान 
वाशिंग पावडर से तेज थी
उसके आफ्टरशेव की खुशबू 

शू रैक में रह गयीं थी 
उसकी फेवरिट रेड चप्पलें 
बाथरूम में तौलिया, टूथब्रश
भाप उठते आईने में उसका अक्स
भीगे बालों को झटकता हुआ

शाम होते वो बेहद थक गयी 
कॉफी के कप पर ठहरे थे 
वोही संगदिल बोसे 
संगमरमर के चमकीले फर्श पर
और भी साफ़ दिखने लगी थीं 
काफ़िर आँखें 

तनहा और उदास लड़की ने 
आखिर जला ही ली 
उसकी छूटी हुयी आखिरी सिगरेट 

धुएं के टूटे छल्लों में 
बनता रहा एक ही सवाल 
इतने गुस्से में गया है
जाने कब वापस आएगा!

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हालांकि इतना वक़्त काटने के बजाये जान दी जा सकती थी...और इंतज़ार का पासा उसकी तरफ फेंका जा सकता था...रेतघड़ी को उलट कर 'योर टर्न' कहा जा सकता था. 'आई हेट यू' जैसा कोई मेसेज किया जा सकता था...चुप रहने की कसम को निभाया जा सकता था...मगर क्या है न कि वो अपने सीने से लगा कर माथे पर थपकियाँ देते हुए 'शश्शश्श्श....' जैसा कुछ नहीं कह सकता...और लड़की इतनी बुद्धू है कि उसे बस इतना चाहिए पर वो सारे झगड़ों के बाद भी उसे बताती नहीं...हाँ आजकल उसने एक नया शिगूफा पाला है...
बेआवाज़ रोने का... 

19 February, 2012

बदमाश दुपहरें...

'तुम्हें कहीं जाना नहीं है? घर, दफ्तर, पार्क...सिगरेट खरीदने, किसी और से मिलने...कहीं और?'
'कौन जाए कमबख्त महबूब की गलियां छोड़ कर'
'ए...मुझे कमबख्त मत कहो'
'तो क्या कहूँ  मेरी जान?'
'तुम आजकल बड़े गिरहकट हो गए हो...पहले तो लम्हों, घंटों की ही चोरी करते थे आजकल तो पूरे पूरे दिन पर डाका डाल देते हो, पूरी पूरी रातें चुरा ले जाते हो'
'बुरा क्या करता हूँ, इन बेकार दिनों और रातों का तुम करती ही क्या?'
'कह तो ऐसे रहे हो जैसे तुम्हारे सिवा मेरे पास और कोई काम ही नहीं है'
'है तो सही...पर मुझसे अच्छा तो कोई काम नहीं है न'
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लड़की ने कॉफ़ी का मग धूप में रखा हुआ है...हेडफोन पर एमी का गाना लगा हुआ है कल रात से 'वी ओनली सेड गुडबाई विद वर्ड्स'. पूरी रात एक ही गाना सुना है उसने...गाने से कोई मदद मिली हो ऐसा भी नहीं है. गैर तलब है कि बिछड़ने के लिए एक बार तो मिलना जरूरी होता है. उसने सर को हल्का सा झटका दिया है जैसे कि उसका ख्याल बाहर आ गिरेगा...धूप के चौरस टुकड़े में उसके शर्ट की उपरी जेब का बिम्ब नहीं बनेगा...उसका दिल कर रहा है लैपटॉप एक ओर सरका कर धूप में आँखें मूंदे लेट जाए...शायद ऐसा ही लगेगा कि जैसे उसके सीने पर सर रखा हो. वो बेडशीट के रंग को उसकी शर्ट के कलर से मैच कर रही है...दिल नहीं मानता...उठती है और चादर बदल लेती है...नीले रंग की...हाँ ये ठीक है. शायद ऐसे रंग की शर्ट पहनी हो उसने...अब ये धूप का टुकड़ा एकदम उसके पॉकेट जैसा लग रहा है. यहाँ चेहरे पर जो गर्मी महसूस होगी वो वैसी ही होगी न जैसे शर्म से गाल दहक जाने पर होती है. डेरी मिल्क बगल में रखी है...उसे कुतरते हुए दिमाग में डेरी मिल्क के ऐड के शब्द छुपके चले आते हैं...किस मी...क्लोज योर आईज...मिस मी...और उसका दिल करता है किसी से खूब सारा झगड़ा कर ले.

महबूब शब्दों को छोड़ कर जा ही नहीं रहा...प्रोजेक्ट कैसे ख़त्म करेगी लड़की...स्क्रिप्ट क्या लिखनी है...डायलोगबाजी कहाँ कर रही है. वाकई उसका काम में मन नहीं लगता...दिन के लम्हे बड़ी तेजी से भागते जा रहे हैं...जैसे वो बाइक चलाती है, वैसे...बिना स्पीडब्रेकर पर ब्रेक लिए हुए...फुल एक्सीलेरेटर देते हुए...और जब बाइक थोड़ी सी हवा में उड़ कर वापस जमीन पर आती है तो उसके बाल एक अनगढ़ लय में उसकी पीठ पर झूल जाते हैं...थोड़ी सी गुदगुदी भी लगती है...कभी कभार जब कोई गाड़ी रस्ते में आ खड़ी होती है तो वो जोर से ब्रेक मारती है...एकदम ड्रैग करती हुयी बाइक रूकती है. सामने वाले के होश फाख्ता हो जाते हैं, उसे लगता है बाइक लड़की के कंट्रोल में नहीं है...वो नहीं जानता लड़की और बाइक अलग हैं ही नहीं...बाइक लड़की के मन से कंट्रोल होती है...लड़की अधिकतर लो बीम में ही चलाती है पर कभी कभी जब स्ट्रीट लैम्प के बुझने तक भी उसका घर आने का मन नहीं होता तो हाई बीम कर देती है...बाइक की हेडलाईट चाँद की आँखों में चुभती तो है मगर क्या उपाय है...माना कि उत्ती खूबसूरत लड़की रात को किसी को बाइक से ठोक भी देगी तो लड़का ज्यादा हल्ला नहीं करेगा...एक सॉरी से मान जाएगा फिर भी...किसी अजनबी को सॉरी बोलने से बेहतर है कि चाँद को सॉरी बोले.

वो एमी को बाय बोल चुकी है और इंस्ट्रूमेंटल संगीत सुन रही है...सुनते सुनते मेंटल होने की कगार आ चुकी है...दिन आधा बीत चुका है...आधी चाँद रात के वादे की तरह. सोच रही है कि अब क्या करे...कॉफ़ी का दूसरा कप बनाये या ग्रीन टी के साथ सिगरेट के कश लगा ले...या हॉट चोकलेट में बाकी बची JD मिला के पी जाए. बहुत मुश्किल चोइसेस हैं...लड़की ने जूड़े से पिन निकाल फेंका है...लैपटॉप के उपरी किनारे से पैरों की उँगलियाँ झांकती हैं...नेलपेंट उखड़ रहा है...पेडीक्यूर जरूरी हो गया है अब. दुनिया की फालतू चीज़ें सोच रही है...जानती है कि दिन को उससे काम बहुत कम होता है. पर रात को तो उसकी याद और बेतरह सताती है...रात को काम कैसे करेगी.

इतना सोचने में उसका सर दर्द करने लगा है...अब तो लास्ट उपाय ही बचा है. लड़की ऐसी खोयी हुयी है कि फिर से उसने दो शीशे के ग्लासों में नीट विस्की डाल दी है...सर पे हाथ मारते हुए फ्रीज़र से आइस निकलती है...और ग्लास में डालती जाती है...ग्लास में बर्फ के गिरने की महीन आवाज़ से उसे हमेशा से प्यार है. 'तुम जो न करवाओ' जैसा कुछ कहते हुए एक सिप लेती है...धीमे धीमे लिखना आसान होने लगता है...दूसरे ग्लास में बर्फ पिघल रही है...पर लड़की को कोई हड़बड़ी नहीं है आज...दो पैग पीने के लिए उसके पास इतवार का बचा हुआ आधा दिन और पूरी रात पड़ी है.

उसने महबूब के हाथ में अपनी कलम दे रखी है...महबूब परेशान 'तुम जो न करवाओ' जैसा कुछ कहते हुए उसके साथ प्रोजेक्ट ख़त्म करने में जुट गया है...वरना लड़की ने धमकी दी है कि विस्की का ग्लास भूल जाओ. लड़की खुश है...कभी तो जीती उस दुष्ट से. फ़िज़ा में लव स्टोरी का इंस्ट्रूमेंटल बज रहा है...खिड़की से सूखे हुए पत्तों की खुशबू अन्दर आ रही है...वो खुश है कि महबूब के साथ किसी प्रोजेक्ट पर काम करना भी इश्क जैसा ही खूबसूरत है.

ऐसी दोपहरें खुदा सबको नसीब करे. आमीन!

15 February, 2012

पतझड़ का शहर

उसके शहर में
बहुत करीने से गिरते थे पत्ते भी

अक्सर सोचता हूँ 
दुनिया में कुछ है भी
जो उसकी तरह बिखरा हुआ है
या कि बेतरतीब 

सूखे पत्तों पर बाइक उड़ाती लड़की
मुझसे यूँ प्यार न करो
अभी मेरा दिल हरा ही है
अभी इंतज़ार अधूरा बाकी है 

तुम तो मौसम की तरह गुज़र जाओगी
पर मैं कतार में कैसे बिखेरूँगा सूखे पत्ते 

कि तुम कैसे पहचानोगी वापसी की राह?
तुम्हारी तसवीरें देख कर एक ही बात सोचता हूँ
तुम वाकई करोगी क्या मुझसे प्यार...ताउम्र?

या कि तुम्हें भी झूठे वादे करने
और झूठी कसमें खाने में लुत्फ़ आता है?

(एक लड़की थी...एक नंबर की झूठी...और वैसी ही दिलफरेब...एक शहर था...जिसे उस लड़की से प्यार हो गया था...एक लड़का था जिसे वो शहर दरवाजे पर रोक लेता था...और इश्क था...एक नंबर का बदमाश...ये इन तीनो(चारों?) की कहानी है. हाँ, इस कहानी के सारे पात्र असली हैं...बस उनका पता नहीं मिलता)

10 February, 2012

Write a letter to me.

किसी दिन तुम मांग लोगे ये सारे दिन वापस जो मैंने तुमसे बात करते हुए बिताये थे...ये कहते हुए कि ये दिन तुम्हारे थे...ये घंटे तुम्हारे थे...कि इनका कोई बेहतर इस्तेमाल हो सकता था मेरी बकवास बातों के अलावा...मैं जो इतनी पागल हूँ कि अपने लम्हे भी करीने से लगा के नहीं रखती...तुम्हें तुम्हारे दिनों, लम्हों, सालों के साथ गलती से भेज दूँगी मेरी कुछ उदास दोपहरें भी...कुछ चुप्पी रातें भी...गलती से मिक्स हो जायेंगे मेरे और तुम्हारे दिन जब मैं तुम्हें लौटाऊंगी तुम्हारे लम्हे. तुम कितने दिन बर्बाद करोगे उस पुलिंदे से अपने हिस्से के लम्हे तलाशते हुए...जाने दो न...रहने दो न मेरा जो है...क्यूँ चाहिए तुम्हें ये लम्हे...इत्ती लम्बी तो है ही जिंदगी कि मैं कुछ लम्हों पर अपना हक मांग सकूँ. 

दोनों सवाल उतने ही जरूरी हैं...वो मुझे इतना क्यों जानता है...वो मुझे इतना कैसे जानता है...

पूरी पूरी रात नीम बेहोशी में बड़बड़ाती रही 'तुम मेरे कोई नहीं हो'...सुबह उठने तक भी इस बात पर यकीन नहीं होता है. तुमसे बात करती हूँ तो सारे वक़्त मैं ही बोलती रहती हूँ...तुम्हारी शायद ही कोई बात सुनती हूँ फिर भी लगता है तुम्हें बहुत जानती हूँ...तुमसे झगड़ा भी कर लूंगी...पर वाकई सिर्फ ये जानने से कि तुम्हारी जिंदगी में क्या क्या हुआ तुम्हारा जिंदगीनामा लिखा जा सकता है, यू नो ऑटोबायोग्राफी...पर तुम्हें जान नहीं सकता कोई. पता नहीं क्यों...लगता है कि तुम्हारी दोस्त होती...कोई बहुत पुरानी दोस्त होती तो तुम्हें बहुत अच्छे से जान पाती...फिर किसी रात इतना न रोती...तुमसे झगड़ा करती कि तुम्हें तुमसे ज्यादा जानती हूँ, बहस मत करो मुझसे.

किसको यकीन दिलाना चाहती हूँ...खुद को ही न...तुम्हें क्यों कहती हूँ फिर...बार बार बार...आज खुद ही जिद्द करके तुमसे फोन रखवाया...इतने सालों में...अब पता है कैसा लग रहा है...जैसे अचानक तुम कहीं बिछड़ गए हो...जैसे भीड़ में चलते हुए अचानक से तुम्हारा हाथ छूट गया है मेरे हाथ से और मैं इत्ती छोटी सी हूँ कि तुम मुझे ढूंढ नहीं पाओगे और मैं इतनी पागल भी तो हूँ कि कहीं तुम्हारा इंतज़ार नहीं करुँगी...उस शहर से बाहर को जो हाइवे जाता है वहां निकल पडूँगी...मर गयी तो ठीक वरना वैसे भी तुम्हारे बिना दूसरे किसी शहर में जीना कोई कम तकलीफदेह थोड़े है.

मुझे एक चिट्ठी लिखो न...मैंने तुम्हें कितनी सारी चिट्ठियां लिखी हैं...तुम ही न कहते हो तुम्हें बातें करना नहीं आता...पर जवाब देना आता है...मेरी किसी चिट्ठी का जवाब दे दो...कभी...मर जाउंगी न तो बहुत अफ़सोस करोगे...देखना...फिर मेरी चिट्ठियां देखना...तब वो 'येडा येडा येडा' नहीं लगेंगी...वैसे चिट्ठियां तुम्हें लिखती हूँ पर उनमें खुद को बचा जाने की कोशिश ही तो है...गनीमत है तुम्हारे पास मेरी चिट्ठियां तो हैं...कहीं किसी को यकीन तो होगा कि ये लड़की जिन्दा थी कभी...कि उसने वाकई कागज़ पर कलम से चिट्ठियां लिखीं थी...और तुम झूठ कहते हो...मैं नहीं जी रही पचासी बरस तक...मेरे पास बहुत कम जिंदगी है...बहुत कम. तो प्लीज मुझे एक चिट्ठी लिख दो ना...तुम कौन सा मुझ से प्यार करते हो जो लिखने में तुम्हें दिक्कत आएगी. पता है, पहले तुम मुझसे बात करते थे तो कभी कभी मजाक में मुझे स्वीटहार्ट कह देते थे...मैं कैसे पिघल जाती थी तुम्हें नहीं पता...कितनी मुश्किल से छुपा जाती थी अपनी मुस्कान...

वाकई कोई हो...कोई हो जो बिठा के समझाए...बेटा ये जिंदगी होती है...ये रिश्ते होते हैं...रास्ते इधर के होते हैं...कुछ लोग मिलते हैं, कुछ लोग अपने रस्ते चले जाते हैं...कोई हो जो बतलाये कि तुम मेरे क्या हो...कि आखिर क्यों इतने कुछ हो तुम मेरे...क्यों...क्यों...क्यों...मुझे सुना हुआ याद नहीं होता...उस किसी को मुझे गले लगाके बताना होगा कि तुम क्या हो मेरे...कि क्यों तुम्हारे छू देने से जी जाती हूँ मैं...बताओ ना...तुम्हारे छू लेने से कैसे जी जाती हूँ मैं...उस किसी को कहो न कि मुझे समझाए कि तुम एकदम आम से इंसान हो...तुम में कुछ ख़ास नहीं है...मैं ही जो पागलों की तरह प्यार करती हूँ तुमसे इसलिए सब मुझसे है...मेरे इतने सारे 'I shouldn't have loved you this much' मुझे खुद ही समझ नहीं आते...मुझे कोई समझाता क्यूँ नहीं है यार!


