लोगों के सीखने का तरीका अलग अलग होता है. कुछ लोग किताबों से सीखते हैं...कुछ फिल्मों से तो कुछ अपनी तरह का रिसर्च करते हैं. मैं सोचती हूँ कि मैं क्या क्या कैसे कैसे सीखती हूँ...तो अब तक देखा है कि जिंदगी में इश्क से बहुत कुछ सीखा जा सकता है. हर बार जब इस मुसीबत से सामना होता है तो जिंदगी अलग रंग में नज़र आती है. सब कुछ बदल जाता है...सिगरेट की ब्रैंड...पसंद की ड्रिंक...पसंद का परफ्यूम...इश्क हमें हर कुछ दिन में पुनर्नवा कर देता है. हम कोई और ही हो जाते हैं...और अक्सर पहले से न्यू इम्प्रूव्ड वर्शन ही बनते हैं.
इश्क में होने पर महबूब की सारी चीज़ें अच्छी लगती हैं...तो हम धीरे धीरे सब जानना शुरू करते हैं...उसका परिवेश...उसके शौक़...उसकी पसंद की ड्रिंक्स...चाय कैसी पसंद है उसे...आलम यहाँ तक हुआ है कि मुहब्बत में हमने चाय तक पीनी शुरू की है...बतलाइये, लोग देवदास को गाली देते हैं कि दारू पी के मर गया...हमारे लिए चाय दारू से ज्यादा बड़ी चीज़ थी. कसम से. बचपन से लेकर अब तक, जिंदगी में सिर्फ तीन कप चाय पिए थे. पहली बार कॉलेज के सेकंड इयर में एजुकेशनल ट्रिप पर गए थे...वहां सब को चाय सर्व की गयी, तो बोला गया कि न पीना बदतमीजी होगी. तो बड़ी मुश्किल से आधा कप गटके. वो था जिंदगी का पहला चाय का कप. दूसरी बार दिल्ली में एक दोस्त ने जिद करके पिलाई थी...सर्दियों के कमबख्त से दिन थे खांसी हो रखी थी...गला दर्द. उसने कहा अदरक डाल के चाय बना रही हूँ, चुप चाप पी...मेरे हाथ की चाय को कोई मना नहीं करता. तीसरी बार एक्स-बॉयफ्रेंड ने पिलाई थी. ब्रेक ऑफ के कई सालों बाद मिला था. उसकी जिद थी, मेरे हाथ की चाय पियो...बहुत अच्छी बनाता हूँ. उसके सामने जिद करने का मन नहीं किया. याद कर रही हूँ तो जाने क्यूँ लग रहा है कि इतना रोना आ रहा था कि चाय नमकीन लगने लगी थी. आखिरी बार मिल भी तो रही थी उससे.
मुझे भी क्या क्या न जानना होता है उसके बारे में. तुम्हें चाय कैसी पसंद है? 'कड़क...बहुत कड़क'. मैं कहीं याद में घूमती भटकती इस शब्द के साथ कुछ तलाशने की कोशिश करती. कुछ हाथ नहीं आता. क्या कमज़र्फ शय है ये मुहब्बत भी कसम से. जिस चीज़ को कभी कॉलेज में हाथ नहीं लगाया...पीयर प्रेशर के सामने नहीं झुके...सो उसने बस बताया कि उसे चाय बहुत पसंद है और हम हो गए चाय के मुरीद. कॉफ़ी से पाला बदल लिया.
चाय की पहली याद है दार्जलिंग की...चाय बागानों में जाने के लिए एक रोपवे होता है...उस छोटे से झूलते केबिन में खिड़कियाँ थीं...बीच में यूँ लग रहा था जैसे स्वर्ग में आ गए हों...चारों तरफ बादल ही बादल...नीचे ऊपर...सब ओर. बहुत बहुत दूर तक चाय के बगान...चाय के प्लांट्स में सूखती चाय की पत्तियां...चाय बनाने का पूरा प्रोसेस...वो तीखी मीठी गंध याद रही थी बहुत दिन तक. घर पर लोगों को मेरे हाथ की चाय बहुत पसंद थी. फरमाइशी चाय हुआ करती थी हमारी...कभी अदरक, कभी इलायची, कभी दालचीनी...जो मूड में आया वो डाल दिए. खुशबू से जानते थे कि चाय बनी है कि नहीं. मालूम, अपने हाथ की चाय खुद कभी नहीं टेस्ट किये हैं. आज तक भी.
'व्हाट?...तुमने चाय पीनी छोड़ दी है...कि मैं नहीं पीती इस लिए...ब्लडी इडियट...डैम इट...इश्क़ साला फिर से हमसे बाज़ी मार ले गया!'
आपकी लिखी रचना शनिवार 17 जनवरी 2015 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeletePuja जी मजा आ गया ...चाये का .....बहुत रोचक स्टाइल में लिखती है आप ...बधाई
ReplyDeleteप्यार जैसा है चाय का चस्का ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति