उससे बात करते हुए उगने लगता है एक नया शहर
जिसमें हम दोनों के शहरों से उठ कर आये कुछ रस्ते हैं
कुछ गलियां, कुछ पगडंडियां और कुछ पुराने बाज़ार भी
मगर फिर ख़त्म हो जाते उसकी डायरी के पन्ने
और मुझे लिखनी होती एक पूरी किताब
सिर्फ इसलिए कि उसके नाम से रच सकूं एक किरदार
और कह सकूं दुनिया से 'कहानी के सारे पात्र काल्पनिक हैं'
जिसमें हम दोनों के शहरों से उठ कर आये कुछ रस्ते हैं
कुछ गलियां, कुछ पगडंडियां और कुछ पुराने बाज़ार भी
उसके शहर का डाकिया मुझसे पूछता है उसकी गली का पता
मेरे मोहल्ले के मोड़ पर शिफ्ट हो जाता है उसकी सिगरेट का खोमचा
फेरीवाला उसके यहाँ से खरीदता है पुराना कबाड़
और मुझे बेच देता है उसकी लिखी सारी डायरियां
मैं देर देर रात भटकती रहती हूँ बैंगलोर में
यहाँ गंध आती है उसके गाँव की
उसके लड़कपन की...
उसके आवारागर्दी के किस्सों की
मेरे मोहल्ले के मोड़ पर शिफ्ट हो जाता है उसकी सिगरेट का खोमचा
फेरीवाला उसके यहाँ से खरीदता है पुराना कबाड़
और मुझे बेच देता है उसकी लिखी सारी डायरियां
मैं देर देर रात भटकती रहती हूँ बैंगलोर में
यहाँ गंध आती है उसके गाँव की
उसके लड़कपन की...
उसके आवारागर्दी के किस्सों की
हम दोनों निकाल लाते हैं अपनी अपनी स्ट्रीट कैट
और उसके काले हैंडल पर फ़िदा होते हैं एक साथ ही
मुझे यकीन नहीं होता कि हमारे पास हुआ करती थी एक ही साइकिल
सुबहों पर मेरा नाम लिखा होता था, शामों पर उसका
हम किसी दोपहर उसी एक साईकिल पर बैठ कर निकल जाते किसी भुट्टे के खेत में
और उसके काले हैंडल पर फ़िदा होते हैं एक साथ ही
मुझे यकीन नहीं होता कि हमारे पास हुआ करती थी एक ही साइकिल
सुबहों पर मेरा नाम लिखा होता था, शामों पर उसका
हम किसी दोपहर उसी एक साईकिल पर बैठ कर निकल जाते किसी भुट्टे के खेत में
मैं उसे सिखाती गुलेल से निशाना लगाना
और वो मुझे तोड़ के देता मोहन अंकल के बगान से कच्चा टिकोरा
मैं हाफ पैंट की जेब में रखती नमक के ढेले
हम लौट कर आते तो पीते एक ही घैला से निकाला ठंढा पानी
और वो मुझे तोड़ के देता मोहन अंकल के बगान से कच्चा टिकोरा
मैं हाफ पैंट की जेब में रखती नमक के ढेले
हम लौट कर आते तो पीते एक ही घैला से निकाला ठंढा पानी
उसे बार बार लगता मैं मैथ के एक्जाम में फेल हो जाउंगी
मुझे लगता वो सारे एक्जाम में फेल हो जाएगा
जब कि हम क्लास में फर्स्ट और सेकंड आते, बारी बारी से
एक रोज़ वो खरीद लाता मेरे लिए गुलाबी चूड़ियाँ
मैं अपने दुपट्टे से पोछ देती उसके माथे पर बहता पसीना
वो मुझे वसंत पंचमी के दिन एक गाल पर लगा देता लाल अबीर
मैं इतने में हो जाती पूरी की पूरी उसकी
मुझे लगता वो सारे एक्जाम में फेल हो जाएगा
जब कि हम क्लास में फर्स्ट और सेकंड आते, बारी बारी से
एक रोज़ वो खरीद लाता मेरे लिए गुलाबी चूड़ियाँ
मैं अपने दुपट्टे से पोछ देती उसके माथे पर बहता पसीना
वो मुझे वसंत पंचमी के दिन एक गाल पर लगा देता लाल अबीर
मैं इतने में हो जाती पूरी की पूरी उसकी
मगर फिर ख़त्म हो जाते उसकी डायरी के पन्ने
और मुझे लिखनी होती एक पूरी किताब
सिर्फ इसलिए कि उसके नाम से रच सकूं एक किरदार
और कह सकूं दुनिया से 'कहानी के सारे पात्र काल्पनिक हैं'
Ati Uttam!
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-01-2015 को चर्चा मंच पर दोगलापन सबसे बुरा है ( चर्चा - 1859 ) में दिया गया है ।
ReplyDeleteधन्यवाद
ये उगे हुए शहर बड़े ही दिलकश है.... वाह्ह्ह्.
ReplyDeleteमासूम दिल धीरे धीरे बड़ा होकर दुनिया में कहीं खो जाता है फिर रह जाती हैं यादें जहाँ फिर लौटना मुमकिन नहीं होता ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ह्रदृयस्पर्शी रचना ..
सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमकर संक्रान्ति की शुभकामनायें
मैं इस कविता की समीक्षा नहीं कर रहा सिर्फ़ इतना बता रहा हूँ कि 1- यह कविता है ही नहीं, 2- यह गाँव की एक टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डी है ......3- जिस पर एक अरसे बाद कोई बुल्ली सी लड़की धूल के गुबार उड़ाती चल रही है, 4- कि वह बुल्ली लड़की पेड़ पर चढ़ना चाहती है लेकिन एक लड़का उसे चढ़ने नहीं देता, 5- क्योंकि उसके गाँव में लड़कियों को पेड़ पर चढ़ने की मनाही है, 6- लड़की सोच लेती है कि एक दिन वह सबसे ऊँचे पेड़ पर चढ़कर ही दम लेगी, 7- कि इस अकवितानुमा कविता में कविता के असली वाले रा मटेरियल की सोंधी ख़ुश्बू है, गोया पहली वारिश की बौछार पड़ते ही गमक उठी हो खेत की माटी, 8- .....अभी बहुत कुछ बाकी है ....वो फिर कभी ...
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