मैं उतनी ही देर में जी लेती हूँ कई सारे मौसम. जाड़ों की कई दुपहरों को गीले बाल सुखाते हुए कर लेती हूँ अनगिनत कल्पनाएँ. मैं लौट जाती हूँ किसी उम्र में जब सलवार कुरता पहनना अच्छा लगा करता था. जब सूट के रंग से मिला कर ख़रीदा करती थी कांच की चूड़ियाँ. जब कि चूड़ीवाले की आँखें खोजती रहती थी मुझे कि एक मेरे आने से बिक जाती थीं उसकी कितने सारे रंगों की चूड़ियाँ...लाल...हरी...फिरोजी...गुलाबी...बैगनी...कि मेरी गोरी कलाइयों पर कितना तो सुन्दर लगता था कोई सा भी रंग. कितने खूबसूरत हुआ करते थे उन दिनों मेरे हाथ, कि बढ़े हुए नाखूनों पर हमेशा लगी रहती थी सूट से मैचिंग नेल पौलिश. मेरी कल्पनाओं में उभरते हैं उसके हाथ तो अपने हाथों पर अचानक से कोई मोइस्चराइजर लगाने का दिल करता है. मैं फिर से पहनना चाहती हूँ कोई नीला फिरोजी सूट और हाथों में कलाई कलाई भर सतरंगी चूड़ियाँ. मैं उसको कह देती हूँ कि मेरे लिए खरीद देना जनपथ से झुमके और मैं किन्ही ख्यालों की दुनिया में उन झुमकों का झूला डाल लेती हूँ. गोल गोल से उन झुमकों में नन्हीं नन्हीं घंटियाँ लगी हैं फिरोजी रंग कीं...जब मैं हंसती हूँ तो मेरे गालों के गड्ढे के आसपास इतराते हैं वो झुमके. याद के मौसम पर खिलती है मम्मी की झिड़की...ये क्या शादीशुदा जैसे भर भर हाथ चूड़ी पहनने का शौक़ है तुमको रे...करवा दें शादी क्या? और हम सारी उतार कर बस दायें हाथ में रख पाए हैं आधा दर्जन चूड़ियाँ. उसे कहाँ मालूम होगा कि उसके एक कॉल के इंतज़ार में कितनी चूड़ियों की गूँज घुलने लगी है. खन खन बरसता है जनवरी की रातों का कोहरा. कई कई साल उड़ते चले जाते हैं कैलेण्डर में. मेरी बालों में उतर आती है सर्दियों की शाम कोई...एकदम सफ़ेद...उसका कॉल नहीं आता.
इतनी शिद्दत से इंतज़ार के अलावा भी कुछ करना चाहिए. मैं इसलिए लिखना चाहती हूँ कहानियां मगर शब्द बहने लगते हैं जैसे आँखों में जमे हुए आँसू...कोई नदी बाँध तोड़ देती है. पैराग्रफ्स में रुकता ही नहीं कुछ. सारे शब्द टूटे टूटे से गिरते हैं एक दूसरे के ऊपर...जैसे मैं चलती हूँ डगमग डगमग...कविता बनने लगती है अपनेआप. मुझे नहीं आता होना जरा जरा सा. मुझे नहीं आता लिखना पूरा सच...मैं घालमेल करती रहती हूँ उसमें बहुत सारा कुछ और...फिर भी हर शीर्षक में दिख जाती है उसकी भूरी आँखें. मैं संघर्ष फिल्म के डायलाग को याद करती मुस्कुराती हूँ 'ये आँखें मरवायेंगी'. कागज़ पर लिखती हूँ तो कविता की जगह स्केच करने लगती हूँ उसका नाम. रुमाल पर काढ़ने के लिए बेल बूटे बनाने लगती हूँ. कागज़ पर लिखती हूँ कुछ कवितायें. कहानियों का लड़का जिद्दी हुआ जाता है और कविताओं का शायर मासूम. मुझे डर लगता है उसका दिल तोड़ने से. मैं मगर चली जाना चाहती हूँ बहुत दूर. किसी हिल स्टेशन पर. किसी शाम पैक कर लेना चाहती हूँ अपना इकलौता तम्बू और निकल जाती हूँ बिना वेदर रिपोर्ट सुने हुए. मैं जानती हूँ कि लैंडस्लाइड से बंद हो जाएगा कई दिनों तक वापस जाने का रास्ता. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा दुनिया से. या कि मरने जीने से भी. मगर मेरी एडिटर को चिंता हो जायेगी मेरी और वो कहीं से ढूंढ निकालेगी मेरा जीपीएस लोकेशन. फिर इन्डियन आर्मी को भेजा जाएगा मुझे एयरलिफ्ट करने. मैं सोचूंगी. अब भी एक जान की कीमत है हमारे देश में. मैं परेशान होउंगी कि फालतू के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं जवान...कितनी कीमती है इनकी जान...कितनी मेहनत...कितना पैसा लगा होगा इनकी ट्रेनिंग के लिए. खुदा न खास्ता किसी को कुछ हो गया तो इनकी फैमिली को क्या जवाब दूँगी. ऐसा जीना किस काम का. मैं उस क्लिफ पर लगाये गए अपने तम्बू से कूद कर जान दे देना चाहूंगी. बीच हवा में मोबाईल में आएगा एक टावर का सिग्नल. फ़ोन पर आएगी तुम्हारी आवाज़. मैं कहूँगी आखिरी बार तुमसे. आई लव यू जानम.
आँख खुलेगी तो चेहरा सुन्न पड़ा होगा. शौकिया सीखी गयी क्लिफ डाइविंग बचा लेगी मुझे उस रोज़ भी...गिरते हुए...तुम्हारी आवाज़ के ताने बाने में डूबते हुए भी शरीर खुद को मिनिमल इम्पैक्ट के लिए एंगल कर लेगा. सर्द जमी हुयी झील से मुझे निकाल लायेंगे फ़रिश्ते. आँख खुलेगी तो हेलीकाप्टर में कोई कर्नल साहब होंगे...खींच के मारेंगे थप्पड़. पागल लड़की. फिर बेहोशी छाएगी. देखूँगी उनकी आँखें तुम्हारी आँखों जैसी है. ब्राउन. दिल खुदा को देखेगा मुस्कुराते हुए. चित्रगुप्त बोलेगा. आमीन.
जब भी यहाँ आओ लहरे बहा ले जाएगी खूब डुबो, तैरो और तट को भुला जाओ :-)
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