किसी दिन इतनी पी लेना कि सच और झूठ में अंतर पता नहीं चले...मुझे कोई और समझ कर 'I love you' कह देना...कोई भी और...जिसपर भी तुम्हें प्यार आता हो...बस एक बार...बस एक बार...बस एक बार. मैं भी भूल जाउंगी उस लम्हे को जिंदगी भर के लिए...मगर...मौत के पहले के उस एक लम्हे में जब जिंदगी की फिल्म रिवाईंड होगी...उस लम्हे इस झूठ को याद कर लेने देना कि जब तुमने मुझे 'आई लव यू' कहा था. 

05 February, 2012

उसने किसी दूसरी कायनात का सूरज हमारे होठों पर टाँक दिया...

'तो? क्या चाहिए?
'तुम चाहिए'
'अच्छा, क्या करोगी मेरा?'
'बालों में तेल लगवाउंगी तुमसे' 
'बस...इतने छोटे से काम के लिए मैं तुम्हारा होने से रहा...कुछ अच्छा करवाना है तो बोलो'

'तुम हारे हुए हो...तुम्हारे पास ना बोलने का ऑप्शन नहीं है'
'अच्छा जी...कब हारा मैं तुमसे? मैंने तो कभी कोई शर्त तक नहीं लगाई है'
'अच्छा हुआ तुम्हें भी याद नहीं...मैं तो कब का भूल गयी कि तुम कब खुद को हारे थे मेरे पास...अब तो बस ये याद है कि तुम मेरे हो...बस मेरे'

'तो ठकुराइन हमसे वो काम करवाइए न जो हमें अच्छे से आता हो'
'मुझे तुम्हारे शब्दों के जाल में नहीं उलझना...तुम्हारे कुछ लिख देने से मेरा क्या हो जाएगा...सर में दर्द है, आ के मेरे बालों में उँगलियाँ फेरो तो तुम्हारे होने का कुछ मतलब भी हो...वरना वाकई...तुम्हारा जीना बेकार है'

'बस इतने में मेरा जीना बेकार हो गया?'
'और नहीं क्या अपनी प्रेमिका के बालों में तेल लगाने से महत्वपूर्ण कुछ और भी है तुम्हारी जिंदगी में तो ऐसी जिंदगी का क्या किया जाए!'
'आप और मेरी प्रेमिका...अभी तो आप कह रही थीं कि मैं हारा हुआ हूँ खुद को आपके पास...कि आप तो बेगम हैं'
'खूब जानती हूँ तुम्हें...देखो...ये बेगम शब्द कहा...कुछ और भी तो कह सकते थे'
'कुछ और जैसे कि...जान...महबूब...मेहरबां...या फिर कातिल?'
'हद्द हो...कितनी बात बनाते हो...मैं तो कह रही थी कि मालकिन, रानी साहिबा, मैडम या ऐसे अधिकार वाले शब्द'
'चलो बता दो इनमें से कौन सा शब्द गलत है...जान तुम में बसती है...महबूब तुम हो मेरी...और पल बदलते मेहरबान होती हो और पल ठहरते कातिल.'
'जाओ हम तुमसे बात नहीं करते'

'गलत इंसान से रूठ रही हो!'
'ओये लड़के...प्यार तुझसे करुँगी तो रूठने क्या पड़ोसी से जाउंगी?...हाँ प्यार गलत इंसान से कर लिया है...सीधे सीधे कह दो न .'
'प्यार गलत इंसान से कर लिया है...अब मैं अपना क्या करूँगा?'
'मेरे हो जाओ'
'अब क्या होना बाकी रह रखा?'

'ईगो बहुत है तुममें'
'अच्छा तो अब हमें तोड़ के भी देखोगी?...जान क्यों नहीं लेती हो हमारी?'
'अरे...फिर मेरे बालों में तेल कौन लगायेगा?'

'तौबा री लड़की! तू वाकई अपने जैसी अकेली है...तुझे खुदा से भी डर लगता है भला?'
'डरें मेरे दुश्मन...हमने भला कौन सा गुनाह किया है कभी'
'तूने री लड़की...गुनाह-ए-अज़ीम किया है'
'अच्छा...वो क्या भला?'
'इश्क़'
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आखिरी लफ्ज़ कहते हुए महबूब की आँखों में शरारत नाच उठी...उसने किसी दूसरी कायनात का सूरज हमारे होठों पर टाँक दिया...उस एक सुलगते बोसे से मेरे होठ आज तक महक रहे हैं...कि आज भी जब मैं हंसती हूँ तो लोग कहते है कि मेरे होठों से रौशनी के फूल झरते हैं. 

04 February, 2012

अश्क़ और इश्क़ में एक हर्फ़ का ही तो फर्क है.

तुम्हारी जिंदगी में मेरी क्या जगह है?’
तिल भर
बस?’
हाँ, बस। बायें हाथ की तर्जनी पर, नाखून से जरा ऊपर की तरफ एक काले रंग का तिल है...वही तुम हो।‘’
वहीं क्यूँ भला?’
दाहिने हाथ से लिखती हूँ न, इसलिए
ये कैसी बेतुकी बात है?’
अच्छा जी, हम करें तो बेतुकी बात, तुम कहो तो कविता
मैंने कभी कुछ कहा है कविता के बारे में, कभी तुम्हें सुनाया है कुछ...तो ताने क्यों दे रही हो?’
नहीं...मगर मैंने तुम्हारी डायरी पढ़ी है
तुम्हें किसी चीज़ से डर लगता भी है, क्यूँ पढ़ी मेरी डायरी बिना पूछे?’
तुम मेरी जिंदगी में किसकी इजाजत ले कर आए थे?’
तुमने कभी कहा कि यहाँ आने का गेटपास लगता है? फिर तुमने वापस क्यूँ नहीं भेजा?’

तुम शतरंज अच्छी खेलते हो न?’
तुम मुझसे प्यार करती हो न?’
तुमसे तो कोई भी प्यार करेगा
मैंने ओपिनियन पोल नहीं पूछी तुमसे...तुम अपनी बात क्यूँ नहीं करती?’

मेरे मरने की खबर तुम तक बहुत देर में पहुंचेगी, जब तुम फूट फूट कर रोना चाहोगे मेरे शहर के किसी अजनबी के सामने तो वो कहेगा "अब तो बहुत साल हुये उसे दुनिया छोड़े...अब क्या रोना.....तुम्हें किसी ने बताया नहीं था....अब तो उसे सब भूल चुके हैं"...'
तुम मुझसे पहले नहीं मरने वाली हो, इतना मुझे यकीन है
अच्छा तो अब काफिर नमाज़ी होने चला है, तुम कब से इतनी उम्मीदों पर जीने लगे?’

लड़के ने लड़की का बायाँ हाथ अपने हाथ में लिया और तिल वाली जगह को हल्के हल्के उंगली से रगड़ने लगा। लड़की खिलखिलाने लगी।
क्या कर रहे हो?’
तुम्हारा क्या ठिकाना है लड़की, देख रहा हूँ कि सच में तिल ही है न कि तुमने मुझे बहलाया है
भरोसा नहीं हमपे और इश्क़ की बातें करते हो! बचपन से है तिल...कुछ लिखते समय जब कॉपी को पकड़ती हूँ तो हमेशा सामने दिखता है। ये तिल मेरे लिख हर लफ्ज का नजरबट्टू है...तुम्हें चिट्ठी लिखती हूँ तो वो थोड़ा सा फिसल कर तुम्हारे नाम के चन्द्रबिन्दु में चला जाता है।
यानि तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगा...चलो तिल भर ही सही
ऐसा कुछ पक्का नहीं...दायें हाथ में एक तिल था...अनामिका उंगली में...पता है उसके कारण वो उंगली ढूंढो वाला खेल कभी खेल नहीं पाती थी...साफ दिख जाता था...वो तिल मुझे बहुत पसंद था...कुछ साल पहले गायब हो गया। आज भी उसे मिस करती हूँ...अपना हाथ अपना नहीं लगता।

तुम चली क्यूँ नहीं जाती मुझे छोड़ कर?’
इस भुलावे में क्यूँ हो कि तुम मेरे हो? मैंने कोई हक़ जताया तुमपर कभी? कुछ मांगा? तुमने कुछ दिया मुझे कभी? तो तुम कैसे मेरे हो? आँखें मीचते उठो...मैंने आज सुबह ही उगते सूरज से दुआ मांगी है...दिल पे हाथ रख के...कि तुम मुझे भूल जाओ।

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एक दिन बाद।

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तुमसे पहली बार बात कर रहा हूँ, फिर भी तुम मुझे जाने क्यूँ बहुत अपनी लग रही हो...जैसे कितने सालों से जानता हूँ तुमको...माफ करना...पहली बार में ऐसी बातें कर रहा हूँ तुम भी जाने क्या सोचोगी...पर कहे बिना रहा नहीं गया।'
इस बार लड़की कुछ न कह सकी, उसकी आँखों में पिछले कई हज़ार साल के अश्क़ उमड़ आए।
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उस नासमझ लड़की की दोनों दुआएँ कुबूल हो गईं थी।
लड़का उसे हर सिम्त भूल जाता था।
वो उस लड़के को कोई सिम्त नहीं भूल पाती थी।

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जब हम किसी से बहुत प्यार करते हैं तो उसकी खुशी की खातिर दुआएँ मांग तो लेते हैं...पर यही दुआएँ कुबूल हो जाएँ तो जान तुम्हारी कसम...ये इश्क़ जान ले लेगा हमारी किसी रोज़ अब। 

28 January, 2012

जिंदगी से लबरेज़...मुस्कुराहटों सी खनकती हुयी...नदी सी बहती...बेपरवाह...


दुनियादारी की अदालत लगी है...मेरे घर के लोग, जान-पहचान वाले, कुछ अपने लोग, कुछ पक्के वाले दुश्मन, कुछ पुराने किस्से, कुछ टूटी कवितायें, गज़लों के कुछ बेतुके मिसरे...सब इकट्ठा हैं...वकील पूरे ताव में है...जोशो-खरोश में मुझसे सवाल कर रहा है...आपने क्या किया है अपनी जिंदगी के साथ? कोई बड़ा तीर मारा है...न सही कुछ महान लिखा है, क्या पढ़ा है, दोस्तों के नाम पर आपके पास कितने लोग हैं? कहते हैं कि भगवान ने आपको बड़ी बड़ी खूबियों से नवाजा है...आपने उनका क्या किया है। दुनियादारी के टर्म में समझाओ कि आज तक के तुम्हारी जिंदगी का हासिल क्या है? आखिर इतनी बड़ी जिंदगी बेमतलब गुजरने की सज़ा जरूरी है मिलोर्ड वरना लोग ऐसे ही खाली-पीली टाइम खोटी करते रहेंगे...मोहतरमा को जिंदगी बर्बाद करने के लिए सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...आप खुद ही इनसे पूछिये, देखिये जैसे चुपचाप खड़ी हैं...ऐसे लोगों को चैन से जीने दिया गया तो सबका जीना मुहाल हो जाएगा...आप इनसे पूछिये कि ये रेस का हिस्सा क्यूँ नहीं हैं...जब सबको कहीं न कहीं पहुँचने की हड़बड़ी है, इनके पास जिंदगी का कोई रूटमैप क्यूँ नहीं है। यायावर की जिंदगी का उदाहरण पेश कर रही हैं ये और उसपर बेशरम हो के हँसती हैं...इनसे पूछा जाए कि इनहोने अपनी पूरी जिंदगी क्या किया है?

जज साहब मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखते हैं...और दोहराते हैं...मोहतरमा...आपने अपनी जिंदगी भर क्या किया है?

मेरी आँखों में कोई गीत उन्मुक्त हो नाच उठता है...मैं मुसकुराती हूँ और पूरी जनता को देखती हूँ...वकील को और आखिर में जज साहब को। 

और जितनी जिंदगी उस एक शब्द में आ सकती है समेट कर जवाब देती हूँ...एक शब्द में...
इश्क!

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